Friday, April 19, 2024
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162. बादशाह की पेंशन बढ़वाने के लिए राजा राममोहन राय लंदन गए!

19 नवम्बर 1806 को मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) की मृत्यु हो गई। शाहआलम (द्वितीय) के बहुत से पुत्र एवं पुत्रियां थीं जिनमें से मिर्जा अकबर शाह को 2 मई 1781 को लाल किले में आयोजित एक संक्षिप्त समरोह में वली-ए-अहद घोषित किया गया था। उसे वली एवं बहादुर की उपाधियां दी गईं थीं तथा दिल्ली का सूबेदार घोषित किया गया था।

ई.1788 में रूेहला अमीर गुलाम कादिर ने लाल किले में घुसकर जब बादशाह शाहआलम को तख्त से उतारकर अंधा किया था तब गुलाम कादिर ने शाहआलम के बहुत से पुत्र-पुत्रियों की हत्या कर दी थी किंतु वली-ए-अहद मिर्जा अकबर शाह जीवित बच गया था। अब वही मिर्जा अकबरशाह, मुगलों का अठारहवां बादशाह हुआ। उसे मुगलों के इतिहास में अकबर (द्वितीय) भी कहा जाता है।

कहने को तो वह मुगल बादशाह था तथा उसका नाम भी अकबर था किंतु वास्तविकता यह थी कि उसकी सत्ता केवल लाल किले के भीतर सीमित थी। अंग्रेज दिल्ली के वास्तविक स्वामी थे और वे बादशाह को अपने नजरबंद पेंशनभोगी से अधिक कुछ नहीं मानते थे।

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पाठकों को स्मरण होगा कि अंग्रेजों ने बादशाह शाहआलम (द्वितीय) को 60 हजार रुपए महीने की पेंशन दी थी। शाहआलम इस पेंशन को अपर्याप्त बताता था। इस कारण वह अंग्रेज अधिकारियों को अपनी पेंशन बढ़ाने के लिए लिखता रहता था। इसलिए अंग्रेजों ने उसकी पेंशन बढ़ाकर 12 लाख रुपए वार्षिक कर दी थी। ई.1805 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने वायदा किया कि वह बादशाह की पेंशन बढ़ाकर 15 लाख रुपया वार्षिक कर देगा किंतु ऐसा करने से पहले ही बादशाह शाहआलम मर गया।

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जब अकबरशाह उसका उत्तराधिकारी हुआ तो उसने अंग्रेजों से 30 लाख रुपए वार्षिक पेंशन मांगी। जब कम्पनी के अधिकारियों ने बादशाह की बात नहीं सुनी तो बादशाह अकबरशाह (द्वितीय) ने बंगाल के प्रसिद्ध वकील एवं समाज सुधारक राम मोहन राय को अपना वकील नियुक्त किया तथा उसे राजा की उपाधि देकर अपने प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैण्ड भेजा।

राजा राममोहन राय ने लंदन पहुंचकर बादशाह अकबरशाह (द्वितीय) की तरफ से इंग्लैण्ड की सरकार के समक्ष एक मेमोरेण्डम प्रस्तुत किया कि उसे 30 लाख रुपए वार्षिक पेंशन मिलनी चाहिए! ब्रिटिश सरकार ने बादशाह के इस दावे को स्वीकार कर लिया तथा बादशाह की पेंशन 30 लाख रुपए वार्षिक कर दी गई किंतु कम्पनी की तरफ से बादशाह को अनेक अवसरों एवं त्यौहारों पर दिए जाने वाले उपहार आदि बंद कर दिए गए। अकबर ने लंदन की सरकार के इस निर्णय पर असंतोष प्रकट करते हुए नई पेंशन को स्वीकार कर लिया। बादशाह को आशा थी कि कुछ वर्षों बाद पेंशन में फिर वृद्धि हो सकेगी।

ई.1803 से 1835 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों द्वारा अकबर को लिखे गए पत्रों में उसे बादशाह कहा जाता था किंतु ई.1835 में अंग्रेजों ने उससे बादशाह का टाइटल छीन लिया तथा उसे ‘किंग ऑफ डेल्ही’ कहने लगे।

ई.1803 से ई.1835 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा सोने चांदी के जो सिक्के जारी किए गए उनमें मुगल बादशाह का नाम अंकित किया जाता था तथा सिक्कों की इबारत फारसी में लिखी जाती थी। ई.1835 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सिक्कों पर बादशाह का नाम लिखना बंद कर दिया तथा सिक्कों की इबारत फारसी के स्थान पर अंग्रेजी कर दी।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों ने अवध के नवाब तथा हैदराबाद के निजाम को इस बात के लिए उकसाया कि वे अपने पत्रों में स्वतंत्र शासक की उपाधियों का प्रयोग करें ताकि मुगल बादशाह के कद को घटाया जा सके। हैदराबाद के निजाम ने अंग्रेजों की यह बात मानने से मना कर दिया तथा वह स्वयं को मुगल बादशाह के सूबेदार के रूप में ही प्रदर्शित करता रहा जबकि अवध के नवाब ने स्वतंत्र शाही उपाधियां लिखनी आरम्भ कर दीं।

बादशाह अकबरशाह के जीवन काल की उपलब्ध्यिों में केवल एक ही घटना की चर्चा होती है। वह है दिल्ली के महरौली क्षेत्र में तेरहवीं शताब्दी के सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की कब्र पर फूल वालों की सैर नामक उत्सव आरम्भ करना।

कहा जाता है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों ने एक बार अकबरशाह के पुत्र मिर्जा जहांगीर को बंदी बना लिया। इस पर अकबर की बेगम ने कुतुबुद्दीन काकी की मजार पर जाकर मनौती मांगी कि यदि मिर्जा जहांगीर की रिहाई हो जाए तो वह काकी की दरगाह पर चादर चढ़ाएगी। जब कुछ समय बाद शहजादा रिहा हो गया तो बादशाह ने काकी की दरगाह पर फूल चढ़ाए।

उन दिनों काकी की दरगाह के निकट ही हिन्दुओं की आराध्य योगमाया देवी का एक मंदिर हुआ करता था। बादशाह के आदेश से दरगाह के साथ-साथ इस मंदिर में भी फूल चढ़ाए गए। इसके बाद प्रतिवर्ष उसी दिन दरगाह एवं मंदिर में फूल चढ़ाए जाने की परम्परा आरम्भ हो गई। इस उत्सव को फूल वालों की सैर कहा गया। कुछ वर्षों में इस उत्सव ने वार्षिक मेले का रूप ले लिया। इस अवसर पर झांकिया, झूले, बाजार आदि का आयोजन किया जाने लगा।

ई.1940 में अंग्रेजों को शक हुआ कि इस उत्सव की आड़ में हिन्दुओं और मुसलमानों को एक मंच पर आने का अवसर मिल रहा है। इस एकता का उपयोग भारत की आजादी के आंदोलन में अंग्रेजों के विरुद्ध किया जा सकता है। इसलिए अंग्रेजों ने इस महोत्सव पर रोक लगा दी। भारत की आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ई.1961-62 में इस महोत्सव को फिर से आरम्भ करवाया। तब से यह महोत्सव प्रतिवर्ष मनाया जा रहा है।

ई.1837 में अकबर (द्वितीय) का निधन हो गया। उसका शव दिल्ली के महरौली क्षेत्र में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की कब्र के निकट दफनाया गया। पाठकों को स्मरण होगा कि औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह (प्रथम) की कब्र भी यहीं बनाई गई थी जिसे इतिहास में शाहआलम (प्रथम) कहा जाता है। अकबर (द्वितीय) के पिता शाहआलम (द्वितीय) की कब्र भी यहीं बनाई गई थी।

बादशाह अकबर (द्वितीय) के 14 शहजादे और 8 शहजादियां थीं। अकबर अपने पुत्र मिर्जा फख्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित करना चाहता था किंतु अंग्रेजों ने अकबर के द्वितीय पुत्र मिर्जा अबू जफर सिराजुद्दीन मुहम्मद को बादशाह घोषित कर दिया जिसे इतिहास में बहादुरशाह जफर के नाम से जाना जाता है।

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