Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 56 : उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन (गरमपंथी कांग्रेस) – 1

भारत में उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा, कांग्रेस के जन्म से बहुत पहले जन्म ले चुकी थी। 1857 ई. की क्रांति उसी की अभिव्यक्ति थी। पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र तथा बंकिमचंद्र चटर्जी ने उग्र राष्ट्रवाद के लिये आधार भूमि तैयार की क्योंकि उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन के चेहरे पर हिन्दू लक्षण बहुत स्पष्ट था।

कांग्रेस के उदारवादी नेता ब्रिटिश सरकार से विधान सभाओं में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि, भारत सचिव की कौंसिल में भारतीयों की नियुक्ति, सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अँग्रेजों के समान अवसर, भू-राजस्व की दर में कमी, भारतीय उद्योगों को सरंक्षण आदि मांगें करते रहे किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इन मांगों पर बहुत कम ध्यान दिया। इससे कुछ युवा कांग्रेसी नेताओं का वह भ्रम टूट गया कि इंग्लैण्ड की सरकार भारत में भारतीयों के लिये भी वैसी ही व्यवस्था करेगी जैसी कि अँग्रेजों के लिये इंग्लैण्ड में थी। उदारवादी नेता गोपालकृष्ण गोखले ने स्वीकार किया कि सरकार अपने वचनों का पालन नहीं कर रही थी और जो वायदे उसने किये थे, उनसे पीछे हट रही थी।

उग्र राष्ट्रवादियों का उदय

ब्रिटिश सरकार द्वारा उदारवादी नेताओं की मांगों पर ध्यान न दिये जाने के कारण कांग्रेस में युवा नेताओं का एक नया गुट उभर कर सामने आया जिसने संघर्ष के माध्यम से सरकार पर दबाव डालने का निश्चय किया। अँग्रेज लेखकों ने इस नवीन नेतृत्व को उग्र राष्ट्रीयता, उग्रवादी तथा गरम दल नेता कहा। उनके द्वारा चलाये गये आंदोलन को उग्र राष्ट्रवाद, उग्रवाद तथा रेडिकल नेशनलिस्ट मूवमेंट कहा जाता है। इन युवा उग्रवादी नेताओं ने वृद्ध एवं उदारवादी नेताओं का विरोध किया जो अँग्रेजों की न्यायप्रियता में अटूट विश्वास रखते थे और आवेदन-निवेदन, तथा स्मरण-पत्रों के माध्यम से भारतीयों को राजनीतिक अधिकार दिलवाना चाहते थे। उग्र राष्ट्रवादियों को उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की शैली पसन्द नहीं आई। वे उग्र जन-आन्दोलन के माध्यम से भारतीयों के लिये राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने के लिए अधीर थे। उग्रवादी नेताओं का मानना था कि कमजोर विरोध तथा अस्थिर वैधानिक सुधारों से भारत की समस्याओं का समाधान नहीं होगा। उस काल में कतिपय प्रमुख उग्र राष्ट्रवादी नेता इस प्रकार से थे-

बालगंगाधर तिलक

कांग्रेस में उग्रराष्ट्रवाद के जनक बाल गंगाधर तिलक थे। वे कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही उग्र राष्ट्रवाद का दीप प्रज्वलित कर चुके थे। 1882 ई. में बाल गंगाधर तिलक ने कोल्हापुर के राजा का, वहाँ के ब्रिटिश रेजीडेण्ट के विरुद्ध समर्थन करते हुए, केसरी में तथ्यों का प्रकाशन किया। इस कार्य के लिये तिलक को 4 माह की सजा हुई। 1896 ई. में बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस के मंच से कहा- ‘गत 12 वर्षों से हम चिल्ला रहे है कि शासन हमारी बातों को सुने किन्तु सरकार हमारी आवाज को नहीं सुनती, बन्दूक की आवाज को सुनती है। हमारे शासकों ने हमारे ऊपर अविश्वास किया है। अब हमें अधिक शक्तिशाली संवैधानिक साधनों के आधार पर अपनी बात उन्हें सुनानी चाहिए।’

 1897 ई. में तिलक ने कमिश्नर रैण्ड की हत्या को न्याय-संगत ठहराते हुए एक लेख लिखा। इसके लिये उन्हें 18 माह की सजा हुई। 1899 ई. में बम्बई के गवर्नर सैण्डहर्स्ट ने प्लेग ग्रस्त महाराष्ट्र की जनता पर आतंकपूर्ण कार्यवाही की। तिलक ने 1899 ई. के लखनऊ अधिवेशन में सैण्डहर्स्ट के विरुद्ध प्रस्ताव रखा किंतु उदारवादियों के दबाव में उन्हें वह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा।

इस प्रकार 19वीं सदी के अंतिम दशक में तिलक की अगुवाई में कांग्रेस में उग्र राष्ट्रवाद का प्रवेश हुआ। तिलक का कहना था कि हर हाल में विदेशी राज का विरोध करो। तिलक का आदर्श था- ‘दूसरों की सेवा और स्वयं के लिये कष्ट।’ वे गांव की चौपाल पर बैठकर बात करते थे। वे पिटीशिन (याचिका) की बजाये प्रोटेस्ट (विरोध) करने में विश्वास करते थे। तिलक ने स्पष्ट घोषणा की- ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर ही रहेंगे……. स्वराज्य क बिना कोई सामाजिक सुधार नहीं हो सकते, न कोई औद्योगिक प्रगति, न कोई उपयोगी शिक्षा और न ही राष्ट्रीय जीवन की परिपूर्णता। यही हम चाहते हैं और इसी के लिये ईश्वर ने मुझे इस संसार में भेजा है।’

यही कारण है कि ब्रिटिश पत्रकार वेलेंटाइन शिरोल ने तिलक को फादर ऑफ इण्डियन अनरेस्ट (भारतीय असन्तोष का जनक) कहा है। कांग्रेस में गरम दल की स्थापना का श्रेय तिलक को ही है।

महर्षि अरविंद घोष

यदि तिलक भारतीय असंतोष के जनक थे तो अरविंद हिन्दू धर्म के राष्ट्रीयकरण के शिल्पी थे। अगस्त 1893 में अरविन्द घोष ने न्यू लैम्प्स फॉर ओल्ड (पुरानों के स्थान पर नये दीप) शीर्षक से एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने विचार प्रकट किया कि विरोध-पत्रों, प्रार्थना-पत्रों और स्मृति-पत्रों से देश कभी स्वतन्त्र नहीं हो सकता। अपने वन्देमातरम् नामक पत्र में उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्य करने और संघर्ष करने के लिए एक कार्यक्रम बनाया। इस कार्यक्रम में उन्होंने भारतीयों को स्वदेशी, असहयोग, राष्ट्रभाषा और बहिष्कार का मन्त्र दिया।

अरविंद घोष ने भारतीयों को स्पष्ट मार्ग दिखाते हुए कहा- ‘स्वतंत्रता हमारे जीवन का उद्देश्य है। हिन्दू धर्म ही हमारे इस उद्देश्य की पूर्ति करेगा। राष्ट्रीयता एक धर्म है और ईश्वर की देन है….. भारत पुनः एक गुरु और मार्ग दर्शक के रूप में अपनी भूमिका निभाए, लोगों की आत्ममुक्ति हो ताकि राजनीतिक जीवन में वेदान्त के आदर्श प्राप्त किये जा सकें। यही भारत के लिये सच्चा स्वराज्य होगा। 1905 ई. में जब बंगभंग आंदोलन चला तो अरविंद ने घोषित किया कि राष्ट्रवाद कभी मर नहीं सकता क्योंकि यह ईश्वर ही है जो बंगाल में कार्य कर रहा है, ईश्वर को कभी मारा नहीं जा सकता, ईश्वर को जेल नहीं भेजा जा सकता।’

लाला लाजपतराय

उग्रवादी आंदोलन के प्रमुख नेता लाला लाजपतराय को पंजाब केसरी तथा शेरे-पंजाब कहा जाता था। उन्होंने पंजाबी तथा वन्देमातरम् नामक दैनिक समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। वे आर्यसमाज के प्रबल समर्थक थे। 1902 ई. के कलकत्ता अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। उन्हें सरदार अजीतसिंह के साथ मिलकर कोलोनाइजेशन बिल के खिलाफ आंदोलन चलाने के अपराध में बर्मा की माण्डले जेल में बंद किया गया। उनका कहना था– ‘जैसे दास की आत्मा नहीं होती उसी प्रकार दास जाति की कोई आत्मा नहीं होती। आत्मा के बिना मनुष्य निरा पशु है इसलिये एक देश के लिये स्वराज्य परम आवश्यक है और सुधार अथवा उत्तम राज्य इसके विकल्प नहीं हो सकते।’ 

विपिनचंद्र पाल

विपिनचंद्र पाल; लाल (लाला लाजपतराय), बाल (बालगंगाधर तिलक) और पाल (विपिनचंद्र पाल) की उग्रवादी तिकड़ी (बिग थ्री) में थे। उनका कहना था- ‘देश को रिफॉर्म (सुधार) की नहीं अपितु री-फार्म (फिर से निर्माण) की आवश्यकता है….. अँग्रेजों को अपनी इच्छा से कर लगाने और उसे खर्च करने का अधिकार छोड़ना होगा।’

अन्य बड़े नेता: उदारवादी नेताओं की नीतियों की आलोचना करने वालों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, विवेकानन्द और लाला मुंशीराम  भी थे। फरवरी 1902 में स्वामी विवेकानन्द ने स्वामी अखण्डानन्द को एक पत्र लिखकर उनसे पूछा- ‘भयंकर अकाल, बाढ़, बीमारी और महामारी के इन दिनों में बताइए कि आपके कांग्रेसी लोग कहाँ हैं? क्या सिर्फ यही कहने से काम चलेगा कि देश की सरकार हमारे हाथ में सौंप दीजिए? और उनकी बात सुनता भी कौन है ? अगर कोई आदमी काम करता है तो क्या उसे किसी चीज के लिए मुँह खोलना पड़ता है?’

इस प्रकार, कांग्रेस में उग्र राष्ट्रीयता की भावना पनपने लगी। बाल, पाल, लाल, तथा अरविंद की चतुष्टयी (फोर बिग) और उनके अनुयायी, भारतीयों की शक्ति को संगठित करके ब्रिटिश सरकार पर इतना दबाव डालना चाहते थे कि सरकार उनकी मांगों को ठुकरा न सके और भारतीयों को उनका देश सौंप दे।

उग्रवाद की उत्पत्ति के कारण

कांग्रेस में उग्रवादी नेतृत्व के उदय के कारणों को मोटे तौर पर दो भागों में रखा जा सकता है- (1.) राष्ट्रीय स्तर पर घटित घटनाएँ और (2.) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर घटित घटनाएँ।

राष्ट्रीय स्तर पर घटित घटनाएँ

(1.) 1892 ई. का अधिनियम: कांग्रेस के उदारवादी नेतृत्व द्वारा किये गये निवेदनों के कारण ब्रिटिश सरकार ने 1892 ई. का अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम को भारतीयों के स्वतन्त्रता संग्राम की प्रथम विजय के रूप में देखा गया किंतु यह भारतीयों को सन्तुष्ट नहीं कर सका। इस अधिनियम में निर्वाचन के सिद्धान्त को कोई स्थान नहीं दिया गया। जो व्यक्ति विधान परिषदों के लिए निर्वाचित होते थे, वे जनता के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं थे। निर्वाचित प्रतिनिधि को जब गवर्नर जनरल विधान सभा में मनोनीत करता था तभी वह बैठकों में भाग ले सकता था। निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम रखी गई और इन सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं रखा गया। बजट पर विधान परिषद् का कोई नियन्त्रण नहीं था। सदस्यों को बजट पर मतदान अथवा संशोधन उपस्थित करने का अधिकार नहीं था। सदस्य पूरक प्रश्न भी नहीं पूछ सकते थे। प्रश्न पूछने के अधिकार पर लगभग प्रतिबन्ध था। लॉर्ड लैंसडाउन ने कहा था- ‘प्रश्न इस प्रकार के होने चाहिए, जिनमें केवल सम्मति प्रकट करने की प्रार्थना हो, उनमें किसी प्रकार की तर्क-भावना, कल्पना तथा मानहानि पूर्ण भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए।’

इस अधिनियम से कार्यकारिणी के अधिकारों में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आई। मदनमोहन मालवीय ने लिखा है- ‘इस अधिनियम से भारतीयों को उनके देश की शासन व्यवस्था में कोई वास्तविक अधिकार प्राप्त नहीं हुआ।’

अँग्रेजों की इस कारस्तानी से भारतीयों में उग्र विरोध को विकसित होने का अवसर मिला।

(2.) राजनीतिक भिक्षावृत्ति से आस्था का हटना: 1892 से 1905 ई. तक ब्रिटेन में अनुदार दल (टोरी दल) की सरकार रही। यह दल भारत में किसी तरह के राजनीतिक सुधारों का पक्षधर नहीं था। उसने कांग्रेस की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया तथा भारतीयों के प्रति जातीय-विभेद की नीति को व्यापक रूप में लागू किया। इन वर्षों में गोरी सरकार ने भारत में ऐसे कानून लागू किए जिनसे जनता और नौकरशाही में खुला विरोध आरम्भ हो गया। अँग्रेजी कुशासन के विरोध में कांग्रेस के युवा नेताओं में उग्रता आई तथा उनमें अपने नेताओं की राजनीतिक भिक्षा-वृत्ति में आस्था समाप्त हो गई। ब्रिटेन के अनुदार दल ने भारत के उदारवादी नेतृत्व की अवहेलना की और भारत के शिक्षित वर्ग का अपमान किया। सरकार की इस मनोवृत्ति ने बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय, अरविन्द घोष आदि उग्रपंथी नेताओं को अँग्रेजों के विरुद्ध कटु भाषा का प्रयोग करने के लिये उद्वेलित किया।

उदारवादी नेता गोपालकृष्ण गोखले ने भी ब्रिटेन के अनुदार दल के कार्यों की आलोचना की। कांग्रेस के आठवें अधिवेशन में उन्होंने लॉर्ड लैन्स डाउन की सरकार को चेतावनी देते हुए कहा- ‘उसकी शिक्षा, स्थानीय स्वशासन और नौकरियों में भारतीयों की भर्ती से सम्बन्धित नीतियाँ संकट का आह्वान कर रही हैं।’

लॉर्ड एल्गिन (1894-1898 ई.) के काल में अँग्रेज अधिकारियों द्वारा अपनाई गई दमन की नीति से भारत के राजनीतिक असंतोष में उबाल आ गया। 1898 ई. में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में आर. सी. दत्त ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पिछले दो वर्षों में भारतीय जनता में असन्तोष की और भी वृद्धि हुई है। लाला लाजपतराय ने कहा– ‘भारतीयों को अब भिखारी बने रहने में सन्तोष नहीं कर लेना चाहिए और न अँग्रेजी सरकार के सामने गिड़गिड़ाना चाहिए…….. अँग्रेजों द्वारा कांग्रेस की मांगों की उपेक्षा का कारण यह था कि अधिकांश कांग्रेसी नेताओं में त्याग और बलिदान की भावना नहीं है।’

(3.) भारत का तीव्र आर्थिक शोषण: अँग्रेजों ने लगभग सवा सौ वर्ष के शासन में भारत के लगभग समस्त निर्याताकारी उद्योग समाप्त करके भारत को कच्चे माल की मण्डी बना दिया। इस कारण भारत से करोड़ों रुपया प्रति वर्ष इंग्लैण्ड जाने लगा और भारत की जनता निर्धन हो गई। 1870 ई. के बाद भारतीय नेताओं का ध्यान इस भयावह आर्थिक शोषण की ओर गया। भारतीय उद्योगों का विनाश, कपास की बनी चीजों पर आयात कर में कमी और भारतीय मिलों में तैयार होने वाले कपड़े पर 7.5 प्रतिशत उत्पादन कर, कृषि पर भू-राजस्व का अत्यधिक बोझ, किसानों की बढ़ती हुई निर्धनता और शासन के उच्च पदों से भारतीयों को दूर रखने की मनोवृत्ति आदि कारकों से स्पष्ट था कि अँग्रेज भारत को हर तरह से लूट रहे हैं। उनके शासन का मूल उद्देश्य यही था। इस कारण भारत में उग्रवादी विचारों का पनपना स्वाभाविक था।

दादाभाई नौरोजी, रमेशचन्द्र दत्त, महादेव रानाडे, डी. एन. वाचा और सर विलियम डिग्वी आदि विचारकों ने अपने लेखों एवं पुस्तकों द्वारा अँग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति को उजागर कर दिया। उन्होंने बताया कि भारत में महत्त्वपूर्ण व्यापारिक प्रतिष्ठान अँग्रेजों के नियन्त्रण में हैं। कपड़ा उद्योग भारतीयों के नियन्त्रण में होते हुए भी अँग्रेजों ने उसके विकास में अनेक बाधाएँ खड़ी कर दी हैं। सरकार की नीतियों के कारण निम्न-मध्यम वर्ग में बेकारी की समस्या उग्र रूप धारण कर रही थी। अकाल, भूचाल आदि प्राकृतिक प्रकोपों से जनता में असन्तोष अधिक बढ़ गया।

शिक्षित वर्ग के असन्तोष और जनता के कष्टों ने उग्र राष्ट्रीयता को बढ़ावा दिया। कांग्रेस के युवा नेता समझ गये कि जब तक भारत पराधीन रहेगा, तब तक उसका आर्थिक शोषण होता रहेगा और जनता निर्धनता के चंगुल से मुक्त नहीं हो सकेगी। इस कारण बहुत से लोग ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फैंकने के लिये कटिबद्ध हो गये।

(4.) अकाल तथा प्लेग के समय सरकार की दुष्टता: गुरुमुख निहाल सिंह ने लिखा है- ‘देश में अकाल, प्लेग आदि राष्ट्रीय विपत्तियों का सामना करने के लिए सरकार ने संतोषजनक नीति नहीं अपनाई।’

1896-97 ई. तथा 1899-1900 ई. में देश में पड़े भयंकर दुर्भिक्ष तथा उसके बाद फैली महामारी से लाखों लोग मर गये। जनता को राहत पहुंचाने में गोरी सरकार ने अत्यंत धीमी गति से कार्य किया। बम्बई प्रान्त में फैले प्लेग की रोकथाम के लिए अँग्रेज अधिकारियों ने अमानवीय ढंग से लोगों को बलपूर्वक घरों से निकाल दिया। पूना में यह काम सेना को सौंपा गया और गोरे सैनिकों को घर-घर जाकर रोगियों की जांच करने को कहा। गोेरे सैनिक भारतीयों के घरों में घुसकर स्त्रियों की जांच करने के बहाने उनके साथ अत्यन्त अशिष्ट व्यवहार करते थे। इनसे जनता का क्रोध भड़क उठा और एक नौजवान दामोदर हरि चापेकर ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा बालकृष्ण चापेकर ने उसके सहायक लेफ्टिनेंट एयर्स्ट की हत्या कर दी। चापेकर बन्धुओं को मृत्युदण्ड दिया गया। उनकी सहायता करने के आरोप में नाटू बन्धु बंदी बनाये गये। उन्हें बिना मुकदमा चलाए चार-पांच माह तक जेल में रखा गया और फिर देश निकाला दे दिया गया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, चापेकर बंधु इस बात से नाराज थे कि अँग्रेजों ने 400 ब्राह्मणों को घुड़सवार सेना में लेने से इसलिये मना कर दिया क्योंकि अँग्रेजों को लगता था कि ब्राह्मण जाति के सैनिक अधिक विद्रोही प्रकृति के हैं।

(5.) सांस्कृतिक नवजागरण: अँग्रेजों ने भारतीयों को यह समझाने का प्रयास किया कि पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति, भारत की सभ्यता एवं संस्कृति से श्रेष्ठ है। अँग्रेजों ने भारत में जिस प्रकार की शिक्षा का विस्तार किया, उसमें भी उनका ध्येय भारत में पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना था। कांग्रेस के उदारवादी नेता भी पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगे हुए थे परन्तु उन्नीसवीं सदी के अन्त तथा बीसवीं सदी के प्रारम्भ में भारत के अनेक क्षेत्रों में धार्मिक पुनरुत्थान ने शिक्षित वर्ग में पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति के विरुद्ध प्रतिक्रिया उत्पन्न की। आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसायटी आदि धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं के प्रचार ने जनता का ध्यान अपने प्राचीन गौरव की ओर आकर्षित किया। स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म की महानता सिद्ध करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। इन महान् धार्मिक नेताओं ने जनता में आत्म-विश्वास तथा नवीन स्फूर्ति उत्पन्न की। इसी समय राष्ट्रीय साहित्य का भी विकास हुआ। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे साहित्यकारों ने भारतवासियों का ध्यान सामाजिक विद्रूपताओं की ओर खींचा। इस युग का बंगला साहित्य देशभक्ति की उदात्त भावनाओं से सिंचित था। बंकिमचन्द्र का उपन्यास आनन्द मठ सन्यासी आंदोलन पर लिखा गया था। इसका गीत वन्दे मातरम् स्वतंत्रता की लड़ाई का प्रमुख गीत बन गया। जब श्रीमती एनीबीसेंट ने कहा कि विश्व का कोई भी धर्म इतना पूर्ण नहीं है, जितना हिन्दू धर्म, तो भारतीयों का आत्म विश्वास चरम पर पहुंच गया। उनमें पाश्चात्य शिक्षा, पाश्चात्य जीवन शैली एवं पश्चिमी वस्तुओं से विरक्ति होने लगी। गुरुमुख निहाल सिंह का मत है कि उग्रवादी आन्दोलन को देश के धार्मिक पुनरुत्थान से प्रेरणा मिली थी।

(6.) अँग्रेजों एवं एंग्लो-इण्डियनों का अंहकार युक्त व्यवहार: अँग्रेजों और एंग्लो-इण्डियनों के अंहकार युक्त व्यवहार ने भारत में उग्रवाद के जन्म एवं विकास में बड़ा योगदान दिया। अँग्रेज, भारतीयों को निम्न प्रजाति का समझते थे तथा घृणा की दृष्टि से देखते थे। आंग्ल-भारतीय समाचार पत्र खुले रूप में अँग्रेजों को भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करने के लिये प्रोत्साहित करते थे। सरकार की ओर से भी उन्हें प्रोत्साहन एवं सरंक्षण मिलता था। बहुत से ब्रिटिश सैनिक तथा अधिकारी, भारतीयों के साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार करते थे। सरकार उन लोगों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती थी। किसी भारतीय की हत्या कर देने पर भी अँग्रेजों को नाममात्र की सजा दी जाती थी। लॉर्ड कर्जन की नीतियों ने जातिभेद की नीति को काफी प्रोत्साहित किया। कर्जन द्वारा रंग, क्षेत्र एवं जाति के आधार पर किये गये भेदभाव ने भारतीयों में उग्रवादी विचारों को जन्म दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में कर्जन ने भारतयों के जीवन आदर्श पर अनैतिक रूप से कठोर प्रहार करते हुए कहा- ‘सत्य का उच्च आदर्श, पाश्चात्य अवधारणा है। इस आदर्श ने पहले पश्चिम की नैतिक परम्परा में उच्च स्थान बनाया, बाद में यह आदर्श पूर्व में भी आया जहाँ पहले धूर्तता और कुटिलता सम्मान प्राप्त करती थी….. भारत राष्ट्र जैसी कोई चीज नहीं है।’

(7.) आंग्ल-भारतीय पत्रों का भारत विरोधी दृष्टिकोण: हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवाद के उदय का एक कारण आंग्ल भारतीय समाचार पत्रों द्वारा भारत विरोधी दृष्टिकोण का प्रचार करना था। इन समाचार पत्रों में शिक्षित भारतीयों को गुलाम, घुड़सवार भिखमंगे, नीच जाति आदि गालियां दी जाती थीं। फिर भी, सरकार इन पत्रों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती थी। इससे युवा भारतीयों का उत्तेजित होना स्वाभाविक था।

 (8.) लैन्स डाउन और लॉर्ड एल्गिन का कार्यकाल: भारत के गवर्नर जनरल रहे लॉर्ड लैन्स डाउन (1888-94 ई.) और लॉर्ड एल्गिन (1894-98 ई.) भारतीयों से घृणा करते थे। उन्होंने भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा पैदा करने वाले कई काम किये। दोनों के काल में अनेक दमनकारी कानून बनाये गये। लॉर्ड एल्गिन के समय भयंकर अकाल पड़ा किन्तु उसने राहत कार्यों की ओर ध्यान न देकर दिल्ली में एक शानदार दरबार का आयोजन किया जिसमें लाखों रुपये पानी की तरह बहाये। अपना कार्यकाल पूरा करके इंग्लैण्ड लौटते समय एल्गिन ने घमण्ड से घोषणा की कि- ‘हिन्दुस्तान तलवार के जोर पर जीता गया था और तलवार के जोर से ही उसकी रक्षा की जायेगी।’ उसके इस कथन ने देश के भोले-भाले लोगों के दिलों में भी आग लगा दी। एल्गिन के समय में तिलक को राजद्रोह के अपराध में 18 मास का कठोर कारावास, चापेकर बन्धुओं को प्राण दण्ड, नाटु बन्धुओं को देश-निकाला आदि घटनाओं ने भी उग्रवादी भावनाओं को पनपाया।

(9.) कर्जन की दमनकारी नीतियाँ: कर्जन 1809-1905 ई. तक भारत का गवर्नर जनरल रहा। उसने जनआकांक्षाओं और जनता की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया। उग्रवाद के उदय में उसके द्वारा अपनाई गई दमनकारी नीतियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें से निम्नलिखित प्रमुख है-

 (क) केन्द्रीकरण की नीति: लॉर्ड कर्जन शासन ने भारत के शासन का केन्द्रीयकरण किया। उसने शिक्षा, कृषि, सिंचाई, पुरातत्त्व, खनिज इत्यादि के निर्देशन और नियंत्रण के लिए विशेषज्ञों की नियुक्तियां कीं तथा मद्रास और बम्बई के गवर्नरों की विशेष स्थिति के विरुद्ध आवाज उठायी। उसकी इन नीतियों से सरकार में केन्द्रीयकरण को बढ़ावा मिला। भारतीयों ने उसकी इस नीति को पसन्द नहीं किया।

(ख) कलकत्ता निगम अधिनियम (1899): 1899 ई. में कलकत्ता निगम अधिनियम पारित करके कलकत्ता निगम में सदस्यों की संख्या 75 से घटाकर 50 कर दी गई। अब तक निगम में दो-तिहाई सदस्यों का चुनाव, शहरी करदाता करते थे। नई व्यवस्था में केवल आधे सदस्य ही जनता से चुकर आ सकते थे। शेष आधे सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार सरकार को दे दिया गया। यह व्यवस्था भी की गई कि निगम के चेयरमैन की नियुक्ति सरकार करे। चेयरमैन को कई विशेषाधिकार भी दिये गये। इस प्रकार चुने हुए प्रतिनिधियों के अधिकारों में स्वतः कटौती हो गई। सरकार ने तर्क दिया कि निगम के सदस्य वास्तविक काम न करके, केवल बहस करते रहते थे। बंगाल में तथा देश के दूसरे भागों में सरकार की इस नीति का विरोध हुआ। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस अधिनियम  की भर्त्सना करते हुए कहा- ‘जिस दिन यह अधिनियम पारित किया गया उसे बंगाल की भावी पीढ़ियां उस दिन के रूप में स्मरण रखेंगी जब कलकत्ता में स्थानीय शासन का उन्मूलन कर दिया गया।’ निगम के 28 भारतीय सदस्यों ने विरोध स्वरूप निगम की सदस्यता छोड़ दी।

(ग) दिल्ली दरबार में धन का अपव्यय: 1899-1900 ई. में बम्बई, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बड़ौदा और मध्य भारत की कई रियासतें भयंकर अकाल की चपेट में आ गईं। भारत के बड़े क्षेत्र में इस अकाल का असर कई वर्षों तक रहा। लार्ड कर्जन ने जनता की बुरी अवस्था की परवाह न करके, सम्राट एडवर्ड सप्तम् के राज्यारोहण के अवसर पर 1903 ई. में दिल्ली में भव्य दरबार का आयोजन किया जिसमें भारत के धन का अपव्यय किया गया।  भारतीय नेताओं और समाचार पत्रों के विरोध को सरकार ने अनसुना कर दिया। कांग्रेस के 1903 ई. के अधिवेशन में कर्जन के इस कृत्य की कटु आलोचना की गई।

(घ) भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम: कर्जन ने भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम 1904 लागू करके उच्च शिक्षा पर सरकारी शिकंजा अत्यंत मजबूती से कस दिया। भारतीयों के लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र को सीमित कर दिया और शिक्षा को राष्ट्रीय विचारधारा के विरुद्ध तथा साम्राज्यवादी विचारधारा के प्रचार का साधन बना दिया। इस अधिनियम द्वारा विश्वविद्यालयों में सीनेट के सदस्यों की संख्या सीमित करके उनमें सरकार द्वारा नामित सदस्यों का बहुमत स्थापित किया गया। इस अधिनियिम के अन्तर्गत विश्वविद्यालयों को सम्बद्ध कॉलेजों पर नियन्त्रण करने के लिए अधिक अधिकार दिये गये तथा नये कॉलेजों को मान्यता देने के नियम कठोर बना दिये गये। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्तियों पर सरकार की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई। इस अधिनियम का एक ही अर्थ था कि उच्च शिक्षा के विषय में सरकार की इच्छा के बिना कोई भी कदम नहीं उठाया जा सकता था। कर्जन के इस निर्णय की देश भर में कटु आलोचना हुई तथा अधिनियम के विरोध में विशाल जनसभाएं आयोजित हुईं।

(ड.) राजकीय सूचनाओं की गोपनीयता का अधिनियम: लार्ड कर्जन ने राजकीय सूचनाओं की गोपनीयता का अधिनियम (1904) पारित करके समाचार पत्रों सहित समस्त नागरिकों पर यह प्रतिबंध लगा दिया कि वे असैनिक विषयों की जानकारी किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं दे सकते। समाचार पत्रों में सरकार के प्रति घृणा पैदा करने वाले समाचार नहीं छापे जा सकते। वर्ग-द्वेष को प्रोत्साहन देना दण्डनीय अपराध बना दिया गया। इस कानून की आड़ में किसी भी नागरिक एवं सम्पादक को पकड़ा जा सकता था। इसलिये जनता में सरकार के विरुद्ध व्यापक असन्तोष फैल गया और लोगों ने इस अधिनियम का कड़ा विरोध किया।

(च) सैनिक व्यय में वृद्धि: भारत की गोरी सरकार द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार हेतु चीन और दक्षिण अफ्रीका में भारतीय व्यय से सेनाएं भेजी गईं। 1904 ई. में तिब्बत पर आक्रमण किया गया। इस अभियान का सारा खर्च भारत से वसूल किया गया। जबकि चीन, दक्षिण अफ्रीका और तिब्बत में की गई कार्यवाहियों से भारत का कोई सम्बन्ध नहीं था। कांग्रेस के गरमदल नेताओं ने भारत के राजकोष पर अनैतिक रूप से भार डालने के लिये सरकार की कटु आलोचना की।

(छ) विक्टोरिया मेमोरियल का निर्माण: लॉर्ड कर्जन ने इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया की स्मृति में कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल बनवाया। इस पर एक करोड़ रुपये से भी अधिक खर्च किया गया। भारतीय नेताओं ने कर्जन द्वारा किये गये इस धन के अपव्यय पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की।

(ज) बंगाल का विभाजन: 1905 ई. में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल प्रान्त का विभाजन कर दिया। भारतीय इतिहास में इस घटना को बंग-भंग कहा जाता है। उस समय बंगाल प्रांत की जनसंख्या लगभग 8 करोड़ तथा क्षेत्रफल लगभग 1,90,000 वर्ग मील था। बंगाल, बिहार, उड़ीसा और छोटा नागपुर भी बंगाल प्रांत के अंतर्गत थे। इतने बड़े प्रान्त का प्रशासन चलाना कठिन कार्य था। इसलिये लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन करके मुसलमानों के बहुमत वाले क्षेत्र को अलग कर दिया। पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक अलग प्रान्त बनाया गया जिसमें 3 करोड़ 10 लाख लोग रहते थे। इस जनसंख्या में 1 करोड़ 80 लाख मुसलमान थे। लॉर्ड कर्जन ने पूर्वी बंगाल प्रान्त में मुसलमानों की सभाएं आयोजित कीं जिनमें उसने कहा कि यह विभाजन केवल शासन की सुविधा के लिए ही नहीं किया जा रहा है वरन् उसके द्वारा एक मुस्लिम प्रान्त बनाया जा रहा है जिसमें इस्लाम के अनुयायियों की प्रधानता होगी। बचे हुए पश्चिमी बंगाल प्रान्त में 1 करोड़ 70 लाख बंगला-भाषी लोगों की तुलना में बिहारी तथा उड़िया भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 4 करोड़ 10 लाख थी। इस प्रकार बंगाली हिन्दू, पूर्वी बंगाल में धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक बना दिये गये तथा पश्चिमी बंगाल में भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक बना दिये गये।

बंगला विभाजन के पीछे अँग्रेजों के मन में कई प्रकार के भय कार्य कर रहे थे। उस समय के भारत सरकार के गृह सचिव हारवर्ट होप रिसले ने एक गोपनीय रिपोर्ट लिखी- ‘संयुक्त बंगाल एक शक्ति है। बंगाल का विभाजन हो जाने पर वह अलग-अलग रास्तों में बंट जायेगा…….. हमारा एक मुख्य उद्देश्य है हमारे विरोध में संगठित शक्ति को विभाजित करना और उसे कमजोर बनाना।’

लॉर्ड रोनाल्डशे ने कहा था- ‘बंगाली राष्ट्रीयता की बढ़ती हुई दृढ़ता पर आघात किया गया था।’ कर्जन के इस कृत्य की ब्रिटेन के समाचार पत्रों ने भी निन्दा की। मैनचेस्टर गारजियन ने लिखा- ‘बंगाल को दो टुकड़ों में बांट देने की कर्जन की योजना को समझना कठिन है और उसे क्षमा कर देना और भी कठिन।’

बंगाल के विभाजन से राष्ट्रीय आन्दोलन में अचानक तेजी आ गयी। समस्त भारत ने इस विभाजन का कड़ा विरोध किया। सरकार ने आन्दोलन को दबाने के लिए दमन का सहारा लिया जिससे गरम दल नेताओं को नया कार्यक्षेत्र एवं अनुकूल वातावरण प्राप्त हो गया।

(10.) बाल, पाल और लाल का उत्कर्ष: लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय, को भारत के इतिहास में बाल, पाल और लाल कहा जाता है। इन नेताओं ने कांग्रेस के उदारवादी नेताओं से ठीक उलट, उग्र राष्ट्रवाद को चिन्गारी दी। इन नेताओं ने आम भारतीय को अपने आंदोलन में सम्मिलित करते हुए उन्हें ब्रिटिश शासन का विरोध करने की प्रेरणा दी। बाल गंगाधर तिलक ने जन साधारण को अद्भुत नारा देकर राष्ट्रीय आंदोलन के लिये नई भूमि तैयार की।

उन्होंने कहा- ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।’ तिलक के साथ लाला लाजपतराय, विपिनचन्द्र पाल, अरविन्द घोष आदि नेताओं ने भी अपना स्वर तीखा कर दिया। इन नेताओं ने कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन को भारत की आजादी के आंदोलन में बदल दिया।

(11.) लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी: लोकमान्य तिलक ने अपने समाचार पत्र केसरी में पूना में घटित घटनाओं के लिये सरकार की कटु आलोचना की। तिलक पर जनता को भड़काने और राजद्रोह करने के आरोप लगाकर बन्दी बनाया गया और उन्हें 18 माह के कठोर कारावास की सजा दी गई। पूना में उपद्रवियों को दण्ड देने वाली पुलिस टुकड़ी नियुक्त की गई। इन घटनाओं ने भारतीयों को और अधिक आंदोलित कर दिया। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं का भी अँग्रेजों की न्यायप्रियता से विश्वास डगमगाने लगा।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- ‘हम पूना में दण्ड देने वाली पुलिस की तैनाती गलत समझते हैं। तिलक और पूना के कुछ अन्य पत्रकारों को कैद में डालना और भी अधिक गलत समझते हैं। तिलक की कैद पर सारा राष्ट्र रो रहा है।’ श्रीमती एनीबीसेंट की मान्यता थी कि इन्हीं घटनाओें से भारत में उग्रवाद का विकास हुआ था।

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