Saturday, November 2, 2024
spot_img

अध्याय – 2 – भारतीय संस्कृति के प्रधान तत्त्व एवं विशेषताएँ (स)

भारतीय संस्कृति में एकता के तत्त्व

भारत वर्ष के भौगोलिक विस्तार, जनसंख्या प्रसार, सांस्कृतिक वैविध्य, भाषाई बहुलता, क्षेत्रीय पहचान, वेषभूषा के अंतर तथा राजनीतिक विशृंखलता आदि तत्त्वों के कारण अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों ने यह मान्यता बनाई है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है और न कभी अतीत में रहा है। उनकी दृष्टि में विशाल भारत छोटे-छोटे राज्यों का ‘समूह’ अथवा ‘संघ’ मात्र है।

अनेक विदेशी विद्वानों ने भारत को जातियों, भाषाओं, मत-मतान्तरों, संस्कृतियों और रीति-रिवाजों का अजायबघर कहकर पुकारा है जबकि इस कथन में रंचमात्र भी सच्चाई नहीं है। भारत सदियों से एक विशाल देश रहा है और अपनी विशालता के कारण यह कई प्रकार की विशिष्टताओं एवं जटिलताओं से परिपूर्ण है। भारतीय संस्कृति में जिस प्रकार की जातीय आधारित संरचना दिखाई देती है, वह विश्व की किसी अन्य संस्कृति में उपलब्ध नहीं है।

देश में निवास करने वाले अनेकानेक समुदायों में अलग-अलग प्रकार के रीति-रिवाज और विधि-विधान प्रचलित हैं किंतु इनमें बाह्य भिन्नता दिखाई देते हुए भी आंतरिक ‘ऐक्य’ मौजूद है।

(1.) भौगोलिक एकता

यद्यपि हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक विस्तृत विशाल भारत देश में अनेक पर्वत, पठार, मैदान एवं भू-प्रदेश स्थित हैं तथा उनमें अलग-अलग जलवायु, जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ विद्यमान हैं, तथापि प्रकृति ने इसे एक भौगोलिक इकाई बनाया था तथा एक देश के रूप में संगठित किया था।

प्राचीन काल में हजारों वर्षों तक उत्तर में स्थित हिन्दुकुश पर्वत से लेकर पूर्व में स्थित बंगाल की खाड़ी तक इसकी प्राकृतिक सीमा थी किंतु राजनीतिक विभाजनों ने इस देश की भौगोलिक एकता को भंग कर दिया। फिर भी वर्तमान समय में उत्तर में स्थित हिमालय की दुर्गम चोटियां इसकी उत्तरी सीमा का निर्माण करती हैं तथा शेष तीनों आरे से समुद्र ने इसे अच्छी तरह से घेर रखा है।

यद्यपि उत्तर में स्थित चीन, नेपाल और भूटान की सीमाएं भारत की सीमाओं से प्राकृतिक आधार पर विभक्त नहीं की जा सकतीं तथापि हिमालय की ऊंची चोटियां उन देशों को भारत से सुस्पष्ट ढंग से अलग करती हैं। पूर्व में स्थित बांगलादेश भी यद्यपि प्राकृतिक रूप से भारत से अलग नहीं है किंतु भारत और बांगला देश का विभाजन प्राकृतिक नहीं है, राजनीतिक है। इसी प्रकार पश्चिम में स्थित पाकिस्तान भी ऐसा देश है जो केवल राजनीतिक रेखा के माध्यम से अलग है। भारत के दक्षिण में स्थित श्रीलंका भारत से समुद्र द्वारा स्पष्ट रूप से अलग हैं।

अंग्र्रेज इतिहासकार स्मिथ के अनुसार ‘भारत निःसन्देह एक स्वतंत्र भौगोलिक इकाई है, जिसका एक नाम होना सर्वथा ठीक ही है।’

भारतीयों को प्राचीनकाल से ही इस भौगोलिक एकता का ज्ञान है। जिस समय से आर्य सभ्यता सम्पूर्ण देश में प्रसारित हो गई, तब से इस भौगोलिक एकता के चिह्न हमारे धार्मिक और लौकिक साहित्य में मिलते हैं। कात्यायन से आरम्भ होकर कोई ऐसा प्रसिद्ध कवि, आचार्य, नीतिकार और राजनीतिज्ञ नहीं हुआ जो भारत के किसी भाग को विदेश समझता हो। रामायण एवं महाभारत में सम्पूर्ण देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ ही किया गया है। विष्णु-पुराण में बताया गया है कि समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का सारा प्रदेश ‘भारत’ है और उसके निवासी भारत की सन्तान है।

(2.) राजनीतिक एकता

कुछ विद्वानों के अनुसार यह देश केवल अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत ही एक-सूत्र में बँध सका, इससे पूर्व नहीं। यह कथन ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं है। यद्यपि प्राचीनकाल में देश की विशालता के कारण और यातायात के साधनों के अभाव के कारण पूर्ण राजनीतिक-एकता स्थापित नहीं हो सकी परन्तु प्राचीन भारतवासी, देश में राजनीतिक एकता, केन्द्रीय सत्ता के आदर्श एवं प्रांतीय शासन संस्थाओं से भली-भाँति परिचित थे।

महत्त्वाकांक्षी हिन्दू नरेश दिग्विजय करके चक्रवर्ती सम्राट बनने का प्रयास करते थे। प्रतापी नरेश अपने साम्राज्य का विस्तार करके अपनी सार्वभौमिक प्रतिष्ठा के लिए राजसूय, अश्वमेध, वाजपेय आदि यज्ञ करते थे। मगध के नन्द, मौर्य और गुप्त सम्राटों ने उत्तर-दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम के विशाल भू-भागों को अपने अधीन करके देश में एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था बनाए रखी। दिल्ली सल्तनत एवं मुगलों के शासन काल भी देश का अधिकांश भू-भाग एक केन्द्रीय राजनीतिक व्यवस्था के अधीन रहा। ब्रिटिश काल में भारत की राजनीतिक एकता और अधिक दृढ़ हो गयी जिसने भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का नए सिरे से उदय किया।

इसी राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर भारत देश के विभिन्न प्रान्तों में निवास करने वाले स्त्री-पुरुषों ने राजनीतिक एवं सामजिक संगठन बनाए तथा राष्ट्रीय संस्थाओं के झण्डे के नीचे एकत्रित होकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लिया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सम्पूर्ण देश में एक जैसी राजनीतिक, आर्थिक एवं शासन व्यवस्था लागू की गई।

(3.) आध्यात्मिक एकता

भारत के विभिन्न प्रांतों में आदि काल से अनेक प्रकार के धार्मिक विचारों, अनेक प्रकार की भाषाओं, अनेक प्रकार की वेषभूषाओं एवं सैंकड़ों जातियों के विद्यमान होने पर भी भारत की सांस्कृतिक एकता प्राचीनकाल से मौजूद रही है। भारतीय संस्कृति विविध सम्प्रदायों तथा जातियों के आचार-विचार, विश्वास और आध्यात्मिक साधनाओं का समन्वय है। यह संस्कृति वैदिक, बौद्ध, जैन, हिन्दू, मुस्लिम और आधुनिक संस्कृतियों के सम्मिश्रण से बनी है।

भारत भूमि पर उत्पन्न हुए विभिन्न धार्मिक मतों एवं सम्प्रदायों के दार्शनिक और नैतिक सिद्धान्तों में मूलभूत साम्य है। निष्काम भक्ति, अष्टांग योग, एकेश्वरवाद, आत्मा का अमरत्व, कर्मफल सिद्धांत, पुनर्जन्म की अवधारणा, मोक्ष अथवा निर्वाण की अवधारणा आदि तत्त्व प्रायः समस्त धर्मों की निधि हैं। धार्मिक कर्मकाण्डों और संस्कारों में भी बहुत समानता हैं। यम, नियम, शील, तप और सदाचार पर समस्त सम्प्रदाय जोर देते हैं। ऋषि-मुनियों, सन्त-महात्माओं और महापुरुषों का सम्मान, बिना किसी भेदभाव के सर्वत्र होता है। समस्त सम्प्रदायों के तीर्थस्थान, पवित्र नदियाँ और पर्वत सम्पूर्ण भारत में फैले हुए हैं। यही सांस्कृतिक एकता एवं अखण्डता का सबल प्रमाण है।

भारत को आध्यात्मिक एकता के सूत्र में बांधने के प्रयास रामायण काल से ही होने लगे थे। जब कोई राजा चक्रवर्ती पद प्राप्त करता था अथवा अश्वमेध जैसे बड़े यज्ञ करता था तो उसके अभिषेक के लिए देश भर के तीर्थों से जल मंगवाया जाता था। अयोध्या के राजा श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने से पहले दक्षिण भारत में शिवलिंग की स्थापना की। आज भी वह स्थान रामेश्वरम् के नाम से प्रसिद्ध है तथा भारत भर से श्रद्धालु रामेश्वरम् जाकर जल चढ़ाते हैं।

भारत के विभिन्न भागों में द्वादशज्योतिर्लिंगों की स्थापना की गई ताकि लोग इनके दर्शनार्थ सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करें और उन्हें राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता का भान हो।   प्रत्येक भारतीय अपने जीवन में कम से कम एक बार इन द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन अवश्य करना चाहता है, इससे उनमें राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता का भाव स्वतः स्फूर्त होता है क्योंकि इनके दर्शनों के लिए किसी भी व्यक्ति को सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करना होता है। 

भारतीय धर्मग्रंथों में बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वरम की चर्चा चार धामों के रूप में की गई है। देश भर में रहने वाले हिन्दू अपने जीवन में कम से कम एक बार इन धामों की यात्रा रकना चाहते हैं। आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी ईस्वी में भारत की चारों दिशाओं में एक-एक मठ की स्थापना की ताकि भारत की आध्यात्मिक एकता को अक्षुण्ण रखा जा सके-

(1.) दक्षिण भारत में स्थित रामेश्वरम् में वेदांतज्ञान मठ।

(2.) पूर्वी भारत में स्थित जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ।

(3.) पश्चिमी भारत में स्थित द्वारकापुरी में शारदा मठ (कालिका)।

(4.) उत्तरी भारत में बद्रीनाथ में स्थित ज्योतिर्मठ।

भारतीय प्रतिदिन स्नान करते समय विभिन्न नदियों का स्मरण करते हैं-

गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!

नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेस्मिन् सन्निधिं कुरु।।

(4.) रीति-रिवाजों की एकता

रीति-रिवाजों के मामले में हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि विभिन्न भारतीय सम्प्रदाय एक जैसे हैं। उत्तर एवं दक्षिण भारत के निवासियों के रीति-रिवाजों में बाह्य रूप से भले ही अंतर दिखता हो किंतु उनकी मूल आत्मा एक है। यहाँ तक कि भारत तथा उससे अलग हुए देशों के मुसलमान अपने विचारों और रीति-रिवाजों की दृष्टि से तुर्की तथा अरब देशों के मुसलमानों की अपेक्षा भारतीय हिन्दुओं के अधिक निकट हैं।

आधुनिक पारसी गुजराती बोलते हैं, उनके शादी-ब्याह के रीति-रिवाज और नीति-विधान भारतीय है। भारत के ईसाई तथा मुसलमान जिस प्रांत में रहते हैं, वे उसी प्रांत की भाषा बोलते हैं। हिन्दुओं एवं मुसलमानों के शादी-विवाह का ढंग हिन्दुओं के सात-फेरों और मुसलमानों के निकाह पढ़ने के अतिरिक्त समस्त मामलों में लगभग एक जैसा है। बहुत से हिन्दू जो मध्य-काल में मुसलमान बन गए थे, आज भी अपने घरों में हिन्दू-जीवन-शैली का पालन करते हैं।

हिन्दुओं की संस्कृति पर भी मुसलमानों के बहुत से रीति-रिवाजों का प्रभाव पड़ा है। दूल्हे के मुंह पर फूलों का सेहरा बांधना, हिन्दू रीति-रिवाजों का अंग बन गया है जबकि यह मुस्लिम संस्कृति का अंग था। यद्यपि आज का भारतीय समाज आर्य, द्रविड़़ सीथियन, हूण, तुर्क, पठान, मंगोल आदि देशी-विदेशी जातियों के सम्मिश्रण से बना है तथापि उनके खान-पान, शिष्टाचार, मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, पर्व, उत्सव, मेले आदि में काफी-कुछ समानता है।

(5.) साहित्य की एकता

भारतीय साहित्य एवं कला के विषय समस्त प्रान्तों में एक जैसे रहे हैं, यथा- धार्मिक भावना, नैतिक भावना, रहस्यानुभूति तथा प्रतीकात्मकता आदि। साहित्य एवं कला के आधार- कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, अलंकार, रस आदि समस्त जगह समान हैं। वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति, बौद्ध एवं जैन साहित्य समस्त भारत में समान रूप से प्रेरणा के स्रोत रहे हैं।

संस्कृत वांगमय में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को मनुष्य के चार पुरुषार्थ बताया गया है। छठी शताब्दी ईस्वी में तमिल भाषा में तिरुवल्लुवर द्वारा रचित तिरुक्कुरुल में तीन अध्याय हैं जिनके शीर्षक क्रमशः धर्म, अर्थ एवं काम हैं। जिस प्रकार संस्कृत वांगमय की धार्मिक रचनाओं के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं देवस्तुति की परम्परा है, ठीक उसी तरह इस ग्रंथ के प्रारम्भ में भी ईशस्तुति की गई है।

(6.) कलाओं की एकता

देश भर में स्थित कला-स्मारकों में प्रान्तीय विशेषताएं होते हुए भी स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत और रंगमंच आदि में भारतीयता ही दिखाई देती है। अजन्ता, एलोरा, विदिशा उदयगिरी, बोधगया के चैत्य एवं विहार तथा सारनाथ, साँची, भरहुत, अमरावती, मथुरा, गया आदि स्थानों के विहार तथा स्तूप भारत को एक ही धार्मिक भावना से प्रेरित सिद्ध करते हैं।

 अंतर केवल इतना है कि हिन्दुओं के स्थापत्य एवं विविध प्रकार की ललितकलाओं में हिन्दू देवी-देवताओं को प्रमुखता दी गई है, बौद्धों के स्थापत्य एवं ललितकलाओं में भगवान बुद्ध एवं अन्य बौद्ध देवी-देवताओं को प्रमुखता दी गई है। जैनों के स्थापत्य एवं विविध प्रकार की ललितकलाओं में जैन तीर्थंकरों एवं जैन देवी-देवताओं को प्रमुखता दी गई है।

(7.) भाषाई एकता

भारतीयों की मान्यता है कि उन्हें भाषा का ज्ञान देवताओं ने करवाया। देवताओं की भाषा ‘संस्कृत’ थी। इसलिए भारतीय आज भी ‘संस्कृत’ को ‘देवभाषा’ कहते हैं। प्राचीन आर्यों द्वारा मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाए गए वेदों की भाषा भी संस्कृत थी। इसलिए भारत में सांस्कृतिक विचारों का आदान-प्रदान संस्कृत भाषा के माध्यम से ही आरम्भ हुआ तथा संस्कृत भाषा में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना हुई।

रामायण, महाभारत, उपनिषद, गीता एवं पुराण भी संस्कृत में लिखे गए। यद्यपि प्रारम्भिक जैन एवं बौद्ध मतावलम्बियों ने प्राचीन वैदिक संस्कृति से विद्रोह करके अपने-अपने दर्शनों का प्रसार किया था इसलिए बौद्धों ने प्राकृत और जैनों ने पालि भाषा को अपने उपदेशों का मुख्य माध्यम बनाया किंतु बौद्धिक प्रतिस्पर्द्धा की दृष्टि से उन्हें भी बाद में संस्कृत भाषा को ही अपनाना पड़ा। राजनैतिक अध्ययन एवं शासन तंत्र में भी संस्कृत भाषा का प्रयोग होता था। अतः यह अन्तर-प्रान्तीय उपयोग की भाषा बन गई। मध्य-युग तक इसका खूब प्रचार रहा तथा इस काल में भी अनेक प्रसिद्ध ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गए।

हिन्दी तथा देश की विविध प्रान्तीय भाषाओं यथा- मराठी, गुजराती, बंगला, पंजाबी, तमिल, तेलुगू आदि का मूल स्रोत भी संस्कृत है। इनकी शब्दावली पर संस्कृत का ही अधिक प्रभाव है। इन समस्त भाषाओं के साहित्य में भी समानता है, क्योंकि उनके प्रेरणा के मूल स्रोत रामायण, महाभारत एवं पुराणों की कथाएँ, उनके नायकों के जीवन चरित्र, देवी-देवताओं के वृत्तान्त ही रहे हैं।

इस प्रकार संस्कृत ने प्रान्त, जाति, सम्प्रदाय और बोली आदि का अतिक्रमण करके भारतीयों को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोया। तुर्कों एवं मुगलों के काल में जब देश में तुर्की एवं फारसी का प्रचार हुआ तो हिन्दी सहित समस्त प्रांतीय भाषाओं में तुर्की एवं फारसी शब्दों का प्रवेश हो गया। 

अतः निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि क्षेत्र, भाषा, धर्म एवं जाति के आधार पर भारतीय संस्कृति में भले ही अलग-अलग प्रकार के तत्त्व दिखाई देते हों किंतु उन सबका आत्म-तत्त्व एक ही है और वह केवल भारतीयता है, भारतीयता के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

Related Articles

2 COMMENTS

  1. You actually make it seem so easy together with your
    presentation but I in finding this topic to be really something that I believe I’d by no
    means understand. It kind of feels too complicated and very wide for me.
    I’m looking ahead for your subsequent post, I’ll try to get the hang of it!
    Escape roomy lista

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source