Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 11 (ब) : तुगलक वंश का चरमोत्कर्ष एवं मुहम्मद बिन तुगलक

मुहम्मद बिन तुगलक की शासन व्यवस्था

मुहम्मद बिन तुगलक योग्य तथा प्रतिभावान् व्यक्ति था। उसने शासन में कई सुधार किये तथा कई नई व्यवस्थाएँ कीं-

(1.) स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासन: मुहम्मद बिन तुगलक का शासन स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था। सुल्तान शासन का प्रधान तथा समस्त अधिकारों का स्रोत था। यद्यपि सुल्तान की शक्ति अनियन्त्रित थी परन्तु महत्वपूर्ण विषयों में उसे परामर्श देने के लिए एक परिषद् बनाई गई थी। परिषद् के अतिरिक्त कुछ उच्च पदाधिकारी एवं अमीर भी सुल्तान को परामर्श देते थे। सुल्तान प्रायः उनके परामर्श को नहीं मानता था।

(2.) विदेशी अमीरों की नियुक्ति: जब मुहम्मद बिन तुगलक को देशी अमीरों की अयोग्यता का पता लग गया, तब उसने विदेशी अमीरों को उच्च पद देना आरम्भ किया। यह साम्राज्य के लिए हितकर सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि वे सच्चे राजभक्त सिद्ध नहीं हुए और अवसर पाकर विद्रोह करने लगे। विदेशी तथा देशी अमीरों में संघर्ष उत्पन्न हो गया।

(3.) योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ: मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने सम्पूर्ण राज्य को प्रान्तों में विभक्त किया तथा प्रत्येक प्रान्त के शासन के लिए एक ‘नायब वजीर’ नियुक्त किया जो सुल्तान के प्रति उत्तरदायी होता था। सुल्तान की सहायता के लिए एक नायब होता था जो सुल्तान की अनुपस्थिति में उसके कार्यों को करता था। सुल्तान का एक वजीर, अर्थात् प्रधानमन्त्री भी होता था जिसकी सहायता के लिए चार शिकदार होते थे। वजीर के चार दबीर, अर्थात सेक्रेटरी होते थे। प्रत्येक दबीर के नीचे तीन सौ लिपिक होते थे। राज्य में कोई भी पद आनुवंशिक नहीं था। कर्मचारियों की नियुक्त योग्यता के आधार पर की जाती थी।

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(4.) उलेमाओं के वर्चस्व की समाप्ति: दिल्ली सल्तनत इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित थी। इस कारण शासन में उलेमाओं का बोलबाला था। बलबन तथा अलाउद्दीन खिलजी की तरह मुहम्मद बिन तुगलक ने भी राजनीति को धर्म से अलग रखने की नीति का अनुसरण किया। वह उलेमाओं से बहुत कम परामर्श लेता था। और उनके परामर्श के अनुसार काम नहीं करता था। वह दोषी उलेमाओं को दण्ड देने में लेशमात्र संकोच नहीं करता था। उसने उन्हें न्याय करने के अधिकार से वंचित कर दिया जिसे वे अपना एकाधिकार समझते थे। इस कारण उलेमाओं का वर्चस्व समाप्त हो गया और वे सुल्तान से नाराज हो गये। सुल्तान ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसके शासन काल में हिन्दुओं को अनावश्यक रूप से दण्डित नहीं किया गया।

(5.) कठोर दण्ड विधान पर आधारित न्याय व्यवस्था: मुहम्मद बिन तुगलक न्यायप्रिय शासक था किंतु उसका दण्ड विधान बहुत कठोर था। न्याय का कार्य प्रायः काजी करते थे जिसकी सहायता के लिए मुफ्ती हुआ करते थे। न्याय विभाग का प्रधान ‘सद्र-जहान काजी उल-कुजात’ कहलाता था। उसके नीचे बहुत से काजी तथा नायब काजी होते थे। न्याय की दृष्टि में छोटे-बड़े सब समान थे। दोषियांे एवं अपराधियों को प्रायः मृत्यु दण्ड तथा अंग भंग करने का दण्ड दिया जाता था। छोटी अदालतों की अपील सुल्तान स्वयं सुनता था।

(6.) सेना पर आधारित शासन: मुहम्मद बिन तुगलक को विशाल सल्तनत संभालने के लिये विशाल सेना की व्यवस्था करनी पड़ी थी। उसकी सेना में तुर्क, फारसी तथा भारतीय समस्त प्रकार के सैनिक थे। विदेशियों को भी सेना में उच्च पद दिये गये थे। सेना के सबसे बड़े अफसर खान कहलाते थे। खान के नीचे मलिक, मलिक के नीचे अमीर, अमीर के नीचे सिपहसालार और सिपहसालार के नीचे जुन्द होते थे। सैनिकों को नकद वेतन मिलता था। उन्हें भोजन, वस्त्र तथा घोड़ों का चारा भी मिलता था। विद्रोहों को दबाने के लिये सेना हर समय सक्रिय रहती थी।

(7.) पुलिस तथा जेल: मुहम्मद बिन तुगलक ने अपराधों की रोकथाम के लिये पुलिस तथा जेल का अच्छा प्रबन्ध किया। पुलिस विभाग का प्रधान पदाधिकारी कोतवाल था। वह शान्ति तथा व्यवस्था के लिए पूर्ण रूप से उत्तरदायी होता था। सुल्तान ने गुप्तचर विभाग की भी व्यवस्था की थी। जेलों की संख्या कम थी क्योंकि प्रायः मृत्यु दण्ड तथा अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था। किले ही जेल का काम करते थे।

(8.) लगान वसूली की व्यवस्था: मुहम्मद बिन तुगलक ने लगान अथवा मालगुजारी वसूल करने का भी सुदृढ़ प्रबन्ध किया था। सारी भूमि शिकों में विभक्त कर दी गई थी। प्रत्येक शिक में एक शिकदार नियुक्त किया गया था जो मालगुजारी वसूल करता था। दोआब की भूमि एक सहस्र गाँवों में विभक्त थी जो हजारह कहलाती थी। कभी-कभी भूमि ठेकेदारों को दी जाती थी।

(9.) अकाल राहत की व्यवस्था: जब दो-आब में लम्बा दुर्भिक्ष पड़ा और किसानों की हालत खराब होने लगी तो मुहम्मद बिन तुगलक अपना दरबार सरगद्वारी ले गया और वहाँ पर ढाई वर्ष तक दुर्भिक्ष पीड़ितों की सहायता करता रहा। उसने किसानों को लगभग 70 लाख रुपये तकावी के रूप में बँटवाये। अकाल का प्रभाव कम करने के लिये सुल्तान ने बहुत से कुएँ खुदवाये और बेकार पड़ी भूमि को कृषि करने योग्य बनवाया। सुल्तान ने कृषि का एक अलग विभाग खोला और उसके प्रबन्धन के लिये अमीरकोह नामक अधिकारी नियुक्त किया।

(10.) डाक व्यवस्था: मुहम्मद बिन तुगलक ने डाक वितरण की अच्छी व्यवस्था करवाई। डाक घुड़सवारों तथा पैदल हरकारों द्वारा भेजी जाती थी। सरकार की ओर से सड़कों के दोनों किनारों पर वृक्ष लगवाये गये और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर डाक-चौकियाँ बनवाई गईं। प्रत्येक चौकी पर दस धावक नियुक्त किये गये जो एक स्थान से दूसरे स्थान को पत्र तथा सूचनाएँ पहुँचाते थे।

(11.) दरबार का गौरव: मुहम्मद बिन तुगलक का दरबार बड़ा शानदार था। वह विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके दरबार में बड़े-बड़े विद्वान रहते थे। विदेशों से लोग आकृष्ट होकर उसके दरबार में आते थे तथा पद और नाम पाते थे। सुल्तान दो प्रकार के दरबार करता था- दरबार ए आम तथा दरबार ए खास। इन दरबारों में सुल्तान प्रजा की शिकायतें सुनता था और राज्य की समस्याओं पर विचार करता था।

(12.) गुलामों की व्यवस्था: मुहम्मद बिन तुगलक के राज्य में गुलामों के साथ दुर्व्यवहार नहीं होता था और उनके आराम का ध्यान रखा जाता था। गुलाम स्त्री-पुरुष सुल्तान तथा अमीरों के महलों में काम करते थे। गुलाम स्त्रियाँ गुप्तचरों का भी काम करती थीं। गुलाम स्वतन्त्र भी कर दिये जाते थे और राज्य के ऊँचे-ऊँचे पदों पर भी पहुँच जाते थे।

(13.) हिन्दुओं के साथ अच्छा व्यवहार: मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में हिन्दुओं के साथ उतनी ज्यादती नहीं की गई जितनी उसके पूर्ववर्ती शासकों के काल में की गई थी। केवल उन्हीं हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया गया जो सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह करते थे। वह दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जो हिन्दुओं के होली त्यौहार में शामिल होता था। उसने योग्य हिन्दुओं को शासन में उच्च पद प्रदान किये।

(14.) प्रान्तीय शासन: प्रान्त का शासक नायब सुल्तान कहलाता था। उसे सैनिक तथा प्रशासकीय दोनों कार्य करने पड़ते थे। उसे न्याय का भी कार्य करना पड़ता था। प्रान्तीय खर्च करने के बाद जो धन बचता था, वह केन्द्रीय कोष में भेज दिया जाता था। प्रान्तपति अपने प्रान्तों में स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश होते थे। मुहम्मद बिन तुगलक के बहुत से प्रांतपतियों ने सुल्तान से विद्रोह करके स्वतंत्र होने का प्रयास किया।

मुहम्मद बिन तुगलक की विफलताएँ

मुहम्मद बिन तुगलक एक शासक के रूप में सर्वथा असफल ही रहा। उसने अपने पिता से एक विशाल साम्राज्य प्राप्त किया था जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण उत्तरी भारत तथा दक्षिणी भारत का बहुत बड़ा अंश सम्मिलित था परन्तु मुहम्मद बिन तुगलक के मरने से पहले ही उसका साम्राज्य बिखरने लगा था। जिन प्रान्तों पर उसका अधिकार था, उन प्रांतों के प्रांतपति एक-एक करके विद्रोह कर रहे थे। अपनी विजय योजनाओं में भी उसे पर्याप्त सफलता नहीं मिली। उसकी शासन सम्बन्धी अधिकांश योजनाओं को असफलता का आलिंगन करना पड़ा।

विफलताओं के कारण

मुहम्मद बिन तुगलक अपनी विफलता के लिए स्वयं उत्तरदायी नहीं था। उसकी परिस्थितियों तथा उसके दुर्भाग्य ने उसकी समस्त योजनाओं को विफल बनाया। उसकी विफलता के निम्नलिखित कारण थे-

(1.) योग्य अधिकारियों का अभाव: मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में योग्य मुसलमान अमीरों और सेनापतियों का अभाव था। यदि उसकी सेवा में योग्य अधिकारी होते तो वे उसकी महत्वाकांक्षी योजनाओं को सफल बनाने का मार्ग अवश्य ढूंढ लेते। कम से कम उसकी कुछ योजनाएं तो अवश्य ही सफल रही होतीं जो उसके राज्य को बिखरने से रोक लेतीं।

(2.) प्रकृति की प्रतिकूलता: प्रकृति भी मुहम्मद बिन तुगलक के विरुद्ध रही। उत्तर भारत में दीर्घकाल तक वर्षा के अभाव के कारण भयानक दुर्भिक्ष पड़ा जिसके कारण प्रजा को असह्य यातनाएँ भोगनी पड़ीं। सुल्तान के प्रयास करने पर भी प्रजा को कष्टों से मुक्ति नहीं मिली। प्रजा कर देने में असफल हो गई, इससे राजकोष पर बहुत बुरा असर पड़ा।

(3.) प्रजा का असहयोग: मुहम्मद बिन तुगलक प्रजा के सहयोग तथा सहानुभूति से वंचित रहा। प्रजा कर देने में उपेक्षा करती थी और विद्रोह करने को उद्यत रहती थी।

(4.) विदेशियों का शासन में समावेश: सुल्तान जिसके साथ उदारता तथा सहानुभूति दिखलाता था, वही उसका शत्रु हो जाता था और विद्रोह करने को उद्यत हो जाता था। सुल्तान ने विदेशी अमीरों को अपने यहाँ शरण दी और उन्हें ऊँचे पदों पर नियुक्त किया परन्तु अवसर मिलने पर वे भी सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह करने लगे।

(5.) कट्टरपन्थियों का असहयोग: उलेमा, मौलवी तथा शेख, मुहम्मद बिन तुगलक की उदार एवं स्वतंत्र नीतियों से बड़े असन्तुष्ट थे और उसकी हर नीति की आलोचना करके जनता में असंतोष फैलाया करते थे।

(6.) साम्राज्य की विशालता: मुहम्मद बिन तुगलक का साम्राज्य इतना विस्तृत था कि विद्रोहों का दमन करना उसके लिए असंभव सा हो गया। जब सुल्तान एक स्थान पर विद्रोह शांत करता था, तब दूसरे स्थान में विद्रोह आरम्भ हो जाता था।

(7.) प्रान्तपतियों के विद्रोह: प्रजा के असंतोष से प्रान्तपतियों ने लाभ उठाने का प्रयत्न किया और विद्रोह करके अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने लगे।

(8.) सुल्तान की योजनायें समय से आगे थीं: मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएँ अपने समय से बहुत आगे थीं। उसके अधिकारियों, उलेमाओं एवं जन सामान्य में उन योजनाओं को समझने की क्षमता नहीं थी। इसलिये वे लोग उन योजनाओं को विफल बना देते थे। ऐसी दशा में सुल्तान के क्रोध की सीमा नहीं रह जाती थी और वह कठोर दण्ड देता था। इससे अधिकारियों, उलेमाओं एवं जन सामान्य में सुल्तान के प्रति और भी अधिक नाराजगी हो जाती थी।

(9.) धन का अपार व्यय: मुहम्मद बिन तुगलक को अपनी विभिन्न योजनाओं के कार्यान्वयन में अपार धन व्यय करना पड़ता था। इसलिये उसे करों में वृद्धि करनी पड़ी थी। इस कर वृद्धि से जनता में सुल्तान के विरुद्ध बड़ा असंतोष फैला।

(10.) सुल्तान की त्रुटियाँ: कुछ विद्वानों के विचार में मुहम्मद बिन तुगलक की विफलता का मुख्य उत्तरदायित्व उसकी त्रुटियों पर था। इन विद्वानों का कहना है कि मुहम्मद बिन तुगलक में सामंजस्य, व्यावहारिक बुद्धि, मानवीय चरित्र की परख, अपने सहयोगियों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखने, लोगों में विश्वास उत्पन्न करने तथा धैर्यपूर्वक कार्य करने की शक्ति का सर्वथा अभाव था। इन दुर्बलताओं के कारण ही सुल्तान को असफलता प्राप्त हुई। हो सकता है कि इन दुर्बलताओं तथा त्रुटियों के कारण ही मुहम्मद बिन तुगलक असफल रहा हो परन्तु मूलतः परिस्थितियों के कारण ही सुल्तान को विफलताओं का सामना करना पड़ा था।

मुहम्मद बिन तुगलक का चरित्र तथा उसके कार्यों का मूल्यांकन

मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल की घटनाओं तथा उसके चरित्र का समीक्षात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि मुहम्मद मध्यकालीन सुल्तानों में एक विशिष्ट स्थान रखता है। उसका व्यक्तित्व आकर्षक तथा प्रभावोत्पादक था। उसके समान विद्वान् एवं प्रतिभावान सुल्तान उसके पूर्व दिल्ली के तख्त पर नहीं बैठा था। वह फारसी का प्रकाण्ड पण्डित, उच्चकोटि का साहित्यकार तथा विद्या-व्यसनी था। वह तार्किक, सत्यान्वेषी तथा ओजस्वी वक्ता था। उसे अरबी भाषा का भी ज्ञान था। उसने साहित्य का गहन अध्ययन किया था। दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र, गणित, ज्योतिष आदि शास्त्रों में उसकी विशेष रुचि थी। वह न केवल शुद्ध बौद्धिक शास्त्रों में, अपितु भौतिक विज्ञान रसायन विज्ञान तथा आयुर्वेद आदि विद्याओं के अध्ययन में भी रुचि रखता था और उनका अनुशीलन करता था।

मुहम्मद बिन तुगलक विद्यानुरागी होने के साथ-साथ कर्मठ भी था। सुल्तान बनने से पूर्व ही उसने सैनिक तथा प्रशासकीय क्षेत्रों में अपनी योग्यता तथा कौशल का परिचय दे दिया था और पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर चुका था। उसने अपने सम्पूर्ण शासनकाल में बड़े साहस, धैर्य, उत्साह तथा तत्परता से शासन किया जिससे उसके शारीरिक बल तथा मानसिक प्रतिभा का परिचय मिलता है। अपनी उदारता तथा न्यायप्रियता के लिये वह विदेशों में भी विख्यात हो गया था। मिश्र के शासक से उसकी मित्रता थी। वह बड़ा ही दृढ़ प्रतिज्ञ तथा आत्मविश्वासी व्यक्ति था। उसकी वीरता तथा साहस श्लाघनीय थे। इस्लाम में उसकी पूर्ण निष्ठा थी। वह सदा इस्लाम के नियमों का पालन करता था परन्तु वह अन्ध-विश्वासी नहीं था। धार्मिक नियमों को तर्क की कसौटी पर कसकर ही उनका अनुगमन करता था। उसने स्वयं को परम्परागत रूढ़ियों के चंगुल में नहीं फँसने दिया। उसने उलेमा वर्ग की उपेक्षा की। उसका आचरण अत्यन्त पवित्र था। उसमें उच्च कोटि का नैतिक बल था। सुल्तान के ये समस्त गुण श्लाघनीय हैं।

मुहम्मद बिन तुगलक में गुणों के साथ-साथ कुछ दुर्बलताएँ भी थीं। उसमें विनय का अभाव था तथा अहंकार एवं प्रमाद का प्राबल्य था। वह प्रायः दूसरों की सलाह की उपेक्षा करता था। विस्तृृृृृत अध्ययन तथा ज्ञानकोष ने उसे आवश्यकता से अधिक आदर्शवादी बना दिया था। वह अत्यधिक काल्पनिक योजनाएँ बनाता था जो सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से अत्यन्त तर्कपूर्ण तथा आकर्षक परन्तु अव्यावहारिक होती थीं। नई योजनाएं बनाने का उसे चाव था कि वह प्रायः बिना अनुभवी व्यक्तियों का परामर्श लिए अविलम्ब अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए आतुर हो उठता था। इस आतुरता के कारण उसे बड़ी हानि उठानी पड़ती थी। हठधर्मी होने के कारण वह अपनी भूलों का अनुभव करने के उपरान्त भी उन्हें सुधारने का प्रयत्न नहीं करता था। प्रायः वह समय तथा परिस्थिति का ध्यान नहीं रखता था। वह जानता था कि कठोर दण्ड देने की नीति से जनता में असन्तोष बढ़ रहा है, उलेमाओं की उपेक्षा तथा तिरस्कार के कारण भी विरोध में वृद्धि हो रही है। विदेशियों को ऊँची नौकरियाँ देने से तुर्की अमीरों में ईर्ष्या-द्वेष बढ़ रहा है और शासन का काम बिगड़ रहा है परन्तु उसने समय रहते अपनी नीति में परिवर्तन नहीं किया जिससे स्थिति उत्तरोत्तर बिगड़ती चली गई। अपनी नीति पर दृढ़ रहने और समय तथा परिस्थितियों के अनुकूल कार्य नहीं से उसे निरंतर असफलताएं झेलनी पड़ीं। उसने ऐसे कई व्यक्तियों को सेवा में रख लिया जो साम्राज्य के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुए। अतः स्पष्ट है कि मुहम्मद बिन तुगलक अत्यन्त प्रतिभाशाली तथा कर्मठ शासन था परन्तु अपनी कुछ दुर्बलताओं के कारण वह सफल नहीं हो सका। इसी से कुछ इतिहासकारों ने उसे मुस्लिम जगत् का विद्वानतम मूर्ख सुल्तान कहा है।

यद्यपि सुल्तान में अनेक दुर्बलताएँ थी परन्तु इन दुर्बलताओं के कारण उसे मूर्ख, पागल तथा विरोधी गुणों का सम्मिश्रण कहना उचित नहीं है। किसी भी समकालीन इतिहासकार ने उस पर इस प्रकार का लांछन नहीं लगाया है, प्रत्युत उसकी गणना विश्व के महान् बादशाहों में ही की है। उसके शासन का अध्ययन करने पर भी ऐसी धारणा बनाने के लिए आधार नहीं मिलता। इब्नबतूता ने उसे निस्संदेह विरोधी गुणों का सम्मिश्रण बतलाया है परन्तु किसी महान् व्यक्ति के गुणों तथा दोषों को एक साथ देखने पर उनमें विरोधाभास दिखाई देने लगता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि मुहम्मद बिन तुगलक एक ही समय में परस्पर विरोधी कार्य नहीं करता था। न्याय करते समय निष्पक्ष न्याय करता था और दण्ड देते समय कठोर दण्ड देता था। क्योंकि उस युग में कठोर दण्ड देने की प्रथा थी। इसी प्रकार यद्यपि सुल्तान धर्मानुरागी था परन्तु उलेमाओं के अपराधों को क्षमा नहीं करता था। उसे दोआब में कर वृद्धि, राजधानी परिवर्तन, संकेत मुद्रा का प्रचलन, खुरासान एवं चीन विजय की योजना आदि किसी भी कार्य से यह सिद्ध नहीं हाता कि सुल्तान पागल अथवा विरोधी गुणों का सम्मिश्रण था।

अनेक इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक के सम्पूर्ण शासन को असफल सिद्ध करने का प्रयास किया है परन्तु निष्पक्ष समीक्षा करने पर उसके शासन की अच्छाइयाँ भी देखने को मिलती हैं। यह सत्य है कि उसका शासन काल, मध्य काल के अन्य शासकों की तरह अशान्तिमय था और अपने पिता से जिस विशाल साम्राज्य को प्राप्त किया था, उसका आधा ही वह अपने उत्तराधिकारियों के लिए छोड़कर मृत्यु को प्राप्त हुआ परन्तु युद्ध तथा शासन के क्षेत्र में उसने गयासुद्दीन तुकलक से अधिक सफलताएँ अर्जित की थीं। नगरकोट तथा कराजल पर विजय प्राप्त करने वाला वह पहला मुसलमान शासक था। इससे सल्तनत की उत्तरी सीमा सुरक्षित हो गई। उसने अनेक विद्रोहों का सफलतापूर्वक दमन किया। सैनिक क्षेत्र की भांति शासन के क्षेत्र में भी उसकी कई योजनाएँ सफल रही थीं। शासन के प्रारम्भिक काल में मुहम्मद बिन तुगलक को अपनी नई व्यवस्था में विपुल सफलता प्राप्त हुई। बरनी का कहना है कि नियत समय पर कर वसूल हो जाता था और किसी को सुल्तान की आज्ञा की उपेक्षा करने का साहस नहीं होता था। उसकी न्याय-व्यवस्था की समस्त ने मुक्त कंठ से प्रश्ंासा की है। अकाल के समय में उसने जनता की समुचित सहायता की। मुहम्मद बिन तुगलक की मुद्रा नीति भी अत्यन्त व्यापक तथा श्लाघनीय थी।

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि मुहम्मद बिन तुगलक को शासन के अनेक क्षेत्रों में सफलता प्राप्त हुई थी। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने मुहम्मद तुगलक की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इसमें संदेह नहीं कि मुहम्मद बिन तुगलक मध्यकालीन सुल्तानों में सबसे अधिक योग्य था। मुस्लिम विजय के उपरान्त जितने भी सुल्तान दिल्ली के तख्त पर बैठे, उनमें वह निस्संदेह सबसे अधिक विद्वान् और गुण-सम्पन्न था।’ मुहम्मद बिन तुगलक का शासन काल दिल्ली सल्तनत के इतिहास में एक युगान्तरकारी घटना थी क्योंकि उसके समय ही वह अपने विकास के चरम पर पहुँची थी।

क्या मुहम्मद बिन तुगलक विभिन्नताओं का सम्मिश्रण था ?

कहा जाता है कि मुहम्मद बिन तुगलक में महान् आदर्शवाद के साथ नृशंसता, अपार उदारता के साथ निर्दयता तथा आस्तिकता के साथ-साथ घोर नास्तिकता मौजूद थी। इसलिये कुछ इतिहासकारों ने उसे विभिन्नताओं का सम्मिश्रण कहा है। इस धारणा का मूलाधार इब्नबतूता तथा बरनी के निम्नलिखित कथन हैं-

(1.) इब्नबतूता का कथन: इब्नबतूता लिखता है- ‘मुहम्मद दान देने तथा रक्तपात करने में सबसे आगे है। उसके द्वार पर सदैव कुछ दरिद्र मनुष्य धनवान होते हैं तथा कुछ प्राण दण्ड पाते देखे जाते हैं। अपने उदार तथा निर्भीक कार्यों और निर्दय तथा कुछ हिंसात्मक व्यवहारों के कारण जन साधारण में उसकी बड़ी ख्याति है। यह सब होते हुए भी वह बड़ा विनम्र तथा न्यायप्रिय व्यक्ति है। धार्मिक अवसरों के प्रति उसकी बड़ी सहानुभूति है। वह प्रार्थना बड़ी सावधानी से करता है और उसका उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड की आज्ञा देता है। उसका वैभव विशाल है और उसका आमोद-प्रमोद साधारण सीमा का उल्लंघन कर गया है किन्तु उसकी उदारता उसका विशिष्ट गुण है।’

(2.) बरनी का मत: बरनी लिखता है- ‘सुल्तान की शारीरिक तथा मानसिक शक्तियाँ असीम गुण-सम्पन्न नहीं समझी जा सकतीं और उसकी साधारण दयालुता तथा उसकी सैयदों तथा इस्लाम-भक्त मुसलमानों को मृत्यु दण्ड देने की उत्कण्ठा तथा उसकी आस्तिकता गर्म तथा ठण्डी साँस लेने के समान प्रतीत होती हैं। यह एक ऐसा रहस्य है जो बुद्धिभ्रम उत्पन्न कर देता है।’

दोनों मतों की विवेचना

इब्नबतूता तथा बरनी के कथनों के आधार पर मुहम्मद बिन तुगलक इतिहासकारों को कौतूहलवर्द्धक विभिन्नताओं का सम्मिश्रण प्रतीत होता है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद का मानना है कि ‘ऊपर से देखने पर ही हमें प्रतीत होता है कि मुहम्मद विरोधी तत्त्वों का आश्चर्यजनक योग था किन्तु वास्तव में वह ऐसा नहीं था।’ गवेषणात्मक दृष्टि से देखने पर ये विभिन्नताएँ निर्मूल सिद्ध हो जाती हैं और एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं जान पड़तीं। मुहम्मद बिन तुगलक मध्यकालीन शासकों में सर्वाधिक विद्वान् तथा प्रतिभाशाली था। उसकी योजनाएँ, उसकी बुद्धिमत्ता तथा उसके व्यापक दृष्टिकोण की परिचायक हैं। उसकी विफलताएं, उसकी मूर्खता की परिचायक नहीं हैं। उसके विचार तथा सिद्धान्त गलत नहीं थे। उसे विफलता कर्मचारियों की अयोग्यता तथा प्रजा के असहयोग के कारण मिलती थी। सुल्तान के आदर्श ऊँचे थे। उसने अपने आदर्शों को क्रियात्मक रूप में बदले का प्रयास किया। उसकी योजनाएँ विपरीत परिस्थितियों के कारण असफल रहीं परन्तु अनुकूल परिस्थितियों में उनकी सफल कार्यान्विति हो सकती थी।

मुहम्मद बिन तुगलक उदार तथा दानी सुल्तान था। वह अपराधियों तथा कर्त्तव्य भ्रष्ट लोगों को दण्ड देने में संकोच नहीं करता था परन्तु उसमें रक्त-रंजन की भावना नहीं थी। वह प्रायः उन विद्रोहियों को क्षमा कर देता था जिन्होंने भूत काल में राज्य की सेवा की थी। प्रायः ऐसा हुआ कि जिन लोगों को उसने सम्मान तथा उच्च पद दिये, वे ही उसके शत्रु हो गये। ऐसी दशा में सुल्तान का अत्यंत क्रोधित हो जाना अस्वाभाविक नहीं था। जब राज्य में चारों ओर अशांति फैली थी तब कठोरता से विरोधियों तथा आज्ञा का उल्लघंन करने वालों को दंड देना सुल्तान की रक्त-रंजन की प्रवृत्ति का द्योतक नहीं माना जा सकता। मुहम्मद बिन तुगलक के समक्ष जैसी परिस्थितियाँ थीं और जिस युग में वह शासन कर रहा था, उनमें मुहम्मद बिन तुगलक ने जैसा व्यवहार किया वैसा करना स्वाभाविक ही था। मुहम्मद बिन तुगलक में उच्चकोटि की धार्मिकता थी परन्तु वह उलेमाओं के हाथ की कठपुतली नहीं बना। उसका दृष्टिकोण बड़ा व्यापक था। उसने राजनीति को धर्म से अलग रखा।

निष्कर्ष

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मुहम्मद बिन तुगलक विरोधी प्रवृत्तियों का सम्मिश्रण नहीं था। डॉ. मेहदी हुसैन ने भी इस बात को सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यद्यपि सुल्तान में विरोधी तत्त्व विद्यमान थे तथापि वे उसके जीवन के विभिन्न कालों में प्रकट हुए थे और उनके स्पष्ट कारण भी विद्यमान थे। अतः उसे विरोधी तत्त्वों का मिश्रण नहीं कहा जा सकता।

क्या मुहम्मद बिन तुगलक पागल था ?

कुछ इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक को पागल तथा झक्की बताया है। एल्फिन्सटन पहला इतिहासकार था जिसने सुल्तान में पागलपन का कुछ अंश होने का लांछन लगाया। परवर्ती यूरोपीय इतिहासकारों हैवेल, इरविन, स्मिथ तथा लेनपूल ने भी एल्फिन्स्टन के इस मत का अनुमोदन किया परन्तु आधुनिक इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते। यद्यपि बरनी तथा इब्नबतूता ने सुल्तान के कार्यों की तीव्र आलोचना की है तथापि उस पर पागलपन का लांछन नहीं लगाया है। वास्तव में यह आरोप केवल वे इतिहासकार ही लगा सकते हैं जो मुहम्मद बिन तुगलक के चरित्र तथा कार्यों की ठीक से समीक्षा नहीं करते। गार्डिनर ब्राउन ने लिखा है- ‘उसके समय के किसी भी व्यक्ति ने इस बात की ओर संकेत नही किया है कि वह पागल था। उसके व्यावहारिक तथा सक्रिय चरित्र से यह पता नहीं लगता कि वह काल्पनिक था।’

(1) रक्तपात में रुचि होने का आरोप

आरोप का कारण: मुहम्मद बिन तुगलक को पागल सिद्ध करने के लिए सबसे पहला प्रमाण यह दिया जाता है कि उसमें रक्तपात के प्रति बड़ी रुचि थी। इस कारण उसे अकारण ही लोगों का रक्तपात करने में आनन्द आता था। इस धारणा का मूल आधार इब्नबतूता का यह कथन प्रतीत होता है कि सदैव कोई न कोई मृत शरीर सुल्तान के महल के समक्ष दृष्टिगोचर होता था। एल्फिन्स्टन तथा अन्य यूरोपीय इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक को इसी आधार पर पागल सिद्ध करने का प्रयास किया है।

अरोप की समीक्षा: विचारणीय बात यह है कि किन कारणों से तथा किन लोगों की सुल्तान हत्या किया करता था। वास्तव में सुल्तान बड़ा क्रोधी तथा उग्र प्रकृति का व्यक्ति था और वह इस बात को सहन नहीं कर पाता था कि लोग उसका विरोध करें। वह विभिन्न अपराधों में भेद नहीं कर पाता था। यह भी ध्यान देने की बात है कि मध्य युग में अपराधियों को यूरोप तथा एशिया में प्रायः प्राण दण्ड दिया जाता था। इस बात के लिए कोई आधार नहीं कि सुल्तान को मनुष्यों का रक्तपात करने में आनन्द आता था। इस प्रकार का लांछन केवल इब्नबतूता तथा बरनी द्वारा लगाया गया है परन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि बरनी उलेमा वर्ग का था जो सुल्तान से बड़ा वैमनस्य रखता था क्योंकि सुल्तान ने इस वर्ग को विशेषाधिकारों से वंचित कर दिया था और अपराध करने पर उन्हें साधारण व्यक्तियों की भांति दण्ड मिलता था।

निष्कर्ष: वास्तव में सुल्तान बड़े स्वतन्त्र विचार का तथा अपने समय से बहुत आगे था। जब उसकी योजनाएँ असफल होती थीं और लोग उसकी अवहेलना करते थे तो वह विरोधियों को प्रायः मृत्यु दण्ड तथा अंग-भंग करने के दण्ड देता था। ऐसा उस युग के हर सुल्तान ने किया था।

(2) बीस गुना कर वृद्धि का आरोप

आरोप का कारण: मुहम्मद बिन तुगलक को पागल सिद्ध करने के लिए दूसरा प्रमाण यह दिया जाता है कि उसने दोआब में कर वृद्धि करके बड़ी बर्बरता के साथ उसे वसूल किया। कहा जाता है कि एक पागल शासक की भांति मुहम्मद तुगलक ने इसे दस या बीस गुना कर दिया। इतना ही नहीं, घरों तथा चरागाहों पर भी कर लगाया गया। इन असह्य करों के कारण प्रजा को भयानक कष्ट सहने पड़े। इसी बीच में अकाल पड़ गया। सल्तनत के कर्मचारियों ने प्रजा की संकटापन्न स्थिति में इतनी कठोरता से कर वसूल करना आरम्भ किया कि किसान लोग भयभीत होकर जंगलों में भाग गये। बरनी का कहना है कि सुल्तान ने जंगलों में भी किसानों का पीछा करने की आज्ञा दी। वहाँ उन्हें घेर कर कठोर दण्ड दिया गया। अपनी प्रजा के साथ इस प्रकार का व्यवहार एक पागल सुल्तान ही कर सकता था।

आरोप की समीक्षा: बरनी की यह उक्ति विश्वसनीय नहीं है। उलेमा वर्ग का होने के कारण बरनी सुल्तान से द्वेष रखता था और उसकी निन्दा करता था। सुल्तान ने बरनी की जन्म-भूमि बरान के निवासियों को कठोर दण्ड दिया था। इस कारण बरनी ने सुल्तान की कर नीति की इतनी तीव्र आलोचना की है और सुल्तान द्वारा दिये गये दण्ड का अतिरंजित चित्रण किया है। गार्डनर ब्राउन के अनुसार करों में बहुत साधारण वृद्धि की गई थी। फरिश्ता ने इस वृद्धि को तीन से चार गुना बताया है। ए.एल. श्रीवास्तव के अनुसार मुहम्मद बिन तुगलक ने करों में 5 से 10 प्रतिशत की वृद्धि करने के लिये भूमि कर को बढ़ाने की बजाय मकान तथा चारागाहों पर कर लगाया था।

दोआब की कर-वृद्धि में पागलपन की कोई बात नहीं थी। दो आब में कर वृद्धि का कार्य अलाउद्दीन खिलजी ने आरम्भ किया। मुहम्मद बिन तुगलक तो केवल उस नीति के परम्परागत रूप का निर्वहन कर रहा था। वह युग ऐसा ही था। उसमें हिन्दुओं को धन संग्रहण करने से रोकने तथा उन्हें हमेशा के लिये निर्धन बनाने का काम धार्मिक काम समझा जाता था। इसलिये गयासुद्दीन तुगलक ने हिन्दुओं के नाम यह आदेश जारी किया कि वे धन संग्रहण नहीं करें। दोआब अत्यन्त धन सम्पन्न प्रदेश था। अच्छी फसल होने के कारण वहाँ के लोग प्रायः विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देते थे। उनकी आर्थिक स्थिति को तोड़ने के लिये यह आवश्यक था कि उन पर इतना कर लगाया जाये कि उनके पास रोटी खाने के अलावा और कुछ न बचे। अतः सुल्तान ने पूरी जांच कराने के बाद बड़ी सावधानी के साथ इस योजना को तैयार करवाया था।

हो सकता है कि सरकारी कर्मचारियों ने प्रजा के साथ जो अत्याचार किया, उससे सुल्तान अवगत न रहा हो। इसमें सन्देह नहीं कि जब सुल्तान को प्रजा के कष्ट का पता चला तब उसने निराकरण की समुचित व्यवस्था की। उसने कर घटा दिया। भोजन तथा चारे का प्रबन्ध करवाया और किसानों में 70 लाख रुपये की तकावी बंटवाई। उसने ढाई साल तक अपना मुख्यालय सरगद्वारी में बनाये रखा और वहाँ रहकर वह किसानों को अकाल राहत पहुँचाने का कार्य करता रहा। ये समस्त कार्य सुल्तान की उदारता के परिचायक हैं। किसी अन्य सुल्तान ने अकाल के समय किसानों के साथ ऐसी सहानुभूति नहीं दिखाई थी।

निष्कर्ष: कर-वृद्धि के आधार पर सुल्तान को पागल कहना निराधार है। हिन्दुओं की आर्थिक स्थिति खराब करने तथा उन्हें विद्रोह करने योग्य न छोड़ने का कार्य उस युग के हर सुल्तान ने किया था।

(3) राजधानी के परिवर्तन का आरोप

आरोप का कारण: सुल्तान को पागल सिद्ध करने के लिए तीसरा प्रमाण यह दिया जाता है कि एक पागल की भांति वह अपनी राजधानी को दिल्ली से देवगिरि ले गया था। सुल्तान ने दिल्ली के समस्त निवासियों को देवगिरि चले जाने की आज्ञा दे दी। सुल्तान की आज्ञा के उल्लंघन का साहस किसी को नहीं हुआ। व्यापारी, दुकानदार, सरकारी कर्मचारी समस्त को भयभीत होकर देवगिरि के लिए प्रस्थान कर देना पड़ा। बरनी का कहना है कि दिल्ली नगर बिल्कुल उजड़ गया और मनुष्य की कौन कहे, कुत्ते तथा बिल्ली भी वहाँ पर नहीं रह गये। अन्धे, लँगड़े तथा लूले भी घसीट कर देवगिरि पहुँचाये गये। इस प्रकार का कार्य एक पागल तथा झक्की सुल्तान ही कर सकता था।

आरोप की समीक्षा: बरनी का कथन पूर्णतः विश्वसनीय नहीं है। उसमें अतिरंजना प्रतीत होती है। वास्तव में राजधानी के परिवर्तन में ऐसी कोई बात नहीं थी जिसके कारण सुल्तान को पागल कहा जाये। राजधानी का परिवर्तन प्राचीन काल से ही भारत में होता चला आया है। देवगिरि, दिल्ली सल्तनत के केन्द्र में स्थित था जहाँ से शासन को सुचारू रीति से चलाया जा सकता था। राजधानी का परिवर्तन सुल्तान की बुद्धिमत्ता तथा उसकी दूरदर्शिता का द्योतक है, न कि उसके पागलपन का! अपनी योजना को कार्यान्वित करते समय सुल्तान ने वे समस्त व्यवस्थाएँ कीं जो एक बुद्धिमान शासक को करनी चाहिये थीं। फिर भी सुल्तान अपनी योजना में असफल रहा जिसका कारण यह था कि प्रजा दिल्ली से दौलताबाद जाकर रहना नहीं चाहती थी।

निष्कर्ष: सफलता अथवा असफलता के आधार पर ही किसी योजना के औचित्य का निश्चय नहीं किया जा सकता। अतः इस आधार पर मुहम्मद बिन तुगलक को पागल नहीं माना जा सकता।

(4) संकेत-मुद्रा के प्रचलन का आरोप

आरोप का कारण: सुल्तान को पागल सिद्ध करने के लिए चौथा प्रमाण यह दिया जाता है कि उसने संकेत मुद्रा का प्रचलन एक मूर्ख तथा झक्की व्यक्ति की भांति किया था। एक पागल की भांति उतावलेपन में आकर उसने तांबे की मुद्राएँ चला दीं। न उसने मुद्राओं के निर्माण पर राज्य का एकाधिकार रखा और मुद्राओं पर ऐसे चिन्ह अंकित करने की व्यवस्था की जिससे सर्वसाधारण इन मुद्राओं का निर्माण न कर सके। इससे बढ़कर और क्या पागलपन हो सकता था। परिणाम यह हुआ कि समस्त कुशल लोग अपने घरों में ताँबे की मुद्राएँ बनाने लगे जिससे व्यापार ध्वस्त हो गया और जब सुल्तान ने इन संकेत मुद्रओं के बदले सोने-चाँदी की मुद्राएँ देना आरम्भ किया, तब राजकीय कोष रिक्त हो गया जिससे साम्राज्य पतनोन्मुख हो चला। इस प्रकार सुल्तान की योजना तथा उसका क्रियात्मक स्वरूप दोनों ही सुल्तान के पागलपन के द्योतक हैं।

आरोप की समीक्षा: संकेत मुद्रा का प्रचलन मुहम्मद बिन तुगलक के पागलपन का प्रतीक नहीं है। उससे पहले ही चीन तथा फारस में कागज की संकेत मुद्रा का प्रचलन हो चुका था। आधुनिक युग में भी संकेत-मुद्रा का प्रचलन है। अतः इस योजना में कोई ऐसी बात न थी जिससे उस पर पागलपन का लांछन लगाया जाये। क्रियात्मक रूप में योजना की असफलता का कारण यह था कि यह योजना अपने समय से बहुत आगे थी। उस काल की जनता चांदी के सिक्के छोड़कर ताम्बे के सिक्के स्वीकार नहीं कर सकी। सुनारों ने भी ताम्बे के सिक्के ढालकर इस योजना को निष्फल कर दिया।

निष्कर्ष: मुहम्मद बिन तुगलक को इस योजना में अपनी प्रजा का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ परन्तु योजना की असफलता के आधार पर ही सुल्तान को पागल कहना उचित नहीं है।

(5) खुरासान तथा चीन की विजय योजनाएं बनाने का आरोप

आरोप का कारण: मुहम्मद बिन तुगलक के पागलपन के पक्ष में पाँचवा प्रमाण यह दिया जाता है कि एक पागल आदमी की तरह उसने खुरासान तथा चीन विजय की योजनाएँ बर्नाईं। दिल्ली से इतनी दूर स्थित देशों को जीतने की योजना बनाना सुल्तान के पागलपन का प्रमाण है।

आरोप की समीक्षा: मुहम्मद बिन तुगलक की चीन तथा खुरासान पर विजय प्राप्त करने की योजनाओं में ऐसी कोई बात नहीं थी जिसके आधार पर उसे पागल कहा जाये! वह महत्वाकांक्षी सुल्तान था। राज्य को चलाने के लिये धन प्राप्त करने तथा इतिहास में स्थान प्राप्त करने के लिये ख्याति प्राप्त करने की आकांक्षा करना किसी भी सुल्तान के लिये पागलपन का प्रमाण नहीं मानी जा सकतीं। सिकन्दर ऐसा ही कर चुका था। अलाउद्दीन खिलजी भी ऐसा करना चाहता था। बाद में समरकंद और फरगना का शासक बाबर भी भारत विजय करने में सफल रहा था। जब बाहर से आकर शासक भारत विजय कर सकते थे तो भारत से बाहर जाकर शासक ऐसा क्यांे नहीं कर सकते थे। यह भी विचारणीय है कि मुहम्मद बिन तुगलक के लिए भारत में अब कुछ विजय करना शेष नहीं रह गया था। उसके पास विजय योजनाओं के लिए प्रचुर साधन भी थे। जब उसे इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ दिखाई नहीं दीं तो उसने इन योजनाओं को छोड़ दिया।

निष्कर्ष: चीन तथा खुरासान पर विजय प्राप्त करने के लिये बनाई गई योजनाओं के लिये मुहम्मद बिन तुगलक को पागल नहीं कहा जा सकता, वरन् उसकी प्रशंसा की जानी चाहिये कि वह दूरदर्शी राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ था। ये योजनाएँ सुल्तान की महत्वाकांक्षा का द्योतक हैं, न कि उसके पागलपन का।

(6) काल्पनिकता का आरोप

आरोप का कारण: मुहम्मद बिन तुगलक के पागल होने के पक्ष में एक यह भी प्रमाण उपस्थित किया जाता है कि वह उन्मुक्त व्यक्ति की भांति कल्पनाएँ किया करता था।

आरोप की समीक्षा: मुहम्मद बिन तुगलक अत्यंत कल्पनाशील सुल्तान था। नई योजनाएं बनाने में उसकी विशेष रुचि रहती थी। कई बार इन योजनाओं को कार्यरूप में परिणत करना असम्भव हो जाता था और अन्ततोगत्वा ये योजनाएं असफल हो जाती थीं किंतु केवल असफलताओं के आधार पर सुल्तान को पागल कहना सर्वथा अनुचित होगा। उसमें मौलिक प्रतिभा थी। इसलिये उसमें कल्पनाशीलता तथा योजना प्रेमी होना स्वाभाविक ही था। उसकी कोई भी योजना ऐसी नहीं थी जो अनुकूल परिस्थितियों में कार्यान्वित नहीं की जा सकती थी। उसकी योजनाएँ इस कारण विफल नहीं हुईं कि वे कार्यान्वित नहीं की जा सकती थीं, वरन् वे इसलिये विफल हुईं क्योंकि वे अपने समय से बहुत आगे थीं। उन योजनाओं को सफल बनाने में राज्याधिकारियों तथा जनसाधारण का सहयोग प्राप्त नहीं हो सका।

निष्कर्ष

उपरोक्त समीक्षा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मुहम्मद बिन तुगलक पागल नहीं था अपितु वह अपने समय से बहुत आगे था। उस परम्परागत वातावरण में उसकी क्रांतिकारी योजनाएं उसके समय के लोगों की समझ में नहीं आती थीं। यदि वह आधुनिक काल में हुआ होता तो उसकी गणना महान् बादशाहों में हुई होती। वास्तव में मुहम्मद बिन तुगलक युगांतरकारी सोच का धनी था। उसने उस काल की संकीर्णता तथा असहिष्णुता को हटाने का प्रयत्न किया था। वह कठमुल्लाओं के राज्य की जगह स्वतंत्र विचारों पर आधारित राजतन्त्र स्थापित करना चाहता था और राजनीति को धार्मिक प्रभाव से मुक्त करना चाहता था परन्तु ऐसा करना उस काल की धारणा के विरुद्ध था। इसमें संदेह नहीं कि वह स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था, परन्तु उसका शासन उदार था जो उसके ह्नदय की विशालता तथा उसके व्यापक दृष्टिकोण का परिचायक है। अतः सुल्तान को पागल कहना सर्वथा निराधार है।

लेनपूल ने लिखा है- ‘मुहम्मद बिन तुगलक मध्यकाल में सर्वाधिक आकर्षक व्यक्ति था। वह ऐसा व्यक्ति था जिसके विचार अपने समय से बहुत आगे थे। अलाउद्दीन खिलजी ने शासन की समस्याओं पर विचार किया था परन्तु उसका मस्तिष्क शक्तिशाली था, सभ्य नहीं। मुहम्मद बिन तुगलक अपनी योजनाओं में उससे अधिक साहसी था तथा उसके विचार एक शिक्षित और सभ्य मस्तिष्क के विचार थे।’

डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘यह सत्य है कि वह असफल रहा परन्तु उसकी असफलता का कारण बहुत बड़े अंश में वे परिस्थितियाँ थीं जिन पर उसका बहुत थोड़ा या बिल्कुल नियन्त्रण नहीं था।’

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