(कुतुबुद्दीन ऐबक तथा आरामशाह)
गुलाम वंश की स्थापना
गजनी के सुल्तान मुहम्मद गौरी ने 1175 ई. से 1194 ई. तक भारत पर कई आक्रमण किये तथा पंजाब से लेकर दिल्ली, अजमेर तथा कन्नौज तक विस्तृत अनेक राज्यों को जीतकर विशाल भूभाग को अपने अधीन किया। मुहम्मद गौरी के कोई पुत्र नहीं था। इसलिये उसने अपने सर्वाधिक योग्य गुलाम तथा सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को 1194 ई. में भारतीय क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त किया। कुतुबुद्दीन ऐबक 12 साल तक दिल्ली पर गजनी के गवर्नर के रूप में शासन करता रहा। 1206 ई. में जब मुहम्मद गौरी की मृत्यु हो गई तो अलाउद्दीन उसका उत्तराधिकारी हुआ किंतु उसे शीघ्र ही महमूद बिन गियासुद्दीन ने अपदस्थ करके गजनी पर अधिकार कर लिया। गियासुद्दीन ने कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का सुल्तान बना दिया। इस प्रकार 1206 ई. से लेकर 1210 ई. में अपनी मृत्यु होने तक कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली पर स्वतंत्र शासक के रूप में शासन करता रहा। ऐबक ने भारत में मुस्लिम राजवंश की स्थापना की जिसे गुलाम-वंश अथवा दास-वंश कहते है। इसे गुलाम-वंश कहे जाने का कारण यह है कि इस वंश के समस्त शासक अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में गुलाम रह चुके थे। इस वंश का पहला शासक कुतुबुद्दीन ऐबक, मुहम्मद गौरी का गुलाम था। इस वंश का दूसरा शासक इल्तुतमिश, कुतुबुद्दीन ऐबक का गुलाम था। इस वंश का तीसरा शासक बलबन, इल्तुतमिश का गुलाम था। अतः यह वंश, गुलाम वंश कहलाता है। गुलाम वंश के समस्त शासक तुर्क थे। कुछ इतिहासकार गुलाम वंश नामकरण उचित नहीं मानते। उनके अनुसार कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली में ‘कुतुबी’, इल्तुतमिश ने ‘शम्मी’ तथा बलबन ने ‘बलबनी’ राजवंश की स्थापना की। इस प्रकार इस समय में दिल्ली में एक वंश ने नहीं, अपितु तीन राजवंशों ने शासन किया। इन इतिहासकारों के अनुसार इस काल को दिल्ली सल्तनत का काल कहना चाहिये।
कुतुबुद्दीन ऐबक
प्रारम्भिक जीवन
कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में दिल्ली सल्तनत का संस्थापक, गुलाम वंश का संस्थापक तथा कुतुबी वंश का संस्थापक था। वह दिल्ली का पहला मुसलमान सुल्तान था। उसका जन्म तुर्किस्तान के कुलीन तुर्क परिवार में हुआ था किंतु वह बचपन में अपने परिवार से बिछुड़ गया तथा गुलाम के रूप में बाजार में बेच दिया गया। वह कुरूप किंतु प्रतिभावान बालक था। एक व्यापारी उसे दास के रूप में बेचने के लिए गजनी ले गया। सबसे पहले अब्दुल अजीज कूकी नामक काजी ने कुतुबुद्दीन को खरीदा। यहाँ पर उसने काजी के बच्चों के साथ घुड़सवारी तथा थोड़ी-बहुत शिक्षा का ज्ञान प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात् मुहम्मद गौरी ने उसकी कुरूपता पर विचार न करके उसे मोल ले लिया। कुतुबुद्दीन ने अपने गुणों से मुहम्मद गौरी को मुग्ध कर लिया और उसका अत्यन्त प्रिय तथा विश्वासपात्र दास बन गया। वह अपनी योग्यता के बल पर धीरे-धीरे एक पद से दूसरे पद पर पहुँचता गया और ‘अमीर आखूर’ (घुड़साल रक्षक) के पद पर पहुँच गया। वह मुहम्मद गौरी का इतना प्रिय बन गया कि गौरी ने उसे ऐबक अर्थात् चन्द्रमुखी के नाम से पुकारना आरम्भ किया। जब मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण करना आरम्भ किया तब ऐबक भी भारत आया और अपने सैनिक-गुणों का परिचय दिया। मुहम्मद गौरी को अपनी भारतीय विजय में ऐबक से बड़ा सहयोग मिला।
वाइसराय के रूप में ऐबक की सफलताएँ
1194 ई. में मुहम्मद गौरी कन्नौज विजय के उपरान्त गजनी लौटा, तब उसने भारत के विजित भागों का प्रबन्ध ऐबक के हाथों में दे दिया। इस प्रकार ऐबक मुहम्मद गौरी के भारतीय राज्य का वाइसराय बन गया। वाइसराय के रूप में उसकी सफलताएँ इस प्रकार से हैं-
सामरिक उपलब्धियाँ: कुतुबुद्दीन ऐबक ने मुहम्मद गौरी के विजय अभियान को जारी रखा। 1195 ई. में उसने कोयल (अलीगढ़) जीता। इसके बाद उसने अन्हिलवाड़ा को नष्ट किया। 1196 ई. में उसने मेड़ों को परास्त किया जो चौहानों की सहायता कर रहे थे। 1197-98 ई. में उसने बदायूँ, चन्दावर और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। 1202-03 ई. में उसने चंदेलों को परास्त कर बुंदेलखण्ड तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। गौरी की मृत्यु से पूर्व ऐबक ने लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार कर लिया। इस विशाल मुस्लिम साम्राज्य को परास्त करके पुनः दिल्ली तथा उत्तर भारत के राज्यों पर अधिकार करना हिन्दू राजकुलों के वश की बात नहीं रही।
कूटनीतिक उपलब्धियाँ: ऐबक बचपन में ही गुलाम के रूप में बेच दिया गया था। इसलिये उसकी सामाजिक हैसियत अच्छी नहीं थी किंतु मुहम्मद गौरी को प्रसन्न करके उसने अमीर का पद प्राप्त कर लिया। अपनी हैसियत बढ़ाने के लिये उसने सदैव मुहम्मद गौरी के प्रति स्वामिभक्ति का प्रदर्शन किया। अमीरों के बीच अपनी निजी हैसियत बढ़ाने के लिये भी उसने कूटनीति का सहारा लिया तथा अपने आप को एवं अपने परिवार को वैवाहिक सम्बन्धों से मजबूत बनाया। सुल्तान बनने से पूर्व ही उसने वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया। ऐबक ने गजनी के शासक यल्दूज की पुत्री के साथ विवाह किया। ऐबक ने अपनी एक पुत्री का विवाह सिन्ध तथा मुल्तान के शासक कुबाचा के साथ किया तथा दूसरी पुत्री का विवाह प्रतिभाशाली तथा होनहार गुलाम इल्तुतमिश के साथ किया। ऐबक 12 वर्ष तक दिल्ली में वाइसराय की हैसियत से शासन करता रहा तथा धीरे-धीरे सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार जमा लिया। उसने कभी भी मुहम्मद गौरी से विद्रोह करके स्वतंत्र शासक बनने की चेष्टा नहीं की। मुहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद भी उसने तब तक सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की जब तक कि गजनी के शासक महमूद बिन गियासुद्दीन ने उसे सुल्तान स्वीकार नहीं कर लिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक का राज्यारोहण
मुहम्मद गौरी की मृत्यु के समय कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली में था। जब मुहम्मद गौरी की मृत्यु का समाचार गजनी से लाहौर पहुँचा तो लाहौर के नागरिकों ने कुतुबुद्दीन को लाहौर का शासन अपने हाथों में लेने का निमंत्रण भिजवाया। यह निमंत्रण पाकर कुतुबुद्दीन तुरन्त दिल्ली से लाहौर के लिए चल पड़ा और वहाँ पहुँच कर लाहौर का शासन अपने हाथ में ले लिया। मुहम्मद गौरी की मृत्यु के तीन मास उपरान्त 24 जून 1206 ई. को कुतुबुद्दीन का राज्यारोहण हुआ। तख्त पर बैठने के बाद भी ऐबक ने सुल्तान की उपाधि का प्रयोग नहीं करके मालिक तथा सिपहसालार की उपाधियों का ही प्रयोग किया। उसने अपने नाम की मुद्रायें भी नही चलवाईं और न अपने नाम से खुतबा ही पढ़वाया। संभवतः वह मुहम्मद गौरी के उत्तराधिकारी से वैमनस्य उत्पन्न किये बिना, भारत में एक स्वतन्त्र तुर्की शासन की स्थापना करना चाहता था। उसने अपने एक दूत के माध्यम से एक प्रस्ताव गजनी के सुल्तान महमूद बिन गियासुद्दीन के पास भेजा कि गियासुद्दीन, कुतुबुद्दीन को भारत का स्वतन्त्र सुल्तान बना दे तो वह ख्वारिज्म के शाह के विरुद्ध उसकी सहायता करेगा। उसका यह प्रस्ताव स्वीकृत हो गया। 1208 ई. में गियासुद्दीन ने ऐबक को राजछत्र, ध्वजा, सिंहासन, दुंदुभि आदि राज्यसूचक वस्तुएँ भेजीं तथा उसे सुल्तान की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली का स्वतन्त्र शासक बन गया।
कुतुबुद्दीन ऐबक की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ
दिल्ली का स्वतन्त्र सुल्तान बनने के उपरान्त ऐबक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसकी प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित थीं-
(1) प्रतिद्वन्द्वियों की समस्या: सर्वप्रथम ऐबक को अपने प्रतिद्वन्द्वियों का सामना करना था जिनमें इख्तियारूद्दीन, यल्दूज तथा कुबाचा प्रमुख थे। इनके अधिकार में बहुत बड़े राज्य थे और वे अपने को ऐबक का समकक्षी समझते थे। यल्दूज गजनी में और कुबाचा मुल्तान में शासन करता था।
(2) हिन्दू सरदारों की समस्या: ऐबक की दूसरी कठिनाई यह थी कि प्रमुख हिन्दू सरदार, खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहे थे। 1026 ई. में चंदेल राजपूतों ने अपनी राजधानी कालिंजर पर फिर से अधिकार स्थापित कर लिया। गहड़वाल राजपूतों ने हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में फर्रूखाबाद तथा बदायूँ में धाक जमा ली। गवालियर फिर से प्रतिहार राजपूतों के हाथों में चला गया। अन्तर्वेद में भी कई छोटे-छोटे राज्यों ने कर देना बन्द कर दिया और तुर्कों को बाहर निकाल दिया। सेन-वंशी शासक पश्चिमी बंगाल से पूर्व की ओर चले गये थे परन्तु अपने राज्य को प्राप्त कने के लिए सचेष्ट थे। बंगाल तथा बिहार में भी इख्तियारूद्दीन के मर जाने के बाद विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित हो उठी।
(3) मध्य एशिया से आक्रमण की आशंका: ऐबक को सर्वाधिक भय मध्य एशिया से आक्रमण का था। ख्वारिज्म के शाह की दृष्टि गजनी तथा दिल्ली पर लगी हुई थी।
कठिनाइयों का निवारण
ऐबक में कठिनाइयों एवं बाधाओं को दूर करने की पूर्ण क्षमता थी उसने साहस और धैर्य से कठिनाइयों एवं बाधाओं को दूर किया।
(1) प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय: भारत में ऐबक के तीन प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी थे- इख्तियारूद्दीन, कुबाचा तथायल्दूज।
इख्तियारूद्दीन- इख्तियारूद्दीन ने सदैव ऐबक का आदर किया और उसी की अधीनता में शासन किया
कुबाचा- कुबाचा ऐबक का दामाद था। अतः कुबाचा ने उसका विरोध नहीं किया और न उसे किसी प्रकार कष्ट पहुँचाया।
यल्दूज- यल्दूज ऐबक का श्वसुर था परन्तु यल्दूज ने ऐबक का विरोध किया। 1208 ई. में यल्दूज ने गजनी में एक सेना तैयार की और मुल्तान पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया परन्तु ऐबक ने शीघ्र ही उसे वहाँ से मार भगाया तथा गजनी पर अधिकार कर लिया। गजनी के तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार ऐबक अपनी विजय से मदांध होकर मद्यपान में व्यस्त हो गया। उसकी सेना ने गजनी के लोगों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। इससे तंग आकर गजनी के अमीरों ने यल्दूज को गजनी आने के लिए आमन्त्रित किया। जबकि वास्तविकता यह थी कि गजनी के लोग यह सहन नहीं कर सकते थे कि दिल्ली का सुल्तान गजनी पर शासन करे और गजनी उसके साम्राज्य का एक प्रान्त बन कर रहे। यह गजनी तथा उनके निवासियों, दोनों के लिये अपमानजनक बात थी। यल्दूज ने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया। उसने फिर से गजनी पर अधिकार स्थापित कर लिया। ऐबक को विवश होकर दिल्ली लौट जाना पड़ा परन्तु उसने यल्दूज के भारतीय साम्राज्य पर प्रभुत्व स्थापित करने के समस्त प्रयत्नों को विफल कर दिया।
(2) मध्य एशिया की राजनीति से अलग: कुतुबुद्दीन ऐबक ने बुद्धिमानी दिखाते हुए स्वयं को मध्य-एशिया की राजनीति से अलग रखा। अतः वह उस ओर से आने वाली सम्भाव्य आपत्तियों से सर्वथा विमुक्त रहा।
(3) बंगाल की समस्या: इख्तियारूद्दीन की मृत्यु के उपरान्त बंगाल तथा बिहार ने दिल्ली से अपना सम्बन्ध-विच्छेद करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया। अलीमर्दा खाँ ने लखनौती में स्वतंत्रता पूर्वक शासन करना आरम्भ कर दिया परन्तु स्थानीय खिलजी सरदारों ने उसे कैद करके कारागार में डाल दिया और उसके स्थान पर मुहम्मद शेख को शासक बना दिया। अलीमर्दा खाँ कारगार से निकल भागा और दिल्ली पहुँच कर ऐबक से, बंगाल में हस्तक्षेप करने के लिए कहा। अलीमर्दा खाँ बंगाल का गवर्नर बना दिया गया। उसने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली और दिल्ली को वार्षिक कर देने के लिए उद्यत हो गया।
(4) राजपूतों का दबाव: ऐबक उत्तर-पश्चिम की राजनीति तथा बंगाल के झगड़े में इतना व्यस्त रहा कि उसे राजपूतों की शक्ति को दबाने का अवसर नहीं मिला। उसने पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाओं की सुरक्षा की व्यवस्था करके अन्तर्वेद के राजाओं पर दबाव डाला परन्तु यल्दूज से आतंकित होने के कारण वह अपनी पूरी शक्ति के साथ राजपूतों से लोहा नहीं ले सका। इसका परिणाम यह हुआ कि यद्यपि उसने बदायूं पर अपना आधिपत्य स्थापित करके अपने दास इल्तुतमिश को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया और अन्य छोटे-छोटे राजाओं से कर वसूल किया परन्तु उसने कालिंजर तथा ग्वालियर को फिर से अधिकार में करने का प्रयास नहीं किया।
कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु
ऐबक ने केवल चार वर्ष शासन किया। 1210 ई. में जब ऐबक लाहौर में चौगान अथवा पोलो खेल रहा था तब वह घोड़े से गिर पड़ा। काठी का उभड़ा हुआ भाग उसके पेट में घुस गया और तुरन्त उसकी मृत्यु हो गई। उसे लाहौर में दफना दिया गया।
ऐबक का शासन
दिल्ली पर ऐबक का शासन 12 साल तक मुहम्मद गौरी के वाइसराय के रूप में तथा 4 साल तक स्वतंत्र शासक के रूप में रहा। मुहम्मद गौरी के जीवित रहते, ऐबक उत्तर भारत को विजित करने में लगा रहा। स्वतंत्र शासक के रूप में उसका काल अत्यन्त संक्षिप्त था। इस कारण शासक के रूप में उसकी उपलब्धियाँ विशेष नहीं थीं फिर भी अपने चार वर्ष के कार्यकाल में उसने भारत में दिल्ली सल्तनत तथा गुलाम वंश की जड़ें मजबूत कर दीं। उसकी उपलब्धियाँ इस प्रकार से रहीं-
(1.) उदार शासक: मुस्लिम इतिहासकारों ने ऐबक के न्याय तथा उदारता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है और लिखा है कि उसके शासन में भेड़ तथा भेड़िया एक ही घाट पर पानी पीते थे। उसने अपनी प्रजा को शांति प्रदान की जिसकी उन दिनों बड़ी आवश्यकता थी। सड़कों पर डाकुओं का भय नहीं रहता था और शाँति तथा सुव्यवस्था स्थापित थी किंतु भारत के मुस्लिम इतिहासकारों का यह वर्णन गजनी के इतिहासकारों के वर्णन से मेल नहीं खाता। गजनी के इतिहासकारों के अनुसार ऐबक गजनी पर अधिकार करके मद्यपान में व्यस्त हो गया तथा उसकी सेना ने गजनी वासियों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया जिससे दुखी होकर जनता ने यल्दूज को गजनी पर आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया। गजनी के इतिहासकारो के वर्णन के आधार पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब ऐबक ने गजनी में इतना खराब प्रदर्शन किया तब वह भारत में आदर्श शासन कैसे कर सकता था ?
(2.) हिन्दुओं के साथ व्यवहार: युद्ध के समय ऐबक ने सहस्रों हिन्दुओं की हत्या करवाई और सहस्रों हिन्दुओं को गुलाम बनाया। इस पर भी मुस्लिम इतिहासकारों ने उसकी यह कहकर प्रशंसा की है कि शांतिकाल में उसने हिन्दुओं के साथ उदारता का व्यवहार किया। जबकि वास्तविकता यह है कि अन्य मुसलमान शासकों की भाँति उसने हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता छीन ली। उसने हिन्दुओं के मन्दिरों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करवाया। उसके शासन में हिन्दू दूसरे दर्जे के नागरिक थे। उन्हें शासन में उच्च पद नहीं दिये गये।
(3.) भवनों का निर्माण: अपने संक्षिप्त शासन काल में कुतुबुद्दीन ऐबक को भवन बनवाने का अधिक समय नहीं मिला। उसने दिल्ली तथा अजमेर के प्रसिद्ध हिन्दू भवनों को तोड़कर उनमें मस्जिदें बनवाईं। उसने दिल्ली के निकट महरौली गांव में कुव्वत-उल-इस्लाम नामक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस मस्जिद को उसने दिल्ली पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में बनवाया। इस मस्जिद की बाहरी शैली हिन्दू स्थापत्य की है। इसका निर्माण हिन्दुओं के नष्ट-भ्रष्ट किये गये मन्दिरों के सामान से किया गया। इसके इबादतखाने में बड़ी सुन्दर खुदाइयाँ मौजूद हैं। ऐबक की बनवाई हुई दूसरी प्रसिद्ध इमारत कुतुबमीनार है। ऐबक ने इस मीनार को ख्वाजा कुतुबुद्दीन की स्मृति में बनवाया। यद्यपि इस मीनार को ऐबक ने आरम्भ करवाया था परन्तु इसे इल्तुतमिश ने पूरा करवाया। 1200 ई. में कुतुबुद्दीन ने अजमेर की चौहान कालीन संस्कृत पाठशाला को तोड़कर उसके परिसर में मस्जिद बनवाईं बाद में इस परिसर में पंजाबशाह की स्मृति में अढ़ाई दिन का उर्स भरने लगा। तब इसे ढाई दिन का झौंपड़ा कहने लगे।
(4.) सैन्य प्रबन्धन: ऐबक का शासन सैनिक बल पर अवलम्बित था। राजधानी में एक प्रबल सेना तो थी ही, राज्य के अन्य भागों में भी महत्वपूर्ण स्थानों में सेना रखी जाती थी।
(5.) नागरिक शासन: राजधानी दिल्ली तथा प्रान्तीय नगरों का शासन मुसलमान अधिकारियों के हाथ में था। उनकी इच्छा ही कानून थी। स्थानीय शासन हिन्दुओं के हाथ में था और लगान-सम्बन्धी पुराने नियम ही चालू रखे गये थे।
(6.) न्याय व्यवस्था: ऐबक द्वारा कोई व्यवस्थित न्याय विधान स्थापित नहीं किया गया। इस कारण न्याय की व्यवस्था असन्तोषजनक थी। काजियों की मर्जी ही सबसे बड़ा कानून थी।
ऐबक का चरित्र तथा उसके कार्यों का मूल्यांकन
सल्तनतकालीन इतिहासकार ऐबक की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं क्योंकि उसने भारत में मुस्लिम शासन की नींव रखी। हमें भी ऐबक के चरित्र तथा कार्यों का मूल्यांकन करने के लिये उन्हीं के विवरण पर निर्भर रहना पड़ता है। हमें यह समझ लेना चाहिये कि एक आक्रांता के रूप में उसकी समस्त अच्छाइयाँ मुस्लिम प्रजा के लिये थीं जिसकी खुशहाली पर उसके शासन की मजबूती निर्भर करती थी। शासन की दृष्टि में हिन्दू प्रजा काफिर थी जिसे मुस्लिम प्रजा के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं थे।
(1) सेनानायक के रूप में: ऐबक एक विजयी सेनानायक था। अपनी सैनिक प्रतिभा के बल से ही वह अन्धकार से प्रकाश में आया था। दास के निम्न पद से सुल्तान के श्लाघनीय पद पर पहुँच पाया था। उसमें अपार साहस था। उसकी स्वामिभक्ति ने उसे मुहम्मद गौरी की नजर में चढ़ा दिया। कुतुबुद्दीन की सहायता के कारण ही गौरी को भारत में सैनिक सफलता मिली थी। ऐबक ने अनेक नगरों तथा राज्यों पर अपने स्वामी के लिए विजय प्राप्त की परन्तु तख्त पर बैठने के बाद वह फिर नयी विजय नहीं कर सका। यल्दूज ने उसे गजनी से मार भगाया। अपने चार वर्ष के संक्षिप्त शासनकाल में अपनी स्थिति को संभालने में ही लगा रहा। डॉ. हबीबुल्ला ने ऐबक के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- ‘वह महान् शक्ति तथा महान् योग्यता का सैनिक नेता था। उसमें एक तुर्क की वीरता के साथ-साथ पारसीक की सुरुचि तथा उदारता विद्यमान् थी।’
(2) प्रशासक के रूप में: ऐबक युद्ध में तलवार चलाना तो जानता था किंतु उसमें रचनात्मक प्रतिभा नहीं थी। उसने भारत में हिन्दू शासन को तो नष्ट किया किंतु अपनी ओर से कोई सुदृढ़़, संगठित एवं व्यवस्थित शासन व्यवस्था स्थापित नहीं कर सका। न ही उसने कोई शासन सम्बन्धी सुधार किये। उसने हिन्दू प्रजा पर उन काजियों को थोप दिया जो इस्लाम के अनुसार अनुसार काफिर प्रजा का न्याय करते थे। ऐबक की उदारता तथा दानशीलता मुसलमानों तक ही सीमित थी। हिन्दुओं के साथ वह सहिष्णुता की नीति का अनुसरण नहीं कर सका। उसने हजारों हिन्दुओं की हत्या करवाई सैंकड़ों मन्दिरों का विध्वंस करके काफिर हिन्दुओं को दण्डित किया तथा मुस्लिम इतिहासकारों से प्रशंसा प्राप्त की।
(3) कला-प्रेमी के रूप में: मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार ऐबक को साहित्य तथा कला से भी प्रेम था। हसन निजामी तथा फखरे मुदीर आदि विद्वानों को उसका आश्रय प्राप्त था। जिन हिन्दू-मन्दिरों को उसने तुड़वाया, उनसे प्राप्त सामग्री से उसने दो मस्जिदें बनवाई- एक दिल्ली में जिसेे कुव्वत-उल-इस्लाम नाम दिया गया तथा दूसरी अजमेर में जिसे ढाई दिन का झोंपड़ा नाम दिया गया। दिल्ली की कुतुबमीनार का निर्माण भी उसी ने आरम्भ करवाया था। इसके काल में संगीत कला, चित्र कला, नृत्य कला, स्थापत्य कला, शिल्प कला, मूर्ति कला आदि कलाओं का कोई विकास नहीं हुआ।
आरामशाह
1210 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद, लाहौर के तुर्क सरदारों ने कुतुबुद्दीन ऐबक के पुत्र आरामशाह को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया किंतु दिल्ली के अमीर नहीं चाहते थे कि लाहौर, तुर्की सुल्तानों की राजधानी बने क्योंकि इससे साम्राज्य में अधिकांश उच्च पद तथा सम्मानित स्थान लाहौर के अमीरों को ही प्राप्त होने थे। अतः दिल्ली के अमीरों ने आरामशाह को गद्दी पर से हटाने का प्रयत्न आरम्भ किया। उन्होंने ऐबक के दामाद और बदायूं के गवर्नर इल्तुतमिश को दिल्ली के तख्त पर बैठने के लिए आमन्त्रित किया। इल्तुतमिश ने अपनी सेना के साथ बदायूँ से दिल्ली की ओर कूच कर दिया। आरामशाह भी लाहौर से दिल्ली की ओर चला परन्तु दिल्ली के अमीरों ने उसका स्वागत नहीं किया। नगर के बाहर आरामशाह तथा इल्तुतमिश की सेनाओं में मुठभेड़ हुई। इस मुठभेड़ में आरामशाह पराजित हुआ और बंदी बना लिया गया। अमीरों ने इल्तुतमिश को सुल्तान घोषित कर दिया। इस प्रकार वह 1211 ई. में दिल्ली का सुल्तान बन गया। ऐबक वंश का अन्त हो गया और उसके स्थान पर इल्बरी तुर्कों के शम्मी वंश का राज्य स्थापित हो गया।
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