इस धारावाहिक की पिछली कड़ी में हमने चर्चा की थी कि ईक्ष्वाकु राजा अंग के अत्याचारी पुत्र वेन को ऋषियों ने अपनी हुंकार से मार डाला तथा वेन की माता सुनीथा ने मन्त्रा के बल से अपने पुत्र के शव की रक्षा की।
जब धरती पर कोई राजा नहीं रहा तो चारों ओर अव्यवस्था होने लगी। चोर-डाकू और आत्ताई लोग प्रजा को संत्रास देने लगे। वेन के कोई संतान नहीं थी जिसे राजा बनाया जा सके। इसलिए समस्त ऋषियों ने एकत्रित होकर वेन के शव के अंगों का मथन किया। उसकी बाईं जांघ से निषाद का, दाहिनी भुजा से पृथु नामक पुरुष का तथा बाईं भुजा से अर्चि नामक स्त्री का जन्म हुआ।
पृथु के चरण में कमल का और हाथ में चक्र का चिन्ह था। ऋषियों ने पृथु का विवाह अर्चि से कर दिया तथा पृथु को धरती का राजा बना दिया। इस प्रकार अधिकांश पुराण पृथु को वेन का पुत्र मानते हैं जबकि वाल्मीकि रामायण में इन्हें अनरण्य का पुत्र तथा त्रिशंकु का पिता कहा गया है। पृथु ने वेन को ‘पुम’ नामक नरक से छुड़ा लिया।
कुछ पुराणों में पृथु को विष्णु का अंशावतार कहकर उसकी वंदना की है। उनके अनुसार राजा पृथु का अभिषेक करने के लिए समुद्र विभिन्न प्रकार के रत्न और नदियां अपना जल लेकर स्वयं ही उपस्थित हुए। प्रजापति ब्रह्मा, अंगिरस ऋषि, समस्त देवताओं एवं समस्त चराचर भूतों ने उपस्थित होकर राजा पृथु का राज्याभिषेक किया।
महाभारत के शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ में भी राजा पृथु के चरित्र का वर्णन किया गया है। राजा पृथु धरती का पालक सिद्ध हुआ। उसने धरती की इतनी सेवा की कि उसके नाम पर धरती को पृथ्वी अर्थात् ‘पृथु की पुत्री।’ कहा जाने लगा। जिस समय पृथु राजा बना उस समय धरती अन्नविहीन थी तथा प्रजा भूख से त्रस्त थी।
प्रजा का करुण क्रंदन सुनकर राजा पृथु अत्यंत दुखी हुए। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि धरती माता ने अन्न एवं औषधियों को अपने उदर में छिपा लिया है तो वे धनुष-बाण लेकर धरती को मारने दौड़े।
धरती एक स्त्री का रूप धरकर राजा पृथु की शरण में आई और राजा को नमस्कार करके जीवन दान की याचना करती हुई बोली- राजन्! ‘मुझे मारकर अपनी प्रजा को जल पर कैसे रख पाओगे?’
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पृथु ने कहा- ‘स्त्री पर हाथ उठाना अनुचित है किंतु जो पालनकर्ता अन्य प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है उसे दंड अवश्य देना चाहिए।’
धरती ने कहा- ‘मेरा दोहन करके आप सब कुछ प्राप्त करें। आपको मुझे जोतने के लिए मेरे योग्य बछड़े और दोहन-पात्र का प्रबन्ध करना पड़ेगा। मेरी सम्पूर्ण सम्पदा को दुराचारी चोर लूट रहे थे, इसलिए वह सामग्री मैंने अपने गर्भ में सुरक्षित रखी है। मुझे आप समतल बना दीजिये।’
धरती के उत्तर से राजा पृथु सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मन को बछड़ा बनाया एवं स्वयं अपने हाथों से पृथ्वी का दोहन करके अपार धन-धान्य प्राप्त किया। फिर देवताओं तथा महर्षियों को भी पृथ्वी के योग्य बछड़ा बनाकर विभिन्न वनस्पतियों, अमृत, सुवर्ण आदि इच्छित वस्तुएं प्राप्त कीं। राजा पृथु ने धरती को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार किया तथा धरती को समतल बनाकर पृथु ने स्वयं पिता की भांति धरती एवं उस पर रहने वाली प्रजा का पालन किया। महाभारत में लिखा है कि कि विभिन्न मन्वन्तरों में पृथ्वी ऊँची-नीची हो जाती है। इसलिए राजा पृथु ने धनुष की कोटि द्वारा चारों ओर से शिला-समूहों को उखाड़ डाला और उन्हें एक स्थान पर संचित कर दिया। इससे पर्वतों की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई बढ़ गयी।
राजा पृथु की प्रशस्ति में कहा जाता है कि वे इतने प्रतापी थे कि जब वे समुद्र में चलते थे तो समुद्र स्थिर हो जाता था और जब वे पर्वतों पर चलते थे तो पर्वत उनके मार्ग से स्वयं हटकर उन्हें मार्ग प्रदान करते थे। राजा पृथु ने सरस्वती नदी के तट पर पर 100 यज्ञ किए। उस काल में यह क्षेत्र ब्रह्मावर्त प्रदेश कहलाता था। स्वयं भगवान् श्री हरि विष्णु समस्त देवताओं सहित उन यज्ञों में आए।
राजा पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर देवराज इंद्र को ईर्ष्या हुई। उसे सन्देह हुआ कि कहीं राजा पृथु इंद्रपुरी न प्राप्त कर ले। इसलिए इन्द्र ने सौवें अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया। जब इंद्र घोड़ा लेकर आकाश मार्ग से जा रहा था तब अत्रि ऋषि ने उसे देख लिया। अत्रि ने राजा पृथु से कहा- ‘इंद्र यज्ञ का घोड़ा लेकर भाग गया है।’
इस पर राजा पृथु ने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह इंद्र से यज्ञ का घोड़ा छुड़ाकर लाए। राजा पृथु के पुत्र ने इंद्र का पीछा किया। इंद्र ने वेश बदल रखा था। पृथु के पुत्र ने जब देखा कि यज्ञ के घोड़े को लेकर भागने वाला व्यक्ति जटाजूट एवं भस्म लगाए हुए है तो राजकुमार ने उस व्यक्ति को साधु समझकर उस पर बाण चलाना उपयुक्त नहीं समझा और बिना घोड़ा लिए ही वापस लौट आया।
तब अत्रि मुनि ने राजकुमार से कहा- ‘वह साधु नहीं है, साधु के वेश में इन्द्र है।’
इस पर राजकुमार फिर से इन्द्र के पीछे गया। पृथु-कुमार को पुनः आया देखकर इंद्र घोड़े को वहीं छोड़कर अंतर्धान हो गया। पृथु-कुमार अश्व को यज्ञशाला में ले आया। समस्त ऋषियों ने पृथु के पुत्र के पराक्रम की स्तुति की। अश्व को पशुशाला में बाँध दिया गया। अवसर पाकर इंद्र ने पुनः अश्व को चुरा लिया। अत्रि ऋषि ने पुनः पृथु कुमार को सूचित किया। इस पर पृथु के पुत्र ने इंद्र पर बाण चलाया। इंद्र पुनः अश्व छोड़कर भाग गया।
जब राजा पृथु को देवराज इंद्र के इस कृत्य की जानकारी मिली तो उसे बहुत क्रोध आया। ऋषियों ने राजा को शांत किया और कहा कि आप व्रती हैं, यज्ञ के दौरान आप किसी का वध नहीं कर सकते किंतु हम मन्त्र के द्वारा इंद्र को यज्ञकुंड में भस्म किए देते हैं। यह कहकर ऋत्विजों ने मन्त्र से इंद्र का आह्वान किया।
ऋषिगण यज्ञकुण्ड में आहुति अर्पित करना ही चाहते थे कि प्रजापति ब्रह्मा प्रकट हुए। उन्होंने राजा पृथु से कहा- ‘तुम और इंद्र दोनों ही परमात्मा के अंश हो। तुम तो मोक्ष के अभिलाषी हो। तुम्हें इन यज्ञों की क्या आवश्यकता है? तुम्हारा यह सौवां यज्ञ सम्पूर्ण नहीं हुआ है, चिंता मत करो। यज्ञ को रोक दो। इंद्र के पाखण्ड से जो अधर्म उत्पन्न हो रहा है, उसका नाश करो।’
प्रजापति ब्रह्माजी की यह बात सुनकर भगवान् श्री हरि विष्णु इंद्र को अपने साथ लेकर पृथु की यज्ञशाला में प्रकट हुए। उन्होंने पृथु से कहा- ‘मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। यज्ञ में विघ्न डालने वाले इंद्र को तुम क्षमा कर दो। राजा का धर्म प्रजा की रक्षा करना है। तुम तत्त्वज्ञानी हो। भगवत्-प्रेमी व्यक्ति शत्रु को भी समभाव से देखते हैं। तुम मेरे परम भक्त हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह माँग लो।’
राजा पृथु ने भगवान् से कहा- ‘भगवन्! मुझे सांसारिक भोगों का वरदान नहीं चाहिए। यदि आप देना ही चाहते हैं तो मुझे एक सहस्र कान दीजिये, जिससे मैं आपका कीर्तन, कथा एवं गुणगान हजारों कानों से सुनता रहूँ!’
भगवान् विष्णु ने कहा- ‘राजन! मैं तुम्हारी अविचल भक्ति से अभिभूत हूँ। तुम धर्म से प्रजा का पालन करो।’ राजा पृथु की बात सुनकर देवराज इंद्र को लज्जा आई और वह राजा पृथु के चरणों में गिर पड़ा। पृथु ने देवराज को उठाकर गले से लगा लिया।
महाराज पृथु तथा उनकी पत्नी अर्चि के पाँच पुत्र हुए- विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक। दीर्घकाल तक राज्य करने के पश्चात् राजा पृथु अपना राज्य अपने पुत्र को सौंपकर रानी अर्चि के साथ वन में जाकर तपस्या करने लगे। भगवान् श्री हरि विष्णु के चरणों में ध्यान लगाकर उन्होंने देह त्याग कर दिया। महारानी अर्चि राजा की देह के साथ अग्नि में भस्म हो गई। श्री हरि की कृपा से दोनों को परम-धाम प्राप्त हुआ।
विभिन्न पुराणों में आए राजा पृथु के इस आख्यान से अनुमान होता है कि यह राजा आज से लगभग 10 हजार साल पहले हुआ होगा। क्योंकि वैज्ञानिकों के अनुसार धरती पर कृषि का आरम्भ आज से लगभग 10 हजार साल पहले हुआ। वैज्ञानिकों का मानना है कि आज से 12 हजार वर्ष पहले धरती पर ‘होलोसीन काल’ आरंभ हुआ जो आज तक चल रहा है। इस युग में ही आदमी ने तेजी से अपना मानसिक विकास किया और उसने कृषि तथा पशुपालन आरम्भ करके समाज को व्यवस्थित किया। पौराणिक साहित्य में पृथु नामक अन्य राजाओं का वर्णन भी मिलता है। वृष्णिवंश में उत्पन्न राजा चित्ररथ के पुत्र का नाम भी पृथु था जिसे भगवान श्री कृष्ण ने मथुरापुरी के उत्तरी द्वार का रक्षक नियुक्त किया था। प्रभास तीर्थ में यादव-वंश के विनाश के समय वह भी मारा गया था।