Monday, November 24, 2025
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मराठा शक्ति का पतन

मराठा शक्ति का पतन भारत के आधुनिक इतिहास का सर्वाधिक निर्णायक मोड़ है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने राजपूत राज्यों को अधीनस्थ सहायता की संधियाँ करने के लिए विवश करने के बाद मराठा शक्ति को पूरी तरह कुचलकर अपने अधीन कर लिया।

मराठा शक्ति का पतन

अधिकांश अँग्रेज इतिहासकारों के अनुसार ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत का शासन मुगल बादशाह से प्राप्त किया था किंतु भारतीय इतिहासकारों का मत है कि अँग्रेजों ने भारत का राज्य मुगलों से नहीं, अपितु मराठों से प्राप्त किया था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत में उत्पन्न हुई राजनीतिक शून्यता को मराठे ही भरने का प्रयास कर रहे थे।

जिस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने अस्तित्त्व के लिए फ्रांसीसियों से संघर्ष कर रही थी, उस समय मराठे निर्णायक शक्ति के रूप में उभर चुके थे। मराठे भारत के प्रायः समस्त भागों से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल कर रहे थे। कम्पनी के भीषण प्रहारों से मराठा शक्ति लड़खड़ाने लगी।

लॉर्ड वेलेजली एवं लॉर्ड हेस्टिंग्ज के आक्रमणों से मराठा संघ चूर-चूर हो गया। मराठों ने अँग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली। उनमें अँग्रेजों का विरोध करने का साहस नहीं रहा। मराठा राज्य और पेशवा पद समाप्त हो गया। मराठों के इस भयावह पतन के कई कारण थे-

(1.) मराठा संघ में एकता का अभाव

मराठों का राज्य, एक राज्य न होकर राज्यों का संघ था। प्रत्येक शक्तिशाली सरदार अपने राज्य में स्वतंत्र था। पानीपत के युद्ध (1761 ई.) के बाद मराठा संघ में विघटन की प्रक्रिया आरम्भ हुई। पेशवा माधवराव (प्रथम) (1761-1772 ई.) के समय तक मराठा राज्यों में एकता बनी रही किन्तु उसकी मृत्यु के बाद वह एकता समाप्त हो गयी।

मराठा सरदारों पर पेशवा का नियन्त्रण शिथिल हो गया। सिन्धिया, होलकर, भौंसले और गायकवाड़ स्वतंत्र शासकों की भाँति व्यवहार करने लगे और एक दूसरे से युद्ध भी करने लगे। सिन्धिया और होलकर की प्रतिद्वन्द्विता अन्त तक चलती रही।

बड़ौदा का शासक गायकवाड़ बहुत पहले ही अँग्रेजों से मैत्री कर चुका था। इसलिए वह आंग्ल-मराठा युद्धों में तटस्थ रहा। भौंसले भी अपना राग अलग अलापता रहा। इस कारण मराठा संघ पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गया और अँग्रेजों को उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने तथा उन्हें परास्त करने का अवसर मिल गया।

(2.) योग्य मराठा नेतृत्व का विलोपन

18वीं शताब्दी के अंत तक लगभग समस्त प्रबल मराठा सरदारों की मृत्यु हो गई। महादजी सिन्धिया की 1794 ई. में, अहिल्याबाई होलकर की 1795 ई. में, तुकोजी होलकर की 1797 ई. में और नाना फड़नवीस की 1800 ई. में मृत्यु हो गयी। पेशवा बाजीराव (द्वितीय) अयोग्य था।

दौलतराव सिन्धिया एवं जसवन्तराव होलकर अत्यंत स्वार्थी व महत्त्वाकांक्षी थे। उनमें योग्यता और चरित्र दोनों की कमी थी। दूसरी और अँग्रेजों को एलफिन्सटन, मॉल्कम, वेलेजली तथा लॉर्ड हेस्टिंग्ज जैसे योग्य राजनीतिज्ञों का नेतृत्व प्राप्त हुआ। फलस्वरूप मराठे ईस्ट इण्डिया कम्पनी से परास्त हो गये।

(3.) मराठों में कूटनीति का अभाव

मराठा सरदारों में कूटनीतिक योग्यता का नितांत अभाव था। भारत में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी जिससे उन्होंने शत्रुता मोल न ले ली हो। राजपूत, जाट और सिक्ख जो मुगल सत्ता के क्षीण होने पर केन्द्रीय सत्ता से मुक्त होना चाहते थे, उनमें से हर एक से मराठों ने शत्रुता बांध ली। उन्होंने मुगल सल्तनत के अस्तित्त्व को बनाये रखने के लिये अहमदशाह अब्दाली से टक्कर ली। इस कारण उन्हें राजपूतों, सिक्खों और जाटों का सहयोग नहीं मिला और वे 1761 ई. के युद्ध में बुरी तरह काट डाले गये।

(4.) नाना फड़नवीस की त्रुटिपूर्ण नीतियाँ

नाना फड़नवीस की स्वार्थपूर्ण नीतियों ने मराठों के पतन की गति को बढ़ा दिया। नाना के लिए निजाम और टीपू ही मुख्य शत्रु थे। सालबाई की सन्धि के बाद नाना ने टीपू के विरुद्ध ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सहयोग दिया। टीपू के पतन के बाद दक्षिण भारत में शक्ति संतुलन बिगड़ गया।

अब दक्षिण में केवल ईस्ट इण्डिया कम्पनी ही मराठों की एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी रह गयी। इसलिये दोनों शक्तियों का एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हो जाना स्वाभाविक था। नाना फड़नवीस ने अपना दबदबा बनाये रखने के लिये किसी अन्य मराठा सरदार के महत्त्व को बढ़ने नहीं दिया। उसने महादजी सिन्धिया की सलाह को नहीं माना तथा उस पर कभी विश्वास भी नहीं किया।

जबकि महादजी उत्तर भारत में महत्त्वपूर्ण सफलताएं अर्जित कर रहा था। नाना ने अल्पवयस्क पेशवा माधवराव (द्वितीय) को राज्यकार्य एवं युद्ध सम्बन्धी उचित प्रशिक्षण दिलवाने की व्यवस्था नहीं की। इस प्रकार नाना फड़नवीस की स्वार्थपूर्ण नीतियों ने मराठा संघ को दुर्बल किया।

मराठा इतिहासकार सरदेसाई ने लिखा है- ‘यदि नाना फड़नवीस सत्ता व धन के पीछे नहीं पड़ता तो इतिहास में उसका स्थान और भी ऊँचा होता।’

(5.) प्रजा से अलगाव

मराठों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को संगठित करने का प्रयास नहीं किया। उन्होंने कृषि, चिकित्सा, शिक्षा, परिवहन, और नागरिकों की नैतिक उन्नति के लिए कुछ नहीं किया। मराठों का प्रधान लक्ष्य मुगल बादशाह, अवध तथा बंगाल के नवाबों, राजपूत राज्यों तथा विभिन्न स्थानीय शासकों पर आतंक स्थापित करके उनसे चौथ एवं सरदेशमुखी प्राप्त करना था।

प्रजा से सीधा जुड़ाव नहीं होने से उन्हें योग्य एवं ईमानदार कर्मचारी नहीं मिल सके जिससे प्रशासन में सर्वत्र भ्रष्टाचार फैल गया। मराठा सरदार तथा उनके मंत्री अपने स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ सके। अतः जिस समय उनका अँग्रेजों से संघर्ष आरम्भ हुआ, उस समय तक मराठा, क्षत्रपति शिवाजी के आदर्शों से भटक चुके थे। उत्तरी भारत से लूटमार में प्राप्त हुई सम्पत्ति ने उन्हें विलासप्रिय बना दिया। इस कारण मराठा सरदारों का नैतिक पतन हो गया। प्रजा का समर्थन न होने से उनका राज्य समाप्त होने में अधिक समय नहीं लगा।

(6.) आर्थिक व्यवस्था के प्रति उदासीनता

मराठों ने अपने राज्य की अर्थ व्यवस्था की ओर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने राज्य में कृषि, उद्योग और व्यापार को उन्नत करने का प्रयास ही नहीं किया। राज्य में उचित कर व्यवस्था के अभाव में राज्य को उचित आय प्राप्त नहीं हो सकी। उत्तरी भारत के जिन प्रदेशों पर उन्होंने अधिकार किया था, वहाँ भी उन्होंने आर्थिक ढाँचे में सुधार करने का प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने अपनी आय का प्रमुख साधन लूटमार बना लिया था। अतः वे न तो अपनी प्रजा को सम्पन्न बना सके और न अपने राज्य की आर्थिक नींव सुदृढ़ कर सके। ऐसा राज्य जो केवल लूट के धन पर ही निर्भर हो, स्थायी नहीं हो सकता था।

(7.) सेना में आधुनिकीकरण का अभाव

क्षत्रपति शिवाजी गुरिल्ला युद्ध पद्धति तथा घुड़सवार सेना के कारण मुगलों के विरुद्ध सफल रहे थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध भी मराठा सरदारों ने युद्ध के पुराने तरीकों को अपनाये रखा। केवल महादजी सिन्धिया ऐसा मराठा सरदार था जिसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से तैयार किया।

सरदेसाई ने लिखा है कि मराठों में वैज्ञानिक युद्ध-पद्धति का अभाव था। जिसके फलस्वरूप मराठा सेना की क्षमता में कमी आ गयी थी। इतिहासकार केलकर के अनुसार मराठों की असफलता का मुख्य कारण प्रशिक्षित सेना, आधुनिक तोपखाने व बारूद का अभाव था।

वस्तुतः मराठों ने अपने सैनिक कौशल के विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया, क्योंकि मराठों की ऐसी धाक जम गई थी कि उन्हें देखते ही भारतीय राज्यों की सेनाएँ हथियार डाल देती थीं। उनकी यह धाक ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सामने काम नहीं आई। इस पर मराठों ने फ्रांसिसी सेनापतियों की सहायता ली किंतु वे भी अँग्रेजों के समक्ष नहीं टिक सके। फ्रांसीसियों ने कुछ अवसरों पर मराठों को धोखा भी दिया।

(8.) मैसूर तथा हैदराबाद का पतन

दक्षिण भारत में तीन प्रमुख शक्तियाँ थीं- मराठा, निजाम और मैसूर। ये तीनों शक्तियाँ यदि संयुक्त मोर्चा बना लेतीं तो अँग्रेजों से लोहा ले सकती थीं किन्तु परस्पर फूट होने के कारण वे अँग्रेजों की कूटनीति में फंस गये। निजाम से मराठों की शत्रुता लम्बे समय से चल रही थी।

इसलिये निजाम ने मराठों के विरुद्ध सुरक्षा प्राप्त करने के लिए अँग्रेजों से सहायक सन्धि कर ली। मैसूर से भी मराठों की शत्रुता थी। नाना फड़नवीस ने मैसूर के शासक टीपू को कुचलने के लिए अँग्रेजों को सहयोग दिया। इस प्रकार अँग्रेजों ने मराठों के सहयोग से पहले मैसूर राज्य को समाप्त किया और उसके बाद मराठों को परास्त करने में सफल हो गये।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मूल आलेख – अंग्रेज जाति का भारतीय शक्तियों से संघर्ष

बंगाल में ब्रिटिश प्रभुसत्ता का विस्तार

प्लासी का युद्ध (1757 ई.)

बक्सर युद्ध

बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना

बसीन की संधि

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782 ई.)

द्वितीय आँग्ल-मराठा युद्ध

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध

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