अंग्रेजों ने धारणा स्थापित की कि नीच और मूर्ख भारतीय जाति गोरी एवं श्रेष्ठ अंग्रेज जाति द्वारा शासन करने के लिए बनी है। इसी अधिकार से वे भारतीयों को फांसी देने लगे।
भारत में अंग्रेजी शासन के दो चेहरे थे। अंग्रेजी सत्ता का सामने की ओर दिखाई देने वाला चेहरा बड़ा न्यायप्रिय, अनुशासनप्रिय एवं विकासवादी था। इस चेहरे का निर्माण भारत में खोले गए न्यायालयों, चर्चों, मिशनरी चिकित्सालयों, विद्यालयों, रेलगाड़ियों, सड़कों, पुलों आदि के माध्यम से किया जाता था।
अंग्रेजों का यह चेहरा देखने में बहुत मुलायम था किंतु इसकी वास्तविकता बड़ी भयावह थी। नीच और मूर्ख भारतीय जाति को सुधारने के लिए वे एक दूसरा चेहरा भी रखते थे।
अंग्रेजी सत्ता अपने न्यायालयों का उपयोग नीच और मूर्ख भारतीय जाति को फांसी की सजा सुनाने के लिए करती थी तथा उस निर्णय पर लाल किले में बैठे बादशाह से मुहर लगवाती थी। ताकि कोई भी व्यक्ति कम्पनी सरकार पर यह आरोप नहीं लगा सके कि वह भारतीयों को अपनी मर्जी से मार रही है। लाल किले की सत्ता को बनाए रखकर कम्पनी यह सिद्ध करना चाहती थी कि वह बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में भारत पर शासन कर रही है।
रेलों, सड़कों एवं पुलों का निर्माण भारत की उन्नति के नाम पर किया जा रहा था किंतु इनका वास्तविक उपयोग अंग्रेजी सेनाओं तथा सैन्य सामग्री को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने एवं भारत में उत्पन्न कच्चे माल को बंदरगाहों एवं गोदियों तक पहुंचाने में किया जाता था। अंग्रेजी विद्यालयों, चर्चों, मिशनरी चिकित्सालयों एवं विद्यालयों का उपयोग भारतीयों के प्रति करुणा दिखाने के नाम पर किया जा रहा था किंतु उनका वास्तविक उपयोग भारतीयों को ईसाई धर्म की तरफ लुभाने के लिए किया जा रहा था।
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कम्पनी सरकार का दूसरा चेहरा दिखाई नहीं देता था किंतु वह बड़ा विकराल एवं भयावह था। सम्पूर्ण अंग्रेज जाति भारतीयों को पशुओं के समान समझती थी। अंग्रेज अधिकारी भारतीयों को आधे गोरिल्ला, आधे हब्शी, निम्न कोटि के पशु, मूर्तिपूजक, काले भारतीय आदि कहकर उनका मखौल उड़ाया करते थे। आम आदमी जिसे वे नीच और मूर्ख भारतीय कहते थे, के साथ अंग्रेज अधिकारियों का बर्ताव बहुत बुरा था।
कॉलिंस एवं लैपियरे ने लिखा है- ‘जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजों का राज्य फैलता गया वैसे-वैसे अंग्रेजों के मन में यह विश्वास जड़ जमाता गया कि गोरी जाति श्रेष्ठ और ऊंची है। काले भारतीय नीच और मूर्ख हैं। उन पर शासन करने की जिम्मेदारी ईश्वर नामक रहस्यमय शक्ति ने अंग्रेजों के ही कंधों पर रखी है। अंग्रेज वह जाति है जो केवल जीतने और शासन करने के लिए पैदा हुई है। ….. भारतीयों द्वारा अंग्रेजों को ऊंचे दर्जे के डिब्बे में यात्रा के समय एवं उनके बंगलों तथा विश्राम-गृहों में शिकार से लौटे साहब लोगों के जूतों के फीते खोलने और उनकी थकी हुई टांगों पर तेल लगाने के लिए विवश किया जाता था। ….. भारत में अंग्रेजों की शासन पद्धति शुरू से कुछ ऐसी रही जैसे कोई बूढ़ा स्कूल मास्टर कक्षा के उज्जड विद्यार्थियों को बेंत के जोर पर सही करने निकला हो। इस स्कूल मास्टर को पूरा विश्वास था कि विद्यार्थियों को जो शिक्षा वह दे रहा है, वही उनके लिए सही और सर्वश्रेष्ठ है।’
यदि अपवादों को छोड़ दें तो अंग्रेज अधिकारी अपनी योग्यता का परिचय देते थे किंतु उनमें धैर्य तथा शिष्टाचार का अभाव था और उनमें सिर से लेकर पांव तक भ्रष्टाचार व्याप्त था। अंग्रेज अधिकारी भारतीयों को नीच और मूर्ख समझते थे। इन नीच एवं मूर्ख भारतीयों पर शासन करने की दैवीय जिम्मेदारी का वहन करने के लिए अंग्रेजों ने इण्डियन सिविल सर्विस की स्थापना की जिसमें 2,000 अंग्रेज अधिकारी नियुक्त हुए। 10,000 अंग्रेज अधिकारियों को भारतीय सेना सौंप दी गई। तीस करोड़ लोगों को अनुशासन में रखने के लिए 60,000 अंग्रेज सिपाही इंगलैण्ड से आ धमके। उनके अतिरिक्त दो लाख भारतीय सिपाही भारतीय सेनाओं में थे ही।
भारत में कम्पनी सरकार के प्रशासनिक तंत्र एवं न्याय तंत्र में भी भारतीयों के साथ भेदभाव किया जा रहा था, इसलिए भारतीय कर्मचारी कम्पनी के रवैये से असंतुष्ट थे। लार्ड कार्नवालिस ने भारतीयों को उच्च पदों से वंचित कर दिया। भारतीय प्रशासन में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग उत्पन्न हो गया जो स्वयं को भारतीय कर्मचारियों से पूरी तरह अलग रखता था और उन्हें बात-बात पर अपमानित करता था।
भारतीय कर्मचारियों के साथ उनका व्यवहार मूक पशुओं के साथ होने वाले व्यवहार जैसा था। न्यायिक प्रशासन में भी अँग्रेजों को भारतीयों से श्रेष्ठ स्थान दिया गया था। भारतीय जजों की अदालतों में अँग्रेजों के विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं हो सकता था क्योंकि किसी भी भारतीय जज को अंग्रेज जाति के व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था।
अँग्रेजों ने जो विधि प्रणाली लागू की, वह भारतीयों के लिए बिल्कुल नई थी। इस कारण साधारण भारतीय इसे समझ नहीं पाते थे। इसमें अत्यधिक धन व समय नष्ट होता था और अनिश्चितता बनी रहती थी।
भारतीयों के प्रति अँग्रेजों का सामान्य व्यवहार अत्यंत अपमानजनक था। भारतीय, रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकते थे। अँग्रेजों द्वारा संचालित होटलों एवं क्लबों की तख्तियों पर लिखा होता था- ‘कुत्तों और भारतीयों के लिये प्रवेश वर्जित।’
आगरा के एक मजिस्ट्रेट द्वारा एक आदेश के माध्यम से, अँग्रेजों के प्र्रति भारतीयों द्वारा सम्मान प्रदर्शन के तरीकों का एक कोड निर्धारित करने का प्रयास किया गया- ‘किसी भी कोटि के भारतीय के लिए कठोर सजाओं की व्यवस्था करके उसे विवश किया जाना चाहिये कि वह सड़क पर चलने वाले प्रत्येक अँग्रेज का अभिवादन करे। यदि कोई भारतीय घोड़े पर सवार हो या किसी गाड़ी में बैठा हो तो उसे नीचे उतर कर आदर प्रदर्शित करते हुए उस समय तक खड़े रहना चाहिये, जब तक अँग्रेज वहाँ से चला नहीं जाये।’
ई.1857 के आने तक भारत की सभी देशी रियासतों पर अंग्रेजों ने अपना अधिकार जमा लिया था। अब राज्यों के पास अपनी सैन्य शक्ति कुछ भी शेष नहीं बची थी। देशी राजाओं की स्थिति यह हो चुकी थी कि एक तरफ तो वे अंग्रेज अधिकारियों के शिकंजे में कसे जाकर छटपटा रहे थे तो दूसरी ओर उन्हें यह भी स्पष्ट भान था कि यदि देशी राज्यों को बने रहना है तो अंग्रेजी शासन को मजबूत बनाए रखने के लिए उन्हें हर संभव उपाय करना होगा।
सर थॉमसन मुनरो ने गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स को 11 अगस्त 1857 को लिखे एक पत्र में लिखा है कि घरेलू अत्याचार तथा पारदेशिक आक्रमण से सुरक्षा भारतीय नरेशों के लिए महंगी पड़ी है। उनको अपनी स्वतंत्रता, राष्ट्रीय आचरण तथा जो कुछ मनुष्य को आदरणीय बनाता है, इत्यादि का बलिदान करना पड़ा है।
इस स्थिति से राज्यों में द्वैध शासन जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगीं जिसका परिणाम यह हुआ कि राज्यों में अराजकता फैलने लगी और ई.1857 में लगभग पूरे देश के देशी राज्यों में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति विद्रोह हो गया। राजपूताने में भी विद्रोह की चिन्गारी बड़ी तेजी से फैली किंतु देशी राजाओं के सहयोग से इस विद्रोह को शीघ्र ही कुचल दिया गया। वस्तुतः राजपूताना ने ही अंग्रेजी शासन को जीवन दान दिया।
ई.1857 में देश में जिस प्रकार की परिस्थितियां बनीं, उनके लिए राष्ट्रीय स्तर पर भले ही लॉर्ड डलहौजी द्वारा भारतीय राज्यों को हड़पने के लिए आविष्कृत डॉक्टराइन ऑफ लैप्स की नीति, भारत में ईसाई धर्म-प्रचार की चेष्टाएं तथा अपने ही भारतीय सैनिकों के प्रति भेदभाव युक्त कार्यवाहियाँ जिम्मेदार थीं किंतु राजपूताने में उत्पन्न स्थितियों के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी नहीं अपितु भारतीय रजवाड़ों तथा उनके अधीन आने वाले ठिकाणों का आपसी संघर्ष जिम्मेदार था।
यही कारण था कि जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अत्याचारों के कारण ई.1857 में पूरे देश में सशस्त्र सैनिक क्रांति हुई सैनिक विद्रोह हुआ तो उसे स्थानीय जागीरदारों तथा गिने-चुने असंतुष्ट राजाओं का सहयोग मिला जबकि अधिकांश बड़े राजाओं ने अंग्रेज शक्ति का साथ दिया। अंग्रेज जिन्हें नीच और मूर्ख भारतीय कहते थे, अब छाती ठोक कर अंग्रेजों के सामने खड़े हो गए और अंग्रेजों को गोली मारने लगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता