शिकागो सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द ने कहा- मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू-धर्म का प्रतिपादन ब्रह्मसमाज और आर्य समाज की अपेक्षा अधिक मनोबल एवं सम्मान से किया। राजा राममोहन राय हिन्दू-धर्म के लिये क्षमायाचक से अधिक नहीं थे। भारतीय हिन्दू-धर्म को उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में देखा।
स्वामी दयानन्द ने वेदों में निहित ज्ञान को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया तथा ईसाई मिशनरियों के आरोपों का प्रत्युत्तर दिया। स्वामी विवेकानन्द ने समस्त वेदान्त की सैद्धान्तिक व्याख्या करके हिन्दू-धर्म को पाश्चात्य धर्म में उपलब्ध ज्ञान से उच्चतर बताया।
स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के दत्त परिवार में हुआ। बचपन में उनका नाम नरेन्द्र दत्त था। उन्होंने एक अँग्रेजी कॉलेज से बी. ए. की डिग्री प्राप्त की। उन पर यूरोप के बुद्धिवाद और उदारवाद का भारी प्रभाव था। उन्होंने जॉन स्टुअर्ट मिल, हर्बर्ट, स्पेन्सर, रूसो जैसे पाश्चात्य दार्शनिकों का गहन अध्ययन किया।
उनमें उच्चकोटि की बौद्धिकता के साथ-साथ जिज्ञासा-भाव भी प्रबल था। आरम्भ में वे ब्रह्मसमाज की ओर आकर्षित हुए किन्तु ब्रह्मसमाज के उपदेशक, उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शान्त नहीं कर सके। किसी सम्बन्धी के कहने पर ई.1881 में उन्होंने दक्षिणेश्वर मंदिर जाकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस से भेंट की।
रामकृष्ण परमहंस परम्पारगत हिन्दू-धर्म के प्रतीक थे, जबकि नरेन्द्र दत्त पश्चिमी शिक्षा, तर्क, विचार और बुद्धिवाद में विश्वास करने वाले थे। रामकृष्ण के सम्पर्क से नरेन्द्र के जीवन की दिशा ही बदल गई। स्वामी रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उनके बहुत से शिष्य अपने-अपने घरों को चले गये किन्तु नरेन्द्र दत्त ने अपने तीन-चार साथियों के साथ काशीपुर के निकट बारा-नगर में एक टूटे हुए मकान में रहना आरम्भ किया।
ई.1887 में प्रथम बार इस मठ को, धार्मिक रूप में स्थापित किया गया। उस समय मठ के 12 सदस्यों ने वैदिक क्रियाओं के अनुसार सन्यास ग्रहण किया और अपने नाम भी बदल लिये। उसी समय नरेन्द्र दत्त का नाम स्वामी विवेकानन्द रखा गया।
शिकागो सर्व-धर्म-सम्मेलन में स्वामी विवेकाननन्द
संन्यास ग्रहण करने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने भारत भ्रमण किया। जब वे कन्याकुमारी पहुँचे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि अमेरिका के शिकागो नगर में विश्व के समस्त धर्मों की एक सभा हो रही है। ई.1893 में बड़ी कठिनाई से वे अमेरिका पहुँचे। इस सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने हिन्दुत्व के उज्वल पक्ष को इतने प्रभावशाली ढंग से विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया कि सम्पूर्ण विश्व में हिन्दू-धर्म की धूम मच गई। विश्व स्तर पर इस तरह का कार्य इससे पहले कभी नहीं हुआ था। स्वामी विवेकानंद की इस विदेश यात्रा के तीन मुख्य उद्देश्य थे-
(1.) स्वमी विवेकानंद इस यात्रा के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व को यह संदेश देना चाहते थे कि विश्व के समस्त धर्म, एक ही धर्म के विभिन्न अंग हैं। सम्पूर्ण विश्व में एक प्रकार की धार्मिक एकता का भाव जागृत होना चाहिए।
(2.) विवेकानंद अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों के समक्ष यह उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते थे कि यदि भारतवासी स्वयं को ऊँचा उठायें तो पश्चिम के सुशिक्षित एवं सुसम्पन्न लोग भी भारतीयों का आदर करने के लिये विवश होंगे।
(3.) विवेकानंद भारतीयों के इस भय को दूर करना चाहते थे कि समुद्र-यात्रा करने तथा विदेशियों के हाथ का अन्न-जल ग्रहण करने से धर्म और जाति नष्ट हो जाते हैं।
शिकागो नगर के सर्व-धर्म-सम्मेलन में स्वामीजी ने हिन्दू-धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। उन्होंने सम्मेलन में जिस ज्ञान, जिस उदारता, जिस विवेक और जिस वाक्शक्ति का परिचय दिया, उससे विश्व भर से आये लोग विस्मित रह गये। उनके भाषणों ने श्रोताओं को मन्त्र-मुग्ध किया।
जब स्वामी विवेकानन्द ने अपने प्रथम भाषण में अमेरिका वासियों को ‘भाइयो और बहिनो!’ कहकर सम्बोधित किया तो विश्व के आश्चर्य का पार न रहा कि एक मानव संसार के समस्त मनुष्यों का भाई हो सकता है। उनके देश में सार्वजनिक आयोजनों में माई फैलो सिटीजन्स अथवा माई फैलो कन्ट्रीमैन कहने की परम्परा थी। इस सम्बोधन से एक मानव का दूसरे मानव से कोई आत्मिक सम्बन्ध स्थापित नहीं होता था। इसलिये स्वामीजी द्वारा कहे गये- ‘ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स!’ सम्बोधन का बड़ी देर तक भारी करतल-ध्वनि से स्वागत हुआ।
इस सम्मेलन की सभाएँ प्रतिदिन होती थीं। स्वामीजी ने अपने भाषण सभा के अन्त में ही दिये, क्योंकि सारी जनता उन्हीं का भाषण सुनने के लिए अन्त तक बैठी रहती थी। उन्होंने हिन्दू-धर्म की उदारता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हिन्दुत्व के शब्दकोष में असहिष्णु शब्द ही नहीं है। हिन्दू-धर्म का आधार शोषण, रक्तपात या हिंसा नहीं है, वरन् प्रेम है।
स्वामीजी ने वेदान्त के सत्य पर भी प्रकाश डाला। जब तक सम्मेलन समाप्त हुआ, तब तक स्वामीजी अपना तथा भारत का प्रभाव अमेरिका में अच्छी तरह स्थापित कर चुके थे। स्वामीजी के भाषणों की प्रशंसा में अमेरिका के समाचार पत्र द न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा- ‘सर्व-धर्म-सम्मेलन में सबसे महान् व्यक्ति विवेकानन्द हैं। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसे ज्ञानी, देश को सुधारने के लिए धर्म-प्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खतापूर्ण है!’
इस सम्मेलन के बाद स्वामी विवेकानन्द लगभग तीन वर्ष तक विदेशों में वेदान्त पर भाषाण करते रहे। उनके भाषणों, वार्तालापों, लेखों और वक्तव्यों के द्वारा यूरोप व अमेरिका में हिन्दू-धर्म और संस्कृति की प्रतिष्ठा स्थापित हुई। फरवरी 1896 में उन्होंने न्यूयार्क में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की जिसका लक्ष्य वेदान्त का प्रचार करना था।
अमेरिका में उनके अनेक अनुयायी हो गये जो चाहते थे कि कुछ भारतीय धर्म-प्रचारक, अमेरिका में भारतीय दर्शन तथा वेदान्त का प्रचार करें और उनके अमेरिकी शिष्य भारत जाकर विज्ञान और संगठन का महत्त्व सिखायें।
स्वामी विवेकानन्द ने भारत लौटकर मई 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की तथा 1 जनवरी 1899 को वेलूर में मिशन का मुख्यालय स्थापित किया। जून 1899 में वे दूसरी बार अमेरिका गये तथा लॉस एंजिल्स, सैनफ्रांसिस्को, केलिफोर्निया आदि विभिन्न नगरों में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की। यहाँ से वे एक धार्मिक सम्मेलन में भाग लेने पेरिस गये जहाँ उन्होंने हिन्दू-धर्म पर भाषण दिया। अपने विदेश प्रवास में स्वामीजी ने हिन्दू-धर्म का व्यापक प्रचार किया।
प्रायः डेढ़ सौ वर्षों से ईसाई धर्म प्रचारक विश्व में हिन्दुत्व की आलोचना एवं निन्दा कर रहे थे। उन आलोचनाओं और निंदाओं पर विवेकानंद ने रोक लगा दी। जब भारतवासियों को ज्ञात हुआ कि समस्त पश्चिमी जगत् स्वामीजी के मुख से हिन्दुत्व का आख्यान सुनकर गद्गद् हो रहा है, तब हिन्दू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव का अनुभव करने लगे।
ई.1900 में स्वामीजी सम्पूर्ण यूरोप का दौरा कर पुनः भारत लौटे। अब उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था। इसी कारण वे बनारस गये। वहाँ से कलकत्ता वापिस आने पर उनका स्वास्थ्य फिर खराब हो गया और 4 जुलाई 1902 को मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
स्वामी विवेकानंद द्वारा हिन्दू-धर्म के लिये की गई सेवाओं की प्रश्ंसा करते हुए रामधारीसिंह दिनकर ने लिखा है- ‘हिन्दुत्व को लीलने के लिए अँग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म ओर यूरोपीय बुद्धिवाद के पेट से जो तूफान उठा था, वह स्वामी विवेकानन्द के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकराकर लौट गया। हिन्दू जाति का धर्म है कि वह जब तक जीवित रहे, विवेकानन्द की याद उसी श्रद्धा से करती जाये, जिस श्रद्धा से वह व्यास और वाल्मीकि को याद करती है।’
स्वामी विवेकानंद के धार्मिक सुधार
स्वामी विवेकानन्द ने विश्व धर्म सम्मेलन में विश्व के समस्त धर्मों की सत्यता में विश्वास व्यक्त किया। उन्हें जितनी आस्था वेदों में थी, उतनी ही आस्था उपनिषदों, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में भी थी। उन्हें ईश्वर के निराकार रूप की उपासना में जितनी रुचि थी, उतनी ही साकार रूप में थी। उन्होंने धार्मिक उदारता, समानता और सहयोग पर बल दिया। उन्होंने धार्मिक झगड़ों का मूल कारण बाहरी चीजों पर अधिक बल देना बताया। उनके अनुसार सिद्धान्त, धार्मिक क्रियाएँ, पुस्तकें, मस्जिद तथा गिरजाघर, ईश्वरीय उपासना के साधन मात्र हैं। इस कारण इन पर अधिक बल नहीं देना चाहिये।
स्वामी विवेकानन्द ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा- ‘धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है; धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धान्तों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है…….
….. मनुष्य सर्वत्र अन्न ही खाता है किन्तु हर देश में अन्न से भोजन तैयार करने की विधियाँ अनेक हैं। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है और देश-देश में उसके भी अनेक रूप हैं। इससे यह स्पष्ट है कि समस्त धर्मों में मूलभूत एकता है, यद्यपि उसके स्वरूप भिन्न हैं। उन्होंने अन्य धर्म-प्रचारकों को बताया कि भारत ही ऐसा देश है जहाँ कभी धार्मिक भेदभाव नहीं हुआ। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि धर्म-परिवर्तन से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि प्रत्येक धर्म का लक्ष्य समान है। उन्होंने ईसाई धर्म के अनुयायियों को स्पष्ट किया कि भारत में ईसाई धर्म के प्रचार से उतना लाभ नहीं हो सकता जितना पश्चिमी औद्योगिक तकनीकी तथा आर्थिक ज्ञान से हो सकता है। भारत पर विजय राजनीतिक हो सकती है, सांस्कृतिक नहीं।’
स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू समाज को सन्देश दिया कि हिन्दू राष्ट्र, विश्व का शिक्षक रहा है और भविष्य में भी रहेगा। प्रत्येक हिन्दू को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करनी चाहिये और साथ ही पाश्चात्य शिक्षा को भी अपनाना चाहिये अन्यथा हमारा उत्थान सम्भव नहीं है। उन्होंने दर्शन के सत्य की सुन्दर ढंग से व्याख्या की और बताया कि वेदान्त की आध्यात्मिकता के बल पर भारत सारे विश्व को जीत सकता है।
विवेकानन्द वेदान्त की परम्परागत व्याख्या से सहमत नहीं थे। भारतीय संत, सांसारिक जीवन से विमुख होकर ध्यान-समाधि द्वारा ब्रह्म से साक्षात्कार का उपदेश देते थे किन्तु विवेकानन्द ने कहा कि ब्रह्म से साक्षात्कार करने के लिए सांसारिक जीवन से विमुख होना अनुचित है। सच्ची ईश्वरोपासना यह है कि हम अपने मानव बन्धुओं की सेवा में अपने आपको लगा दें।
स्वामी विवेकानन्द ने दीन-दुःखी तथा दरिद्र मानव को ईश्वर का रूप बताया और उसके लिए दरिद्रनारायण शब्द का प्रयोग किया। जब पड़ौसी भूखा हो तब मन्दिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, अपितु पाप है। स्वामीजी की इन घोषणाओं ने धार्मिक क्षेत्र में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। जो लोग पश्चिम की भौतिकता तथा बुद्धिवाद से प्रभावित होकर ईसाइयत अथवा नास्तिकता की ओर दौड़ रहे थे, वे फिर से हिन्दू-धर्म में विश्वास करने लगे।
स्वामी विवेकानंद की मान्यता थी कि- ‘तुम समस्त व्यक्तियों की विचारधारा को एक नहीं कर सकते, यह सत्य है और मैं इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ। विचारों की भिन्नता और संघर्ष से ही नवीन विचार जन्म लेते हैं।’
स्वामी विवेकानन्द के समाज सेवा कार्य
(1.) मानवमात्र की सेवा को प्राथमिकता
स्वामी विवेकानंद ने अपने उपदेशों में मानव मात्र की सेवा को सबसे महत्त्वपूर्ण बताया। वे शिक्षा, स्त्री-पुनरुद्धार तथा आर्थिक प्रगति के पक्षधर थे। उन्होंने रूढ़िवाद, अन्धविश्वास और अशिक्षा की आलोचना की तथा कहा- ‘जब तक करोड़ों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्च पर शिक्षा प्राप्त करता है किन्तु उनकी परवाह बिल्कुल नहीं करता।’ उन्होंने हिन्दू सन्यासियों को संकीर्णता से निकलकर मानव मात्र की सेवा करने को कहा।
(2.) देशवासियों के उत्थान हेतु नर्क में रहना स्वीकार
स्वामी विवेकानंद की मान्यता थी कि देश की गरीबी को दूर करना आवश्यक है। वे कहते थे कि देशवासियों के उद्धार के पुनीत कार्य के लिये उन्हें मोक्ष छोड़कर नरक में भी जाना स्वीकार है।
(3.) अस्पश्र्यता का विरोध
स्वामीजी छुआछूत के घोर विरोधी थे तथा जन्म पर आधारित वर्ण-भेद को नहीं मानते थे। उन्होंने अन्ध-विश्वासी और छुआछूत में विश्वास करने वाले सन्यासियों और ब्राह्मणों की तीव्र आलोचना की। वे थियोसॉफिकल सोसायटी से भिन्न विचार रखते थे, क्योंकि थियोसॉफिकल सोसायटी अन्ध-विश्वासों और तन्त्र-विद्या को प्रोत्साहन दे रही थी।
(4.) आध्यात्मिकता से आत्म-निर्माण
स्वामी विवेकानंद सामाजिक सुधारों में विश्वास नहीं करते थे। उनका कहना था कि आध्यात्मिकता से आत्म-निर्माण होता है जिससे देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति सम्भव है। आध्यात्मिक उन्नति के माध्यम से वे मनुष्य को मनुष्य बनाना चाहते थे और उसी को प्रगति मानते थे।
(5.) संगठित प्रयत्नों पर बल
विवेकानंद ने जन-कल्याण के लिये संगठित प्रयत्नों पर बल दिया तथा रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जहाँ दीन-दुखियों की सहायतार्थ विभिन्न जातियाँ, वर्ग और धर्म मिल सकते थे। उनका कहना था कि गरीबों की सहायता करना ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में एक यज्ञ होगा। विवेकानन्द की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि उन्होंने सन्यासियों के समक्ष व्यक्ति-निष्ठ मोक्ष की अपेक्षा समाज सेवा का आदर्श प्रस्तुत किया।
(6.) भारतीयों में आत्म-सम्मान की उत्पत्ति
स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी देशों में हिन्दुओं की आध्यात्मिक उपलब्धियों की चर्चा करके हिन्दुओं की हीन भावना को समाप्त करने का प्रयास किया। भारतीयों में आत्म-विश्वास उत्पन्न करना स्वामीजी की महान् देन है।
स्वामी विवेकानन्द द्वारा राष्ट्रीयता का निर्माण
स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्रीयता के निर्माण में विपुल योगदान दिया। उन्होंने हिन्दू-धर्म और आध्यात्मवाद की श्रेष्ठता को स्थापित करके हिन्दुओं में आत्मगौरव और देश-प्रेम उत्पन्न किया। उन्होंने वेदान्त की व्याख्याओं के माध्यम से यह सिद्ध किया कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में ईश्वर की ज्योति देख सकता है। जिस प्रकार ईश्वर सदा स्वतन्त्र है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति भी सदा स्वतन्त्र है।
पश्चिमी राजनीति तथा अन्य संस्थाओं के पीछे जो भारतीय दौड़ रहे हैं, उन्हें ध्यान रखना चाहिये कि पश्चिमी देशों में व्यापक असन्तोष है, जबकि उनके यहाँ वे संस्थाएँ कई पीढ़ियों से चल रही है। स्वामी विवेकानन्द ने देश में सांस्कृतिक चेतना की जो धारा प्रवाहित की, उस पर भारतीय राष्ट्रीयता का भव्य भवन खड़ा किया जा सका।
उन्होंने कहा कि आध्यात्मिकता के बल से विश्व पर सांस्कृतिक विजय प्राप्त की जा सकती है किन्तु जब तक भारत दासता की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है, वह इस महत्त्वपूर्ण भूमिका को नहीं निभा सकता। उनकी मान्यता थी कि भारत की राजनैतिक स्वतन्त्रता विश्व मानवता के उद्धार के लिये अनिवार्य है। उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक स्वाधीनता की भावना जागृत की।
स्वामीजी ने भगवद्गीता के कर्मयोगी श्रीकृष्ण को भारतीय राष्ट्र का आदर्श बताया। वास्तव में विवेकानंद ने देशभक्ति और समाज सेवा के जिन आदर्शों का प्रतिपादन किया, उनसे भारत में देश-प्रेम की भावना नये सिरे से विकसित हुई।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- ‘यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकाननद को पढ़ना चाहिए।’
महर्षि अरविन्द ने लिखा है- ‘पश्चिमी जगत में विवेकानन्द को जो सफलता मिली, वही इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल मृत्यु से बचने को जागृत नहीं हुआ है, एक बार इस हिन्दू सन्यासी को देख लेने के पश्चात् उसे और उसके संदेश को भुला देना कठिन है।’
विवेकानंद की मृत्यु के बाद उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ने उनके महान् कार्यों को आगे बढ़ाया। इस संस्था के द्वारा अँग्रेजी भाषा का मासिक प्रबुद्ध भारत तथा बंगाली भाषा का पाक्षिक उद्बोधन प्रकाशित गए। कई ग्रन्थों में स्वामी विवेकानन्द के भाषणों का प्रकाशन हुआ। रामकृष्ण मिशन की शाखाएँ भारत के विभिन्न नगरों में विद्यमान हैं तथा विविध प्रकार के कल्याणकारी कार्य यथा- चिकित्सालय, अनाथालय, विद्यालय, वाचनालय आदि का संचालन कर रही हैं।
मुख्य लेख : उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी के समाज-सुधार आंदोलन
राजा राममोहन राय और उनका ब्रह्मसमाज
आत्माराम पाण्डुरंग और प्रार्थना समाज
स्वामी श्रद्धानंद का शुद्धि आंदोलन
स्वामी विवेकानन्द