Saturday, July 27, 2024
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अध्याय -11 : पश्चिमी जगत से भारत का सम्पर्क

उत्तर-पूर्व भारत के छोटे रजवाड़ों और गणराज्यों का विलयन धीरे-धीरे मगध साम्राज्य में हो गया परन्तु उत्तर-पश्चिम भारत की स्थिति ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पूर्वार्र्द्ध के दौरान भिन्न थी। कम्बोज, गांधार और मद्र आदि अनेक छोटे-छोटे राज्य परस्पर संघर्षरत रहते थे। इस क्षेत्र में मगध जैसा कोई शक्तिशाली साम्राज्य नहीं था जो इन परस्पर संघर्षरत राज्यों को एक संगठित साम्राज्य के अधीन कर सके। यह क्षेत्र पर्याप्त समृद्ध था तथा हिन्दुकुश के दर्रों से इस क्षेत्र में बाहर से सरलता से घुसा जा सकता था।

ईरानी राजाओं का भारत पर अधिकार

530 ई.पू. से कुछ पहले, ईरान के हखामनी सम्राट साइरस ने हिन्दुकुश पर्वत को पार करके काम्बोज तथा गांधार को अपने अधीन किया। ईरानी शासक दारयवह (देरियस) प्रथम 516 ई.पू. में उत्तर-पश्चिम भारत में घुस गया। उसने पंजाब, सिन्धु नदी के पश्चिमी क्षेत्र और सिन्धु को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया। हखमानी अभिलेखों में गांधार और हिंदुश (सिंधु) का उल्लेख क्षत्रपियों (प्रांतों) के रूप में हुआ है। हेरोडोटस ने लिखा है कि गांधार हखामनी साम्राज्य का बीसवां क्षत्रपी था। फारस साम्राज्य में कुल अट्ठाईस क्षत्रपी थे। भारतीय क्षत्रपी में सिन्ध, उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती इलाका तथा पंजाब का सिन्धु नदी के पश्चिम वाला हिस्सा सम्मिलित था। यह क्षेत्र फारस साम्राज्य का सर्वाधिक जनसंख्या वाला तथा उपजाऊ हिस्सा था। यह क्षेत्र 360 टैलण्ट (मुद्रा तथा भार का एक प्राचीन माप) सोना भेंट देता था, जो फारस के समस्त एशियायी प्रांतों से मिलने वाले मूल राजस्व का एक तिहाई था। पांचवी शताब्दी ई.पू. में फारसी सेना को यूनानियों के विरुद्ध सैनिकों की आवश्यकता होती थी जिसकी पूर्ति गांधार से की जाती थी। दायबहु के उत्तराधिकारी क्षयार्ष (जरसिस) ने यूनानियों के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ने के लिये भारतीयों को अपनी सेना में सम्मिलित किया। भारत पर सिकन्दर के आक्रमण तक उत्तर-पश्चिम भारत के हिस्से ईरानी साम्राज्य का अंग बने रहे।

ईरानी सम्पर्क के परिणाम

भारत और ईरान का यह सम्पर्क लगभग 200 सालों तक बना रहा। इसने भारत और ईरान के बीच व्यापार को बढ़ावा दिया। इस सम्पर्क के सांस्कृतिक परिणाम और भी महत्त्वपूर्ण थे। ईरानी लेखक (कातिब) भारत में लेखन का एक विशेष रूप ले आये थे जो आगे चलकर खरोष्ठी लिपि के नाम से विख्यात हुआ। यह लिपि अरबी की तरह दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में उत्तर-पश्चिमी भारत में अशोक के कुछ अभिलेख इसी लिपि में लिखे गए। यह लिपि तीसरी शताब्दी ईस्वी तक देश में प्रयोग की जाती रही। उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में ईरानी सिक्के भी मिलते हैं जिनसे ईरान के साथ व्यापार होने का संकेत मिलता है।  मौर्य वास्तुकला पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। अशोक कालीन स्मारक, विशेषकर घंटी के आकार के शीर्ष, कुछ सीमा तक ईरानी प्रतिरूपों पर आधारित थे। अशोक की राजाज्ञाओं की प्रस्तावना और उनमें प्रयोग किए गए शब्दों में भी ईरानी प्रभाव देखा जा सकता है। उदारहण के लिए फारसी शब्द- दिपि के लिए अशोक कालीन लेखकों ने शब्द- लिपि का प्रयोग किया। ईरानियों के माध्यम से ही यूनानियों को भारत की महान् सम्पदा के बारे ज्ञात हुआ। इस जानकारी से भारतीय सम्पदा के लिए उनका लालच बढ़ गया और अन्ततोगत्वा भारत पर सिकंदर ने आक्रमण कर दिया।

सिकंदर का भारत पर आक्रमण

चौथी शताब्दी ई.पू. में विश्व पर आधिपत्य को लेकर यूनानियों और ईरानियों के बीच संघर्ष हुए। मकदूनिया (मेसीडोनिया) वासी सिकंदर के नेतृत्व में यूनानियों ने ईरानी साम्राज्य को नष्ट कर दिया। सिकंदर ने न सिर्फ एशिया माइनर (तुर्की) और ईराक को अपितु ईरान को भी जीत लिया। ईरान पर विजय प्राप्त करने के बाद सिकन्दर काबुल की ओर बढ़ा, जहाँ से 325 ई.पू. में खैबर दर्रा पार करते हुए वह भारत पहुंचा। सिंधु नदी तक पहुँचने में उसे पांच महीने लगे। स्पष्टतः वह भारत के महान् वैभव से आकर्षित था। हेरोडोटस जिसे इतिहास का पिता कहा जाता है तथा अन्य यूनानी लेखकों ने भारत का वर्णन अपार वैभव वाले देश के रूप में किया था। इस वर्णन को पढ़कर सिकन्दर भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित हुआ। सिकन्दर में भौगोलिक अन्वेषण और प्राकृतिक इतिहास के लिए तीव्र ललक थी। उसने सुन रखा था कि भारत की पूर्वी सीमा पर कैस्पियन सागर ही फैला हुआ है। वह विगत विजेताओं की शानदार उपलब्धियों से भी प्रभावित था। वह उनका अनुकरण कर उनसे भी आगे निकल जाना चाहता था। उत्तर-पश्चिमी भारत की राजनीतिक स्थिति उसकी योजना के लिए उपयुक्त थी। यह क्षेत्र अनेक स्वतंत्र राजतंत्रों और कबीलाई गण-राज्यों में बंटा हुआ था, जो अपनी भूमि से घनिष्ठ रूप से बंधे हुए थे और जिन रजवाड़ों पर उनका शासन था उनसे उन्हें बड़ा गहरा प्रेम था।

सिकंदर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत में निम्नलिखित राज्य थे-

अस्पेसियन: यह जाति अबिसंग, कुनार और वजौर नदियों की घाटियों में रहती थी। भारत में इन्हें अश्वक कहते थे।

गरेइअन: यह जाति पंजकौर नदी की घाटी में रहती थी।

अस्सेकेनोज: यह सिंधु नदी के पश्चिम में थी। कुछ विद्वानों ने इसे अश्वक कहा है। मस्सग इनकी राजधानी थी।

नीसा: यह राज्य काबुल नदी और सिंधु नदी के बीच स्थित था।

प्यूकेलाटिस: इसका समीकरण पुष्करावती से किया जाता है। जो पश्चिमी गांधार की राजधानी थी।

तक्षशिला: यह राज्य सिंधु और झेलम नदियों के बीच स्थित था।

असकेज: यह उरशा राज्य था। इसके अंतर्गत आधुनिक हजारा आता है।

अभिसार: इसके अंतर्गत काश्मीर का पश्चिमोत्तर भाग सम्मिलित था।

पुरु राज्य: यह झेलम और चिनाब नदियों के बीच स्थित था। यहां के राजा को यूनानियों ने पोरस कहा है।

ग्लौगनिकाई: इस जाति का राज्य चेनाब नदी के पश्चिम में था।

गैण्डरिस: यह राज्य चेनाब और राबी नदियों के बीच में स्थित था।

अड्रेस्टाई: यह रावी नदी के पूर्व में था।

कठ: यह झेलम और चेनाव के बीच में अथवा रावी और चेनाव के बीच में स्थित था।

सौभूमि राज्य: यह झेलम के तट पर था।

फगलस: यह रावी और व्यास के बीच में था। इसका समीकरण भगल से किया गया है।

सिबोई: यह शिवि जाति थी। यह झेलम और चेनाब के बीच रहती थी।

क्षुद्रक: यह जाति झेलम और चेनाब के संगम के नीचे की भूमि में रहती थी।

मालव: यह रावी के निचले भाग के दाहिनी ओर रहती थी।

अम्बष्ठ: यह मालवों की पड़ौसी जाति थी।

जैथ्राइ: इसका समीकरण क्षत्रि से किया गया है। यह चेनाव और रावी के बीच में रहती थी।

ओस्सेडिआइ: यह वसाति जाति थी जो चिनाव और सिंधु नदियों के बीच में रहती थी।

मौसिकेनोज: यह मूषिक जाति थी जो आधुनिक सिंध में बसी थी।

पैटलीन: यह नगर सिंधु नदी के डेल्टा पर स्थित था।

उपरोक्त राज्यों में से अधिकांश राज्य गणराज्य थे। राजतंत्रात्मक राज्यों में तक्षशिला, अभिसार और पुरु राज्य प्रमुख थे। तक्षशिला तथा पुरु राज्य में अत्यधिक द्वेष भाव था। अभिसार नरेश पुरु का मित्र था। अतः अभिसार नरेश की तक्षशिला के राजा अम्भि से शत्रुता थी। पुरु तथा उसके भतीजे (जो कि उसका पड़ौसी राजा था) में भी अनबन थी। राजतंत्रतात्मक तथा गणतंत्रात्मक राज्यों में भी शत्रुता थी। पुरु और अभिसार नरेशों ने क्षुद्रकों तथा मालव राज्यों से भी शत्रुता कर रखी थी। शाम्ब जाति तथा मूषिक जाति में वैमनस्य था। ऐसी स्थिति में सिकंदर का कार्य सरल हो गया। इस प्रकार सिकंदर ने भारत का प्रवेश द्वार खुला पाया।

327 ई.पू. के बसंत में सिकंदर ने हिन्दुकुश पर्वत को पार कर कोही दामन की शस्य-श्यामला घाटी में प्रवेश किया। बैक्ट्रिया पर आक्रमण करने से पूर्व सिकंदर ने अलेक्जेण्ड्रिया नगर की स्थापना की। यहां से वह निकाई नामक नगर की ओर गया। यहीं पर उसने अपनी सेना का विभाजन किया। पर्डिक्क्स को पर्याप्त सैन्यबल के साथ काबुल नदी की घाटी के द्वारा सिंधु नदी तक सीधे पहुंचने का आदेश मिला। मार्ग में हस्ती को छोड़कर प्रायः समस्त कबीलों के प्रधानों ने आत्म समर्पण कर दिया। पर्डिक्कस को इस कार्य में तक्षशिला नरेश अम्भी से पर्याप्त सहायता मिली। जब सिकंदर निकाई में ही था, उसी समय तक्षशिला नरेश अम्भी ने हाथियों सहित अनेक बहुमूल्य उपहार नतमस्तक होकर सिकंदर को अर्पित किये और बिना किसी संकोच के उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

दूसरी सेना के साथ सिकंदर ने दुर्गम पार्वतीय पथ का अनुसरण किया। कुनर की विशाल घाटी में स्थित अज्ञात नगर में अज्ञात जाति के लोग रहते थे। उन्होंने सिकंदर का सामना किया तथा एक तीर सिकंदर की बांह में भी लगा। इसके बाद सिकंदर के सेनापति क्रेटरस की सेना ने समस्त नगर वासियों को तलवार के घाट उतार दिया। वहां से चलकर सिकंदर ने अश्वकों पर आक्रमण किया। अश्वक अपनी राजधानी त्याग कर गिरि कंदराओं में जा छिपे। इसके बाद सिकंदर ने बजौर की घाटी में प्रवेश किया। दूसरे मार्ग से भेजे गये सैन्यदल का भी यहीं पर सिकंदर से मिलन हुआ। इसके बाद सिकंदर न्यासा नगर की ओर बढ़ा। यहां भी सिकंदर का विरोध नहीं हुआ। न्यासा के लोगों ने सिकंदर की सेना में भर्ती होने की इच्छा प्रकट की। न्यासा के नेता अकुफिस ने सिकंदर को बताया कि मैं तो स्वयं ही यूनानी राजा डियानिस का रक्तवंशी हूँ। इस कारण सिकंदर मेरा सम्राट है। सिकंदर ने न्यासा के पदाति सैनिकों को अपनी सेना में भर्ती करने से मना कर दिया किंतु उसके तीन सौ अश्वारोही अपनी सेना में भरती कर लिये।

इसके बाद सिकंदर कोहेमूर नामक पर्वत की ओर बढ़ा। गौरी नदी (पंजकौर) अपनी गहराई तथा गति की तीव्रता के कारण सिकंदर का मार्ग रोक कर खड़ी हो गई। बड़ी कठिनाई से सिकंदर इस नदी को पार करके मस्सग पहुंचा। मस्सग नगर उस तरफ का सबसे बड़ा नगर था। मस्सग पर चार दिनों तक घेरा पड़ा रहा। यहां सिकंदर के पैर में तीर लगा। चौथे दिन यूनानियों ने अपने शस्त्रों से मस्सग के राजा को मार गिराया। अपने राजा की मृत्यु के बाद मस्सग के सात सहस्र सैनिकों ने युद्ध क्षेत्र त्याग कर अपने घर जाने का निश्चय किया। सिकंदर ने इन्हें घर लौट जाने की अनुमति दे दी किंतु जब वे सैनिक मस्सग से बाहर निकले तो सिकंदर की सेना ने उनका पीछा करके उन्हें मार डाला। मस्सग की महारानी तथा राजकुमारी को बंदी बना लिया गया।

स्वाात की घाटी का अंतिम युद्ध बजिरा (वीरकोटि) तथा ओरा (उदेग्रम) पर केन्द्रित था। जिस पर अधिकार करके सिकंदर ने सिंधु के पश्चिम पर पूरी तरह अधिकार कर लिया। सिंध के पश्चिम का समस्त भारतीय क्षेत्र निकेनार को देने के बाद सिकंदर पेशावर की घाटी की ओर अग्रसर हुआ। वहां उसे गांधार की राजधानी पुष्कलावती द्वारा अधीनता स्वीकार कर लिये जाने का समाचार मिला।

सिंधु को पार करने से पूर्व सिकंदर को आर्नो पर्वत पर स्थित अस्सकेनोई लोगों से निबटना था। यह स्थान 6600 फुट ऊँची चट्टान पर स्थित था। इसका घेरा 22 मील था। इसकी दक्षिणी सीमा पर सिंधु बहती थी। सिकंदर इस चट्टान को देखकर हताश हो गया किंतु उसके पड़ौस में रहने वाले लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार करके आर्नोस पर सिकंदर का अधिकार करवाना स्वीकार कर लिया। सिकंदर ने आर्नोस पर्वत के निकट मिट्टी का एक विशाल टीला तैयार किया तथा उस पर चढ़कर सेना आर्नोस तक पहुंचने में सफल हो गई। अब आर्नोस वासियों ने सिकंदर से संधि वार्ता चलाई। सिकंदर ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब आर्नोस के लोग संधि करके रात्रिकाल में अपने नगर को लौट रहे थे, तब सिकंदर के सात सौ सैनिकों ने उन पर आक्रमण कर उन्हें मार दिया और नगर में घुसकर आर्नोस पर भी अधिकार कर लिया। सिकंदर ने वहां पर यूनानी देवताओं की पूजा की।

यहां से सिकंदर ने ओहिन्द के तट पर एक माह का विश्राम किया। यहीं पर तक्षशिला के राजा अम्भि ने सिकंदर को 200 रजत मुद्रायें, 3090 बैल, 1000 भेडें, 700 अश्वारोही एवं 30 हाथी उपहार में भेजे। तक्षशिला का सहयोग मिल जाने से सिकंदर के लिये सिंधु नदी पार करना सुगम हो गया। सिंधु को पार करके सिकंदर निर्भय चलता हुआ तक्षशिला के निकट तक आ गया। तक्षशिला के द्वार पर उसने रणभेरी बजाने की आज्ञा दी किंतु अम्भि तो पहले से ही उसके स्वागत के लिये खड़ा हुआ था, वह सैन्य रहित होकर अपने मंत्रियों के साथ सिकंदर के शिविर में पहुंचा और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। तीन दिन तक सिकंदर तक्षशिला के राजमहल में बैठकर भोग विलास करता रहा।

तक्षशिला से ही सिकंदर ने पोरस के पास संदेश भेजा कि वह सिकंदर से आकर साक्षात्कार करे। इस पर पोरस ने संदेश भिजवाया कि वह सिकंदर से साक्षात्कार अवश्य करेगा किंतु युद्ध के मैदान में। सिकंदर ने फिलिप को तक्षशिला का क्षत्रप बनाया तथा अपनी सेना को आज्ञा दी कि सिंधु नदी का पुल तोड़कर झेलम पर लगाया जाये। इसके बाद वह अम्भि के पांच सहस्र सैनिकों को लेकर झेलम की तरफ चल पड़ा। मार्ग में उसने पोरस के भतीजे स्पिटेसीज को पराजित किया तथा झेलम के तट पर जा पहुंचा। झेलम के पूर्वी तट पर सिकंदर की सेना ने अपना शिविर स्थापित किया तथा तट के दूसरी ओर दूर तक पोरस ने अपनी समस्त सेना को एकत्रित किया।

पौरव की सेना 4 सहस्र अश्वारोही, 300 रथ, 200 हाथी तथा 30 हजार पदाति थी। उसके पुत्र की सेना में 2000 पदाति और 120 रथ थे। इस सेना के अतिरिक्त उसकी काफी सेना पीछे के शिविर में थी। सिकंदर की सेना में 35 हजार सिपाही थे जिनमें अश्वारोहियों की संख्या अधिक थी। उस समय पर्वतों पर हिम पिघलने के कारण नदी उफान पर थी। सिकंदर ने पोरस की सेना को भ्रमित किया कि वह नदी में पानी कम होने पर ही नदी पार करेगा। एक रात जब बहुत वर्षा हो रही थी तब रात्रि में सिकंदर ने अपनी सेना के दो हिस्से किये। एक सेना क्रेटरस के नेतृत्व में नदी के इस ओर पोरस के शिविर के समक्ष खड़ा कर दिया तथा स्वयं 12 हजार सैनिकों को लेकर नदी के किनारे पर स्थित 16 मील दूर चला गया जहां से नदी मुड़ती थी। इससे पोरस की सेना भ्रम में पड़ गई। सिकंदर आराम से 12 हजार सैनिकों को लेकर झेलम के उस पार उतर गया। वर्षा और रात्रि के कारण पोरस के रथ और धनुष सिकंदर के भाला-धारियों के समक्ष कुछ काम न आ सके। भालों की मार से बचने के लिये पोरस ने राजकुमार के नेतृत्व में अपने हाथियों को सिकंदर के सामने बढ़ाया किंतु सिकंदर के अश्वारोही इस स्थििति के लिये पहले से ही तैयार थे। वे हाथियों के सामने से हट गये तथा दोनों ओर से पार्श्व में आकर पोरव की सेना पर टूट पड़े।

पोरस का पुत्र इस युद्ध में मारा गया। जब यह युद्ध चल ही रहा था तब तक क्रेटरस भी नदी पार करके पोरस की सेना पर टूट पड़ा। हाथियों की जो सेना पोरस ने क्रेटरस का मार्ग रोकने के लिये सन्नद्ध की थी, वे हाथी रात्रि में अचानक आक्रमण हुआ देखकर घबरा गये और पीछे मुड़कर भागे तथा पोरस की सेना को रौंद डाला। इस पर पोरस ने युद्ध क्षेत्र छोड़ने का निर्णय किया। सिकंदर ने अम्भि को भेजा कि वह पोरस को सम्मान पूर्वक मेरे पास ले आये। अम्भि को देखते ही हाथी पर बैठे पोरस ने उस पर प्रहार किया। इस पर सिकंदर ने अपने यूनानी दूतों को भेजा। उन्होंने पोरस को सिकंदर का संदेश पढ़कर सुनाया। पोरस ने हाथी से नीचे उतर कर पानी पिया। इसके बाद उसे सिकंदर के समक्ष लाया गया।

जिस साहस और विश्वास के साथ पोरस सिकंदर के समक्ष उपस्थित हुआ, उसे देखकर सिकंदर दंग रह गया। सिकंदर ने पूछा कि आपके साथ किस तरह का व्यवहार किया जाये। इस पर पोरस ने जवाब दिया कि जिस तरह का व्यवहार एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। सिकंदर ने प्रसन्न होकर उसका राज्य लौटा दिया तथा कुछ अन्य प्रदेश भी उसी को सौंप दिये। यहां पर सिकंदर ने देवों को बलि प्रदान की तथा निकाई एवं बुकेफेला नामक दो नगरों की स्थापना की। उसने क्रेटरस को इस स्थान पर छोड़ दिया ताकि वह यूनानी शासकों के लिये इस स्थान पर एक भव्य दुर्ग का निर्माण कर सके।

चिनाब के तट पर ग्लौचुकायन जाति 37 नगरों में निवास करती थी। सिकंदर ने उन पर आक्रमण करके उन्हें पोरस के अधीन कर दिया। अभिसार के राजा ने अपने भ्राता को उपहारों सहित सिकंदर की सेवा में भेजा किंतु सिकंदर ने निर्देश दिया कि वह स्वयं उपस्थित हो। यहीं पर सिकंदर को संदेश मिला कि अस्सकेनोइ लोगों ने विद्रोह करके वहां के गवर्नर निकेनार को मार डाला। इस पर सिकंदर ने टिरिस्पेज तथा फिलिप को आदेश दिया कि वह विद्रोह का दमन करे। यहां से सिकंदर ने चिनाब को पार किया। यह नदी काफी चौड़ी थी तथा तीव्र गति से बहती थी। इसलिये इस नदी को पार करने में सिकंदर को भयानक हानि उठानी पड़ी। सिकंदर ने कोनोस को इस क्षेत्र में ही छोड़ दिया। उसने राजा पोरस को आदेश दिया कि वह अपने राज्य को जाये तथा वहां से पांच हजार उत्तम अश्वारोही लेकर आये। इसके बाद सिकंदर रावी की ओर बढ़ा। यह भी काफी चौड़ी नदी थी।

रावी को पार करने के बाद अधृष्ट लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद सिकंदर की मुठभेड़ कठों से हुई। कठ लोग प्रसिद्ध योद्धा थे। वे अपनी राजधानी संगल की रक्षा करने के लिये अपने मित्रों के साथ सिकंदर का मार्ग रोकने के लिये तैयार खड़े थे। सिकंदर ने संगल को घेर लिया। इसी समय पोरस अपने 5000 सैनिकों के साथ आ पहुंचा। इस पर संगल के नागरिकों ने विचार किया कि वे रात्रि के अंधेरे में झील के रास्ते से जंगलों में भाग जायें। सिकंदर ने रात्रि में भागते हुए नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया तथा नगर पर आक्रमण बोल दिया। इस युद्ध में कठों ने यूनानियों को अच्छी तरह भारतीय तलवार का स्वाद चखाया। कठ तो नष्ट हो गये किंतु यूनानी भी बड़ी संख्या में मारे गये। क्रोध की अग्नि में जलते हुए सिकंदर ने संगल नगरी को जला कर राख कर दिया। मकदूनिया से जो सैनिक अब तक सिकंदर के साथ थे उनमें से अधिकांश संगल में ही मारे गये। इससे मकदूनिया के शेष सिपाहियों का हृदय कांप उठा।

यहां से सिकंदर व्यास नदी के तट पर पहुंचा। इस नदी के उस पार नंदों का विशाल साम्राज्य स्थित था। सिकंदर इस क्षेत्र पर आक्रमण करने को आतुर था किंतु मकदूनिया से आये सिपाहियों ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। कोनोस ने इन सिपाहियों का नेतृत्व किया। उसने सिकंदर तथा सेना के समक्ष लम्बा भाषण देते हुए कहा कि मकदूनिया से आये सिपाहियों को घर छोड़े हुए छः साल हो चुके हैं। उनमें से अधिकांश मर चुके हैं। बहुत से मकदूनियावासी नये बसाये गये नगरों में छोड़ दिये गये हैं। कई घायल हैं तथा कई बीमार हैं इसलिये वे अब आगे नहीं बढ़ सकते। यदि इन सिपाहियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध युद्ध के मैदान में धकेला गया तो सिकंदर को अपने सिपाहियों में पहले वाले वे सैनिक देखने को नहीं मिलेंगे जो मकदूनिया से उसके साथ चले थे। सिकंदर ने अपनी सेना को बहुत समझाया किंतु यूरोप से आये सिपाहियों ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। इस पर सिकंदर ने कहा कि वह अकेला ही आगे बढ़ेगा। जिसे लौटना हो लौट जाये तथा जाकर अपने देशवासियों को बताये कि वे अपने राजा को शत्रु के सम्मुख अकेला छोड़कर लौट आये हैं। इस पर भी सेना टस से मस नहीं हुई। सिकन्दर ने दुःख भरे स्वर में कहा- ‘मैं उन दिलों में उत्साह भरना चाहता हूँ जो निष्ठाहीन और कायरतापूर्ण डर से दबे हुए हैं।’ पूरे तीन दिन तक सिकंदर अपने शिविर में बंद रहा किंतु सेना अपने निर्णय पर अड़ी रही। अंत में हारकर सिकंदर को प्रत्यावर्तन की घोषणा करनी पड़ी।

व्यास का तट छोड़कर सिकंदर चिनाव पार करके झेलम पर लौटा। यहां पर वह सौभूति नामक राज्य में गया जो कि कठों के पड़ौसी थे। वहां के शिकारी कुत्तों ने सिकंदर को बहुत प्रभावित किया। झेलम के तट पर सिकंदर ने आठ सौ नौकायें तैयार करवाईं। इसी समय कोनोस बीमार पड़ा और मर गया। यहां सिकंदर ने अपनी सेना के तीन टुकड़े किये। पहला टुकड़ा जल सेना का था जिसे नियार्कस के नेतृत्व में जल मार्ग से रवाना किया गया। दूसरा टुकड़ा हेफशन के नेतृत्व में था जो सिकंदर की सेना के आगे चलता था। जब सिकंदर किसी सुरक्षित पड़ाव पर पहुंच जाता था तो हेफशन की सेनायें आगे बढ़ जाती थीं। जल सेना सिकंदर के साथ-साथ नदी मार्ग से आगे बढ़ती रहती थी। तीसरा टुकड़ा टालेमी के नेतृत्व में था जो हेफशन की सेना के पीछे-पीछे चलता था और सिकंदर के पृष्ठ भाग को सुरक्षित बनाता था।

झेलम के किनारे-किनारे तीन दिन चलने के बाद सिकंदर क्रेटरस और हिफेशन के शिविरों के निकट पहुंचा। वहीं पर फिलिप भी उससे मिलने के लिये आ गया। यहां से चलकर पांच दिन बाद सिकंदर झेलम और चिनाब के संगम पर आ गया। दोनों नदियों के जल ने भीषण रूप धारण कर रखा था जिससे दो नौकायें डूब गईं। नियार्कस को मालवों की सीमा पर पहुंचने का आदेश मिला। मालवों की सीमा पर पहुंचने से पहले शिबि लोग सिकंदर से मिले और उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया। अलगस्सोई (अग्रश्रेणी) लोगों ने 40 हजार पदाति तथा 3 हजार अश्वारोही सेना के साथ जमकर सिकंदर से मोर्चा लिया। इस युद्ध में भी मकदूनिया के बहुत से सिपाही मरे। उसने अग्रश्रेणी नगर में आग लगवा दी तथा नागरिकों को मार डाला। 3 हजार लोगों ने जीवित रहने की इच्छा व्यक्त की। इस पर उन्हें दास बना लिया गया।

अग्रश्रेणियों को नष्ट करके सिकंदर पचास मील मरुभूमि पार करके मालवों पर जा धमका। मालव गण अचम्भित रह गये। निःशस्त्र लोग निर्दयता पूर्वक तलवार के घाट उतार दिये गये। बहुत से मालवों ने भागने का प्रयास किया। उन्हें पर्डिक्कस ने घेर कर मार डाला। बहुत से मालव भाग कर ब्राह्मणों के नगर ब्राह्मणक में छिप गये। सिकंदर ने इस नगर पर भी आक्रमण करके बहुत से मालवों एवं ब्राह्मणों को मार डाला। यहां से सिकंदर ने रावी की ओर बढ़ा। सिकंदर ने सुना कि 50 हजार मालव सैनिक रावी के दक्षिणी तट पर खड़े हैं। सिकंदर अपने थोड़े से सैनिकों के साथ रावी को पार करके उस तट पर जा पहुंचा। मालव उसे देखते ही भाग कर एक दुर्ग में चले गये। दूसरे दिन सिकंदर ने दुर्ग पर आक्रमण किया और दुर्ग को तोड़कर उस पर अधिकार कर लिया। दुर्ग की दीवार पार करते समय सिकंदर मालवों के बाणों की चपेट में आकर घायल हो गया। पर्डिक्क्स ने सिकंदर के शरीर में धंसा बाण खींचकर बाहर निकाला। इस उपक्रम में इतना रक्त बहा कि सिकंदर मूर्च्छित हो गया। सिकंदर के सैनिकों ने कुपित होकर दुर्ग के भीतर स्थित समस्त पुरुषों, स्त्रियों एवं बच्चों को मार डाला। सिकंदर के ठीक होने के उपरांत भी अफवाह फैल गई कि सिकंदर मर गया। इस पर सिकंदर को घोड़े पर बैठकर अपने सैनिकों के समक्ष आना पड़ा।

इसके बाद सिकंदर के सैनिकों को क्षुद्रकों का सामना करना पड़ा। अंत में क्षुद्रक परास्त हुए। क्षुद्रकों ने एक सौ रथारूढ़ दूतों को सिकंदर से संधि करने के लिये भेजा। प्रत्यावर्तन मार्ग पर अम्बष्ठ, क्षत्रप तथा वसाति लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार की। फिलिप जिस भाग का क्षत्रप नियुक्त किया गया था, उसकी दक्षिणी सीमा पर सिंध और चिनाव का संगम था। यहां पर एक नगर की स्थापना की गई। इसके बाद सिकंदर ने सिंध प्रदेश में प्रवेश किया। यहां का राजा मुसिकेनस मारा गया। अंत में पाटल नरेश का राज्य आया। सिकंदर का आगमन सुनकर नागरिक पाटल छोड़कर भाग गये।

यहां से सिकंदर दक्षिणी जड्रोशिया (मकरान) गया। सिंध से मकरान तक के रेगिस्तान को पार करने में सिकंदर के और भी बहुत से सैनिक भूख, प्यास एवं बीमारी से मारे गये। जेड्रोशिया की राजधानी पुरा पहुंचकर सिकंदर के सैनिकों ने आराम किया। जब वह कर्मानिया पहुंचा तो उसे समाचार मिला कि उसके क्षत्रप फिलिप की हत्या कर दी गई। यह सुनकर सिकंदर ने तक्षशिला के राजा अम्भि तथा थ्रेस निवासी यूडेमस को फिलिप के स्थान पर काम संभालने के आदेश भिजवाये। इसी समय क्रेटरस अपनी सैन्य शाखा तथा हाथियों सहित आ मिला। नियार्कस की चार नौकाऐं मार्ग में ही नष्ट हो गईं। वह भी सिकंदर से आ मिला। अंत में समस्त सेनाओं सहित सिकंदर 324 ई.पू. में सूसा पहुंचा। 323 ई.पू. में बेबीलोनिया में अचानक ही सिकंदर की मृत्यु हो गई।

सिकंदर ने जिन क्षेत्रों पर अधिकार किया, उस क्षेत्रों को उसने पांच भागों में विभक्त किया- पहला पैरोपेनिसडाइ, दूसरा अम्भी का राज्य तथा काबुल की निम्न घाटी का प्रदेश जिसका क्षत्रप फिलिप था। तीसरा पौरव का विस्तृत राज्य था। चतुर्थ पश्चिम में हब नदी तक विस्तृत सिंधु की घाटी का राज्य था जिसका क्षत्रप पैथान था। पांचवा काश्मीर स्थित अभिसार का राज्य था।

सिकन्दर के भारत आक्रमण के परिणाम

यद्यपि अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने सिकंदर केे भारत अभियान के प्रभावों को उल्कापात की तरह क्षणिक तथा महत्वहीन बताया है किंतु सिकंदर के भारत आक्रमण के कुछ परिणाम अवश्य निकले थे जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

(1.) सिकंदर तथा उसकी सेनाओं द्वारा अपनाये गये चार अलग-अलग जल एवं थल मार्गों के माध्यम से पश्चिमी जगत से भारत का व्यापारिक सम्पर्क बढ़ गया तथा भारत में यूनानी मुद्राओं का प्रचार हो गया।

(2.) यूनानियों से हुए सम्पर्क के कारण भारत में बहुत से यूनानी शब्दों यथा पुस्तक, कलम, फलक, सुरंग आदि का संस्कृत भाषा में समावेश हो गया।

(3.) यूनानियों के सम्पर्क से भारतीयों ने यूनानी चिकित्सा पद्धति भी सीखी।

(4.) यूनानी मूर्तिकला के प्रभाव से पश्चिमोत्तर भारत में नवीन शैली का विकास हुआ जो गांधार शैली के नाम से विख्यात हुई। इस कला की विशेषता यह है कि इसमें मूल प्रतिमा तो भारतीय है किंतु उसकी बनावट, सजावट तथा विधि यूनानी है।

(5.) पंजाब में रहने वाली बहुत सी जातियां विशेषकर मालव, अर्जुनायन, शिबि अपने मूल स्थानों को छोड़कर दक्षिण दिशा अर्थात् राजस्थान में भाग आईं। इन जातियों ने राजस्थान में अनेक जनपदों की स्थापना की।

(6.) सीमांत प्रदेश, पश्चिमी पंजाब तथा सिंध में कुछ यूनानी उपनिवेश स्थापित हो गये। इनके माध्यम से भारत में क्षत्रपीय शासन व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण काबुल क्षेत्र में सिकंदरिया, झेलम के तट पर बुकेफाल और सिंध क्षेत्र में सिकंदरिया प्रमुख थे। ये उपनिवेश चंद्रगुप्त और अशोक के समय में भी अस्तित्व में रहे किंतु उसके बाद नष्ट हो गये।

(7.) सिकंदर के द्वारा भारत में कुछ नये नगरों की स्थापना की गई। इन नगरों में बहुत से यूनानी सैनिक तथा उनके परिवारों को बसाया गया। इन यूनानी परिवारों के माध्यम से भारत में यूनानी संस्कृति का प्रसार हुआ।

(8.) सिकंदर के साथ आये लेखकों ने अपनी पुस्तकों में भारतीय विवरण अंकित किये जिससे भारत के तत्कालीन तिथिबद्ध इतिहास का निर्माण करने में सहायता मिली।

(9.) सिकंदर के साथ आये लेखकों ने महत्वपूर्ण भौगोलिक विवरण अंकित किये जिनका लाभ आने वाली पीढ़ियों को मिला।

(10.) सिकंदर ने भारत से 2 लाख बैल यूनान भेजे। भारत से बहुत से बढ़ई भी यूनान ले जाये गये जो नाव, रथ, जहाज तथा कृषि उपकरण बनाते थे। इससे भारतीय हस्तकला का यूनान में भी प्रसार हो गया।

(11.) चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर की सेना की युद्ध-प्रणाली का अध्ययन किया तथा उसके आधार पर अपनी सेनाओं का संगठन तैयार किया। इस युद्ध-प्रणाली का थोड़ा-बहुत उपयोग उसने नंदों की शक्तिशाली सेना के विरुद्ध किया।

(12.) सिकंदर के जाने के बाद पश्चिमोत्तर भारत में राजनीतिक शून्यता व्याप्त हो गई। इस क्षेत्र की कमजोर राजीनतिक स्थिति का लाभ उठाकर विष्णुगुप्त चाणक्य तथा उसके शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत में मौर्य वंश की स्थापना की तथा मगध के शक्तिशाली नंद साम्राज्य को उखाड़ फैंका। मौर्य वंश की स्थापना से भारत में पहली बार राजनीतिक एकता की स्थापना संभव हो सकी।

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