डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (9)
फारसी लिपि वाली उर्दू भाषा को मान्यता
राजा शिवप्रसाद सितारा ए हिन्द, भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र तथा अनेकानेक हिन्दू भाषी व्यक्तियों द्वारा बारबार गुहार लगाए जाने पर भी भारत की गोरी सरकार ने हिन्दी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई तथा जिस प्रकार ई.1837 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने फारसी लिपि में उर्दू भाषा को अपने सरकारी कार्यालयों एवं न्यायालों में प्रयोग के लिए मान्यता दी थी, उसी प्रकार ब्रिटिश क्राउन के अधीन कार्य कर रही भारत की गोरी सरकार ने ई.1881 में बिहार के क्षेत्रों में राजभाषा के रूप में देवनागरी लिपि में हिन्दी के स्थान पर फ़ारसी लिपि में उर्दू को मान्यता प्रदान की।
इससे हिन्दी समर्थकों में बड़ी उत्तेजना फैली और उन्होंने शिक्षा आयोग को भारत के विभिन्न नगरों से 67,000 लोगों के हस्ताक्षर वाले 118 स्मृतिपत्र (मैमोरेण्डम) जमा करवाये।
हिन्दी समर्थकों का तर्क था कि बिहार में बहुसंख्य लोग हिन्दी बोलते हैं, अतः सरकारी कार्यालयों एवं न्यायालयों में नागरी लिपि का प्रयोग बेहतर शिक्षा तथा सरकारी पदों पर नियुक्ति की सम्भावना को बढ़ायेगा। उनका यह भी तर्क था कि उर्दू लिपि दस्तावेजों को अस्पष्ट बनाएगी, जाल-साजी को प्रोत्साहन देगी तथा जटिल अरबी एवं फ़ारसी शब्दों के उपयोग को प्रोत्साहित करेगी।
मुसलमानों द्वारा हिन्दी का विरोध
मुसलमानों ने हिन्दुओं द्वारा हिन्दी के उन्नयन के लिए किए जा रहे प्रयासों का विरोध किया तथा उर्दू की वकालत करने के लिए ‘अंजुमन तरक्की-ए-उर्दू’ आदि कई संस्थाओं का गठन किया। मुलसमानों का तर्क था कि हिन्दी लिपि को तेजी से नहीं लिखा जा सकता और इसमें मानकीकरण एवं शब्दावली की कमी की भी समस्या है। उनका तर्क था कि उर्दू भाषा का उद्भव भारत में ही हुआ है जिसे अधिकतर लोग धाराप्रवाह रूप से बोल सकते हैं और यह तर्क भी रखा कि शिक्षा के क्षेत्र में त्वरित विस्तार के लिए उर्दू को राजभाषा का दर्जा देना आवश्यक है।
कुछ ही समय में हिन्दी-उर्दू का विवाद इतना अधिक बढ़ गया कि बिहार एवं उत्तर-पश्चिम प्रांत के कुछ जिलों में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क गयी। भाषायी विवाद से उपजे साम्प्रदायिक झगड़ों से नाराज वाराणसी के तत्कालीन गर्वनर मिस्टर शेक्सपीयर ने कहा- ‘मुझे अब विश्वास हो गया है कि हिन्दू और मुसलमान कभी भी एक राष्ट्र में नहीं रह सकते क्योंकि उनके पन्थ और जीवन जीने के तरीके एक दूसरे से पूर्णतः पृथक हैं।’
इस पर सर सैयद अहमद खाँ ने बड़ी चालाकी से प्रतिक्रिया देते हुए कहा- ‘मैं हिन्दुओं और मुसलमानों को एक ही आँख से देखता हूँ और उन्हें एक दुल्हन की दो आँखों की तरह देखता हूँ। राष्ट्र से मेरा अर्थ केवल हिन्दू और मुसलमान हैं तथा और कुछ भी नहीं। हम हिन्दू और मुसलमान एक साथ, एक ही सरकार के अधीन, एक समान मिट्टी पर रहते हैं। हमारी रुचियाँ और समस्याएँ भी समान हैं। अतः दोनों गुटों को मैं एक ही राष्ट्र के रूप में देखता हूँ।’
स्पष्ट है कि सर सैयद अहमद खाँ ने बड़ी चालाकी से अंग्रेजों के सामने झूठ परोसा कि हिन्दुओं और मुसलमानों की रुचियाँ और समस्याएँ एक समान हैं। वास्तविकता यह थी कि हिन्दुओं और मुसलमानों की न केवल रुचियाँ और समस्याएँ भिन्न थीं, अपितु वे स्वयं एक-दूसरे के लिए समस्या बने हुए थे।
उन्नीसवीं सदी के अन्तिम तीन दशकों में उत्तर-पश्चिमी प्रान्त तथा अवध में कई बार हिंसा भड़की। इसलिए भारत सरकार ने बड़ी ही चालाकी से हिन्दी और उर्दू के झगड़े का समाधान ढूंढने के लिए शिक्षा की प्रगति की समीक्षा के नाम पर ‘हण्टर आयोग’ की स्थापना की। इस आयोग का वास्तविक काम भारत की अंग्रेज सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों में हिन्दी और उर्दू के स्थान पर अंग्रेजी पढ़ाए जाने की अनुशंसा करना था।
हिन्दी-उर्दू विवाद पर मुस्लिम अलगाववाद का आरोप
बहुत से साम्यवादी लेखकों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि हिन्दी-उर्दू विवाद ने दक्षिण एशिया में मुस्लिम पृथक्करण के बीज बोये। साम्यवादी लेखकों का यह आरोप सत्य नहीं है क्योंकि वास्तविकता यह है कि सर सैयद अहमद खाँ तथा अन्य मुस्लिम चिंतकों ने इस विवाद से काफी पहले ही मुस्लिम पृथक्करण एवं अलगाववाद के सम्बंध में विचार व्यक्त किये थे।
हिन्दी नवजागरण आंदोलन
वर्तमान उत्तर प्रदेश का बड़ा भाग ई.1877 तक ब्रिटिश भारत के अंतर्गत पश्चिमोत्तर प्रान्त (नॉर्थवेस्ट प्रोविंस) कहलाता था। इस प्रांत के आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस और गोरखपुर डिवीजनों में अदालतों से उर्दू लिपि हटाकर नागरी लिपि लागू करवाने के लिए हिन्दुओं ने एक लम्बा अभियान चलाया। इसका कारण यह था कि इन डिवीजनों में हिन्दी बोलने वालों की संख्या अधिक थी।
ई.1877 में अंग्रेजों ने अवध सूबे को भी पश्चिमोत्तर प्रान्त के साथ जोड़ दिया। अवध सूबे में उर्दू बोलने वालों की संख्या अधिक थी। इस प्रकार अंग्रेज सरकार ने इन दोनों क्षेत्रों को एक-दूसरे के साथ जोड़कर हिन्दी-आंदोलन को दबाने का असफल प्रयास किया।
हिन्दी-उर्दू विवाद से हिन्दी के पक्ष में शनैःशनैः जो आंदोलन खड़ा हुआ, उसे हिन्दी भाषा के इतिहास में ‘हिन्दी नवजागरण आंदोलन’ कहते हैं। संक्षेप में इसे ‘हिन्दी आंदोलन’ भी कहा जाता है। हिन्दी नवजागरण आंदोलन की तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ थीं-
1. अरबी, फारसी एवं उर्दू का विरोध
2. अंग्रेजी भाषा का विरोध
3. हिन्दी में विपुल एवं श्रेष्ठ साहित्य की रचना।
हिन्दी की प्रतिष्ठा हेतु संस्थाओं का गठन
ई.1897 में पण्डित मदनमोहन मालवीय ने ‘कोर्ट करैक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस एण्ड अवध’ (उत्तर पश्चिमी प्रान्तों और अवध में न्यायालय अक्षर और प्राथमिक शिक्षा) नाम से कथन और दस्तावेजों का एक संग्रह प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने हिन्दी के लिए मजबूज प्रकरण बना दिया।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में विभिन्न हिन्दी आंदोलन हुए जिनमें ई.1890 में इलाहाबाद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा ई.1893 में बनारस में नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना भी सम्मिलित हैं। इन संस्थाओं ने हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के लिए हिन्दी साहित्य की सशक्त रचनाओं का विपुल प्रकाशन किया तथा उन्हें अत्यंत कम मूल्य पर हिन्दुओं तक पहुंचाया।
हिन्दी के विरुद्ध अंग्रेज अधिकारियों के षडयंत्र
इस समय तक अंग्रेजों के मन से हिन्दुओं के प्रति खटास पूरी तरह गई नहीं थी, इसलिए अंग्रेजों ने सरकारी कार्यालयों में अरबी, फारसी अथवा उर्दू को हटाने अथवा हिन्दी को वैकल्पिक भाषा बनान के सम्बन्ध में कोई रुचि नहीं दिखाई।
अंग्रेज अधिकारी एक तरफ तो भारत में अंग्रेजी शिक्षा लागू कर रहे थे तो दूसरी ओर वे हिन्दू एवं मुसलमानों के बीच बढ़ती जा रही खाई को और अधिक चौड़ी होते हुए देखकर प्रसन्न थे। इतना ही नहीं, अनेक अवसरों पर अंग्रेज अधिकारियों ने स्वयं भी हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच की खाई को चौड़ी करने के लिए षड़यंत्र रचे ताकि हिन्दू एवं मुसलमान कभी भी एकजुट न हों तथा अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह न कर सकें।
हिन्दी नवजागरण काल की पृष्ठभूमि में सोहन प्रसाद मुदर्रिस नामक एक शिक्षक ने एक पद्यनाटक लिखा जिसके कारण उत्तर भारत के समाचार पत्रों में अच्छा-खासा आंदोलन खड़ा हो गया।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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