Sunday, August 17, 2025
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पल्लव मन्दिर स्थापत्य कला

गुप्तकाल एवं उससे पूर्ववर्ती काल में तमिल क्षेत्र को द्रविड़ प्रदेश कहा जाता था। उस काल की मंदिर कला में काष्ठ एवं कंदराओं का अधिक प्रयोग होता था। इसलिए प्रारम्भिक पल्लव शिल्पकारों ने पल्लव मन्दिर स्थापत्य कला में उन्हीं प्रणालियों का उपयोग किया।

गुप्तकाल के पराभव के बाद जब छठी शताब्दी ईस्वी में सिंहविष्णु ने कांची एवं महाबलिपुरम् के आस-पास के प्रदेश पर अधिकार करके स्वतंत्र राज्य की स्थापना की, तब पल्लव शिल्पकारों ने वास्तुकला में नए प्रयोग किए और मंदिर वास्तुकला को काष्ठकला और कन्दराकला के प्रभाव से मुक्त करने में विपुल सहयोग दिया। इसलिए यह कहना उचित होगा कि मंदिरों की द्रविड़ शैली का जन्म पल्लव शासकों के काल में महाबलिपुरम् और निकटवर्ती प्रदेश में हुआ।

पल्लव मन्दिर स्थापत्य कला

पल्लव मन्दिर स्थापत्य कला को चार प्रमुख शैलियों में रखा जा सकता है- (1.) महेन्द्रवर्मन शैली, (2.) मामल्ल शैली (3.) राजसिंह शैली और (4.) नन्दिवर्मन शैली।

(1.) महेन्द्रवर्मन शैली

पल्लव मन्दिर स्थापत्य कला की महेन्द्रवर्मन शैली का विकास ई.610 से 640 के मध्य हुआ। इस शैली के मंदिरों को मण्डप कहा जाता है। ये मण्डप साधारण स्तम्भ युक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं। ये कक्ष कठोर पाषाण को काटकर गुहा मंदिर के रूप में बनाये गये हैं।

मण्डप के बाहरी द्वार पर दोनों ओर द्वारपालों की मूर्तियाँ लगाई गई हैं। मण्डप के स्तम्भ सामान्यतः चैकोर हैं। महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपट्टु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पंचपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्र विष्णुगृह मण्डप, मामण्डूर का विष्णु मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

(2.) मामल्ल शैली

पल्लव मन्दिर स्थापत्य कला की मामल्ल शैली का विकास ई.640 से 674 तक की अवधि में राजा नरसिंहवर्मन (प्रथम) के शासन काल में हुआ। नरसिंहवर्मन ने महामल्ल की उपाधि धारण की थी इसलिये इस शैली को महामल्ल अथवा मामल्ल शैली कहा जाता है। इसी राजा ने मामल्लपुरम् की स्थापना की जो बाद में महाबलीपुरम् कहलाया। इस शैली में दो प्रकार के मंदिरों का निर्माण हुआ है- (1.) मण्डप शैली के मंदिर तथा (2.) रथ शैली के मंदिर।

मण्डप शैली

मण्डप शैली के मंदिर महेन्द्रवर्मन शैली के जैसे ही हैं किंतु मामल्ल शैली में उनका विकसित रूप दिखाई देता है। महेन्द्रवर्मन शैली की अपेक्षा मामल्ल शैली के मण्डप अधिक अलंकृत हैं। इनके स्तम्भ सिंहों के शीर्ष पर स्थित हैं तथा स्तम्भों के शीर्ष मंगलघट आकार के हैं। आदिवराह मण्डप, महिषमर्दिनी मण्डप, पंचपाण्डव मण्डप तथा रामानुज मण्डप विशेष उल्लेखनीय हैं।

रथ शैली

रथ शैली के मंदिर विशाल चट्टानों को काटकर, काष्ठ-रथों की आकृतियों में बनाये गये हैं। इनकी वास्तुकला मण्डप शैली जैसी है। इन रथों का विकास बौद्ध विहार तथा चैत्यगृहों से हुआ है। प्रमुख रथ मंदिरों में द्रोपदी रथ, अर्जुन रथ, नकुल-सहदेव रथ, भीम रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिडारि रथ आदि हैं। ये सब शैव मंदिर हैं। द्रोपदी रथ सबसे छोटा है।

धर्मराज रथ सबसे भव्य एवं प्रसिद्ध है। इसका शिखर पिरामिड के आकार का है। यह मंदिर दो भागों में है। नीचे का खण्ड वर्गाकार है तथा इससे लगा हुआ संयुक्त बरामदा है। यह रथ मंदिर आयताकार तथा शिखर ढोलकाकार है। मामल्ल शैली के रथ मंदिर मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध हैं। इन रथों पर दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। नरसिंहवर्मन (प्रथम) के साथ ही इस शैली का भी अंत हो गया।

(3.) राजसिंह शैली

नरसिंहवर्मन (द्वितीय) ने राजसिंह की उपाधि धारण की थी। इसलिये उसके नाम परपल्लव मन्दिर स्थापत्य कला की इस शैली को राजसिंह शैली कहा जाता है। महाबलीपुरम् में समुद्रतट पर स्थित तटीय मंदिर और कांची में स्थित कैलाशनाथ मंदिर तथा बैकुण्ठ पेरुमाल मंदिर इस शैली के प्रमुख मंदिर हैं। इनमें महाबलीपुरम् का तटीय शिव मंदिर पल्लव स्थापत्य एवं शिल्प का अद्भुत स्मारक है।

यह मंदिर एक विशाल प्रांगण में बनाया गया है जिसका गर्भगृह समुद्र की ओर है तथा प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर। इसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ तथा सीढ़ीदार शिखर है। शीर्ष पर स्तूपिका निर्मित है। इसकी दीवारों पर गणेश तथा स्कंद आदि देवताओं और गज एवं शार्दुल आदि बलशाली पशुओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं।

कांची के कैलाशनाथ मंदिर में राजसिंह शैली का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। इसका निर्माण नरसिंहवर्मन (द्वितीय) के शासन काल में आरंभ हुआ तथा उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) के शासनकाल में पूर्ण हुआ। द्रविड़ शैली की समस्त विशेषतायें इस मंदिर में दिखाई देती हैं। मंदिर में शिव क्रीड़ाओं को अनेक मूर्तियों के माध्यम से अंकित किया गया है।

इस मंदिर के निर्माण के कुछ समय बाद ही बैकुण्ठ पेरुमल का मंदिर बना। इसमें प्रदक्षिणा-पथ युक्त गर्भगृह है तथा सोपान युक्त मण्डप है। मंदिर का विमान वर्गाकार तथा चार मंजिला है जिसकी ऊँचाई लगभग 60 फुट है। प्रथम मंजिल में भगवान विष्ण के विभिन्न अवतारों की मूर्तियाँ हैं। मंदिर की भीतरी दीवारों पर राज्याभिषेक, उत्तराधिकार चयन, अश्वमेध, युद्ध एवं नगरीय जीवन के दृश्य अंकित किये गये हैं। यह मंदिर पल्लव वास्तुकला का पूर्ण विकसित स्वरूप प्रस्तुत करता है।

(4.) नन्दिवर्मन शैली

इस शैली के मंदिरों में वास्तुकला का कोई नवीन तत्व दिखाई नहीं देता किंतु आकार-प्रकार में ये निरंतर छोटे होते हुए दिखाई देते हैं। इस शैली के मंदिर, पूर्वकाल के पल्लव मंदिरों की प्रतिकृति मात्र हैं। ये मंदिर नंदिवर्मन तथा उसके उत्तराधिकारियों के शासन में बने थे। इस शैली के मंदिरों में स्तम्भ शीर्षों में कुछ विकास दिखाई देता है।

इस शैली के मंदिरों में कांची के मुक्तेश्वर एवं मातंगेश्वर मंदिर तथा गुड़ीमल्लम का परशुरामेश्वर मंदिर उल्लेखनीय हैं। इनमें सजीवता का अभाव है जिससे अनुमान होता है कि इन मंदिरों के निर्माता किसी संकट में थे। दसवीं शताब्दी के अंत तक इन मंदिरों का निर्माण बंद हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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