Friday, March 29, 2024
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82. औरंगजेब ने झूठा पत्र लिख कर वीर दुर्गादास तक पहुंचा दिया!

अजमेर के निकट दौराई के मैदान में औरंगजेब तथा शहजादे अकबर की सेनाएं एक-दूसरे से तीन मील की दूरी पर पड़ाव डाले हुए थीं। औरंगजेब को वे पुराने दिन याद आ गए जब यहाँ से कुछ ही दूरी पर तारागढ़ की पहाड़ी की तलहटी में औरंगजेब तथा उसके बड़े भाई दारा शिकोह की सेनाओं के बीच में अंतिम युद्ध हुआ था और जिसके बाद दारा शिकोह भारत छोड़कर भाग गया था।

उस समय यदि आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह औरंगजेब के पक्ष में नहीं आया होता और मारवाड़ का राजा महाराजा जसवंतसिंह इस युद्ध से दूर नहीं रहा होता और यदि किशनगढ़ का महाराजा रूपसिंह राठौड़ तथा बूंदी का महाराजा छत्रसाल हाड़ा जीवित होते तो औरंगजेब अपने भाई दारा शिकोह से कभी नहीं जीत सकता था किंतु समय का पहिया काफी आगे घूम चुका था। महाराजा जयसिंह, महाराजा जसवंतसिंह, महाराजा रूपसिंह तथा महाराजा छत्रसाल हाड़ा जीवन के रंगमंच पर अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन करके जा चुके थे और औरंगजेब के मुकाबले में तब अनुभवहीन वली-ए-अहद दारा शिकोह खड़ा था और आज उसका अपना अनाड़ी शहजादा मुहम्मद अकबर खड़ा था।

अंतर केवल इतना आया था कि औरंगजेब को अब आम्बेर के कच्छवाहों की पहले जैसी सेवाएं प्राप्त नहीं थीं और मारवाड़ के पच्चीस हजार राठौड़ आज औरंगजेब के विरुद्ध अपनी भुजाओं पर तलवारों को तोल रहे थे। एक बड़ा अंतर और आया था, इस बार छः हजार मेवाड़ी वीर भी औरंगजेब के विरुद्ध सिर पर केसरिया बांध कर खड़े थे जिनसे औरंगजेब के पूर्वजों की लड़ाई पिछले आठ सौ सालों से लगातार चल रही थी।

औरंगजेब के लिए सबसे खराब बात यह थी कि उसके अपने 70 हजार मुगल सैनिक अकबर के नियंत्रण में थे। औरंगजेब ने वीर दुर्गादास द्वारा रचे गए इस चक्रव्यूह को भेदने का निर्णय लिया। इसके लिए ताकत की नहीं छल-बल और षड़यंत्र की आवश्यकता थी, दुर्दैव से औरंगजेब षड़यंत्रों की दुनिया का माहिर खिलाड़ी था।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

औरंगजेब ने सबसे पहले अकबर के सबसे कमजोर सेनापति पर अपना जाल फैंका। पाठकों को स्मरण होगा कि औरंगजेब ने तहव्वर खाँ को अजमेर और जोधपुर का सूबेदार नियुक्त किया था और इस समय वह शहजादे अकबर का मुख्य सेनापति था जबकि तहव्वर खाँ का श्वसुर इनायत खाँ इस समय औरंगजेब का मुख्य सेनापति था।

औरंगजेब ने इनायत खाँ को आदेश दिये कि वह तहव्वर खाँ को अपने पास बुला ले और यदि वह नहीं आये तो तहव्वर खाँ के परिवार को समाप्त कर दे। इस पर इनायत खाँ ने अपने जवांई तहव्वर खाँ को बादशाह के आदेशों की सूचना भिजवाई कि या तो वह तुरंत आकर बादशाह से मिले या फिर बादशाह उसके बीवी-बच्चों को मार देगा।

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यह सूचना मिलने पर तहव्वर खाँ, एक पहर रात गये अकबर का शिविर छोड़कर औरंगजेब के लश्कर में चला गया। रात्रि में ही वह औरंगजेब से मिलने उसकी ड्यौढ़ी पर हाजिर हुआ। तहव्वर खाँ से कहा गया कि वह शस्त्र बाहर रखकर बादशाह से मिलने भीतर जाये किंतु तहव्वर खाँ ने शस्त्र बाहर रखने से मना कर दिया क्योंकि वह हमेशा शस्त्र लेकर ही बादशाह के समक्ष जाया करता था किंतु बादशाह के सिपाहियों ने तहव्वर खाँ की यह मांग स्वीकार नहीं की तथा तहव्वर खाँ को उसी स्थान पर मार दिया।

जिस रात तहव्वर खाँ, अकबर को छोड़कर औरंगजेब के पास गया, उसी रात औरंगजेब ने एक षड़यंत्र रचा। यह वही षड़यंत्र था जो किसी समय शेरशाह सूरी ने मारवाड़ के राव मालदेव के विरुद्ध रचा था। औरंगजेब ने राजपूतों को धोखा देने के लिये अकबर के नाम एक झूठा पत्र लिखकर दुर्गादास के शिविर में पहुँचवा दिया। यह पत्र इस प्रकार से था- मैं तेरे द्वारा राठौड़ों को धोखा देकर फँसा लाने से बहुत प्रसन्न हूँ। कल प्रातःकाल होते ही, मैं आगे से उन पर आक्रमण करूंगा और तू पीछे से हमला बोल देना। इस उपाय से राजपूत आसानी से नष्ट हो जायेंगे।

 जब यह पत्र दुर्गादास को मिला तो वह इसके सम्बन्ध में अपना संदेह मिटाने के लिये अकबर के शिविर में पहुँचा परंतु उस समय अर्द्धरात्रि से भी अधिक समय बीत चुका था तथा अकबर गहरी नींद में सोया हुआ था। दुर्गादास ने अकबर के अंगरक्षकों से अकबर को जगाने के लिये कहा किंतु ऐसा करने की आज्ञा न होने के कारण अंगरक्षकों ने इस बात को मानने से मना कर दिया। इससे दुर्गादास क्रुद्ध होकर लौट गया।

इसके बाद दुर्गादास ने तहव्वर खाँ को अपने शिविर में बुलवाया। राठौड़ों ने तहव्वर खाँ की बहुत तलाश की परंतु उसके शाही सेना में चले जाने का समाचार मिला। इससे राठौड़ों का संदेह गहरा गया। उसी समय दुर्गादास को सूचित किया गया कि अकबर के साथ की पूरी मुस्लिम फौज औरंगजेब की तरफ जा रही है।

इस पर वीर दुर्गादास ने भी अपने राजपूत सिपाहियों को तुरंत शिविर छोड़कर मारवाड़ की तरफ रवाना हो जाने के आदेश दिए। इस प्रकार प्रातःकाल होने के तीन घण्टे पूर्व राजपूत भी अकबर का साथ छोड़कर चले गए।

प्रातःकाल होने पर अकबर के मूर्ख अंगरक्षकों ने उसे सूचित किया कि रात में ही समस्त मुगल सेना और राजपूत सेनाएं, शिविर छोड़कर जा चुकी हैं। अब तो अकबर बहुत घबराया। उसके पास केवल 350 निजी अंगरक्षक एवं असैन्य कर्मचारी ही रह गये थे। अकबर समझ गया कि यदि बादशाह तक इस सूचना के पहुंचने से पहले उसने दौराई का मैदान नहीं छोड़ा तो वह औरंगजेब द्वारा पकड़ लिया जाएगा। इसलिये अकबर अपनी एक बेगम, 25 दासियां तथा जवाहरातों से भरा हुआ एक बक्सा लेकर राठौड़ों के जाने की दिशा में रवाना हुआ।

इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि जब अकबर सुबह उठा तो उसने देखा कि वह अकेला ही रह गया है तो उसने अपनी बेगमों को घोड़ों पर बैठाया और अपना खजाना ऊंटों पर लादकर उसी दिशा में भागा जिस दिशा में राजपूतों के जाने की सूचना मिली थी। उसका जो सामान एवं कुटुम्बी तम्बू में छूट गए थे, उन्हें औरंगजेब ने अपने पास मंगवा लिया।

अकबर द्वारा जल्दबाजी में छोड़े गए सामान में एक पत्रावली भी थी जिसमें औरंगजेब की बड़ी शहजादी जेबुन्न्सिा एवं अकबर के बीच चल रहे पत्र व्यवहार की प्रतियां मौजूद थीं। दुर्दैव से यह पत्रावली भी औरंगजेब के हाथ लग गई। इन पत्रों से ज्ञात हुआ कि शहजादी जेबुन्निसा ने अकबर को इस बात के लिए उकसाया था कि वह अपने पिता औरंगजेब से विद्रोह कर दे ताकि औरंगजेब को हटाकर अकबर को बादशाह बनाया जा सके क्योंकि औरंगजेब अपनी गलत नीतियों के चलते, चगताइयों के महान बादशाह बाबर द्वारा जीते गए मुगल साम्राज्य को नष्ट कर रहा था। 

जब मेरवाड़ा की पहाड़ियों में रहने वाली मेर जाति के आदिवासियों ने देखा कि शहजादा अकबर बहुत थोड़े से आदमियों के साथ राठौड़ों की तरफ जा रहा है तो वे तीर कमान लेकर उसका मार्ग रोककर खड़े हो गये। इस पर अकबर के साथ के स्त्री-पुरुषों ने मेरों पर तीर बरसाये किंतु मेर उन पर भारी पड़े। यह देखकर अकबर ने मेरों को जवाहरात से भरा बक्सा देकर उनसे सुरक्षित मार्ग खरीद लिया।

रबड़िया गांव के पास पहुंचकर अकबर ने दुर्गादास से भेंट की। तब जाकर दुर्गादास को सारी सच्चाई का पता लगा। उसने अपने आदमी मेरों के पीछे भेजे। दुर्गादास के आदमी जवाहरात से भरा हुआ बक्सा मेरों से वापस छीनकर लाए और अकबर को सौंप दिया।

हालांकि राजपूतों के खेमे में अब भी 25 हजार मारवाड़ी राजपूत एवं 6 हजार मेवाड़ी राजपूत मौजूद थे किंतु अब औरंगजेब के पास एक लाख से अधिक सैनिक हो गए थे। इस विशाल सेना से दौराई के खुले मैदान में युद्ध करने में कोई बुद्धिमानी नहीं थी। इसलिये दुर्गादास अकबर को अपने साथ लेकर मारवाड़ की तरफ रवाना हो गया। अकबर के भाग जाने से बादशाही शिविर में बड़ा आनंद मनाया गया।

इसके बाद औरंगजेब अपने सेनापतियों- शाहबुद्दीन खाँ, कुली खाँ, इंद्रसिंह आदि को बागियों का पीछा करने की आज्ञा देकर स्वयं अजमेर दुर्ग में लौट गया। औरंगजेब ने शहजादे मुअज्जम को भी अकबर को वापस लाने के लिये उसके पीछे भेजा किंतु अकबर को अपने बाप पर कतई विश्वास नहीं था। इसलिए अकबर ने अपने बड़े भाई मुअज्जम के साथ चलने से साफ इनकार कर दिया।

अकबर ने दुर्गादास से प्रार्थना की कि मैं अपने पिता औरंगजेब के जीवित रहते मारवाड़ या मेवाड़ में सुरक्षित नहीं हूँ। इसलिए मुझे शंभाजी के पास महाराष्ट्र भिजवा दिया जाए। इस पर वीर दुर्गादास ने अकबर तथा उसके हरम को अपने संरक्षण में लेकर दक्खिन पहुंचाने का निश्चय किया। उसने सत्रह हजार मारवाड़ी सिपाही और छः हजार मेवाड़ी सिपाहियों को मारवाड़ में शाही सेनाओं से युद्ध जारी रखने के लिए कहा और स्वयं आठ हजार राठौड़ सैनिकों को लेकर दक्खिन के लिए रवाना हो गया।

मुगलों की एक सेना अब भी दुर्गादास तथा अकबर के पीछे लगी हुई थी किंतु दुर्गादास ने दक्खिन जाने के लिए दुर्गम मार्ग अपनाया। 9 मई 1681 को अकबरपुर के पास दुर्गादास तथा शहजादे अकबर ने नर्मदा नदी पार की तथा वहाँ से महाराष्ट्र की राह पकड़ी। दुर्गादास और अकबर ने शंभाजी के पास जाने के लिए सीधे मार्ग का अनुसरण करने की बजाय टेढ़े-मेढ़े एवं दुर्गम मार्ग का अनुसरण किया ताकि औरंगजेब के सेनापति उनकी योजना को न समझ सकें।

अंत में इन लोगों ने मुगल सीमा पार कर ली तथा वे शंभाजी के राज्य में प्रवेश कर गए। इस सीमा पर शंभाजी के कई नामी-गिरामी मंत्रियों ने व्यक्तिशः उपस्थित होकर वीर दुर्गादास एवं शहजादे अकबर का स्वागत किया तथा उन्हें ससम्मान शंभाजी के पास ले गए।

शंभाजी ने अकबर को आश्वासन दिया कि वह शीघ्र ही एक बड़ी सेना लेकर औरंगजेब पर आक्रमण करने के लिए उत्तर भारत की तरफ अभियान करेगा। तब तक अकबर एक बादशाह की तरह शंभाजी के राज्य में अतिथि बनकर रह सकता है। वीर दुर्गादास ने अपने चार हजार राजपूत अकबर की रक्षा के लिए नियुक्त कर दिए।

जब औरंगजेब को शहजादे अकबर के शंभाजी की शरण में पहुंच जाने की सूचना मिली तो उसने भी दक्खिन की तरफ जाने का विचार किया। औरंगजेब ने शहजादे मुअज्जम शाह के पुत्र अजीमुद्दीन तथा वजीर जुमलात उल मुल्क असद खाँ को अजमेर में छोड़ दिया तथा स्वयं 8 सितम्बर 1681 को शंभाजी पर आक्रमण करने दक्खिन को चल दिया, जहाँ से वह कभी वापस लौटकर नहीं आया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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