Saturday, July 27, 2024
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बेगम समरू

बेगम समरू कश्मीर के एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुई थी और भाग्यवश वेश्याओं के कोठों पर नाचकर अपना पेट भरती थी। मुगलों के इतिहास में एक ऐसा दिन भी आया जब बेगम समरू की सेना ने लाल किले में घुसकर बादशाह शाहआलम (द्वितीय) के प्राणों की रक्षा की।

ई.1739 से ई.1783 तक की अवधि में ईरानियों, अफगानियों, मराठों, जाटों तथा सिक्खों ने लाल किले को लूटा और बर्बाद किया था किंतु लाल किला अब भी मुगलों की सत्ता और शक्ति का प्रतीक बनकर दिल्ली में खड़ा था। विगत डेढ़ सौ सालों में उसके लाल पत्थरों की चमक इंसानी खून से भीग-भीगकर और अधिक लाल हो गई थी। यह बात अलग थी कि उसके भीतर की समस्त रंगीनियां गायब हो चुकी थीं।

लाल किले की शहजादियों और बेगमों को ईरानी और अफगानी आक्रांता जबर्दस्ती पकड़-पकड़कर ले गए थे जिसके कारण लाल किला भीतर से बिल्कुल सुनसान दिखाई देता था। शाही हरम की रौनकें नष्ट हो चुकी थीं। लाल किले में छाए रहने वाले रूप और रंग के चौंधे तथा शहजादियों के बदन से उठते सुगंधों के झौंके अतीत की बात बन चुके थे। 

अब लाल किले के भीतर इंसानों से अधिक चमगादड़ें दिखाई देती थीं। जगह-जगह घास उग आई थी और किले के भीतर झाड़ू भी कहीं-कहीं लगती थी। वे भिश्ती गायब हो चुके थे जो सुबह-शाम अपनी मशकों में यमुनाजी का जल भरकर लाल किले में छिड़का करते थे। फूलों की क्यारियां सूख गई थीं, नहरों में जल का बहना बंद हो गया था। फव्वारों से निकलने वाली जल धाराओं के अब केवल निशान ही बाकी बचे थे।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

शाही महलों की दीवारों पर लगे मूंगों और मोतियों की जगह उनके निशान ही शेष बचे थे। किले के भीतर बने बावर्ची खानों से आने वाली बिरयानियों की खुशबू की जगह अब केवल रोटियों के सिकने की गंध आती थी। शाही बावर्ची खाने में नित्य ही कटने के लिए आने वाले बकरों, मेंढों और बैलों को राहत मिल गई थी। यमुनाजी से पकड़कर लाई जाने वाली मछलियां अब चैन से यमुनाजी में तैर सकती थीं। मुर्गियों को अब सुबह-सवेरे जिबह हो जाने की चिंता नहीं सताती थी। लाल किले में दाल और रोटी भी मुश्किल से पकती थी।

इतना सब बदल जाने पर भी किला अपनी जगह मौजूद था, उसके भीतर बादशाह रहता था और बादशाहत बनी हुई थी। यह नाममात्र की बादशाहत भी दुश्मनों की आंखों में चुभती थी और वे इसे भी नष्ट कर देने पर उतारू थे।

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पाठकों को स्मरण होगा कि अफगान आक्रांता अहमदशाह अब्दाली ने दो बार रूहेला अमीर नजीब खाँ उर्फ नजीबुद्दौला को लाल किले का मीर बख्शी नियुक्त किया था। आलमगीर (द्वितीय) तथा शाहजहाँ (तृतीय) ने नजीब खाँ उर्फ नजीबुद्दौला को उसके पद पर बनाए रखना चाहा था किंतु पुराने मीर बख्शी गाजीउद्दीन इमादुद्दौला, मराठा सरदार महादजी सिंधे और जाट राजा सूरजमल, नजीब खाँ को बार-बार दिल्ली से मारकर भगा देते थे। नजीबुद्दौला जिद्दी छिपकली की तरह बार-बार लाल किले में लौट आता था।

नजीबुद्दौला एक घमण्डी और अत्यंत महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने लाल किले के बादशाह और उसकी बादशाहत की ताकत बनने की बजाय बादशाह और बादशाहत को कमजोर करने का काम किया था। इस काल की भारतीय राजनीति में नजीबुद्दौला एक घृणित व्यक्ति के रूप में उभर कर सामने आता है।

ई.1771 में नजीबुद्दौला मर गया तो उसका पुत्र जाबिता खाँ भी उसके नक्शे कदम पर चला। जब ई.1783 में सिक्खों ने दिल्ली पर आक्रमण किया था तब नजीबुद्दौला के पुत्र जाबिता खाँ ने सिक्खों का साथ दिया था और स्वयं को मुगल बादशाह का मीरबख्शी घोषित कर दिया था।

ईरान से आए मिर्जा नजफ खाँ नामक एक अमीर ने मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) के लिए बंगाल के अपदस्थ नवाब मीर कासिम की सहायता से एक सेना का निर्माण किया था। बादशाह ने इसी सेना को भेजकर जाबिता खाँ तथा उसके परिवार को पकड़ मंगवाया। बादशाह ने जाबिता खाँ तथा उसके परिवार पर सिक्खों के साथ मिल कर राजद्रोह करने का आरोप लगाया।

बादशाह ने जाबिता खाँ और उसके परिवार को बहुत प्रताड़ित किया तथा जाबिता खाँ के पुत्र गुलाम कादिर के यौन अंग कटवाकर उसे नपुंसक बनवा दिया। जाबिता खाँ और गुलाम कादिर उस समय तो कुछ नहीं कर सके किंतु बदले की आग उनके सीने में धधकती रही। जब जाबिता खाँ मर गया तब भी गुलाम कादिर मुगल बादशाह से अपना बैर नहीं भुला सका। ई.1787 में गुलाम कादिर ने एक बड़ी सेना तैयार करके दिल्ली पर आक्रमण किया।

इस समय कोई मराठा सेना दिल्ली में नहीं थी। इसलिए बादशाह असहाय स्थिति में था। उसने दिल्ली से लगभग 60 मील दूर स्थित सराधना राज्य की शासक बेगम समरू को अपनी सहायता के लिए बुलाया। लाल किले के इतिहास को किंचित् समय के लिए रोककर कर हमें बेगम समरू के बारे में कुछ चर्चा करनी होगी।

बेगम समरू के बचपन का नाम फरजाना था। उसका जन्म ई.1754 में कश्मीर के एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। जब वह थोड़ी बड़ी हुई तो कश्मीर से लखनऊ आ गई और वेश्याघरों में नाचने लगी। जब वह 14 वर्ष की हुई तो भारत में नियुक्त लक्समबर्ग के 45 वर्षीय अंग्रेज अधिकारी वॉल्टर रीनहर्डट सोम्बर के सम्पर्क में आई। सोम्बर ने ही फरजाना को समरू नाम दिया तथा उसे कैथोलिक क्रिश्यचन बनाया।

इसके बाद समरू जीवन भर सोम्बर के साथ रही। सोम्बर उन्नति करता हुआ एक जागीर का स्वामी बन गया जिसकी वार्षिक आय 90 हजार पौण्ड प्रतिवर्ष थी। ई.1778 में सोम्बर का निधन हो गया तथा उसकी सम्पत्ति और जागीर पर समरू ने अधिकार कर लिया।

बेगम समरू की एक सेहली मेरठ के निकट स्थित सराधना जागीर की मालकिन थी। जब सराधना की जागीदारनी मर गई तो वह जागीर भी समरू के अधिकार में आ गई। बेगम समरू ने इस जागीर को मुगल बादशाह से स्वतंत्र करके छोटे राज्य में बदल दिया।

बेगम समरू गोरे रंग तथा नाटे कद की औरत थी जिसमें नेतृत्व करने की अद्भुत क्षमता थी। उसने दो बार बड़ी लड़ाइयों में अपनी सेनाओं का मार्ग दर्शन किया था तथा अपनी जागीर में वृद्धि करती हुई सराधना नामक छोटे से राज्य की स्वामिनी बन गई। बेगम समरू बड़ी व्यवहार कुशल औरत थी। अनेक बड़े अंग्रेज अधिकारियों, नवाबों एवं राजाओं से उसके मधुर सम्बन्ध थे। वह अपने मित्रों से अपने लिए कुछ भी प्राप्त कर सकती थी।

जब मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) छः वर्ष तक निर्वासन में रहा, तब बेगम समरू शाहआलम के सम्पर्क में आई। यही कारण था कि संकट की इस घड़ी में बादशाह ने बेगम समरू को स्मरण किया।

जब बेगम समरू को बादशाह का संदेश मिला तो समरू ने इसे अपने लिए बड़ा अवसर समझा और वह अपनी सेना लेकर दौड़ी चली आई। समरू की सेना ने गुलाम कादिर की सेना को परास्त करके भाग जाने पर विवश कर दिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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