अँग्रेजों के आगमन के समय मुगल सत्ता अंतिम सांसें ले रही थी तथा भारत की राजनीतिक स्थिति में मराठा शक्ति महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी।
मराठा शासक (छत्रपति)
मराठा शक्ति की स्थापना छत्रपति शिवाजी ने की थी जिनका इतिहास हम मध्यकालीन भारत का इतिहास में पढ़ चुके हैं। शिवाजी के काल में भी अंग्रेज और फ्रांसीसी कम्पनियाँ भारतीय शक्तियों से संघर्ष करने लगी थीं किंतु शिवाजी ने उन्हें अपने क्षेत्र में पूरी तरह दबाकर रखा था। शिवाजी के बाद मराठा शक्ति का तेजी से क्षरण हुआ जिसके कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया।
शम्भाजी
1680 ई. में छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद उनका ज्येष्ठ पुत्र शम्भाजी गद्दी पर बैठा किंतु औरंगजेब ने बीजापुर और गोलकुण्डा को हस्तगत करने के बाद अपनी सम्पूर्ण शक्ति मराठों के विरुद्ध लगा दी। शम्भाजी को कैद करके दिल्ली ले जाया गया जहाँ उसके टुकड़े-टुकड़े करके कुत्तों को खिला दिया गया।
राजाराम
मराठों ने शम्भाजी के भाई राजाराम के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। मुगलों ने रायगढ़ दुर्ग पर आक्रमण करके राजाराम को घेर लिया। शम्भाजी की विधवा रानी येशुबाई की सलाह पर राजाराम सुदूर दक्षिण की ओर चला गया किन्तु विश्वासघात के कारण शम्भाजी की विधवा रानी येशुबाई और उसका पुत्र शाहू मुगलों द्वारा कैद कर लिये गये।
ताराबाई
1700 ई. में राजाराम की मृत्यु के बाद राजाराम की विधवा रानी ताराबाई ने अपने तीन वर्षीय पुत्र शिवाजी (द्वितीय) को छत्रपति की गद्दी पर बैठा दिया और मराठों का नेतृत्व ग्रहण कर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा।
शाहू
फरवरी 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों- मुअज्जम और आजम के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ। इस समय आजम दक्षिण में था, अतः उत्तर की तरफ जाते समय वह अपने साथ शाहू और उसके परिवार को, जो मुगलों की कैद में थे, भी ले गया। मार्ग में मुगल सेनानायक जुल्फिकार खाँ की सलाह पर आजम ने शाहू को मुक्त कर दिया किंतु शाहू के परिवार को अपने साथ दिल्ली ले गया।
औरंगजेब की कैद से मुक्त होकर शाहू महाराष्ट्र के लिये रवाना हुआ। महाराष्ट्र पहुँचते-पहुँचते उसके पास एक बड़ी सेना हो गई। ताराबाई ने अपने पुत्र शिवाजी (द्वितीय) को छत्रपति बनाये रखने के लिये, शाहू का विरोध किया। अतः शाहू और ताराबाई की सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें ताराबाई परास्त हो गई। शाहू ने सतारा को अपनी राजधानी बनाया और जनवरी 1708 में छत्रपति के रूप में अपना राज्याभिषेक करवाया।
पेशवा का उदय
जब छत्रपति मराठों का नेतृत्व करने में असक्षम हो गया तब मराठा शक्ति ने पेशवा के नेतृत्व में फिर से स्वयं को संगठित किया। पेशवा के नेतृत्व में मराठों ने अंग्रेजों से लम्बे समय तक युद्ध किया किंतु मराठा शक्ति अंततः अंग्रेजों से परास्त हो गई।
बालाजी विश्वनाथ
शाहू के राज्यारोहण के समय मराठा राज्य अस्त-व्यस्त था। शाहू विलासी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसके लिये महाराष्ट्र की अव्यवस्था को व्यवस्थित करना संभव नहीं था। अतः 16 नवम्बर 1713 को उसने बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा नियुक्त किया।
बालाजी विश्वनाथ ने ताराबाई की सत्ता को समाप्त करके तथा विद्रोही मराठा सरदारों की शक्ति का दमन करके, उन पर शाहू के प्रभुत्व की स्थापना की। पेशवा द्वारा मराठा राज्य को दी गई महत्त्वपूर्ण सेवाओं के कारण शाहू के शासनकाल में पेशवाओं का उत्कर्ष हुआ।
उन्हीं दिनों दिल्ली में सैयद भाइयों के सहयोग से फर्रूखसियर, मुगल बादशाह बना किन्तु कुछ समय बाद ही उसकी सैयद भाइयों से अनबन हो गई और सैयद बंधुओं ने फर्रूखसियर को समाप्त करने के लिये मराठों से सहायता माँगी। 1719 ई. में सैयद बंधुओं ने मराठों से एक सन्धि की, जिसमें शाहू को दक्षिण के 6 सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार देने तथा शाहू के परिवार को मुगलों की कैद से मुक्त करने का वचन दिया।
इस संधि के बाद बालाजी विश्वनाथ मराठों की सेना लेकर सैयद भाइयों की सहायता के लिये दिल्ली गया, जहाँ मारवाड़ नरेश अजीतसिंह की सहायता से फर्रूखसियर को गद्दी से उतारकर मार डाला गया और रफी-उद्-दरजात को बादशाह बनाया गया। नये बादशाह ने 1719 ई. की सन्धि को स्वीकार कर लिया।
इस घटना से मराठों को मुगलों की पतनोन्मुखी स्थिति का ज्ञान हो गया। अतः दिल्ली से स्वदेश लौटने के बाद बालाजी विश्वनाथ ने उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की योजना बनाई किन्तु योजना को कार्यान्वित करने के पूर्व ही 1720 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
बाजीराव (प्रथम) (1720-40 ई.)
बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उसका बीस वर्षीय पुत्र बाजीराव (प्रथम) पेशवा बना। उसने हैदराबाद के सूबेदार निजाम-उल-मुल्क को दो बार परास्त किया, पुर्तगालियों से बसीन व सालसेट छीन लिये तथा मराठों के प्रभाव को गुजरात, मालवा और बुन्देलखण्ड तक पहुँचा दिया। इस प्रकार बाजीराव ने सम्पूर्ण उत्तर भारत में मराठा शक्ति के विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया। 28 अप्रैल 1740 को बाजीराव की मृत्यु हो गई।
बालाजी बाजीराव (1740-61 ई.)
बाजीराव (प्रथम) की मृत्यु के बाद शाहू ने बाजीराव के 19 वर्षीय पुत्र बालाजी बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया। बालाजी बाजीराव के समय में मराठा साम्राज्य चरम पर पहुँच गया। छत्रपति की समस्त शक्तियाँ पेशवा के हाथों में चली गईं और सतारा के स्थान पर पूना मराठा राज्य का केन्द्र बन गया।
25 दिसम्बर 1749 को शाहू की मृत्यु हो गई। उसके बाद छत्रपति का नाम इतिहास में लुप्त प्रायः हो गया तथा पेशवा मराठा राज्य का सर्वेसर्वा बन गया। 18वीं सदी के मध्य में जब मराठे उत्तर भारत में अपना प्रभाव जमाने के लिये प्रयासरत थे, उसी समय उत्तर भारत पर अफगानों के भी आक्रमण होने लगे। इससे उत्तर भारत की राजनीति में परिवर्तन आ गया।
अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण
1748 ई. में अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली ने पहली बार पजांब पर आक्रमण किया किन्तु वह परास्त होकर लौट गया। 1752 ई. में उसने दुबारा आक्रमण किया। इस बार वह मुल्तान और लाहौर को जीतने में सफल रहा। उसने दोनों स्थानों पर अपने अधिकारी नियुक्त किये तथा वापस अफगानिस्तान लौट गया।
उस समय दिल्ली के तख्त पर मुगल बादशाह अहमदशाह का अधिकार था। उसने एक ओर तो अब्दाली के भय से मुल्तान और लाहौर, अब्दाली को दे दिये किंतु दूसरी ओर मराठों से सन्धि की जिसमें तय किया गया कि मराठे, देशी और विदेशी शत्रुओं के विरुद्ध, मुगल बादशाह की सहायता करेंगे जिसके बदले में मराठों को पंजाब, सिन्ध और दो-आब से चौथ वसूल करने का अधिकार होगा।
इस प्रकार मराठा, मुगल सल्तनत के संरक्षक बन गये। इसके कुछ समय बाद ही बादशाह अहमदशाह और उसके वजीर सफदरजंग के बीच मतभेद बढ़े तथा दिल्ली दरबार में दो परस्पर-विरोधी दल खड़े हो गये। दोनों पक्षों ने मराठों से सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। मराठों ने बादशाह का साथ दिया तथा मुगल वजीर को कई बार परास्त किया। बार-बार परास्त होकर वजीर अपने सूबे अवध को चला गया।
13 मई 1754 को बादशाह ने इन्तिजामउद्दौला को अपना नया वजीर बनाया किन्तु निजाम-उल-मुल्क के बड़े पुत्र गाजीउद्दीन ने बादशाह अहमदशाह को पदच्युत करके आलमगीर (द्वितीय) को बादशाह बनाया और खुद वजीर बन गया। नया वजीर स्वार्थ-सिद्धि हेतु कभी मराठों से, कभी रोहिल्ला सरदार नजीबखाँ से और कभी अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली से साँठ-गाँठ करता रहा।
नवम्बर 1753 में पंजाब के सूबेदार मीर मन्नू की मृत्यु के बाद उसकी विधवा मुगलानी बेगम अपने शिशु पुत्र के नाम पर शासन करने लगी। गाजिउद्दीन ने औरत के शासन को हटाने के लिये पंजाब पर आक्रमण किया तथा मुगलानी बेगम को बंदी बनाकर दिल्ली ले आया। वह मुगलानी बेगम की सम्पत्ति भी दिल्ली ले आया।
गाजीउद्दीन ने शाही हरम की बेगमों को भी परेशान किया। बेगमों ने रोहिल्ला सरदार नजीबखाँ से सहायता माँगी। नजीबखाँ का मानना था कि वजीर, मराठों की शक्ति के बल पर ऐसा कर रहा है। अतः नजीबखाँ ने मराठों को कुचलने के लिये अहमदशाह अब्दाली को आमन्त्रित किया।
उधर मुगलानी बेगम ने भी अब्दाली को भारत आने का निमन्त्रण भेजा। 1757 ई. के आरम्भ में अब्दाली एक बार फिर सेना लेकर भारत पहुँचा और उसने लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने दिल्ली में प्रवेश करके दिल्ली के समृद्ध नागरिकों एवं अमीरों को लूटा।
अब्दाली ने मथुरा के आसपास के क्षेत्रों में भंयकर लूटमार मचाई। संयोगवश अब्दाली की सेना में महामारी फैल गई जिसके कारण वह वापिस अपने देश को लौट गया। लौटते समय उसने नजीबखाँ को मुगल सल्तनत का मीर-बख्शी बनाया तथा अपने पुत्र तैमूरशाह को पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया।
जिस समय अहमदशाह अब्दाली, दिल्ली तथा मथुरा में लूट मचाये हुए था, उस समय मराठा सरदार, राजपूताना के राज्यों से चौथ वसूल करने में व्यस्त थे। जब अब्दाली वापिस लौट गया, तब मराठा सेनापति रघुनाथराव और मल्हारराव होलकर सेनाएँ लेकर आगरा पहुँचे।
रघुनाथराव ने नजीब खाँ को बन्दी बना लिया परन्तु होलकर के अनुरोध पर पुनः मुक्त कर दिया। इसके बाद मराठों ने लाहौर पर आक्रमण करके तैमूरशाह को खदेड़ दिया। मराठों ने अटक तक धावे मारे तथा अदीना बेग को लाहौर का सूबेदार और अहमदशाह बंगश को मीर-बख्शी नियुक्त किया। अब्दाली के पुत्र तैमूरशाह को पंजाब से निकाल बाहर करने से अब्दाली ने क्रुद्ध होकर फिर से भारत पर चढ़ाई की।
उधर पेशवा ने उत्तर भारत की व्यवस्था करने का दायित्व सिन्धिया परिवार को सौंपा और होलकर को सिन्धिया की सहायता करने को कहा किन्तु होलकर ने पेशवा के आदेश का पालन नहीं किया। दत्ताजी सिन्धिया ने दिल्ली पहुँचकर नजीब खाँ को पकड़ने का प्रयास किया। नजीब खाँ ने अब्दाली से सहायता माँगी।
इस समय अब्दाली पेशावर में था। उसने जहानखाँ को लाहौर पर अधिकार करने भेजा किन्तु साबाजी सिन्धिया ने उसे परास्त करके खदेड़ दिया। इस पर अब्दाली स्वयं दिल्ली की ओर बढ़ा। नजीब खाँ भी सेना लेकर अब्दाली से जा मिला।
जनवरी 1760 में बरारी घाट का युद्ध हुआ जिसमें दत्ताजी सिन्धिया परास्त होकर मारा गया। अब्दाली ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। दत्ताजी की मृत्यु के बाद होलकर दिल्ली की तरफ आया किन्तु अफगानों से परास्त होकर राजपूताने की ओर भाग गया।
मूल आलेख – यूरोपियन जातियों के आगमन के समय भारत की स्थिति
मराठा शक्ति



