Friday, March 29, 2024
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अध्याय – 68 : भारतीय राजनीति में गांधीजी का योगदान – 3

असहयोग आन्दोलन के बाद भारतीय राजनीति

भारत में 1920 ई. में असहयोग आंदोलन आरम्भ हुआ जो लगभग विफल हो गया। इसके दस साल बाद 1930 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारम्भ हुआ। इन दो बड़े आंदोलनों के बीच के 10 साल के अंतराल में भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएं घटित हुईं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-

(1.) स्वराज्य दल का गठन

मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास आदि बहुत से नेताओं का विचार था कि कांग्रेसी नेताओं को विधान मण्डलों में प्रवेश करना चाहिये। क्योंकि ऐसा करने से सरकार के वफादार एवं उदारवादी लोगों को विधान मण्डलों में जाने का अवसर नहीं मिलेगा तथा कांग्रेस द्वारा असहयोग का कार्यक्रम कौंसिलों में भी ले जाया जा सकेगा। अतः विधानमंडलों का बहिष्कार सम्बन्धी निर्णय रद्द किया जाना चाहिए। इस समय गांधीजी जेल में थे। इसलिये दिसम्बर 1922 के गया अधिवेशन में चितरंजन दास ने इसके सम्बन्ध में प्रस्ताव रखा किन्तु राजगोपालचारी, डॉ. अन्सारी तथा सरदार पटेल आदि नेताओं के विरोध के कारण चितरंजन दास का प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। अतः चितरंजनदास तथा मोतीलाल नेहरू आदि नेताओं ने कांग्रेस से त्यागपत्र देकर मार्च 1923 में स्वराज्य पार्टी की स्थापना की। सितम्बर 1923 में दिल्ली में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन बुलाया गया जिसमें कांग्रेस ने अपने सदस्यों को आगामी निर्वाचन में मतदान करने तथा चुनाव लड़ने की स्वीकृति प्रदान की तथा स्वराज्य दल के कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया। 1924 ई. में जेल से रिहा होने के बाद गांधीजी ने भी स्वराज्य दल के कार्यक्रम को समर्थन दे दिया।

स्वराज्य दल का मुख्य उद्देश्य विधान मण्डलों में प्रवेश करके सरकार के समक्ष बाधाएं खड़ी करना तथा सरकारी तंत्र को असफल बनाना था। 1923 ई. के चुनावों में स्वराज्य दल को आशातीत सफलता मिली। स्वराज्य दल के नेता मोतीलाल नेहरू ने केन्द्रीय विधान मण्डल में 8 फरवरी 1924 को भारत के लिये उत्तरदायी सरकार स्थापित करने, गोलमेज सम्मेलन बुलाने तथा भारत के लिए नये संविधान का निर्माण करवाने का प्रस्ताव पारित करवा लिया। साथ ही वार्षिक बजट की मांगों को अस्वीकार कर दिया। इस कारण गवर्नर जनरल को अपनी शक्तियों का प्रयोग करके वार्षिक बजट को पारित करना पड़ा। सरकार के कड़े विरोध के उपरांत भी विधान मण्डल में 1918 ई. के दमनकारी कानूनों के विरुद्ध राजनीतिक नेताओं की रिहाई के प्रस्ताव पारित किये गये। फरवरी 1924 के प्रस्तावों में सरकार ने 1919 के द्वैध शासन को मौलिक रूप से ठीक बताया। मुडिमैन समिति की रिपोर्ट केन्द्रीय विधान मण्डल के समक्ष प्रस्तुत की गई। सरकार द्वारा कड़ा विरोध किये जाने पर भी, मोतीलाल नेहरू, मुडिमैन समिति की रिपोर्ट के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करवाने में सफल रहे। 1925 ई. में देशबन्धु चितरंजन दास की मृत्यु हो जाने से स्वराज्य दल कमजोर पड़ गया। मार्च 1926 में कांग्रेस ने पुनः विधान मण्डलों के बहिष्कार की घोषणा की। अतः स्वराज्य दल ने भी विधान मण्डलों में प्रवेश का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। इसके बाद भारतीय राजनीति से स्वराज्य दल का अस्तित्त्व समाप्त हो गया।

(2.) साइमन कमीशन की नियुक्ति

8 नवम्बर 1927 को ब्रिटिश सरकार ने भारत में उत्तरदायी सरकार की प्रगति की जांच के लिये सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में ब्रिटिश संसदों का एक कमीशन नियुक्त किया। इसमें साइमन सहित सातों सदस्य अँग्रेज थे। इस कारण इसे व्हाइट कमीशन भी कहा जाता है। इस कमीशन में किसी भारतीय को न लिये जाने से भारतीयों को असंतोष हुआ और भारत के समस्त राजनीतिक दलों ने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया। जहाँ भी साइमन कमीशन गया, वहाँ काले झण्डों, हड़तालों, प्रदर्शनों और ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारे से उसका विरोध किया गया। लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला गया। पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लालाजी के सिर पर लाठी के प्रहार किये जिससे लालाजी बुरी तरह घायल हो गये और 17 नवम्बर 1928 को उनका निधन हो गया। इस पर भगतसिंह आदि क्रांतिकारियों ने 17 दिसम्बर 1928 को साण्डर्स की हत्या करके लालाजी की मृत्यु का बदला लिया।

मई 1930 में साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी जिसे 7 जून 1930 को प्रकाशित किया गया। इस रिपोर्ट में औपनिवेशिक स्वराज्य का कहीं उल्लेख नहीं था और केन्द्र में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिये कुछ नहीं कहा गया था। प्रतिरक्षा को भारतीयों के हाथों में नहीं सौंपा गया था। प्रान्तों को स्वायत्तता देने की बात कही गई किंतु गवर्नर की विशेष शक्तियों के माध्यम से उस स्वायत्तता को सीमित कर दिया गया। सर शिवस्वामी अय्यर ने इस रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में फैंकने योग्य बताया। कूपलैंड ने इसे राजनीतिशास्त्र के पुस्तकालय हेतु उच्चकोटि की रचना बताया। फिर भी 1935 के भारत सरकार अधिनियम में इस रिपोर्ट की अनेक बातें ली गईं।

(3.) नेहरू रिपोर्ट

जब भारत में साइमन कमीशन का सर्वत्र बहिष्कार हुआ तब भारत सचिव लॉर्ड ब्रेकन हेड ने भारतीयों को ऐसा संविधान बनाने की चुनौती दी जिससे समस्त भारतीय पक्ष सहमत हों। कांग्रेस ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया तथा 28 फरवरी 1928 को दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन की 25 बैठकें हुईं परन्तु हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के विरोधी रुख के कारण साम्प्रदायिक प्रश्नों के सम्बन्ध में कुछ भी निर्णय नहीं हो सका। फिर भी, कुछ मूलभूत बातों पर सहमति हो गई और 10 मई 1928 को बम्बई में दुबारा सर्वदलीय बैठक हुई जिसमें भारत के संविधान का मसविदा तैयार करने के लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई। इस समिति में सुभाषचन्द्र बोस, सर तेजबहादुर सप्रू, शुऐब कुरेशी, सरदार मंगलसिंह, एम. एम. अणे, सर अली इमाम और जी. आर. प्रधान सहित कुल आठ सदस्य थे। इस समिति की रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट कहा जाता है। इस रिपोर्ट की मुख्य बातें इस प्रकार से थीं-

(1.) भारत को तत्काल औपनिवेशिक स्वराज प्रदान किया जाये। केन्द्र व प्रान्तों में पूर्ण उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाये तथा कार्यकारिणी को विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी बनाया जाये।

(2.) भारत में संघीय व्यवस्था लागू की जाये और संघीय आधार पर शक्तियों का विभाजन किया जाये। अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र के पास रखी जायें।

(3.) साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति तथा अति-प्रतिनिधित्व (जनसंख्या से अधिक स्थान) को स्वीकृत किया जाये किन्तु अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक, स्वायत्तता तथा सुरक्षा आदि की गारण्टी दी जाये।

(4.) सिन्ध प्रांत को बम्बई प्रांत से पृथक किया जाये तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त को अन्य प्रान्तों के समकक्ष दर्जा दिया जाये।

(5.) भारत सरकार की कानूनी शक्तियां संसद के पास रहें जो ब्रिटिश सम्राट, सीनेट और प्रतिनिधि सभा से मिलकर बनें। प्रतिनिधि सभा तथा प्रान्तीय विधान परिषदों के चुनावों में 22 वर्ष या अधिक आयु के व्यक्ति को भाग लेने का अधिकार हो जो कानून द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो।

(6.) शासन की कार्यकारिणी शक्ति बादशाह के पास रहे और गर्वनर जनरल, ब्रिटिश एम्परर के प्रतिनिधि की हैसियत से, कानून और संविधान के अनुसार उस शक्ति का प्रयोग करे। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में प्रधानमंत्री सहित सात मंत्री हों। प्रधानमंत्री की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार गवर्नर जनरल द्वारा की जाये। कार्यकारिणी परिषद् सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी हो।

(7.) एक प्रतिरक्षा समिति बनाई जाये। प्रतिरक्षा सम्बन्धी व्यय की स्वीकृति प्रतिनिधि सभा से लेने की व्यवस्था हो किन्तु भारत पर विदेशी आक्रमण होने या इसकी संभावना होने पर कार्यकारिणी को किसी भी धनराशि को खर्च करने का अधिकार हो।

(8.) प्रिवी कौंसिल की तमाम अपीलें बन्द करके भारत में एक उच्चतम न्यायालय स्थापित किया जाये जो संविधान की व्याख्या करे तथा प्रान्तीय विवादों पर निर्णय दे।

यद्यपि नेहरू रिपोर्ट को तैयार करते समय भारत के समस्त पक्षों से विचार-विमर्श किया गया था किंतु रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद विभिन्न दलों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से सोचना आरम्भ कर दिया। मुस्लिम लीग में इस रिपोर्ट को स्वीकार किये जाने के सम्बन्ध में तीव्र मतभेद उठ खड़े हुए। अली बन्धुओं ने विभिन्न प्रान्तीय मुस्लिम संगठनों को इसे स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जबकि मुहम्मद अली जिन्ना इसमें कुछ ऐसे मौलिक परिवर्तन चाहते थे जिससे इसका स्वरूप ही बदल जाये। स्वयं कांग्रेस में भी काफी मतभेद उत्पन्न हो गये। दिसम्बर 1928 में कलकत्ता कांग्रेस के अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में युवा कांग्रेसियों ने यह प्रस्ताव पारित करवा लिया कि यदि ब्रिटिश संसद 31 दिसम्बर 1929 तक इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं करती है तो कांग्रेस का लक्ष्य डोमिनियन स्टेटस की बजाय पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना हो जायेगा।

(4.) पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव

 मई 1929 में इंग्लैण्ड में चुनाव हुए जिनमें अनुदार टोरी दल की पराजय हुई और रेम्जे मेक्डोनल्ड के नेतृत्व में मजदूर दल की सरकार बनी। चुनाव के बाद मेक्डोनल्ड ने भारत को अधिराज्य स्थिति देने की घोषणा की तथा अक्टूबर 1929 में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन को विचार-विमर्श के लिए इंग्लैंण्ड बुलाया। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद इरविन ने भी अधिराज्य स्थिति का दर्जा देने तथा गोलमेज सम्मेलन बुलाये जाने का संकेत दिया परन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि ऐसा कब तक हो पायेगा। इंग्लैण्ड में अनुदार दल इस योजना का घोर विरोध कर रहा था। गांधीजी ने गवर्नर जनरल से भेंट करके वास्तविक स्थिति की जानकारी चाही परन्तु उन्हें निराश होना पड़ा। इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।

दिसम्बर 1929 में अत्यंत तनावपूर्ण वातावरण में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन आयोजित हुआ। कांग्रेस अब तक औपनिवेशिक स्वराज की मांग करती रही थी किंतु इस अधिवेशन में कांग्रेस ने अब तक की नीति का परित्याग करते हुए पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया।  कांग्रेस कमेटी को यह अधिकार दिया गया कि वह उपयुक्त समय पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ करे। रावी नदी के तट पर 31 दिसम्बर 1929 को युवा जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झंडा फहराया। यह निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी का दिन स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाये।

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