औरंगजेब दिन प्रति दिन आगरा के निकट पहुंचता जा रहा था और दारा शिकोह के समर्थकों की संख्या निरंतर घटती जा रही थी। यह देखकर दारा शिकोह की हताशा बढ़ती जा रही थी। दारा को चकमा देकर औरंगजेब आगरा के दरवाजे तक आ पहुँचा!
जब महाराजा जसवंतसिंह की सेना धरमत की लड़ाई में नष्ट हो गई और मिर्जाराजा जयसिंह तथा सुलेमान शिकोह की सेनाएं शाहशुजा के कारण बनारस से अधिक आगे नहीं बढ़ सकीं तो दारा ने सल्तनत के तमाम विश्वसनीय दोस्तों से सम्पर्क किया और उनकी सेनाओं को आगरा से साठ मील दूर चम्बल नदी के किनारे एकत्रित होने के संदेश भिजवाए।
आगरा में घुसने के लिए औरंगज़ेब को हर हाल में चम्बल नदी पार करनी ही थी तथा दारा की योजना थी कि उसे चम्बल पार नहीं करने दी जाए।
दारा के निमंत्रण पर विभिन्न हिन्दू राजाओं, जागीरदारों एवं मुगलिया तख्त के पुराने खैरख्वाहों के एक लाख घुड़सवार सैनिक, बीस हजार पैदल सैनिक तथा अस्सी तोपें चम्बल के किनारे एकत्रित हो गईं। दारा के खेमे में इस समय सबसे प्रमुख उपस्थिति महाराजा छत्रसाल की थी।
इस विशाल सैन्य समूह के सामने औरंगज़ेब और मुराद के पास कुल मिलाकर चालीस हजार घुड़सवार ही थे जो धरमत का युद्ध करने और लगातार चलते रहने के कारण थक कर चूर हो रहे थे।
औरंगजेब की सेना का एक बड़ा हिस्सा महाराजा जसवंतसिंह से हुई लड़ाई में नष्ट हो गया था। फिर भी नमकहराम कासिम के साथ भेजी गई शाही सेनाएं अब औरंगजेब के नियंत्रण में थीं जिनके पास तोपें और बारूद भी पर्याप्त मात्रा में थे।
इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-
सुलेमान शिकोह और मिर्जा राजा जयसिंह अब भी आगरा नहीं पहुँचे थे और दारा शिकोह की हताशा बढ़ती जा रही थी। दारा को भय होने लगा कि कहीं सुलेमान तथा जयसिंह से पहले औरंगज़ेब और मुराद चम्बल नदी तक न पहुंच जाएं। इसलिए वह हाथी पर बैठकर युद्ध क्षेत्र के लिए रवाना हो गया।
शाहजहाँ ने उसे मशवरा दिया कि वह सुलेमान के लौट आने तक इंतजार करे किंतु दारा किसी तरह का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं था। उसे भय था कि जिस तरह नमक हराम कासिम खाँ, धोखा देकर औरंगज़ेब की तरफ हो गया था, उसी तरह कुछ और मुस्लिम सरदार भी ऐसा न कर बैठें। इसलिए दारा सेनाओं के साथ मौजूद रहकर ही अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रख सकता था।
मई के महीने में जब उत्तर भारत में गर्मियां अपने चरम पर थीं, दारा शिकोह आगरा से निकला और तेजी से चलता हुआ कुछ ही दिनों में अपने दोस्तों की सेनाओं से जा मिला।
औरंगजेब, दारा की हर गतिविधि पर दृष्टि रखे हुए था। उसने अपनी सेना का बहुत थोड़ा हिस्सा उस तरफ बढ़ाया जिस तरफ दारा की सेनाओं का शिविर था तथा स्वयं अपनी सेना के बड़े हिस्से को साथ लेकर राजा चम्पतराय की सहायता से बीहड़ जंगल में चम्बल के पार उतर कर तेजी से आगरा की तरफ बढ़ने लगा।
इस समय गर्मियां इतनी तेज थीं कि औरंगज़ेब अपनी सेनाओं को लेकर नर्बदा, क्षिप्रा, चम्बल और यमुना नदियों का सहारा लेकर ही आगे बढ़ पाया था। इस बार भी जब उसने चम्बल का किनारा छोड़ा तो सीधा यमुना के किनारे जाकर दम लिया।
जब दारा को औरंगज़ेब के इस छल के बारे में मालूम हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी। फिर भी दारा ने अपने ऊंटों को औरंगज़ेब के पीछे दौड़ाया जिनकी पीठों पर छोटी तोपें बंधी थीं।
दारा की पैदल सेना भी पंक्ति बांधकर हाथों में बंदूकें थामे, औरंगज़ेब के शिविर की तरफ बढ़ने लगी। हाथियों की गति तो और भी मंथर थी। फिर भी महाराजा रूपसिंह को उजबेकों के साथ छापामारी का लम्बा युद्ध था, इसलिए कुछ देर की अव्यवस्था के बाद दारा शिकोह और महाराजा रूपसिंह की सेनाएं संभल गईं।
जब तक दारा की सेनाएं औरंगज़ेब के निकट पहुँचीं तब तक औरंगज़ेब शामूगढ़ तक पहुँच गया था। यहाँ से आगरा केवल आठ मील दूर रह गया था। एक ऊबड़-खाबड़ सी जगह देखकर औरंगज़ेब ने अपनी सेनाओं के डेरे गढ़वा दिए।
इस समय औरंगज़ेब की सेनाओं की स्थिति ऐसी थी कि औरंगज़ेब के सामने की तरफ आगरा था और औरंगजेब की पीठ की तरफ दारा की सेनाएं। इसलिए औरंगजेब की सेनाएं आगरा की तरफ पीठ करके बैठ गईं।
औरंगज़ेब की कुटिल चाल के आगे वली ए अहद दारा शिकोह तथा महाराजा रूपसिंह की समस्त योजनाएं धरी रह गई थीं तथा अब उन्हें औरंगज़ेब की योजना के अनुसार ही लड़ाई करनी थी।
औरंगजेब को महाराजा रूपसिंह का भय सता रहा था!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता