Saturday, July 27, 2024
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उर्दू बीबी की मौत

डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (8)

राजा शिवप्रसाद सतारा ए हिंद तथा भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र दोनों ही बनारस के रहने वाले थे। दोनों ही वैश्य थे किंतु बाबू शिवप्रसाद का जन्म जैन परिवार में हुआ था और बाबू हरिश्चंद्र का जन्म सनातक धर्म को मानने वाले अग्रवाल परिवार में हुआ था। दोनों ही परिवार बनारस में अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध थे। भारतेंदु बाबू का परिवार इतना समृद्ध था कि किसी समय काशी के राजा ने भी भारतेंदु के पूर्वजों से रुपया उधार लिया था।

बाबू शिवप्रसाद के पूर्वजों पर अल्लाउद्दीन खिलजी के समय में मुसलमानों ने बहुत अत्याचार किए थे इस कारण बाबू शिवप्रसाद मुसलमानों के विरोधी तथा अंग्रेजों के प्रशंसक और सहायक थे। जबकि भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र अंग्रेजी राज्य को बुरा बताकर उसका विरोध करते थे तथा इस कारण वे बाबू शिवप्रसाद का भी विरोध करते थे। वैचारिक असमानताएं होने पर भी भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र आयु में बड़े बाबू शिवप्रसाद को अपना गुरु मानते थे।

उन्हीं दिनों ‘अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट’ नामक समाचार पत्र ने राजा शिवप्रसाद सितारा ए हिन्द पर आरोप लगाया कि राजा साहब ने उर्दू की हत्या की है। इस समाचार के विरोध में राजा शिवप्रसाद सितारा ए हिन्द ने ‘बनारस अखबार’ में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए उर्दू के लिए काफी कड़े शब्दों का प्रयोग किया।

भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र ने राजा शिवप्रसाद पर लगाए गए आरोप पर टिप्पणी करते हुए ‘उर्दू का स्यापा’ नामक एक व्यंग्य रचना लिखी जिसमें उन्होंने उर्दू के लिए ‘उर्दू बीबी’ शब्दों का प्रयोग किया। उन दिनों हिन्दी के पक्षधर लोग उर्दू को व्यंग्य से ‘उर्दू बीबी’ कहा करते थे। संभवतः राजा शिवप्रसाद सिंह ने अथवा भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र ने उर्दू को ‘उर्दू बीबी’ नाम दिया था।

उर्दू भाषा में ‘बीबी’ बहुत ही सम्मानजनक शब्द माना जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ ‘बहिन’ है किंतु किसी भी आयु की लड़की या स्त्री को सम्मान देने के लिए आम बोलचाल की भाषा में ‘बीबी’ कहा जाता था। यहाँ तक कि माँ को भी बीबी कहा जाता था। उस काल में हिन्दू भी अपनी बहिन-बेटियों से स्नेह एवं आदर जताने के लिए ‘बीबी’ शब्द का प्रयोग करते थे।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में आज भी बहिन-बेटी को बीबी कहने की परम्परा देखने को मिलती है। कुछ हिन्दी भाषी लोग ‘बीबी’ और ‘बीवी’ शब्दों के एक जैसे होने के कारण भ्रम में पड़ जाते हैं और दोनों शब्दों को एक ही मानकर गलत उच्चारण करते हैं। उर्दू भाषा में ‘बीवी’ शब्द पत्नी के लिए प्रयुक्त होता है।

जिस प्रकार भारतेंदु बाबू ने ‘भारत दुर्दशा’ नाटक लिखकर भारतवासियों की दयनीय अवस्था का वर्णन किया था, उसी प्रकार ‘उर्दू का स्यापा’ के माध्यम से उन्होंने हिन्दुओं के मन में उर्दू के विरोध में चल रही भावनाओं को प्रकट करने के लिए बड़ी ही उत्तेजक शब्दावली का प्रयोग किया।

उर्दू का स्यापा

‘अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट’ और ‘बनारस अखबार’ को देखने से ज्ञात हुआ कि बीबी उर्दू मारी गई और परम अहिंसानिष्ठ होकर भी राजा शिवप्रसाद ने यह हिंसा की। हाय हाय! बड़ा अंधेर हुआ मानो बीबी उर्दू अपने पति के साथ सती हो गई। यद्यपि हम देखते हैं कि अभी साढ़े तीन हाथ की ऊँटनी सी बीबी उर्दू पागुर करती जीती है, पर हमको उर्दू अखबारों की बात का पूरा विश्वास है।

हमारी तो कहावत है- एक मियाँ साहब परदेस में सरिश्तेदारी पर नौकर थे। कुछ दिन पीछे घर का एक नौकर आया और कहा कि मियाँ साहब, आपकी जोरू राँड हो गई। मियाँ साहब ने सुनते ही सिर पीटा, रोए-गाए, बिछौने से अलग बैठे, सोग माना।

लोग भी मातम-पुरसी को आए। उनमें उनके चार-पाँच मित्रों ने पूछा कि मियाँ साहब आप बुद्धिमान होके ऐसी बात मुँह से निकालते हैं, भला आपके जीते आपकी जोरू कैसे राँड होगी?

मियाँ साहब ने उत्तर दिया- ‘भाई बात तो सच है, खुदा ने हमें भी अकिल दी है, मैं भी समझता हूँ कि मेरे जीते मेरी जोरू कैसे राँड होगी पर नौकर पुराना है, झूठ कभी न बोलेगा।’

जो हो बहरहाल हमें उर्दू का गम वाजिब है, तो हम भी यह स्यापे का प्रकरण यहाँ सुनाते हैं। हमारे पाठक लोगों को रुलाई न आवे तो हँसने की भी उन्हें सौगन्ध है, क्यौंकि हाँसा-तमासा नहीं बीबी उर्दू तीन दिन की पट्ठी अभी जवान कट्ठी मरी है।

है है उर्दू हाय हाय कहाँ सिधारी हाय हाय

मेरी प्यारी हाय हाय मुंशी मुल्ला हाय हाय

बल्ला बिल्ला हाय हाय रोये पीटें हाय हाय

टाँग घसीटैं हाय हाय सब छिन सोचैं हाय हाय

डाढ़ी नोचैं हाय हाय दुनिया उल्टी हाय हाय

रोजी बिल्टी हाय हाय सब मुखतारी हाय हाय

किसने मारी हाय हाय खबर नवीसी हाय हाय

दाँत पीसी हाय हाय एडिटर पोसी हाय हाय

बात फरोशी हाय हाय वह लस्सानी हाय हाय

चरब-जुबानी हाय हाय शोख बयानी हाय हाय

फिर नहीं आनी हाय हाय।।

भारतेंदु काल की हिन्दी

उपरोक्त रचना को पढ़ने से आभास हो जाता है कि निःसंदेह भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र के युग में हिन्दी भाषा का स्वरूप आज की हिन्दी से पर्याप्त अलग था। भारतेंदु बाबू ने इस काल में हिन्दी साहित्य को इतनी सशक्त रचनाएं दीं कि हिन्दी भाषा के इतिहास में यह काल ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है। भारतेंदु बाबू चाहते थे कि अपनी वास्तविक उन्नति के लिए भारतवासी अपनी भाषा हिन्दी को सीखें और पढ़ें न कि अंग्रेजी, अरबी, फारसी, उर्दू या कोई अन्य विदेशी भाषा।

भारतेंदु बाबू ने लिखा-

अंगरेजी पढ़िके जदपि सब गुन होत प्रवीन।

पै निज भाषा ज्ञान बिनु, रहत हीन के हीन।

भारतेंदु बाबू हिन्दुओं के लिए हिन्दी भाषा को ही समस्त उन्नतियों का मूल मानते थे-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

यद्यपि 6 जनवरी 1885 को केवल 34 वर्ष की आयु में भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र का निधन हो गया तथापि उन्होंने हिन्दी भाषा को आगे बढ़ाने के लिए जो वैचारिक आंदोलन खड़ा किया, उसके कारण ई.1885 के आते-आते सम्पूर्ण उत्तर भारत के हिन्दुओं में हिन्दी भाषा को अपनाने की भावनाएं जोर पकड़ गईं तथा अंग्रेजी और उर्दू भाषाओं के विरुद्ध प्रबल वातावरण बन गया। भारत के लेखकों एवं पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों ने हिन्दी भाषा को राजकीय कार्यालयों में प्रतिष्ठित करने के लिए आंदोलन चलाने आरम्भ कर दिए।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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