Friday, November 7, 2025
spot_img

उग्रराष्ट्रवादियों द्वारा बंग-भंग का विरोध

जब ईस्वी 1905 में लॉर्ड कर्जन ने हिन्दू बंगाल और मुस्लिम बंगाल बनाने के उद्देश्य से बंगाल का विभाजन किया तब उग्रराष्ट्रवादियों द्वारा बंग-भंग का विरोध किया गया।

लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन

बंगाल एक विशाल प्रान्त था। इसमें बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा छोटा नागपुर तक विस्तृत भू-भाग सम्मिलित था। इतने बड़े प्रांत का शासन सुचारू रूप से  सम्भाला जाना कठिन था। इस कारणबंगाल के विभाजन पर 1892 ई. से विचार चल रहा था।

लॉर्ड कर्जन ने 18 जुलाई 1905 को बंगाल के विभाजन की घोषणा की तथा पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल नामक दो प्रांत बनाये। पहले टुकड़े में बंगाल का पूर्वी भाग और आसाम का क्षेत्र रखा गया। इस प्रांत के लिये पृथक् लेफिटनेंट गवर्नर नियुक्त किया गया जिसकी राजधानी ढाका रखी गई। पश्चिमी बंगाल में बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल के क्षेत्र रखे गये।

इसकी राजधानी कलकत्ता में रही। बंगाल को विभाजित करने का वास्तविक उद्देश्य बंगाल की एकजुट राजनीतिक शक्ति को भंग करना था। अँग्रेजों ने बंग-भंग के माध्यम से पूर्वी बंगाल के रूप में एक ऐसा प्रान्त बना दिया जिसमें मुसलमानों की प्रधानता थी। अँग्रेजों को आशा थी कि नया प्रांत, हिन्दू बहुल पश्चिमी प्रांत के विरुद्ध आवाज बुलंद करता रहेगा। सैयद अहमद खाँ तथा उनके आदमियों ने इस कार्य में अँग्रेजों का साथ दिया ताकि उनकी राजनीति चमक जाये।

उग्रराष्ट्रवादियों द्वारा बंग-भंग का विरोध

बंगाल-विभाजन के विरुद्ध पूरे देश में राष्ट्रव्यापी आन्दोलन खड़ा हो गया। बंगाल-विभाजन का प्रस्ताव सामने आते ही कलकत्ता में महाराजा जतीन्द्रमोहन ठाकुर की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक सभा आयोजित हुई जिसमें सरकार से बंगाल विभाजन के सम्बन्ध में कुछ संशोधन करने की मांग की गई।

कर्जन ने किसी भी प्रकार का संशोधन करने से मना कर दिया। 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता के टाउन हाल में विराट जनसभा हुई जिसमें बड़े-बड़े नेता तथा विभिन्न जिलों के प्रतिनिधि मण्डल उपस्थिति थे। इसके बाद पूरे बंगाल में बंग-भंग के विरोध में जनसभाएँ हुईं। इन सभाओं में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम स्वीकार किया गया।

16 अक्टूबर 1905 को कर्जन ने बंग-भंग की घोषणा को कार्यान्वित कर दिया। बंगाली जनता ने इस दिन को शोक-दिवस के रूप में मनाया। प्रातःकाल से ही कलकत्ता सहित विभिन्न नगरों की सड़कें वन्देमातरम् के गायन से गूँज उठीं। मनुष्यों के समूह नदी के किनारे एकत्रित होकर एक-दूसरे की कलाई पर राखी बांधने लगे।

गायन मण्डलियों ने वीर रस से ओत-प्रोत गीत गा-गाकर जनता में देशभक्ति की भावना जागृत की। उस दिन पूरे बंगाल में हड़ताल रही। स्थान-स्थान पर आयोजित जन-सभाओं में बंगालियों ने प्रण लिया कि हम एक जाति की हैसियत से, अपने प्रांत के बँटवारे से पैदा हुए बुरे प्रभावों को दूर करने और अपनी जाति की एकता बनाये रखने के लिए शक्ति-भर सब-कुछ करेंगें।

कलकत्ता में एक फेडरेशन हॉल का शिलान्यास किया गया जिसमें समस्त जिलों की मूर्तियों को रखा गया। पृथक् किये गये जिलों की मूर्तियों को पुनः एक होने तक के लिये ढक दिया गया। अनेक स्थानों पर हड़ताल के साथ-साथ उपवासों के भी आयेाजन किये गये। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बुनकर उद्योग की सहायता से राष्ट्रीय निधि की स्थापना की।

विदेशी माल के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए व्यापक अभियान आरम्भ किया गया। प्रान्त के कोने-कोने में तथा प्रान्त के बाहर भी बंग-भंग के विरोध में जनसभाएं आयोजित की गईं। पूरा बंगाल वन्देमातरम् के गायन से गूँज उठा। सरकारी दमन ने आन्दोलन को और अधिक उग्र बना दिया।

वन्देमातरम् के गीत पर नियन्त्रण व आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी से आन्दोलन ने अत्यधिक उग्र रूप धारण कर लिया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और विपिनचन्द्र पाल ने समूचे बंगाल का दौरा करके जनता से अपील की कि वे बंग-भंग विरोधी अभियान को सफल बनायें। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व इस समय भी उदारवादियों के हाथों में था किंतु कांग्रेस ने बंग-भंग की कटु आलोचना की। नवयुवकों और विद्यार्थियांे ने इस आन्दोलन में बड़ी संख्या में भाग लिया।

लॉर्ड कर्जन और उनके सहयोगियों ने मुसलमानों को इस आन्दोलन से अलग रखने के प्रयास किये किंतु अब्दुल रसूल, लियाकत हुसैन, अब्दुल हलीम गजनवी, यूसुफ खान बहादुर, मुहम्मद इस्माइल चौधरी आदि नेताओं के नेतृत्व में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भी बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में भाग लिया।

मुसलमान नेताओं ने विशाल सभा का आयोजन करके प्रस्ताव पारित किया कि देश की उन्नति के लिए जो काम हिन्दू करेंगे, मुसलमान उसका समर्थन करेंगे, मुसलमान हिन्दुओं का साथ बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में ही नहीं अपितु दूसरे मामलों में भी देंगे, और विदेशी माल के बॉयकाट और देशी माल के इस्तेमाल का समर्थन करेंगे। इस पर अँग्रेज अधिकारियों ने उन अलगाववादी मुस्लिम नेताओं को दंगे करने के लिये भड़काया जो अपने लिये एक मुस्लिम-बहुल प्रांत चाहते थे।

बंग-भंग आन्दोलन के विरुद्ध सरकार की दमन नीति

बंग-भंग विरोधी आंदोलन के फूट पड़ते ही सरकार ने सार्वजनिक सभाओें पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अध्यापकों को चेतावनी दी गई कि वे अपने छात्रों को इस आन्दोलन से दूर रखें। मैमनसिंह जिले में दो लड़कों पर केवल इसलिए जुर्माना किया गया कि वे वन्देमातरम् गा रहे थे।

सरकार ने निजी शिक्षण संस्थाओं को धमकी दी कि जिस स्कूल के अधिकारी अपने छात्रों एवं अध्यापकों को इस आन्दोलन से अलग नहीं रखेंगे उनकी मान्यता समाप्त करके सरकारी सहायता बंद कर दी जायेगी। इन स्कूलों के प्रबंधकों ने बहुत से छात्रों और शिक्षकों को स्कूलों से हटा दिया।

सरकार ने बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों को बन्दी बनाकर उन्हें अमानवीय सजाएं दीं। गोरी सरकार का भयावह चेहरा उस समय खुलकर सामने आया जब सरकार ने मुसलमानों को हिन्दुओं पर आक्रमण करने तथा उन पर भीषण अत्याचार करने के लिये उकसाया।

एक स्थान पर तो मुसलमानों ने ढोल-बजा-बजा कर घोषणा करवाई कि सरकार ने उन्हें, हिन्दुओं को लूटने एवं हिन्दू-विधवाओं के साथ विवाह करने की अनुमति दे दी है। बंगाल के गवर्नर वैमफील्ड फुलर ने लोगों को भड़काने के लिये यह बयान दिया- ‘…… मेरी हिन्दू और मुस्लिम पत्नियों में, मुस्लिम पत्नी मेरी ज्यादा चहेती है।’

बंगाल में घटी इन घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए उन दिनों के प्रसिद्ध समाचार पत्र मार्डन रिव्यू ने लिखा था- ‘आन्दोलन-काल की घटनाएं समस्त सम्बन्धित पक्षों के लिए निन्दनीय हैं…….हिन्दुओं के लिए उनकी भीरूता के लिए, क्योंकि उन्होंने मन्दिरों के अपवित्रीकरण, मूर्तियों के खण्डन तथा स्त्रियों के अपहरण के विरुद्ध बल-प्रयोग नहीं किया, स्थानीय मुस्लिम जनता के लिए नीच व्यक्तियों के बाहुल्य के कारण और अँग्रेजी सरकार के लिए इस कारण कि उसके शासन में इस प्रकार की घटनाएँ बिना रोक-टोक के बहुत दिनों तक होती रहीं।’

उग्रराष्ट्रवादियों द्वारा बंग-भंग का विरोध का महत्त्व

बंग-भंग आन्दोलन भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। वन्देमातरम् के नारे ने सदियों से सोई जनता को जागृत कर दिया। इस कारण राष्ट्रीय एकता की जो प्रबल भावना जागृत हुई उसने स्वतन्त्रता प्राप्ति की इच्छा को दृढ़ बना दिया। अब कांग्रेस का अपने उदारवादी नेताओं से मोह भंग हो गया। स्वयं गोखले को कहना पड़ा- ‘नवयुवक यह पूछने लगे हैं कि संवैधानिक उपायों का क्या लाभ है, यदि इनका परिणाम बंगाल का विभाजन ही होना था।’

इस प्रकार बंग-भंग की घटना ने भारतीय राजनीति में उग्रवाद को बढ़ावा दिया। इन घटनाओं ने उग्रवादी नेताओं की लोकप्रियता में भी वृद्धि की। जब ब्रिटिश सरकार ने उग्रवादी नेताओं का दमन करना आरम्भ किया तो जनसाधारण और अधिक उद्वेलित हो उठा। उन्हीं दिनों कुछ युवकों ने रक्त-रंजित क्राति का मार्ग अपना लिया।

इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण परिणाम विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग तथा राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया जाना था। आगे चलकर गांधीजी ने स्वदेशी को राष्ट्रीय आन्दोलन में एक प्रमुख अस्त्र के रूप में प्रयोग किया। बंग-भंग आंदोलन के दौरान लॉर्ड कर्जन ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक खाई उत्पन्न कर दी, जो उत्तरोतर गहरी होती गई और देश में साम्प्रदायिकता की भयानक समस्या उत्पन्न हो गई।

बंग-भंग आन्दोलन के दौरान अनेक स्थानों पर दंगे हुए तथा हिन्दुओं के साथ घोर अन्याय किया गया। यह आन्दोलन दिसम्बर 1911 तक चलता रहा। 1911 ई. में बंग-भंग को निरस्त करके अँग्रेज सरकार ने इस आंदोलन को समाप्त करवाया। उसी वर्ष ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले जाई गई। यह भारतीयों की बड़ी जीत थी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मुख्य आलेख – उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन – गरमपंथी कांग्रेस

कांग्रेस का उग्रराष्ट्रवादी नेतृत्व

उग्रराष्ट्रवादी नेतृत्व की उत्पत्ति के कारण

उग्रराष्ट्रवादियों द्वारा बंग-भंग का विरोध

सूरत की फूट

उग्रवादी नेतृत्व की कार्यशैली

उग्रराष्ट्रवादी नेतृत्व का मूल्यांकन

Related Articles

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source