Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 13 – महाकाव्य काल में भारतीय संस्कृति तथा रामायण एवं महाभारत का प्रभाव (अ)

चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष, मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है।    

– वाल्मीकि रामायण।

भारतीय लोक-जीवन में रामायण, महाभारत एवं पुराणों का महत्व सदियों से है। इन ग्रंथों को वेदों के समान आदर दिया जाता है। रामायण भारतीयों का आदि-काव्य है जिसकी रचना महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत में की थी। महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास ने संस्कृत में की थी। रामायण एवं महाभारत के रचनाकालों में सदियों का अंतर है किंतु इनके रचनाकाल को सम्मिलित रूप से महाकाव्य काल कहा जाता है। पुराणों की रचना भी सदियों के अंतराल में होती रही किंतु उनके रचना काल को भी समग्र रूप से पुराण काल कहा जाता है।

महाकाव्यों के अवतरण की पृष्ठभूमि

उपनिषदों में वैदिक धर्म के आडम्बर युक्त जटिल कर्मकाण्डों तथा यज्ञों का विरोध किया गया था और निर्गुण ब्रह्म, कर्मवाद, मोक्ष आदि सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया किन्तु उपनिषदों का अगोचर निर्णुण ब्रह्म इतना गूढ़ और सूक्ष्म था कि केवल बुद्धिजीवी वर्ग ही उसे समझ सकता था। सामान्य मनुष्यों के लिए वह अत्यन्त कठिन था। इस कारण उपनिषदों के ज्ञान से जनसाधारण की धार्मिक आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो सकीं।

उपनिषदों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्म से साक्षात्कार, मनन निदिध्यासन तथा समाधि आदि नवीन साधन बताए किंतु उनका पालन भी जनसाधारण के लिए सम्भव नहीं था। न उनके लिए घर-बार छोड़़कर परिव्राजक बनना और ब्रह्म की प्राप्ति का प्रयत्न करना सम्भव था। इस कारण जनसाधारण की धार्मिक आकांक्षाओं को पूरा करने की लिए वैदिक धर्म के अंतर्गत कतिपय नवीन धार्मिक मत उत्पन्न हुए जिन्होंने उपनिषदों की मूल विचारधारा को सुरक्षित रखा किंतु उनके बाह्य रूप पर्याप्त भिन्नता लिए हुए थे।

इनमें से कुछ आस्तिक धर्म थे जो वेद, ईश्वर तथा ब्राह्मणों में आस्था रखते थे किंतु यज्ञादि कर्मकाण्डों के स्थान पर ईश्वर के किसी विशिष्ट रूप शिव, विष्णु, दुर्गा आदि को अपना आराध्य मानते थे तथा अपने आराध्यदेव को प्रसन्न करने के लिए भक्ति को एकमात्र साधन मानते थे। दूसरे नास्तिकवादी धर्म एवं मत थे जो वेदों के प्रामाण्य, ईश्वरवाद तथा ब्राह्मणों के प्रभुत्व को अस्वीकर करते थे तथा उचित आचार-विचार को ही संसार तथा कर्मबंधन से छूटने का उपाय मानते थे।

आस्तिक एवं नास्तिक विचारधाराओं के अंतर्गत बहुत से मत उत्पन्न हुए जिनमें से अधिकांश अल्पजीवी सिद्ध हुए किंतु चार धर्म जनमानस में गहराई तक अपनी पैठ बनाने में सफल रहे। इनमें से आस्तिक विचारधारा के अंतर्गत वैष्णव धर्म एवं शैव धर्म तथा नास्तिक विचारधारा के अंतर्गत जैन-धर्म एवं बौद्ध धर्म थे।

आस्तिक विचारधारा के अंतर्गत वैष्णव धर्म का बीज वेदों में उपलब्ध था। महाकाव्य काल में यह बीज प्रस्फुटित होकर सुंदर पौधे का आकार लेने लगा। रामायण में राम को तथा महाभारत में श्रीकृष्ण को युग-पुरुष के रूप में वर्णित किया गया तथा उन्हें विष्णु का अवतार घोषित किया गया। राम तथा कृष्ण के रूप में जनसामान्य के समक्ष भक्त-वत्सल भगवान का विराट रूप सामने आया जो सर्वशक्तिमान, शत्रुहंता, दयालु, भक्तों की पुकार सुनने वाला, दुष्टों का विनाश करने वाला तथा धर्म की स्थापना करने वाला रूप था। इन दोनों ग्रंथों में विविध कथाओं के माध्यम से भगवान के गुणों और विशेषताओं का निरूपण किया गया जिससे जनसामान्य में भगवान के प्रति आस्था का उदय हो सके।

रामायण का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव

श्रीराम का काल

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान राम का जन्म त्रेता युग में हुआ। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग की कुल अवधि 12,96,000 वर्ष थी। इस युग में भगवान विष्णु के तीन अवतार- वामन, परशुराम एवं श्रीराम हुए। इनमें से राम तीसरे थे जो कि विष्णु के सातवें अवतार थे। इसके बाद द्वापर युग आया जिसकी अवधि 8,64,000 वर्ष रही। द्वापर के बाद ई.पू. 3,102 में कलियुग आरम्भ हुआ।

यदि भगवान श्रीराम को त्रेता के अंतिम खण्ड में माना जाए तो उनका जन्म आज से कम से कम 8,69,119 वर्ष पहले हुआ। वैज्ञानिक इस तिथि को स्वीकार नहीं करते क्योंकि तब तक धरती पर मानव सभ्यता विकसित नहीं हुई थी। कतिपय वैज्ञानिक शोधों के अनुसार भगवान राम का जन्म ई.पू. 5,114 अर्थात् आज से लगभग 7,133 वर्ष पूर्व हुआ। पश्चिमी वैज्ञानिकों द्वारा रामेश्वरम् और श्रीलंका के बीच स्थित रामसेतु को कार्बन डेटिंग के आधार पर 7000 वर्ष पुराना आकलित किया है।

रामायण का रचनाकाल

रामायण तथा महाभारत के वास्तविक रचना काल के बारे में विद्वानों ने अलग-अलग धारणाएं प्रस्तुत की हैं किंतु अधिकांश भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान रामायण तथा महाभारत की रचना को बुद्ध से भी पहले की मानते हैं। इनमें से भी रामायण की रचना महाभारत की रचना से पहले हुई थी। महाभारत में महर्षि वाल्मीकि का उल्लेख हुआ है।

रामायण के अयोध्या काण्ड के 109वें सर्ग के चौतीसवें श्लोक में बुद्ध का स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार हुआ है- ‘यथा हि चोरः तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।’ अर्थात् ‘बुद्ध यानी जो नास्तिक है और नाम मात्र का बुद्धिजीवी है, वह चोर के समान दंड का अधिकारी है।’

निश्चित रूप से यह श्लोक रामायण में बहुत बाद में जोड़ा गया है किंतु इस उक्ति के आधार पर कुछ विद्वान मानते हैं कि रामायण की रचना, बुद्ध के आविर्भाव के पश्चात् हुई। मैकडॉनल ने रामायण के मूल रूप को ई.पू. 500 की रचना स्वीकार किया है। विख्यात पाश्चात्य विद्वान वेबर ने रामायण में उल्लिखित ‘यवन’ शब्द के आधार पर रामायण को यवन आक्रमण के बाद की अर्थात् ई.पू. चौथी शताब्दी की रचना माना है।

अर्थात् इन दोनों के अनुसार रामायण की रचना बुद्ध के बाद हुई। विन्टरनित्स के अनुसार इस ग्रन्थ की मूल रचना ई.पू. चौथी शताब्दी में हुई तथा इसका अन्तिम स्वरूप दूसरी शताब्दी ईस्वी के लगभग निश्चित हुआ था।

बौद्ध साहित्य के कई प्रारम्भिक ग्रंथों पर रामायण का प्रभाव देखा जा सकता है। दशरथ जातक पर यह प्रभाव सर्वाधिक दिखाई देता है तथा इस जातक में श्रवण कुमार की कथा का भी उल्लेख है। प्रसिद्ध विद्वान सिलवा लेवी के अनुसार सद्धर्मस्मृति उपाख्यान निश्चित रूप से वाल्मीकि का ऋणी है क्योंकि इस ग्रन्थ में जम्बू द्वीप का वर्णन काफी अंशों में रामायण के वर्णन से मेल खाता है।

सद्धर्मस्मृति उपाख्यान में नदियों, समुद्रों, देशों एवं द्वीपों को उन्हीं नामों से सम्बोधित किया गया है जिन नामों से उनका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में हो चुका है। रामायण के अयोध्या काण्ड में मिथिला एवं विशाला नामक दो भिन्न नगरों का उल्लेख है जब कि बुद्ध के समय तक दोनों नगर वैशाली के रूप में एक हो गए थे। अतः इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि रामायण, बुद्ध पूर्व की रचना है।

रामायण की रचना महाभारत से पहले हुई। महाभारत में न केवल महर्षि वाल्मीकि एवं रामायण का उल्लेख हुआ है अपितु राम से सम्बन्धित स्थानों को तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। रामायण में वर्णित भारतीय भौगोलिक सीमाएं महाभारत कालीन भारत की अपेक्षा काफी न्यून हैं। इसके विपरीत रामायण में कहीं भी महाभारत एवं उसके किसी पात्र का उल्लेख नहीं हुआ है। अतः रामायण महाभारत के पूर्व की रचना है।

महर्षि पाणिनी का काल ई.पू. पांचवीं शताब्दी सिद्ध हो चुका है। रामायण में यत्र-तत्र अपाणिनीय प्रयोग मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि रामायण की रचना पाणिनी के आविर्भाव से पूर्व हुई। डा. याकोबी ने रामायण की भाषा के आधार पर इसे ई.पू. 800 से ई.पू. 600 के बीच की रचना माना है। याकोबी के अनुसार रामायण के प्रथम एवं सप्तम काण्ड प्रक्षिप्त हैं। उनमें आए हुए बुद्ध एवं यवनों के उल्लेख मूल रामायण के नहीं हैं। रामायण के वे भाग जिनमें राम, पुरुषोत्तम के रूप में निरूपित हैं, निश्चित ही बुद्ध से पहले लिखे गए।

महर्षि वाल्मीकि का परिचय

महर्षि वाल्मीकि ‘रामायण’ के रचियता थे। इस ग्रंथ का प्रधान लक्ष्य मानव के चरित्र का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत करना था। महर्षि वाल्मीकि आर्य संस्कृति के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। वाल्मीकि के सम्बन्ध में महाभारत एवं पुराणों में कथाएं मिलती हैं। इन ग्रंथों में वाल्मीकि को ‘भार्गव’ अर्थात् भृगुवंश में उत्पन्न बताया गया है। महाभारत के ‘रामोपाख्यान’ के रचयिता को भी भार्गव कहा गया है।

एक आख्यान के अनुसार वाल्मीकि जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु किरातों के साथ रहने से वे ‘रत्नाकर’ नामक डाकू बन गए। एक बार उन्होंने देवर्षि नारद आदि सप्त-ऋषियों को लूटने के लिए उनका मार्ग रोका। उन ऋषियों ने वाल्मीकि से कहा कि जिन कुटुम्बियों के लिए तुम नित्य पाप-संचय करते हो, उनसे जाकर पूछो कि वे तुम्हारे इस पाप के सहभागी बनने के लिए तैयार हैं या नहीं!

इस पर वाल्मीकि ने नारद आदि सप्तऋषियों को वृक्ष से बांध दिया और अपने घर जाकर वही प्रश्न पूछा। वाल्मीकि के परिजनों ने उत्तर दिया कि परिवार का भरण-पोषण करना तुम्हारा कर्त्तव्य है और परिवार तुम्हारे पाप का भागीदार नहीं है। यह उत्तर सुनकर वाल्मीकि के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। नारद ने उन्हें राम-राम जपने का उपदेश दिया किंतु वाल्मीकि राम-राम नहीं बोल सके और ‘मरा-मरा’ जपने लगे।

इस प्रकार ‘मरा-मरा’ स्वतः ही ‘राम-राम’ हो गया। कई वर्षों तक निश्चल रहकर तपस्या करने से दीमकों ने उनके शरीर पर अपना घर अर्थात् ‘वाल्मीक’ बना लिया। उनकी घनघोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें दर्शन दिए और उन्हें ‘वाल्मीक’ से बाहर निकलने का निर्देश देते हुए कहा कि वाल्मीक में तपस्या करने के कारण तुम्हारा दूसरा जन्म हुआ है। आज से तुम वाल्मीकि नाम से जाने जाओगे। कुछ पुराणों के अनुसार इससे पूर्व उनका नाम ‘च्यवन’ था किंतु स्कन्द पुराण में ऋषि बनने से पूर्व इनका नाम ‘अग्निशर्मन’ दिया गया है।

ऋषि बन जाने के बाद वाल्मीकि ने आध्यात्मिक जीवन आरम्भ किया। बहुत से लोग उनके शिष्य बन गए। ऋषि भरद्वाज भी उनके शिष्य थे। एक बार वे भरद्वाज के साथ नदी में स्नान करके लौट रहे थे, तब मार्ग में उन्होंने एक व्याध को, अपने बाण से मैथुनासक्त क्रौंच पक्षियों का शिकार करते हुए देखा। उनमें से एक पक्षी मर गया और उसका साथी करुण क्रंदन करने लगा। वाल्मीकि का हृदय करुणा से द्रवित हो उठा और उनके मुख से एक छन्द फूट पड़ा-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमरू शास्वती समा।

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

अर्थात- हे निषाद! तुझे कभी भी शांति न मिले, क्योंकि तूने इस क्रौंच के जोड़े में से एक की, जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली।

 मुख से अकस्मात निकले हुए शब्दों को एक श्लोक का रूप प्राप्त होते देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु क्रोध में निषाद को इतना बड़ा शाप देने का उन्हें दुःख भी हुआ। तभी परमपिता ब्रह्मा प्रकट हुए और कहा- ‘पछताने का कोई कारण नहीं है। यह श्लोक तुम्हारी कीर्ति का कारण बनेगा। इसी छन्द में तुम राम के चरित्र की रचना करो।’ ब्रह्माजी के आदेशानुसार वाल्मीकि ने चौबीस हजार श्लोकों से युक्त ‘रामायण’ नामक महाकाव्य का सृजन किया।

वाल्मीकि रामायण में आए एक उल्लेख के अनुसार एक बार तप एवं स्वाध्याय में मग्न एवं भाषण-कुशल नारद से वाल्मीकि ने प्रश्न किया कि इस संसार में ऐसा कौन महापुरुष है जो आचार-विचार एवं पराक्रम में आदर्श माना जा सकता है? नारद ने उन्हें रामकथा का सार सुनाया, वाल्मीकि ने उसी कथा को श्लोकबद्ध करके रामायण की रचना की। इस वृत्तान्त से प्रतीत होता है कि उस काल में श्रीराम के जीवन से सम्बन्धित कुछ कथाएं प्रचलित थीं, वाल्मीकि ने उन्हीं को आधार बनारक छन्देबद्ध महाकाव्य की रचना की।

रामायण में आए एक उल्लेख के अनुसार श्रीराम द्वारा अपनी पत्नी सीता का त्याग करने पर महर्षि वाल्मीकि ने ही गर्भवती सीता को अपने आश्रम में आश्रय दिया। वाल्मीकि के आश्रम में सीता के दो जुडवां पुत्र हुए। महर्षि ने ही उन बालकों के नाम ‘कुश’ एवं ‘लव’ रखे। सीता के दोनों पुत्र वाल्मीकि के आश्रम में पलकर बड़े हुए।

वाल्मीकि ने ही लव और कुश के बड़े होने पर उन्हें स्वयं के द्वारा रचित रामायण का सस्वर पाठ करना सिखाया। लव और कुश स्थान-स्थान पर जाकर रामायण का गायन करने लगे। जिस समय श्रीराम अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे, तब कुश एवं लव ने यज्ञ के घोड़े को पकड़ लिया और वे अयोध्या पहुँचे। वहाँ भी उन्होंने रामायण का गायन किया। उनके गायन से श्रीराम मन्त्रमुग्ध हो गए और राम को ज्ञात हुआ कि ये ऋषिकुमार नहीं अपितु श्रीमराम और सीता के पुत्र हैं। श्रीराम ने सीता को अपने पास बुलवा लिया।

वाल्मीकि स्वयं सीता के साथ राम-सभा में उपस्थित हुए और उन्होंने सीता के सतीत्व की साक्षी दी। उन्होंने अपने सहस्र वर्षों के तप एवं सत्यप्रतिज्ञा को साक्षी बनाकर श्रीराम से सीता को स्वीकार करने की प्रार्थना की। वाल्मीकि के कहने पर ही देवी सीता ने पतिव्रत धर्म की शपथ लेकर भूमि में प्रवेश किया। महर्षि वाल्मीकि के सम्बन्ध में केवल यही वृत्तान्त प्राप्त होता है।

रामायण का वर्तमान रूप

रामायण के वर्तमान स्वरूप में बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड एवं उत्तरकाण्ड नामक सात अध्याय हैं तथा 24,000 श्लोक हैं। विद्वानों की मान्यता है कि मूल रामायण में अयोध्याकाण्ड से लेकर लंकाकाण्ड तक केवल पांच काण्ड ही थे, बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड बाद में जोड़े गए।

बालकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड की रचना-शैली अन्य अध्यायों से भिन्न है तथा इन अध्यायों के बहुत से कथन अन्य पांच अध्यायों से मेल भी नहीं खाते। वाल्मीकि ने पांच अध्यायों वाले मूल रामायण ग्रन्थ में राम को उनके युग का महान् पुरुष माना है और उसी रूप में उनका चरित्र चित्रण किया है किन्तु बालकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड में राम को विष्णु के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि ये दोनों काण्ड बाद के युग के हैं।

पाठ की दृष्टि से वाल्मीकि रामायण के चार प्रामाणिक संस्करण उलपब्ध है- उदिच्य पाठ, दक्षिणात्य पाठ, गौड़ीय पाठ और पश्चिमोत्तरीय पाठ। वर्तमान में तीन लेखकों की अत्यंत प्रसिद्ध रामायण उपलब्ध हैं- वाल्मीकि रामायण, वेदव्यास कृत अध्यात्म रामायण और तुलसीदास कृत रामचरित मानस। इन तीनों की मूल कथा समान है किंतु कवियों ने तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक धारणाएं अपने-अपने ढंग से वर्णित की हैं। इस कारण तीनों ग्रंथों के पात्रों के चरित्र-चित्रण में परिवर्तन हो गया है। महर्षि वाल्मीकि के राम एक महापुरुष हैं जिनमें मानवीय दृढ़ताएं एवं दुर्बलताएं हैं किन्तु वेदव्यास एवं तुलसीदास के राम घट-घटवासी एवं सर्वशक्तिमान विष्णु के अवतार हैं। वे पतित-पावन एवं मोक्षदायक हैं।

रामायण की कथा

रामायण की कथा संक्षेप में इस प्रकार से है- अयोध्या के ईक्ष्वाकुवंशी राजा दशरथ की तीन रानियां- कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी थीं। उनके चार पुत्र- राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हुए। राम का विवाह विदेह के राजा जनक की पुत्री सीता के साथ हुआ। वृद्धावस्था में दशरथ, अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को राज्य देकर संसार से निवृत्त होना चाहते थे किंतु रानी कैकेयी ने राजा दशरथ से दो वर मांगे- अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य और कौशल्या-पुत्र राम को चौदह वर्ष का बनवास।

राम ने अपनी पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वन-गमन किया और चित्रकूट में रहने लगे। राजा दशरथ की, पुत्र-वियोग में मृत्यु हो गयी। कैकेयी के पुत्र भरत ने राज्य पर बड़े भाई राम का अधिकार माना और वे राम-लक्ष्मण एवं सीता को वापस लाने के लिए वन गए।

राम अपने पिता के वचनों का पालन करने के लिए चौदह वर्ष वन में व्यतीत करने के निश्चय पर अडिग रहे। तब राजकुमार भरत श्रीराम की चरण-पादुकाएं लेकर अयोध्या लौट गए। राम, लक्ष्मण और सीता, चित्रकूट छोड़कर गोदावरी नदी के तट पर चले गए तथा वहाँ पंचवटी नामक स्थान पर पर्णकुटी बनाकर रहने लगे।

लंका का राजा रावण, राम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में सीता का अपहरण करके लंका ले गया। राम ने किष्किन्धा के राजा सुग्रीव, उनके सेनानायक हनुमान एवं उनकी सेना की सहायता से रावण पर आक्रमण किया तथा उसे पराजित करके सीता को वापस प्राप्त किया। इस कार्य में रावण के छोटे भाई विभीषण ने राम की सहायता की। राम, लक्ष्मण और सीता चौदह वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर अयोध्या लौट आए जहाँ राम का राज्याभिषेक किया गया।

रावण के यहाँ रहने के कारण कुछ अयोध्यावासी, देवी सीता की पवित्रता पर संदेह करते हुए राजा रामचंद्र की आलोचना करने लगे। अतः राम ने गर्भवती सीता का त्याग कर दिया। देवी सीता महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहने लगीं जहाँ उन्होंने कुश एवं लव नामक जुड़वां पुत्रों को जन्म दिया। वाल्मीकि ने उन्हें स्वयं द्वारा रचित रामायण सुनाई तथा उन्हें रामायण के गायन का निर्देश दिया।

जब राम ने अश्वमेध यज्ञ किया तब कुश और लव ने यज्ञ का घोड़ा पकड़ लिया तथा वे अयोध्या पहुँचे। कुश और लव ने राम के समक्ष रामायण का गायन किया। राम को ज्ञात हुआ कि वे देवी सीता एवं श्रीराम के ही पुत्र हैं तो राम ने सीता को अयोध्या बुलवाया। वाल्मीकि सीता को लेकर अयोध्या पहुँचे, जहाँ वाल्मीकि के कहने पर देवी सीता ने पतिव्रत धर्म की शपथ ली तथा भूमि में प्रवेश किया।

आर्य-संस्कृति का प्रतिनिधि ग्रन्थ

रामायण प्राचीन आर्यों की उच्च आदर्श युक्त संस्कृति की संवाहक है। रामकथा के माध्यम से वाल्मीकि ने आर्यों के संघर्षमय जीवन, त्याग, वचन पालन एवं सामाजिक मर्यादा-पालन के लिए प्राण तक त्यागने की परम्पराओं का वर्णन किया है। आर्यों के साथ-साथ इस ग्रन्थ में वानर संस्कृति एवं राक्षस संस्कृति की परम्पराओं का भी वर्णन किया गया है।

वानर एवं राक्षस दोनों ही अनार्य संस्कृतियां थीं किंतु इन दोनों में बहुत अंतर था। वानर जाति आर्यों की मित्र थी जबकि राक्षस जाति आर्यों की शत्रु थी। वाल्मीकि ने आर्य संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को, वानर संस्कृति के प्रतीकों के रूप में सुग्रीव, बाली एवं हनुमान को तथा राक्षस संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में रावण को प्रस्तुत किया गया है।

राम उच्च सामाजिक मर्यादाओं के पालन के पक्षधर हैं तथा निजी स्वार्थों की अपेक्षा परिवार एवं समाज में नैतिकता, सत्य, न्याय और त्याग का आदर्श प्रस्तुत करना चाहते हैं किंतु राक्षस-राज रावण अनीति, अन्याय एवं अत्याचार के माध्यम से विजय प्राप्त करना चाहता है। उसके लिए पारिवारिक सम्बन्ध, सामाजिक मर्यादाएं एवं नैतिकता कुछ भी मूल्य नहीं रखती है।

राम-रावण का युद्ध वस्तुतः आर्य और अनार्य संस्कृतियों के संघर्ष की गाथा है जिसमें सत्य की असत्य पर, न्याय की अन्याय पर तथा नैतिकता की अनैतिकता पर विजय होती है।

रामायण में आर्य पारिवारिक जीवन के उच्चतम आदर्शों का निरूपण हुआ है। राम अपने सम्पूर्ण जीवन में स्वयं को आदर्श पुत्र, आदर्श भ्राता, आदर्श पति, आदर्श मित्र एवं आदर्श राजा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनका जीवन-चरिर्त्र  आज भी भारतीय संस्कृति का आदर्श माना जाता है। राम, आर्य जीवन के उच्च आदर्श के प्रतीक हैं।

वे आदर्श पुत्र होने के कारण, पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके, चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करते हैं, आदर्श भाई होने के कारण वे सहर्ष अपने भाई भरत को राज्य देना स्वीकार करते हैं। राजकुमार भरत भी आदर्श भाई का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं तथा ज्येष्ठ भाई राम के होते हुए राजपद स्वीकार नहीं करते। देवी सीता आदर्श पत्नी का कर्त्तव्य निभाती हैं और राजमहलों का सुख त्यागकर अपने पति राम के साथ वन-गमन करती हैं। लक्ष्मण भी भ्रातृत्व भावना का उच्च आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे अपने पिता का राज्य, अपना परिवार और महलों के सुख छोड़कर वनवासी भाई के साथ वन के कष्टों को सहर्ष स्वीकार करते हैं।

आदर्श राजा होने के कारण ही राम ने प्रजा द्वारा की जा रही आलोचना को स्वीकार किया और अपनी प्राणप्रिय सीता का त्याग किया किन्तु आदर्श पति होने के कारण उन्होंने किसी अन्य स्त्री से विवाह नहीं किया और एक-पत्नीव्रत का पालन किया जो उस युग में असाधारण बात थी। देवी सीता का चरित्र भारतीय नारीत्व का साक्षात् प्रतीक है।

भारतीय स्त्रियों के दैनिक जीवन में सीता की पवित्रता और पतिव्रत धर्म आज भी आदर्श का प्रतिमान है। पतिव्रत एवं पत्नीव्रत का जैसा सुन्दर आदर्श राम-सीता के दाम्पत्य जीवन से मिलता है, वह अन्यत्र मिलना दुष्कर है। दशरथ ने पिता का, भरत और लक्ष्मण ने भाई का, कौशल्या और सुमित्रा ने माता का, सुग्रीव ने मित्र का तथा हनुमान ने सेवक का जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वह आज भी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत है।

रामायणकार वाल्मीकि ने यथार्थ जीवन के सम्बन्ध में दृष्टि प्रस्तुत की है न कि काल्पनिक आदर्श के सम्बन्ध में। वालमीकि ने राम के एक पत्नीव्रत की असाधारणता को कहीं गौरव प्रदान नहीं किया। जबकि वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग के अनुसार राजा दशरथ की तीन सौ पचास रानियां बताई गई हैं। स्वयं दशरथ के पुत्र इस बात का उपालम्भ देते हैं कि राजा दशरथ काम-पाश में बंधे हुए कैकयी के वशवर्ती थे। राम का अपनी पत्नी सीता के प्रति अनुराग कम नहीं था।

वे शरद् ऋतु में स्वयं को अकेला जानकर लक्ष्मण से कहते हैं- ‘सीता को न देखकर शोक से अभितप्त शरद् के चार मास मुझे सौ वर्षों जैसे जान पड़ते हैं। मैं प्रिया के बिना दुःखी हूँ।’ सीता का अपहरण हो जाने के बाद विलाप करते हुए क्रुद्ध राम लक्ष्मण से कहते हैं- ‘यदि सीता मुझे सकुशल वापिस नहीं मिली तो मैं तीनों लोकों को नष्ट कर दूँगा। तुम इस समय मेरे पराक्रम से जगत् को आकुल और मर्यादाहीन हुआ देखोगे।’  सीता के लिए राम का जगत् को नष्ट करने का संकल्प अपनी पत्नी के प्रति समर्पण भाव को व्यक्त करता है।

एक स्थान पर राम पुनः लक्ष्मण से कहते हैं- ‘लोगों की ऐसी धारणा है कि समय बीतने से शोक दूर हो जाता है किन्तु प्राणप्रिय सीता को न देखकर मेरा शोक तो उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। मुझे इस बात का दुःख नहीं कि सीता दूर है और उसका हरण कर लिया गया है, मुझे दुःख इस बात का है कि उसका यौवन बीता जा रहा है।’

इससे स्पष्ट है कि वाल्मीकि द्वारा प्रस्तुत भारतीय संस्कृति काल्पनिक एवं खोखले आदर्शवाद पर नहीं अपितु जीवन के कटु यथार्थ को भी पूरी तरह समझती है।

वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य के नायक राम को महापुरुष ही रहने दिया, उन्हें अवतार घोषित नहीं किया जबकि सोलहवीं सदी के कवि तुलसीदास ने राम को विष्णु का अवतार बनाकर शील, सौन्दर्य एवं शक्ति का चरम रूप प्रस्तुत किया। वाल्मीकि के राम आर्य-संस्कृति के पूर्णतम प्रतिनिधि हैं। हजारों साल तक आर्य जाति राम के आदर्शों पर चलती रही। आज भी भारतीय समाज का सबसे बड़ा आदर्श राम ही हैं।

रामायण में धर्म एवं नैतिकता

रामायण का प्रधान लक्ष्य मनुष्य के चरित्र का वह आदर्श प्रस्तुत करना है जिससे मनुष्य देवत्व पर पहुँचता है। रामायण के अनुसार चरित्र ही धर्म है और चरित्रवान राम धर्म के मूर्तरूप हैं। यह चरित्र सत्यनिष्ठा, वचन पालन एवं शौर्य पर आधारित है। इस धर्म की कुँजी मन का संयम, इन्द्रियों पर अधिकार और कर्त्तव्यपालन की तत्परता है।

परिवार एवं समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करना, लोक-जीवन की मर्यादा की रक्षा करना और समाज की व्यवस्था को बनाए रखने में योगदान करना इसका महान् आचार है। यही वह धर्म-बन्धन है जो जीवन को उचित मार्ग पर ले जाता है। इस धर्म-बन्धन में बंधा हुआ मनुष्य स्वार्थ से परमार्थ को श्रेष्ठ समझते हुए लोक-कल्याण की साधना में लगा रहता है।

इसीलिए राम विमाता कैकेयी के कहने मात्र से राज्य पर अपने नैसर्गिक अधिकार को त्याग देते हैं। वाल्मीकि के राम युद्ध-भीरू नहीं हैं। वे प्रजाजनों को आश्वस्त करते हुए कहते हैं- ‘मैं अकेला ही सारी पृथ्वी को अपने बाणों से नष्ट करके अपना अभिषेक करा सकता हूँ किंतु मैं अधर्म से डरता हूँ, क्योंकि मैं धर्म के बन्धन से बंधा हुआ हूँ।’

अतः राम का संकल्प है कि वह लोभ, मोह, अज्ञान या किसी भी तामसी प्रवृत्ति से सत्य के सेतु को नहीं तोड़ेंगे। जीवन का अमूल्य कोष धर्म और सत्य है जिसके खो जाने से मनुष्य सर्वथा दरिद्र हो जाता है किन्तु इस कोष की वृद्धि से वह देवता बन जाता है। वाल्मीकि के राम ने किसी काल्पनिक मोक्ष के लिए धर्म का मार्ग अपनाने की बजाए मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर सन्तुलित समाज, व्यवस्थित राष्ट्र, मर्यादित आचार और संयत व्यवहार की आधारशिला पर धर्म का सुदृढ़ प्रसाद खड़ा किया है।

मनुष्य मानवीय-दुर्बलताओं से ग्रस्त होता है किंतु वाल्मीकि ने राम के जिन गुणों का उल्लेख किया है वे गुण एक साधारण व्यक्ति में नहीं हो सकते। राम में पिता के प्रति आज्ञाकारिता, छोटे भाइयों भरत एवं लक्ष्मण के प्रति वात्सल्य, गुरुओं के प्रति आदर, पत्नी के प्रति अनुराग, सुग्रीव एवं विभीषण के प्रति मित्रता, राज्य तथा ऐश्वर्य के प्रति अनासक्ति, रावण जैसे दुष्ट के विरुद्ध प्रति पराक्रम आदि गुण बताए हैं।

वाल्मीकि ने राम के भीतर सहृदयता, कोमलता, अनुकम्पा, शास्त्रज्ञान, सौम्यता तथा जितेन्द्रिय आदि गुणों को भी दर्शाया है। राम अपने जीवन में प्रत्येक स्थल पर आदर्शों की प्रतिष्ठा करते हुए दिखाई देते हैं। राम ने प्रजा और परिवारजनों के आग्रह को अस्वीकार करके अपने पिता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिए वन-गमन स्वीकार किया।

उनके इस आचरण में बड़प्पन दिखाने का भाव नहीं है अपितु नैतिकता की भव्यता है। राम भली-भांति जानते थे कि राजा का आचरण, प्रजा के लिए अनुकरणीय हो जाता है इसलिए राजा को जीवन के हर क्षण में प्रजाजन के समक्ष उच्च-आदर्श रखना चाहिए। जब जबालि ने राम से यह कहा कि माता, पिता, भाई आदि कोई किसी का नहीं होता, अतः राम को चाहिए कि वह लौटकर अयोध्या चला जाए और राज्य का भोग करे।

तब राम ने उत्तर दिया- ‘ऐसा करके मैं यथेष्टचारी कहलाऊँगा और प्रजा-जन भी मेरा ही अनुसरण करेंगे, क्योंकि प्रजा, राजा का अनुसरण करती है। देवताओं एवं ऋषियों ने सत्य को मान्यता दी है, सत्यवादी इस लोक और परलोक दोनों में शाश्वत कल्याण को प्राप्त होता है।’ इस प्रकार वाल्मीकि ने राम के माध्यम से धर्म एवं नैतिकता के मानदण्डों की स्थापना की है।

आदर्श स्त्री के रूप में सीता

जिस प्रकार वाल्मीकि के राम, भारतीय पुरुषों के आदर्श हैं उसी प्रकार देवी सीता, भारतीय नारियों की आदर्श हैं। वह पति-परायण, कर्त्तव्यनिष्ठ तथा विकट परिस्थितियों में भी पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली नारी हैं। जब राम को वन-गमन का आदेश होता है, तब जनक जैसे बड़े राजा की पुत्री और दशरथ जैसे बड़े राजा की पुत्रवधू होते हुए भी वे चौदह वर्ष की दीर्घ अवधि का वनवास स्वीकार करती हैं क्योंकि भारतीय नारी का आदर्श हर स्थिति में अपने पति का साथ निभाना है।

वनवास में सीता अपने देवर लक्ष्मण को पुत्रवत् स्नेह देती हैं। जब रावण पंचवटी से सीता का अपहरण करके लंका ले जाता है और उन्हें नाना प्रकार के भय दिखाकर अपनी पत्नी बनने को कहता है, तब भी सीता रावण को अपने पति के बल का परिचय देकर अपने सतीत्व की रक्षा करती हैं।

जब राम-रावण युद्ध में राम विजयी होते हैं तब सीता अपने सतीत्व को सिद्ध करने के लिए अग्नि परीक्षा देने को सहर्ष तत्पर हो जाती हैं। एक साधारण धोबी के कहने पर जब राम, सीता का त्याग कर देते हैं, तब भी वह अपने पति के प्रति किसी प्रकार का दुर्भाव मन में न लाकर वाल्मीकि आश्रम में जीवन व्यतीत करती हैं और अपने पुत्रों- कुश एवं लव का समुचित पालन-पोषण करके मातृत्व के कर्त्तव्य का निर्वाह करती हैं।

अन्त में अपने पति की मर्यादा की रक्षा करने के लिए, ताकि भविष्य में भी कोई व्यक्ति उनके पति पर अंगुली न उठा सके, सीता भूमि में प्रवेश करती हैं। इस प्रकार सीता का आचरण और उनका पातिव्रत्य आज भी भारतीय नारियों के लिए सबसे बड़ा आदर्श है।

रामायण का साहित्यिक महत्त्व

रामायण संस्कृत भाषा का ही नहीं अपितु विश्व की किसी भी भाषा का पहला महाकाव्य है। साहित्यिक दृष्टि से रामायण एक अनुपम ग्रंथ है। भाव, भाषा और कथा तीनों ही स्तर पर रामायण एक विलक्षण ग्रंथ है। इसमें संस्कृत भाषा के क्लिष्टमत और सरलतम छन्दों एवं अलंकारों का प्रयोग किया गया है। पूरे ग्रंथ में अलंकारों का चमत्कारपूर्ण-विन्यास तथा रसों का पूर्ण परिपाक मिलता है।

 रामायण की कथा में शृंगार, वीर, शान्त, रौद्र, वात्सल्य, प्रेम, करुणा, वीभत्स, भक्ति आदि समस्त रसों का यथास्थान प्रयोग किया गया है। पाठक की रुचि एवं उत्सुकता को बनाए रखने के लिए शृंगार, वीर तथा करुणा रसों के माध्यम से कथा को अत्यंत रोचक एवं ग्राह्य बनाया गया है।

अयोध्याकाण्ड में राम को वनवास का आदेश देते समय पिता दशरथ की मनोदशा, माता कौशल्या एवं सुमित्रा का भाव-विह्वल होकर मातृ-प्रेम का प्रदर्शन, सीता का पातिव्रत्य धर्म, लंका में सीता की मनोदशा, दुःख के क्षणों में भी राम का सौम्य चरित्र आदि विभिन्न भावों का मनोवैज्ञानिक ढंग से अत्यन्त सुन्दर चित्रण किया गया है।

साहित्यिक-सौन्दर्य की अनुभूति इस महाकाव्य की प्रमुख विशेषता है। ग्रंथ में प्राकृतिक सौन्दर्य के वर्णन के साथ-साथ नारी-सौन्दर्य का अनुपम वर्णन किया गया है। चित्रकूट, गंगा नदी, पम्पासरोवर, पंचवटी वन, दण्डक वन के मनोरम दृश्य तथा शरद् एवं वर्षा ऋतु के मनोहारी वर्णन के साथ ही बाली की पत्नी तारा के अनुपम सौन्दर्य का भी सुंदर वर्णन किया गया है।

 नारी-सौन्दर्य के अन्तर्गत वाल्मीकि ने लंका-काण्ड में हनुमान द्वारा लंका में सीता को खोजते समय जिन अनेक सुन्दर स्त्रियों को देखा उन स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों तथा चेष्टाओं का भी आकर्षक वर्णन किया गया है। सुन्दर-काण्ड में जब हनुमान लंका में पहुँच कर रावण के अन्तःपुर में प्रवेश करते हैं, तब महल की नारियों के सौन्दर्य का अनुपम वर्णन करते हुए वाल्मीकि ने लिखा है-

 ‘रति के परिश्रम से खिन्न रावण की सूक्ष्म कटि वाली स्त्रियां जहाँ-तहाँ खाली स्थानों में सो रही थीं। कोई सुन्दर वर्ण की नृत्य-कुशल नारी अपने लिटाए अंगों में नृत्य के विभ्रमों को प्रकट कर रही थी, कोई सर्वांग-सुन्दरी पटह नामक वाद्य यन्त्र को वैसे ही आलिंगित किए हुए थी जैसे कोई अपने प्रियतम का आलिंगन करती है। इसी प्रकार कोई कमल-लोचना वीणा का आलिंगन किए हुए थी। रावण की पत्नी मन्दोदरी मुक्ता-मणियों से युक्त आभूषणों से अलंकृत थी और अपनी शोभा से स्वयं भवन को सुन्दर बना रही थी। उसका गोरा बदन स्वर्ण की आभा की भांति प्रकाशवान था।’

रामायण में मानव की अन्तः-प्रकृति और मनोवृत्तियों का बड़ा स्वाभाविक चित्रण हुआ है। इन समस्त दृष्टियों से रामायण काव्य-कला का सुन्दर उदाहरण है। संस्कृत साहित्य एवं भारत की विभिन्न साहित्यिक कृतियों पर इसका प्रभाव है। संस्कृत के महाकवि कालीदास एवं भवभूति तथा लोकभाषा के कवि गोस्वामी तुलसीदास की कृतियां वाल्मीकि की रामायण से सर्वाधिक प्रभावित हुई हैं। निःसन्देह रामायण संस्कृत भाषा एवं भारतीय संस्कृति का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व एवं साहित्यिक जगत् का अनूठा ग्रंथ है।

रामायण का ऐतिहासिक महत्त्व

ऐतिहासिक तथ्यों की उपलब्धता की दृष्टि से भी रामायण का अत्यधिक महत्त्व है। डॉ. याकोबी के अनुसार, विषय-वर्णन की दृष्टि से वाल्मीकि रामायण दो भागों में विभाजित की जा सकती है- (1.) बालकाण्ड और अयोध्याकाण्ड में वर्णित अयोध्या की घटनाएं जिनका केन्द्र बिन्दु इक्ष्वाकुवंशी राजा दशरथ हैं, (2.) दण्डकारण्य एवं रावण-वध से सम्बन्धित घटनाएं जिनका केन्द्र बिन्दु रावण है।

इनमें से अयोध्या की घटनाएं ऐतिहासिक हैं, जिनका सम्बन्ध निर्वासित इक्ष्वाकुवंशीय राजकुमार से है। रावण-वध से सम्बन्धित घटनाओं का मूल उद्गम वेदों में वर्णित देवताओं की कथाओं में देखा जा सकता है। अतः डॉ. याकोबी के अनुसार, रामकथा से सम्बन्धित इन सारे आख्यान काव्यों की रचना इक्ष्वाकु वंश के सूतों ने सर्वप्रथम की, जिनमें रावण और हनुमान से सम्बन्धित प्रचलित आख्यानों को मिलाकर वाल्मीकि ने रामायण की रचना की।

रामायण में वर्णित रामकथा, आर्यों द्वारा की गई दक्षिण विजय का प्रथम वर्णन है। दक्षिण भारत के प्राचीनतम शिलालेखों में उत्तरी भारत के इक्ष्वाकुवंशीय राजा रामचन्द्र का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि राम के दक्षिण प्रवेश के पश्चात् दक्षिण भारत में आर्यों की सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव फैला। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महर्षि वाल्मीकि ने अपनी अद्भुत प्रतिभा द्वारा विविध सूत्रों को समेट कर एक उत्कृष्ट मौलिक काव्य की सृष्टि की।

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