Saturday, November 2, 2024
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अध्याय – 13 – महाकाव्य काल में भारतीय संस्कृति तथा रामायण एवं महाभारत का प्रभाव (ब)

महाभारत का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव

महाभारत युद्ध का काल

नृवंश विज्ञानी, जीव विज्ञानी, पुरातत्व विज्ञानी तथा भौतिक विज्ञानी मानते हैं कि धरती पर वर्तमान मानव अर्थात् होमो सेपियन सेपियन की शुरुआत आज से लगभग 1 लाख 20 हजार साल पहले हुई एवं उसकी उन्नत पीढ़ी ‘क्रोमैगनन मैन’ की शुरुआत आज से लगभग 40 हजार साल पहले हुई।

पश्चिम एशिया से मिले प्रमाणों के अनुसार आज से लगभग 10,000 साल पहले आदमी ने कृषि और पशु पालन करना आरंभ किया। भारत में भी खेती आरम्भ होने का काल यही माना जाता है। अतः महाभारत का युद्ध इस काल के बाद का ही है। क्योंकि महाभारत के युद्ध का समय मनुष्य के कृषि आरम्भ करने से काफी बाद का है।

भारत में आदमी द्वारा हाथों से मिट्टी के बर्तन बनाने के प्राचीनतम अवशेष आज से लगभग 6600 वर्ष पुराने मिले हैं। अतः माना जा सकता है कि महाभारत का युद्ध इस तिथि के बाद ही हुआ क्योंकि महाभारत काल में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला काफी विकसित हो चुकी थी।

हस्तिनापुर से हुई खुदाई में पेंटेड ग्रे रंग के मिट्टी के बर्तन तथा ताम्बे के तीर, तलवारें आदि मिले हैं। इनकी अवधि ई.पू. 3138 से लेकर ई.पू. 3000 अर्थात् आज से लगभग 5156 वर्ष से लेकर 5018 वर्ष पुरानी है। कुरुक्षेत्र में हुई खुदाई से प्राप्त ताम्बे के शस्त्रों की अवधि भी यही है।

सी. वी. वैद्य एवं करन्दीकर के अनुसार महाभारत के युद्ध का काल ई.पू. 3102 है। ताकेश्वर भट्टाचार्य ने इसका काल ई.पू. 1432 माना है। अन्य साहित्यिक, पौराणिक स्रोतों के आधार पर भी भारत में मान्यता है कि महभारत का युद्ध ईस्वी पूर्व 3102 में अर्थात् आज से लगभग 5120 वर्ष पूर्व हुआ।

महाभारत ग्रंथ का रचना काल

महाभारत की रचना का मूल समय ई.पू.चौथी शताब्दी माना जाता है। इसका वर्तमान स्वरूप चौथी शताब्दी ईस्वी (गुप्तकाल) में सामने आया। मूल महाभारत में चौबीस हजार श्लोक थे जिससे इसे ‘चतुर्विंशति साहस्री संहिता’ अथवा ‘साहस्री संहिता’ कहा जाता था। बाद में इसके श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख हो गई जिसके कारण इसे ‘शतसाहस्री संहिता’ कहा गया। पाणिनि के अष्टाध्यायी में वेदव्यास या महाभारत का उल्लेख नहीं मिलता, किंतु पतंजलि के व्याकरण-महाभाष्य में महाभारत की कथा का उल्लेख अनेक बार हुआ है।

इससे प्रतीत होता है कि महाभारत का निर्माण पाणिनि के बाद में एवं पतंजलि से पहले हुआ होगा। रामायण में दिए गए भौगोलिक विवरण, महाभारत से प्राचीनतर हैं। महाभारत में महर्षि वाल्मीकि तथा रामायण दोनों का उल्लेख है। महाभारत में संक्षिप्त रामकथा भी दी गई है जिसे अलग से ‘अध्यात्म रामायण’ कहा जाता है। महाभारत का एक हिस्सा ‘हरिवंश पुराण’ कहलाता है। इसमें भी रामायण के नाट्य प्रदर्शन का विवरण है। इनसे स्पष्ट है कि महाभारत की रचना, रामायण की रचना के बाद हुई।

भाषा की दृष्टि से महाभारत की भाषा कई स्थानों पर ‘ब्राह्मणों’ और ‘उपनिषदों’ की भाषा से साम्य रखती है। इससे प्रतीत होता है कि महाभारत के कुछ अंश उत्तर-वैदिक युग के बाद के है। महाभारत के अनेक स्थलों पर यूनानी, शक,पह्लव आदि विदेशी जातियों का उल्लेख है। ये जातियाँ  ई.पू. पहली और दूसरी शताब्दी में भारत में आयीं।

मेक्डॉनल्ड ने इसे ई.पू. 500 और डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने इसे ई.पू. 200 की रचना माना है। आर.जी. भण्डारकर का मत है कि ई.पू. 500 तक महाभारत एक प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ बन चुका था। हैप्किन्स का मत है कि महाभारत ग्रंथ को वर्तमान स्वरूप में आने के लिए पांच चरणों से गुजरना पड़ा-

(1.) भारतवंश के गान, जो ई.पू.400 तक बन चुके थे, (मौर्यकाल से पूर्व)

(2.) पाण्डवों का वीरकाव्य जो ई.पू.400 और ई.पू.200 के बीच में लिखा गया, (मौर्यकाल)

(3.) श्रीकृष्ण को भगवान मानने वाले भागवत धर्म का ग्रन्थ जिसकी रचना ई.पू.200 से ई.200 के मध्य हुई, (शुंगकाल)

(4.) कुछ बाद के पर्व और आरम्भिक पर्व की प्रस्तावनाएं जो ई.200 से ई.400 के बीच किसी समय जोड़ी गई (गुप्तकाल)

(5.) बाद के प्रक्षेप और सम्पूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन जो ई.400 के बाद हुआ। (गुप्तकाल)

ई.442 का एक गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें एक लाख श्लोक वाले महाभारत का उल्लेख है। अतः इस समय तक महाभारत का वर्तमान रूप निश्चित रूप से तैयार हो चुका था।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि महाभारत की मूल रचना र्ई.पू. चार सौ के आसपास अर्थात् मौर्यकाल में हुई तथा इसका वर्तमान स्वरूप चौथी शताब्दी ईस्वी अर्थात् गुप्तकाल में सामने आया।

वेदव्यास का परिचय

ताम्रयुगीन भारतीय सभ्यता में हुए एक युद्ध की कथा के माध्यम से प्राचीन आर्य संस्कृति के वैभव को समग्र रूप से प्रस्तुत करने वाले ‘महाभारत’ नामक महाकाव्य के रचियता वेद व्यास हैं। उन्हें वैदिक संहिताओं को लिपिबद्ध करने, वैदिक शाखाओं का प्रवर्तन करने, ब्रह्मसूत्रों का प्रणयन करने, महाभारत ग्रन्थ की रचना करने तथा वैदिक संस्कृति को पुनर्जीवित करने वाला तत्त्वज्ञानी माना जाता है।

वेदव्यास को सर्वज्ञ, सत्यवादी, सांख्य, योग, धर्म आदि शास्त्रों का ज्ञाता एवं दिव्य दृष्टि वाला महापुरुष माना जाता है। उन्हें भगवान कहकर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की महानता का ज्ञान कराया जाता है।

वेदव्यास का मूल नाम कृष्ण द्वैपायन था। उनके पिता महर्षि पाराशर थे। महाभारत के आदि पर्व में आए उल्लेख के अनुसार एक बार महर्षि पाराशर तीर्थयात्रा करते हुए यमुना नदी के किनारे पहुँचे। उस समय धीवरों के राजा दाशराज की कन्या सत्यवती नाव खे रही थी। महर्षि पाराशर उस नाव में बैठे। नाव में महर्षि, सत्यवती के सौन्दर्य पर मोहित हो गए और उन्होंने सत्यवती के समक्ष रति-इच्छा प्रकट की।

सत्यवती धीवर की कन्या थी इसलिए उसकी देह से सदैव मछली की दुर्गन्ध निकला करती थी, उसे मत्स्यगंधा भी कहते थे। सत्यवती ने महर्षि पाराशर से कहा कि नदी के दोनों तरफ महर्षिगण स्नान कर रहे हैं, इसलिए यह कैसे सम्भव है! तब पाराशर ने अपनी तपस्या के प्रभाव से चारों ओर कोहरा पैदा कर दिया। उस कोहरे में पाराशर ने रति-इच्छा पूरी की, फिर सत्यवती को वरदान दिया कि पुत्र को जन्म देने के बाद वह फिर से कन्या बन जोयगी और उसके शरीर से दुर्गन्ध की बजाए सुगन्ध आया करेगी।

महर्षि पाराशर के वरदान से सत्यवती की कोख से यमुना के एक द्वीप पर एक पुत्र पैदा हुआ। घने अन्धकार में वीर्याधान करने के कारण यह पुत्र एकदम कृष्ण-वर्ण का उत्पन्न हुआ, इसलिए उसका नाम कृष्ण पड़ा और चूँकि वह यमुना के एक द्वीप पर उत्पन्न हुआ इसलिए द्वैपायन कहलाया।

पुत्र को जन्म देने के बाद सत्यवती पुनः कन्या बन गई और उसकी देह से सुगंध निकलने लगी जो एक योजन अर्थात् आठ मील दूर से भी अनुभव की जा सकती थी। इस कारण सत्यवती का नाम योजनगंधा भी पड़ गया। इसी सत्यवती का विवाह कुरुवंशी राजा शान्तनु से हुआ था जिनसे चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य नामक पुत्र उत्पन्न हुए और उसी से कुरुवंश आगे बढ़ा।

 सामविधान ब्राह्मण ग्रन्थ के अनुसार वेदव्यास विष्वक्सेन नामक आचार्य के शिष्य थे। पौराणिक साहित्य में उन्हें भगवान का अवतार कहा गया है। वैशाख पूर्णिमा को उनकी जयन्ती मनाई जाती है। आषाढ़ पूर्णिमा को उन्हीं के नाम पर ‘व्यास पूर्णिमा’ कहा जाता है।

पुराणों के अनुसार कृष्ण द्वैपायन ने चतुष्पाद वैदिक ग्रन्थ (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद) का विभाजन कर उसकी तीन स्वतन्त्र संहिताएं (ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद) बनायीं, इस कारण इन्हें वेद-व्यास कहा गया। घृताची नामक अप्सरा से इन्हें शुकदेव  नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। घृताची को अरणी भी कहा जाता है।

कुरुवंशी राजा विचित्रवीर्य के रुग्ण होने के कारण वेदव्यास ने माता सत्यवती के निर्देश से विचित्रवीर्य की रानियों अम्बिका एवं अम्बालिका तथा एक दासी से नियोग किया जिससे क्रमशः धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर नामक नियोगज पुत्र उत्पन्न हुए। शांतनु, विचित्रवीर्य, धृतराष्ट्र, पाण्डु, अभिमन्यु, परीक्षित, जनमेजय तथा शतानीक नामक आठ पीढ़ी के कुरूवंशी राजा वेदव्यास के समकालीन थे।

प्राचीन साहित्य में वेदव्यास को चिरंजीव कहा गया है। वेदव्यास ने अत्यन्त कठोर तपस्या करके बहुत सी सिद्धियां प्राप्त कीं। वे दूर-श्रवण, दूर-दर्शन आदि अनेक विद्याओं में प्रवीण थे। द्रौपदी स्वयंवर तथा इन्द्रप्रस्थ के राजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में महर्षि वेदव्यास स्वयं उपस्थित थे।

पाण्डवों के वनवासकाल में वे पाण्डवों को धीरज बंधाते रहते थे। महाभारत-युद्ध के समय वेदव्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की ताकि संजय धृतराष्ट्र को युद्ध का वर्णन सुना सके। पाण्डवों की विजय के बाद वेदव्यास ने युधिष्ठिर को राजधर्म और राजदण्ड का उपदेश दिया।

महाभारत की रचना प्रक्रिया एवं वर्तमान स्वरूप

महाभारत की रचना मूलतः वेदव्यास ने की। शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक एवं छान्दोग्य उपनिषद् में ‘इतिहास पुराण’ का उल्लेख मिलता है किन्तु इन ग्रन्थों में उल्लिखित ‘इतिहास पुराण’ स्वतन्त्र ग्रन्थ न हेाकर, आख्यान एवं उपाख्यान के रूप में ब्राह्मण ग्रन्थों में सम्मिलित किए गए थे। ये आख्यान अत्यन्त छोटे होते थे। इस कारण उनका विभाजन ‘पर्व’ एवं ‘उपपर्व’ आदि में नहीं किया जाता था।

वेदव्यास ने ब्राह्मण ग्रन्थों में निर्दिष्ट ‘इतिहास पुराण’ के आख्यानों को पर्व एवं उपपर्व आदि से युक्त साहित्य में ढाल दिया। इस प्रकार उनकी कृति एक नवीन साहित्यिक ग्रंथ बन गई। वर्तमान समय में महाभारत में 18 पर्व और एक लाख श्लोक हैं। आकार की विशालता तथा विषय-वस्तु की विविधता के कारण यह विश्व का सबसे बड़ा ग्रन्थ और सबसे बड़ा महाकाव्य है किंतु वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत इतना बड़ा नहीं था।

महाभारत ग्रन्थ के विकास के सम्बन्ध में तीन अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। वेदव्यास ने वैशम्पायन आदि अपने पांच शिष्यों को महाभारत सिखाया। वैशम्पायन ने सर्पसत्र के समय जनमेजय के सामने महाभारत की कथा सुनाई। वैशम्पायन का यह आख्यान प्रश्नोत्तर के रूप में है। इस प्रकार वेदव्यास के मूल महाभारत में वैशम्पायन द्वारा परिवर्द्धन हुआ। इसके बाद शौनक ऋषि ने द्वादशवर्षीय यज्ञ के अन्त में नैमिषारण्य में महाभारत की कथा सुनाई।

वेदव्यास ने महाभारत को ‘जय’ नाम दिया। जब वैशम्पायन ने जनमेजय को इसकी कथा सुनाई तब इसके 24,000 श्लोक थे और इसका नाम ‘भारत’ पड़ गया। शौनक ऋषि ने इस कथा में परिवर्द्धन करके इसका नाम ‘महाभारत’ कर दिया। आश्वलायन गृह्यसूत्र के समय महाभारत नाम प्रचलित था। इस समय तक इसके श्लोकों की संख्या एक लाख हो गयी जिसके कारण इसे ‘शतसाहस्री संहिता’ कहा गया।

वर्तमान समय में अध्यात्म रामायण, भगवद्गीता, विष्णु सहस्रनाम तथा हरिवंश पुराण महाभारत के भीतर समाहित हैं। महाभारत में प्राचीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियों की जानकारी मिलती है। यह ग्रंथ धर्म, अर्थ, नीति, दर्शन, तत्त्वज्ञान एवं मोक्ष आदि सिद्धांतों का ज्ञान कराने वाले अपूर्व ग्रन्थ है।

महाभारत की कथा-वस्तु

हस्तिनापुर के कुरुवंशी राजा शान्तनु के बड़े पुत्र का नाम देवव्रत था। जब शान्तनु ने धीवर-कन्या सत्यवती से विवाह किया तब सत्यवती द्वारा शर्त रखे जाने पर कि मेरी कोख से जन्मा पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा होगा, देवव्रत ने आजीवन ब्रह्मचारी होने की शपथ ली ताकि देवव्रत या उसके वंशज कभी राज्य पर दावा नहीं करें।

इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत को भीष्म कहा जाता था। राजा शांतनु को रानी सत्यवती से चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य नामक पुत्र हुए। इनमें से चित्रांगद राजा बना किंतु उसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गई तो छोटा पुत्र विचित्रवीर्य राज्य का अधिकारी हुआ। विचित्रवीर्य संतान उत्पन्न करने में अक्षम थे इसलिए माता सत्यवती के आदेश पर वेदव्यास ने विचित्रवीर्य की दो रानियों अम्बा एवं अम्बिका से तथा उसकी एक दासी से नियोग किया जिससे क्रमशः धृतराष्ट्र, पाण्डु एवं विदुर नामक तीन पुत्र हुए।

इनमें से बड़े पुत्र धृतराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन थे और पाण्डु जन्म से ही पाण्डु-रोग (पीलिया) से ग्रस्त थे। विदुर दासी-पुत्र थे। बड़े पुत्र धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने के कारण छोटे पुत्र पाण्डु को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, गांधार देश की राजकुमारी थी। उसे एक सौ पुत्र हुए जो कौरव कहलाते थे।

महाराज पाण्डु की दो रानियां थीं- कुंती एवं माद्री। एक बार महाराज पाण्डु ने शिकार खेलते हुए भ्रमवश एक ऋषि को मार डाला। ऋषि ने महाराज पाण्डु को भयानक शाप दे दिया। महाराज पाण्डु शाप-मुक्त होने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिए अपनी दोनों रानियों के साथ वन को चले गए। महाराज पाण्डु के लौट आने तक के लिए धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया। बनवास काल में कुन्ती ने युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को तथा माद्री ने नकुल एवं सहदेव को जन्म दिया। पाण्डु पुत्र होने के कारण ये पांचों राजकुमार पाण्डव कहलाए।

वनवास काल में ही महाराज पाण्डु की मृत्यु हो गई और छोटी रानी माद्री सती हो गई। महारानी कुंती, स्वर्गीय महाराज पाण्डु के पांचों राजकुमारों को लेकर हस्तिनापुर लौट आई। गुरु द्रोणाचार्य ने एक सौ कौरव राजकुमारों एवं पांच पाण्डव राजकुमारों को शिक्षा दी।

हस्तिनापुर का भावी राजा कौन होगा, इस प्रश्न पर कौरव एवं पाण्डव एक दूसरे के शत्रु हो गए। तीसरे पाण्डव अर्जुन ने एक स्वयंवर को जीतकर पांचाल देश की राजकुमारी द्रोपदी से विवाह किया किन्तु माता कुन्ती द्वारा अनजाने में कहे गए एक कथन के कारण शेष चारों पाण्डवों का भी द्रोपदी से विवाह कर दिया गया।

भीष्म पितामह की मध्यस्थता में पाण्डवों ने अपने पिता के राज्य का कुछ भाग प्राप्त कर इन्द्रप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाया। पाण्डवों ने दिग्विजय का आयोजन करके अपने राज्य को काफी विस्तृत कर लिया और ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर चक्रवर्ती सम्राट हो गया। उसने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया जिसमें देश भर के राजा उपस्थित हुए।

ज्येष्ठ कौरव दुर्योधन पाण्डवों का इतना उत्थान सहन नहीं कर सका। उसने पाण्डवों का सर्वनाश करने के उद्देश्य से उन्हें द्यूत-क्रीड़ा के लिए आमंत्रित किया। उस काल में द्यूतक्रीड़ा के निमंत्रण को युद्ध के निमत्रण की तरह समझा जाता था तथा कोई भी क्षत्रिय इसे अस्वीकार नहीं कर सकता था।

दुर्योधन तथा उसके मामा शकुनि की धूर्तता के कारण राजा युधिष्ठिर जुए में अपना राज्य तथा अपनी महारानी द्रोपदी को खो बैठे। श्रीकृष्ण के धिक्कारने पर धृतराष्ट्र ने द्रोपदी पुनः पाण्डवों को लौटा दी तथा पांचों पाण्डवों को अपनी पत्नी द्रोपदी सहित तेरह वर्षों के लिए वनवास में जाना पड़ा जिनमें से तेरहवां वर्ष अज्ञातवास के रूप में व्यतीत करना था। पकड़े जाने पर दुबारा वनवास जाने की शर्त थी।

पांचों पाण्डव बारह वर्ष वनवास में तथा तेरहवां वर्ष विराट नगर के राजा के यहाँ अज्ञातवास में बिताकर हस्तिनापुर लौटे और अपना राज्य मांगा किंतु दुर्योधन ने सुईं की नोक जितनी भूमि भी पाण्डवों को देने से मना कर दिया। पाण्डवों के ममेरे भाई एवं यदु-वंशी राजा श्रीकृष्ण, कौरवों और पाण्डवों में मेल कराने के लिए हस्तिनापुर गए किंतु दुर्योधन ने उनकी बात भी नहीं मानी।

इस पर दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों का पक्ष ग्रहण किया। जब दोनों सेनाएं युद्धक्षेत्र में पहुँचीं तो अर्जुन ने यह कहकर युद्ध करने में संकोच दिखाया कि मैं भूमि के लिए अपने बांधवों को नहीं मारना चाहता। इस पर श्रीकृष्ण ने उसे कर्म करने का उपदेश दिया और अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाया।

श्रीकृष्ण के उपदेश से अर्जुन पुनः युद्ध के लिए तैयार हुआ और कुरूक्षेत्र के मैदान में कौरवों और पाण्डवों के बीच 18 दिन तक तक भीषण युद्ध हुआ। चूंकि इस युद्ध में समस्त बड़े भारत वंशी राजाओं ने युद्ध किया था इसलिए इसे महाभारत का युद्ध कहा जाता है। युद्ध में दोनों पक्षों को भयानक क्षति पहुँची किंतु अन्त में पाण्डव विजयी रहे। समस्त कौरव भाई अपनी सेनाओं एवं परिजनों सहित मृत्यु को प्राप्त हुए।

युद्ध में विजय के उपलक्ष्य में पाण्डवों ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया और छत्तीस वर्ष तक राज्य करने के बाद अर्जुन के पौत्र परीक्षित को राज्य सौंपकर द्रोपदी सहित तपस्या करने हिमाचल में चले गए और वहीं उन्होंने देहत्याग किया।

महाभारत के दो प्रमुख संस्करण उपलब्ध होते हैं- उत्तरी तथा दक्षिणी। इनेक कथावृत्तांत में कुछ अन्तर है। महाभारत के प्रकाशित तथा पूर्ण संस्करणों में कलकत्ता, बम्बई तथा कुम्भकोणम् के संस्करण महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। यद्यपि अब भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना द्वारा प्रकाशित महाभारत का संस्करण ही सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है तथापि गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित महाभारत के संस्करण को भारत में अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है।

महाभारत में वर्णित धार्मिक परिस्थितियाँ

यद्यपि महाभारत की कथा कौरवों और पाण्डवों के बीच हुए युद्ध से सम्बन्धित है तथापि इसमें अनेक आख्यानों, उपाख्यानों एवं धर्म-दर्शन की चर्चाओं के माध्यम से विशाल ताना-बाना बुना गया है। मूल कथा के साथ-साथ अनेक प्राचीन कथाओं को भी स्थान दिया गया है।

नीति सम्बन्धी प्रवचानों का अविरल प्रवाह पूरी कथा के साथ-साथ चलता है। इस ग्रंथ में आर्यों के प्राचीन धर्म के विविध रूप एवं पक्ष दर्शाए गए हैं। वैदिक यज्ञों एवं विविध अनुष्ठानों का विशद वर्णन किया गया है जिनसे तत्कालीन संस्कृति के दर्शन सहज ही हो जाते हैं। विष्णु के दशावतारों की कथाएं एवं रामकथा उपाख्यानों के रूप में प्राप्त होती हैं।

भगवान शिव, दुर्गा, राम एवं कृष्ण की पूजा बार-बार बताई गई है। पाण्डवों का भगवान शिव, हनुमान एवं स्वर्ग के विभिन्न देवी-देवताओं का पाण्डवों के साथ सम्पर्क एवं सम्बन्ध बताया गया है। इस ग्रंथ में भारत की बहुत सी नदियों, पर्वतों, वनों एवं वृक्षों आदि का उल्लेख हुआ है तथा उनकी पूजा होती हुई दिखाई गई है। लोक के अंतर्गत प्रचलित भूत, प्रेत, पिशाच, विद्याधर, नाग, यक्ष, गन्धर्व एवं किन्नर आदि का भी वर्णन किया गया है और कई स्थानों पर बलि प्रथा का उल्लेख हुआ है।

सम्पूर्ण ग्रंथ में ऋषि-आश्रमों, राजप्रासादों और ब्रह्मणों के घरों में वैदिक यज्ञों का उल्लेख किया गया है जिनमें सूर्य, इन्द्र और अग्नि आदि देवताओं का आह्वान होता हुआ दिखाया जा रहा है। सामान्य गृहस्थों को ब्रह्मा, विष्णु, शिव और दुर्गा आदि की पूजा करते हुए दिखाया गया है।

महाभारत में यज्ञों और पशु-बलियों के साथ-साथ हिडिम्बा की कथा के माध्यम से नरबलि का भी उल्लेख किया गया है जो राक्षसों में प्रचलित थी और आर्य इसे उचित नहीं मानते थे। ऐतरेय, शतपथ एवं तैत्तिरीय ब्राह्मणों में पुरुषमेध के उन्मूलन का उल्लेख है। रामायण एवं महाभारत में इस सम्बन्ध में वर्णित उल्लेख संभवतः वहीं से लिए गए हैं।

वेदव्यास के महाभारत में प्राचीन भारतीय समाज में गाने-बजाने, खेलने-कूदने, मेले-तमाशे करने, कुश्ती-दंगल करने, देवताओं के निमित्त उत्सव मनाने, शिशु जन्म के संस्कार करने, नंदीमुख कर्म, षष्ठी पूजा, श्राद्ध कर्म, धार्मिक मेलों के आयोजन आदि का वर्णन मिलता है। महाभारत में आए उल्लेखों के अनुसार तत्कालीन समाज में हाथी, बैल, हंस, गरुड़ आदि पशु-पक्षियों को पवित्र माना जाता था। समाज में भूत-प्रेत एवं पिशाचों को वश में करना, टोने-टोटके करना आदि अंध-विश्वासों का भी वर्णन है।

महाभारत में जीवन-दृष्टियाँ

महाभारत के उद्योग पर्व के 42वें अध्याय में जीवन जीने की तीन दृष्टियों का उल्लेख हुआ है- (1.) नियतिवादी, (2.) प्रज्ञावादी और (3.) अध्यात्मवादी।

धृतराष्ट्र नियतिवादी दृष्टिकोण के पक्षधर हैं। वे कहते हैं- ‘किसी बात के होने या न होने में मनुष्य का केाई हाथ नहीं होता, सब कुछ भाग्य पर निर्भर है। अतः किसी प्रकार के परिश्रम या अध्यवसाय के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए, काम-धन्धे के प्रति उपेक्षा भाव रखना चाहिए और किसी वस्तु की भी इच्छा नहीं करनी चाहिए।’

विदुर धृतराष्ट्र के इस दर्शन से सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं- ‘पुरुषार्थ एवं पराक्रम से अनर्थ को टाला जा सकता है और बुद्धि से अपना भविष्य सुधारा जा सकता है। मनुष्य का लक्षण कर्म है और कर्म को छोड़कर बैठना मृत्यु है। अतः सदाचारपूर्वक कर्म करते हुए अपना उत्थान करना चाहिए यही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है।’

जब धृतराष्ट्र और विदुर एक-दूसरे के मत से सहमत नहीं होते हैं तब ऋषि सनत्सुजात को बुलाया जाता है। सनत्सुजात कहते हैं- ‘प्रमाद ही मृत्यु है और अप्रमाद अमृत या अमरता है। प्रमाद के कारण आसुरी वृत्ति वाले मनुष्य मृत्यु से पराजित होते हैं और अप्रमाद अर्थात् संत प्रवृत्ति वाले ब्रह्मस्वरूप या अमर हो जाते हैं। कुछ लोग प्रमाद के स्थान पर यम को मृत्यु का एक रूप कहते हैं। दृढ़तापूर्वक यम-नियमों का पालन करके जो ब्रह्माचर्य प्राप्त होता है, उसे ही कुछ लोग अमृत और अमरता से जोड़ते हैं।’

इस प्रकार महाभारत के इस अध्याय में इन तीनों जीवन-दृष्टियों पर गहनता से विचार किया गया है।

वर्णाश्रम व्यवस्था और सदाचार

महाभारत ने शील और सदाचार को सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार माना है। महाभारत के अनुसार समाज के चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) गुण और कर्म पर आधारित हैं। बालक के उपनयन के बाद शिक्षा, शील और सदाचार से उसके वर्ण का निर्णय होता है। महाभारत के वन-पर्व में अजगर के प्रश्न करने पर कि, ‘ब्राह्मण कौन है?’ युधिष्ठिर कहते हैं- ‘जिस व्यक्ति में सत्य, दान, क्षमा, शील, दया, दम और अंहिसा हो वही ब्राह्मण है।’

अजगर फिर प्रश्न करता है कि क्या ये गुण शूद्र में हो तो वह ब्राह्मण कहलाएगा? युधिष्ठिर कहते हैं- ‘यदि शूद्र में ये गुण हैं तो निश्चय ही वह ब्राह्मण है, जिसमें चरित्र नहीं है, वह शूद्र है।’ इस प्रकार महाभारत कालीन समाज में वर्णों की व्यवस्थाएं गुण, कर्म और स्वभाव पर टिकी हैं न कि जाति, कुल और परम्परा पर।

महाभारत के शान्ति पर्व में चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। महाभारत के शान्ति पर्व में कहा गया है- ‘सबसे गहरा रहस्य यह है कि मनुष्य से अधिक श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।’ इस प्रकार महाभारत मनुष्य के मनुष्य होने को बड़ा मानता है न कि उसके वर्ण या व्यवासाय को।

महाभारत में आदर्श

महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के रूप में आर्य संस्कृति के प्रतिमानों को धर्म एवं नीति के सुदृढ़ आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया है। महाभारत का प्रत्येक पात्र अपने आप में विशिष्ट है और वह किसी न किसी गुण अथवा अवगुण का प्रतिनिधित्व करता है।

वेदव्यास ने श्रीकृष्ण को नारायण का अवतार मानकर ही उनसे सम्बन्धित प्रसंग लिखे हैं। कुरुराज्य का मंत्री विदुर भी श्रीकृष्ण की भांति एक आदर्श पात्र है। वह नीतिशास्त्र एवं धर्मशास्त्र का ज्ञाता है। स्पष्टभाषी होने के कारण वह राज्यलोभी धृतराष्ट्र को धर्म एवं नीति पर चलने के लिए प्रेरित करता है तथा धृतराष्ट्र को उसके पुत्रमोह के लिए धिक्कारता है।

भीष्म के रूप में वेदव्यास ने एक अलग तरह का आदर्श प्रस्तुत किया है। वे धर्म और न्याय के प्रतीक होते हुए भी अपनी प्रतिज्ञा के कारण हस्तिानापुर के राजसिंहासन से बंधे हुए हैं और द्रौपदी के वस्त्रहरण पर भी चुप रहते हैं। इतना ही नहीं भगवान श्रीकृष्ण के परमभक्त होते हुए भी भीष्म युद्ध-भूमि में अधर्मी दुर्योधन की तरफ से लड़ते हैं। वे चाहते हैं कि इस युद्ध में धर्म अर्थात् पाण्डव पक्ष की विजय हो, इसलिए वे पाण्डवों को अपनी मृत्यु का तरीका बताते हैं।

इसी प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण भी मनुष्य के गुणों की पराकाष्ठा है। वे सत्यवादी हैं, कष्ट सहकर भी धर्म के पथ से च्युत नहीं होते। वनपर्व में वे अदृश्य यक्ष द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में धर्म का पक्ष लेते हैं और अपने बलशाली भाई भीम या अर्जुन के स्थान पर अपनी विमाता माद्री के पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना करते हैं। उनमें सत्य और धर्म पर अडिग रहने के प्रति उत्साह है न कि युद्ध में विजय प्राप्त करने पर।

वेदव्यास ने भीमसेन के रूप में शारीरिकि बल एवं नीति का समन्वय किया है। अर्जुन के रूप में उन्होंने शौर्य, ईश-भक्ति और भ्रातृत्व प्रेम से युक्त अदुभुत पात्र की रचना की है। नकुल और सहदेव के रूप में उन्होंने विमाता के पुत्रों को अपने बड़े भाइयों के प्रति विनय एवं सदाशयी रहने वाला दिखाया है। पांचों भाई अत्यंत बलशाली होते हुए भी धर्म के मार्ग पर चलते हैं और बड़ों के सामने विनम्रतापूर्ण व्यवहार करते हैं। वे निरंतर विपत्तियों का सामना करते हुए भी धैर्य नहीं खोते।

महाभारत की द्रौपदी एक आदर्श नारी है। पांच पतियों की पत्नी होते हुए भी वह सती, साध्वी और पतिव्रता है। महारानी द्रौपदी के चरित्र के द्वारा वेदव्यास ने भारतीय नारियों के समक्ष अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है। वन-पर्व में द्रौपदी के गुणों का बहुत सुन्दर वर्णन हुआ है। पाण्डवों के वन में निवास करने के दौरान एक बार श्रीकृष्ण और सत्यभामा उनसे मिलने आते हैं।

सत्यभामा द्रौपदी से पूछती है- ‘उसके पांचों पति किस तरह उसके अनुकूल रहते हैं?’

द्रौपदी कहती है– ‘मैं अंहकार, काम और क्रोध को छोड़कर पाण्डवों की सेवा करती हूँ। मैं कभी उन्हें कटु-वचन नहीं कहती, असभ्य की भांति व्यवहार नहीं करती। पतियों के अभिप्रायपूर्ण संकेत का सदैव अनुसरण करती हूँ। देवता, मनुष्य, गन्धर्व या कितना भी रूपवान-सम्पन्न पुरुष मेरे सामने आ जाए, फिर भी मेरा मन पाण्डवों को नहीं छोड़ता। पतियों और उनके सेवकों को भोजन कराए बिना मैं कभी भोजन नहीं करती। उनके सोने के बाद ही मैं सोती हूँ। बाहर से जब मेरे पति आते हैं, तब मैं मुस्कराकर उनका स्वागत करती हूँ। मेरे पति जिस बात को या वस्तु को पसन्द नहीं करते, मैं भी उसे त्याग देती हूँ। गुरुजनों की सेवा-सुश्रुषा से ही मेरे पति मेरे अनुकूल रहते हैं।’

द्रौपदी के इस कथन में आदर्श नारी का चरित्र स्पष्ट होता है। इस आख्यान के माध्यम से वेदव्यास भारतीय नारियों को पति से प्रेम करने एवं उसके प्रति अनुरक्त रहने की शिक्षा देते हैं।

ज्ञान का विश्व-कोष

महाभारत ज्ञान का विश्व-कोष है। इस ग्रन्थ में मानवीय व्यवहार की जटिलताओं एवं सुंदरताओं की विशद व्याख्या की गई है। इसकी समग्रता के सम्बन्ध में स्वयं वेदव्यास ने कहा है- ‘इस ग्रन्थ में जो कुछ सत्य है, वह अन्यत्र है परन्तु जो कुछ इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।’

निःसन्देह यह ग्रन्थ तत्कालीन धार्मिक, नैतिक और ऐतिहासिक आदर्शों का अमूल्य भण्डार है। महाभारत समस्त दर्शनों का सार एवं स्मृतियों का विस्तृत विवेचन-ग्रन्थ है तथा इसमें स्थान-स्थान पर आए उपाख्यानों के द्वारा लोकधर्म के विभिन्न अंगों पर बड़ी गहराई तक प्रकाश डाला गया है।

मानव जीवन की ऐसी कोई समस्या या ऐसा कोई पक्ष नहीं है, जिस पर इस ग्रन्थ में विस्तृत विवेचन न किया गया हो। आदि पर्व में महाभारत को केवल इतिहास ही नहीं, अपितु धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा मोक्षशास्त्र भी कहा गया है।

महाभारत में कौरव-पाण्डवों के राजनीतिक संघर्ष का इतिहास तो है ही परन्तु साथ ही वह आर्य-संस्कृति और हिन्दू-धर्म के सर्वांगीण विकास की गाथा भी है। इस विशाल ग्रंथ में अनेक प्राचीन कथाएं सुंदर बागीचों की तरह सजाई गई हैं। इन कथाओं में दुष्यन्त-शकुन्तला की कथा, रामकथा, शिव-कथा, सावित्री एवं सत्यवान की कथा, मत्स्यावतार सहित दशावतार की कथा, नल और दमयन्ती की कथा आदि प्रमुख हैं।

महाभारत एक श्रेष्ठ धर्मशास्त्र है जिसमें पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन के विधि-विधानों तथा धर्म की विस्तृत व्याख्या की गई है। शान्ति-पर्व में राजधर्म, आपद्धर्म एवं मोक्ष का तथा अनुशासन-पर्व में दान का विस्तृत विवेचन किया गया है। यह नीतिशास्त्र का भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। शान्ति-पर्व में भीष्म पितामह द्वारा धर्म एवं राजनीति पर लम्बा व्याख्यान दिया गया है। सभा-पर्व में नारद का राजनीतिक विषय पर व्याख्यान है।

विदुर के रूप में महाभारत की कथा को एक ऐसा दुर्लभ पात्र दिया गया है जिसकी कल्पना करना भी कठिन हैं। दासी-पुत्र, मंत्री एवं कनिष्ठ-भ्राता होते हुए भी विदुर सत्य के तेज से प्रकाशित हैं और धर्म एवं नीति के व्याख्याकार हैं। विदुर की भांति संजय भी अंधे राजा को सदैव सत्य ही बताते हैं किंतु पुत्र मोह से ग्रस्त धृतराष्ट्र उनकी बातों से सहमत नहीं होता और उन्हें बार-बार झिड़कता है किंतु न तो विदुर और न संजय कभी भी अपने कर्त्तव्य से च्युत होते हैं।

इस कारण विदुर नीति एवं संजय नीति का भारतीय संस्कृति में बहुत आदर हुआ। उन्हें आज भी अनुकरणीय माना जाता है। महाभारत अध्यात्म का भी अनुपम ग्रन्थ है। इसमें श्रीमद्भागवद्गीता, सनत्सुजात के उपदेश, अनुगीता, पाराशर गीता, मोक्ष धर्म आदि महत्त्वपूर्ण अंश संकलित हैं। महाभारत में श्रेष्ठ धार्मिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक सिद्धान्तों का समावेश होने से इसे ‘हिन्दू-धर्म का वृहत् कोष’ कहा गया है। पौराणिक आख्यानों-उपाख्यानों का समावेश होने से इसे ‘पुराण-संहिता’ भी माना गया है।

महाभारत में मोक्ष के साधनों के रूप में कर्म, भक्ति, ज्ञान, तप आदि मार्गों का विवेचन होने से इसे ‘मोक्षशास्त्र’ भी कहते हैं। महाभारत में मोक्ष के साधनों और सांसारिक सुखों के बीच समन्वय किया गया है और चार पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की, मानव-जीवन के लक्ष्य के रूप में प्रतिष्ठा हुई है। धर्म को प्रधान पुरुषार्थ माना गया है।

महाभारत के अनुसार मनुष्य को धर्म का उल्लंघन किए बिना अर्थ और काम का सेवन करना चाहिए। इस ग्रन्थ में प्रवृत्ति, निवृति, कर्म और सन्यास सम्बन्धी विचारों का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन एवं समन्वयन हुआ है। महाभारत की शिक्षा का सार यह है कि मनुष्य व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर लोककल्याण के लिए धर्मसम्मत कर्त्तव्य का पालन करता रहे।

साहित्यिक महत्त्व

साहित्य की दृष्टि से महाभारत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। एक प्रौढ़ महाकाव्य में जो लक्षण होने चाहिए, वे सभी लक्षण इस ग्रंथ में अपनी उच्चता के साथ उपस्थित हैं। भाषा, विचार, भाव, कथा, रोचकता, लोकोपयोगिता आदि विभिन्न दृष्टियों से यह उच्च कोटि का साहित्यिक ग्रंथ है। छंद, अलंकार, रस आदि की दृष्टि से भी यह एक प्रौढ़ रचना है।

 इस ग्रंथ की कथा में शृंगार रस, भक्ति रस और शान्त रस का परिपाक स्थान-स्थान पर हुआ है। वात्सल्य रस एवं वीभत्स रस भी अपने चरमोत्कर्ष के साथ उपस्थित हैं। स्वयं वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में लिखा है कि भविष्य में जितने भी लेखक होंगे, वे अपने ग्रंथों का लेखन इस ग्रंथ को आधार बनाकर करेंगे।

महाकाव्यों में इतिहास

रामायण तथा महाभारत दोनों ही महाकाव्यों में प्राचीन हिन्दू सभ्यता का वर्णन है। कुछ पाश्चात्य विद्वानों की धारणा है कि ये ग्रन्थ पूर्णतः लाक्षणिक हैं जिनमें कोई ऐतिहासिक सामग्री नहीं हैं परन्तु उनका मत गलत है। यह माना जा सकता है कि आलंकारिक वर्णनों एवं क्षेपकों आदि के कारण इनमें उपलब्ध तत्कालीन ऐतिहासिक सामग्री और बाद की ऐतिहासिक सामग्री को अलग कर पाना कठिन है किंतु ये ग्रंथ पूर्णतः अनैतिहासिक नहीं हैं।

राम तथा उनकी अयोध्या, रावण तथा उसकी लंका, रामसेतु निर्माण, राम-रावण युद्ध, कौरव तथा उनका हस्तिनापुर, पाण्डव तथा उनका इंद्रप्रस्थ, कौरव-पाण्डव युद्ध, श्रीकृष्ण एवं उनकी द्वारिका और कुरुक्षेत्र का मैदान सभी कुछ ऐतिहासिक सिद्ध हो चुके हैं।

भौतिक साक्ष्यों की कार्बन डेटिंग राम के काल को ई.पू. 5000 सिद्ध कर चुकी है। इसी प्रकार महाभारत का युद्ध ई.पू.3102 के लगभग निर्धारित करते हैं। माना जाता है कि राम के वास्तविक काल के बाद रामायण का तथा महाभारत के वास्तविक काल के बाद महाभारत ग्रंथ का प्रणयन हुआ होगा।

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