राजा वेन को ऋषियों ने अपनी हुंकार से मार डाला!
प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथों में राजा वेन की कथा मिलती है। इन कथाओं के आधार पर यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि वह कौनसे मनु का वंशज था। अलग-अलग कथाओं में उसे अलग-अलग मनु का वंशज बताया गया है। अलग-अलग कथाओं के अनुसार राजा वेन को कम से कम तीन मनुओं का वंशज ठहराया गया है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार महाराज ध्रुव की चौथी पीढ़ी में वेन का जन्म हुआ। इस दृष्टि से वेन आदि मनु का वंशज था। कुछ पुराणों के अनुसार वेन ‘मृत्यु’ की मानसी कन्या ‘सुनीथा’ के गर्भ से उत्पन्न राजा अंग का पुत्र था तथा चाक्षुष मनु का प्रपौत्र था। इस दृष्टि से राजा वेन छठे मनु का वंशज सिद्ध होता है।
जबकि कुछ पुराणों के अनुसार वेन राजा ईक्ष्वाकु का वंशज था तथा राजा पृथु का पिता था। इस दृष्टि से राजा वेन वैवस्वत मनु का वंशज सिद्ध होता है।
कुछ पुराणों में कहा गया है कि महाराज ध्रुव के वन गमन के पश्चात उनके पुत्र उत्कल को राजसिंहासन पर बैठाया गया, लेकिन वे ज्ञानी एवम विरक्त पुरुष थे, अतः प्रजा ने उन्हें मूढ़ एवं विक्षिप्त समझकर राजगद्दी से हटा दिया और उनके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सर को राजा बनाया। राजा वत्सर तथा उनके पुत्रों ने दीर्घ काल तक पृथ्वी पर शासन किया। इसी वंश में अंग नामक राजा हुआ।
अंग ने अपनी प्रजा को सुखी रखा। एक बार राजा अंग ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया किंतु देवताओं ने यज्ञ-भाग ग्रहण करने से मना कर दिया क्योंकि राजा अंग के कोई पुत्र नहीं था।
इस पर राजा अंग ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रकामेष्टि यज्ञ किया। यज्ञ में आहुति देते समय यज्ञकुण्ड में से एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ जिसने राजा को खीर से भरा एक पात्र दिया। राजा ने खीर का पात्र लेकर सूँघा, फिर अपनी रानी को दे दिया। रानी ने उस खीर को ग्रहण किया।
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समय आने पर रानी के गर्भ से एक पुत्र हुआ किन्तु राजा अंग की रानी एक अधर्मी वंश की पुत्री थी, इस कारण उसे अधर्मी सन्तान की प्राप्ति हुई जिसका नाम ‘वेन’ रखा गया।
राजकुमार वेन अत्यंत दुष्ट था। प्रजा उसके उपद्रवों से त्राहि-त्राहि करने लगी। महाराज अंग ने वेन को कई बार दण्डित किया किंतु वेन की प्रवृत्तियों में सुधार नहीं हुआ। इस पर महाराज अंग को जीवन से वैराग्य हो गया और वे एक रात अपना राज्य त्यागकर अज्ञात वन में चले गए। जब भृगु आदि ऋषियों ने देखा कि राजा के न होने से प्रजा की रक्षा करने वाला कोई नहीं रह गया है तो ऋषियों ने माता सुनीथा की सम्मति से, मन्त्रियों के सहमत न होने पर भी वेन को भूमण्डल के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया।
राजा वेन अत्यंत क्रूरकर्मा था। वह किसी भी प्रजाजन द्वारा छोटा सा अपराध किए जाने पर मृत्यु-दण्ड जैसे कठोर दण्ड देता था। इस कारण जब राज्य के चोर-डाकुओं को वेन के राजा बनने की जानकारी मिली तो वे राज्य छोड़कर भाग गए। इससे राज्य में चोर-डाकुओं के उपद्रव तो बंद हो गए। वेन क्रूरकर्मा होने के साथ-साथ घनघोर नास्तिक भी था। उसने ब्राह्मणों तथा सम्पूर्ण प्रजा को आज्ञा दी कि वे कोई यज्ञ न करें तथा किसी देवता का पूजन नहीं करें। एकमात्र वेन ही प्रजा का आराध्य है! इसलिए सभी लोग वेन की पूजा करें। जो लोग इस आज्ञा को भंग करेंगे उन्हें कठोर दण्ड मिलेगा।
जब राजा ने यह घोषणा करवाई तो समस्त ऋषिगण मिलकर वेन को समझाने के उसके पास गए। ऋषियों ने कहा कि राजन! यज्ञ से यज्ञपति भगवान विष्णु संतुष्ट होंगे! उनके प्रसन्न होने पर आपका और प्रजा का कल्याण होगा! इसलिए आप प्रजा को एवं ऋषियों को यज्ञ करने दें। वेन ने ऋषियों के इस परामर्श की अवज्ञा की। इस पर ऋषियों ने हुंकार भरकर एक कुश राजा की ओर फैंका जिसके प्रहार से राजा वेन मर गया। वेन की माता सुनीथा ने अपने पुत्र का शरीर स्नेहवश सुरक्षित रख लिया।
राजा वेन के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए ऋषियों ने वेन के शरीर को मथना आरम्भ किया। सबसे पहले वेन की बाईं जांघ को मथा गया जिससे एक काले रंग और नाटे कद का कुरूप पुत्र उत्पन्न हुआ। अत्रि ऋषि ने उससे कहा ‘निषीद!’ अर्थात् बैठ जाओ। इससे उसका नाम ‘निषाद’ पड़ गया और उसके वंशज निषाद कहलाए।
अब ऋषियों ने वेन का दाहिना हाथ मथना आरम्भ किया जिससे अत्यंत सुंदर बालक का जन्म हुआ। ऋषियों ने उसका नाम पृथु रखा तथा उसके शुभ लक्षण देखकर उसे राजा बना दिया। अब ऋषियों ने वेन का बांया हाथ मला जिससे लक्ष्मी-स्वरूपा आदि-सती अर्चि प्रकट हुई।
पद्म पुराण के अनुसार राजा वेन नास्तिक था एवं जैनियों का अनुयायी हो जाने के कारण ऋषियों से तिरस्कृत हुआ तथा पीटा गया, जिससे उसकी जाँघ से निषाद और दाहिने हाथ से पृथु का जन्म हुआ था। पद्म पुराण के अनुसार राजा वेन ने तपस्या करके अपने पापों से मुक्ति पाई।
कुछ पुराणों में वर्णन मिलता है कि राजा वेन यज्ञ में पशुओं की बलि देता था। ऋषियों ने यज्ञों में हिंसा करने का विरोध किया किंतु वेन ने ऋषियों की बात नहीं मानी। इस कारण परमपिता ब्रह्मा बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने नारद मुनि को राजा वेन के पास भेजा ताकि वे वेन को पशुबलि न देने के लिए समझाएं। नारदजी ने राजा से कहा- ‘हे राजन्! यज्ञ में पशुबलि क्यों देते हो? किंचित् आकाश की तरफ देखो!’
जब वेन ने आकाश की तरफ सिर उठाया तो देखा कि जिन पशुओं की राजा ने बलि चढ़ाई थी, वे पशु आकाश में स्थित हैं तथा राजा को घूर रहे हैं। नारद मुनि बोले- ‘देखा राजन्! ये तुम्हारे पाप हैं। तुमने मूक एवं निरपराध पशुओं को देवपूजन के नाम पर मार डाला। तुम्हें लज्जा नहीं आई! क्या इंद्र या अन्य आदित्य पशु-बलि स्वीकार कर लेंगे?
कभी नहीं, वे देवता हैं ….दैत्य नहीं। हे महापापी वेन, पशुओं का रक्त बहाकर तुमने घोर पाप किया है। स्वयं को मनुष्य कहने वाले तुम वास्तव में नरपशु हो! जो सभी जीवों पर करुणा करता है, वही धर्मात्मा है। वह धर्मात्मा हो ही नहीं सकता जो पशुओं का रक्त बहाए। ईश्वर ने सब प्राणियों को जीने का अधिकार दिया है।
किसी मनुष्य को यह अधिकार नहीं है की वह किसी पशु की हत्या करे। जिस तरह तुम अपने परिजनों की हत्या नहीं कर सकते, उसी तरह पशुओं की हत्या मर करो। ईश्वर तुम्हें इस अपराध का दण्ड अवश्य देंगे।’ ऐसा कहकर देवऋषि नारद चले गए किन्तु वेन ने पशु-बलि बंद नहीं की। इस कारण ऋषियों ने कुपित होकर राजा वेन को मार डाला।