डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (12)
सोहन प्रसाद मुदर्रिस पर किए गए अभियोग से जुड़ा हुआ सबसे रोचक और महत्त्वपूर्ण भाग यह भी था कि सोहन प्रसाद की गुहार पर उसकी सहायता के लिए उस काल की हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने एक आन्दोलन चलाया जिसमें सैकड़ों हिन्दी समर्थकों ने भाग लिया।
इस आंदोलन की तुलना मुरादाबाद के मुंशी इन्द्रमणी द्वारा इस्लाम के विरुद्ध लिखी गई किताबों पर मुकदमे के दौरान उभरे हिन्दू-समर्थन से की जाती है जिसमें दयानन्द सरस्वती के नेतृत्व में आर्यसमाजियों ने पूरे देश में इन्द्रमणी के लिए आर्थिक सहायता का अभियान छेड़ा था। इस मुकदमे के परिणाम स्वरूप उत्तर भारत में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक तनाव अपने चरम पर पहुँच गया था।
हिन्दी आन्दोलन के भीतर मौजूद मुस्लिम-विरोध का जैसा उग्र रूप सोहन प्रसाद की पुस्तक में प्रकट हुआ था, उससे कहीं अधिक उग्र रूप सोहन प्रसाद की सहायता के लिए चले इस अभियान में प्रकट हुआ। इस अभियान में पश्चिमोत्तर प्रान्त में चल रहे नवजागरण आंदोलन का और विशेषकर हिन्दी आन्दोलन का साम्प्रदायिक चरित्र सबसे आक्रामक रूप में प्रकट हुआ।
सोहन प्रसाद के समर्थन में खड़े हुए आंदोलन का मुख्य मंच हिन्दी नवजागरण आंदोलन के प्रमुख गढ़ बनारस से प्रकाशित बाबू रामकृष्ण वर्मा का साप्ताहिक पत्र ‘भारत जीवन’ था। हिन्दी के लेखक, पत्रकार और अनुवादक रामकृष्ण वर्मा बनारस के प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र के अच्छे मित्रों में थे और ब्रिटिश अधिकारियों एवं देसी नरेशों के साथ मधुर सम्बन्ध रखते थे।
इस आंदोलन के खड़े होने का मुख्य कारण यह था कि सोहन प्रसाद के विरुद्ध जैसे ही नालिश दायर हुई, सोहन प्रसाद ने ‘भारत जीवन’ में एक लम्बा पत्र प्रकाशित करवाकर अपनी रक्षा और सहायता के लिए गुहार लगाई। इस पत्र में उन्होंने पुस्तक का परिचय देते हुए लिखा कि इस पुस्तक में हिन्दी और उर्दू की आपस में बातचीत के माध्यम से हिन्दू-मुसलमानों को यह शिक्षा दी गयी है कि अपने-अपने धर्मशास्त्रानुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए न कि हिन्दुओं को मुसलमानों के मजहब पर और मुसलमानों को हिन्दुओं के धर्म पर चलना चाहिए। निश्चय ही झगड़े की जड़ यह बात नहीं थी, कुछ और थी क्योंकि हिन्दुओं के धर्म पर मुसलमान न चलें, इस पर भला मुसलमानों को क्या आपत्ति हो सकती थी?
हाँ, मुसलमानों के मजहब पर हिन्दू न चलें, इस बात पर कुछ मुल्ला-मौलवियों को आपत्ति अवश्य थी, आम मुसलमान को इस बात से फर्क नहीं पड़ता था।
भारत जीवन में प्रकाशित पत्र में सोहन प्रसाद ने लिखा- ‘यद्यपि इस पुस्तक में सिवाय बड़ाई मुसलमानों की निन्दा कहीं नहीं की गयी है, पर नहीं जान पड़ता कि मुसलमानों के समझ में क्यों ऐसा ध्यान बँध गया है कि हमारे ऊपर दावा कर बैठे हैं और कई एक दफा ताजीरात हिन्द के कायम कराये हैं!’
सोहन प्रसाद ने हिन्दुओं को जवाबी हमले के लिए उकसाया- ‘हम अपने हिन्दू भाइयों से पूछते हैं कि मुसलमानों ने तुहफुलहिन्द इत्यादि सैकड़ों पुस्तकें हिन्दू धर्म के विरुद्ध बनाई हैं और ईसाइयों ने हजारों पुस्तकें जैसे राम परीक्षा, कृष्ण परीक्षा, शिव परीक्षा, गुरु परीक्षा, सतमत निरूपण इत्यादि छापे हैं, क्या इनमें हिन्दू मत की निन्दा नहीं की गई है? यदि है तो क्यों हमारे हिन्दू भाई मौन होकर बैठे हैं? ….. जब मुसलमान हमारी पुस्तक को जलाने का उद्योग कर रहे हैं, तो आप लोग मुसलमानों और ईसाइयों द्वारा लिखी गई वे पुस्तकें जिनमें हमारे धर्म की निन्दा भरी है, उन्हें जलाने को क्यों नहीं उद्यत होते?’
सोहन प्रसाद की यह कथन निश्चय ही देश में हिन्दू-मुसलमान दंगों को भड़काने के लिए उकसाने वाली कार्यवाही माना जा सकता था किंतु अंग्रेज अधिकारियों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
सोहन प्रसाद ने यह पत्र कई पत्र-पत्रिकाओं में छपने को भेजा। उन्होंने हिन्दुओं को धिक्कारते हुए, उन्हें लज्जा का अनुभव कराते हुए स्वयं को धर्मसेवक के रूप में प्रस्तुत किया- ‘अगर आप हिन्दुओं को हिन्दू धर्म के कार्य हेतु उठने-बैठने में क्लेश होने का भय है तो मत उठिए हमीं आपके दास इस धर्म-कर्म में धंसते हैं। हमें अपनी नागरी की दुर्दशा देख नींद नहीं आती। गोवध देख हमारा कलेजा फटा जाता है। हमें अपने हिन्दू भाइयों का क्रिश्चियन हो जाना देख चैन नहीं पड़ता, क्या करें?’
सोहन प्रसाद ने अभियोजन में होने वाले व्यय हेतु हिन्दी के पाठकों और समर्थकों से चंदा देने की अपील की। उन्होंने उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, अलवर, कश्मीर, कपूरथला तथा रीवां आदि देशी रियासतों के हिन्दू नरेशों से भी उनके गौरवमयी अतीत का स्मरण करवाते हुए सहायता माँगी- ‘यदि सर्वदा से राजा-महाराजा अपने भारतवासियों की सुध लेते आये हों तो अब भी लें।’
सोहन प्रसाद की इस पुकार पर सबसे पहली प्रतिक्रिया आर्य हितैषी नामक किसी सज्जन की ओर से आयी। उन्होंने लिखा- ‘यवन ईसाइयों के अत्याचार पर सोहन प्रसाद का पत्र देखकर अत्यन्त खेद हुआ। यह विषय आर्य सन्तानों के लिए हृदय विदारक है। दूसरे धर्र्मों वाले हिन्दू धर्म की चाहे जितनी निन्दा करें, उन्हें कोई सजा नहीं होती, पर जहाँ बिचारे हिन्दू कुछ बोले कि उन पर ताजीरात हिन्द दफा कायम कर दिये जाते हैं। इसमें हमारी न्यायशील ब्रिटिश गवर्नमेंट की कोई गलती नहीं है क्योंकि उसने तो इसके लिए वाजिब कानून बना रखे हैं, परन्तु धर्माध्यक्षों (जजों) के यथोचित व्यवहार नहीं करने से ऐसे-ऐसे दोष उपस्थित होते हैं। तिस्में भी अब न्यायालयों में मुसलमानों को बड़े-बड़े पद व प्रतिष्ठा मिलने लगे हैं। भला यह लोग कब अपने भाइयों का पक्षपात छोड़ आर्यों का यथार्थ न्याय करेंगे?’
सोहन प्रसाद के पत्र के उत्तर में पत्र लिखने वाले आर्य-हितैषी की विरोध-चेतना, विरोध-पद्धति और शब्दावली विशिष्ट हैं। उन्होंने सरकारी कार्यालयों एवं न्यायालयों में उर्दू भाषा के प्रचलन की समस्या को साम्प्रदायिक अत्याचार के रूप में देखा, उसे न्यायालयों में मुसमलानों की नियुक्ति से जोड़कर देखा, उसे एक हिन्दू पौराणिक उपमा के माध्यम से देश के समक्ष रखा और हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए संस्कृतनिष्ठ हिन्दी पदावली में हिन्दू नरेशों को पुकारा- ‘हे आर्यकुल भूषण, हे आर्यधर्म प्रतिपालक, हे मातृभूमि के गौरव, हे भारत रक्षा के कारण….. पहले भी जब दुष्ट राक्षस आर्यों के धर्म-कर्म में बाधक होते थे तो आप ही लोगों के पूर्वपुरुषों से सहायता पाकर आर्यजन इस घोर विपत्तिजाल से परित्राण पाते थे….. उसी पवित्र कुलसम्भूत आप सभों के वर्तमान रहते यहाँ के गौ, ब्राह्मण तथा अन्यान्य प्रजागण पीड़ित होवें, आप इसकी शान्ति का तनिक उद्योग न करें?’
आर्य-हितैषी ने हिन्दू राजाओं को रानी विक्टोरिया के पास अपने दूत भेजने का निवेदन करते हुए लिखा- ‘तनिक उद्योग कीजिए, देखिए, अभी सब आर्य-शत्रु ढीले पड़ते हैं।’ इस तरह सोहन प्रसाद के पत्र के जवाब में लिखे गये पहले ही पत्र से यह विवाद एक धर्मयुद्ध का आभास देने लगा।
बहुत जल्दी सोहन प्रसाद का मुकदमा हिन्दूधर्म और इस्लाम के बीच एक शक्ति परीक्षण का मुद्दा बन गया। वह न केवल मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं की एकता और प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया अपितु आर्यधर्म की वर्तमान दशा को जांचने की एक कसौटी भी बन गया।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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