Sunday, December 8, 2024
spot_img

अध्याय – 11 – उत्तर-वैदिक समाज एवं धर्म (द)

उत्तरवैदिक-काल में आर्यों की धार्मिक दशा

ऋग्वैदिक-काल का धर्म, सरल तथा आडम्बरहीन था परन्तु उत्तर-वैदिक काल का धर्म जटिल तथा आडम्बरमय हो गया। इस काल में उत्तरी दोआब में ब्रह्माण धर्म के प्रभाव के अंतर्गत आर्य संस्कृति का विकास हुआ। अनुमान होता है कि सम्पूर्ण उत्तर-वैदिक साहित्य का संकलन कुरु-पांचाल प्रदेश में हुआ। यज्ञकर्म और इससे सम्बन्धित अनुष्ठान और विधियां इस संस्कृति की मेरूदंड थीं।

(1.) ब्राह्मणों की प्रधानता: इस युग में ब्राह्मणों की प्रधानता तथा उनका महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया। ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना इसी काल में हुई। इन ग्रन्थों के रचयिता ब्राह्मण थे और इनका सम्बन्ध भी ब्राह्मणों से ही था। वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों के सच्चे ज्ञान का अधिकारी ब्राह्मणों को ही समझा जाता था। ब्राह्मण ही यज्ञ करता और कराता था, इसलिए उसका आदर-सम्मान भी अधिक था।

इस काल में ब्राह्मण का स्थान इतना ऊँचा हो गया था कि वह भू-सुर, भू-देव आदि नामों से सम्बोधित किया जाने लगा। यज्ञों के प्रसार के कारण ब्राह्मणों की शक्ति अत्यधिक बढ़ गई थी। आरम्भ में पुरोहितों के सोलह वर्गों में से ब्राह्मण एक वर्ग मात्र था, परन्तु शनैः शनैः इन्होंने दूसरे पुरोहित-वर्गों को पछाड़ दिया और ये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ग बन गए। ये अपने और अपने यजमानों के लिए पूजा-पाठ और यज्ञ करते थे।

साथ ही, कृषि कर्म से सम्बन्धित समारोहों का आयोजन भी करते थे। ये अपने आश्रयदाता राजा के लिए युद्ध में सफलता की कामना करते थे और बदले में राजा की ओर से दान-दक्षिणा तथा सुरक्षा का वचन मिलता था। उच्चाधिकार के लिए ब्राह्मणों का कभी-कभी योद्धा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले क्षत्रियों से संघर्ष भी होता था परन्तु जब इन दो उच्च वर्णों का निम्न वर्णों से मुकाबला होता था तो ये आपसी मतभेदों को भुला देते थे। उत्तर-वैदिक-काल के अंत में इस बात पर बल दिया जाने लगा कि इन दो उच्च वर्णों को परस्पर सहयोग करके शेष समाज पर शासन करना चाहिए।

(2.) यज्ञ के महत्त्व में वृद्धि: इस युग में यज्ञों के महत्त्व में इतनी अधिक वृद्धि हो गई थी कि इसे यज्ञों का युग कहा जाना चाहिए। इस काल में रचा जाने वाला यजुर्वेद, यज्ञ प्रधान ग्रन्थ है। उसमें यज्ञों के विधान की विस्तृत विवेचना की गई है। यज्ञों को करने में भी सरलता न रह गई थी। गृहस्थ स्वयं यज्ञ नहीं कर सकता था वरन् उसे याज्ञिकों की आवश्यकता पड़ती थी। यज्ञ में समय भी अधिक लगता था।

बहुत से यज्ञ वर्ष भर चलते थे और उनमें बहुत अधिक धन व्यय करना पड़ता था। राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ केवल राजा ही कर सकते थे। इस कारण सर्वसाधारण के लिए यज्ञ करवाना कठिन कार्य हो गया। यज्ञों का आयोजन सामूहिक रूप से और निजी रूप से भी होता था। सामूहिक यज्ञों में राजन्य और उस जन-समुदाय के समस्त सदस्य भाग लेते थे।

निजी यज्ञ अलग-अलग लोगों द्वारा अपने-अपने घरों में आयोजित किए जाते थे, क्योंकि इस काल में वैदिक लोग स्थायी जीवन बिताते थे और उनके अपने सुव्यवस्थित कुटुम्ब थे। अग्नि को व्यक्तिगत रूप से आहुति दी जाती थी और ऐसी प्रत्येक क्रिया एक अनुष्ठान अथवा यज्ञ का रूप धारण कर लेती थी।

(3.) विभिन्न प्रकार के यज्ञों का प्रारम्भ: उत्तर-वैदिक-काल में पूरी आर्य संस्कृति ही यज्ञमय दिखाई देती है। शतपथ ब्राह्मण कहता है– ‘ऋक् पृथ्वी है, यजुष् अन्तरक्षि है और साम द्युलोक है, अतः इनमें विहित उपचारों के द्वारा अर्थात् अग्नि, इन्द्र, और सूर्य के आह्वान द्वारा मनुष्य इन तीनों लोकों को जीत लेता है।’

भौतिक यज्ञ करने से मनुष्य विश्व की शक्तियों का आह्वान करके उन्हें अपने में धारण करता है। अतः इस युग में विभिन्न उद्देश्यों को लेकर विभिन्न प्रकार के यज्ञों का विधान हुआ।

दैनिक यज्ञ: प्रत्येक परिवार में प्रतिदिन पाँच महायज्ञ होते थे-

(अ) देवयज्ञ- इस यज्ञ में अग्नि को भोजन, घी, दूध, दही की आहुति दी जाती है।

(ब) भूतयज्ञ- इस यज्ञ में प्रजापति, काम, विश्वैदेवी तथा पृथ्वी, जल, वायु एवं आकाश नामक चारों तत्त्वों को भोजन की बलि दी जाती है,

(स) पितृयज्ञ- इसमें पितरों के लिए दक्षिण दिशा की ओर भोजन एवं जल फेंका जाता है।

(द) ब्रह्मयज्ञ- इसमें वैदिक पाठों का स्वाध्याय करना पड़ता है।

(य) मनुष्य यज्ञ- इसमें स्वयं भोजन करने से पहले किसी अतिथि को भोजन कराया जाता है।

अग्निहोत्र: इन पांच यज्ञों के साथ-साथ व्यक्ति को प्रतिदिन प्रातः एवं सायंकाल में ‘अग्निहोत्र’ करना होता था जिसके अंतर्गत सूर्योदय से पहले सूर्य और प्रजापति को और सूर्यास्त के बाद अग्नि और प्रजापति को जौ और चावल की आहुति दी जाती थी।

मासिक यज्ञ: दैनिक यज्ञों के साथ-साथ प्रत्येक मास में कुछ निश्चित यज्ञों को करने का प्रावधान किया गया था। महीने में दो बार, प्रतिपदा और पूर्णिमा को ‘दर्शपूर्णमासेष्टि’ की जाती है, इनमें क्रमशः अग्नि और इन्द्र तथा अग्नि और सोम को ‘पुरोडाश’ दिया जाता था। उत्तरवैदिक आर्यों के अनुसार अग्नि तीन प्रकार की होती है- गार्हपत्य, दक्षिण और आह्वनीय। गार्हपत्य अग्नि की वेदी गोल होती है। दक्षिण-अग्नि की वेदी अर्द्धवृत्त के आकार की होती है। आह्वनीय अग्नि की वेदी चौकोर होती है।

वार्षिक यज्ञ: वर्ष में तीन बार बसन्त ऋतु, वर्षा ऋतु और शरद् ऋतु के आरम्भ में क्रमशः ‘वैश्वदेव’, ‘वरुणप्रधान’ और ‘साकमेध’ यज्ञ किए जाते थे। पहले में अग्नि, सोम सविता, सरस्वती और पूषा के लिए पाँच तर्पण किए जाते थे और इसके बाद मरुतों को पुरोडाश, विश्वदेवों को दूध और द्यावा एवं पृथ्वी को पुराडोश दिया जाता था।

दूसरे अर्थात् वरुण-प्रधान यज्ञ में आटे से बनी मेण्ढे और भेड़ की मूर्तियाँ दूध के साथ वरुण और मरुतों को भेंट की जाती थीं। वर्षा के लिए करीर के फलों की बलि दी जाती थी। इसके बाद हल के दो भागों की पूजा होती थी। गृह उपचारों में श्रावण पूर्णिमा को विष्णु, वर्षा ऋतु और श्रावण के देवता को पकवान चढ़ाया जाता था।

मार्ग-शीर्ष की पूर्णिमा को आग्रहायणी पर्व मनाया जाता था। इस अवसर पर घरों की सफाई व सफेदी की जाती थी। शरद या वसन्त में पशुधन की वृद्धि के लिए शुलगव यज्ञ किया जाता था जिसमें रुद्र को बैल की बलि दी जाती थी।

सोमयज्ञ: वैदिक यज्ञों में सोमयज्ञ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। इसे धनी व्यक्ति करते थे। यह प्रायः वसन्त में नए वर्ष के आरम्भ में किया जाता था। इसे करने से पहले 16 याज्ञिक नियुक्त किए जाते थे जो यजमान और उसकी पत्नी को दीक्षित करते थे। फिर सोम की बूँटी गाड़ी में भर कर लाई जाती थी। पहले दिन गर्म दूध की आहुति होती थी। दूसरे दिन सोम को वेदी पर लाकर सिलबटे से पीसा और छन्ने से छाना जाता था। फिर इसे कलशों में भरकर दूध में मिलाया जाता था और कटोरों में देवताओं को भेट किया जाता था।

प्रायः दिन में तीन बार सोम की स्तुति होती था। तीसरे दिन अग्नि और सोम को बलि दी जाती थी और अन्त में यजमान अवभृव नामक स्नान करता था। सोमयज्ञ भी सात प्रकार के थे। इनमें ‘वाजपेय यज्ञ’ शक्ति प्राप्त करने के लिए किये जाते थे। इसमें रथों की दौड़़ होती थी। ‘राजसूय यज्ञ’ और ‘अश्वमेध यज्ञ’ राजाओं के लिए थे तथा लम्बे चलते थे। कुछ यज्ञों में पशु-बलि दी जाती थी किन्तु पशुबलि को सामान्यतः अच्छा नहीं समझा जाता था। पशुबलि के समय लोग मुँह दूसरी ओर फेर लेते थे और इस अपराध के लिए देवताओं से क्षमा माँगते थे।

(4.) यज्ञों में बलि का चलन: ऋग्वेद काल में यज्ञ में केवल फल तथा दूध की बलि दी जाती थी परन्तु अब यज्ञ में पशु तथा सोम की बलि का महत्त्व हो गया। बड़ी-बड़ी बलियों और यज्ञों के अवसर पर राजाओं की ओर से समाज के समस्त वर्गों के लोगों को जिमाया जाता था।

(5.) याज्ञिक वर्ग की उत्पत्ति: यज्ञों की संख्या तथा महत्त्व में वृद्धि हो जाने तथा उनमें जटिलता आ जाने से ब्राह्मणों में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया जो यज्ञों का विशेषज्ञ होता था। इस वर्ग का एकमात्र व्यवसाय अपने यजमान के यहाँ यज्ञ कराना तथा उससे यज्ञ-शुल्क एवं दान प्राप्त करना हो गया। ब्राह्मण उन सोलह प्रकार के पुरोहितों में से एक थे जो यज्ञों का नियोजन करते थे।

समस्त पुरोहितों को उदारतापूर्वक दान-दक्षिणा दी जाती थी। यज्ञों के अवसर पर जो मंत्र पढ़े जाते थे, उनका उच्चारण यज्ञकर्ता को बड़ी सावधानी से करना होता था। यज्ञकर्ता को यजमान कहते थे। यज्ञ की सफलता यज्ञ के अवसर पर उच्चारित चमत्कारिक शक्ति वाले शब्दों पर निर्भर करती थी। वैदिक आर्यों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठान दूसरे हिन्द-यूरोपीय लोगों में भी देखने को मिलते हैं परन्तु अनेक अनुष्ठानों का विकास भारत भूमि में हुआ।

यज्ञ विधियों का आविष्कार, संयोजन एवं विकास ब्राह्मण पुरोहितों ने किया। उन्होंने बहुत सारे अनुष्ठानों का आविष्कार किया, इनमें से अनेक अनुष्ठान आर्येतर प्रजाओं से लिए गए थे। उत्तरवैदिक साहित्य में मिलने वाले उल्लेखों के अनुसार राजसूय यज्ञ करने वाले प्रधान पुरोहित को 2,40,000 गायें दक्षिणा के रूप में दी जाती थीं।

पुरोहितों को यज्ञों में, गायों के साथ-साथ सोना, कपड़ा और घोड़े भी दिए जाते थे। यद्यपि पुरोहित दक्षिणा के रूप में कभी-कभी भूमि भी मांगते थे, तथापि यज्ञ की दक्षिणा के रूप भूमि-दान की प्रथा उत्तर-वैदिक-काल में भली-भाँति स्थापित नहीं हुई थी। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि अश्वमेध यज्ञ में उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन समस्त दिशाओं का, पुरोहित को दान कर देना चाहिए। बड़े स्तर पर पुरोहितों को भूमि-दान किया जाना सम्भव नहीं था। एक उल्लेख ऐसा भी मिलता है कि पुरोहितों को दी जाने वाली भूमि ने अपना हस्तांतरण सम्भव नहीं होने दिया।

(6.) उच्चकोटि का दार्शनिक विवेचन: ई.पू.600 के आसपास, उत्तर-वैदिक-काल का अंतिम चरण आरंभ हुआ। इस काल में, विशेषतः पंचाल और विदेह में, पुरोहितों के आधिपत्य, कर्मकांड एवं अनुष्ठानों के विरुद्ध प्रबल आंदोलन आरम्भ हुआ तथा उपनिषदों की रचना हुई। इन दार्शनिक ग्रंथों में अनुष्ठानों की आलोचना की गई और सम्यक् विश्वासों एवं ज्ञान पर बल दिया गया।

इस काल के याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों द्वारा आत्मन् को पहचानने और आत्मन् तथा ब्रह्म के सम्बन्ध को सही रूप में समझने पर बल दिया गया। ब्रह्मा सर्वोच्च देव के रूप में उदित हुए। पंचाल और विदेह के कुछ क्षत्रिय राजाओं ने भी इस प्रकार के चिन्तन में भाग लिया और पुरोहितों के एकाधिकार वाले धर्म में सुधार करने के लिए वातावरण तैयार किया। उनके उपदेशों से स्थायित्व और एकीकरण की विचारधारा को बल मिला।

आत्मा की अपरिवर्तनशीलता और अमरता पर बल दिए जाने से स्थायित्व की संकल्पना मजबूत हुई, राजशक्ति को इसी की आवश्यकता थी। आत्मा और ब्रह्मा के सम्बन्धों पर बल दिए जाने से उच्च अधिकारियों के प्रति स्वामिभक्ति की विचारधारा को बल मिला। इस काल की दार्शनिक विवेचना के अन्य प्रधान ग्रन्थ आरण्यक हैं। पुनर्जन्म के सिद्धान्त का अनुमोदन भी इसी युग में किया गया।

इसके अनुसार मनुष्य का आगामी जन्म उसके कर्मों पर निर्भर रहता है तथा अच्छा कार्य करने वाला, अच्छी योनि में और बुरा कार्य करने वाला बुरी योनि में जन्म लेता है। इस युग में ज्ञान की प्रधानता पर बल दिया गया। मोक्ष प्राप्त करने के लिए ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक समझा गया। षड्दर्शन अर्थात् सांख्य, योग, न्याय वैशेषिक, पूर्व-मीमांसा तथा उत्तर-मीमांसा की रचना इसी काल में हुई।

स्तुति पाठ: जिन भौतिक कारणों से लोग पूर्वकाल में देवताओं की आराधना करते थे, उन्हीं कारणों से अब भी करते थे परन्तु पूजा-पद्धति में काफी परिवर्तन हो गया था। स्तुति पाठ पहले की तरह ही होते थे, पर देवताओं को संतुष्ट करने की दृष्टि से अब उनका उतना महत्त्व नहीं रह गया था।

(7.) देवताओं के महत्त्व में परिवर्तन: उत्तर-वैदिक-काल में ऋग्वैदिक-काल के देवताओं का महत्त्व घट रहा था और उनका स्थान अन्य नये देवता ग्रहण कर रहे थे। इन्द्र और अग्नि को, पहले जैसा महत्त्व नहीं था। इस युग में प्रजापति का महत्त्व देवताओं से अधिक हो गया। ऋग्वैदिक-काल के दूसरे कई गौण देवताओं को भी उच्च स्थान प्रदान किए गए।

पशुओं के देवता रुद्र, उत्तर-वैदिक-काल में एक महत्त्वपूर्ण देवता बन गए। रुद्र को महादेव तथा पशुपति के नाम से पुकारा जाने लगा। रुद्र के साथ-साथ शिव का महत्त्व बढ़ने लगा। विष्णु अब उन लोगों के संरक्षक देवता समझे जाने लगे जो ऋग्वैदिक-काल में अर्द्ध-घुमंतू जीवन बिताते थे और अब स्थायी जीवन बिताने लगे थे।

विष्णु, वासुदेव कहलाने लगे। भागवत सिद्धान्त का बीजारोपण भी इसी युग में हो गया था। जब समाज चार वर्गों- ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र में विभाजित हो गया तो प्रत्येक वर्ण के पृथक देवता अस्तित्त्व में आ गए। पूषन को प्रारम्भ में गौ-रक्षक समझा जाता था किंतु बाद में शूद्रों का देवता बन गया।

(8.) आडम्बर तथा अन्ध विश्वासों में वृद्धि: उत्तर-वैदिक-काल के आर्यों के उत्तरी मैदान में बस जाने के कारण वे मानसून पर अत्यधिक निर्भर रहने लगे। फलतः उन्हें अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि का सामना करना पड़ा। कृषि पर कीट-पतंगों एवं रोगों का आक्रमण होता था। अतः फसलों को नष्ट होने से बचाने के लिए मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग होने लगा जिनका उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है।

ऋग्वैदिक-काल का विशुद्ध धर्म अब धीरे-धीरे आडम्बरों तथा अन्ध-विश्वासों का जाल बनने लगा था। अब यह विश्वास हो गया था कि यज्ञों तथा मन्त्रों द्वारा न केवल देवताओं को वश में किया जा सकता है वरन् उन्हें समाप्त भी किया जा सकता है। अब भूत-प्रेत तथा मन्त्र-तन्त्र में लोगों का विश्वास बढ़ता जा रहा था। अथर्ववेद में भूत-प्रेतों का वर्णन है और तन्त्र-मन्त्रों द्वारा इनसे रक्षा का उपाय भी बताया गया है। कुछ प्रतीक-वस्तुओं की भी पूजा होने लगी। उत्तर-वैदिक-काल में मूर्ति-पूजा भी आरम्भ हो गई।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source