परुष्णि के तट पर आर्यों की सांध्यकालीन गोष्ठी जुड़ी है। आर्य सुरथ और आर्य सुनील अन्य आर्यवीरों के साथ सोम की खोज में गये थे किंतु वहाँ से न केवल निष्फल होकर लौटे हैं अपितु अत्यंत चिंताजन्य समाचार लेकर आये हैं। असुरों ने न केवल परुष्णि के तट से अपितु समस्त पुण्य सलिलाओं के तटों से खोज-खोजकर सोम वल्लरियों को नष्ट कर दिया है और इस जन की भांति अन्य आर्य-जन भी सोम के अभाव में श्री विहीन होकर रह गये हैं। कहीं भी अग्नि को सोम की आहुति नहीं दी जा रही है। सोम पान कर अग्नि एवं अन्य देवों की भाँति परिपुष्ट रहने वाले आर्य सोम के लुप्त हो जाने पर क्षीण बल होकर अत्यंत व्याकुल अवस्था में यत्र-तत्र सोम को खोजते फिर रहे हैं।
आर्य सुरथ यह भी समाचार लाये हैं कि कुछ आर्य-यूथ त्रिविष्टप तथा मनोरवसर्पण तक हो आये हैं किंतु कहीं भी सोम को प्राप्त नहीं किया जा सका है। सोम को नष्ट करने के लिये असुरों ने विशाल व्यूह रचना की। उन्होंने इस दुष्कृत्य में दैत्यों, दानवों, यतियों, राक्षसों, दस्युओं को भी सम्मिलित किया और एक साथ घात लगाकर सोम वल्लरियाँ नष्ट कर दीं।
– ‘सोमविहीन आर्यों का जीवन कैसा होगा ऋषिवर!’ भय और आशंकाओं से पूरित-कम्पित हृदय से अम्बा अदिति ने प्रश्न किया।
– ‘सोमविहीन आर्यों का बल हर प्रकार से क्षीण हो जायेगा।’ असुर आदि तामसी प्रजायें आर्यों को और अधिक त्रस्त करेंगी। उनका प्रतिरोध करने के लिये आर्यों में भी तामसी वृत्ति जन्म लेगी और सोम से विमुख हुए यज्ञ में आसुरी कर्मकाण्ड प्रारंभ हो जायेंगे।’ श्रषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा जैसे वर्तमान की सीमा को लांघकर भविष्य के किसी छोर से बोल रहे थे।
भविष्य का भयावह चित्र देखकर अमंगल की आशंका से आर्यों के गात्र रोम कण्टकित हो गये। बहुत देर तक कोई कुछ नहीं बोला। अंत में आर्य सुरथ ने ही मौन भंग किया।
– ‘इस संकट के निवारण का उपाय क्या है ऋषिश्रेष्ठ ?’
– ‘प्रत्येक संकट का निवारण नहीं होता आर्य। कुछ संकट ऐसे भी होते हैं जो स्थायी रूप से स्थापित हो जाते हैं। यह संकट ऐसा ही है।’
– ‘आपकी गति तो भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में निर्विघ्न रूप से होती है। क्या आपने भविष्य के गर्भ में इस संकट को सदैव के लिये स्थापति हुआ देखा है ?’
– ‘हाँ पुत्र! मैंने ध्यानावस्थित अवस्था में प्राणों को देह से विलग करके तीनों कालों की यात्रा की है। मैंने बहुत सी विचित्र बातें भविष्य के गर्भ में देखी हैं।’
– ‘क्या कहीं सोम दिखाई दिया ऋषिवर ?’ आर्या स्वधा ने व्यग्रता से प्रश्न किया।
– ‘हाँ पुत्री! मुझे सोम दिखायी दिया।’ ऋषिश्रेष्ठ ने मंद स्मित के साथ कहा।
– ‘क्या सोम फिर प्रकट होगा देव ?’
– ‘अब सोम का प्राकट्य किसी वल्लरी में नहीं होगा।’
– ‘फिर उसे मनुज कैसे प्राप्त करेंगे ?
– ‘अपने हृदय में।’
– ‘अपने हृदय में!’
– ‘हाँ अपने हृदय में। जब-जब मनुष्य सुकृत्य करेगा तब-तब मनुष्य के हृदय में सोम प्रकट होगा और जब-जब मनुष्य आसुरि भाव ग्रहण करेगा, सोम विलुप्त हो जायेगा।’
– ‘तो क्या अब सोम की आहुति यज्ञ में नहीं दी जा सकेगी ?’
– ‘अब सोम की आहुति यज्ञ में नहीं मनुष्य के कर्म में होगी। सद्कर्म ही मनुष्य का सबसे बड़ा यज्ञ होगा। समय परिवर्तन शील है। आने वाले युग का यही प्रचलन होगा।’
– ‘तो क्या अब यज्ञ समाप्त हो जायेंगे ?’
– ‘यज्ञ समाप्त नहीं होंगे किंतु उनका स्वरूप परिवर्तित हो जायेगा।’
– ‘कृपया स्पष्ट करके कहिये देव! आप भविष्य के गर्भ में क्या देख रहे हैं ?’
– ‘मैं देख रहा हूँ कि जो सरस्वती प्रलय काल में मार्कण्डेय ऋषि के पीछे चलते हुए अपने वर्तमान पथ पर प्रवाहित हुई। वही सरस्वती फूटी हुई नौका के समान रेत के समुद्र में विलीन हो रही है।’
– ‘सरस्वती रेत के समुद्र में विलीन हो रही है!’ आश्चर्य सेे समस्त आर्यों के मुख खुले के खुले रह गये।
– ‘हाँ भविष्य में सरस्वती के तट निर्जन हो जायेंगे।’
– ‘किंतु क्यों ?’
– ‘असुरों के अनाचार बढ़ जाने से चर्मण्यवती अपना प्रवाह बदल कर विपरीत दिशा में बहने लगेगी। चर्मण्यवती से बचने के लिये सरस्वती को भी अपना मार्ग बदलना होगा और इसी प्रयास में वह यमुना में जा कूदेगी। जिस प्रकार यम मनुष्यों के प्राण हर लेता है उसी प्रकार यम-भगिनी यमुना सरस्वती के प्राण हर लेगी।’
– ‘और द्रुमकुल्य ? उसका क्या होगा ?’
– ‘द्रुमकुल्य का मधुर जल पथ भ्रष्ट होकर लवण सागर में जा समायेगा और आज जहाँ दु्रमकुल्य है वहाँ भयानक मरूस्थल फैल जायेगा।’
– ‘क्या एक बार पुनः जलप्लावन होगा ऋषिवर।’
– ‘जल प्लावन होगा किंतु वैसा नहीं जैसा वैवस्वत मनु के समय में हुआ था। यह प्लावन शनैः-शनैः होगा।’
– ‘सरस्वती और द्रुमकुल्य के तटों पर निवास करने वाले आर्य जन और ऋषिगणों का क्या होगा ?’
– ‘जिस प्रकार जलारोहण करने वाले यात्री फूटी हुई नौका का त्याग करके दूसरी नौका में जा बैठते हैं, उसी प्रकार सरस्वती के तटों पर रहने वाले आर्य जन और ऋषिगण सरस्वती के तटों का त्याग करके गंगा और यमुना के तटों पर जा बसेंगे। तब आर्य सप्त सैंधव तक सीमित न रहकर चारों दिशाओं में फैल जायेंगे।’
– ‘आर्यों के चारों दिशाओं में फैल जाने पर आर्येतर प्रजाओं का क्या होगा ?’
– ‘उस काल में यक्ष, गंधर्व, किरात और किन्न्र आदि आर्येतर प्रजायें आर्यजनों में ही समाहित हो जायेंगी। अन्य प्रजायें अपना वर्तमान स्वरूप खोकर किसी अन्य रूप में संगठित होंगी।’
– ‘और उस काल के यज्ञ-हवन कैसे होंगे ?
– ‘मैंने कहा न पुत्री! उस काल में यज्ञ-हवन के स्थान पर कर्मकाण्ड का प्रसार हो जायेगा। अधिकांश कर्मकाण्ड लोभी ब्राह्मणों द्वारा यजमान का धन अपहरण करने के लिये चलाये जायेंगे। कुछ श्रेष्ठ ब्राह्मण ही ऐसे होंगे जो आर्यों को उचित मार्ग दिखायेंगे। ये श्रेष्ठ ब्राह्मण क्षत्रियों के सहयोग से आर्य संस्कृति का बदला हुआ स्वरूप बनाये रख सकेंगे।’
– ‘क्षत्रिय! क्षत्रिय कौन ?’
– ‘आर्य संस्कृति को बचाने के लिये भविष्य में कुछ श्रेष्ठ ब्राह्मण मिलकर एक विशाल यज्ञ करेंगे जिनसे क्षत्रिय-कुलों की उत्पत्ति होगी। [1] ये क्षत्रिय शस्त्रों के बल पर आर्य संस्कृति की रक्षा करेंगे।’
– ‘तब सत्प्रवृत्ति और देव सम्मत विधि-विधान का क्या होगा ?’
– ‘सत्प्रवृत्ति और देव सम्मत विधि-विधान शुभकर्मों में समाहित हो जायेंगे। जो श्रेष्ठ जन परोपकार को लक्ष्य बनाकर शुभ कर्म करेंगे, उन्हें शताधिक अश्वमेध यज्ञों का पुण्य प्राप्त हुआ करेगा।’
– ‘क्या भविष्य में आज की भांति के यज्ञ-हवन होंगे ही नहीं ? यज्ञ विहीन आर्यजनों की कल्पना कर सकना आर्या स्वधा के लिये संभव नहीं हो पा रहा था।
– ‘होंगे किंतु उनका स्वरूप और लक्ष्य आज की तरह देव संतुष्टि न होकर स्वार्थ पूर्ति मात्र होगा। यज्ञों में आर्यों द्वारा परिश्रम से अर्जित ब्रीहि, शालि मधु, घृत, दुग्ध, पत्र-पुष्प, फल आदि द्रव्यों के स्थान पर पशुओं की बलि दी जायेगी तथा उनकी मज्जा बलिभाग के रूप में देवों, ऋत्विजों और यजमानों को प्राप्त होगी।’
ऐसे वीभत्स यज्ञों की कल्पना से आर्य जन सिहर उठा।
– ‘ यज्ञ वेदि के निकट पशुवध! यह कैसा यज्ञ होगा देव! बलि भाग के रूप में प्राप्त पशुमज्जा से क्या देवगण संतुष्ट हो पायेंगे ?
– ‘निर्बल देवगण पशुमज्जा को बलि भाग में पाकर संतुष्ट नहीं होंगे इसीसे उनका बल निरंतर छीजता हुआ एक दिन पूरी तरह समाप्त हो जायेगा। कुछ देव असुरों में परिवर्तित हो जायेंगे अथवा आसुरि प्रवृत्तियों को धारण करने लगेंगे तब आर्य जन देवों के विरुद्ध संगठित होकर नवीन पूजा पद्धतियों को अपनायेंगे। व्रात्यों, द्रविड़ों और असुरों की पूजा पद्धतियाँ ही अधिकतर प्रचलन में आ जायेंगी।’
मंद गति से विचरण करता हुआ निशीथ अंतरिक्ष के मध्य में आ बैठा था। दो प्रहर रात्रि व्यतीत हुई जान कर गोष्ठी विसर्जित की गयी। यह प्रथम अवसर था जब आर्यों की गोष्ठी का विसर्जन भय, आशंका और विचित्र अमंगल कल्पनाओं के बीच हुआ।
[1] एक बार ऋषियों ने आबू पर्वत पर विशाल यज्ञ किया। माना जाता है कि वसिष्ठ ऋषि ने इस यज्ञ की अग्नि से चार पुरुषों का निर्माण किया जिनसे प्राचीन भारतीय क्षत्रियों के चार वंश उत्पन्न हुए।