डलहौजी की नीति ने भारत के देशी रजवाड़ों में तो बेचैनी उत्पन्न की ही थी किंतु साथ ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेनाओं में नियुक्त हिन्दू सैनिकों का क्रोध भी उबाल पर था। इसके कई कारण थे।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार ने न केवल लाल किले में बैठे बादशाह से लेकर अवध के नवाब, पूना के पेशवा सहित अनेक देशी शासकों की सत्ता को ही कुचल कर समाप्त प्रायः कर दिया था अपितु भारतीय जन-जीवन के प्रत्येक अंग पर शिकंजा कसकर उसे बुरी तरह चूसना आरम्भ कर दिया था। क्रांति की देवी आशा भरी दृष्टि से लाल किले की तरफ देख रही थी।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों ने इंगलैण्ड के कारखानों को कच्चा माल उपलब्ध करवाने और संसार भर में लड़ रही अपनी सेनाओं का पेट भरने के लिए भारतीय कृषि और कुटीर उद्योगों का संतुलन बिगाड़ दिया था। उन्होंने भारतीय किसानों को विवश किया कि वे कहीं पर केवल नील की, कहीं पर केवल कपास की, कहीं पर केवल गेहूं की तो कहीं पर केवल गन्ने की खेती करें।
इससे भारतीय किसानों की परम्परागत आत्म-निर्भरता नष्ट हो गई। इसी प्रकार मैनचेस्टर की मिलों का माल भारत में खपाने के लिए अंग्रेजों ने भारत के कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया।
भारतीय कृषि एवं कुटीर उद्योगों के नष्ट हो जाने से भारत में बड़े-बड़े अकाल पड़ने लगे। ई.1770 में बंगाल का वीभत्सतम अकाल पड़ा जिसमें बिहार एवं बंगाल में एक करोड़ लोगों की मृत्यु हो गई। वारेन हेस्टिंग्स ने ई.1772 में इस अकाल पर तैयार रिपोर्ट में लिखा है कि निम्न-गंगा-क्षेत्र अर्थात् बिहार एवं बंगाल की एक तिहाई जनसंख्या इस अकाल में समाप्त हो गई।
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ई.1837 में गंगा-यमुना के दो आब में भयानक अकाल पड़ा। इस अकाल में आठ लाख लोग मारे गये थे। लॉर्ड जॉन लॉरेंस ने लिखा है- ‘मेरे जीवन में ऐसे दृश्य कभी दिखाई नहीं दिये जैसे होडल तथा पलवल आदि परगनों में देखे। कानपुर में सैनिक टुकड़ियां लाशों को हटाने जाती थीं। हजारों लाशें गांवों और कस्बों में तब तक पड़ी रहती थीं जब तक कि जंगली जानवरों द्वारा खा नहीं ली जाती थीं।’
अकाल पीड़ितों की सहायता के लिये कम्पनी शासन ने कोई प्रयत्न नहीं किया। इस कारण स्थान-स्थान पर रोटी एवं पानी के लिए उपद्रव हुए। अंग्रेजी सेना ने इन उपद्रवों का दमन किया। इन अकालों के कारण उत्तर भारत की आत्मा कराह उठी। भारत के लोग फिरंगियों के राज्य के नाश की कामना करने लगे।
डलहौजी के बाद ई.1856 में जब लॉर्ड केनिंग भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया तो उसने कम्पनी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स के समक्ष भाषण देते हुए कहा- ‘एक धन-धान्यपूर्ण देश में 15 करोड़ लोग शांति और संतोष के साथ विदेशियों की सरकार के समक्ष घुटने टिकाये हुए हैं……..मैं नहीं जानता कि घटनाएं किस ओर जायेंगी। मैं आशा करता हूँ कि हम युद्ध से बच जायेंगे।…… मैं चाहता हूँ कि मेरा कार्यकाल शांतिपूर्ण हो। …….. हमें नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय आकाश यद्यपि इस समय बिल्कुल शांत है किंतु एक छोटा सा बादल जो एक मुट्ठी से बड़ा न हो, उठ सकता है, जो बढ़कर हमारा सर्वनाश कर सकता है …….. यदि सब-कुछ करने पर भी अंत में यह आवश्यक हो जाये कि हम शस्त्र उठाएं तो हम साफ दिल से प्रहार करेंगे। ऐसा करने से युद्ध जल्दी समाप्त हो जायेगा और सफलता निश्चित होगी।’
इस वक्तव्य से अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत की अँग्रेजी सरकार को यह जानकारी हो गई थी कि हिन्दू सैनिकों का क्रोध कभी भी विद्रोह का रूप ले सकता है।
लॉर्ड केनिंग एक बुद्धिमान एवं व्यवहार कुशल अधिकारी था किंतु वह भी भारत में पनप रहे असंतोष को कम करने में असफल रहा। कम्पनी सेना में अधिकांश भारतीय सैनिक उच्च जाति के ब्राह्मण, राजपूत, जाट एवं पठान आदि थे। वे कट्टर रूढ़िवादी थे।
अँग्रेजों ने सेना में पाश्चात्य नियम लागू करते हुए सैनिकों को माला पहनने व तिलक लगाने की मनाही कर दी। मुसलमान सैनिक दाढ़ी नहीं रख सकते थे। हिन्दुओं को विदेशी मोर्चों पर भेजा जाने लगा। हिन्दुओं में विदेश जाना धर्म विरुद्ध माना जाता था। इस पर हिन्दू सैनिकों का क्रोध भड़क गया और उन्होंने विदेश जाने से इन्कार कर दिया।
इस पर लॉर्ड केनिंग ने सामान्य सेना भर्ती अधिनियम पारित करके भारतीय सैनिकों को सेवा के लिए कहीं भी भेजे जा सकने का नियम बना दिया। एक अन्य आदेश के अनुसार, विदेशों में सेवा के लिए अयोग्य समझे गये सैनिकों को सेवानिवृत्ति प्राप्त करने पर पेंशन से वंचित कर दिया गया। इससे भारतीय सैनिकों में यह भावना दृढ़ हो गई कि अँग्रेज उनके धर्म को नष्ट करके उन्हें ईसाई बना रहे हैं। ऐसे वातावरण में चर्बी-युक्त कारतूसों ने आग में घी का काम किया।
उन्हीं दिनों ब्रिटेन में एनफील्ड नामक रायफल का आविष्कार हुआ जिसमें प्रयुक्त कारतूस को चिकना करने हेतु गाय एवं सूअर की चर्बी का प्रयोग होता था। इस कारतूस को रायफल में डालने से पूर्व उसकी टोपी को मुँह से काटना पड़ता था। इस रायफल का प्रयोग ई.1853 से भारत में भी आरम्भ किया गया किंतु कारतूस में चर्बी लगी होने की बात भारतीयों को ज्ञात नहीं थी।
ई.1857 में दमदम शस्त्रागार में एक दिन निम्न समझी जाने वाली जाति के एक खलासी ने एक ब्राह्मण सैनिक के लोटे से पानी पीना चाहा किन्तु उस ब्राह्मण ने इसे अपने धर्म के विरुद्ध मानकर उसे रोका।
इस पर खलासी ने व्यंग्य किया कि ‘उसका धर्म तो नये कारतूसों के प्रयोग से समाप्त हो जायेगा, क्योंकि उस पर गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई है।’ खलासी के व्यंग्य से सत्य खुल गया और हिन्दू सैनिकों का क्रोध अचानक ही चरम पर पहुँच गया।
सुंदरलाल ने अपनी पुस्तक भारत में ब्रिटिश राज में लिखा है- ‘दमदम की एक कारतूस फैक्ट्री के लिये चर्बी की आपूर्ति हेतु एक ठेकेदार 4 आने प्रति सेर के हिसाब से देने के लिये नियुक्त था। ब्रिटिश इतिहासकार केय ने अपनी पुस्तक इण्डियन म्यूटिनी में लिखा है कि टूकर नामक एक कर्नल ने ई.1853 में यह खुलासा कर दिया था कि कारतूस में लगने वाले छर्रे गाय एवं सूअर की चर्बी से युक्त रहते थे।’
इन कारतूसों को मुंह से खोलकर बंदूक में भरना पड़ता था। इस कारण हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही सम्प्रदायों के सिपाही अंग्रेजों के शासन को मिटाने पर उतारू हो गए। जब अँग्रेजों द्वारा सती प्रथा निषेध का कानून बनाया गया तो भारतीयों को लगा कि अँग्रेज जाति भारतीयों की सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करके हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को नष्ट करना चाहती है।
सुन्दरलाल तथा उनके बाद के साम्यवादी लेखकों ने कम्पनी सरकार में सूअर की चर्बी लगे कारतूसों के माध्यम से मुस्लिम सैनिकों के असंतोष को बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाया है किंतु वास्तविकता यह थी कि उस काल में कम्पनी सरकार की सेना में मुसलमान सैनिकों की संख्या बहुत कम थी। यह तो हिन्दू सैनिकों का क्रोध ही था जो कम्पनी सरकार के विरुद्ध ज्वालामुखी की तरह उबल रहा था।
इस प्रकार ई.1857 में सम्पूर्ण भारत में चारों ओर कम्पनी के शासन के विरुद्ध वातावरण बन गया। इस वातावरण में एक छोटी सी चिन्गारी बड़ा विस्फोट करने के लिये पर्याप्त थी और क्रांति की देवी प्रकट होने को आतुर थी किंतु क्रांति की देवी को इस काल के भारत में ऐसी कोई सर्वमान्य शक्ति दिखाई नहीं देती थी जो क्रांति की देवी का स्वागत कर सके और उसका हाथ पकड़कर सफलता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हो सके।
ऐसी स्थिति में क्रांति की देवी ने बड़ी आशा भरी दृष्टि से लाल किले की तरफ देखा किंतु लाल किला न केवल थका हुआ और निराश था अपितु किंकर्तव्य विमूढ़ होकर बैठा था। उसका समस्त तेज नष्ट हो चुका था। लाल किले का बादशाह बहादुरशाह जफर बूढ़ा, जर्जर और अकर्मण्य था। उससे यह आशा करना व्यर्थ था कि वह क्रांति की देवी का स्वागत करने को तत्पर होगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता