ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गोरे सिपाहियों ने दिल्ली में जो कत्लेआम मचाया, उसे देखकर तैमूर लंग की वीभत्स यादें फिर से जीवित हो उठीं।
जिस दिन हॉडसन ने बहादुरशाह जफर के तीन शहजादों को गोली मारी, उसी दिन अर्थात् 21 सितम्बर 1857 को अंग्रेजों ने दिल्ली पर फिर से कम्पनी सरकार का अधिकार हो जाने की घोषणा की। उसके दो दिन बाद अर्थात् 23 सितम्बर को ब्रिगेडियर जॉन निकल्सन मर गया।
दिल्ली पर अधिकार करने में कम्पनी सरकार के 3 हजार 817 सैनिक मृत्यु को प्राप्त हुए जिनमें से 1 हजार 677 भारतीय सिपाही एवं 1 हजार 360 अंग्रेज सिपाही सम्मिलित थे। इस दौरान कम्पनी सरकार के लगभग पांच हजार सैनिक घायल हुए।
यह कहना असंभव है कि इस क्रांति में दिल्ली नगर में कितने क्रांतिकारी सैनिक शहीद हुए किंतु इतिहासकारों का अनुमान है कि इस दौरान कम से कम 5 हजार क्रांतिकारी सैनिकों ने अपने देश को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लालसा में अपने प्राण न्यौछावर किए। घायलों और गायब हो गए सैनिकों का कोई अनुमान या आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
इस दौरान दिल्ली के कितने नागरिकों को अपने जीवन गंवाने पड़े, उनका कोई हिसाब नहीं है किंतु यह तय है कि दिल्ली के हजारों नागरिकों को कम्पनी सरकार के सैनिकों ने, सैंकड़ों नागरिकों को क्रांतिकारी सैनिकों ने तथा सैंकड़ों नागरिकों को गुण्डों एवं उपद्रवियों ने मार डाला। सैंकड़ों निरीह नागरिक दोनों तरफ के सिपाहियों की बीच हुई गोलीबारी एवं तोप के गोालों से मारे गए।
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1857 की क्रांति के समय दिल्ली की जनसंख्या 1 लाख 52 हजार थी। अँग्रेज सेनाओं ने पांच दिन के संघर्ष के बाद दिल्ली पर अधिकार करके हजारों सैनिकों, जन-साधारण एवं निर्दोष व्यक्तियों का कत्लेआम किया। यह ठीक वैसा ही था जैसा किसी समय तैमूर लंग अथवा नादिरशाह ने किया था।
इस कत्लेआम की तुलना सितम्बर 1398 में तैमूर लंग द्वारा, ईस्वी 1739 में नादिरशाह द्वारा तथा ई.1761 में अहमदशाह अब्दाली द्वारा दिल्ली में करवाये गये कत्ले आमों से की जा सकती है। ई.1857 में तीन दिन तक चले कत्लेआम में दिल्ली के हजारों लोगों को मारा गया। जफरनामा लिखता है कि लोगों के सिर काट कर उनके ऊँचे ढेर लगा दिये गये और उनके धड़ हिंसक पशु-पक्षियों के लिये छोड़ दिये गये…….।
यद्यपि क्रांतिकारी सैनिकों ने भी अँग्रेज अधिकारियों एवं उनके परिवारों की हत्याएँ की थीं किन्तु उन्होंने ये हत्याएँ विप्लव के समय में की थीं जबकि अँग्रेजों ने दिल्ली के निर्दोष नागरिकों का रक्तपात, विद्रोह की समाप्ति के बाद आरम्भ किया था। भारतीय सैनिकों ने उन अँग्रेज अधिकारियों एवं उनके परिवारों की हत्याएं कीं जो भारतीयों पर अमानवीय ढंग से शासन तथा अत्याचार कर रहे थे किंतु अँग्रेजों ने केवल विद्रोही सैनिकों का ही नहीं अपितु निर्दोष नागरिकों का भी हजारों की संख्या में कत्ल किया। इन नागरिकों का विप्लव से दूर-दूर तक सम्बन्ध नहीं था। दिल्ली की लूट और विनाश के सम्बन्ध में टाइम्स पत्र के एक संवाददाता ने लिखा है- ‘शाहजहाँ के शहर में नादिरशाह के कत्लेआम के बाद ऐसा दृश्य नहीं देखा गया था।’
इस समय अंग्रेज लगभग पूरे भारत में कत्लेआम कर रहे थे। जॉन निकल्सन तथा हर्बर्ट एड्वर्ड्स की तरह जनरल नील तथा जनरल हैवलॉक ने इलाहाबाद और बनारस के क्षेत्र में गांव-के-गांव जला दिये और खेतों में खड़ी फसलें बर्बाद कर दीं। बिना मुकदमा चलाये, हजारों लोगों को मृत्यु दण्ड दिया गया।
इतिहासकार जॉन ने लिखा है- ‘तीन माह तक आठ गाड़ियां सुबह से शाम तक शवों को चौराहों एवं बाजारों से हटाकर ले जाने में व्यस्त रहीं। किसी भी व्यक्ति को भागकर नहीं जाने दिया गया, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति उन्हें विद्रोही दिखाई दे रहा था।
सम्भवतः वे भारतीयों को बता देना चाहते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करना सरल नहीं है। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि ये अत्याचार उन अँग्रेजों द्वारा किये गये जो अपने आपको सभ्य, प्रगतिशील और शिक्षित कहते थे और जो भारतीयों को सभ्य बनाने के लिये आये थे।’
जहाँ अंग्रेज अधिकारी क्रूरता का प्रदर्शन कर रहे थे वहीं गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग उदारता का प्रदर्शन कर रहा था। अनेक अँग्रेज अधिकारियों ने लॉर्ड केनिंग की उदार नीति की बड़ी आलोचना की तथा क्रान्ति का दमन करने में पाशविक वृत्ति का परिचय देते रहे किन्तु केनिंग ने स्पष्ट घोषणा की कि-
‘जो विद्रोही सिपाही हथियार डाल देगा, उसके साथ न्याय होगा तथा हिंसा करने वालों को छोड़कर समस्त लोगों को क्षमा कर दिया जायेगा।’
इस घोषणा का व्यापक प्रभाव पड़ा। बहुत से लोगों ने हथियार डाल दिये। केनिंग की इस उदार नीति से क्रांति बहुत कम समय में समाप्त हो गई। पी. ई. राबर्ट्स ने लिखा है-
‘उसकी नम्रता न केवल नैतिक रूप से विस्मयकारी थी, वरन् राजनीतिक रूप से औचित्यपूर्ण थी।’
हालांकि लॉर्ड केनिंग की घोषणा केवल घोषणा ही बन कर रह गई। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा किसी को क्षमा नहीं किया गया। जितने अधिक भारतीयों को मारा जा सकता था, मारा गया। ताकि आने वाले दिनों में भारतवासी कोई क्रांति न कर सकें। वे अपने खेतों में चुपचाप कपास, गन्ना और नील पैदा करके इंग्लैण्ड की मिलों को पहुंचाते रहें।
दिल्ली नगर में हर ओर फांसी के तख्ते लगाए जाने लगे। दिल्ली में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा जहाँ फांसी का तख्ता न लगा हो! सबसे बड़ा फंदा चांदनी चौक के बीचों-बीच था, एक बेढंगा सा लकड़ी का ढांचा जो पूरी सड़क पर अकेली चीज थी, जो नई थी और साबुत खड़ी थी!
कुछ दिन बाद 23 वर्षीय लेफ्टिीनेंट ओमैनी चांदनी चौक पर घूमने गया। उसने लौटकर अपनी डायरी में लिखा-
’19 आदमी कोतवाली के सामने एक फांसी के तख्ते पर लटके हुए थे और 9 दूसरे पर। चांदनी चौक फांसी का तमाशा देखने वाले अंग्रेजों एवं यूरोपियनों की भीड़ से भरा हुआ था जैसे फ्रांस की क्रांति के युग में पेरिस का मुख्य चौक भरा रहता था।’
स्वयं लॉर्ड केनिंग ने महारानी विक्टोरिया को एक पत्र में लिखा-
‘बहुत से अंग्रेजों के दिलों में हिंदुस्तानियों के विरुद्ध हिंसापूर्ण घृणा भरी हुई है। उन पर एक जुनूनी बदले की भावना सवार है। यह देखकर मुझे अपनी अंग्रेज जाति पर शर्म आती है। दस लोगों में से एक भी यह नहीं सोचता कि चालीस या पचास हजार विद्रोहियों और अन्य भारतीयों को फांसी या बंदूक से मार देना गलत है।’
दिल्ली में हर बंदी को फांसी पर नहीं चढ़ाया गया, बहुतों को गोली मार दी गई। हर मुकदमे में मौत ही एकमात्र सजा थी। बादशाह बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार किए जाने के साथ ही 1857 की क्रांति समाप्त हो गई तथा लाल किला पूरी तरह अंग्रजों के अधीन हो गया!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता