Sunday, December 8, 2024
spot_img

डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास

डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (10)

हिन्दी आन्दोलन के दौरान हिन्दी-उर्दू विवाद की कटुता अपने चरम पर पहुंच गई। उन दिनों सोहन प्रसाद नामक एक शिक्षक ने ‘हिन्दी उर्दू की लड़ाई’ शीर्षक से एक ‘पद्य नाटक’ लिखा जिसमें हिन्दी-उर्दू विवाद को उसकी सम्पूर्ण कटुता के साथ प्रदर्शित किया गया। इस नाटक की भाषा अवधी एवं भोजपुरी प्रभाव-युक्त हिन्दी है। यह नाटक ‘भारत जीवन प्रेस’ से फरवरी 1884 में छपा था।

सोहन प्रसाद ब्रिटिश भारत के अंतर्गत गोरखपुर डिवीजन के हाटा नामक कस्बे के स्कूल पड़री में मुदर्रिस (शिक्षक) के पद पर नियुक्त थे। हिन्दी आन्दोलन के दौरान वे सोहन प्रसाद मुदर्रिस के नाम से प्रसिद्ध हुए। उस काल को हिन्दी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु युग के नाम से जाना गया है। यह वह काल था जब खड़ी बोली हिन्दी राजकीय कार्यालयों में प्रतिष्ठा पाने के लिए जी-जान से संघर्ष कर रही थी तथा उसका मानक स्वरूप तैयार करने के लिए प्रयास चल रहे थे।

सोहन प्रसाद मुदर्रिस हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलवाने के लिए उत्तेजक कविताएं लिखा करते थे। उनके द्वारा लिखे गए इस पद्यनाटक के मुखपृष्ठ पर सोहन प्रसाद ने लिखा- ‘हिन्दी के अतिरिक्त संसार में गुणखानि दूसरी विद्या दृष्टि में नहीं आती, तिस्में उर्दू तो औगुण की खान ही जान पड़ती है।’

नाटककार द्वारा हिन्दी भाषा के गुणों और उर्दू भाषा के औगुणों (अवगुणों) को प्रकट करने के लिए एक उत्तेजक रूपक खड़ा किया गया जिसमें हिन्दी देवी और उर्दू वेश्या के परस्पर संवादों की रचना की गई। यह नाटक सामान्य वार्तालाप से आरम्भ होकर गाली-गलौज और मारपीट से होते हुए न्यायालय तक पहुँचता है।

नाटक के आरम्भ में उर्दू वेश्या हिन्दी देवी से पूछती है- ‘आजकल हिन्दू लोग मुझसे नाराज क्यों हो रहे हैं?’

इस पर हिन्दी देवी कहती है- ‘तुम्हारे रोम-रोम में अवगुण भरे हुए हैं, इसीलिए आर्यजन तुमसे रुष्ट हैं। उन्हें तुमसे बहुत हानि हुई है।’

इस पर उर्दू वेश्या पलटकर कहती है- ‘ऊँची नौकरियाँ पाने के लिए हिन्दू और मुसलमान, दोनों बड़े प्रेम से मुझको पढ़ते हैं-

पढ़ब जो उर्दू प्रेम से होइब तहसिलदार

ऐसे हिन्दू लोग कहि आवहिं हमरे द्वार।

….खूब कमाई करत हैं, उर्दू पढ़ि-पढ़ि लोग।

हिन्दी देवी तथा उर्दू वेश्या की यह बहस शीघ्र ही गाली-गलौज में बदल जाती है और विवाद भाषा के बजाय हिन्दू-मुसलमान का हो जाता है। हिन्दी देवी कहती है-

रे उर्दू हत्यारिनी नीची जाति कुजाति

क्या बकबक करति है माँ से तैं दिन राति। (83)

दफ्तर तोरे हाथ में ताते भयउ उदंड

नीच जाति जब बढ़त है उनको होत घमंड। (84)

हिन्दू रोजी कारने तोहि पढ़ें तजि मोहि

नाहिं तो पूछे आर्य कब आछत हमारे तोहि। (85)

फिरि मत ऐसे बोलिहों नहिं करिहों दुई टूक

आर्य राज है आज नहिं देतीं मुँह पर थूक। (86)

इस वाद-विवाद की एक विशेषता यह है कि उर्दू लिपि के दोषों को स्वयं उर्दू के मुँह से ऐसे कहलवाया गया है मानो उर्दू अपनी प्रशंसा कर रही हो। अरबी लिपि में लिखा कुछ, पढ़ा कुछ जाता है और एक ही शब्द कुछ हेर-फेर के साथ विभिन्न अर्थ देता है, इसे उर्दू अपनी प्रशंसा के रूप में प्रस्तुत करती है।

इसके उत्तर में हिन्दी कहती है-

एक छाड़ि दूसर करै सो वेश्या कर काम।

पतिव्रता गुन यह नहीं सुन तू वेश्या वाम (20)

हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर लोगों का मानना है कि इस नाटक का प्रमुख उद्देश्य हिन्दी-उर्दू विवाद को दर्शाना नहीं है अपितु हिन्दू-मुस्लिम मेलजोल की निन्दा करना है। उनका आरोप है कि 19वीं सदी के भारतीय नवजागरण की शुद्धतावादी फंडामेंटलिस्ट प्रवृत्तियों ने हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच अलगाव को बढ़ाने का काम किया।

हिन्दी नवजागरण के लेखकों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के तत्वों पर न सिर्फ सबसे कम बल दिया, अपितु जब भी अवसर मिला, इस एकता और समानता के तत्वों की निन्दा ही की। सोहन प्रसाद मुदर्रिस ने भी हिन्दू-मुस्लिम अलगाव को आदर्श मानते हुए तथा हिन्दू-मुसलमानों के बीच मेलजोल को भटकाव बताते हुए, एक-दूसरे से अलग-थलग रहने-चलने का आदर्श प्रस्तुत किया।

हिन्दी देवी को नीचा दिखाने के लिए उर्दू कहती है कि तुम्हारे हिन्दू लोग न सिर्फ अपनी भाषा को छोड़कर उर्दू पढ़ते हैं, अपितु अपने धर्म की बातों को भी छोड़कर मुसलमानों के संस्कार अपनाते हैं-

बिसमिल्ला अल्ला पढ़ैं कर्म धर्म सब त्यागि

मोरे मत में होइ रहे आपन मत परित्यागि। (159)

जितने हिन्दू हिन्द में सब कोउ सीखे सलाम

तोर रीति से प्रीति नहिं छोड़े दण्ड प्रणाम। (152 )

पैगम्बर अरू पीर को सुमिरैं ध्यान लगाय

सदा ताजिया धरत हैं हारेचाक बनाय। (160)

हिन्दू रोजा रहत हैं दिन भर करहिं उपास

अल्ला पीर मनावहीं मोहि तुम्हारी आस। (170)

देखत हैं जब नैन सो कहीं कब्र तुरकान

तुरन्त दंडवत करत है मोर करो कल्यान। (171)

घर-घर से सब जात है बहराइच   स्थान

काशी मथुरा अवधपुर कौन जात तुर्कान। (172)

उर्दू द्वारा कही गई इस बात को अपने लिए लज्जा और हीनता की बात मानते हुए हिन्दी पलट कर कहती है-

मूरख हिन्दू पूजहिं पीर ताजिया कब्र

जो निज मजहब जानिहीं तिन्हें लगत बड़ जब्र। (153)

अपने मत जो जानहिं कहें बहुत पछताय

झंडा गाजी ताजिया फाड़िके देहूं जलाय। (154)

सज्जन जन नहिं भूलिकै करैं तुर्क को साथ

घृणा बिलोकत करत है दूर रहे सौ हाथ। (155)

आर्ज मता में है लिखा तुर्क संग बड़ पाप

परछाहीं मत कांड़हूँ पीछे दस पग नाप। (156)

इसके बाद हिन्दी भी उर्दू को लज्जित करने के लिए उन बातों का वर्णन करती है जिन्हें मुसलमानों ने हिन्दुओं के प्रभाव से अंगीकार कर लिया था। मुसलमानों को अपना मत छोड़ देने के लिए धिक्कारते हुए हिन्दी कहती है-

तुरुक नारि सिर सिन्दूर देहिं संवारि संवारि

कह हदीस में है लिखा उत्तर देह बिचारि। (161)

रचै ताजिया तुर्क सब रंग बिरंग बनाय

कह हदीस में है लिखा हमसे देह बताय। (163)

बाजा ब्याह में बजत है गावहिं तिरिया गीत

करैं तुर्क यह रस्म क्यों अपने मत विपरीत। (165)

जब हिन्दी देवी और उर्दू वेश्या एक दूसरे की आलोचना करती हैं तो हिन्दी देवी इस्लाम के मजहबी नेताओं की भी निन्दा करने लग जाती है-

उमर खलीफा अस पुरुष तुरुकन के सिरताज

चौदह भुअन में खोज अस मिलइ न कोउ बेलाज। (158)

परतिय गामी अधम जद तनिक न करहिं विचार

हिन्दू भूप न सपन में परतिय रूप निहार। (159)

परतिय महल में छीनि के डारि लेहिं बदमास

कहँ हदीस में है लिखा हमसे करो प्रकाश। (160)

इस प्रकार इस नाटक में हजरत उमर खलीफा को हदीस के खिलाफ चलने वाला, परस्त्रीगामी, दुनिया का सबसे बेशर्म, अधम और बदमाश कहा गया तथा हिन्दू राजाओं को जीवन में तो दूर, स्वप्न में भी परस्त्री का विचार नहीं लाने वाला बताया गया।

इस नाटक की रोचकता तब बहुत बढ़ जाती है जब सोहन प्रसाद मुदर्रिस ने न सिर्फ हिन्दी के मुँह से उमर के विरुद्ध यह टिप्पणी करवायी अपितु उर्दू से इसकी स्वीकरोक्ति भी करवाई कि जो तुर्क परस्त्री गमन करते हैं, वे महाअधम हैं-

परतिय गामी तुर्क जो तिन्हें मूर्ख तुम जान

उमर आदि सब तुर्क को महाअधम करि मान। (167)

अंत में दोनों एक-दूसरे से हाथापाई करते हुए, एक-दूसरे का झोंटा नौंचने की धमकी देते हुए अपने झगड़े का निर्णय कराने के लिए अंग्रेज जज के समक्ष पहुंचती हैं। दोनों भाषाएं जज के समक्ष अपने-अपने गुण एवं अपनी प्रतिद्वंद्वी भाषा के अवगुणों का वर्णन करते हुए एक-दूसरे पर आरोप लगाती हैं। इस बार फिर से उर्दू अपने दोषों को अपने गुण बताती है तथा हिन्दी पर आरोप लगाती है कि हिन्दी में ऐसे गुण नहीं हैं। नाटक के अंतिम भाग में अंग्रेज न्यायाधीश अपना निर्णय हिन्दी देवी के पक्ष में सुनाता है-

डिगरी हिन्दी की करों मैं अपने इजलास

डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास। (831)

तुम हिन्दी गुन आगरी काम तुम्हारे स्वच्छ

तेरो गुन क्या जानहिं उर्दू और मलेच्छ। (334)

अंग्रेज जज का यह निर्णय सुनकर हिन्दू प्रसन्न होते हैं तथा तुर्क रोने लगते हैं। हिन्दी अंग्रेज न्यायाधीश को प्रणाम करती है तथा आर्यजनों को अपने साथ लेकर बड़े गर्व के साथ घर लौटती है।

अंत में नाटककर्त्ता हिन्दुओं से एकजुट और एकमत रहने का आह्वान करता है और कहता है कि इस ग्रन्थ को पढ़कर दुष्ट लोग मुझे गालियाँ देंगे, किंतु जो समझदार हिन्दू और समझदार मुसलमान हैं, वे मन लगाकर इसे पढ़ेंगे। अर्थात् सोहन प्रसाद मुदर्रिस यह दावा करते हैं कि इस नाटक से न केवल हिन्दुओं को अपितु मुसलमानों को भी तसल्ली मिलेगी।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source