Saturday, July 27, 2024
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वाजिद अली शाह

लॉर्ड डलहौजी एक-एक करके बड़ी तेजी से देशी रियासतों को हड़पता जा रहा था। उसने अवध पर भी आंख गढ़ा दी जहाँ विलासी नवाब वाजिद अली शाह शासन कर रहा था।

ईस्वी 1848 से ही भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के खूनी पंजे भारत भूमि को तेजी से जकड़ते जा रहे थे। देशी रियासतों को हड़पने के लिए डॉक्टराइन ऑफ लैप्स तो डलहौजी का सबसे बड़ा हथियार था ही किंतु साथ ही वह उन राजाओं को जबर्दस्ती उनकी रियासतों से हटा देता था जो राजा अंग्रेजों के समक्ष विनय का प्रदर्शन नहीं करते थे।

कम्पनी सरकार के लिए इन राजाओं को हटाकर वृंदावन, बिठूर तथा कलकत्ता आदि स्थानों पर भेज दिया जाना बहुत सामान्य बात हो चली थी क्योंकि इस काल में देशी राजाओं के पास सेनाएं ना के बराबर थीं तथा अंग्रेज उन राजाओं पर केवल इतना सा आरोप लगाते थे कि उनका राज्य कुप्रबंधन का शिकार हो गया है। लॉर्ड डलहौजी तो मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को भी लाल किला खाली करके महरौली चले जाने का आदेश सुना चुका था।

अवध की प्रसिद्ध, विशाल एवं समृद्ध रियासत भी डलहौजी की इसी नीति का शिकार हुई। पाठकों को स्मरण होगा कि अवध के सूबेदार औरंगजेब की मृत्यु के बाद अर्द्धस्वतंत्र शासक की स्थिति में आ गए थे।

जब ईस्वी 1739, 1756 एवं 1761 में ईरानियों एवं अफगानियों ने मुगल सल्तनत पर भीषण आक्रमण करके लाल किले की चूलें हिला दीं तो अवध के सूबेदार नाममात्र के लिए लाल किले के अधीन रह गए। मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) को ईस्वी 1765 से 1771 तक अवध के नवाब शुजाउद्दौला के संरक्षण में इलाहाबाद के दुर्ग में रहना पड़ा था।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

ईस्वी 1765 में हुई इलाहाबाद की संधि के बाद अवध का सूबा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रभाव में चला गया था। ईस्वी 1818 से अवध मुगलों का एक सूबा न रहकर पूरी तरह से लाल किले से मुक्त हो गया तथा कम्पनी सरकार की अधीनस्थ मित्र रियासत के रूप में स्थापित हो गया था।

ईस्वी 1848 में अवध का अंतिम नवाब वाजिद अली शाह गद्दी पर बैठा। उसका जन्म 30 जुलाई 1822 को लखनऊ में हुआ था। उसका पिता अमजद अली शाह भी अवध का नवाब था। मुगल इतिहास में वाजिद अली शाह के बारे में दो तरह की धारणाएं मिलती हैं।

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पहली धारणा अंग्रेज लेखकों एवं कम्पनी के अधिकारियों द्वारा निर्मित की गई है जिसके अनुसार वाजिद अली शाह निकम्मा और अय्याश किस्म का शासक था जिसे शासन तथा प्रजा-पालन से कोई लेना-देना नहीं था। अंग्रेजों की दृष्टि में वह इतना अकर्मण्य था कि ईस्वी 1851 में लॉर्ड डलहौजी ने अवध की रियासत के बारे में सार्वजनिक वक्तव्य दिया कि ‘यह बेर एक दिन हमारे मुंह में आकर गिरेगा।’

जबकि दूसरी धारणा के अनुसार वाजिद अली शाह प्रजा-पालक तथा उदार शासक था। यह धारणा भारत के मुस्लिम एवं साम्यवादी चिंतकों द्वारा निर्मित की गई है। इन लेखकों के अनुसार नवाब वाजिद अली शाह को संगीत, नृत्य तथा अन्य ललित कलाओं से इतना प्रेम था कि उसे भारत के मुस्लिम इतिहास का दूसरा मुहम्मद शाह रंगीला कहा जा सकता है जो ललित कला के सबसे उदार और भावुक संरक्षकों में से एक था। भारतीय संगीत में नवाब वाजिद अली शाह का नाम अविस्मरणीय है। उसके दरबार में हर समय संगीत का जलसा हुआ करता था। गायकी की ठुमरी विधा का आविष्कार नवाब वाजिद अली शाह ने ही किया था जिसे कत्थक नृत्य के साथ गाया जाता था।

वाजिद अली शाह ने कई बेहतरीन ठुमरियों की रचना की। वह होली खेलने का भी शौकीन था। भगवान श्री कृष्ण को संबोधित करके लिखी गई उसकी एक ठुमरी इस प्रकार है- ‘मोरे कान्हा जो आए पलट के, अब के होली मैं खेलूंगी डट के।’

उत्तर भारत के लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य कत्थक का वाजिद अली शाह के दरबार में विकास हुआ। गुलाबो-सिताबो नामक विशिष्ट कठपुतली शैली वाजिद अली शाह की जीवनी पर आधारित है। इस शैली का विकास वाजिद अली शाह के दरबार में प्रमुख आंगिक दृश्य कला के रूप में हुआ।

वाजिद अली शाह ने अपने दरबार में अनेक साहित्यकारों और कवियों को संरक्षण दिया जिनमें से बराक, अहमद मिर्जा सबीर, मुफ्ती मुंशी और आमिर अहमद अमीर आदि प्रमुख थे। इन साहित्यकारों ने वाजिद अली शाह, इरशाद-हम-सुल्तान और हिदायत-हम-सुल्तान के आदेशों पर कुछ पुस्तकें भी लिखीं।

कत्थक की तरह शतरंज का खेल भी वाजिद अली शाह के दरबार में अपने चरम पर पहुंचा। कला एवं साहित्य के क्षेत्र में उसके योगदान को देखते हुए कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि यह अवध का सौभाग्य था जो उसे वाजिद अली जैसा शासक मिला।

अनेक अंग्रेज अधिकारियों की डायरियों एवं पत्रों में कहा गया है कि उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में अवध एक खुशहाल प्रांत था। लखनऊ रेजीडेंसी के नायब मेजर बर्ड ने इसे भारत का चमन बताते हुए लिखा है कि- ‘कंपनी की सेना में अवध के रहने वाले कम से कम 50,000 सिपाही हैं लेकिन वे अपने परिवार को नवाब के राज्य में छोड़कर निश्चिंत भाव से नौकरी करते हैं। वे फौज से रिटायर होने के बाद अवध में वापस आकर शांति से रहते हैं।’

इसी तरह पादरी हेबर ने ईस्वी 1824-25 में अवध की यात्रा के बाद लिखा था कि- ‘इतनी व्यवस्थित खेतीबाड़ी और किसानी देख कर मैं आश्चर्यचकित हूं। लोग आराम से रहते है तथा जनता समृद्ध है।’

अंग्रेज अधिकारी स्लीमन ने ईस्वी 1852 में अपने एक उच्च अधिकारी को लिखे गए पत्र में लिखा था कि- ‘अवध की गद्दी पर इतना अच्छा और कटुता रहित बादशाह कभी नहीं बैठा। अवध पर हमारा एक भी पैसा ऋण नहीं है, उलटे कंपनी स्वयं अवध सरकार की चार करोड़ रूपए की कर्जदार है।’

अंग्रेजों को वाजिद अली शाह फूटी आंख नहीं सुहाता था। इसके कई कारण थे जिनमें से एक बड़ा कारण यह भी था कि नवाब वाजिद अली शाह ब्रिटेन में बने कपड़े की जगह देशी बुनकरों के हाथों से बुने हुए कपड़े को बढ़ावा देता था तथा स्वयं भी देशी बुनकरों के हाथों से बुना हुआ कपड़ा पहनता था।

एक देशी रियासत अंग्रेजों के सामने घुटने टिकाने और गिड़गिड़ाने के स्थान पर आत्मनिर्भर बनी रहे, यह किसी भी कीमत पर अंग्रेजों के लिए सह्य नहीं था। इसलिए अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को हटाकर अवध की भारत-प्रसिद्ध एवं अत्यंत समृद्ध रियासत को हड़पने का निर्णय लिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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