Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 55 : उदारवादी नेतृत्व (नरमपंथी कांग्रेस) -2

उदारवादियों की रणनीति

कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की रणनीति बहुत सरल, स्पष्ट और विनम्र संघर्ष की थी। उन्होंने सरकार के विरुद्ध कटु भाषा का प्रयोग किये बिना तथा सरकार को नाराज किये बिना, कांग्रेस अधिवेशनों में नागरिक अधिकारों की मांगों के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किये तथा उन मांगों की पूर्ति के लिये सरकार पर विनम्र दबाव डाला।

(1.) जन साधारण से दूरी

उदारवादी नेताओं ने इस काल के राजनीतिक संघर्ष में जन-साधारण की भागीदारी को विशेष महत्त्व नहीं दिया तथा इसे केवल शिक्षित वर्गों तक सीमित रखा। गोपालकृष्ण गोखले का मानना था कि भारत का विशाल जनसमूह उदासीन, विभाजित, निर्धन और अज्ञानी है। अन्य उदारवादी नेताओं का मानना था कि जब तक समाज के विभिन्न वर्गों को एक राष्ट्र के सूत्र में बाँध नहीं दिया जाता तब तक राष्ट्रीय आंदोलन नहीं चलाया जा सकता। जनसामान्य में राजनीतिक जागृति पैदा करके ही उन्हें राष्ट्रीय समस्याओं के निवारण के लिये आंदोलन का रास्ता दिखाया जा सकता है। उनका विश्वास था कि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता किसी क्रान्ति के फलस्वरूप नहीं अपितु विकास के फलस्वरूप प्राप्त होगी। अतः उनकी रणनीति धीरे-धीरे राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने और स्वायत्त शासन की ओर अग्रसर होने की थी। उनका मानना था कि सरकार पर नैतिक दबाव डालने, बातचीत करने, समझौते करने और रियायतें प्राप्त करने से राजनीतिक विकास सम्भव है।

(2.) सरकार से विनम्र अनुरोध

उदारवादी नेता संवैधानिक तरीकों में विश्वास रखते थे। इस कारण अपनी मांगें कानून की सीमा के अंतर्गत रखते थे। वे कांग्रेस के अधिवेशनों में पारित मांगों को समाचार पत्रों और भाषणों के माध्यम से जनसाधारण में प्रसारित करते थे और उनकी पूर्ति के लिये अत्यंत विनम्र भाषा में भारत सरकार एवं गृह-सरकार के समक्ष याचिकाएँ एवं स्मरण-पत्र प्रस्तुत करते थे। उनकी भाषा इस प्रकार होती थी- ‘हम हमारी प्रिय लोकप्रिय सरकार से प्रार्थना करते हैं कि उपर्युक्त सुधारों को लागू करने की कृपा कर हमें अनुग्रहित करें।’

समय के साथ उदारवादी नेताओं की मांगों में वृद्धि होती रही किंतु इस काल में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता, जब कांग्रेस द्वारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उग्र भाषा का प्रयोग किया गया हो। इन तरीकों से उदारवादियों ने ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालने तथा ब्रिटिश जनता की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास किया परन्तु वे राष्ट्रव्यापी आन्दोलन खड़ा नहीं कर सके।

(3.) इंग्लैण्ड में जनमत पक्ष में करने के प्रयास

इग्ंलैण्ड में कुछ अँग्रेज अधिकारियों और समाचार पत्रों ने कांग्रेस की छवि को विकृत करना आरम्भ किया। इस पर उदारवादी नेताओं ने इंग्लैण्ड में कांग्रेस की सही छवि प्रस्तुत करने और जनमत अपने पक्ष में करने का निश्चय किया। उन्होंने इंग्लैण्ड में अपने प्रचार-प्रसार को अधिक महत्त्व देना आरम्भ किया क्योंकि समस्त प्रकार के सुधारों को अततः ब्रिटिश संसद द्वारा ही लागू किया जाना था। 1887 ई. में दादाभाई नौरोजी ने लन्दन में भारतीय सुधार संघ की स्थापना की। इस अवसर पर उन्होंने कहा- ‘शासन का प्रमुख स्रोत इंग्लैण्ड में है, इसलिए इंग्लैण्ड में कांग्रेस द्वारा किये गये कोई भी वैधानिक प्रयत्न अधिक प्रभावशाली और लाभदायक होंगे।’

1888 ई. में उमेशचन्द्र बनर्जी तथा नार्टन इंग्लैण्ड गये और उन्होंने नौरोजी व भारत के पक्षधर चार्ल्स ब्रेडला की सहायता से एक भारतीय राजनैतिक एजेन्सी की स्थापना की जो बाद में ब्रिटिश कमेटी ऑफ इण्डियन नेशनल कांग्रेस में परिवर्तित हो गई। इसका मुख्यालय 25 क्रेवल स्ट्रीट, स्ट्रेण्ड पर खोला गया। अनेक प्रतिष्ठित अँग्रेजों ने इसकी सदस्यता ग्रहण की। इसके अध्यक्ष वेडरबर्न और सचिव डिग्वी थे। इस संस्था के माध्यम से इंग्लैण्ड में भारतीय पक्ष का प्रचार-प्रसार हुआ। ब्रेडले ने इंग्लैण्ड के अनेक भागों में भारत के पक्ष में भाषण दिये। इससे इंग्लैण्ड के तटस्थ बुद्धिजीवियों में भारत के प्रति स्वतंत्र दृष्टिकोण उत्पन्न हुआ। इंग्लैण्ड में इण्डिया नामक एक पत्रिका आरम्भ की गई। इसका मुख्य उद्देश्य भारत की समस्याओं को ब्रिटिश जनता के समक्ष रखना था। यह पत्रिका इंग्लैण्ड में काफी लोकप्रिय हुई और ब्रिटिश जनता में, भारत की समस्याओं के प्रति रुचि बढ़ी। इसी समय दादाभाई नौरोजी ब्रिटिश ससंद के सदस्य निर्वाचित हुए। 1893 ई. में भारतीय संसद समिति बनी जिसके प्रयत्नों से ब्रिटिश संसद ने भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा भारत में भी आयोजित करने का प्रस्ताव पारित किया परन्तु इस पर अमल करने में बहुत विलम्ब किया गया।

उदारवादियों के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति

डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार कांग्रेस और इसके आन्दोलन के प्रति अँग्रेज सरकार का रुख प्रतिकूल रहा। नौकरशाही को भी इसके प्रति सहानुभूति नहीं थी और कुछ विशेष व्यक्तियों को छोड़कर सम्पूर्ण ब्रिटेन इसके विरुद्ध था।

डॉ. प्रसाद ने लिखा है- ‘नौकरशाही ने आरम्भ में तो कांग्रेस आन्दोलन का मजाक उड़ाया, फिर गाली-गलौच पर उतर आई और अन्त में सशक्त होकर इसके विरुद्ध दमन की नीति अपनाई।’

रैम्जे मेकडोनल्ड ने लिखा है- ‘राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति काफी सीमा तक सरकार की नीति पर निर्भर करती थी, जो आरम्भ में मैत्रीपूर्ण रही किन्तु बाद में घोर विरोध की हो गई।’

कांग्रेस की स्थापना वायसराय लॉर्ड डफरिन की स्वीकृति से हुई थी तथा इसकी स्थापना के पीछे सरकार का उद्देश्य राष्ट्रीय आन्दोलन के हिंसक मार्ग को संवैधानिक मार्ग की तरफ मोड़ना था। सरकार को विश्वास था कि कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे सम्पन्न एवं आराम-पसन्द भारतीयों के हाथों में रहेगा जो न तो हिंसक मार्ग अपनायेंगे और न सरकार की कटु आलोचना करेंगे। इस प्रकार कांग्रेस, सरकार द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलती रहेगी। यही कारण है कि कांग्रेस के प्रथम तीन अधिवेशनों के अवसर पर सरकार की ओर से कांग्रेस के प्रतिनिधियों को चाय-पार्टियाँ दी गईं।

1988 ई. में ह्यूम और डफरिन के सम्बन्ध बिगड़ गये। इस कारण सरकारी नीति में परिवर्तन आ गया। अँग्रेज शासक, भारतीयों के समानता के दावे को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। 30 नवम्बर 1888 को लॉर्ड डफरिन ने अपने भाषण में कांग्रेस द्वारा की गई संसदीय सरकार की मांग की खिल्ली उड़ायी और कांग्रेस को एक सीमित वर्ग की संस्था कहा। डफरिन ने सख्त शब्दों में कहा- ‘भारत के कुछ सुशिक्षित व मनीषी यह चाहते हैं कि सरकार लोकतांत्रिक हो, नौकरशाही उसके अधीन हो और उन्हें राष्ट्र के खजाने पर अधिकार मिल जाए और शनैः शनैः ब्रिटिश पदाधिकारी उनके सामने करबद्ध खड़े हों।’

डफरिन द्वारा इस प्रकार के विचार प्रकट किये जाने के बाद ब्रिटिश शासक कांग्रेस के विरोधी बन गये और उसके समाप्त होने की कामना करने लगे। सरकार ने कांग्रेस के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया। चौथा अधिवेशन 1888 ई. में दिसम्बर के अंतिम दिनों में इलाहाबाद में होना था। वहाँ के गवर्नर ऑकलैण्ड कोलविन ने प्रयास किया कि उसके प्रांत में अधिवेशन के लिए पैसा एकत्र न हो, अधिवेशन के लिए कांग्रेस का प्रचार न होने पाए और अधिवेशन के लिए कांग्रेस को इलाहाबाद में कोई जगह न मिले। यदि महाराजा दरभंगा ने सहायता न की होती तो कांग्रेस को कोई स्थान नहीं मिल पाता। महाराजा ने लोथर कैसल नामक भवन खरीद कर कांग्रेस के लिए दे दिया। सरकारी अधिकारियों ने लोगों पर दबाव डालना आरम्भ किया कि वे कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित न हों। मुसलमानों, देशी राजाओं तथा जमींदारों को कांग्रेस से दूर रखने का प्रयास किया गया। सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने पर रोक लगा दी। भारत सचिव हेमिल्टन ने कांग्रेस को धन देने वालों पर निगरानी रखने का आदेश जारी कर दिया। कुछ प्रान्तों के गवर्नरों ने तो यह सुझाव भी दिया कि कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों पर रोक लगा दी जाये किन्तु यह सुझाव स्वीकार नहीं हुआ। 1895 ई. के बाद कांग्रेस के प्रति सरकार का दृष्टिकोण दिनों-दिन कठोर होता गया।

मुस्लिम नेता सर सैयद अहमद ने आरम्भ से ही कांग्रेस का विरोध किया था। उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने का अथक प्रयास किया। जब सरकार ने प्रारम्भ में कांग्रेस की सहायता की तो उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि यह सहायता बन्द की जाये। सरकार को हिन्दू कांग्रेस की तरफ नहीं झुकना चाहिए। जब सरकार ने कांग्रेस विरोधी नीति पर चलना आरम्भ किया तो सर सैयद अहमद को अत्यधिक प्रसन्न्ता हुई और वे कांग्रेस की निन्दा तथा सरकार की प्रशंसा करने लगे।

कांग्रेस के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति में परिवर्तन के कारण

कांग्रेस के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति में केवल तीन सालों में ही आये बड़े परिवर्तन के पीछे कई कारण थे। इनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार से हैं-

(1.) कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में ह्यूम द्वारा आमंत्रित सदस्य ही आये थे जबकि बाद के अधिवेशनों में चुने हुए प्रतिनिधि आने लगे। इस कारण कांग्रेस ने संगठित राजनीतिक पार्टी का रूप लेना आरम्भ कर दिया था।

(2.) अभी तक कांग्रेस का विधान अस्तित्त्व में नहीं आया था, फिर भी वकील एसोसिएशन, शिक्षक एवं स्थानीय संस्थाओं के सदस्य अपने प्रतिनिधि चुनकर कांग्रेस के अधिवेशन में भेजते थे। इस प्रकार वे किसी न किसी रूप में चुने हुए प्रतिनिधि थे न कि आमंत्रित सदस्य।

(3.) कांग्रेस की लोकप्रियता में तेजी से वृद्धि हो रही थी। प्रथम अधिवेशन में केवल 72 आमंत्रित व्यक्तियों ने भाग लिया, दूसरे अधिवेशन में 431 ने और तीसरे में 607 चुने हुए प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसकी बढ़ती लोकप्रियता से सरकार का सतर्क हो जाना स्वाभाविक ही था।

(4.) कांग्रेस का नेतृत्व बुर्जुआ विचारधारा के लोगों के हाथों में था जिनमें वकीलों की संख्या सर्वाधिक थी। पहले अधिवेशन में इनकी संख्या 39 थी, जो दूसरे अधिवेशन में बढ़कर 166 और तीसरे अधिवेशन में 206 हो गई थी।

(5.) भारतीय राजाओं, जमींदारों तथा तालुकेदारों की एक बड़ी संख्या कांग्रेस से जुड़कर इसकी सक्रिय सहायता कर रही थी। कांग्रेस के अधिवेशनों में इन लोगों के प्रतिनिधि भी पहुंच रहे थे। राजाओं, जमींदारों एवं तालुकेदारों ने कांग्रेस के अधिवेशनों को सफल बनाने के लिये विपुल धन दिया। महाराजा दरभंगा ने कई साल तक कांग्रेस को 10,000 रुपये प्रति वर्ष दिये। विजयनगरम के महाराजा भी नियमित रूप से कांग्रेस को रुपया देते थे। यह वर्ग ब्रिटिश शासन का आधार स्तम्भ था किंतु कांग्रेस के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित कर रहा था इस कारण सरकार का उद्विग्न हो जाना स्वाभाविक था।

(6.) कांग्रेस का नेतृत्व यद्यपि बुद्धिजीवी नेताओं के हाथों में था तथापि 1987 से ही कांग्रेस में निम्न मध्यम वर्ग और रैयत का घुसना आरम्भ हो गया। इस कारण दूर स्थानों से आये प्रतिनिधियों के भाषणों में देशी भाषा का प्रयोग होने लगा। इससे गोरी सरकार, कांग्रेस को संदेह की दृष्टि से देखने लगी।

(7.) ब्रिटिश शासक जिन लोगों को नहीं चाहते थे, वेे भी कांग्रेस के अन्दर घुस आये और ब्रिटिश शासक कांग्रेस को जिस रास्ते पर ले जाना चाहते थे, कांग्रेस ने उसका उल्टा रास्ता पकड़ लिया था।

मद्रास अधिवेशन के बाद डफरिन और अन्य ब्रिटिश अधिकारी, कांग्रेस के विरुद्ध हो गए। सुप्रसिद्ध इतिहासकार अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के लिए वे अपने वफादार चाकरों और खैरख्वाहों को लेकर उस पर टूट पड़े। एक तरफ वायसराय डफरिन और पश्चिमोत्तर प्रदेश के गवर्नर कोलविन ने, दूसरी तरफ बनारस के राजा और हैदराबाद के नवाब ने, तीसरी तरफ सर सैयद अहमद और राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद ने, चौथी तरफ ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने तथा पांचवी तरफ सर दिनशा मानकजी पेटिट और अन्य धनी पारसियों ने आक्रमण किये। ब्रिटिश नौकरशाही ने मुसलमानों और पारसियों को, हिन्दुओं के एक बड़े हिस्से को, जमींदारों और धनी-मानी व्यक्तियों को कांग्रेस से अलग कर देने और उसका दुश्मन बना देने की कोशिश की।’

उदारवादी नेता सरकार को नाराज नहीं करना चाहते थे। सरकार की इस नाराजगी को उन्होंने चुपचाप सहन कर लिया और वे अविचलित भाव से अपना काम करते रहे।

उदारवादियों की उपलब्धियाँ

उदारवादी नेतओं की कार्यविधि चाहे जो भी रही हो किंतु उनकी उपलब्धियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण थीं-

(1.) संवैधानिक विकास में योगदान

उदारवादी आन्दोलन का भारत के संवैधानिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। कांग्रेस ने ब्रिटिश संसद द्वारा भारत के शासन की जाँच करवाने में सफलता प्राप्त की। 1897 ई. का वेल्वी कमीशन, जिसने भारत सरकार के खर्चों की जांच की, उदारवादियों के प्रयत्नों का ही परिणाम था। कांग्रेस के प्रचार ने सरकार की निरंकुशता को कम किया। उन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप 1892 ई. का परिषद् अधिनियम पारित हो पाया। यह अधिनियम राष्ट्रीयता के युद्ध में भारतीयों की प्रथम विजय थी। इस अधिनियम से शासन की निरंकुशता में थोड़ी-बहुत कमी अवश्य आई। इसके द्वारा केन्द्रीय व्यवस्थापिका तथा प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई। पहली बार बजट पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार मिला। अप्रत्यक्ष चुनाव की प्रथा प्रारम्भ हुई। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का मानना था कि इस अधिनियम के द्वारा भारत में प्रतिनिधि शासन की नींव डाली गई।

उदारवादियों ने सरकार के कुछ प्रतिक्रियावादी कानूनों का सफलतापूर्वक विरोध किया। 1890 ई. में बंगाल सरकार ने अपने अधिकारियों को कांग्रेस अधिवेशन में दर्शक के रूप में भाग नहीं लेने का आदेश दिया। उदारवादियों ने इसकी घोर निन्दा करके इसे रद्द करवाया। 1894 ई. में केन्द्रीय सरकार ने 1879 ई. के लीगल प्रेक्टिशनर एक्ट में संशोधन करने के लिए व्यवस्थापिका सभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया। इस संशोधन से वकीलों को जिलाधीशों तथा रेवेन्यू कमिश्नरों के अधीन रहकर काम करना पड़ता और राजनीतिक क्षेत्र में स्वतन्त्रापूर्वक कार्य करने पर भी रोक लग जाती। इस विधेयक का मूल उद्देश्य कांग्रेस में सम्मिलित वकीलों को नियंत्रित करना था। उदारवादियों ने इस विधेयक का भरपूर विरोध किया जिससे सरकार ने विधेयक वापस ले लिया। कुछ विद्वान् 1909 के अधिनियम को भी उदारवादियों की उपलब्धि मानते हैं। इसका प्रारूप गोखले तथा अन्य भारतीय नेताओं की सलाह से तैयार किया गया था। 

(2.) प्रमुख अँग्रेजों से सहानुभूति का अर्जन

उदारवादियों के वैधानिक आन्दोलन एवं उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप ब्रिटिश जनता का ध्यान भारतीय राजनीतिक समस्याओं की ओर आकृष्ट हुआ और ब्रिटिश संसद के कुछ सदस्यों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति सहानुभूति प्रकट की। मजदूर दल के नेता चार्ल्स ब्रेडला ने खुले रूप से हिन्दुस्तानी सदस्य की उपाधि धारण की। अनेक अँग्रेज नेताओं ने भी अपने लेखों के माध्यम से इंग्लैण्ड की जनता का ध्यान भारतीय राजनीतिक मांगों की ओर आकर्षित किया। 1893 ई. में ब्रिटिश संसद के सर विलियम वेडरबर्न, डब्ल्यू. एम. केन. आदि सदस्यों ने एक भारतीय संसदीय समिति की स्थापना की। इस समिति का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश संसद में भारत के राजनीतिक सुधारों के प्रश्नों पर हलचल उत्पन्न करना था। भारतीय कांग्रेस इस समिति को भारतीय समस्याओं की जानकारी देती थी। इस प्रकार, उदारवादियों ने अँग्रेज नेताओं की जो सहानुभूति प्राप्त की उसके फलस्वरूप इंग्लैण्ड में राष्ट्रीय आन्दोलन के विरुद्ध किये जाने वाले प्रचार को अप्रभावी बनाने में सहायता मिली।

(3.) राष्ट्रीय आन्दोलन की शुरुआत

उदारवादी नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत की। यद्यपि वे जन साधारण के बीच जाकर काम नहीं करते थे तब भी समाचार पत्रों में छपने वाली रिपोर्र्टों के कारण कांग्रेस के कार्यक्रमों में रुचि लेने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। देश भर में कांग्रेस के कार्यों की प्रशंसा होने लगी। कांग्रेस के उन दिनों के नेता ही भारतीय राष्ट्रीयता के जनक माने जाते हैं। भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जगाने का श्रेय उन्हीं को था। अब आम आदमी भी सरकार के कार्यों पर ध्यान रखने लगा। 1901 से 1905 ई. के दौरान सरकार के विरुद्ध प्रबल विरोध उठ खड़ा हुआ। इस कारण कांग्रेस का राष्ट्रीय आन्दोलन विस्तृत होकर जन-आन्दोलन में बदल गया।

(4.) भारतीयों को राजनीतिक सूझबूझ की शिक्षा

उदारवादी नेतृत्व ने भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान की तथा भारतीयों में लोकतन्त्र के प्रति रुचि उत्पन्न की। दिसम्बर के अन्तिम दिनों में कांग्रेस प्रतिवर्ष अपना अधिवेशन करती थी जिसमें विभिन्न प्रान्तों के शिक्षित एवं राजनीतिक काम में रुचि रखने वाले लोग आते थे। ये लोग राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्नों पर विचार-विमर्श करते थे और अपने दृष्टिकोण को विनीत, तर्कयुक्त एवं राजभक्ति पूर्ण भाषा में लिखे हुए प्रस्तावों द्वारा व्यक्त करते थे। समाचार पत्रों में इन प्रस्तावों को और प्रस्तावों से सम्बन्धित नेताओं के व्याख्यानों को प्रकाशित किया जाता था तथा उन पर सम्पादकीय टिप्पणियाँ भी लिखी जाती थीं। हजारों भारतीय इन लेखों तथा टिप्पणियों को पढ़ते थे और अपने स्तर पर विचार-विमर्श करते थे। इस प्रकार, कांग्रेस ने भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा एवं सूझबूझ प्रदान की।

(5.) ब्रिटिश शासन के दोषों का खुलासा

उदारवादियों की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह भी है कि उन्होंने भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के दोषों से अवगत कराया। उन्होंने साम्राज्यवादियों द्वारा किये जा रहे शोषण तथा ब्रिटिश नौकरशाही के काम करने के तरीकों की खुलकर आलोचना की। इस प्रकार कांग्रेस ने सरकार की आलोचना करने तथा भारतीयों की मांगों को प्रकाश में लाने के लिए मंच प्रदान किया। इस कारण लॉर्ड डफरिन तथा अन्य ब्रिटिश अधिकारी कांग्रेस के विरोधी हो गये। उदारवादियों के सीमित क्रिया-कलापों के उपरान्त भी भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन का विरोध बढ़ता ही गया।

(6.) राष्ट्रीयता का प्रसार

उदारवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव को मजबूत किया जिससे जन साधारण में राष्ट्रीयता का प्रसार हुआ। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन से ही इसमें राष्ट्रगीत गाया जाने लगा। इसकी कुछ पंक्तियां वंदेमातरम से ली गई थीं। इसके बाद हर अधिवेशन में राष्ट्रगीत गायन की परम्परा बन गई। उदारवादी नेताओं ने कांग्रेस को नौकरशाही के क्रूर हाथों से बचाकर भविष्य के लिए उसकी जड़ें इतनी गहरी कर दीं कि बाद में नौकरशाही तो क्या स्वयं इंग्लैण्ड की सरकार भी कांग्रेस को नष्ट नहीं कर सकी।

सर हेनरी कॉटन ने कहा था- ‘इस संगठन के नेता देश में एक शक्ति बन गए हैं जिनकी आवाज देश के एक कोने से दूसरे कोने तक निनादित होती है।’

इस काल में कांग्रेस द्वारा किये गये कार्यों का लाभ भारत की आजादी तक होता रहा। कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी ने लिखा है- ‘यदि पिछले तीस वर्षों में कांग्रेस के रूप में एक अखिल भारतीय संस्था, राजनैतिक क्षेत्र में कार्यरत न रहती तो सम्भवतः गांधीजी का कोई आन्दोलन सफल नहीं होता और न ही सरदार पटेल की अध्यक्षता में कांग्रेस इतनी कुशल यंत्र प्रमाणित होती।’

पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है- ‘उन्होंने ही (नींव में दबे हुए ईंट-गारे की तरह) औपनिवेशिक स्वशासन, साम्राज्य के अन्तर्गत गृह-शासन, स्वराज्य तथा सबसे ऊपर पूर्ण स्वतन्त्रता की मंजिलों वाले ऊपर के ढांचे के निर्माण को सम्भव बनाया।’

उदारवादी नेतृत्व की आलोचना

(1.) नेताओं में त्याग की कमी

उदारवादी नेताओं ने जो साधन अपनाये उन्हें राजनीतिक भिक्षावृत्ति कहकर उनकी आलोचना की जाती है। गुरुमुख निहालसिंह ने लिखा है- ‘सम्भवतः गोखले को छोड़कर कांग्रेस के उदार नेता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए त्याग करने तथा कष्ट सहने को तैयार नहीं थे। इसलिए वे भारत के लिए शासन-सुधारों की भीख मांगना ही पसन्द करते थे, उनके लिए मांग करना नहीं।’

डॉ. पुरुषोत्तम नागर ने लिखा है- ‘उदारवादियों ने भारत के ब्रिटिश शासकों को प्रसन्न रखते हुए उनकी दयालुता एवं न्यायप्रियता की दुहाई देकर स्वशासन की ओर बढ़ने का प्रयत्न किया। साहस एवं कष्ट सहन करने की क्षमता आदि के अभाव के कारण कारावास का जीवन उनके लिए असह्य था। वे अपने पद, व्यवसाय तथा सामाजिक स्तर को अक्षुण्ण रखते हुए भारत में स्वराज्य की स्थापना का स्वप्न देखते थे।’

एक अन्य इतिहासकार ने उदारवादियों की आलोचना करते हुए लिखा है- ‘गांधी पूर्व युग के कॉलर-टाई धारी राष्ट्रवादी, शहरों में लेक्चर देते थे जहाँ कार उन्हें लेने पहुंचती थी और जहाँ टी तथा टिफिन उनके लिये तैयार रहता था। वे क्रिसमस की छुट्टियों में वार्षिक बैठकें करते थे, ब्रिटिश राज के शुभाशीषों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते थे, भारतीयों के लिये कुछ दुख दर्द रखते थे। बर्क और ग्लड्स्टन को उद्धृत करते थे, हिज मेजस्टी के स्वास्थ्य की कामना करते थे तथा पुनः स्वास्थ्यप्रद मौसम के आगमन तक विसर्जित हो जाते थे….।’

(2.) मनोवृत्ति के सम्बन्ध में आलोचना

उदारवादी नेता, ब्रिटिश शासकों की न्यायप्रियता में विश्वास जताते थे। उनका मानना था कि प्रजातन्त्र के समर्थक अँग्रेज, भारत के लिए भी इंग्लैण्ड जैसी व्यवस्था का समर्थन करेंगे। 1895 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- ‘इंग्लैण्ड से हमें प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन की आशा है…….इंग्लैण्ड से वह महान् आदेश आएगा जिससे हमारी जनता को मताधिकार मिलेगा। इंग्लैण्ड हमारा राजनीतिक नेता है।’

उदारवादियों ने भारतीयों की इंग्लैण्ड के प्रति वफादारी और उनकी देशभक्ति के बीच गहरा सम्बन्ध स्थापित करने में कभी असुविधा अनुभव नहीं की। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने लिखा है- ‘हमारा यह पक्का विश्वास है कि केवल ब्रिटिश सरकार के माध्यम से ही उन राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है जिनकी तीव्र अभिलाषा अँग्रेजी शिक्षा और अँग्रेजी शासन ने हम से की है।’

तत्कालीन उदारवादी नेताओं का ऐसा विश्वास उनकी गम्भीर भूल समझी जाती है। क्योंकि अँग्रेजों ने उदारवादियों के प्रस्तावों और प्रार्थना पत्रों पर कभी ढंग से ध्यान नहीं दिया। उदारवादी नेता, भारत और ब्रिटिश हितों को एक समझते थे जबकि वास्तविकता यह थी कि अँग्रेज भारत को अपना एक उपनिवेश मात्र समझते थे।

(3.) राजनीतिक सुधारों की प्राप्ति नहीं

उदारवादी प्रतिवर्ष अपने प्रस्तावों एवं याचिकाओं के माध्यम से राजनीतिक सुधारों की मांग करते रहे परन्तु विदेशी शासन से राजनीतिक सुधारों की मांग का नतीजा निराशा जनक रहा। भारत में पनपने वाले क्रान्तिकारी असन्तोष के लिए ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को सेफटी वाल्व की भांति प्रयोग किया और प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपनाया परन्तु जब कांग्रेस, सरकार की इच्छानुसार कार्य न कर सकी तो सरकार ने कांग्रेस-विरोधी रुख अपना लिया। उदारवादियों की यह धारणा नितान्त मिथ्या थी कि राजनीतिक सुधारों के विषय में कांग्रेस ने सरकार को निर्देश देने का साहस किया। क्योंकि सरकार ने उसके सुझावों को मानने से इन्कार कर दिया। उदारवादी राजनीतिक सुधारों की प्राप्ति में असफल रहे।

(4.) आम जनता का सहयोग नहीं

प्रायः यह कहा जाता है कि उदारवादी नेता अपने आन्दोलन को जन-आन्दोलन नहीं बना पाये। उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन का सामाजिक आधार केवल शहरी शिक्षित वर्ग तक ही सीमित था। शहरी शिक्षित वर्ग में भी वकील, डॉक्टर, पत्रकार, अध्यापक, कुछ व्यापारी तथा कुछ भूमिपति कांग्रेस के आंदोलन से जुड़ पाये। अधिकांश औद्योगिक, व्यापारिक, पूँजीपति तथा जमींदार आदि प्रभावशाली लोग कांग्रेस के आंदोलन से दूर थे। इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन का कार्य उच्च मध्य वर्ग अथवा शिक्षित अभिजात्य वर्ग के हाथों में था जिनका आम जनता की राजनीतिक समझ में बहुत कम विश्वास था। उनका मत था कि जन साधारण में राजनीतिक संघर्ष करने के लिये आवश्यक शक्ति एवं चारित्रिक दृढ़ता का अभाव है। इस दृष्टिकोण के कारण उदारवादी नेताओं की कार्यप्रणाली बहुत सुस्त रही। उनका मानना था कि अभी वह समय नहीं आया था जब भारतीय जनता विदेशी शासन को चुनौती दे सके।

उदारवादी आंदोलन का मूल्यांकन

कुछ लोगों के मतानुसार राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में प्रारम्भिक उदारवादी नेताओं का काल सबसे कम महत्त्वपूर्ण रहा क्योंकि उस काल के कार्यक्रमों में वह क्रियाशीलता दिखाई नहीं देती जो राष्ट्रीय आन्दोलन में होनी चाहिए। लाला लाजपतराय ने लिखा है- ‘राष्ट्रीय आन्दोलन के तत्त्वों की कमी थी, वह एक ऐसा रुक-रुक कर चलने वाला आन्दोलन था जो उसी वर्ग की सहानुभूति एवं सद्भावना पर निर्भर था, जिसके विरुद्ध यह चलाया गया था। यह आन्दोलन जनता द्वारा न तो संयोजित था और न उसके द्वारा अनुप्राणित था।’

वस्तुतः ऐसा कहना उचित नहीं है उस काल की कांग्रेस में राष्ट्रीय आंदोलन के तत्त्वों की कमी थी। कांग्रेस की स्थापना, 1857 की क्रांति के केवल 28 वर्ष बाद हुई थी। उस समय सरकार फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी और उसे ऐसी सूचनाएँ मिल रही थीं कि यदि भारतीय जनता के गुस्से को निकलने के लिये सुरक्षा नली नहीं दी गई तो वह ज्वाला के रूप में फटेगा। कांग्रेस की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई थी। फिर भी अपनी स्थापना के तीन वर्ष के भीतर ही कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के मार्गदर्शन से मुक्ति पा ली और भारतीयों के अधिकारों के विरुद्ध भारत तथा इंग्लैण्ड में अच्छा-खासा जनमत जगा लिया। यह उसकी बहुत बड़ी सफलता थी। यदि कांग्रेस गोरी सरकार के विरुद्ध उग्र आंदोलन करती तो निश्चय ही गोरी सरकार उसे कुचल कर समाप्त कर देती। कांग्रेस के लिये यह बिल्कुल भी उचित नहीं होता क्योंकि अभी भारत में उसका जनाधार न के बराबर था। ऐसी पस्थितियों में इस काल के नेताओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन की दृढ़ नींव डाली और ऐसे मार्ग का निर्माण किया जिस पर चलकर आजादी प्राप्त की गई। उन्होंने जीवन के प्रति वैज्ञानिक पद्धति को अपनाने पर बल दिया तथा सामाजिक समानता के आधार पर भारतीय समाज के पुनर्निर्माण पर बल दिया।

1897 ई. में सी. शंकर नायर ने उदारवादियों के विचारों का सार प्रस्तुत करते हुए कहा- ‘हम अपनी प्रणाली की उन सब बुराइयों को दूर करना चाहते हैं, जो हमारी उन्नति के मार्ग में बाधक हैं, उन पाश्चात्य सभ्यता के गुणों को अपनाना चाहते हैं जो हमारे लिए गुणकारी हैं और यह तब तक असम्भव है जब तक कोई सरकार पुराने ढांचे की सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहे……. हमें धर्मनिरपेक्ष सरकार की आवश्यकता है जो उदारवादी विचारों के माध्यम से उन्नति में सहायक हो।’

गुरुमुख निहालसिंह ने लिखा है- ‘उस समय की कांग्रेस राजभक्ति प्रदर्शित करती थी। उसकी संकुचित नीति नरमदली थी और उसकी भाषा निवेदनात्मक ही नहीं वरन् याचनापूर्ण थी; तथापि उसने उस युग में भारतवासियों  में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने; उन्हें एकसूत्र में बांधने और उनमें राष्ट्रीय एवं राजनीतिक जागृति फैलाने के लिए महत्त्वपूर्ण तथा मौलिक काम किया था।’

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उदारवादियों ने याचक रहते हुए भी भारतीयों के लिये प्रतिनिधि संस्थाओं में अधिकाधिक प्रतिनिधित्व देने, विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने, प्रेस को स्वतन्त्रता देने तथा उच्च प्रशासनिक पदों पर भारतीयों को भी समान रूप से नियुक्ति देने के लिये सरकार पर दबाव बनाया। उदारवादी नेताओं ने आर्थिक विकास के प्रति राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने कराधान की एक न्यायसंगत पद्धति अपनाने की वकालत की जिसके अन्तर्गत जनता भुगतान कर सकने में समर्थ हो सके। उन्होंने औद्योगीकरण पर बल दिया, जिससे राष्ट्रीय आय के साधनों में वृद्धि हो सके और बेरोजगारों को काम मिल सके परन्तु उदारवादियों ने किसानों और श्रमिकों के हितों की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया। फिर भी उनकी सफलताएँ सरहानीय थीं और देश की आजादी की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हुईं।

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