Saturday, July 27, 2024
spot_img

मुल्ला का किला

तोमरों ने आगरा में लाल किला बनवाया था। उसकी तर्ज पर शाहजहाँ ने दिल्ली में लाल किला बनवाया। अंग्रेज उसे मुल्ला का किला कहते थे। अंग्रेजों के लिए मुगल बादशाह की कीमत एक मुल्ला से अधिक नहीं थी इसलिए उन्होंने लाल किले को मुल्ला का किला कहकर उसका उपास उड़ाया।

11 सितम्बर 1803 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना ने दिल्ली पर आक्रमण किया तथा तीन दिन तक चली लड़ाई के बाद मराठे दिल्ली छोड़कर भाग गए। 16 सितम्बर 1803 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सेनापति जनरल लेक ने लाल किले में बादशाह शाहआलम (द्वितीय) के समक्ष उपस्थित हुआ।

उसने बादशाह से भेंट की तथा उसे बताया कि हमने दिल्ली को मराठों से मुक्त करा लिया है तथा बादशाह फिर से दिल्ली का शासक बन गया है। जनरल लेक ने आश्वस्त किया कि बादशाह का इकबाल उसी प्रकार बना रहेगा जिस प्रकार अब तक रहता आया है।

बादशाह आलमशाह (द्वितीय) ने भी जनरल लेक का स्वागत किया तथा उसे शम्सुद्दौला अस्त्य-उल-मुल्क, खानेदौरां, खान बहादुर, सिपहसालार फतेहजंग जैसी भारी भरकम उपाधियां देकर सम्मानित किया।

अंग्रेजों के लिए इन उपाधियों को कोई महत्व नहीं था किंतु लाल किला अपने ऊपर अहसान करने वालों को अपने जन्म से लेकर आज तक यही उपाधियां बांटता आया था। इन उपाधियों के अतिरिक्त अन्य किसी उपाधि में लाल किला समझता ही नहीं था!

8 अक्टूबर 1803 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने भी बादशाह शाहआलम (द्वितीय) को पाखण्ड भरा पत्र लिखकर विनम्रता का प्रदर्शन किया। उसने लिखा- ‘शहंशाह को उनकी गरिमा के अनुकूल ही लाल किले में फिर से पदस्थापित कर दिया गया है ताकि वे शांति के साथ रह सकें।’

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

नेत्रहीन शाहआलम के पास लेने-देने के लिए कुछ नहीं था किंतु उसने भी वेलेजली को पाखण्ड भरा पत्र लिखकर संतोष व्यक्त किया कि- ‘आपके शब्दों से मुझे भरोसा हो गया है कि कम्पनी मुझे कभी शिकायत का मौका नहीं देगी।’

अंग्रेज चाहते तो बादशाह को दूध में से मक्खी की तरह लाल किले में से निकालकर फैंक सकते थे किंतु वे भारत की जनता पर अभी प्रत्यक्ष शासन करने की स्थिति में नहीं आए थे इसलिए बादशाह के नाम की आड़ लेकर अपना शासन आगे बढ़ाना चाहते थे। अंग्रेजों ने बादशाह को नए सिरे से पेंशन स्वीकृत की।

लाल किले की दर्दभरी दास्तान - bharatkaitihas.com
TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

बादशाह ने जनरल लेक के निवेदन पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दिल्ली एवं उसके आसपास के क्षेत्रों से राजस्व वसूली करने तथा सेना रखने की अनुमति दे दी। इसके बदले में कम्पनी ने बादशाह को उसके अधिकार वाली जागीरों में से मिलने वाले राजस्व का एक हिस्सा पेंशन के रूप में देने का वचन दिया। मराठे मुगल बादशाह को 17 हजार रुपए प्रति माह पेंशन देते थे जबकि अंग्रेजों ने उसे 60 हजार रुपए प्रतिमाह कर दिया। पेंशन की यह राशि यमनुाजी के पश्चिम में स्थित उस खालसा जागीर से वसूल की जानी थी जो बादशाह के अधिकार में थी। यद्यपि यह जागीर भारत के सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्रों में से एक थी किंतु औरंगजेब के समय से ही भारत के किसानों की जो दुर्दशा होनी आरम्भ हुई थी, उसकी चपेट में यह जागीर भी आ गई थी।

इस कारण अंग्रेजों के लिए यह संभव नहीं हुआ कि वे बादशाह की खालसा जागीर से 60 हजार रुपया प्रतिमाह वसूल करके बादशाह को दे सकें। इसलिए कम्पनी को खालसा जागीर से वसूली गई राशि में हर माह कुछ राशि अपनी जेब से भी मिलानी पड़ती थी।

अंग्रेजों ने बादशाह की दिल्ली छीन ली थी जिसके बदले में यह पेंशन दी जा रही थी किंतु अंग्रेज भारत में न्याय करने नहीं, अपितु भारत का रक्त चूसने के लिए आए थे। इसलिए शीघ्र ही उन्हें बादशाह को दी जाने वाली राशि चुभने लगी और वे इसे बंद करने का अवसर ढूंढने लगे।

अब बादशाह ने उस सेना को भंग कर दिया जो कुछ वर्ष पहले मुगल बादशाह के नाम पर बनाई गई थी। वैसे भी अब अंग्रेज दिल्ली के स्वामी थे इसलिए बादशाह को किसी सेना की आवश्यकता नहीं थी। न बादशाह अब किसी भी तरह से इस सेना का व्यय उठा सकता था।

 भले ही बादशाह अब अंग्रेजों के नजरबंद कैदी से अधिक हैसियत नहीं रखता था किंतु फिर भी वह मुगल बादशाह होने के नाते भारत के समस्त शासकों को आदेशात्मक भाषा में पत्र लिखता था। इस कारण जब भी दिल्ली का अंग्रेज रेजीडेंट बादशाह के दरबार में उपस्थित होता था तो उसे बादशाह के सामने खड़े रहना पड़ता था। हालांकि बादशाह की तरफ से अंग्रेज शक्ति को आदर देने के लिए रेजीडेंट के पीछे लाल पर्दा लगवाया जाता था।

अब दिल्ली का शासन पूरी तरह ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नियंत्रण में चला गया था। दिल्ली में अंग्रेजी कानून लागू हेा गए थे, अंग्रेजी न्यायालय स्थापित होने लगे थे किंतु लाल किले के भीतर बादशाह की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर ली गई थी। अंग्रेज अब लाल किले को मुल्ला का किला कहते थे।

इस काल में मुगल बादशाह के पास जितनी शक्ति बच गई थी, उस दृष्टि से लाल किले को मुल्ला का किला कहना गलत भी नहीं था।

किले के भीतर रहने वाले लोगों के अपराध एवं विवादों पर अंग्रेजी न्यायालय की जगह बादशाह के दरबार में ही सुनवाई हो सकती थी। बादशाह लाल किले के भीतर रहने वाली बेगमों, शहजादों, शहजादियों एवं दासियों को अपनी रियाया कहता था और उनके झगड़ों तथा विवादों और अपराधों का निबटारा करता था। उनके मुकदमे अंग्रेजों के पास नहीं जा सकते थे।

अंग्रेजों ने दिल्ली में दीवानी एवं फौजदारी न्यायालय स्थापित किए जिनमें हिन्दुओं के मुकदमों को अंग्रेजी कानून के अनुसार तथा मुसलमानों के मुकदमों को शरिया के अनुसार निबटाने का प्रावधान किया गया जिनके लिए अंग्रेजी न्यायालयों में काजियों और मुफ्तियों की नियुक्तियां की गईं।

जब अंग्रेज किसी भी अपराधी को फांसी की सजा देते थे तो ब्रिटिश रेजीडेण्ट फांसी के निर्णय को लेकर मुल्ला का किला में बादशाह के समक्ष उपस्थित होता था। जब बादशाह उस व्यक्ति को फांसी दिए जाने की पुष्टि कर देता था, तभी उस अपराधी को फांसी दी जाती थी किंतु यह अंग्रेजी न्यायिक व्यवस्था का दिखावटी चेहरा था, वास्तविकता यह थी कि अंग्रेजों से पेंशन पा रहे बादशाह को उन सभी आदेशों पर अपनी मुहर लगानी पड़ती थी जो अंग्रेज उसके समक्ष प्रस्तुत करते थे।

19 नवम्बर 1806 को शाहआलम (द्वितीय) की मृत्यु हो गई। उसका शव दिल्ली के महरौली क्षेत्र में तेरहवीं शताब्दी के सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की कब्र के निकट दफनाया गया। पाठकों को स्मरण होगा कि औरंगजेब के पुत्र मुअज्जमशाह अर्थात् बहादुरशाह (प्रथम) की कब्र भी यहीं बनाई गई थी जिसे इतिहास में शाहआलम (प्रथम) भी कहा जाता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source