Saturday, July 27, 2024
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8. लंगड़ा दैत्य

दीना ने भरी दुपहरी में अपने सिर से घास का गठ्ठर धम्म से नीचे फैंका और चीख कर बोला- ‘माँऽऽऽऽऽऽ!’

उसकी चीख पूरे आंगन में फैल गयी। आंगन के नीम पर बैठे पक्षी भयाक्रांत हो, फड़फड़ा कर उड़ गये। उनकी तीखी चीखों से आकाश भर गया। कौने में खड़ी कजरी[1] ने अचकचा कर लड़ामनी[2]  में से मुँह बाहर निकाला और भयाकुल नेत्रों से दीना की ओर ताकने लगी।

– ‘क्या है बेटा? क्यों चीख रहा है?’ दीना की माँ ने सहम कर पूछा। वह दीना की चीख सुनकर सिर की चुन्नी संभालती हुई दुकड़िया[3]  में से निकल कर बाहर आ गयी थी। उसके पीछे-पीछे दीना की नवब्याहता लिछमी भी थी।

– ‘ लगंड़ा दैत्य आ रहा है। हमें भाग चलना होगा अभी, इसी समय!’

– ‘कौन लंगड़ा दैत्य! किसकी बात कर रहा है तू? माँ ने पूछा।

– ‘क्या बात है? इतनी जोर से क्यों चीख रहा है? तू दुपहरी में ही क्यों लौट आया खेतों से?’ दीना के पिता चौधरी संतराम पिछवाड़े में बंधी भैंसों की सानी[4]  करना छोड़कर आंगन में आ गये।

आजकल बरसात बहुत जोरों से हो रही है। इस कारण पशु चरने के लिये खेतों में नहीं जा पा रहे हैं। उन्हें लड़ामनी में ही पाठा नीरा जा रहा है।[5]  डंगरों की सेवा टहल के लिये ही चौधरी संतराम इस समय घर में हैं अन्यथा वे भी दीना की तरह खेत पर होते।

– ‘पिताजी! समरकंद से एक लाख घुड़सवारों की सेना लेकर एक लंगड़ा दैत्य भारत की ओर चल पड़ा है। वह सिंधु नदी पार कर चुका है और कुछ दिनों में पंजाब पहुँचने वाला है। वह जिस गाँव से गुजरता है, उस गाँव में किसी को जीवित नहीं छोड़ता।’ दीना उत्तेजित था और बुरी तरह से हांफ रहा था। वह पूरे रास्ते दौड़ता हुआ आया था।

– ‘लंगड़ा दैत्य चाहता क्या है? वह ऐसा क्यों कर रहा है?’ दीना की माँ ने पूछा।

– ‘यह तो मुझे नहीं पता, न ही यह सब बताने का वक्त उन लोगों के पास था।’

– ‘किन लोगों के पास? किनकी बात कर रहा है तू?’ दीना की माँ ने फिर सवाल किया।

– ‘वे ही जो घोड़ों पर बैठे हुए भागे चले जा रहे थे।’

– ‘कौन लोग घोड़ों पर बैठ कर भागे जा रहे थे?’

-‘ मैं नहीं जानता कौन लोग थे वो! जब हम खेतों पर काम कर रहे थे तो बीस-पच्चीस घुड़सवारों की एक टोली पश्चिम से घोड़े दौड़ाती हुई आई थी। वे लोग बुरी तरह से डरे हुए थे। उन्होंने ही हमें बताया कि वे लंगड़े दैत्य तैमूर के भय से जान बचाकर भाग रहे हैं।’

– ‘देखो बेटा, तनिक तसल्ली से बैठो और मुझे ढंग से सारी बात बताओ।’ चौधरी संतराम बेटे की व्याकुलता देखकर चिंतित हो गये।

– ‘यह समय तसल्ली का नहीं है पिताजी। जितनी जल्दी हो सके गाँव छोड़कर भाग चलना होगा।’

– ‘लेकिन पुत्तर अपना गाँव छोड़कर हम जायेंगे कहाँ? हमारे खेतों और ढोर-डंगरों की देखभाल कौन करेगा?’ दीना की माँ ने प्रतिवाद किया।

– ‘वह सब तो मैं नहीं जानता। लेकिन आप ही बताइये यदि लंगड़े दैत्य ने यहाँ पहुँच कर हम सब को मार दिया तब हमारे खेतों और ढोर-डंगरों की देखभाल कौन करेगा!’

– ‘लेकिन वह हमें क्यों मारेगा! हमने उसका क्या बिगाड़ा है? यदि वह हिन्दुस्थान का राज्य चाहता है तो दिल्ली के सुल्तान से लड़े। पंजाब के किसानों से उसका क्या बैर है?’ दीना की माँ ने बिफर कर पूछा।

– ‘उसका बैर पंजाब के किसानों से नहीं है। उसका बैर तो हिन्दुस्थान के प्रत्येक आदमी से है। जो कोई भी उसके मार्ग में आयेगा उसे वह मार डालेगा। वह गाँव के गाँव जला रहा है। कुओं और तालाबों में गायें काटकर फैंक रहा है। खेतों में आग लगा रहा है। वह कहता है कि वह धरती से कुफ्र मिटाने आया है।’

बेटे की बात सुनकर वृद्ध संतराम सिर पकड़ कर जमीन पर बैठ गये। उनके मुँह से केवल इतना ही निकला- ‘हे राम!’

– ‘सत्यानाश जाये इन खूनी हत्यारों का। आदमी को भला ऐसे मारा जाता है क्या?’ बेटे की बात सुनकर वृद्धा का चेहरा सफेद पड़ गया, मानो किसी ने पूरा खून निचोड़ लिया हो।

– ‘देर करना ठीक नहीं है, हमें निकल चलना चाहिये।’ दीना ने घास का गठ्ठर उठाकर आंगन में बंधी गाय के सामने फैंक दिया। वह आने वाली विपत्ति से बेखबर घास की ओर ताकती हुई रस्सा तुड़ाने की चेष्टा कर रही थी। 

– ‘लेकिन हम जायेंगे कहाँ?’ दीना की नवविवाहिता पत्नी लिछमी ने चुन्नी की ओट में से मंद स्वर में प्रश्न किया।

– ‘कोई हम अकेले तो नहीं जायेंगे! जहाँ पूरा गाँव जायेगा, वहीं हम भी जायेंगे।’ दीना ने लिछमी की ओर देखे बिना ही कहा।

– ‘तो फिर गाँव को इकट्ठा कर चौपाल पर। सब बैठ कर सलाह करेंगे।’ बूढ़े संतराम ने बेटे को आज्ञा दी।

दीना भरी दुपहरी में पूरे ‘लक्खी दा जोड़’ गाँव में घूम गया। कहते हैं कि किसी जमाने में लक्खी नाम के बणजारे ने यहाँ से होकर गुजरते समय अपने काफिले के लिये एक जोहड़[6]  खुदवाया था जो बाद में लक्खी दा जोड़[7]  कहलाने लगा। बहुत बाद में जब यहाँ गाँव बसना आरंभ हुआ तब गाँव का नाम भी ‘लक्खी दा जोड़’ पड़ गया।

दीना का संदेश पाकर बात की बात में लोग गाँव की चौपाल पर आ जुड़े। क्या बूढ़े, क्या बच्चे, क्या आदमी और क्या औरतें, सब के सब भागते हुए चले आये। सब के आने पर चौपाल जुड़ी।

चौधरी संतराम ने बिना किसी भूमिका के सब को आने वाली मुसीबत की संक्षिप्त जानकारी दी। हालांकि तब तक गाँव का बच्चा-बच्चा जान चुका था कि एक लंगड़ा दैत्य सिंधु नदी पार करके कत्ले-आम मचाता हुआ इसी ओर आ रहा है। वह जीवित ही आदमियों को आग में फैंक देता है। उसके सिपाही छोटे-छोटे बच्चों को भाले की नोक पर टांक लेते हैं। जो भी पशु-पक्षी दिखायी देता है उसे भून कर खा जाते हैं। वह लाखों गायों का वध कर चुका है …..।

आये दिन गाँव वाले आक्रांताओं के आक्रमण की बातें सुनते थे किंतु इस बार लंगड़े दैत्य के कारनामे सुनकर उनकी छाती दहल गयी। माताओं ने सहम कर अपने दुध मुंहे बच्चों को छाती से चिपका लिया और नवौढ़ायें ऐसे मुर्झा गयीं जैसे पाला मारने पर कमलिनियाँ कुम्हला जाती हैं।

बड़े-बूढ़ों ने कहा, सब लोगों को तत्काल ही गाँव छोड़ कर पूर्व की ओर प्रस्थान कर देना चाहिये और दूर इलाकों में जाकर शरण लेनी चाहिये ताकि खूनी दरिंदे से बचा जा सके।

युवक बड़े-बूढ़ों की बात से सहमत नहीं हुए। उनका विचार था कि पलायन के पश्चात तिल-तिल कर मरने की अपेक्षा शत्रु का सामना करके सम्मुख मृत्यु का वरण अधिक श्रेष्ठ है।

सब लोगों की बात सुनकर चौधरी संतराम ने फैसला सुनाया- ‘जो लोग गाँव छोड़ कर जाना चाहते हैं वे जा सकते हैं और जो लोग गाँव में रहकर शत्रु का सामना करना चाहते हैं, वे गाँव में ही रह सकते हैं।’

– ‘और चौधरी तुम! तुम क्या करोगे?’ लाला कनछेदीलाल ने पूछा। वह चौधरी संतराम का बालसखा था।

-‘हाँ-हाँ चौधरी, तुम क्या करोगे?’ बहुत से लोग एक साथ बोल पड़े। वे जानना चाहते थे कि आखिर चौधरी अपने लिये क्या निर्णय लेता है।

– ‘मैं……मैं क्या करूंगा! मुझे नहीं पता कि मैं क्या करूंगा! जैसे दीना कहेगा वैसे ही करूंगा।’

– ‘बोल दीना क्या कहता है?’ लोगों की दृष्टि दीना की ओर घूम गयी।

– ‘मेरा यह विचार है कि बापू आप लोगों के साथ सारे परिवार को लेकर चला जाये और मैं यहाँ रहकर गाँव के ढोर डंगरों को बचाने का प्रयास करूं।’

– ‘नहीं-नहीं! यह कैसे हो सकता है! मैं तो कहता हूँ कि दीना गाँव छोड़कर आप लोगों के साथ जाये और मैं गाँव में रहकर ढोर-डंगरों की देखभाल करूं।’ बेटे का साहस देखकर बूढ़े संतराम की छाती गर्व से फूल गयी।

– ‘गाँव के चौधरी को अकेला छोड़कर हम अपनी जान बचाकर भाग जायें, यह अन्याय कैसे होगा!’ गाँव के कुछ लोग चौधरी की बात का विरोध करने के लिये उठ खड़े हुए।

– ‘गाँव के ढोर-डंगरों को रब[8]  के हवाले किया जाये और सब के साथ जहाँ भी चलें एक साथ चलें। जान बची तो ढोर डंगर फिर मिल जायेंगे।’ लाला कनछेदी लाल ने सुझाव दिया।

– ‘इन ढोर-डंगरों से हमारे जीवन की डोरी बंधी हुई है। जब ये हमारे सुख के साथी हैं तो दुःख में इन्हें त्याग कर चले जाना उचित नहीं है।’ चौधरी संतराम ने इस विचार का विरोध किया।

– ‘यदि ऐसा ही है तो ढोर-डंगरों को साथ लेकर चला जाये।’ भजनीराम ने सुझाव दिया।

– ‘नहीं! ढोर-डंगरों को साथ लेकर भागना संभव नहीं है। हत्यारे तो घोड़ों पर हैं और हम गाय-भैंसों को टोरते हुए ले जायेंगे!’ संतराम ने प्रतिवाद किया।

– ‘तुम पंच लोग यहाँ बैठकर विचार ही करते रहना। तब तक लंगड़ा दैत्य आकर हम सबको खा जायेगा। फिर उसी से पूछ लेना कि हम क्या करें!’ जग्गा ने तैश में आकर कहा।

– ‘क्यों जग्गा, तुझे क्या फिकर है? वह भी लंगड़ा है और तू भी। इस हिसाब से तो वह तेरा भाई हुआ।’ एक नौजवान ने फिकरा कसा और सब के सब ठठा कर हँस पड़े। जग्गू का चेहरा क्रोध और अपमान से तमतमा गया।

लोग असमंजस में थे। क्या किया जाये! सबकी अलग-अलग राय थी कोई एक विचार ठहरता ही नहीं था।

– ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सब यहाँ रहकर दुश्मन का मुकाबला करें?’ लिछमी ने चुन्नी की ओट करके सहमते हुए कहा। यह उसका पहला मौका था जब वह बड़े-बूढ़ों के सामने बोल रही थी, वह भी खुले आम चौपाल पर लेकिन वह जानती थी कि कुछ मौके ऐसे होते हैं जब छोेटे-बड़े के बीच कोई दीवार नहीं रह जाती। उसकी दृष्टि में यह मौका भी ऐसा ही था।

लिछमी की बात सुनकर सबने उस ओर आँखें घुमायीं। औरतों की तरफ से पहली बार आवाज आयी थी। वे चौपाल पर नहीं आती थीं और चौपाल पर बोलने का साहस भी किसी में नहीं था लेकिन आज गाँव की सारी औरतें चौपाल पर मौजूद थीं केवल उन सेठानियों को छोड़कर जो सामान्यतः घरों से बाहर नहीं निकलती थीं।

– ‘यहाँ रहकर शत्रु का मुकाबला करने का मतलब जानती हो तुम!’ चौधरी संतराम ने अपनी पतोहू को टोका।

– ‘ठीक ही तो कहती है यह। चूहों की तरह भागते हुए मरने से तो शेर की तरह मुकाबला करते हुए मरना ठीक है।’ चौधराइन ने अपनी बहू का समर्थन किया।

– ‘जीवित ही आग में कूद पड़ना तो शेर हो जाने की निशानी नहीं होती!’ चौधरी ने चौधराइन की ओर तमतमा कर देखा

– ‘लेकिन दुश्मन को देखकर दुम दबा कर भाग जाना तो चूहे होने की निशानी होती है!’ ऐसा पहली बार हुआ था जब चौधराइन ने चौधरी को जवाब दिया था, वह भी सबके सामने।

– ‘मैं देख रहा हूँ कि अब यह चौपाल न रहकर घर की पंचायत हो गयी। तुम लोग अपने झगड़े में सबको मरवा दोगे। मैं तो कहता हूँ कि समय रहते भाग चलो, नहीं तो लंगड़ा दैत्य हम सबको आकर दबोच लेगा।’ जग्गा चौपाल के लम्बे विचार विनिमय से तंग आ गया था। संभवतः उसे लंगड़े दैत्य का भय सबसे अधिक सता रहा था।

– ‘अरे जग्गा! तू एक काम कर। अपनी लाठी उठा और जहाँ तेरा सींग समाये वहीं भाग जा। क्योंकि तुझे भागने में वक्त भी ज्यादा लगेगा।’ चौधरी ने आँखें तरेर कर कहा।

– ‘हाँ-हाँ जाता हूँ। जहाँ मेरा सींग समाये वहीं जाता हूँ लेकिन कहे देता हूँ कि यदि तुम भी पूंछ उठाकर नहीं भागे तो मेरा नाम भी जग्गा से बदलकर कुत्ता रख देना।’ जग्गा अपनी लाठी का सहारा लेकर सचमुच उठ खड़ा हुआ और चौपाल से रवाना हो गया।

– ‘आगे नाथ न पीछे पगहा लेकिन चिंता तो देखो इनकी!’ किसी नौजवान ने फिकरा कसा तो एक बार फिर चौपाल पर ठहाके गूंज उठे। क्षण भर को वे भूल गये कि किस भयावह परिस्थिति में वे यहाँ एकत्रित हुए हैं।

– ‘तो फिर क्या कहते हो तुम लोग! गाँव में ही मोरचा लगाना है कि गाँव छोड़कर जाना है?’ जग्गा की तरफ से लोगों का ध्यान हटाने के लिये चौधरी संतराम फिर से मूल प्रश्न पर आये।

– ‘अजी करना क्या है, ऐसी की तैसी उस लंगड़े दैत्य की। जब लिछमी भाभी लड़ मरने को तैयार हैं तो हमने भी कोई चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं।’ युवकों ने जोश में भर कर जवाब दिया।

– ‘लेकिन तुम्हारी लिछमी भाभी ने तो चूड़ियाँ पहन ही रखी हैं।’ बूढ़े चौधरी ने हँस कर कहा।

– ‘रब इसकी चूड़ियाँ सलामत रखे। मैं वारी जावां। मेरी बहू केवल लिछमी नहीं दुर्गा भी है। देखना लंगड़े दैत्य को तो एक हुंकार में समाप्त कर देगी।’ चौधराइन ने लिछमी को गले से लगा लिया।

थोड़ी देर पहले की निराशा तिरोहित हो गयी। पूरे गाँव में नवीन जोश उछालें लेने लगा। लोग लाठी, बल्लम, मूसल और मुग्दर संभालने लगे। तय हुआ कि गाँव के चारों ओर बनी हुई मिट्टी की दीवार को ऊँचा किया जाये ताकि मोरचा बांधने में आसानी रहे।

घर-घर से फावड़े, कुदाली और तसले निकल आये। बात की बात में खाई खुदने लगी। मिट्टी की दीवार ऊँची कर दी गयी। बीच-बीच में चौकियाँ बनाई गयीं जिन पर बड़ी मात्रा में पत्थर और तीर कमान जुटाये गये। स्त्री, पुरुष और बच्चे धनुष से निशाना साधने का अभ्यास करने लगे। जो स्त्रियाँ तीर कमान नहीं साध सकती थीं वे मूसल, मुग्दर और भाले घुमाने लगीं। एक माह में ‘लक्खी दा जोड़’ छोटे से दुर्ग में बदल गया।

कुछ ही दिनों में उन्होंने घायल लोगों के एक समूह को पश्चिम की ओर से भाग कर आते देखा उनकी आँखों में दहशत भरी हुई थी और उनके कटे अंगों से खून टपक रहा था। बहुत से लोग बैलगाड़ियों में बैठे थे तो बहुत से ऐसे भी थे जो ऊंटों, बैलों और भैंसों पर चढ़े हुए थे। जब बदन पर अंग ही सलामत नहीं थे तब कपड़ों की बात करना तो व्यर्थ ही था। सामान्य दिनों में तो वे लोग संभवतः दो कदम भी नहीं चल पाते किंतु साक्षात् मौत से आँख मिला लेने के बाद वे इस दुरावस्था में भी दौड़ रहे थे। वे खून का ऐसा दरिया पार करके आये थे जिसका वर्णन करना उनके वश में नहीं था। वे मौत के अलंघ्य पर्वत को पार करके आये थे किंतु वे स्वयं नहीं जानते थे कि उन्होंने उस पर्वत को कैसे लांघा था! इन लोगों ने बड़ी खौफनाक बातें गाँववालों को बतायीं।

उन लोगों ने बताया कि तैमूर लंगड़े की सेना आंधी की गति से आगे बढ़ रही है और मार्ग में आने वाली हर चीज को तोड़-फोड़ और जला रही है। उसके लिये इंसानों और पशुओं में कोई अंतर नहीं है। ‘लक्खी दा जोड़’ वालों ने उन घायलों के अंगों पर दवाई लगाई, खाना खिलाया, पानी पिलाया और उनसे अनुरोध किया कि वे लोग इसी गाँव में रुक जायें किंतु लंगड़े दैत्य का खौफ उन्हें कहीं भी रुकने की अनुमति नहीं दे रहा था। भीगी आँखों से ‘लक्खी दा जोड़’ वालों ने उन्हें विदा किया।

अगले ही दिन घायल लोगों का एक और समूह गाँव से होकर गुजरा। फिर तो पीड़ा से कराहते और चीखते हुए लोगों के काफिले लगातार दिखाई देने लगे। गाँव वाले इन काफिलों को देखकर दहल उठे। हर शाम को वे चौपाल पर जुड़ते और आगे की योजना पर विचार करते। कई लोगों का उत्साह भंग हो गया, वे अपने परिवारों और ढोर-डंगरों के साथ इन काफिलों के साथ चल दिये।

चौधरी संतराम और उनका परिवार गाँव नहीं छोड़ने के निर्णय पर अडिग था। चौधरी के परिवार के साथ गाँव के सैंकड़ों और भी परिवार थे जो जान बचाकर भाग जाने की अपेक्षा लंगड़े दैत्य की सेना से दो-दो हाथ करके मृत्यु का वरण करना अधिक श्रेयस्कर समझते थे, सो वे गाँव में बने रहे।

अंततः वह दिन भी आ पहुँचा जब तैमूर की सेना ‘लक्खी दा जोड़’ गाँव की सीमा पर आ धमकी। उस दिन सूर्योदय के साथ ही पश्चिम दिशा में बहुत सारी धूल उड़ती हुई दिखायी दी। ‘लक्खी दा जोड़’ गाँव के लोगों ने सोचा कि कोई बड़ा काफिला तैमूर से बच कर भागता हुआ आ रहा है किंतु उनका अनुमान गलत साबित हुआ। थोड़ी ही देर में हजारों घोड़ों ने ‘लक्खी दा जोड़’ को घेर लिया। गाँव वाले तीर कमान लेकर मिट्टी की दीवार पर चढ़ गये और दीवार पर बनी ओट में से तीर, पत्थर और लकड़ियाँ फैंकने लगे।

मध्य एशिया से उठे जिस विशाल और शक्तिशाली अंधड़ के सामने ईरान, तूरान और अफगानिस्तान तिनके के समान ढह गये, जिसका कहर ख्वारिज्म, मैसोपोटामिया, रूम और रूस पर चक्रवाती तूफान बन कर टूटा था, उस प्रबल तैमूर लंग की सेना के सामने ‘लक्खी दा जोड़’ क्या था? संभवतः इतना भी नहीं जितना कि हाथी के मुकाबले में चींटा हुआ करती है। मंगोल सैनिकों की पहली तीर वर्षा में ही ‘लक्खी दा जोड़’ गाँव के वीर दीवार से नीचे आ गिरे। देखते ही देखते कच्ची दीवार ढह गयी और मंगोल सैनिकों के घोड़े गाँव में घुस गये। ‘लक्खी दा जोड़’ वालों ने तीर कमान छोड़कर तलवारें खींचीं। जब मरना ही है तो भागते हुए क्यों? शत्रु को मारते हुए क्यों नहीं?

‘लक्खी दा जोड़’ वालों का दुस्साहस देखकर तैमूर लंग कुपित हुआ। इन तुच्छ कीटों की यह मजाल कि तैमूर लंग की प्रबल आंधी का रास्ता रोकने का साहस करें! आखिर क्या ताकत है ‘लक्खी दा जोड़’ के इन मक्खी-मच्छरों में? क्यों नहीं वे तैमूरलंग के भय से चीखते-चिल्लाते और अपना सिर पीटते हुए गाँव खाली करके भाग जाते!

लंगड़ा दैत्य स्वयं भाला हाथ में लेकर अपने सिपाहियों के साथ दुस्साहसी लोगों का शिकार करने के लिये निकल पड़ा। उसके लिये यह युद्ध न था, शिकार भर था। बात की बात में उसने लाशों के ढेर लगा दिये। ‘लक्खी दा जोड़’ के लोग जानते थे कि यदि हमें अंग-भंग करके छोड़ दिया गया तो हम तड़प-तड़प कर मरेंगे। इसलिये हम प्राण-पण से मैदान में टिके रहें ताकि जब तक हम शत्रु को मार सकें मारें और फिर अंत में स्वयं भी जीवित न बचकर मृत्यु का वरण करें।

चौधरी संतराम और उनका पूरा परिवार तलवार हाथ में लेकर लड़ रहा था। बड़ी विचित्र और बेमेल लड़ाई थी यह। एक ओर चौधरी संतराम और उनके साथी पैदल थे तो दूसरी ओर मंगोल सिपाही घोड़ों पर! एक ओर चौधरी संतराम के अकुशल योद्धा थे तो दूसरी ओर कई लड़ाइयों में अपनी तलवार का कहर ढा चुके क्रूर मंगोल सिपाही। ‘लक्खी दा जोड़’ वाले मरने के लिये लड़ रहे थे तो मंगोल सिपाही मारने के लिये।

एक मंगोल सिपाही चौधरी संतराम की बहू लिछमी की तरफ दौड़ा। वह लिछमी को जीवित ही पकड़ना चाहता था। लिछमी का ध्यान दूसरे सिपाही की ओर था। अचानक ही लाला कनछेदीलाल की दृष्टि उस ओर पड़ी तो लाला ने मंगोल सिपाही के इरादे को भांप लिया। लाला ने जोर से चिल्लाकर लिछमी को चेताया और स्वयं भी तलवार लेकर उस ओर दौड़ा। तब तक लिछमी पहले वाले सिपाही से निबट चुकी थी। वह पीछे पलटकर सिंहनी की तरह उछली और तलवार का ऐसा भरपूर वार किया कि मंगोल सिपाही की गर्दन एक ओर लटक गयी। लिछमी को ऐसा करारा वार करते देखकर ‘लक्खी दा जोड़’ वालों में नया जोश भर गया। क्षण भर बाद ही लिछमी और लाला कनछेदी लाल के शव भूमि पर पड़े थे।

‘लक्खी दा जोड़’ वालों के लिये मृत्यु पहले से ही कुछ मायने नहीं रखती थी किंतु अब लिछमी और लाला कनछेदी लाल के बलिदान को देखकर तो वे जैसे पागल हो उठे। तलवार उनके हाथ में ऐसे नाचने लगी मानो वे सब किसान, पशुपालक अथवा व्यापारी न होकर मृत्यु के चिरदूत हों। किसानों और पशुपालकों के घरों की औरतों ने इस अंदाज में तलवार चलाना आरंभ किया जैसे वे नित्य ही खेतों में धारदार हँसुए से घास अथवा फसल काटती हैं। और तो और लाला कनछेदी लाल के घर की जिन श्रेष्ठि ललनाओं ने कभी पानी के कलश तक उठाने का श्रम नहीं किया था और जिनके हाथों में चूड़ों के भी निशान अंकित हो जाते थे, उन ललित कोमलांगी श्रेष्ठि ललनाओं ने भी तलवार के वो हाथ दिखाये कि मंगोलों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। चंगेजखाँ को भी सोचना पड़ा कि यह शिकार नहीं था, युद्ध था।

थोड़ी ही देर में शवों के ढेर लग गये। मंगोल सैनिकों ने हाथ में तलवार लेकर आई कितनी ही स्त्रियों को पकड़ कर उनके स्तन काट दिये और उनके कपड़े फाड़ कर उन्हें निर्वस्त्र कर दिया किंतु उन वीरांगनाओं ने अपने आपको मंगोलों के हवाले नहीं किया। वे मृत्यु आने तक रण में जूझती रहीं। वे शरीर और प्राण गंवाने को तैयार थीं किंतु अपना सतीत्व नहीं। अंतिम सांस तक उनका यही प्रयास रहा कि किसी तरह एक भी मंगोल को मार सकें और जीवित ही मंगोलों की पकड़ में न आयें।

कहा नहीं जा सकता कि चौधरी संतराम और दीना किन परिस्थितियों में और कब बलिदान हुए किंतु इतना निश्चित था कि सूर्यदेव के आकाश मध्य में पहुँचने से पूर्व ही ‘लक्खी दा जोड़’ का प्रत्येक स्त्री-पुरुष और बच्चा मौत के घाट उतर गया। इतने पर भी मंगोल सैनिकों की तलवार रुकी नहीं। आदमियों से निबट कर वे पशुओं की ओर बढ़े। युद्ध से थककर उन्हें भूख लग आयी थी। देखते ही देखते उन्होंने घरों में आग लगा दी और जीवित पशुओं को उस आग में झौंकने लगे।

थोड़ी ही देर में मनुष्यों की चीखों के स्थान पर पशुओं की डकराहटों से गाँव की गलियाँ और चौबारे भर गये। लंगड़े दैत्य की सेना ने पेट भर कर पशु-मांस खाया और सुस्ताने के लिये जहाँ-तहाँ पसर गये। आगे जाने की उन्हें कोई जल्दी नहीं थी क्योंकि उन्हें तो जीवन भर यही काम करना था।


[1] गाय का नाम

[2] पशुओं के चारा खाने की हौदी।

[3] इतना बड़ा कमरा जिसमें दो कड़ियों वाली छत लगी हो।

[4] कटे हुए सूखे चारे में आटे अथवा ग्वार की चूरी का घोल मिलाना सानी कहलाता है।

[5] हरा चारा खिलाया जा रहा है।

[6]  तालाब

[7] लक्खी बणजारे का तालाब

[8] परमात्मा

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