Saturday, October 12, 2024
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10. भगवान विष्णु के वाराह-अवतार की कथाओं से जुड़ी हुई है दक्षिण भारत के वनांचलों में रहने वाली वराह जाति!

पिछली कुछ कड़ियों में हमने भगवान श्री हरि विष्णु के नील वाराह एवं आदि वाराह के अवतारों की चर्चा की थी। इस कड़ी में हम नील वाराह, आदि वाराह तथा श्वेत वाराह के दक्षिण भारत की कुछ वनवासी जातियों से सम्बन्ध की चर्चा करेंगे।

वाराह कल्प के 3 खण्ड हैं- 1. नील वराह काल, 2. आदि वराह काल और 3. श्वेत वराह काल। इन तीनों खण्डों में भगवान श्री हरि विष्णु ने अलग-अलग अवतार लिए हैं। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार वाराह कल्प का आरम्भ भगवान श्री हरि विष्णु द्वारा नील वाराह के रूप में प्रकट होकर भूमि को रहने योग्य बनाने से होता है।

हिन्दू धर्मग्रंथों की मान्यता है कि इस काल में ब्रह्मा, विष्णु और महेश सहित समस्त देवी-देवता धरती पर निवास करते थे। भगवान शिव का स्थान कैलाश पर्वत था। श्री हरि विष्णु हिंद महासागर में रहते थे। धरती के जिस स्थान पर देव-जाति निवास करती थी उसे स्वर्ग एवं देवलोक कहा जाता था। ब्रह्माजी एवं उनके पुत्रों ने मध्य एशिया से लेकर काश्मीर तक के क्षेत्र में कुछ बस्तियां बसा ली थीं। हालांकि उस काल में धरती पर रहने योग्य स्थान बहुत कम था।

अधिकांश भूमि जल में डूबी हुई थी।

हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार आज से लगभग 16 हजार वर्ष पूर्व भगवान ने नील-वराह के रूप में अवतार लिया था। नील-वराह काल में भगवान नील-वराह ने धरती पर से जल हटाया और उसे प्राणियों के रहने योग्य बनाया। उसके बाद ब्रह्माजी ने मनुष्य जाति का विस्तार किया और भगवान शिव ने संपूर्ण धरती पर धर्म और न्याय का राज्य प्रतिष्ठित किया। यद्यपि मानवों की कई प्राचीन जातियाँ तब भी धरती पर निवास करती थीं तथापि आधुनिक मानव की सभ्यता का प्रारम्भ यहीं से, अर्थात् आज से 16 हजार साल पहले हुआ माना जाता है। हिन्दू धर्म की यह कहानी वराह-कल्प से ही आरम्भ होती है किंतु पुराणों में इससे पहले का इतिहास भी मिलता है जिसे पांच मुख्य कल्पों में विभक्त किया गया है।

नील-वराह काल के बाद आदि-वराह काल और फिर श्वेत वराह काल हुए। वराह-कल्प के छः मन्वन्तर अपनी संध्याओं सहित बीत चुके हैं तथा वर्तमान समय में सातवां मन्वन्तर चल रहा है। इसे वैवस्वत मनु की संतानों का काल माना जाता है। जम्बूद्वीप के पहले राजा स्वायम्भू-मनु थे। वही स्वायमभु-मनु जिनका उल्लेख हम ‘मत्स्यावतार’ की कथा में कर चुके हैं।

हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार वराह-कल्प के सातवें मन्वन्तर में 27वीं चतुर्युगी भी बीत चुकी है अर्थात चार युगों के 27 चक्र बीत चुके हैं और वर्तमान में वराह काल की 28वीं चतुर्युगी के कृतयुग, त्रेता और द्वापर बीत चुके हैं और कलियुग चल रहा है। यह कलियुग ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध में वराह-कल्प के श्वेत-वराह नामक काल में और वैवस्वत मनु के मन्वन्तर में चल रहा है।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

इस प्रकार हिन्दू धर्म ग्रंथों में सृष्टि के इतिहास के साथ काल-गणना की पूरी संकल्पना विद्यमान है किंतु यह पश्चिमी देशों के ‘एंथ्रोपोलॉजी साइंटिस्ट’ अर्थात् नृवंशीय वैज्ञानिकों द्वारा बताई गई काल गणना से कहीं पर मेल खाती हुई तो कहीं पर बिल्कुल अलग प्रतीत होती है।

नील-वराह-काल के बाद आदि-वराह-काल शुरू हुआ। इसमें हिरण्याक्ष द्वारा धरती को चुराकर समुद्र में छिपा दिया गया तथा भगवान श्रीहरि विष्णु द्वारा धरती का उद्धार करके हिरण्याक्ष का वध किया गया। कुछ विद्वानों के अनुसार नील-वराह के काम को आदि-वराह ने आगे बढ़ाया। आदि-वराह को कपिल वराह भी कहा गया है।

आधुनिक काल के कुछ विद्वानों का मानना है कि भगवान के इन अवतारों को वराह इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने धरती पर रहने वाली वराह जाति में जन्म लिया था। उस काल में वराह एक वनवासी जाति थी जो समुद्र के निकट स्थित वनों में निवास करती थी।

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इन विद्वानों के अनुसार दक्षिण भारत में वराह देव नामक एक राजा हुआ। उसने महाप्रबल वराह सेना लेकर हिरण्याक्ष के राज्य पर चढ़ाई कर दी और विन्ध्यगिरि के पाद-प्रसूत जल-समुद्र को पार करके हिरण्याक्ष के नगर को घेर लिया। वराह देव तथा हिरण्याक्ष के बीच संगमनेर नामक स्थान में महासंग्राम हुआ और अंततः हिरण्याक्ष का अंत हुआ।

वराह देव ने महाराष्ट्र में अपने नाम से एक पुरी भी बसाई जिसमें हिरण्याक्ष के बचे-खुचे दुष्ट असुरों को नियंत्रित रखने के लिए अपनी सेना का एक अंग भी यहाँ छोड़ दिया। यह पुरी ‘बारामती कराड़’ के नाम से प्रसिद्ध है। आज भी दक्षिण भारत में हिंगोली, हिंगनघाट, हींगना नदी, हिरण्याक्षगण एवं हैंगड़े आदि नामों से कई स्थान मिलते हैं।

वराह अवतार की कथा के अनुकरण पर कुछ धर्म-ग्रंथों में वाराही देवी की भी कल्पना कर ली गई। कुछ ग्रंथों के अनुसार भगवती दुर्गा रण-संग्राम में अपनी विशाल देव-सेनाओं अर्थात् वाराही सेना और नारसिंही सेना को लेकर उनका संचालन करते हुए विजयश्री से विभूषित हुई थीं। दुर्गा के रण प्रसंग में ‘वाराही नारसिंही च भीम भैरव नादिनी’ कहकर वाराही देवी को याद किया जाता है।

श्वेत वराह-कल्प का आरम्भ आज से लगभग 10 हजार साल पहले हुआ था। कुछ परवर्ती ग्रंथों में भगवान श्वेत वराह का राजा विमति से युद्ध होने की कथा मिलती है। इस कथा के अनुसार द्रविड़ देश में सुमति नामक राजा राज्य करता था। वह अपने पुत्रों को राज्य देकर तीर्थयात्रा को निकला। तीर्थयात्रा के मार्ग में ही कहीं उसकी मृत्यु हो गई। सुमति का पुत्र विमति बहुत दुष्ट-बुद्धि राजा था। वह विष्णु-भक्त प्रजा को सताया करता था। इसलिए देवर्षि नारदजी ने भगवान श्रीहरि विष्णु के हाथों उसका नाश करवाने का विचार किया। महर्षि नारद विमति के पास पहुंचे तथा उससे कहा- ‘जो पिता का ऋण उतारे वही पुत्र है।’

विमति ने अपने मंत्रियों से पूछा- ‘पिता का ऋण कैसे उतरे?’

मंत्रियों ने कहा- ‘राजन् आपके पिताजी को तीर्थों ने मारा है, इसलिए तीर्थों को मारकर उनसे बदला लें।’

राजा विमति ने कहा- ‘तीर्थ तो अगणित हैं!’

एक मंत्री ने सुझाव दिया- ‘मथुरा सब तीर्थों की प्रमुख नगरी है, उसी को नष्ट कर दिया जाए।’

विमति ने मंत्रियों की यह सलाह स्वीकार कर ली तथा एक विशाल सेना लेकर मथुरा नगरी पर आक्रमण किया। इससे मथुरा के लोगों में भय व्याप्त हो गया और वे उत्तरी ध्रुव के बर्फीले क्षेत्र में स्थित श्वेत-द्वीप की ओर चले गए जहाँ स्वर्ग अर्थात् देवलोक स्थित था। श्वेत-द्वीप में उन्हें श्वेत-वराह के दर्शन हुए। श्वेत-वराह ने विष्णु-भक्त-प्रजा को अभयदान दिया और विमति से युद्ध करके सैन्य सहित राजा विमति को मार डाला।

पुराणों की वंशावली के अनुसार सुमति जैन संप्रदाय के सुमतिनाथ तीर्थंकर हैं और वे योगेश्वर ऋषभदेव के पौत्र तथा भरत के पुत्र हैं। उनका समय आज से लगभग 8000 वर्ष पहले का माना जाता है। वायु पुराण, वराह पुराण और माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास आदि ग्रंथों में आए प्रसंगों के अनुसार भगवान श्रीहरि नारायण ने अपने भक्त ध्रुव को उत्तर ध्रुव का एक क्षेत्र प्रदान किया था। यहीं पर भगवान शिव के पुत्र स्कंद का एक देश था और यहीं पर नारद मुनि भी निवास करते थे। उत्तर-धु्रव में कुछ आर्य भी निवास करते थे और यहीं पर श्वेतवराह नामक जाति भी रहती थी।

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