1855 ई. से 1885 तक की अवधि में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक विद्रोह हुए। इनमें से कुछ प्रमुख आंदोलन इस प्रकार से हैं-
(1.) बंगाल के कृषक विद्रोह
बंगाल में संथाल कृषकों द्वारा किये गये आंदोलन को संथाल-विद्रोह तथा नील कृषक विद्रोह भी कहा जाता है। नील की खेती करने वाले अधिकतर किसान संथाल जनजाति के थे। आधुनिक रसायन उद्योग द्वारा नीले रंगों के निर्माण से सैंकड़ों साल पहले भारतीय किसान नील (इण्डिगो) नामक एक पौधे की खेती करते थे। इस पौधे से नीला रंग बनता था जो सूती कपड़ांे को नीली चमक देता था। ब्रिटेन के वस्त्र उद्योग में भारतीय नील की बहुत मांग थी। इस कारण नील, ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापार का महत्वपूर्ण मद था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी एवं अँग्रेज व्यापारी, नील की खेती करने वाले संथालों पर बहुत अत्याचार करते थे। बागान मालिक ढाई बीघा भूमि को एक बीघा गिनते थे और नील के दो गट्ठर पौधों को एक गट्ठर मानते थे। यदि किसान मना करते तो बागान मालिक किसानों की फसलों को नष्ट कर देते थे, उनके परिवार उजाड़ देते थे, घर जला देते थे और उनके मवेशियों को जबरदस्ती लूटकर ले जाते थे या उन्हें पानी में डुबो देते थे। बागान मालिकों के इस पाशविक दमन के विरुद्ध किसानों में विरोध की भावना जोर पकड़ती जा रही थी। उन्होंने गाँव-गाँव में हथियारबन्द दस्ते गठित कर लिए। उनके अलग-अलग काम नियत करके उन्हें हर-सम्भव हथियारों से लैस कर दिया। बागान मालिक के कारिन्दे जब किसानों पर अत्याचार करने आते तो गाँव के सैकड़ों किसान लाठी-डंडा व अस्त्र-शस्त्र लेकर उन पर टूट पड़ते थे। इन आक्रमणों का बदला लेने के लिये बागान मालिक भी किसानों पर आक्रमण करने लगे। इस प्रकार ज्यों-ज्यों किसानों का विरोध बढ़ता गया, उनका दमन भी बढ़ता गया। संथाल किसानों ने शहरी मध्यम वर्ग से और कुछ मिशनरियों तक से व्यापक समर्थन जुटा लिया। दूसरी ओर राजा राममोहन राय और द्वारकानाथ टैगोर जैसे महत्वपूर्ण समाज-सुधारकों ने बागान मालिकों को सद्व्यवहार के प्रमाण-पत्र दे दिये क्योंकि ये सुधारक इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि अँग्रेज बागान मालिक, किसानों से दुर्व्यवहार कर सकते हैं, वे तो उन्हें सद्व्यवहारी ही मानते थे।
बंगाल के संथाल किसानों ने नील बागानों के मालिकों के साथ-साथ जमींदारों एवं साहूकारों के विरुद्ध भी विद्रोह किया। क्योंकि जमींदारों को उस जमीन पर मालिकाना हक दे दिया गया था जिस पर किसान हजारों साल से खेती करते आ रहे थे और साहूकारों ने ऋण न चुकने के आधार पर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करवा दिया था। संथाल इस शोषण के विरुद्ध उठ खड़े हुए। उन्होंने स्वयं को परम्परागत हथियारों से लैस किया और कलकता की तरफ कूच कर दिया ताकि अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए वे गवर्नर को एक याचिका दे सकें। रास्ते में एक इन्सपेक्टर ने उन्हें रोकने का प्रयास किया जिससे वे हिंसा पर उतारू हो गये। यह घटना संथाल विद्रोहों की शृंखला का आरम्भ था। ब्रिटिश सरकार ने निर्मम दमन-नीति का परिचय दिया। कुछ विद्धानों के अनुसार नील विद्रोह, चम्पारन, खेड़ा और बारदौली के किसाना आन्दोलनों को भी पीछे छोड़ देता है।
वहाबी रफीक मण्डन ने उत्तर बंगाल में नील विद्रोहियों का साथ दिया और मध्य बंगाल में विश्वास बन्धुओं ने उनका नेतृत्व किया। मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों ने अखबारों और मंचों से उन्हें सहारा दिया। हिन्दू पैट्रीयट के हरिशचन्द्र मुखर्जी ने उनके दुःखों का वर्णन किया और रांेगटे खड़े कर देने वाले कष्टों की कहानियाँ उजागर कीं। जसोर और नदिया से प्रकाशित समाचार पत्रों में बागान मालिकों के अत्याचारों की कहानियाँ लिखी गईं। ऐसे गीतों की रचना हुई, जिनमें बागान मालिकों तथा उनके गोरे सिपाहियों के प्रति घृणा व्यक्त की गई। दीनबन्धु मित्रा ने नील दर्पण नामक नाटक की रचना की। मधुसुदन दत्त ने इसका अँग्रेजी में अनुवाद किया। इन दोनों के विरुद्ध बागान मालिकों ने मुकदमे दायर किये। दीनबंधु मित्रा एवं मधुसूदन दत्त को एक महीने की कैद और एक हजार रुपया जुर्माना किया गया। इस मुकदमे से जनता में भारी उत्तेजना फैल गई।
एक बार लॉर्ड केनिंग ने नदी के रास्ते भ्रमण करते हुए देखा कि नदी के दोनों किनारे हजारों लोगों की भीड़ थी जो बहुत सम्मान और व्यवस्था के साथ केनिंग से न्याय माँग रही थी। इस पर लार्ड केनिंग ने सोचा कि जो लोग इस समझदारी के साथ व्यवहार कर सकते हैं, उनके साथ बर्ताव करने में बड़ी सावधानी की जरूरत है। सरकार ने नील विद्रोहियों को शान्त करने के लिए तुरन्त उपाय किये। वरिष्ठ एवं अनुभवी अधिकारियों को नदिया जिले में तैनात किया गया। वस्तु-स्थिति की रिपोर्ट देने के लिए एक जाँच आयोग की स्थापना हुई। इस जाँच आयोग के समक्ष ब्रिटिश अधिकारियों ने स्वीकार किया कि उन्होंने संथालों की निर्ममतापूर्वक हत्या की थी। जाँच आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी कि रैयतों की यह शिकायत कि खेती से उनको कोई लाभ नहीं होता और पेशगी की पद्धति जबरदस्ती-सी है, सही है। जाँच आयोग ने सिफारिश की कि संथालों को अत्याचारों से मुक्ति दिलवाई जाये। फलस्वरूप 1885 ई. में सरकार ने बंगाल काशतकारी अधिनियम पारित किया जिसने खोये हुए भू-धारण अधिकार और जमींदारों द्वारा लगान के रूप में एक निश्चित राशि वसूल करने की प्रथा को फिर से स्थापित किया। बागान मालिकों पर अंकुश लगाया गया। बाद में सरकार ने धमकी व डर के जरिये होने वाली नील की खेती की पद्धति को बन्द कर दिया तथा यह स्वीकार किया कि रैयत को खेती में स्वतन्त्रता होनी चाहिये।
(2.) मराठा किसानों का विद्रोह
एक ओर तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भू-राजस्व में वृद्धि, दूसरी तरफ अनावृष्टि तथा तीसरी तरफ सूदखोर साहूकारों के अत्याचारों ने मराठा किसानों को भी विद्रोह करने के लिए विवश कर दिया। जिस समय संथालों का विद्रोह चल रहा था, उसी समय मराठा किसान भी जमींदारों और साहूकारों के अत्याचारों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। मराठा किसानों ने स्थान-स्थान पर साहूकारों के मकान जला डाले, उनकी जायदाद एवं अन्य सम्पत्ति को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया तथा अपने ऊपर जुल्म ढाने वालों को और जो सरकारी अधिकारी उनकी सहायता के लिए आये उनको मार दिया। बम्बई प्रेसीडेंसी के कई जिलों- खेड़ा, अहमदाबाद और पूना में किसान विद्रोह हुए। मारवाड़ी साहूकार उनके क्रोध के विशेष रूप से शिकार हुए। किसानों का प्रमुख लक्ष्य साहूकारों के कब्जे से ऋण सम्बन्धी कागजात, इकरारनामे, डिग्रियाँ आदि नष्ट करना था। जिन स्थानों पर साहूकारों ने भयभीत होकर ये अभिलेख किसानों के हवाले कर दिये, उन स्थानों पर विद्रोही किसानों की भीड़ ने कम हिंसक कार्यवाही की किंतु जिन स्थानों पर साहूकारों ने ऐसा नहीं किया, उन स्थानों पर बड़ी हिंसक कार्यवाहियां की गईं। ब्रिटिश सरकार ने इन विद्रोहों को सख्ती से दबाया तथा किसानों के दंगों की जाँच के लिए एक आयोग नियुक्त किया। विद्रोहों का दमन करने के बाद सरकार ने दक्कन कृषक राहत अधिनियम पारित किया जिसमें प्रावधान किया गया कि मराठा किसानों को कर्ज न अदा कर पाने की स्थिति में बंदी नहीं बनाया जा सकता।
(3.) पंजाब का कूका आंदोलन
19वीं शताब्दी के मध्य में कूका आंदोलन ने ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया। पश्चिमी पंजाब में भगत जवाहरमल ने सिक्खों में फैली हुई कुछ कुरीतियों का अन्त करने के लिए कूका आन्दोलन का सूत्रपात किया था। 1863 ई. में नामधारी सिक्खों ने अपने नेता रामसिंह कूका के नेतृत्व में आन्दोलन चलाया जिसका लक्ष्य पंजाब में सिक्ख सत्ता की पुनर्स्थापना करना था। चूँकि उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध कूक (आवाज) उठाई थी, इसीलिये इसे कूका आन्दोलन कहा जाता है। कूकाओं ने पजंाब में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध एक समानान्तर हुकूमत कायम करने का प्रयास किया। जब कूकाओं ने हिंसक वारदातें आरम्भ कीं तब ब्रिटिश सरकार ने उनका दमन किया। सरकारी सैनिकों ने अनेक कूकाओं को मौत के घाट उतार दिया तथा रामसिंह कूका को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया जहाँ 1885 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार कूका विद्रोह शांत हो गया।
(4.) पंजाब के किसानों का विद्रोह
कूका विद्रोह के बाद पंजाब में किसानों का आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। पंजाब के किसान अपनी जमीनों पर साहूकारों का तेजी से कब्जा होते जाने की वजह से उत्तेजित थे। अँग्रेेजों की नीतियों के कारण साहूकारों से ऋण लेना पड़ता था। साहूकार ऋण के बदले में किसान की जमीन रेहन रखवा लेता था। 19वीं शताब्दी के सातवें दशक में खेतों के रेहन रखे जाने की संख्या चौंकाने की सीमा तक पहुँच गई। आरम्भ में सरकारी अधिकारियों के एक भाग ने, साहूकारों के हाथों में जमीन के हस्तान्तरण का स्वागत किया, क्योंकि उनके पास कृषि को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त उद्यम व पूँजी थी किन्तु कानून एवं व्यवस्था की गिरती हुई स्थिति, पश्चिमी पंजाब के गाँवों में बढ़ती हुई हिंसा, सिक्ख काश्तकारों का कनाडा एवं अमेरिका के लिए पलायन आदि कई ऐसे कारण थे जिन्होेंने अँग्रेज अधिकारियों को भूमि के इस हस्तान्तरण के बारे में फिर से सोचने के लिए बाध्य कर दिया। अँग्रेजों को भय हुआ कि यदि काश्तकारों का पलायन होता रहा तो इसका असर सैनिक सेवा में भर्ती पर पड़ेगा। कृषि में धन निवेश करने की दृष्टि से भी अँग्रेजों ने साहूकारों को उपयोगी नहीं माना, क्योंकि साहूकार केवल लगान व ब्याज पर कर्ज देकर संतुष्ट हो जाते थे। पश्चिमी क्षेत्रों में किसान, जमींदार और खेतिहर, मुसलमान थे जबकि साहूकार प्रायः हिन्दू बनिया थे। इस कारण कर्जदार और साहूकार के बीच संघर्ष ने साम्प्रदायिक रूप ग्रहण कर लिया। 1876 ई. में एस. एस. थार्नबर्न ने कहा कि साहूकारों के हाथों में भूमि के हस्तान्तरण को समय पर नहीं रोका गया तो अन्ततः इस देश में ब्रिटिश साम्राज्य का स्थायित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। पंजाब के अधिकारी व न्यायाधीश ग्रामीण असंतोष के बारे में बराबर अपनी रिपोर्ट भेजते रहे।
किसान साहूकारों के द्वारा लूटे जा रहे थे और उन्हें सरकारी संरक्षण की आवश्यकता थी किन्तु पंजाब में अँग्रेजों की चिंता राजनीति से प्रेरित थी। पंजाब, शाही ब्रिटिश सेना का भर्ती क्षेत्र था। ब्रिटिश सेना के पचास प्रतिशत कर्मचारी और सैनिक इसी क्षेत्र से थे। एक ओर पंजाबी व्यापारी एवं साहूकार किसानों की भूमियां हथिया रहे थे और दूसरी ओर उन्होंने पंजाब में आर्य समाज आंदोलन को तेजी से विस्तार दिया था। इस कारण अँग्रेज, पंजाबी व्यापारियों एवं साहूकारों के विरुद्ध हो गये। अँग्रेज अधिकारी, आर्य समाज को उग्र हिन्दुत्व का रूप मानते थे जो ब्रिटिश सत्ता का घोर विरोधी था। किसानों के असन्तोष को दूर करने के लिए सरकार ने 1900 ई. में भूमि अन्य-संक्रामण अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम के अनुसार पंजाब के लोगों को कृषक एवं अकृषक जातियों एवं वर्गों में बाँटा गया और यह प्रावधान किया गया कि किसानों की भूमि गैर-कृषक वर्ग को हस्तान्तरित नहीं की जा सकती। यह अधिनियम उस किसान आन्दोलन का परिणाम था जो लाला लाजपतराय और सरदार अजीतसिंह के नेतृत्व में चलाया गया था। इस अधिनियम से बड़े किसानों को बड़ा लाभ हुआ किन्तु छोटे किसानों को राहत नहीं मिली। पूर्व में साहूकार किसानों की भूमि हड़पते थे, अब उन्हीं की बिरादरी के सम्पन्न किसान उनकी भूमि हड़पने लगे।
(5.) पबना के किसानों का विद्रोह
वर्तमान में पबना का क्षेत्र बांगलादेश में है। 1872-73 ई. में पबना के किसानों ने भी विद्रोह किया। उनका विद्रोह मूलतः जमींदारों के अत्याचारों और जमींदारों के संरक्षक ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध था। इस आन्दोलन के दौरान किसानों ने जगह-जगह अपनी सभाएँ स्थापित कीं और अपने को संगठित व हथियारों से लैस किया। उन्होंने लगान-वृद्धि को रद्द करने, बेदखली को तुरन्त बन्द करने और जमींदारी प्रथा को समाप्त करने की माँग की किन्तु ब्रिटिश सरकार उनकी किसी भी माँग को मानने के लिए तैयार नहीं थी। इस कारण ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह को बड़ी क्रूरता से कुचल दिया।
(6.) असम में किसानों का विद्रोह
इस विद्रोह को कूकियों का विद्रोह भी कहते हैं। यह विद्रोह बेइमान साहूकारों, सूदखोरों तथा उनके संरक्षक अँग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध था। कूकियों ने आदिम हथियारों तथा पहाड़ी क्षेत्रों का लाभ उठा कर 1860-90 ई. के मध्य संघर्ष किया। असम के नौगांव जिले के फुलागुडी के आदिवासी किसानों का संघर्ष अफीम की खेती को सरकारी नियंत्रण में लाने और सरकार की आयकर तथा अन्य कर लगाने की योजना के विरुद्ध था। लम्बे संघर्ष के उपरांत कूकियों ने अँग्रेजी सेना के समक्ष समर्पण किया।
(7.) मोपला किसानों का विद्रोह
19वीं शताब्दी के दौरान कृष्णा तथा गोदावरी डेल्टा के किसानों तथा कर्नाटक एवं रायलसीमा के किसानों ने नई लगान व्यवस्था के विरुद्ध कई बार विद्रोह किये। किसानों की मुख्य शिकायतें इस प्रकार से थीं- (1.) अत्यधिक लगान की वसूली, (2.) सरकारी सरंक्षण तथा साँठ-गाँठ से साहूकारों द्वारा शोषण तथा (3.) सिंचाई के साधनों के विकास के प्रति सरकार की अकर्मण्यता। मलाबार क्षेत्र में मोपला लोग किसान और पट्टेदार थे। वे लोग चाय तथा कॉफी के बागानों में खेती करते थे। अधिकांश मोपला किसान मुसलमान थे, जबकि जमींदार और साहूकार प्रायः हिन्दू थे। मोपलाओं ने जमींदारों और साहूकारों के विरुद्ध विद्रोह किया। मोपला किसानों का आन्दोलन बाद में साम्प्रदायिक बन गया और उसमें हिन्दुओं को काफी क्षति उठानी पड़ी । सरकार ने सैन्य-बल से विद्रोह को कुचला किन्तु बाद में जब-जब देश में साम्प्रदायिक उपद्रव हुए, मोपलाओं ने भी विद्रोह किये।
(8.) पूना और अहमदनगर जिलों में आन्दोलन
अन्य प्रदेशों की भाँति बम्बई प्रदेश के किसान भी कर्ज में डूब गये और अत्यधिक निर्धनता के कारण उनका जीवन यापन दुष्कर हो गया। भारत के अन्य प्रदेशों की भाँति बम्बई प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में भी मारवाड़ी साहूकार चक्रवर्ती ब्याज की भारी दरों पर रुपया कर्ज देते थे। कर्ज लेने के लिए किसान अपनी कृषि भूमि अमानत के तौर पर साहूकार के पास गिरवी रखते थे। भारत सरकार द्वारा नियुक्त आयोग ने निष्कर्ष निकाला था कि सरकारी भूमि पर काश्त करने वाले किसानों में से एक-तिहाई लोग अपनी जमीनों के औसत वार्षिक उत्पादन की रकम से अठारह गुना अधिक कर्ज के बोझ से दबे हुए थे। इनमें से दो-तिहाई लोगों ने जमीन को गिरवी रखकर कर्जा लिया था। इस कारण अधिकांश लोगों की जमीनें साहूकारों को हस्तांतरित हो गईं। इन साहूकारों में मारवाड़ियों की प्रधानता थी। आर. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘कुछ मक्कार साहूकार तो ऋणग्रस्त किसानों, विशेषकर कुनबी जाति के किसानों को ऋणों के बोझ से राहत देने के लिए, उन्हें अपनी स्त्रियों की अस्मत का सौदा करने को बाध्य करते थे।’
1874 ई. में पूना जिले के सिकर ताल्लुक के करदा गाँव में एक साहूकार, न्यायालय से एक किसान के मकान की कुर्की की डिक्री लेकर आया तथा उसने बड़ी निर्लज्जतापूर्वक मकान पर अधिकार कर लिया। इस घटना ने ग्रामवासियों को साहूकार के विरुद्ध संगठित कर दिया। उन्होंने सर्वसम्मति से साहूकारों का सामाजिक एवं आर्थिक बहिष्कार कर दिया। घरों में पानी भरने वालों, नाइयों और अन्य घरेलू नौकरों ने साहूकारों को किसी भी प्रकार की सेवा देने से मना कर दिया। गाँव वालों ने साहूकारों के घरों के सामने कुत्तों की हड्डियाँ तथा अन्य गन्दी वस्तुएँ फेंककर साहूकारों को बुरी तरह से परेशान किया। इस उत्पीड़न से दुःखी होकर साहूकार गाँव छोड़कर चले गये। करदा गाँव की सफलता से उत्साहित होकर आस-पास के गाँवों में भी साहूकारों के विरुद्ध ऐसी ही कार्यवाहियाँ हुईं। उन गाँवों से भी साहूकार पलायन कर गये। 12 मई 1875 को सूपा गाँव में उपद्रवी भीड़ ने साहूकारों की दुकानों और मकानों में लूटपाट की और एक घर को जला दिया। इसके बाद अहमदनगर जिले के 33 गाँवों में हिंसक उपद्रव भड़क उठे और बड़े पैमाने पर साहूकारों के प्रतिष्ठानों तथा मकानों में लूटपाट की गई। इन उपद्रवों के बाद 951 लोगों को बन्दी बनाया गया जिनमें से 500 से अधिक व्यक्तियों को सख्त कारावास की सजा सुनाई गई। डॉ. मजूमदार के अनुसार इन उपद्रवों की चारित्रिक विशेषता कर्ज दने वाले सेठ-साहूकारों की सम्पत्ति की व्यापक पैमाने पर लूटपाट और उन पर प्राण-घातक प्रहार करना था, फिर भी, सामान्यतः हत्या जैसे क्रूर कृत्यों का सहारा नहीं लिया गया। लगभग प्रत्येक मामले में उपद्रवियों का एकमात्र उद्देश्य किसानों से लिखवाये गये बाण्ड्स, डिक्री आदि दस्तावेजों को जलाना अथवा अपने कब्जे में लेना था। हिंसा का प्रयोग उन्हीं साहूकारों के विरुद्ध किया गया जिन्होंने किसानों को दस्तावेज सौंपने से मना कर दिया। ऐसे साहूकारों को शारीरिक यातनाएं दी गईं तथा उनकी महिलाओं की इज्जत खराब की गई। 15 जून 1875 तक इस प्रकार की घटनाएँ जारी रहीं। इसके बाद छुटपुट घटनाएँ होने लगीं। 22 जुलाई 1875 को पूना जिले के निम्बूत गाँव में सात व्यक्तियों ने मिलकर साहूकारों के घरों में डकैती डाली तथा बलपूर्वक रेहन के कागजातों तथा अन्य कागजातों को अपने कब्जे में किया। एक साहूकार, जो न्यायालय से प्राप्त डिक्री की तामील करवा रहा था, की नाक काटकर फेंक दी। 10 सितम्बर 1875 को सतारा में कुकरूर नामक गाँव में लगभग 100 लोगों की भीड़ ने एक प्रमुख साहूकार के आवास पर धावा बोल दिया। मकान को बुरी तरह से लूटा और घर में मिले समस्त कागजों एवं बहीखातों को जला दिया।
इन दंगों के कारणों की जाँच करने के लिए भारत सरकार ने एक आयोग नियुक्त किया। आयोग ने सर्वसम्मति से निष्कर्ष निकाला कि किसानों की दरिद्रता और ऋणग्रस्त्ता ही इन दंगों का मूूल कारण है। आयोग ने अनुभव किया कि उपद्रव-ग्रस्त क्षेत्रों की रैयत की सामान्य स्थिति कर्ज में डूबे हुए व्यक्ति के समान है और उपद्रवों के पहले के बीस वर्षों में यह स्थिति धीरे-धीरे असहनीय होती गई। बीच के कुछ वर्षों में कपास की अच्छी फसल होने से ऋणग्रस्त्ता के बुरे परिणाम स्थगित रहे, किन्तु पिछले वर्षों में ये बुरे परिणाम और भी तीव्र गति से सामने आने लगे। आयोग ने इस सम्बन्ध में 1855 ई. के संथाल विद्रोह और 1845 ई. में भील सरदार रघु भांगरिया, जो कि बड़ी तादाद में अपने अनुयायी लुटेरों के साथ लूटमार करता था और साहूकारों के नाक, कान काटता था, के दृष्टांत भी दिये। अप्रैल 1871 और जुलाई 1875 के मध्य कैरा जिले में हिंसक उपद्रवों के दौरान नौ लोगों को मार डाला गया, 10 लोगों पर प्राणघातक हमले हुए, 36 लोगों को मारा-पीटा गया और 7 मकानों को लूटपाट के बाद जला दिया गया। ऋणग्रस्त तीन किसानों ने आत्महत्या कर ली ताकि साहूकारों के शोषण से मुक्ति मिल सके। आयोग के आँकड़ों के अनुसार 1871 ई. से 1874 ई. के मध्य अहमदनगर जिले में हत्या की 2 वारदातें, डकैती की 5 वारदातें, मकानों में तोड़-फोड़ की 7 घटनाएँ, उपद्रव की 3 और आगजनी की एक घटना हुई। पूना में 1873-74 ई. की अवधि में एक व्यक्ति की हत्या हुई और लूटपाट की 7 घटनाएँ हुई। पाँच वर्षों की अवधि में 77 गम्भीर मामले घटित हुए।
आयोग के एक सदस्य वेडर्नबर्ग का मानना था कि भारत में जिस सम्भावित उपद्रव की कल्पना की जाने लगी है, वह बम्बई प्रेसीडेन्सी में होने वाले कृषक विद्रोहों से मिलती-जुलती है। ये घटनाएँ छितराई हुई गैंग डकैतियों और साहूकारों पर हमलों से आरम्भ होती हैं। अन्त में जब बहुत सारे डकैत मिलकर कार्यवाही करने लगे तो पूना में नियुक्त पैदल, अश्वारोही और तोपखाना सेना को उनके विरुद्ध प्रयुक्त किया गया। ये डकैत दल पश्चिमी घाटों के जंगलों में घूमते रहते थे। सैनिक टुकड़ियों के आगमन की सूचना मिलते ही बिखर कर छिप जाते और बाद में पुनः एकत्रित हो जाते। रात्रि में महाबलेश्वर और माथेरान के पहाड़ी शिखरों पर उन्हें अलाव जलाते तथा खाना पकाते हुए देखा जा सकता था। ये लोग हिंसक कार्यवाहियों के बाद जंगलों में आश्रय लिये हुए थे तथा अवसर पाते ही दूर-दूर के गाँवों में साहूकारों पर टूट पड़ते थे। इन डकैतों पर नियंत्रण करने में सरकार को बहुत धन एवं समय व्यय करना पड़ा।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि किसानों के आंदोलन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गलत नीतियों के कारण हुए। कम्पनी द्वारा राजस्व प्रबंधन की तीनों पद्धतियों में राजस्व की दर बहुत ऊंची रखी गई थी। कारिंदों की मनमानी एवं लूट के कारण स्थिति और खराब हो गई थी। अकाल पड़ने पर भी लगान वसूली के लिये सख्ती की जाती थी। लगान वसूली की नई व्यस्था से इंग्लैण्ड की पद्धति के अनुसार भारत में नये जमींदार वर्ग का उदय हुआ। लगान भरने के लिये कर्जा लेने की मजबूरी के कारण साहूकार वर्ग का जन्म हुआ तथा जमींदारों के शहरों में रहने के कारण उनके प्रतिनिधियों के रूप में उप-भू-स्वामी वर्ग का उदय हुआ। इन लोगों ने किसानों पर भयानक अत्याचार किये ताकि अपना अस्तित्व बना रहे और ईस्ट इण्डिया कम्पनी का लगान चुकता रहे। एक ओर किसान पर ऋण बढ़ता जा रहा था और दूसरी तरफ भूमि की ऊर्वरा शक्ति गिरती जा रही थी तथा किसानों की जमीनें उनके हाथों से निकल कर साहूकारों के हाथों में जा रही थी। इन सब कारणों से भारत के विभिन्न भागों के किसानों को विद्रोह करने पड़े।