कोनार्ड कोरफील्ड के दुष्प्रयास
कोनार्ड कोरफील्ड भारत सरकार के राजनीतिक विभाग का सचिव था तथा देशी रियासतों को ही असली भारत मानता था जिनसे उसे गहरी सहानुभूति थी। इसलिए कोरफील्ड ने रेजीडेंटों और पॉलिटिकल एजेंटों के माध्यम से देशी राजाओं को भारतीय संघ से पृथक रहने के लिये प्रेरित किया। कोरफील्ड चाहता था कि कम से कम दो-तीन राज्य जिनमें हैदराबाद प्रमुख था, कांग्रेस के चंगुल से बच जायें।
बाकी रजवाड़ों का भी भारत में सम्मिलित होना जितना मुश्किल हो सके बना दिया जाये। कोरफील्ड ने रजवाड़ों के बीच घूम-घूम कर प्रचार किया कि उनके सामने दो नहीं तीन रास्ते हैं, वे दोनों उपनिवेशों में से किसी एक में सम्मिलित हो सकते हैं अथवा स्वतंत्र भी रह सकते हैं। कोनार्ड कोरफील्ड के प्रयासों से त्रावणकोर तथा हैदराबाद ने घोषणा कर दी कि वे किसी भी उपनिवेश में सम्मिलित नहीं होंगे अपितु स्वतंत्र देश के रूप में रहेंगे।
रियासती विभाग का गठन
कोनार्ड कोरफील्ड के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए 5 जुलाई 1947 को सरदार पटेल के नेतृत्व में रियासती विभाग अस्तित्व में आया। कांग्रेस को आशा थी कि यह लौह-पुरुष अपनी धोती समेट कर राजाओं के पीछे पड़ जायेगा। हमीदुल्ला खाँ, कोरफील्ड तथा रामास्वामी अय्यर की योजना से निबटने तथा स्वतंत्र हुई रियासतों को भारत संघ में घेरने के लिये पटेल अकेले ही भारी थे। वी. पी. मेनन को पटेल का सलाहकार व सचिव नियुक्त किया गया।
ऐसा माना जाता था कि वे एकमात्र ऐसे अधिकारी थे जो देशी राज्यों की जटिल समस्या को सुलझा सकते थे। पटेल का जोरदार व्यक्तित्व और मेनन के लचीले दिमाग का संयोग इस मौके पर और भी अधिक खतरनाक सिद्ध हुआ। नेपथ्य में मंजे हुए राजनीतिज्ञ जैसे सरदार के. एम. पन्निकर, वी. टी. कृष्णामाचारी तथा भारतीय रियासतों के प्रतिष्ठित मंत्री और भारतीय सिविल सेवा के वरिष्ठ अधिकारी जैसे सी. एस. वेंकटाचार, एम. के. वेल्लोदी, वी. शंकर, पण्डित हरी शर्मा आदि अनुभवी लोग कार्य कर रहे थे। पटेल ने मेनन से कहा कि– ‘पाकिस्तान इस विचार के साथ कार्य कर रहा है कि सीमावर्ती कुछ राज्यों को वह अपने साथ मिला ले। स्थिति इतनी खतरनाक संभावनायें लिये हुए है कि जो स्वतंत्रता हमने बड़ी कठिनाईयों को झेलने के पश्चात् प्राप्त की है वह राज्यों के दरवाजे से विलुप्त हो सकती है।’
केवल तीन विषयों पर विलय
आजादी की तिथि में पाँच सप्ताह शेष रह गये थे। एक ओर कोनार्ड कोरफील्ड अंग्रेजों की सत्ता समाप्ति से पहले रजवाड़ों से केन्द्रीय सत्ता का विलोपन करने के काम में लगा हुआ था जिससे एक-एक करके सारी व्यवस्थायें रद्द होती जा रही थीं। दूसरी ओर सरदार इस उधेड़-बुन में थे कि 15 अगस्त से पहले राजाओं की प्रत्येक व्यवस्था, जिन्हें अंग्रेजों ने रद्द करना आरंभ कर दिया था, जैसे सेना, डाक आदि को बनाये रखने के सम्बन्ध में कैसे बात की जाये?
मेनन ने सरदार को सुझाव दिया कि राजाओं से केवल तीन विषयों में विलय करने के लिये कहा जाये। ये तीन विषय रक्षा, विदेशी मामले और संचार से सम्बन्धित थे। पटेल से अनुमति लेकर मेनन ने माउंटबेटन से इस कार्य में सहयोग मांगा। मेनन ने वायसराय से कहा कि- ‘यदि सारे रजवाड़े भारत में मिल जाते हैं तो विभाजन का घाव काफी कम हो जायेगा तथा यदि इस काम में माउंटबेटन ने सहयोग दिया तो भारत की जनता सदियों तक उनकी ऋणी रहेगी।’ माउंटबेटन ने इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया।
5 जुलाई 1947 को पटेल ने राजाओं से अपील की कि– ‘वे 15 अगस्त 1947 से पूर्व भारत संघ में सम्मिलित हो जायें। देशी राज्यों को सार्वजनिक हित के तीन विषय- रक्षा, विदेशी मामले और संचार संघ को सुपुर्द करने होंगे जिसकी स्वीकृति उन्होंने केबीनेट मिशन योजना के समय दी थी। भारतीय संघ इससे अधिक उनसे और कुछ नहीं मांग रहा। संघ देशी राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की मंशा नहीं रखता। राज्यों के साथ व्यवहार में रियासती विभाग की नीति अधिकार की नहीं होगी। कांग्रेस राजाओं के विरुद्ध नहीं रही है। देशी नरेशों ने सदैव देशभक्ति व लोक कल्याण के प्रति अपनी आस्था प्रकट की है।’
पटेल ने राजाओं को चेतावनी भी दी कि- ‘यदि कोई नरेश यह सोचता हो कि ब्रिटिश परमोच्चता उसको हस्तांतरित कर दी जायेगी तो यह उसकी भूल होगी। परमोच्चता तो जनता में निहित है।’ एक प्रकार से यह घोषणा, राजाओं को समान अस्तित्व के आधार पर भारत में सम्मिलित हो जाने का निमंत्रण था। सरदार के शब्दों में यह प्रस्ताव, रजवाड़ों द्वारा पूर्व में ब्रिटिश सरकार के साथ की गयी अधीनस्थ संधि से बेहतर था।
इस प्रकार पटेल व मेनन द्वारा देशी राजाओं को घेर कर भारत संघ में विलय के लिये पहला पांसा फैंका गया जिसका परिणाम यह हुआ कि बीकानेर नरेश सादूलसिंह ने सरदार पटेल की इस घोषणा का एक बार फिर तुरंत स्वागत किया और अपने बंधु राजाओं से अनुरोध किया कि वे इस प्रकार आगे बढ़ाये गये मित्रता के हाथ को थाम लें और कांग्रेस को पूरा समर्थन दें ताकि भारत अपने लक्ष्य को शीघ्रता से प्राप्त कर सके किंतु अधिकांश राजाओं का मानना था कि उन्हें पटेल की बजाय कोनार्ड कोरफील्ड की बात सुननी चाहिये।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता