Wednesday, October 9, 2024
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गांधीजी का अपमान

भारत की आजादी से पहले की राजनीति में गांधीजी एक ऐसी अनिवार्यता बन गए थे जिसकी उपेक्षा करना किसी के लिए संभव नहीं था। गांधीजी मुसलमानों से इतना प्रेम करते थे कि वे किसी भी कीमत पर मुसलमानों को अलग देश नहीं देना चाहते थे। इस कारण मुहम्मद अली जिन्ना ने गांधीजी का अपमान करने का फैसला किया।

जिन्ना का कांग्रेस पर हमला

चुनावों में कांग्रेस को मिली भारी विजय से जिन्ना तिलमिला गया। उसने सोचा कि भारत के समस्त मुस्लिम राजनीतिक दलों को लीग के अन्तर्गत संगठित करके ही हिन्दुओं की पार्टी अर्थात् कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी जा सकती है। इसके बाद जिन्ना ने द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत को मुसलमानों की कमजोरी बनाने तथा उस कमजोरी को अपने पक्ष में भुनाने का निर्णय लिया।

जिन्ना ने भारतीय राजनीति की पूरी दिशा बदल दी। उसके साथियों ने मुसलमानों पर हिन्दुओं द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के झूठे आंकड़े और मनगढ़ंत घटनाएं प्रचारित करके ‘इस्लाम खतरे में है’ जैसे भड़काऊ नारे दिये और मुसलमानों में कृत्रिम भय पैदा करके साम्प्रदायिकता की समस्या को चरम पर पहुंचा दिया।

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13 अक्टूबर 1937 को जिन्ना बम्बई से लखनऊ गए। लखनऊ रेलवे स्टेशन पर मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं ने उनके डिब्बे को घेर लिया। उनका जोश इस कदर फूट पड़ रहा था और हिन्दू हमले का मुकाबला करने का उनका इरादा इतना पक्का था कि अक्सर शांत और अविचलित रहने वाले मि. जिन्ना भी भावुक हो गए।……. उनके चेहरे पर एक कठोर दृढ़ता छा गई। साथ ही उन्हें यह देखकर संतोष भी हो रहा था कि उनके लोग आखिरकार उठ खड़े हुए हैं। उन्होंने जनता के भड़के हुए जज्बात पर मरहम लगाने के लिए कुछ लफ्ज कहे।

कई मुसलमान तो वहाँ अपने नेता को देखकर जज्बात में आकर रोने लगे। उन्हें यकीन था कि उनका नेता उन्हें गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाएगा। ई.1937 के निर्वाचनों से यह स्पष्ट हो चुका था कि किसी भी केन्द्रीय व्यवस्था में हिन्दुओं का बहुमत रहेगा। इसलिए किसी ऐसी योजना को प्रस्तुत करना आवश्यक हो गया जिसका मुसलमान जनता तथा विभिन्न मुस्लिम दल समर्थन करें और अंग्रेज सरकार उसे स्वीकार कर ले।

मुसलमानों में अपनी लोकप्रियता का ऊँचा ग्राफ देखकर जिन्ना ने कांग्रेस, नेहरू और गांधीजी का अपमान करने का निर्णय लिया ताकि वे तिलमिलाकर जिन्ना से पीछा छुड़ाने का मार्ग ढूंढें और इसी उत्तेजना में मुसलमानों को अलग देश देने की बात मान लें

अब जिन्ना को कांग्रेस की स्वीकृति की इतनी चिंता नहीं थी। अक्टूबर 1937 में जबकि कांग्रेस के प्रांतीय मंत्रिमण्डलों को काम करते हुए कुछ सप्ताह भी नहीं बीते थे, जिन्ना ने यह आक्षेप लगाना आरम्भ कर दिया था कि मुसलमान कांग्रेस सरकार से किसी न्याय की आशा नहीं कर सकते। जिन्ना ने वंदे मातरम्, हिन्दी भाषा को प्रोत्साहन तथा कांग्रेसी ध्वज को सम्मान देने के विषय में शिकायत की।

अप्रेल 1938 के मध्य में कलकत्ता के फ्लडलाइटों की रोशनी में नहाए हुए एम्फीथिएटर में जिन्ना ने ललकार कर कहा-

‘कांग्रेस मुख्य तौर से एक हिन्दू संगठन है। मुसलमान एक से ज्यादा बार यह साफ कर चुके हैं कि धर्म, संस्कृति भाषा और विवाह कानून आदि के अलावा भी एक सवाल है जो उनके लिए जिंदगी और मौत का सवाल बन चुका है। उनका भविष्य और नियति इस बात पर निर्भर हैं कि उन्हें उनके राजनीतिक अधकार मिलते हैं या नहीं।

उन्हें राष्ट्रीय जीवन में, सरकार में, देश के प्रशासन में उनकी वाजिब हिस्सेदारी मिलती है या नहीं। वे इसके लिए आखिरी दम तक लड़ेंगे। हिन्दू राज स्थापित करने का कोई भी सपना और विचार कामयाब नहीं होने दिया जाएगा। मुसलमानों पर कोई हावी नहीं हो सकता और जब तक उनमें जरा सा भी दम बाकी है, वे हथियार नहीं डालेंगे।’

जिन्ना कांग्रेस को मुस्लिम लीग का आदर करने और उससे डरने का सबक सिखाना चाहते थे, साथ ही अपने अनुयाइयों के लिए उनके पास पूरी तरह से आत्मनिर्भर होने और ठोस रूप से एकजुट जनता के रूप में गोलबंद होने का सबक था।

इसी बीच जवाहरलाल नेहरू ने अपने समाजवादी कार्यक्रम में मुसलमानों से सहयोग करने की अपील की किन्तु डॉ. इकबाल ने इसे मुसलमानों की सांस्कृतिक एकता को नष्ट करने की योजना बताया। इकबाल ने जिन्ना को भरपूर सहयोग दिया। इकबाल की मध्यस्थता से जिन्ना-सिकन्दर समझौता हुआ तथा पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के मुस्लिम सदस्य, मुस्लिम लीग के भी सदस्य बन गये।

इसके तुरन्त बाद बंगाल में फजलुल हक के नेतृत्व में और सिन्ध में सादुल्लाखाँ के नेतृत्व में विधान सभाओं के मुस्लिम सदस्यों ने मुस्लिम लीग की सदस्यता स्वीकार कर ली। इससे मुस्लिम लीग शक्तिशाली पार्टी हो गई। इसी दौरान संयुक्त प्रान्त में मन्त्रिमण्डल निर्माण सम्बन्धी विवाद ने मुस्लिम लीग की लोकप्रियता बढ़ाने में योगदान दिया।

कांग्रेस और लीग के बीच अविश्वास की वृद्धि के कारण ऊपरी तौर पर गौण लगने वाले मसले, जैसे कि कांग्रेस के ‘तिरंगे’ झण्डे को फहराना, ‘वन्देमातरम्’ को राष्ट्रीय गीत के रूप में गाना, उर्दू के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग की मांग उठाना आदि भी अब साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुए।

जिन्ना ने इसका लाभ उठाया और मुसलमानों पर अपने नेतृत्व और मुस्लिम लीग का प्रभाव मजबूती से आरोपित कर दिया। फलस्वरूप ई.1927 में मुस्लिम लीग की सदस्य संख्या जो मात्र 1330 थी, ई.1938 में एक लाख हो गई और ई.1944 में 20 लाख पहुँच गई।

जिन्ना मुस्लिम लीग को भारत के समस्त मुसलमानों की एक मात्र प्रतिनिधि संस्था कहता था जबकि कांग्रेस उसके इस दावे को अस्वीकार करती थी क्योंकि जिन्ना के दावे को स्वीकार करने का अर्थ था कि कांग्रेस न तो एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी है और न हिन्दू और मुसलमान, दोनों की पार्टी है।

इस कारण जिन्ना, कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं, विशेषतः महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू से चिढ़ा हुआ रहता था। वह गांधीजी को महात्मा मानने से मना करता था तथा उन्हें चालाक लोमड़ी, साँप और हर किसी से होड़ करने वाला हिन्दू कहकर गांधीजी का अपमान करता था।

वह गांधीजी का अपमान इस हद तक नीचे गिरकर करता था कि वह सार्वजनिक मंचों से कहने लगा- ‘इस आदमी (गांधी) को किसी एक बात तक लाना असम्भव है। वह साँप की तरह चालाक है।’

जवाहरलाल नेहरू के लिये जिन्ना का कहना था- ‘उद्दण्ड ब्राह्मण जो अपनी चालबाजी को पश्चिमी शिक्षा के आवरण से ढंककर रखता है। जब वह वादा करता है, कोई न कोई रास्ता छोड़ देता है और जब कोई रास्ता नहीं मिलता तो सफेद झूठ बोलता है।’

कांग्रेस के नेताओं के लिये जिन्ना का व्यवहार असह्य था। फिर भी गांधीजी हर हाल में जिन्ना को कांग्रेस के आंदोलन के साथ रखना चाहते थे। इस प्रकार कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग, दोनों पार्टियों के शर्षस्थ नेताओं के व्यक्तिगत मतभेदों ने देश में साम्प्रदायिकता को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योग दिया।

अप्रेल 1938 में नेहरू एवं जिन्ना के मध्य हुए पत्र-व्यवहार से स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में कई मौलिक अंतर थे। जिन्ना चाहता था कि मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाए। नेहरू उसे केवल एक साम्प्रदायिक संगठन मानने को तैयार थे। जिन्ना ने आरोप लगाया कि कांग्रेस का व्यवहार एकाधिकारी तथा प्रभुत्वसम्पन्न संस्था जैसा था।

12 अप्रेल 1938 के पत्र में जिन्ना ने लिखा- ‘जब तक मुस्लिम लीग को कांग्रेस पूर्ण समानता के स्तर पर स्वीकार नहीं करती और एक हिन्दू-मुस्लिम समझौते के बारे में बातचीत नहीं करती, तब तक हमें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और अपनी आंतरिक शक्ति पर निर्भर रहना पड़ेगा। वह ही हमारे महत्व और प्रतिष्ठा का सूचक होगा।’

26 दिसम्बर 1938 को बम्बई में दिए गए अपने भाषण में जिन्ना ने कांग्रेस के ‘एक-राष्ट्र स्वप्न’ की तीव्र आलोचना की तथा कांग्रेस को केवल एक हिन्दू संगठन बताया।

जिन्ना ने गांधीजी पर तीखे प्रहार करते हए कहा- ‘कांग्रेस के पीछे किसका दिमाग काम कर रहा है? मिस्टर गांधी का। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यह मिस्टर गांधी ही हैं जिन्होंने उन आदर्शों को नष्ट कर दिया है जिनके आधार पर कांग्रेस की शुरुआत हुई थी। इसी एक अकेले व्यक्ति के ऊपर कांग्रेस को हिंदूवाद के पुनरुत्थान का औजार बनाने की जिम्मेदारी जाती है। उनका लक्ष्य हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान करके इस देश में हिन्दू राज्य स्थापित करना है और अपने इसी मकसद के लिए वे कांग्रेस का इस्तेमाल कर रहे हैं

……. आज हिन्दू मानसिकता और हिन्दू नजरिया बड़ी सावधानी से पाला-पोसा जा रहा है। …… नई शर्तें मानने और कांग्रेस नेताओं के आदेशों पर चलने के लिए मुसलमान मजबूर किए जा रहे हैं।’

बड़ी विचित्र स्थिति थी! एक ओर तो गांधीजी का मुस्लिम प्रेम नहीं छूट रहा था, दूसरी ओर भारत के भोले-भाले हिन्दू गांधीजी को अपना नेता मान रहे थे, तीसरी ओर जिन्ना गांधीजी को अपना परम शत्रु बता रहा था, चौथी ओर कांग्रेस न तो गांधीजी का अपमान सह पा रही थी और न गांधीजी की बातों को स्वीकार कर पा रही थी। चालाक अंग्रेज इन परिस्थितियों का जम कर मजा ले रहे थे!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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