Monday, November 24, 2025
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द्वितीय आँग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805 ई.)

द्वितीय आँग्ल-मराठा युद्ध ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा मराठा शक्ति के बीच हुआ। मराठों की तरफ से सिंधिया एवं भौंसले ने इस युद्ध में भाग लिया जबकि गायकवाड़ और होलकर इस युद्ध से अलग रहे।

द्वितीय आँग्ल-मराठा युद्ध

बसीन की सन्धि के बाद मई 1803 में बाजीराव (द्वितीय) को अँग्रेजों के संरक्षण में पुनः पेशवा बनाया गया। मराठा सरदार इसे सहन करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने पारस्परिक वैमनस्य को भुलाककर अँग्रेजों के विरुद्ध एक होने का प्रयत्न किया। सिन्धिया और भौंसले तो एक एक हो गये, किन्तु सिन्धिया व होलकर की शत्रुता अभी ताजी थी।

अतः होलकर पूना छोड़कर मालवा चला गया। गायकवाड़ अँग्रेजों का मित्र था। अतः उसने भी इस अँग्रेज विरोधी संघ में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार अँग्रेजों के विरुद्ध सैनिक अभियान करने के लिये केवल सिन्धिया व भौंसले ही बचे। उन्होंने अँग्रेजों से युद्ध करने की तैयारी आरम्भ कर दी।

जब वेलेजली को इसकी सूचना मिली तो उसने 7 अगस्त 1803 को मराठों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और एक सेना अपने भाई आर्थर वेलेजली तथा दूसरी जनरल लेक के नेतृत्व में मराठों के विरुद्ध भेजी। इस युद्ध को इतिहास में द्वितीय आँग्ल-मराठा युद्ध कहा जाता है।

देवगढ़ की संधि (1803 ई.)

आर्थर वेलेजली ने सर्वप्रथम अहमदनगर पर विजय प्राप्त की। तत्पश्चात् अजन्ता व एलोरा के निकट असाई नामक स्थान पर सिन्धिया व भौंसले की संयुक्त सेना को परास्त किया। असीरगढ़ व अरगाँव के युद्धों में मराठा पूर्ण रूप से परास्त हुए। अरगाँव में परास्त होने के बाद 17 दिसम्बर 1803 को भौंसले ने अँग्रेजों से देवगढ़ की सन्धि कर ली।

इस सन्धि के अन्तर्गत भौंसले ने वेलेजली की सहायक सन्धि की समस्त शर्तें स्वीकार कर लीं किंतु राज्य में कम्पनी की सेना रखने सम्बन्धी शर्त स्वीकार नहीं की। वेलेजली ने इस शर्त पर जोर नहीं दिया। इस सन्धि के अनुसार कटक तथा वर्धा नदी के निकटवर्ती क्षेत्र ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिये गये।

सुर्जी-अर्जन की संधि (1803 ई.)

जनरल लेक ने उत्तरी भारत की विजय यात्रा आरम्भ की। उसने सर्वप्रथम अलीगढ़ पर अधिकार किया। तत्पश्चात् दिल्ली पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। जनरल लेक ने भरतपुर पर आक्रमण किया और भरतपुर के शासक से सहायक सन्धि की। भरतपुर के बाद उसने आगरा पर अधिकार किया।

अन्त में लासवाड़ी नामक स्थान पर सिन्धिया की सेना पूर्णतः परास्त हुई। सिन्धिया को विवश होकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि करनी पड़ी। 30 दिसम्बर 1803 को सुर्जीअर्जन नामक गाँव में यह सन्धि हुई। इस सन्धि के अनुसार सिन्धिया ने दिल्ली, आगरा, गंगा-यमुना का दोआब, बुन्देलखण्ड, भड़ौंच, अहमदनगर का दुर्ग, गुजरात के कुछ जिले, जयपुर व जोधपुर अँग्रेजों के प्रभाव में दे दिये। उसने कम्पनी की सेना को भी अपने राज्य में रखना स्वीकार कर लिया। अँग्रेजों ने सिन्धिया को उसके शत्रुओं से पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया।

सिन्धिया व भौंसले ने बसीन की सन्धि को भी स्वीकार कर लिया। इन सफलताओं से उत्साहित होकर वेलेजली ने घोषणा की- ‘युद्ध के प्रत्येक लक्ष्य को प्राप्त कर लिया गया है। इससे सदैव शान्ति बनी रहेगी।’ किन्तु वेलेजली का उक्त कथन ठीक नहीं निकला, क्योंकि शान्ति शीघ्र ही भंग हो गई।

होलकर से युद्ध

होलकर अब तक इन घटनाओं से उदासीन था। उसने सिन्धिया व भौंसले के आत्मसमर्पण के बाद अँग्रेजों से युद्ध करने का निर्णय लिया और अप्रैल 1804 में संघर्ष छेड़ दिया। उसने सर्वप्रथम राजपूताना में कम्पनी के मित्र राज्यों पर आक्रमण किया। यह आक्रमण अँग्रेजों के लिए चुनौती था।

16 अप्रेल 1804 को लार्ड वेलेजली ने जनरल लेक को लिखा कि जितनी जल्दी हो सके, जसवंतराव होलकर के विरुद्ध युद्ध आरम्भ किया जाये। ऑर्थर वेलेजली के नेतृत्व में दक्षिण की ओर से तथा कर्नल मेर के नेतृत्व में गुजरात की ओर से होलकर के राज्य पर आक्रमण किया गया।

इस कार्य में दक्षिण भारत तथा गुजरात की अन्य राजनीतिक शक्तियों की सहायता ली गयी किंतु होलकर ने इस मिश्रित सेना को बुरी तरह परास्त किया। वेलेजली ने कर्नल मॉन्सन के नेतृत्व में राजपूताने की तरफ एक सेना भेजी। कर्नल मॉन्सन राजपूूताने के भीतर तक घुस गया। 17 जुलाई 1804 को मोन्सन ने चम्बल के किनारे होलकर को घेर लिया।

होलकर ने कोटा के निकट मुकन्दरा दर्रे के युद्ध में कर्नल मोन्सन में कसकर मार लगायी तथा अँग्रेज सैन्य दल को लूट लिया। अँग्रेजों का तोपखाना और बहुत सी युद्ध सामग्री मराठों के हाथ लगी।

मॉन्सन आगरा की ओर भाग गया। तत्पश्चात् होलकर ने भरतपुर पर आक्रमण करके वहाँ के शासक रणजीतसिंह से सन्धि कर ली। यद्यपि महाराजा रणजीतसिंह ने अँग्रेजों से भी सहायक सन्धि कर रखी थी किन्तु इस समय उसने अँग्रेजों की सन्धि को ठुकराकर होलकर का समर्थन किया। यहाँ से होलकर दिल्ली की ओर गया। उसने दिल्ली को चारों ओर से घेर लिया।

दिल्ली पर होलकर के दबाव को कम करने के लिए अँग्रेजों ने जनरल मूरे को होलकर की राजधानी इन्दौर पर आक्रमण करने भेजा। मूरे ने इन्दौर पर अधिकार कर लिया। जब होलकर को इन्दौर के पतन की सूचना मिली तो वह दिल्ली का घेरा उठाकर इन्दौर की ओर रवाना हुआ। कर्नल बर्न, मेजर फ्रैजर और जनरल लेक की सेनाओं ने होलकर का पीछा किया।

होलकर की सेनाओं ने डीग के पास हुई लड़ाई में मेजर फ्रैजर को मार डाला। डीग के दुर्ग पर होलकर का अधिकार हो गया किंतु 23 दिसम्बर 1804 को अँग्रेजों ने होलकर को परास्त करके डीग पर अधिकार कर लिया। इस पर होलकर को भाग कर भरतपुर के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। भरतपुर के राजा रणजीतसिंह ने होलकर तथा उसकी सेना को अपने यहाँ शरण दी।

गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली चाहता था कि होलकर अँग्रेजों को सौंप दिया जाये किंतु महाराजा रणजीतसिंह ने अपनी शरण में आये व्यक्ति के साथ विश्वासघात करने से मना कर दिया। अँग्रेजों ने भरतपुर पर चार आक्रमण किये किंतु भरतपुर को जीता नहीं जा सका। इसके बाद फर्रूखाबाद में एक और युद्ध हुआ जिसमें होलकर परास्त होकर पंजाब की तरफ भाग गया।

यद्यपि ईस्ट इण्डिया कम्पनी इस युद्ध में विजयी रही किंतु होलकर की शक्ति को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सका। भरतपुर में मिली असफलता के कारण इंग्लैण्ड में वेलेजली की कटु आलोचना हुई। 1805 ई. में वेलेजली को त्यागपत्र देकर इंग्लैण्ड लौट जाना पड़ा।

लॉर्ड कार्नवालिस से लॉर्ड मिण्टो तक

वेलेजली के बाद 1805 ई. में लॉर्ड कार्नवालिस को पुनः भारत भेजा गया किन्तु यहाँ आने के कुछ माह बाद गाजीपुर में उसकी मृत्यु हो गयी। अतः जार्ज बार्लो को गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। कार्नवालिस व जार्ज बार्लो दोनों ने देशी राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया और मराठों के प्रति उदारता की नीति अपनाई।

फलस्वरूप 22 नवम्बर 1805 को सिन्धिया से एक नई सन्धि की गई, जिसके अनुसार उसे ग्वालियर व गोहद के दुर्ग तथा उसका उत्तरी चम्बल का भू-भाग लौटा दिया। कम्पनी ने राजपूत राज्यों को संरक्षण में लेने का विचार त्याग दिया। फलस्वरूप राजपूत राज्यों पर पर पुनः मराठों का प्रभाव स्थापित हो गया।

7 जनवरी 1806 को होलकर के साथ सन्धि करके उसके अधिकांश क्षेत्र लौटा दिये गये। 1807 ई. में लॉर्ड मिण्टो गवर्नर जनरल नियुक्त हुआ। उसने भी अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। कार्नवालिस, जार्ज बार्लो तथा लॉर्ड मिण्टो, इन तीनों गवर्नर जनरलों की नीतियों के कारण मराठों ने अपनी शक्ति पुनः संगठित कर ली। इधर पिण्डारी भी, जो आरम्भ से मराठों के सहयोगी थे, अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल आलेख – अंग्रेज जाति का भारतीय शक्तियों से संघर्ष

बंगाल में ब्रिटिश प्रभुसत्ता का विस्तार

प्लासी का युद्ध (1757 ई.)

बक्सर युद्ध

बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना

बसीन की संधि

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782 ई.)

द्वितीय आँग्ल-मराठा युद्ध

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