अलवर महाराजा जयसिंह की गिनती भारत के इतिहास में बीसवीं सदी के महान व्यक्तियों में होती है। महाराजा स्वतंत्र विचारों के धनी और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उनकी राष्ट्रभक्ति असंदिग्ध थी। इस कारण अंग्रेज उनकी तरफ से सदैव ही आशंकित रहते थे।
अलवर महाराजा जयसिंह केवल 10 वर्ष की आयु में राजा बने थे। वे स्वयं को भगवान श्रीराम का अवतार समझते थे तथा अपने हाथ की दिव्य अंगुलियों को ढंकने के लिये सिल्क के काले रंग के दस्ताने पहनते थे। यहाँ तक कि एक बार उन्होंने ब्रिटिश सम्राट से हाथ मिलाते समय भी अपने दस्ताने उतारने से मना कर दिया था।
भारत में ऐसा करने की हिम्मत केवल दो राजाओं में थी, एक थे उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह तथा दूसरे थे अलवर के महाराजा जयसिंह। इन दोनों को ही अंग्रेजों ने राजगद्दी से हटाया।
उदयपुर का राज्य तो उनके पुत्र भूपालसिंह को दे दिया गया तथा महाराणा अपने राज्य में बने रहे किंतु अलवर का राज्य छीनकर महाराजा जयसिंह को अलवर राज्य से निकाल दिया गया।
अलवर के इस महान राजा के बारे में आज लोग भूल गए हैं किंतु उनका इतिहास भारत के प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रेरणादायी है। युवाओं को उनका जीवन चरित्र अवश्य पढ़ना चाहिए।
वे खेलों के मैदान में भवागन नटवर नागर कृष्ण की सी कलाबाजियां दिखाने में कुशल थे। चाहे पोलो हो या क्रिकेट, घुड़सवारी हो या शिकार, इन सब में वे असाधारण थे। ऐसे व्यक्ति के प्रति वीर पूजा के भाव स्वतः ही जागते हैं। अतः जनता उनकी प्रशंसक थी।
अंग्रेज उनसे इस कारण दुखी रहते थे कि वह अंग्रेजों को अपने से बड़ा नहीं मानते थे। एक बार महाराजा ग्रीष्म प्रवास पर शिमला गए। वहां उन्हें ज्ञात हुआ कि भारत के वायसराय का परिवार भी शिमला आया हुआ है। महाराजा ने सदाशयता के नाते लेडी वायसराय को सायंकालीन भोजन के लिए अपने डेरे पर आमंत्रित किया। लेडी वायसराय संध्या काल में अपने पालतू कुत्ते के साथ महाराजा के डेरे पर पहुंची।
अलवर महाराजा जयसिंह ने नियम बना रखा था कि उनके डेरे में कोई कुत्ता प्रवेश नहीं कर सकता था। लेडी वायसराय को महाराजा के नियम से अवगत करवाया गया तथा अनुरोध किया कि वह कुत्ता, अपने सेवकों के साथ डेरे के बाहर छोड़ दे किंतु लेडी वायसराय ने जवाब दिया कि वह हिन्दुस्तान के स्वामी की पत्नी है और अपने कुत्ते को जहां चाहे लेजा सकती है।
महाराजा के अधिकारियों ने महाराजा को लेडी वायसराय के कुत्ते सहित आगमन की सूचना दी। महाराजा ने उन्हें कहा कि लेडी को आदर पूर्वक डेरे में लाया जाए किंतु उनके कुत्ते को डेरे से बाहर रोक लिया जाए।
सेवकों ने महाराजा को बताया कि लेडी अपने कुत्ते के साथ ही डेरे के भीतर आने की जिद्द कर रही है। इस पर महाराजा ने अपने अधिकारियों से कहा कि वे लेडी वायसराय से आग्रह करें कि वे अपनी जिद्द छोड़ दें।
महाराजा के इस जवाब से लेडी वायसराय नाराज हो गई और डेरे के बाहर से ही बिना भोजन किए लौट गई।
जब इस घटना की जानकारी देश भर के अंग्रेज अधिकारियों को हुई वे सन्न रह गए किंतु देशवासियों का सीना महाराजा के इस स्वाभिमान पूर्वक आचरण की सूचना पाकर गर्व से फूल गया।
महाराजा को बाद में इसकी कीमत अपना राज्य तथा अपने प्राण गंवाकर चुकानी पड़ी। महाराजा को उनके राज्य से निष्कासित करने के लिए अंग्रेजों ने कई चालें चलीं। उनके बारे में प्रचारित किया गया कि अलवर नरेश जयसिंह ने एक बार अपने घोड़े को इसलिए पैट्रोल छिड़कर जिंदा जला दिया क्योंकि वह रेस नहीं जीत सका था।
कोरफील्ड ने लिखा है कि महाराजा अपनी प्रजा की अपेक्षा अपने कुत्तों का अधिक ध्यान रखते थे। उनके बारे में दुष्प्रचार किया गया कि महाराजा के खर्चे बहुत बढ़े हुए थे जिसके कारण वे ऋण के बोझ से दबे हुए थे।
एक तत्कालीन इतिहासकार ने महाराजा के व्यक्तित्व की चर्चा करते हुए लिखा है-‘महाराजा जयसिंह अपने समय का बहुत विद्वान और दार्शनिक नरेश था। महाराजा जितनी कुशाग्र बुद्धि रखता था उतना ही निरंकुश था। वह हिन्दी भाषा का प्रेमी था, यों अंग्रेजी और फारसी का भी अच्छा ज्ञान रखता था।’
महाराजा को अंग्रेजी और हिन्दी पर समान अधिकार था और उन्हें संस्कृत का भी ज्ञान था।
महाराजा जायसिंह एक योग्य प्रशासक थे जिन्होंने अलवर राज्य का शासन प्रबंध आधुनिक रीति के अनुसार किया। वे पोलो तथा रैकेट के अच्छे खिलाड़ी थे। वे हिन्दू दर्शन के प्रकाण्ड ज्ञाता और उच्च कोटि के वक्ता थे। वे कई मायनों में अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे उन्होंने कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में भाग लिया। ़ ़ ़़ महाराजा जयसिंह महान क्षमताओं से युक्त थे’।
बीसवीं सदी के परतंत्र भारत में बीकानेर नरेश गंगासिंह के साथ अलवर नरेश जयसिंह भी नरेन्द्र मण्डल की राजनीति में अग्रणी रहे थे। जयसिंह ने लंदन में ई.1931 में आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भी भाग लिया था।
महाराजा की क्षमाशीलता की अनेक कहानियां प्रचलित थीं। राज्य का एक पदाधिकारी को नौकरी से निकाल दिया गया। वह कई दिनों तक हताश होकर इधर-उधर फिरता रहा। एक दिन उसने नीचे लिखा हुआ उर्दू पद्य महाराज की सेवा में डाक से भेजा-
मेरे गुनाह ज़ियादा हैं, या तेरी रहमत।
हिसाब करके बतादे, मेरे रहीम मुझे।।
महाराजा ने उस कर्मचारी को बहाल कर दिया।
एक बार एक गरीब बुढ़िया जयसमन्द बान्ध में डूबने लगी। महाराज भी अपने अंगरक्षकों सहित वहीं थे। गहरे पानी में डूबती बुढ़िया की दयनीय दशा देखकर भी किसी का कर्मचारी का साहस उसे बचाने का न हुआ। महाराजा ने स्वयं जल में कूदकर बुढ़िया के प्राणों की प्राण रक्षा की।
पण्डित मोतीलाल नेहरू ने एक बार शिमला में महाराजा के बारे में कहा था कि यह देश के लिये दुर्भाग्य की बात है कि उनका जनम राजकुमार के रूप में हुआ अन्यथा देश को एक बहुत योग्य और बड़ा नेता मिला होता।
एडविन मांटेग्यू ने महाराजा जयसिंह के व्यक्तित्व की चर्चा करते हुए अपनी डायरी में लिखा है- ‘महाराजा जयसिंह के समान कोई अन्य भारतीय इतना बुद्धिमान नहीं है।’
28 फरवरी 1920 के अपने भाषण में मांटेग्यू चैम्सफोर्ड ने कहा था- ‘अलवर का शासन प्रबंध तो उत्तम है, प्रजा की प्रसन्नता तथा सांत्वना और भी बड़ी बात हैं जिन पर अलवर नरेश का पूरा ध्यान है। महाराजा ने बन्धों के निर्माण कार्य द्वारा भूमि को सजला और शस्य श्यामला बनाने का जो प्रयत्न किया है, उनसे अकाल का भय न रहेगा और कृषक प्रजा सुखी रहेगी।’
इसके बावजूद कुछ अंग्रेज अधिकारी महाराजा जयसिंह से शत्रुता रखते थे और उन्हें पदच्युत करना चाहते थे। मेवों द्वारा राज्य में भयानक विद्रोह करने तथा राज्य के एक मुस्लिम पुलिस अधिकारी द्वारा किसानों पर अत्याचार किए जाने से मची साम्प्रदायिक मार-काट के बाद अंग्रेजों ने बड़े ही मनमाना ढंग से 16 जून 1934 को महाराजा जयसिंह को उनके राज्य से बाहर निकाल दिया। महाराजा को राज्य छोड़कर विलायत जाना पड़ा।
19 मई 1937 को पेरिस में टेनिस खेलते हुए रीढ़ की हड्डी टूट जाने पर रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। कुछ भारतीय इतिहासकारों को महाराजा की मृत्यु के पीछे अंग्रेजों का षड़यंत्र लगता है।
शरीर त्याग से 4 घण्टे पूर्व तक महाराजा रघुनाथजी के ध्यान में मग्न रहे। अलवर महाराजा जयसिंह की मृत्यु पर झालावाड़ नरेश महाराजराणा राजेन्द्रसिंह ने लिखा था-
कैसो रंग मांहि भंग कियो है कराल काल,
सूखी फुलवारी आज रम्य काम काज की।
मिट गयो वीरता के भाल को तिलक लाल,
टूट गई आज ढाल क्षत्रिय समाज की।
सूख गयो हाय! आज प्रेम को अगाध सिन्धु,
कविता मिलेगी कहां रस सिर ताज की।
उर पर आरी चली काल की कटारी चली,
स्वर्ग को सवारी चली प्यारे जयराज की।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता