Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 2 : अँग्रेजों के आगमन के समय भारत की राजनीतिक स्थिति – 1

अँग्रेज भारत में समुद्री मार्ग से 1608 ई. में आये। उस समय भारत में मुगल बादशाह जहाँगीर का शासन था। मुगलों की केन्द्रीय सत्ता अत्यंत प्रबल थी। दक्षिण भारत के राज्य मुगलों की सीमा पर स्थित थे। अँग्रेजों के आगमन से बहुत पहले अर्थात् 1498 ई. से पुर्तगाली भारत में व्यापार कर रहे थे। डचों को भारत में आये हुए केवल चार साल हुए थे। इन्हीं राजनीतिक परिस्थितियों के बीच अँग्रेजों ने विनम्र प्राथी बनकर भारत में अपनी व्यापारिक गतिविधियाँ आरम्भ कीं जिनका विवरण पिछले अध्याय में दिया जा चुका है। सत्रहवीं सदी के अन्त तक बम्बई, कलकत्ता और मद्रास आदि समुद्री तट, ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गतिविधियों के मुख्य केन्द्र बन चुके थे। साथ ही देश के आन्तरिक भागों में पटना, अहमदाबाद, आगरा, बुरहानपुर आदि नगरों में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित कर लिये थे।

कम्पनी द्वारा भारत में साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न

बहुत से इतिहासकारों का कथन है कि 1608 से 1740 ई. तक ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में व्यापारिक कम्पनी की तरह काम करती रही। यह कथन बिल्कुल गलत है। वास्तविकता यह है कि कम्पनी अपने व्यापार को तलवार के बल पर बढ़ाती रही। औरंगजेब के जीवन काल में ही कम्पनी ने भारत में विनम्र प्रार्थी की भूमिका त्यागने का भरसक प्रयास किया। वह भारतीयों से बलपूर्वक सस्ता माल खरीदकर भारतीयों को महंगा माल बेचती थी। जो निर्धन भारतीय उत्पादक एवं भारतीय नौकर, ऐसा नहीं करते थे, उन्हें कम्पनी के आदमी कोड़ों से पीटते थे।

1680 के दशक में बम्बई के गवर्नर जेराल्ड आन्जियर ने कम्पनी के लन्दन स्थित निदेशकों को लिखा- ‘समय की मांग है कि आप अपने वाणिज्य का प्रबन्ध अपने हाथों में तलवार लेकर करें।’

1687 ई. में कम्पनी के निदेशकों ने मद्रास के गवर्नर को सलाह दी- ‘आप नागरिक और सैनिक सत्ता की ऐसी नीति स्थापित करें और राजस्व की इतनी बड़ी राशि का सृजन कर उसे प्राप्त करें कि दोनों को सदा के लिये भारत पर एक विशाल सुदृढ़ सुरक्षित आधिपत्य के आधार के रूप में बनाए रखा जा सके।’

मुगलों से सशस्त्र संघर्ष

औरंगजेब के जीवन काल में ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी की उग्र नीतियों के कारण कम्पनी के अधिकारियों और मुगल अधिकारियों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ जो सशस्त्र संघर्ष में बदल गया। 1686 ई. में कम्पनी ने हुगली को लूट लिया तथा मुगल बादशाह के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। औरंगजेब ने अँग्रेजों के विरुद्ध सख्त कदम उठाये। उसकी सेनाओं ने अँग्रेजों को बंगाल के कारखानों से निकालकर बाहर कर दिया। अँग्रेज भागकर गंगा के मुहाने पर स्थित एक ज्वर-ग्रस्त टापू पर चले गये। सूरत, मच्छलीपट्टम् और विशाखापट्टम् स्थित कारखानों पर भी मुगलों ने अधिकार कर लिया। बम्बई के किले को मुगल सेनाओं ने घेर लिया। मुगल सेना की ऐसी शक्ति देखकर अँग्रेज पुनः विनम्र प्रार्थी की भूमिका में आ गये। उन्होंने औरंगजेब से निवेदन किया कि कम्पनी ने बिना सोचे-समझे जो भी अपराध किये हैं, उन्हें क्षमा कर दिया जाये। उन्होंने भारतीय शासकों के संरक्षण में व्यापार करने की इच्छा व्यक्त की। वे एक बार पुनः चापलूसी और विनम्र याचनाओं पर उतर आये।

औरंगजेब ने डेढ़ लाख रुपया क्षतिपूर्ति लेकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों को क्षमा कर दिया क्योंकि उसका मानना था कि कम्पनी द्वारा चलाए जा रहे विदेशी व्यापार से भारतीय दस्तकारों और सौदागरों को लाभ होता है तथा इससे राज्य का खजाना समृद्ध होता है। इस प्रकार अँग्रेजों को पहले की भाँति भारत में व्यापार करने की अनुमति मिल गई।

कम्पनी एक ओर तो मुगल बादशाह से क्षमा याचना की नीति अपना रही थी किंतु दूसरी ओर वह अपने उग्र तरीकों को छोड़ने के लिये तैयार नहीं थी। 1689 ई. में कम्पनी ने घोषणा की- ‘अपने राजस्व की वृद्धि हमारी चिंता का उतना ही विषय है जितना हमारा व्यापार। जब बीस दुर्घटनाएं हमारे व्यापार में बाधा डाल सकती हैं, तब यही है जो हमारी ताकत को बनाए रखेगी। यही है जो हमें भारत में एक राष्ट्र बनाएगी…….।’

औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी

1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगलों की शक्ति पतनोन्मुख हो गई। यद्यपि मुगलों का अन्तिम बादशाह बहादुरशाह जफर 1858 ई. तक दिल्ली के तख्त का स्वामी बना रहा तथापि मुगलों की वास्तविक सत्ता 1800 ई. से काफी पहले ही समाप्त हो चुकी थी। शक्तिशाली सार्वभौम सत्ता के अभाव में विभिन प्रान्तों के सूबेदार केन्द्रीय सत्ता के नियंत्रण से मुक्त होकर स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करने लगे। मुगलों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं होने से मुगल शहजादे परस्पर युद्ध के माध्यम से ही उत्तराधिकार का निर्णय करते थे। इस कारण मुगल सल्तनत में बिखराव की गति बहुत तीव्र रही।

औरंगजेब के बड़े पुत्र मुहम्मद मुअज्जम ने अपने भाइयों को युद्ध में मारकर बहादुरशाह (प्रथम) (1707-12 ई.) के नाम से तख्त पर अधिकार किया। उसने राजपूतों, सिक्खों और मराठों को दबाने का असफल प्रयास किया। फिर भी, उसके समय में मुगल सल्तनत में स्थिरता बनी रही। बहादुरशाह की मृत्यु के बाद, ईरानी अमीर दल के नेता जुल्फिकार खाँ की सहायता से जहाँदारशाह अपने भाइयों को परास्त करके 1713 ई. में तख्त पर बैठा। वह 10 माह में ही सैयद बंधुओं द्वारा तख्त से हटा दिया गया। इस प्रकार 1713 ई. में अमीरों द्वारा बादशाह की हत्या करके अपनी पसंद के शहजादों को मुगल तख्त पर बैठाने का जो सिलसिला आरम्भ किया, वह 1806 ई. में अकबर (द्वितीय) के तख्त पर बैठने के बाद ही समाप्त हुआ। जहाँदारशाह के बाद उसके मृत भाई अजीम-उस-शान के पुत्र फर्रूखसियर (1713-19 ई.) को बादशाह बनाया गया। अब फर्रूखसियर और सैयद भाइयों में सत्ता के लिये खुलकर संघर्ष हुआ। फर्रूखसियर ने सैयद भाइयों से मुक्त होने का प्रयास किया परन्तु सैयद भाइयों ने मराठों तथा राजपूतों के सहयोग से उसे मार डाला। इसके बाद सैयदों ने 1719 ई. में, एक ही वर्ष में एक-एक करके रफी-उद्-दरजात, रफीउद्दौला और मुहम्मदशाह रंगीला को तख्त पर बैठाया।

नादिरशाह का आक्रमण

मुहम्मदशाह 1748 ई. तक राज्य करता रहा। उसके समय में 1739 ई. में नादिरशाह का आक्रमण हुआ। नादिरशाह भारत से लगभग 70 करोड़ रुपये की सम्पदा लूटकर ले गया जिसमें कोहिनूर हीरा तथा शाहजहाँ का तख्ते-ताउस भी सम्मिलित था। नादिरशाह के आक्रमण से मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा और स्थायित्व को गहरा धक्का लगा। मुहम्मदशाह के पश्चात् अहमदशाह ने 1748 से 1754 ई. तक तथा आलमगीर (द्वितीय) ने 1754 से 1759 ई. तक दिल्ली पर शासन किया परन्तु दोनों में से किसी में भी इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि साम्राज्य के पतन को रोक सके।

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