महाभारत के वन पर्व सहित अनेक पुराणों में धुंधुमार के वध की कथा मिलती है। यह कथा किसी प्राकृतिक घटना की ओर संकेत करती है। पुराणों में ईक्ष्वाकु वंश की वंशावली को बहुत ही विकृत कर दिया गया है। इस कारण राजाओं के क्रम का वास्तविक ज्ञान नहीं हो पाता।
कुछ स्थानों पर उल्लेख मिलता है कि राजा त्रिशंकु के पुत्र धुन्धुमार हुये। जबकि कुछ पुराणों के अनुसार ईक्ष्वाकु वंशी राजा कुवलाश्व ने धुंधु नामक दैत्य का वध करके धुंधुमार नाम से ख्याति प्राप्त की।
महाभारत के अनुसार ईक्ष्वाकु वंशी राजा बृहदश्व के पुत्र का नाम कुवलाश्व था। उसने धुंधु नामक दैत्य का वध करके धुंधुमार नाम से ख्याति प्राप्त की। राजा कुवलाश्व ने अपने इक्कीस हजार पुत्रों के साथ मिलकर महर्षि उत्तंक का अपकार करने वाले धुंधु नामक दैत्य को मारा था इसलिए राजा कुवलाश्व का नाम धुंधुमार हुआ।
महाभारत में आई कथा इस प्रकार से है- अत्यंत प्राचीन काल में मरु प्रदेश में रहकर तपस्या करने वाले उत्तंक नामक ऋषि ने भगवान विष्णु की तपस्या करके भगवान श्री हरि को प्रसन्न किया। भगवान ने ऋषि को यह वरदान दिया कि धुंधु नामक दैत्य तीनों लोकों का विनाश करने के लिए घनघोर तपस्या कर रहा है किंतु तुम्हारी आज्ञा से ईक्ष्वाकु वंशी राजा बृहदश्व का पुत्र कुवलाश्व मेरे योगबल का सहारा लेकर उस धुंधु नामक अत्यंत शक्तिशाली दैत्य का वध करेगा।
इधर तो भगवान ने महर्षि उत्तंक को यह वरदान दिया कि अयोध्या के राजा बृहदश्व का पुत्र धुंधु नामक दैत्य का वध करेगा किंतु उधर अयोध्या का राजा बृहदश्व तपस्या करने के लिए वन में जाने की तैयारी करने लगा।
जब यह बात महर्षि उत्तंक को ज्ञात हुई तो उन्होंने अयोध्या पहुंच कर राजा से भेंट की तथा राजा बृहदश्व को समझाया कि असमय ही राज्य त्यागकर वन में नहीं जाना चाहिए। प्रजा की रक्षा करना और उसका पालन करना आपका कर्त्तव्य है।
मरुप्रदेश में मेरे आश्रम के निकट रेत से भरा हुआ एक समुद्र है जिसका नाम उज्जालक सागर है। उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई अनेक योजन है। वहाँ धुंधु नामक एक बड़ा बलवान दैत्य रहता है। वह मधु-कैटभ का पुत्र है। वह सदैव पृथ्वी के भीतर छिपकर रहता है। बालू के भीतर छिपकर रहने वाला वह महाक्रूर दैत्य वर्ष में एक बार सांस लेता है। जब वह सांस छोड़ता है तो पर्वत और वनों के सहित यह पृथ्वी डोलने लगती है। उसकी श्ंवास से उठी आंधी से रते का इतना ऊंचा बवंडर उठता है कि उससे सूर्य भी ढक जाता है। सात दिनों तक भूचाल होता रहता है। अग्नि की लपटें चिनगारियां और धुएं उठते रहते हैं। महाराज! इन उत्पातों के कारण हमारा आश्रम में रहना अत्यंत कठिन हो गया है। मनुष्यों का कल्याण करने के लिए आप उस दैत्य का वध कीजिए।’
राजा बृहदश्व ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा- ‘हे ब्राह्मण! आप जिस उद्देश्य से यहाँ पधारे हैं, वह निष्फल नहीं होगा। मेरा पुत्र कुवलाश्व इस भूमण्डल में अद्वितीय वीर है। यह बड़ा धैर्यवान और फुर्तीला है। आपका अभीष्ट कार्य वह अवश्य पूर्ण करेगा। इसके बलवान् पुत्र भी अस्त्र-शस्त्र लेकर इस युद्ध में उसका साथ देंगे। आप मुझे छोड़ दीजिए क्योंकि अब मैंने शस्त्रों को त्याग दिया और और मैं युद्ध से निवृत्त हो गया हूँ।’
महर्षि उत्तंक ने कहा- ‘बहुत अच्छा!’
इस पर राजा बृहदश्व ने अपने पुत्र कुवलाश्व को बुलाया और उसे आज्ञा दी कि वह इस ब्राह्मण का अभीष्ट पूर्ण करे। यह आज्ञा देकर राजा बृहदश्व तप करने के लिए वन में चला गया।
महाभारत में लिखा है कि धुंधु नामक इस महाबली दैत्य ने एक पैर से खड़े होकर बहुत काल तक तपस्या की थी। जब प्रजापति ब्रह्मा उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए तो ब्रह्माजी ने धुंधु को वर मांगने के लिए कहा। धुंधु बोला कि आप मुझे ऐसा वर दीजिए जिसके कारण मेरी मृत्यु किसी देवता, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सर्प से न हो। ब्रह्माजी ने उससे कहा कि अच्छा ऐसा ही होगा। इस प्रकार धुंधु दैत्य अभय होकर महर्षि उत्तंक के आश्रम के निकट अपनी श्वास से आग की चिनगारियां छोड़ता हुआ रेत में रहने लगा।
इक्ष्वाकु वंशी राजा बृहदश्व के आदेश से उसका पुत्र कुवलाश्व उत्तंक मुनि के साथ सेना और सवारी लेकर मरुस्थल में आया। उसके इक्कीस हजार पुत्र भी उसकी सेना के साथ थे। महर्षि उत्तंक की प्रार्थना पर भगवान श्री हरि विष्णु ने अपना तेज राजा कुवलाश्व में स्थापित कर दिया। कुवलाश्व ज्यों ही युद्ध के लिए आगे बढ़ा, त्यों ही आकाशवाणी हुई कि राजा कुवलाश्व स्वयं अवध्य रहकर धुंधु को मारेगा और धुंधुमार नाम से विख्यात होगा। देवताओं ने राजा कुवलाश्व पर पुष्पों की वर्षा की। देवताओं के बजाए बिना ही, देवताओं की दुंदुभियां बज उठीं। ठण्डी हवाएं चलने लगीं और पृथ्वी की उड़ती हुई धूल को शांत करने के लिए इन्द्र धीरे-धीरे वर्षा करने लगा।
भगवान श्री हरि विष्णु के तेज से बढ़ा हुआ राजा कुवलाश्व शीघ्र ही समुद्र के किनारे पहुंचा और अपने पुत्रों से चारों ओर की रेत खुदवाने लगा। सात दिनों तक खुदाई होने के पश्चात् महाबलवान् धुंधु दैत्य दिखाई पड़ा। बालू के भीतर उसका बहुत बड़ा विकराल शरीर छिपा हुआ था जो प्रकट होने पर अपने तेज से दीदीप्यमान होने लगा, मानो सूर्य ही प्रकाशमान हो रहे हों।
धुंधु दैत्य प्रलयकाल की अग्नि के समान पश्चिम दिशा को घेरकर सो रहा था। कुवलाश्व के पुत्रों ने उसे सब ओर से घेर लिया और वे तीखे बाण, गदा, मूसल, पट्टिश, परिघ और तलवार आदि अस्त्र-शस्त्रों से उस पर प्रहार करने लगे। उन लोगों की मार खाकर वह महाबली दैत्य क्रोध में भरकर उठा और उनके चलाए हुए शस्त्रों को गालर-मूली की तरह खा गया। इसके बाद वह संसंवर्तक अग्नि के समान आग की लपटें उगलने लगा और अपने तेज से उन सब राजकुमारों को एक क्षण में भस्म कर दिया जैसे पूर्वकाल में सगर के साठ हजार पुत्रों को कपिल मुनि ने भस्म कर डाला था।
जब समस्त इक्ष्वाकु राजकुमार धुंधु की क्रोधिाग्नि में स्वाहा हो गए तब महातेजस्वी कुवलाश्व उसकी ओर बढ़ा। उसके शीरर से जल की वर्षा होने लगी जिसने धुंधु के मुख से निकलती हुई आग को पी लिया। इस प्रकार योगी कुवलाश्व ने योगबल से उस आग को बुझा दिया और स्वयं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके समस्त जगत् का भय दूर करने के लिए उस दैत्य को जलाकर भस्म कर दिया। धुंधु को मारने के कारण वह धुंधुमार नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध में राजा कुवलाश्व के समस्त इक्कीस हजार पुत्र धुंधु के मुख से निकली निःश्वासाग्नि से जलकर मर गए किंतु तीन पुत्र दृढ़ाश्व, कपिलाश्व और चंद्राश्व जीवित बच गए।
राजा धुंधुमार के हाथों धुंधु के वध की कथा निश्चय ही किसी बड़ी प्राकृतिक घटना की ओर संकेत करती है। यह घटना काफी बाद की प्रतीत होती है क्योंकि इस काल तक हिमालय से निकलने वाली नदियों द्वारा लाई गई रेत के कारण समुद्र के किनारे पर विशाल रेगिस्तान उत्पन्न हो चुका था और समुद्र अपने मूल स्थान से काफी दूर खिसक चुका था।
अवश्य ही उस काल में इस क्षेत्र में टिक्टोनिक्स प्लेटें खिसककर आपस में टकराती होंगी जिनके कारण विशाल भूकम्प आते रहे होंगे यहाँ तक कि पृथ्वी के गर्भ में दबा हुआ गर्म लावा भी धरती की सतह को फूटकर बाहर निकलता होगा। संभवतः इन्हीं भूगर्भीय हलचलों के कारण धरती के ऊपर आकाश में दूर तक धूल और धुंआं फैल जाते होंगे और भूकम्प आया करते होंगे। जब इस क्षेत्र की टिक्टोनिक्स प्लेटें शांत हो गई होंगी तब धुंधुमार के आख्यान की कल्पना की गई होगी।