Monday, May 19, 2025
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अध्याय – 34 : भारत में समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलन-6

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स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण मिशन

रामकृष्ण परमहंस (1836-1886 ई.) ने भारतीयों के समक्ष धर्म के सच्चे स्वरूप को प्रदर्शित किया। रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। उनका जन्म 1836 ई. में बंगाल के हुगली जिले में निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें बचपन से ही शिक्षा के प्रति कोई रुचि नहीं थी। वे हर समय धार्मिक चिंतन में मग्न रहते थे। जब वे 17 वर्ष के थे, उनके पिता का देहान्त हो गया। इस पर गदाधर अपने बड़े भाई के साथ कलकत्ता आ गये। अपने भाई की मृत्यु के बाद 21 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर में कालीदेवी के मन्दिर में पुजारी बन गये। पुजारी के रूप में कार्य करते हुए उनके मन में काली माँ के प्रति अगाध भक्ति एवं श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। वे देवी को माँ कहकर पुकारते थे और उसके समक्ष शिशु की तरह व्यवहार करते थे। 24 वर्ष की आयु में उनका विवाह शारदामणि नामक 5 वर्ष की कन्या के साथ कर दिया गया। विवाह के पश्चात् रामकृष्ण पुनः दक्षिणेश्वर मन्दिर आ गये।

दक्षिणेश्वर मंदिर में उन्होंने 12 वर्ष तक विभिन्न प्रकार की साधनाएँ कीं। उन्होंने भैरवी नामक एक ब्राह्मण सन्यासिन से दो वर्ष तक तान्त्रिक साधना सीखी। उसके बाद उन्होंने वैष्णव धर्म की साधना की। वैष्णव धर्म की साधना करते हुए उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन किये। तोतापुरी नामक एक महान् वेदान्तिक साधु ने उन्हें वेदान्त-साधना सिखाई। उसके पश्चात् रामकृष्ण ने सूफी धर्म तथा ईसाई धर्म का ज्ञान प्राप्त किया। 1876 ई. के बाद रामकृष्ण की आत्मा को सन्तोष प्राप्त हुआ। उन्होंने अपनी साधना द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म तथा ज्ञान, विद्या का विषय नहीं है, अपितु अनुभूति का विषय है। शारदामणि जीवनपर्यन्त दक्षिणेश्वर में अपने पति के साथ रहीं किन्तु रामकृष्ण ने उन्हें कभी पत्नी के रूप में नहीं देखा। वे शारदामणि को माँ कहते थे। साधना के द्वारा रामकृष्ण ने अपने शरीर एवं मन को इतना शुद्ध कर लिया कि वह ईश्वरत्व का निर्मल यन्त्र हो गया था। उनकी संवेदना का स्तर इतना गहरा था कि एक बार उन्होंने गाय की पीठ पर लाठी पड़ती हुई देख ली, इस लाठी का चिह्न उनकी पीठ पर भी उभर आया।

वे राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानन्द के समान बहुपठित विद्वान नहीं थे, अपितु उच्चकोटि के साधक एवं सन्त थे। दूर-दूर से लोग उनके दर्शनों को आते थे। अनेक शिक्षित नवयुवक भी उनकी तरफ आकर्षित हुए। रामकृष्ण, अपने दर्शनों के लिये आने वाले व्यक्तियों को अध्यात्मिक उपदेश देते रहते थे। उनके आध्यात्मिक जीवन को देखकर भारतीयों को मालूम हुआ कि धर्म वास्तव में कैसा होता है। ब्रह्म समाजी आचार्य पी. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘रामकृष्ण के दर्शन होने से पूर्व यह कोई नहीं जानता था कि धर्म कैसा होता है। सब आडम्बर ही था। धार्मिक जीवन कैसा होता है, यह बात रामकृष्ण की संगति का लाभ होने पर जान पड़ी।’

16 अगस्त 1886 को क्षय रोग से रामकृष्ण का निधन हुआ।

रामकृष्ण ने कोई सम्प्रदाय स्थापित नहीं किया। उन्होंने कोई आश्रम भी स्थापित किया। वे भारत की परम्परागत संत पद्धति से उपदेश देते थे। धर्म के गहन से गहन तत्त्वों को वे सीधे वाक्यों में उदाहरण देते हुए समझाते थे। वे धर्म की साकार प्रतिमा थे। रामकृष्ण को कुछ विद्वानों ने धर्म का जीता-जागता स्वरूप बताया है। स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म के बौद्धिक अंग की श्रेष्ठता को सिद्ध किया था। रामकृष्ण उस  हिन्दू धर्म के वास्तविक प्रतिनिधि थे। वे ईश्वर के निराकार तथा साकार दोनों रूपों को मानते थे। वे मूर्तिपूजा के विरोधी नहीं थे। वे एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद में भेद नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में वेद, उपनिषद् पुराण, रामायण और महाभारत समस्त पवित्र आध्यात्मिक ग्रन्थ थे।

रामकृष्ण की शिक्षाएँ

उच्च कोटि के विद्वान् न होते हुए भी रामकृष्ण ने वेदान्त के सत्यों की बड़े ही सुन्दर ढंग से व्याख्या की। उनकी शिक्षाओं का सार इस प्रकार से है-

(1.) मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य ईश्वर से साक्षात्कार करना है। हम अपने उच्च आध्यात्मिक जीवन का विकास करके ईश्वर के दर्शन कर सकते हैं।

(2.) उन्होंने गृहस्थ जीवन को ईश्वर की प्राप्ति में बाधक नहीं माना। उनका कहना था कि ईश्वर-प्राप्ति के लिए हमें विषय-वासनाओं को त्यागना होगा तथा मन को कंचन और कामिनी से हटाकर ईश्वर की ओर लगाना होगा। इससे गृहस्थ में रहते हुए भी आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं।

(3.) शरीर और आत्मा, दो भिन्न वस्तुएँ हैं। इस सिद्धान्त को समझाते हुए उन्होंने कहा- ‘कामिनी-कंचन की आसक्ति यदि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाए तो शरीर अलग है और आत्मा अलग है, यह स्पष्ट दिखाई देने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे खोपरा और नरेटी दोनों अलग-अलग दिखाई देने लगते हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा के बारे में जानना चाहिए।’

(4.) तर्क से वे बहुत घबराते थे। उनका कहना था कि शास्त्रार्थ को मैं नापसन्द करता हूँ। ईश्वर शास्त्रार्थ की शक्ति से परे है, मुझे तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि जो कुछ है वह ईश्वरमय है, फिर तर्कों से क्या लाभ।

(5.) मूर्ति-पूजा का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि जैसे वकील को देखते ही अदालत याद आती है, उसी तरह प्रतिमा पर ध्यान जाते ही ईश्वर की याद आती है।

(6.) रामकृष्ण अनुभूति को तर्क, वाद-विवाद, प्रवचन और भाषण से अधिक महत्त्व देते थे। उनका कहना था कि अनुभूति से ही परमतत्त्व का दर्शन सम्भव है। इस दर्शन के बाद मनुष्य की अभिलाषाएं समाप्त हो जाती हैं।

(7.) रामकृष्ण मनुष्यों में कोई भेद नहीं मानते थे। उनका कहना था कि मनुष्य, तकिये के गिलाफ के समान है। गिलाफ जैसे भिन्न-भिन्न रंग और आकार के होते हैं वैसे ही मनुष्य भी कोई सुन्दर, कोई कुरूप, कोई साधु और कोई दुष्ट होता है, बस इतना ही अंतर है। पर जैसे समस्त गिलाफों में एक ही पदार्थ- कपास भरा रहता है, उसी के अनुसार समस्त मनुष्यों में वही एक सच्चिदानन्द भरा हुआ है।

(8.) विद्वता और पांडित्य के साथ वे मनुष्य में शील और सदाचार चाहते थे। उनका कहना था कि विद्वान् कभी भी अहंकार नहीं दिखाता। जिस प्रकार आलू सिक जाने पर नर्म हो जाता है, उसी प्रकार विद्वता के साथ अंहकार समाप्त हो जाता है।

(9.) रामकृष्ण की मान्यता थी कि समस्त धर्म एक ही ईश्वर तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं। एक बार एक व्यक्ति ने पूछा कि जब सत्य एक है तो फिर धर्म अनेक क्यों हैं? रामकृष्ण ने उत्तर दिया- ‘ईश्वर एक है किन्तु उसके विभिन्न स्वरूप हैं, जैसे-एक घर का मालिक, एक के लिए पिता, दूसरे के लिए भाई और तीसरे के लिए पति है और वह विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, उसी प्रकार ईश्वर भी विभिन्न कालों व देशों में भिन्न-भिन्न नामों एवं भावों से पूजा जाता है। इसलिए धर्मों की अनेकता देखने को मिलती है।’

रामकृष्ण परमंहस की देन

विश्व के लिये रामकृष्ण की तीन देन सबसे बड़ी कही जा सकती हैं-

(1.) उनकी सबसे बड़ी देन अध्यात्मवाद है। सरल उपदेशों और जीवंत उदाहरणों से उन्होंने वेदों और उपनिषदों के जटिल ज्ञान को साधारण व्यक्तियों के निकट कर दिया। रामकृष्ण ने अपनी शिक्षाओं द्वारा हिन्दू धर्म के ग्रन्थों को सरल बनाया तथा हिन्दुओं में अपने प्राचीन ज्ञान के प्रति श्रद्धा और विश्वास भी उत्पन्न किया। वे हिन्दू धर्म के अध्यात्मवाद के जीवित स्वरूप थे।

(2.) रामकृष्ण की दूसरी महत्त्वपूर्ण देन समस्त धर्मों की एकता में विश्वास उत्पन्न करना है। उन्होंने अपने उपदेशों तथा अपने जीवन में विभिन्न धर्मों की साधना करके यह स्पष्ट कर दिया कि समस्त धर्म ईश्वर-प्राप्ति के विभिन्न मार्ग हैं।

(3.) उनकी तीसरी महत्त्वपूर्ण देन यह है कि उन्होंने मानव मात्र की सेवा और भलाई को धर्म बताया। उनका कहना था कि प्रत्येक प्राणी भगवान् का रूप है; अतः उसकी सेवा करना भगवान् की सेवा करना है। उनके शिष्य विवेकानन्द ने इसी भाव को ग्रहण कर दरिद्रनारायण की सेवा करने में स्वयं को समर्पित कर दिया।

स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म का प्रतिपादन ब्रह्म समाज और आर्य समाज की अपेक्षा अधिक मनोबल एवं सम्मान से किया। राजा राममोहन राय हिन्दू धर्म के लिये क्षमायाचक से अधिक नहीं थे। भारतीय हिन्दू धर्म को उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में देखा। स्वामी दयानन्द ने वेदों में निहित ज्ञान को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया तथा ईसाई मिशनरियों के आरोपों का प्रत्युत्तर दिया। स्वामी विवेकानन्द ने समस्त वेदान्त की सैद्धान्तिक व्याख्या करके हिन्दू धर्म को पाश्चात्य धर्म में उपलब्ध ज्ञान से उच्चतर बताया। 

स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के दत्त परिवार में हुआ। बचपन में उनका नाम नरेन्द्र दत्त था। उन्होंने एक अँग्रेजी कॉलेज से बी. ए. की डिग्री प्राप्त की। उन पर यूरोप के बुद्धिवाद और उदारवाद का भारी प्रभाव था। उन्होंने जॉन स्टुअर्ट मिल, हर्बर्ट, स्पेन्सर, रूसो जैसे पाश्चात्य दार्शनिकों का गहन अध्ययन किया। उनमें उच्चकोटि की बौद्धिकता के साथ-साथ जिज्ञासा भाव भी प्रबल था। आरम्भ में वे ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए किन्तु ब्रह्म समाज के उपदेशक, उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शान्त नहीं कर सके। किसी सम्बन्धी के कहने पर 1881 ई. में उन्होंने दक्षिणेश्वर मंदिर जाकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस से भेंट की।

रामकृष्ण से भेंट: रामकृष्ण परमहंस परम्पारगत हिन्दू धर्म के प्रतीक थे, जबकि नरेन्द्र दत्त पश्चिमी शिक्षा, तर्क, विचार और बुद्धिवाद में विश्वास करने वाले थे। रामकृष्ण के सम्पर्क से नरेन्द्र के जीवन की दिशा ही बदल गई। पहली ही भेंट में नरेन्द्र दत्त ने स्वामी रामकृष्ण से प्रश्न किया- ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’

रामकृष्ण ने कहा- ‘हाँ, मैं ईश्वर को वैसे ही देखता हूँ जैसे मैं तुम्हें देखता हूँ। तुम भी चाहो तो उसे देख सकते हो।’

रामकृष्ण ने फिर कहा- ‘इस संसार में कोई अपने बाप के लिए, कोई माँ के लिये तथा कोई पत्नी के लिये रोता है परन्तु मैंने आज तक ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो इसलिए रो रहा हो कि उसे ईश्वर नहीं मिला।’

इस कथन से नरेन्द्र दत्त अत्यन्त ही प्रभावित हुए। जब दूसरी बार वे रामकृष्ण से मिले तो रामकृष्ण ने अपना दायाँ पांव नरेन्द्र के शरीर पर रखा। इस स्पर्श से नरेन्द्र को जो अनुभूति हुई, उसका वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है- ‘आँखें खुली होने पर भी मैंने दीवारों सहित सारे कमरे को शून्य में विलीन होते देखा। मेरे व्यक्तित्व सहित सारा ब्रह्माण्ड ही एक सर्वव्यापक रहस्यमय शून्य में लुप्त होते दिखाई पड़ा।’

इस प्रकार नरेन्द्र दत्त ने स्वामी रामकृष्ण की आध्यात्मिक शक्ति से अभिभूत होकर उन्हें अपना गुरु मान लिया। गुरु के निरीक्षण में नरेन्द्र दत्त का आध्यात्मिक विकास होने लगा। रामकृष्ण ने नरेन्द्र को मानव मात्र में ईश्वर के दर्शन करने की प्रेरणा दी और कहा कि मनुष्य ईश्वर का रूप है, उसकी सेवा ही सर्वोच्च धार्मिक साधना है। नरेन्द्र ने अपना समस्त जीवन इसी साधना में लगा दिया। जब स्वामी रामकृष्ण की मृत्यु का समय निकट आया तो उन्होंने नरेन्द्र दत्त को, अपने विचारों को फैलाने तथा अपने शिष्यों की देखभाल करने का उत्तरदायित्व सौंपा।

स्वामी रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उनके बहुत से शिष्य अपने-अपने घरों को चले गये किन्तु नरेन्द्र दत्त ने अपने तीन-चार साथियों के साथ काशीपुर के निकट  बारा-नगर में एक टूटे हुए मकान में रहना आरम्भ किया। 1887 ई. में प्रथम बार इस मठ को, धार्मिक रूप में स्थापित किया गया। उस समय मठ के 12 सदस्यों ने वैदिक क्रियाओं के अनुसार सन्यास ग्रहण किया और अपने नाम भी बदल लिये। उसी समय नरेन्द्र दत्त का नाम स्वामी विवेकानन्द रखा गया।

शिकागो सर्व-धर्म-सम्मेलन

सन्यास ग्रहण करने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने भारत भ्रमण किया। जब वे कन्याकुमारी पहुँचे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि अमेरिका के शिकागो नगर में विश्व के समस्त धर्मों की एक सभा हो रही है। 1893 ई. में बड़ी कठिनाई से स्वयं के प्रयत्नों से वे अमेरिका पहुंचे। इस सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने हिन्दुत्व के उज्वल पक्ष को इतने प्रभावशाली ढंग से विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया कि सम्पूर्ण विश्व में हिन्दू धर्म की धूम मच गई। विश्व स्तर पर इस तरह का कार्य इससे पहले कभी नहीं हुआ था। स्वामी विवेकानंद की इस विदेश यात्रा के तीन मुख्य उद्देश्य थे-

(1.) स्वमी विवेकानंद इस यात्रा के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व को यह संदेश देना चाहते थे कि विश्व के समस्त धर्म, एक ही धर्म के विभिन्न अंग हैं। सम्पूर्ण विश्व में एक प्रकार की धार्मिक एकता का भाव जागृत होना चाहिए।

(2.) विवेकानंद अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों के समक्ष यह उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते थे कि यदि भारतवासी स्वयं को ऊँचा उठायें तो पश्चिम के सुशिक्षित एवं सुसम्पन्न लोग भी भारतीयों का आदर करने के लिये विवश होंगे।

(3.) विवेकानंद भारतीयों के इस भय को दूर करना चाहते थे कि समुद्र-यात्रा करने तथा विदेशियों के हाथ का अन्न-जल ग्रहण करने से धर्म और जाति नष्ट हो जाते हैं। 

शिकागो नगर के सर्व-धर्म-सम्मेलन में स्वामीजी ने हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। उन्होंने सम्मेलन में जिस ज्ञान, जिस उदारता, जिस विवेक और जिस वाक्शक्ति का परिचय दिया, उससे विश्व भर से आये लोग विस्मित रह गये। उनके भाषणों ने श्रोताओं को मन्त्र-मुग्ध किया। जब उन्होंने अपने प्रथम भाषण में अमेरिका वासियों को ‘भाइयो और बहिनो!’ कहकर सम्बोधित किया तो विश्व के आश्चर्य का पार न रहा कि एक मानव संसार के समस्त मनुष्यों का भाई हो सकता है। उनके देश में सार्वजनिक आयोजनों में माई फैलो सिटीजन्स अथवा माई फैलो कन्ट्रीमैन कहने की परम्परा थी। इस सम्बोधन से एक मानव का दूसरे मानव से कोई आत्मिक सम्बन्ध स्थापित नहीं होता था। इसलिये स्वामीजी द्वारा कहे गये- ‘ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स!’ सम्बोधन का बड़ी देर तक भारी करतल-ध्वनि से स्वागत हुआ।

इस सम्मेलन की सभाएँ प्रतिदिन होती थीं। स्वामीजी ने अपने भाषण सभा के अन्त में ही दिये, क्योंकि सारी जनता उन्हीं का भाषण सुनने के लिए अन्त तक बैठी रहती थी। उन्होंने हिन्दू धर्म की उदारता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हिन्दुत्व के शब्दकोष में असहिष्णु शब्द ही नहीं है। हिन्दू धर्म का आधार शोषण, रक्तपात या हिंसा नहीं है, वरन् प्रेम है। स्वामीजी ने वेदान्त के सत्य पर भी प्रकाश डाला। जब तक सम्मेलन समाप्त हुआ, तब तक स्वामीजी अपना तथा भारत का प्रभाव अमेरिका में अच्छी तरह स्थापित कर चुके थे। स्वामीजी के भाषणों की प्रशंसा में अमेरिका के समाचार पत्र द न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा- ‘सर्व-धर्म-सम्मेलन में सबसे महान् व्यक्ति विवेकानन्द हैं। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसे ज्ञानी, देश को सुधारने के लिए धर्म-प्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खतापूर्ण है!’

इस सम्मेलन के बाद विवेकानंद ने अमेरिका के अनेक नगरों की यात्राएँ कीं जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ। वे अमेरिका से पेरिस गये तथा उन्होंने यूरोप के कई नगरों में हिन्दुत्व तथा वेदान्त दर्शन पर भाषण किये। वे लगभग तीन वर्ष तक विदेशों में घूमते रहे। इस अल्पावधि में उनके भाषणों, वार्तालापों, लेखों और वक्तव्यों के द्वारा यूरोप व अमेरिका में हिन्दू धर्म और संस्कृति की प्रतिष्ठा स्थापित हुई। सितम्बर 1895 में वे लंदन गये और वहाँ भी धर्म-प्रचार किया। वे पुनः अमेरिका गये तथा फरवरी 1896 में न्यूयार्क में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की जिसका लक्ष्य वेदान्त का प्रचार करना था। अमेरिका में उनके अनेक अनुयायी हो गये जो चाहते थे कि कुछ भारतीय धर्म-प्रचारक, अमेरिका में भारतीय दर्शन तथा वेदान्त का प्रचार करें और उनके अमेरिकी शिष्य भारत जाकर विज्ञान और संगठन का महत्त्व सिखायें।

विवेकानंद ने भारत लौटकर मई 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की तथा 1 जनवरी 1899 को वेलूर में मिशन का मुख्यालय स्थापित किया। जून 1899 में वे दूसरी बार अमेरिका गये तथा लासॅ एंजिल्स, सैनफ्रांसिस्को, केलिफोर्निया आदि विभिन्न नगरों में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की। यहाँ से वे एक धार्मिक सम्मेलन में भाग लेने पेरिस गये जहाँ उन्होंने हिन्दू धर्म पर भाषण दिया। अपने विदेश प्रवास में स्वामीजी ने हिन्दू धर्म का व्यापक प्रचार किया। प्रायः डेढ़ सौ वर्षों से ईसाई धर्म प्रचारक विश्व में हिन्दुत्व की आलोचना कर निन्दा फैला रहे थे। उन आलोचनाओं और निदंाओं पर विवेकानंद ने रोक लगा दी। जब भारतवासियों को ज्ञात हुआ कि समस्त पश्चिमी जगत् स्वामीजी के मुख से हिन्दुत्व का आख्यान सुनकर गद्गद् हो रहा है, तब हिन्दू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव का अनुभव करने लगे।

1900 ई. में स्वामीजी सम्पूर्ण यूरोप का दौरा कर पुनः भारत लौटे। अब उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था। इसी कारण वे बनारस गये। वहाँ से कलकत्ता वापिस आने पर उनका स्वास्थ्य फिर खराब हो गया और 4 जुलाई 1902 को मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। वे जिस कार्य के लिये आये थे, वह पूरा हो चुका था। स्वामी विवेकानंद द्वारा हिन्दू धर्म के लिये की गई सेवाओं की प्रश्ंसा करते हुए राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने लिखा है- ‘हिन्दुत्व को लीलने के लिए अँग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म ओर यूरोपीय बुद्धिवाद के पेट से जो तूफान उठा था, वह स्वामी विवेकानन्द के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकराकर लौट गया। हिन्दू जाति का धर्म है कि वह जब तक जीवित रहे, विवेकानन्द की याद उसी श्रद्धा से करती जाये, जिस श्रद्धा से वह व्यास और वाल्मीकि की याद करती है।’

स्वामी विवेकानंद के धार्मिक सुधार

स्वामी विवेकानन्द ने विश्व धर्म सम्मेलन में विश्व के समस्त धर्मों की सत्यता में विश्वास व्यक्त किया। उन्हें जितनी आस्था वेदों में थी, उतनी ही आस्था उपनिषदों, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में भी थी। उन्हें ईश्वर के निराकार रूप की उपासना में जितनी रुचि थी, उतनी ही साकार रूप में थी। उन्होंने धार्मिक उदारता, समानता और सहयोग पर बल दिया। उन्होंने धार्मिक झगड़ों का मूल कारण बाहरी चीजों पर अधिक बल देना बताया। उनके अनुसार सिद्धान्त, धार्मिक क्रियाएँ, पुस्तकें, मस्जिद तथा गिरजाघर, ईश्वरीय उपासन के साधन मात्र हैं। इस कारण इन पर अधिक बल नहीं देना चाहिये।

विवेकानंद ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा- ‘धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है; धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धान्तों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है……. मनुष्य सर्वत्र अन्न ही खाता है किन्तु हर देश में अन्न से भोजन तैयार करने की विधियाँ अनेक हैं। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है और देश-देश में उसके भी अनेक रूप हैं। इससे यह स्पष्ट है कि समस्त धर्मों में मूलभूत एकता है, यद्यपि उसके स्वरूप भिन्न हैं। उन्होंने अन्य धर्म-प्रचारकों को बताया कि भारत ही ऐसा देश है जहाँ कभी धार्मिक भेदभाव नहीं हुआ। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि धर्म-परिवर्तन से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि प्रत्येक धर्म का लक्ष्य समान है। उन्होंने ईसाई धर्म के अनुयायियों को स्पष्ट किया कि भारत में ईसाई धर्म के प्रचार से उतना लाभ नहीं हो सकता जितना पश्चिमी औद्योगिक तकनीकी तथा आर्थिक ज्ञान से हो सकता है। भारत पर विजय राजनीतिक हो सकती है, सांस्कृतिक नहीं।’

स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू समाज को सन्देश दिया कि हिन्दू राष्ट्र, विश्व का शिक्षक रहा है और भविष्य में भी रहेगा। प्रत्येक हिन्दू को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करनी चाहिये और साथ ही पाश्चात्य शिक्षा को भी अपनाना चाहिये अन्यथा हमारा उत्थान सम्भव नहीं है। उन्होंने दर्शन के सत्य की सुन्दर ढंग से व्याख्या की और बताया कि वेदान्त की आध्यात्मिकता के बल पर भारत सारे विश्व को जीत सकता है। विवेकानन्द वेदान्त की परम्परागत व्याख्या से सहमत नहीं थे। भारतीय संत, सांसारिक जीवन से विमुख होकर ध्यान-समाधि द्वारा ब्रह्म से साक्षात्कार का उपदेश देते थे किन्तु विवेकानन्द ने कहा कि ब्रह्म से साक्षात्कार करने के लिए सांसारिक जीवन से विमुख होना अनुचित है। सच्ची ईश्वरोपासना यह है कि हम अपने मानव बन्धुओं की सेवा में अपने आपको लगा दें। उन्होंने दीन-दुखी तथा दरिद्र मानव को ईश्वर का रूप बताया और उसके लिए दरिद्रनारायण शब्द का प्रयोग किया। जब पड़ौसी भूखा हो तब मन्दिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, अपितु पाप है। स्वामीजी की इन घोषणाओं ने धार्मिक क्षेत्र में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। जो लोग पश्चिम की भौतिकता तथा बुद्धिवाद से प्रभावित होकर ईसाइयत अथवा नास्तिकता की ओर दौड़ रहे थे, वे फिर से हिन्दू धर्म में विश्वास करने लगे। स्वामी विवेकानंद की मान्यता थी कि- ‘तुम समस्त व्यक्तियों की विचारधारा को एक नहीं कर सकते, यह सत्य है और मैं इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ। विचारों की भिन्नता और संघर्ष से ही नवीन विचार जन्म लेते हैं।’

स्वामी विवेकानंद के समाज सेवा कार्य

(1.) मानवमात्र की सेवा को प्राथमिकता: स्वामी विवेकानंद ने अपने उपदेशों में मानव मात्र की सेवा को सबसे महत्त्वपूर्ण बताया। वे शिक्षा, स्त्री-पुनरुद्धार तथा आर्थिक प्रगति के पक्षधर थे। उन्होंने रूढ़िवाद, अन्धविश्वास और अशिक्षा की आलोचना की तथा कहा– ‘जब तक करोड़ों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्च पर शिक्षा प्राप्त करता है किन्तु उनकी परवाह बिल्कुल नहीं करता।’

उन्होंने हिन्दू सन्यासियों को संकीर्णता से निकलकर सेवा कार्य करने को कहा। उनकी मान्यता थी कि सन्यासी में मानव मात्र के प्रति सेवा-भाव का लक्ष्य होना चाहिये।

(2.) देशवासियों के उत्थान हेतु नर्क में रहना स्वीकार: स्वामी विवेकानंद की मान्यता थी कि देश की गरीबी को दूर करना आवश्यक है। वेे कहते थे कि देशवासियों के उद्धार के पुनीत कार्य के लिये उन्हें मोक्ष छोड़कर नरक में भी जाना स्वीकार है।

(3.) अस्पर्श्यता का विरोध: स्वामीजी छुआछूत के घोर विरोधी थे तथा जन्म पर आधारित वर्ण-भेद को नहीं मानते थे। उन्होंने अन्ध-विश्वासी और छुआछूत में विश्वास करने वाले सन्यासियों और ब्राह्मणों की तीव्र आलोचना की। वे थियोसॉफिकल सोसायटी से भिन्न विचार रखते थे, क्योंकि थियोसॉफिकल सोसायटी अन्ध-विश्वासों और तन्त्र-विद्या को प्रोत्साहन दे रही थी।

(4.) आध्यात्मिकता से आत्म-निर्माण: स्वामी विवेकानंद सामाजिक सुधारों में विश्वास नहीं करते थे। उनका कहना था कि आध्यात्मिकता से आत्म-निर्माण होता है जिससे देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति सम्भव है। आध्यात्मिक उन्नति के माध्यम से वे मनुष्य को मनुष्य बनाना चाहते थे और उसी को प्रगति मानते थे।

(5.) संगठित प्रयत्नों पर बल: स्वामी विवेकानंद ने जन-कल्याण के लिये संगठित प्रयत्नों पर बल दिया तथा इस कार्य के लिये रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जहाँ दीन-दुखियों की सहायतार्थ विभिन्न जातियाँ, वर्ग और धर्म मिल सकते थे। उनका कहना था कि गरीबोें की सहायता करना ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में एक यज्ञ होगा। विवेकानन्द की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि उन्होंने सन्यासियों के समक्ष व्यक्ति-निष्ठ मोक्ष की अपेक्षा समाज सेवा का आदर्श प्रस्तुत किया।

(6.) भारतीयों में आत्म सम्मान की उत्पत्ति: स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी देशों में हिन्दुओं की आध्यात्मिक उपलब्धियों की चर्चा करके हिन्दुओं की हीन भावना को समाप्त करने का प्रयास किया। भारतीयों में आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान की भावना उत्पन्न करना स्वामीजी की महान् देन है।

स्वामी विवेकानंद द्वारा राष्ट्रीयता का निर्माण

स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्रीयता के निर्माण में विपुल योगदान दिया। उन्होंने हिन्दू धर्म और आध्यात्मवाद की श्रेष्ठता को स्थापित करके हिन्दुओं में आत्मगौरव और देश-प्रेम उत्पन्न किया। उन्होंने वेदान्त की व्याख्याओं के माध्यम से यह सिद्ध किया कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में ईश्वर की ज्योति देख सकता है। जिस प्रकार ईश्वर सदा स्वतन्त्र है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति भी सदा स्वतन्त्र है। पश्चिमी राजनीति तथा अन्य संस्थाओं के पीछे जो भारतीय दौड़ रहे हैं, उन्हें ध्यान रखना चाहिये कि पश्चिमी देशों में व्यापक असन्तोष है, जबकि उनके यहाँ वे संस्थाएँ कई पीढ़ियों से चल रही है। स्वामी विवेकानन्द ने देश में सांस्कृतिक चेतना की जो धारा प्रवाहित की, उस पर भारतीय राष्ट्रीयता का भव्य भवन खड़ा किया जा सका। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिकता के बल से विश्व पर सांस्कृतिक विजय प्राप्त की जा सकती है किन्तु जब तक भारत दासता की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है, वह इस महत्त्वपूर्ण भूमिका को नहीं निभा सकता। उनकी मान्यता थी कि भारत की राजनैतिक स्वतन्त्रता विश्व मानवता के उद्धार के लिये अनिवार्य है। उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक स्वाधीनता की भावना जागृत की। स्वामीजी ने भगवद्गीता के कर्मयोगी श्रीकृष्ण को भारतीय राष्ट्र का आदर्श बताया। वास्तव में विवेकानंद ने देशभक्ति और समाज सेवा के जिन आदर्शों का प्रतिपादन किया, उनसे भारत में देश-प्रेम की भावना नये सिरे से विकसित हुई।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- ‘यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकाननद को पढ़ना चाहिए।’ महर्षि अरविन्द ने लिखा है- ‘पश्चिमी जगत में विवेकानन्द को जो सफलता मिली, वही इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल मृत्यु से बचने को जागृत नहीं हुआ है, एक बार इस हिन्दू सन्यासी को देख लेने के पश्चात् उसे और उसके संदेश को भुला देना कठिन है।’

विवेकानंद की मृत्यु के बाद उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ने उनके महान् कार्यों को आगे बढ़ाया। इस संस्था के द्वारा अँग्रेजी भाषा का मासिक प्रबुद्ध भारत तथा बंगाली भाषा का पाक्षिक उद्बोधन प्रकाशित जाते रहे। कई ग्रन्थों में स्वामी विवेकानन्द के भाषणों का प्रकाशन हुआ। रामकृष्ण मिशन की शाखाएँ भारत के विभिन्न नगरों में विद्यमान हैं तथा विविध प्रकार के कल्याणकारी कार्य यथा- चिकित्सालय, अनाथालय, विद्यालय, वाचनालय आदि का संचालन कर रही हैं।

अध्याय – 35 : भारत में समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलन-7

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मुस्लिम सुधार आन्दोलन

19वीं शताब्दी में भारत के मुसलमानों में भी सुधार आन्दोलन आरम्भ हुए। मुस्लिम समाज इस देश में आने से पहले ही दो प्रमुख वर्गों में विभाजित था- पहला, उच्च अभिजात्य वर्ग जिसमें बादशाह, अमीर तथा उनके परिवार के लोग थे और दूसरा, जन-साधारण जिसमें सैनिक, श्रमिक, सेवक तथा छोटे कार्य करने वाले मुसलमान थे। दूसरे वर्ग में वे मुसलमान भी थे जो मूलतः हिन्दू थे तथा अनेकानेक कारणों से मुसलमान बन गये थे। धर्म-परिवर्तन के बाद भी उनके सामाजिक स्तर में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था। उच्च मुस्लिम अभिजात्य वर्ग 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में राजनीतिक प्रभुत्व खो चुका था किंतु हाथ से काम करने का अभ्यस्त नहीं होने के कारण तेजी से पिछड़ता जा रहा था। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह वर्ग दिखावे के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने का प्रयास करता रहा जिससे इस वर्ग का खोखलापन और अधिक बढ़ता चला गया। 1857 ई. की सशस्त्र क्रांति की विफलता के बाद इस वर्ग की रही-सही प्रतिष्ठा भी समाप्त हो गयी, क्योंकि अँग्रेजों ने इस विप्लव के लिये उच्च वर्ग के मुसलमानों को उत्तरदायी माना था।

उच्च वर्ग के मुसलमान परिवर्तित परिस्थितियों से तारतम्य बैठाने को तैयार नहीं थे। इस कारण लागातार पिछड़ते जा रहे थे। अतः मुस्लिम समाज सुधार आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य इस वर्ग को परिवर्तित परिस्थितियों से परिचित कराना तथा पाश्चात्य शिक्षा की ओर ध्यान दिलाना था। इस कारण मुसलमानों का समाज सुधार आन्दोलन हिन्दुओं के समाज सुधार आन्दोलन से कई अर्थों में भिन्न था। मुसलमानों का सामाजिक और धार्मिक जीवन कुरान पर आधारित था। अतः प्राचीन सामाजिक और धार्मिक जीवन पद्धति में परिवर्तन करने के लिए यह आवश्यक था कि कुरान की सामयिक व्याख्या की जाये अथवा यह बताया जाये कि प्रचलित सामाजिक एवं धार्मिक पद्धति, कुरान या हदीस के अनुसार नहीं है। कुछ मुस्लिम सुधारकों ने यह भी बताने का प्रयत्न किया कि सामाजिक जीवन कुरान पर आधारित नहीं होना चाहिए। ऐसे सुधारकों का प्रभाव बहुत ही कम पड़ा, क्योंकि कुरान पर आधारित जीवन पद्धति मुस्लिम समाज में गहराई तक प्रवेश कर चुकी थी जिसे त्यागने के लिए कोई मुसलमान तैयार नहीं था।

वहाबी आंदोलन

पाश्चात्य प्रभावों के प्रति मुसलमानों की पहली प्रतिक्रिया वहाबी आंदोलन अथवा वलीउल्लाह आंदोलन के रूप में हुई। शाह वलीउल्लाह (1703-63 ई.) मुसलमानों के प्रथम नेता थे जिन्होंने इस्लाम की उदारतापूर्ण व्याख्या करने तथा मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने की बात कही। उन्होंने इस्लाम की तर्कसंगत व्याख्या करने और उसे समकालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप ढालने का समर्थन किया। वलीउल्लाह ने मुस्लिम समुदाय में व्याप्त भेदभवों को समाप्त करने के लिये सुधार आन्दोलन चलाया। वलीउल्लाह के पुत्र शाह अब्दुल अजीज, उनके भतीजे मोहम्मद इस्माइल और उनके शिष्य अहमद बल्लवी ने वलीउल्लाह के विचारों को लोकप्रिय बनाने के साथ-साथ इस आंदोलन को राजनीतिक रंग भी दिया। सैयद अहमद बरेलवी के नेतृत्व में वहाबी आंदोलन ने पूर्णतः राजनीतिक स्वरूप धारण कर लिया। उनका कहना था कि अनुकूल राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों से ही इस्लाम फल-फूल सकता है। उन्होंने घोषणा की कि भारत एक दार-उल हर्ब (काफिरों का देश) है और इसे दार-उल-इस्लाम (मुसलमानों का देश) बनाने हेतु समस्त गैर इस्लामी शासकों का तख्ता पलटना आवश्यक है। प्रारंभ में यह अभियान पंजाब में सिक्खों के विरुद्ध था किंतु 1849 ई. में अँग्रेजों द्वारा पंजाब का विलय कर लिये जाने के बाद, इस आंदोलन ने अँग्रेजों के विरुद्ध जेहाद खोल दिया। यह आंदोलन 1870 ई. तक सीमांत प्रदेशों, पंजाब तथा बंगाल के कई हिस्सों में जारी रहा किंतु अँग्रेज सरकार ने इसे सैनिक बल की सहायता से कुचल दिया।

अलीगढ़ आन्दोलन

सर सैयद अहमदखाँ (1817-98 ई.) ने मुसलमानों में आत्मनिर्भर बनने, अपनी सहायता आप करने तथा अँग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर आधुनिक बनने की भावना उत्पन्न की। उनके द्वारा चलाया गया अलीगढ़ आन्दोलन उनके कार्यक्षेत्र का केन्द्र बिन्दु रहा। सर सैयद अहमदखाँ का जन्म 1817 ई. में दिल्ली में हुआ था। 20 वर्ष की आयु में वे सरकारी सेवा में चले गये। 1857 ई. के सैनिक विप्लव के समय उन्होंने अँग्रेजों की विशेष सेवा की जिससे उन्होंने अँग्रेजों की सद्भावना प्राप्त कर ली। इस सद्भावना का उपयोग उन्होंने भारतीय मुसलमानों के हित में किया। उस समय तक भारतीय मुसलमानों ने स्वयं को अँग्रेजी शिक्षा और सभ्यता से दूर बनाये रखा था। अँग्रेजों से उनके सम्बन्ध भी अच्छे नहीं थे और यही उनकी अवनति का मुख्य कारण था। सर सैयद अहमदखाँ ने अपने जीवन के दो प्रमुख उद्देश्य बनाये-

(1.) अँग्रेजों और मुसलमानों के सम्बन्ध ठीक करना।

(2.) मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना।

अपने पहले उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर सैयद अहमदखाँ ने मुसलमानों को समझाया कि सरकार के प्रति वफादार रहने से उनके हितों की पूर्ति हो सकती है। उन्होंने अँग्रेजों को समझाया कि मुसलमान उनके शासन के विरुद्ध नहीं हैं, अँग्रेजों द्वारा दिखाई गई थोड़ी-सी सहानुभूति से वे सरकार के प्रति वफादार हो जायेंगे। अँग्रेजों ने भी मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करने के लिये मुसलमानों के प्रति सद्भावना प्रकट करना उचित समझा। ऐसा करके वे हिन्दुओं में बढ़ती हुए राष्ट्रीयता के विरुद्ध मुस्लिम साम्प्रदायिकता का प्रयोग कर सकते थे। इस कारण सैयद अहमदखाँ को सरलता से अपने उद्देश्य में सफलता मिल गयी।

अपने दूसरे उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर सैयद अहमदखाँ ने 1864 ई. में गाजीपुर में एक अँग्रेजी शिक्षा का स्कूल स्थापित किया। एक वर्ष बाद अँग्रेजी पुस्तकों का उर्दू अनुवाद करने के लिए विज्ञान समाज की स्थापना की। तत्पश्चात् वे लन्दन चले गये और 1869 ई. में लन्दन यात्रा के बाद मुसलमानों की सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए एक आन्दोलन आरम्भ किया। दिसम्बर 1870 में उन्होंने तहजीब-उल-अखलाक नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ कर मुसलमानों को बदलती हुई परिस्थितियों से अवगत कराया। सर सैयद अहमदखाँ मुसलमानों के प्राचीन सामाजिक मूल्यों तथा रहन-सहन के तरीकों को समय के अनुकूल नहीं मानते थे। चूँकि मुसलमान अपने सामाजिक जीवन को कुरान तथा हदीस पर आधारित समझते थे, इसलिए सर सैयद अहमदखाँ को धर्म सम्बन्धी विवाद आरम्भ करना पड़ा।

सर सैयद अहमद खाँ ने कुरान का अर्थ समझाने के लिए उसकी नई व्याख्या की जिसका मुख्य आधार यह था कि समस्त सृष्टि का निर्माता अल्लाह है और वही कुरान का रचियता है। अतः कुरान वास्तविक स्थिति से भिन्न नहीं हो सकती। हदीस भी न तो कुरान के विरुद्ध हो सकती है और न वास्तविकता से भिन्न हो सकती है। कुरान की नई व्याख्या करने के लिए उन्होंने तफसील-उल-कुरान लिखना आरम्भ किया जो पूरी नहीं हो सकी। सर सैयद अहमदखाँ ने अपने समाचार पत्र तहजीब-उल-अलखाक का उद्देश्य मुसलमानों को सभ्य बनाना बताया। उन्होंने कहा कि मुस्लिम समाज तब तक सभ्य नहीं बन सकता, जब तक वह प्राचीन परम्पराओं को छोड़कर नई परम्पराओं को न अपना ले। उनकी मान्यता थी कि प्रत्येक परम्परा समय और परिस्थितियों के अनुसार अपनाई जानी चाहिए क्योंकि बदलती हुई परिस्थितियों में परम्पराएँ भी अनुपयोगी सिद्ध हो जाती हैं। उन्होंने हज करने, जकात बाँटने, मस्जिद बनवाने आदि कार्यों की कटु आलोचना की तथा मुसलमानों को पश्चिमी सभ्यता एवं पद्धति अपनाने की सलाह दी।

अलीगढ़ आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में पश्चिमी शिक्षा को लोकप्रिय बनाना था जबकि मुसलमान अरबी, फारसी तथा धार्मिक शिक्षा को आवश्यक मानते थे तथा अँग्रेजी पढ़ना अच्छा नहीं समझते थे। अतः जिस किसी संस्था का सम्बन्ध अँग्रेजी राज्य से जुड़ा हुआ था, उससे वे अपने आपको अलग रखते थे। कुछ मुल्ला-मौलवी भी अरबी, फारसी व धार्मिक शिक्षा को ही आवश्यक मानते थे। सर सैयद अहमदखाँ ने अँग्रेजी शिक्षा प्रणाली के दोषों को मुसलमानों की अरुचि का कारण बताया। 1882 ई. में उन्होंने हण्टर कमीशन के समक्ष गवाही देते हुए कहा- ‘मुसलमान ऐसी शिक्षण संस्थाओं में नहीं जाना चाहते, जहाँ अन्य सम्प्रदाय के लोग भी पढ़ते हों, क्योंकि मुसलमान उन्हें अपने से निम्न-स्तर का मानते हैं।’ मुसलमानों की मान्यता थी कि पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने से अधर्म बढ़ता है तथा अँग्रेजी पढ़ना ईसाई धर्म स्वीकार करने के समान है। इस कारण अँग्रेजी शिक्षा ग्रहण करके वे काफिर कहलाये जा सकते हैं।

सर सैयद अहमदखाँ ने 1875 ई. में अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना की, जिसका आरम्भिक रूप एक प्राइमरी स्कूल था। जनवरी 1877 में लॉर्ड लिटन ने इस कॉलेज का विधिवत् उद्घाटन किया तथा उत्तर प्रदेश के गवर्नर विलियम म्यूर ने इस कॉलेज के लिए भूमि प्रदान की। इस प्रकार आरम्भ से ही इस संस्था पर अँग्रेजों की कृपा दृष्टि रही। यही कॉलेज आगे चलकर अलीगढ़ विश्वविद्यालय बना। इसमें आधुनिक विचारधारा के मुसलमानों ने शिक्षा प्राप्त की और यह अलीगढ़ आन्दोलन का केन्द्र बन गया। सर सैयद अहमदखाँ ने मोहम्मडन एजूकेशनल कांफ्रेंस की स्थापना करके ऐसे अनेक मुसलमानों को अपने साथ जोड़ लिया जो मुसलमानों को पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में लाने के उत्सुक थे।

अलीगढ़ मोहम्मडन कॉलेज मुसलमानों की शिक्षण संस्था होने के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक स्थिति सुधारने का केन्द्र भी बन गया। सर सैयद अहमदखाँ की मान्यता थी कि यहाँ से अध्ययन करके निकले हुए विद्यार्थी समाज में परिवर्तन लायेंगे। इस कॉलेज में विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास पर अधिक बल दिया जाता था। वाद-विवाद प्रतियोगिता, खेलकूद, छात्रावास में अनिवार्य रूप से निवास तथा अँग्रेज अध्यापकों व अधिकारियों से मेल-जोल बढ़ाना, कॉलेज शिक्षा के अंग थे। सर सैयद अहमदखाँ ने अँग्रेजी शिक्षा पर अधिक बल दिया, क्योंकि सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक था। उनकी मान्यता थी कि किसी समुदाय में किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा इसी आधार पर आँकी जा सकती है कि राजकीय सेवा में उसे क्या स्थान प्राप्त है। वे प्रारम्भिक शिक्षा की अपेक्षा उच्च शिक्षा पर अधिक बल देते थे। अलीगढ़ मोहम्मडन कॉलेज के विद्यार्थी मुस्लिम सम्प्रदाय के हितों के लिए अधिक प्रयत्नशील रहते थे।

19वीं शताब्दी में मुसलमानों में समाज सुधार का मुख्य कार्य पुरुषों की अँग्रेजी शिक्षा तक सीमित था। सर सैयद अहमदखाँ मुस्लिम स्त्रियों के लिए शिक्षा को अनावश्यक तथा पर्दा-प्रथा को अनिवार्य मानते थे। वे बहु-विवाह को तर्क-संगत मानते थे। वे स्त्रियों को कुशल माताएँ व गृहणियाँ बनाने के पक्षधर थे न कि नौकरी करने वाली औरत। अतः अलीगढ़ आन्दोलन स्त्रियों के लिए परम्परागत शिक्षा तथा जीवन पद्धति को बदलने के पक्ष में नहीं था।

अलीगढ़ आन्दोलन एक ओर तो मुसलमानों में पश्चिमी सभ्यता के प्रति नया दृष्टिकोण लाने में सफल रहा किन्तु दूसरी ओर इसने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बहुत बढ़ावा दिया। अलीगढ़ कालेज के प्रथम प्रिंसिपल थियोडोर बेक की प्रेरणा से 1893 ई. में मुसलमानों का एक संगठन बना जिसका लक्ष्य भारतीय मुसलमानों को राजनीति से पृथक् रखना था। बेक के बाद जब मौरिसन, कॉलेज का प्रिन्सिपल बना तो उसने राष्ट्रीय काँग्रेस का विरोध करने के लिए मुसलमानों को संगठित करना आरम्भ किया। स्वयं सर सैयद अहमदखाँ भी काँग्रेस के कट्टर विरोधी हो गये। अधिकांश अवसरों पर उन्होंने साम्प्रदायिक कट्टरता से ओत-प्रोत विचार प्रकट किये। अलीगढ़ कॉलेज के प्रिन्सिपल आर्किबॉल्ड तथा अलीगढ़ कॉलेज के मन्त्री नवाब मोशी-उल-मुल्क की प्रेरणा से 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। अलीगढ़ आन्दोलन भारतीय राष्ट्रीयता और राजनीति का विरोधी रहा। इस विरोध के कई कारण थे-

(1.) सर सैयद अहमदखाँ तथा उनका अलीगढ़ आन्दोलन प्रारम्भ से ही अँग्रेजों की सहानुभूति पर निर्भर थे। अतः यह आवश्यक था कि वे प्रगतिशील एवं राष्ट्रीय हिन्दुओं के विरुद्ध ब्रिटिश कूटनीति का समर्थन करें।

(2.) सर सैयद अहमदखाँ पश्चिमी सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित थे इसलिए वे अँग्रेजों के बहुत बड़े समर्थक थे।

(3.) सर सैयद अहमदखाँ को भय था कि अल्पसंख्यक मुसलमान, बहुसंख्यक हिन्दुओं का मुकाबला नहीं कर सकेंगे। अतः अँग्रेजों का समर्थन करना तथा उनकी सहायता पर निर्भर रहना मुसलमानों के हितों के लिए आवश्यक था।

सर सैयद अहमदखाँ द्वारा प्रकट किये गये विचारों के अनुसार अलीगढ़ आन्दोलन के मुख्य रूप से चार आधार थे-

(1.) हिन्दु और मुसलमान दो अलग-अलग राजनीतिक इकाइयाँ हैं जिनके हितों और दृष्टिकोणों में काफी अन्तर है।

(2.) भारत में जनतन्त्र के आधार पर प्रतिनिधि सभाओं की स्थापना करने तथा असैनिक सेवाओं की परीक्षा भारत में करने से मुसलमानों के हितों की सुरक्षा सम्भव नहीं हो सकेगी, क्योंकि इससे अल्पसंख्यक मुसलमान, बहुसंख्यक हिन्दू सत्ता के अधीन हो जायेंगे, जो अँग्रेजी शासन से भी बुरा होगा।

(3.) मुसलमानों को अँग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत ही अपने हितों को सुरक्षित समझना चाहिये। अतः मुसलमानों को अँग्रेजों के विरुद्ध किसी भी राजनैतिक आन्दोलन में भाग नहीं लेना चाहिये।

(4.) चूँकि मुसलमानों के हित अँग्रेजों के हाथों में सुरक्षित हैं, अतः उन्हें राजनीति से पृथक् रह कर अपने सांस्कृतिक विकास का प्रयत्न करना चाहिये। राजनीति से पृथक् रहकर वे हिन्दुओं के राजनीतिक आन्दोलन को दुर्बल कर सकेंगे।

इस प्रकार अलीगढ़ आन्दोलन मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ। यह सदैव भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के विरोध में रहा। पाकिस्तान के निर्माण में उसका बड़ा योगदान रहा। साथ ही यह भी सच है कि अलीगढ़ आन्दोलन ने भारतीय मुसलमानों को अँग्रेजी शिक्षा से जोड़कर निराशा से बचाया तथा उन्हें मध्य युग से आधुनिक युग में लाने में सहायता दी।

देवबंद शाखा

1867 ई. में मौलाना मुहम्मद कासिम के नेतृत्व में उलमा के एक दल ने उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद कस्बे में एक मदरसे की स्थापना की। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य कुरान तथा हदीस की शुद्ध शिक्षा का प्रसार करना था। अलीगढ़ आंदोलन पश्चिमी शिक्षा तथा अँग्रेजी सरकार का समर्थन करता था, उसके विपरीत देवबंद आंदोलन परम्परागत शैली में इस्लाम के प्रचार का काम करता था। इस आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार का जमकर विरोध किया। जहाँ सर सैयद अहमदखाँ ने कांग्रेस का विरोध करते हुए आम मुसलमान को राजनीति से दूर रहने की सलाह दी, वहीं देवबंद शाखा ने कांग्रेस का स्वागत करते हुए मुसलमानों का आह्वान किया कि वे आम राजनीतिक आंदोलन में भाग लें। अबुल कलाम आजाद देवबंद से जुड़े हुए थे, उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में प्रमुखता से हिस्सा लिया। देवबंद आंदोलन ने गांधीजी द्वारा आरम्भ किये गये असहयोग आंदोलन को समर्थन दिया।

अध्याय – 36 : भारत में समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलन-8

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विभिन्न समाजों में सुधार आन्दोलन

भारत में ऐसे कई धार्मिक-सामाजिक सुधार आन्दोलन हुए जिनके कार्य तथा उद्देश्य बहुत छोटे क्षेत्र तक सीमित थे। पारसियों ने अपने धर्म और समाज सुधार के लिए धार्मिक सुधार समुदाय की स्थापना की। दादा भाई नौरोजी पारसी पुरोहित परिवार से थे। उन्होंने पारसी धर्म के सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण कार्य किया। महादेव गोविन्द रानाडे ने सामाजिक सुधारों के साथ डंकन एजूकेशन सोसायटी स्थापित कर शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। हिन्दुओं के वैष्णव सम्प्रदाय में भी कुछ धार्मिक आन्दोलन हुए। माधव सम्प्रदाय ने अपनी धर्म सुधार सभा बनायी। शंकराचार्य के समर्थकों ने अपने मत का अलग प्रचार किया।

ज्योति बा फुले और सत्य शोधक समाज

ज्योति बा फुले का जन्म 1828 ई. में एक माली परिवार में हुआ। उन्होंने शक्तिशाली गैर ब्राह्मण आंदोलन को जन्म दिया तथा हिन्दू धर्म में प्रचलित प्रथाओं का विरोध किया। 1854 ई. में उन्होंने अछूतों के लिये विद्यालय खोले तथा विधवाओं के लिये अनाथालयों की स्थापना की। ज्योति बा फुले को ब्राह्मणों की पुरोहिताई से गहरी घृणा थी। दलित वर्गों के उत्थान के लिये उन्होंने 1873 ई. में सत्य शोधक समाज की स्थापना की। ब्राह्मण विरोधी गतिविधियों को संगठित रूप में प्रसारित करने हेतु उन्होंने दो पुस्तकों- सार्वजनिक सत्य धर्म पुस्तक तथा गुलामगिरि की रचना की।

राधास्वामी सत्संग

1861 ई. में शिवदयाल (1818-1878 ई.) ने आगरा में राधास्वामी सत्संग की स्थापना की। राधास्वामी सत्संग के गुरु, ईश्वर के अवतार माने जाते थे। इसलिए इस संस्था में गुरु-भक्ति की प्रधानता थी। इस संस्था के अनुयायी जाति-पाँति के भेदभाव के बिना, ईश्वर की अराधना करते थे। वे ईश्वर, जीवात्मा और जगत को सत्य मानते थे। कबीर, दादू, नानक आदि सन्तों की वाणियाँ इनके धार्मिक ग्रन्थ थे। ये समस्त धर्मों को समान मानते थे तथा प्रेम और भ्रातृत्व का प्रचार करते थे। राधास्वामी सत्संग भक्ति-मार्ग और योग-मार्ग का एक मिश्रण था। इस संस्था ने धार्मिक जागृति का काम किया। साथ ही जाति-प्रतिबन्धों का बहिष्कार किया, शिक्षा का प्रसार कर सांस्कृतिक जागरण और राष्ट्र निर्माण के कार्य में बहुमूल्य योगदान दिया।

पारसी समाज में सुधार आंदोलन

दादा भाई नौरोजी तथा एस. एस. बंगाली ने पारसी धर्म और समाज में सुधार लाने के लिए बहुत कार्य किया। उन्होंने पारसियों की सामाजिक दशा सुधारने तथा पारसी धर्मिक पुनरुत्थान के उद्देश्य से 1851 ई. में रहनुमाई मज्दयासना सभा की स्थापना की। 1910 ई. में पारसी धर्मगुरु ढोला के प्रोत्साहन से एक पारसी अधिवेशन का उद्घाटन हुआ जिसने पारसी वर्ग की बहुत सेवा की। पारसियों ने अपने सुधार के साथ-साथ देश के सामाजिक तथा राजनैतिक उत्थान में भी योगदान दिया। देश की अनेक पारसी संस्थाएँ पारसी वर्ग की दानशीलता तथा धर्मपरायणता की द्योतक हैं। दादाभाई नौरोजी, सर फिरोजशाह मेहता, सर दीन शार्दूलजी आदि पारसी नेताओं ने भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रगति में बहुमूल्य योगदान दिया।

सिक्ख समाज में सुधार आंदोलन

उन्नीसवीं सदी में पंजाब में सिंह सभा तथा प्रधान खालसा दीवान नामक संस्थाओं की स्थापना हुई। इन संस्थाओं ने पंजाब में कई गुरुद्वारे तथा कॉलेज खोले। प्रगतिशील सिक्खों ने अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना की। सिक्खों ने अपने धार्मिक व सामाजिक जीवन को शुद्ध बनाने का प्रयास किया। 1921 ई. में सिक्खों ने अकालियों के नेतृत्व में सत्याग्रह आंदोलन आरम्भ किया। इनका मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों को भ्रष्ट महंतों से मुक्त कराना था। सरकार महंतों का समर्थन कर रही थी किंतु अंत में सरकार को झुकना पड़ा। इसके परिणाम स्वरूप 1922 ई. में सिक्ख गुरुद्वारा कानून बनाया गया तथा 1925 ई. में इसमें संशोधन किया गया।

ईसाई समाज में सुधार आंदोलन

इस काल में भारतीय ईसाइयों में भी नवजागरण का काम हुआ। उनमें अन्य धर्मों की अपेक्षा अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता कम थी। अतः उनमें सुधार और परिवर्तन भी अपेक्षाकृत कम हुए। विवेकशील ईसाई पादरियों और दूरदर्शी धर्माधिकारियों ने भारतीय ईसाइयों में प्रचलित अनेक धार्मिक प्रथाओं, जो पश्चिमी प्रथाओं से भिन्न थीं, के अन्तर को दूर करके एक विशाल संगठन स्थापित करने की चेष्टा की। ईसाई धर्म प्रचारकों ने शिक्षा प्रसार के लिए विद्यालय स्थापित किये तथा अदिवासियों व दलित वर्गों को ईसाई धर्म में सम्मिलित किया। इन नवीन ईसाइयों को शिक्षा की सुविधा देकर उनकी दशा सुधारने का प्रयत्न किया गया। अनाथलायों, औषधालयों, विद्यालयों आदि परोपकारी संस्थाओं के माध्यम से ईसाई धर्म प्रचारकों ने जन-साधारण का विश्वास अर्जित किया तथा मानव समाज की विपुल सेवा की।

अध्याय – 37 : भारत में समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलन-9

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सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलनों के परिणाम

19वीं शताब्दी के सुधार आन्दोलनों के परिणाम स्वरूप भारत पश्चिम के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान एवं विचारों के सम्पर्क में आया जिससे भारतीयों के दृष्टिकोण में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस सम्पर्क के प्रति भारतीयों की बहुमुखी प्रतिक्रिया हुई जिनके दूरगामी परिणाम हुए। इन आन्दोलनों ने भारत के धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों को प्रभावित किया और जीवन के समस्त अंगों में नवीन चेतना का संचार किया।

सुधार आन्दोलनों के सामाजिक परिणाम

समाज सुधार आन्दोलनों से जन-सामान्य में देशहित के कार्य करने की चेतना जागृत हुई। विलियम बैंटिक द्वारा 1829 ई. में सती-प्रथा को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया। पं. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवा-विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए आन्दोलन चलाया। इसके परिणाम स्वरूप 1856 ई. में एक कानून स्वीकृत करके विधवा विवाह को वैध घोषित किया गया। ऐसी स्त्रियों से उत्पन्न सन्तान को भी वैध घोषित किया गया। शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों तथा अन्य संस्थाओं में शिक्षित विधवाओं को नौकरियाँ देकर उनके वैधव्य जीवन की कठिनाइयों को कम किया गया। शिक्षित वर्ग ने भी विधवा स्त्रियों के विवाह करवाने में योगदान दिया। केशवचन्द्र सेन के प्रयत्नों से नेटिव मेरिज एक्ट स्वीकृत हुआ जिसके अन्तर्गत बहुविवाह को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया, बाल-विवाह का निषेध कर दिया तथा अन्तर्जातीय विवाह को स्वीकृति दी गई। पारसी समाज सुधारक बी. एस. मलाबारी ने बाल-विवाह के विरोध में 1884 ई. से सक्रिय आन्दोलन आरम्भ किया। इसके परिणाम स्वरूप 1891 ई. में ऐज ऑफ कन्सेण्ट कानून स्वीकृत हुआ। इसके अन्तर्गत लड़कियों के लिए विवाह योग्य आयु 12 वर्ष निर्धारित की गई। 1901 ई. में बड़ौदा की रियासती सरकार ने इनफेंट मेरिज प्रिवेन्शन एक्ट लागू किया जिसके अंतर्गत विवाह की आयु लड़की के लिये 12 वर्ष और लड़के के लिये 16 वर्ष की गई।

समाज सुधार आन्दोलनों के परिणाम स्वरूप भारत में स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा मिला। स्त्री शिक्षा के लिये अनेक विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित हुए। दक्षिण शिक्षा प्रगति समिति तथा पूना में श्रीमती रानाडे द्वारा स्थापित पूना सेवा सदन ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। ज्यों-ज्यों स्त्री-शिक्षा का प्रसार हुआ, स्त्रियों में राजनीतिक जागृति उत्पन्न हुई और स्त्रियाँ अनेक कौंसिलों, कारपोरेशनों और नगर पालिकाओं में सदस्य होने लगीं। स्त्री शिक्षा के फलस्वरूप पर्दा-प्रथा का उन्मूलन हुआ। शिक्षित हिन्दू महिलाओं ने पर्दा-प्रथा का बहिष्कार किया। 19वीं शताब्दी के समाज सुधार आन्दोलनों से जाति प्रथा के बन्धनों में शिथिलता आई तथा दलित जातियों में नवीन चेतना का संचार हुआ। ईसाई धर्म-प्रचारकों ने अस्पृश्य कही जानी वाली जाति के अनेक लोगों को ईसाई बना लिया था किन्तु आर्य समाज ने शुद्धि आन्दोलन द्वारा उन्हें पुनः हिन्दू समाज में सम्मिलित करने का अभियान चलाया। इससे हिन्दू समाज में जातीय वैमनस्य एवं भेदभाव में उल्लेखनीय कमी आई।

सुधार आन्दोलनों के धार्मिक परिणाम

धार्मिक क्षेत्र के सुधार आन्दोलनों ने हिन्दू समाज में नवीन दृष्टि एवं चेतना विकसित की। स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द तथा श्रीमती एनीबीसेण्ट आदि धर्म सुधारकों ने हिन्दुओं को हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता का आभास कराया जिससे वे ईसाई धर्म के व्यामोह से मुक्त होकर अपने ही धर्म की उन्नति के बारे में सोचने लगे। भारतीयों को अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति गौरव का अनुभव हुआ। इन आन्दोलनों से मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, कर्मकाण्ड, अन्धविश्वासों तथा हिन्दू सम्प्रदायों की परस्पर कट्टरता में कमी आई। धार्मिक आडम्बरों की आलोचना होने लगी तथा हिन्दुओं की मनोवृत्ति पहले से भी अधिक उदार हो गई। स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के सन्देश को अमेरिका तथा यूरोप तक पहुँचाया जिससे यूरोपवासियों को भी हिन्दू धर्म की महानता का ज्ञान हुआ।

सुधार आन्दोलनों के साहित्यिक क्षेत्र में परिणाम

धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलनों से साहित्य के क्षेत्र में भी व्यापक क्रान्ति उत्पन्न हुई। संस्कृत साहित्य का बड़ी मात्रा में अँग्रेजी भाषा में अनुवाद हुआ जिससे संसार को भारत के श्रेष्ठ साहित्य के बारे में ज्ञान हुआ। पाश्चात्य साहित्य के अध्ययन से देशी भाषाओं के साहित्य में आधुनिकता का समावेश होने लगा। अँग्रेजी शिक्षा के प्रसार से भारत में बौद्धिक विकास का नया युग आरम्भ हुआ। छापाखानों के लगने से विभिन्न भाषाओं की पुस्तकों की संख्या और प्रसार बढ़ा तथा आम आदमी के ज्ञान में वृद्धि हुई। हिन्दी साहित्य में भी राष्ट्रीय चिंताएं उसी प्रकार प्रकट होने लगीं जिस प्रकार संस्कृत भाषा के साहित्य में होती आई थीं। धर्म-प्रचारकों एवं समाज-सुधारकों ने लोक-भाषाओं को उन्नत करने में योगदान दिया। हिन्दी, उर्दू, बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं एवं साहित्य का अभूतपूर्व समन्वय हुआ। इस प्रकार सुधार आंदोलनों से भारत की श्रेष्ठ प्राचीन साहित्यिक परम्पराओं का पुनरुद्धार हुआ तथा पूर्व एवं पश्चिम की उच्चतम साहित्यिक प्रवृत्तियों का सुन्दर समन्वय हुआ।

सुधार आन्दोलनों के राजनीतिक क्षेत्र में परिणाम

सुधार आन्दोलनों का सबसे बड़ा प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र पर ही पड़ना था और ऐसा हुआ भी। भारतीयों में राष्ट्रीय गौरव जागृत होने से उन्हें अपनी हीन अवस्था का बोध हुआ। उन्हें यह भी बोध हुआ कि इस दुरावस्था से बाहर निकला जा सकता है। किया। वेलेन्टाइन शिरोल ने भारत के सामाजिक-धार्मिक आन्दोलनों में राष्ट्रीयता की उत्पत्ति के बीज देखे। स्वामी दयानन्द प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने स्वराज शब्द का प्रयोग किया। वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना सिखाया। वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। स्वामी दयानंद तथा विवेकानंद के उग्र विचारों के काण भारतीयों में उग्र राष्ट्रवाद का विकास हुआ। इन सन्यासियों ने सांस्कृतिक चेतना की जो धारा प्रवाहित की, उसी पर राष्ट्रीयता का भव्य भवन खड़ा हुआ। विवेकानंद ने भारत की जनता को ललकार कर कहा- ‘विचार और कर्म की स्वतंत्रता जीवन, विकास तथा कल्याण की अकेली शर्त है। जहाँ यह न हो, वहाँ मनुष्य, जाति तथा राष्ट्र सभी पतन के शिकार होते हैं।’

उन्होंने भारतीयों को विश्व पर सांस्कृतिक विजय करने की प्रेरणा दी और यह भी कहा कि जब तक भारत गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, तब तक यह कार्य सम्भव नहीं है। इस प्रकार सुधार आंदोलनों तथा उनके नेतृत्वकर्त्ताओं ने भारतीयों को राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये प्रेरित किया।

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि 19वीं शताब्दी में भारत में चले विभिन्न धार्मिक-सामाजिक सुधार आन्दोलनों ने देशवासियों को जीवन के हर क्षेत्र में जागृत किया। इसी जागृति ने भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। इस काल में कुछ आंदोलन ऐसे भी चले जिनके कारण भारत में साम्प्रदायिक कट्टरता का विकास हुआ तथा देश में द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा को बल मिला। इसका अंतिम परिणाम भारत विभाजन के रूप में सामने आया।

अध्याय – 38 : भारत में अठारहवीं सदी में प्रेस एवं पत्रकारिता का विकास

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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मानव सभ्यता के विकास के साथ समाचार पत्रों के स्वरूप में भी परिवर्तन आता रहा है। अशोक (273 ई.पू.-232 ई.पू) के शासन काल में सम्राट के पास साम्राज्य के भिन्न-भिन्न प्रदेशों से समाचार एवं घटनाओं का वृत्तान्त निश्चित समय पर लिखकर भेजा जाता था। इसे समाचार पत्र का अत्यंत प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है। चीन में पहला समाचार पत्र छठी शताब्दी ईस्वी में निकला जो लगभग 1500 वर्षों तक चला। इस प्रकार समाचार पत्र एक प्राचीन संस्था है जिसके द्वारा शासक को विभिन्न प्रदेशों में घटित होने वाली घटनाओं और जनता के विचारों से अवगत कराया जाता था। मुगलों के समय में स्पष्ट रूप से इसका अस्तित्त्व दिखाई देता है। मुगल शासकों द्वारा विभिन्न प्रदेशों में वाकयानवीस नियुक्त किये जाते थे जो समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों से सूचनाएं लिखकर बादशाह को भिजवाते थे। बाद के काल में मुगल-सल्तनत के विभिन्न प्रदेशों में होने वाली घटनाओं के वृत्तान्त की नकल की हुई प्रतियाँ प्रमुख अधिकारियों के पास भेजी जाने लगीं। मुगलों की नकल करके ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने समाचार प्रेषकों की नियुक्ति की। उपरोक्त समाचार पत्रों को आधुनिक पत्रकारिता का पूर्वज कहा जा सकता है किन्तु उनका उपयोग केवल शासक द्वारा अपने साम्राज्य की सूचनाएं प्राप्त करना तथा शासन के उच्चाधिकारी वर्ग को सुचारू रूप से नियंत्रित करने में होता था। उनका उद्देश्य जनता को सूचनाएं पहुंचाना अथवा राजकीय नीतियों को जनता तक पहुँचाना नहीं था। इन समाचार पत्रों से शासक को जन-भावनाओं की सही जानकारी प्राप्त नहीं होती थी।

आधुनिक समाचार पत्रों का जन्म 16वीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप के जर्मनी, स्विट्जरलैण्ड तथा हॉलैण्ड आदि देशों में हुआ था। इंग्लैण्ड में 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जेम्स (प्रथम) के शासनकाल में, शेक्सपीयर की मृत्यु के बाद पहला समाचार पत्र निकला। 17वीं शताब्दी में स्टुअर्ट वंश इंग्लैण्ड में अलोकप्रिय हो गया था। इस वंश के शासकों ने प्रेस को स्वतंत्रता नहीं दी। इंग्लैण्ड में जो समाचार पत्र निकलते थे उनमें विदेशों के समाचारों को छापने की तो स्वतन्त्रता थी किन्तु स्वदेशी समाचार छापने पर रोक थी। 17वीं शताब्दी के अन्त में हुई क्रान्ति के बाद इंग्लैण्ड में समाचार पत्रों की बाढ़ आ गई। 1702 ई. में पहला दैनिक समाचार पत्र डेली करैन्ट प्रकाशित हुआ।

भारत में छापाखाने का प्रारम्भ

भारत में प्रथम छापाखाना 1557 ई. में पुर्तगालियों द्वारा गोआ में स्थापित किया गया। उस समय तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में प्रवेश नहीं किया था। इस छापाखाने में सबसे पहले, मलयालम भाषा में ईसाई धर्म की पुस्तक प्रकाशित की गई। दूसरा छापाखाना तमिलनाडु के तिनेवली में स्थापित हुआ। 1762 ई. में काठियावाड़ के भीमजी पारिख ने हिन्दू धर्म ग्रन्थ प्रकाशित करने के लिए बम्बई में एक छापाखाना लगाया। भारत में पहला अँग्रेजी छापाखाना 1674 ई. में बम्बई में स्थापित हुआ। लगभग 100 वर्ष बाद 1772 ई. में मद्रास में और 1779 ई. में कलकत्ता में सरकारी छापाखाना स्थापित हुआ।

बोल्ट्स के प्रयास

भारत में समाचार पत्र प्रकाशित करने का पहला प्रयत्न 1767 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी विलियम बोल्ट्स ने किया। कम्पनी के साथ बोल्ट्स के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। उसने पूर्व में दो पुस्तकें प्रकाशित की थीं जिनमें कम्पनी प्रशासन की आलोचना की गई थी। कम्पनी के अधिकारी आलोचना सहने को तैयार नहीं थे। ऐसी स्थिति में बोल्ट्स को समाचार पत्र प्रकाशन की अनुमति नहीं दी गई। कम्पनी शासन के विरोध के कारण बोल्ट्स के प्रयत्न सफल नहीं हुए और उसे भारत छोड़कर इंग्लैण्ड लौट जाना पड़ा। बोल्ट्स के बाद लगभग 12 वर्ष तक इस दिशा में कोई प्रयत्न नहीं हुआ।

भारत में समाचार पत्रों का उदय एवं सरकारी प्रतिबन्ध

भारत में समाचार पत्र के प्रकाशन का कार्य सबसे पहले गैर-सरकारी अँग्रेज विद्वान जेम्स ऑगस्ट हिक्की ने किया। उसने कम्पनी के स्वेच्छाचारी शासन के विरुद्ध आवाज उठाई। हिक्की ने 29 जनवरी 1780 को बंगाल गजट एण्ड कलकत्ता एडवरटाइजर नाम से अँग्रेजी समाचार पत्र प्रकाशित किया। इस समाचार पत्र में केवल दो पृष्ठ थे तथा पृष्ठों का आकार छोटा था। हिक्की ने अपने लक्ष्य की व्याख्या करते हुए लिखा- ‘मुझे अपने शरीर को बन्धन से बाँधने में सुख मिल रहा है, क्योंकि उसके द्वारा मैं अपनी आत्मा और मन की स्वतन्त्रता प्राप्त करने की आशा करता हूँ मेरे इस साप्ताहिक-पत्र में स्तम्भ यद्यपि समस्त राजनीतिक और व्यवसायिक वर्गों और मतमतान्तरों के लिए खुले रहेंगे तथापि वे किसी के भी प्रभाव और दबाव से मुक्त रहेंगे।’

हिक्की ने अपने समाचार पत्र में, कम्पनी के अधिकारियों की अनेक बुराइयों की तीव्र आलोचना प्रकाशित की। इस समय गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज की कौंसिल का सदस्य फिलिप फ्रांसिस, गवर्नर जनरल और कौंसिल के अन्य सदस्यों का कटु आलोचक था। हिक्की के समाचार पत्र में फ्रांसिस को छोड़कर गवर्नर जनरल, मुख्य न्यायाधीश सर एलिजा इम्पे आदि समस्त अधिकारियों की कटु आलोचना हुई। इससे प्रतीत होता है कि फ्रांसिस और हिक्की में विशेष मित्रता थी अथवा हिक्की के प्रोत्साहन का स्रोत फ्रांसिस ही था। कोई भी व्यक्ति विश्वास नहीं कर सकता था कि हिक्की बिना किसी समर्थन के अथवा कम्पनी के असन्तुष्ट अधिकारियों द्वारा सूचना न मिलने पर इस प्रकार की आलोचना छाप सके। इन आलोचनाओं से कम्पनी के अधिकारी क्षुब्ध हो उठे। प्रकाशन के एक वर्ष के भीतर ही हिक्की का कम्पनी के अधिकारियों से झगड़ा हो गया। उस समय भारत में समाचार पत्रों के विषय में कोई नियम नहीं थे। पत्र निकालने के लिए भारत में लाइसेंस लेना अनिवार्य था। डाक से अखबार भेजने का अधिकार सरकार के हाथों सुरक्षित था। हिक्की के पत्र में कम्पनी प्रशासन की आलोचना के कारण वारेन हेस्टिंग्ज ने 14 नवम्बर 1780 को हिक्की के बंगाल गजट पर पहला प्रहार किया। गवर्नर जनरल के आदेश से हिक्की के पत्र को डाक से भेजे जाने की सुविधा बंद कर दी गई। इसके बाद हिक्की ने आलोचना को और अधिक कटु कर दिया। हिक्की को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। फ्रांसिस के भारत से चले जाने के बाद हेस्टिंग्ज ने इस पत्र पर कुठाराघात किया। 1782 ई. में सरकार ने हिक्की का छापाखाना और समस्त सम्पत्ति जब्त कर ली।

हिक्की के बंगाल गजट के बाद 1780 ई. में दूसरा समाचार पत्र इण्डिया गजट प्रकाशित हुआ जिसे समस्त प्रकार की सरकारी सुविधाएँ दी गईं। सम्भवतः यह वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा समर्थित अखबार था जिसे सरकारी विज्ञापन आदि अधिक सरलता से मिलते थे। 1784 ई. में कलकत्ता गजट तथा 1785 ई. में टामस जोन्स के प्रयत्नों से बंगाल जर्नल का प्रकाशन हुआ। इसका सम्पादक विलियम डुआनी था। डुआनी ने सरकार के विरुद्ध अभियान छेड़ा। उसकी स्पष्टवादिता और सरकारी कार्यों की आलोचना के कारण सरकारी अधिकारी उससे क्रुद्ध हो गये। डुआनी को बलात् एक अँग्रेजी जहाज में बैठाकर भारत से बाहर भेज दिया गया। 1780 ई. से 1793 ई. के बीच कलकत्ता से छः समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इनमें एक समाचार पत्र हरकारू था। इसके सम्पादक चार्ल्स मैकलीन को सरकार से कड़ा संघर्ष करना पड़ा। इस प्रकार बंगाल से छः पत्र प्रकाशित हुए, उनमें से दो सरकार के कटु आलोचक थे। चार अखबार सरकारी कृपा पर निर्भर थे तथा सरकार की आलोचना करने से डरते थे।

मद्रास में सबसे पहले 1785 ई. में मद्रास कोरियर नामक समाचार पत्र निकला। मद्रास सरकार ने भी समाचार पत्रों के प्रति कड़ा रुख अपनाया और 1795 ई. में यह शर्त लगाई कि कोई भी सामग्री छापने से पहले उस पर सरकार की अनुमति प्राप्त की जानी आवश्यक है। मद्रास कोरियर के संस्थापक रिचार्ड जॉन्सटन को अनेक सरकारी सुविधाएँ दी गईं। 1795 ई. में इसी तरह सरकारी प्रभाव के अन्तर्गत ही मद्रास गजट निकाला गया। इसी दशक में मद्रास में हंफ्रेंस द्वारा इण्डिया हेराल्ड का प्रकाशन किया गया। इसे आरम्भ करने के लिए हंफ्रेंस द्वारा किये गये आवेदन को मद्रास सरकार ने अस्वीकार कर दिया। इस पर हंफ्रेंस ने बिना सरकारी अनुमति के ही इण्डिया हेराल्ड का प्रकाशन आरम्भ कर दिया। सरकारी अधिकारियों ने हंफ्रेंस पर आरोप लगाया कि उसने अपने पत्र में सरकारी नीति के विरुद्ध तथा प्रिन्स ऑफ वेल्स के सम्बन्ध में आपत्तिजनक बातें प्रकाशित की हैं। मद्रास सरकार ने हंफ्रेंस को भारत से निर्वासित कर दिया। इस घटना के बाद मद्रास सरकार का समाचार पत्रों पर नियंत्रण और भी कठोर हो गया। कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास की सरकारें, समाचार पत्रों में छपने वाली आलोचनाओं से इसलिए भयभीत नहीं होती थीं कि उनका विपरीत प्रभाव भारतीय जनता पर पड़ेगा, अपितु इसलिए भयभीत होती थीं कि कहीं इंग्लैण्ड में जनमत कम्पनी शासन और गतिविधियों के विरुद्ध न हो जाय।

बम्बई प्रान्त में अखबार सबसे बाद में निकले। 1789 ई. में बम्बई में पहला साप्ताहिक समाचार पत्र बॉम्बे हेराल्ड निकला। 1790 ई. में दूसरा समाचार पत्र बॉम्बे कोरियर नाम से और 1791 ई. में तीसरा समाचार पत्र बॉम्बे गजट नाम से प्रकाशित हुआ। बॉम्बे कोरियर, आगे चलकर टाइम्स ऑफ इण्डिया के नाम से प्रकाशित होने लगा जो आज भी देश का प्रमुख अँग्रेजी समाचार पत्र है। 18वीं शताब्दी के अन्त तक बंगाल, मद्रास व बम्बई प्रान्तों से अनेक मासिक तथा साप्ताहिक समाचार पत्रों का प्रकाशन होने लगा। मद्रास एवं बम्बई के समाचार पत्र सरकार विरोधी नहीं थे। ये समस्त पत्र अँग्रेजी भाषा में प्रकाशित होते थे जिनके अधिकतर सम्पादक कम्पनी के सेवानिवृत्त अँग्रेज अधिकारी थे। इन समाचार पत्रों की सदस्यता सरकारी कार्यालयों तथा विदशी व्यापारियों तक सीमित थी। इस समय पत्रकारिता सम्बन्धी कानून नहीं बने थे। सरकार की आलोचना करने पर सम्पादकों को यातनाएँ दी जाती थीं और अन्त में भारत छोड़ने पर बाध्य कर दिया जाता था। इन समाचार पत्रों का स्वरूप अराजनीतिक था। इनकी सामग्री में विदेशी समाचार, सरकारी आदेश, सरकारी विज्ञापन, सम्पादक के नाम पत्र, व्यक्तिगत समाचार, फैशन सम्बन्धी समाचार तथा यूरोपीय समाज के बारे में चटपटी एवं रहस्यमयी बातें होती थीं।

इस प्रकार 18वीं शताब्दी के भारतीय समाचार पत्रों के इतिहास का पहला अध्याय इंग्लो-इण्डियन समाचार पत्रों का इतिहास है। इस अवधि में समाचार पत्रों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाये गये, जैसे-प्रत्येक समाचार पत्र को, अपने सम्पादक एवं संचालक के नाम सरकार को लिखित में देने होंगे। प्रत्येक अंक पर मुद्रक एवं सम्पादक के नाम अंकित करने होंगे। मुद्रित करने से पहले सामग्री का अवलोकन किसी सरकारी अधिकारी द्वारा किया जाना आवश्यक होगा। रविवार को कोई अंक प्रकाशित नहीं होगा आदि। सेना, युद्ध-सामग्री, जहाज, कम्पनी के देशी राज्यों से सम्बन्ध, सरकारी आय, सरकारी अधिकारियों के कार्यों तथा व्यक्तिगत मामलों से सम्बन्धित समाचार प्रकाशित नहीं किये जा सकते थे।

अध्याय – 39 : भारत में उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की पत्रकारिता

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समाचार पत्रों के भारतीय प्रयास

19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से भारतीय समाचार पत्रों के इतिहास का दूसरा अध्याय आरम्भ होता है जब अँग्रेजी समाचार पत्रों के साथ-साथ देशी भाषा में भी समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1818 ई. तक देशी भाषा में प्रकाशित होने वाले किसी समाचार पत्र का उल्लेख नहीं मिलता। बौद्धिक जागरण का प्रभाव प्रत्रकारिता के क्षेत्र में पड़ा और भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। राजा राममोहन राय की प्रेरणा, समर्थन और निर्भीक नेतृत्व पाकर भारतीय पत्रकारिता का विकास हुआ। आत्मीय सभा के दो सदस्यों हरिशचन्द्र राय और गंगाकिशोर भट्टाचार्य के सहयोग से बंगाल में पहला भारतीय पत्र 15 मई 1818 को बंगाल गजट के नाम से प्रकाशित हुआ। यह भारतीय समाचार पत्र, प्रगतिवादी हिन्दू धर्म की विचारधारा का प्रतिपादन करता था। इसी समय भारत में ईसाईयत का प्रचार करने वाली संस्थाओं ने भी पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण किया। 1818 ई. में मार्शमेन के नेतृत्व में सीरामपुर के बैपटिस्ट मिशनरियों ने बंगाली भाषा में मासिक पत्र दिग्दर्शन तथा साप्ताहिक पत्र समाचार दर्पण प्रकाशित किये। राजा राममोहन राय ने 1822 ई. में फारसी भाषा में मिरात-उल-अखबार और अँग्रेजी भाषा में ब्राह्मनिकल मैगजीन प्रकाशित किये। राजा राममोहन राय के प्रगतिशील विचारों के विरुद्ध सनातनी एवं रूढ़िवादी लोगों ने बंगला भाषा में चंद्रिका समाचार निकाला। दो और फारसी भाषा के पत्र- जामे-ए-जहनुमा तथा शम-उल-अखबार भी प्रकाशित किये गये। 1822 ई. में ही बम्बई से गुजराती भाषा का मुम्बई समाचार प्रकाशित हुआ। उन्हीं दिनों ईसाई धर्म प्रचारकों ने फ्रेण्ड ऑफ इण्डिया नामक अँग्रेजी पत्र प्रकाशित किया।

कलकत्ता का पहला दैनिक समाचार पत्र- कलकत्ता जर्नल

जेम्स बंकिघम सिल्क एक जहाज का कप्तान था। एक बार उसने मेडागास्कर से खरीदे हुए कुछ गुलामों को ले जाने से इन्कार कर दिया और नौकरी छोड़ दी। इस कारण उसकी ख्याति एक सैद्धान्तिक व्यक्ति के रूप में हो गई। 2 अक्टूबर 1818 को उसने कलकत्ता से आठ पृष्ठ का कलकत्ता जर्नल प्रकाशित करना आरम्भ किया। यह सप्ताह में दो बार छपता था। इस पत्र ने अपने निर्भीक तथा उदारवादी विचारों से भारतीय पत्रकारिता को नई दिशा दी। इस पत्र में सरकारी कार्यों की आलोचना के साथ-साथ एक नया स्तम्भ भी आरम्भ किया गया जिसमें जनता की शिकायतें और सुझाव छापे जाते थे। बंकिघम सिल्क ने अपने समाचार पत्र में स्पष्ट कहा कि सम्पादक के कार्य सरकार को उसकी भूलें बताकर कर्त्तव्य की ओर प्रेरित करना है।  इस कारण कुछ अरुचिकर सत्य कहना अनिवार्य है। तीन वर्षों में ही यह समाचार पत्र प्रतिदिन छपने लगा। यह कलकत्ता का प्रथम दैनिक पत्र था। बंकिघम के पत्र ने उस समय के एंग्लो-इण्डियन पत्रों को निस्तेज कर दिया। दो वर्षों में इसकी सदस्य संख्या एक हजार से अधिक हो गई। बंकिघम की ख्याति और उसकी लेखनी से ब्रिटिश नौकरशाही में ईर्ष्या जागृत हुई। कुछ अधिकारियों ने लॉर्ड हेस्टिंग्ज से आग्रह किया कि वह समाचार पत्रों पर सेंसर के नियम लागू करे किंतु लॉर्ड हेस्टिंग्ज की उदार नीति के कारण बंकिघम को कोई हानि नहीं हुई। कलकत्ता जर्नल के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कट्टरपंथी लोगों ने बुल इन द् ईस्ट नामक पत्र आरम्भ किया। यह पत्र जनता में लोकप्रिय नहीं हो सका, क्योंकि इसके पक्षपातपूर्ण समाचारों और सरकारी पक्ष के समर्थन के कारण संदेह की दृष्टि से देखा जाता था। लॉर्ड हेस्टिंग्ज के भारत से चले जाने के बाद जॉन एडम कार्यवाहक गवर्नर जनरल बना। वह प्रेस की स्वतन्त्रता का विरोधी था। 1823 ई. में बंकिघम को देश से निकाल दिया गया। इस प्रकार एक बहुत ही साहसी, स्पष्ट वक्ता तथा भारतीय पत्रकारिता का मसीहा भारत से चला गया। यद्यपि बंकिघम भारत में नहीं रहा किन्तु उसने इंग्लैण्ड जाकर ओरियन्टल हेराल्ड नामक समाचार पत्र निकाला जिसमें वह भारतीय समस्याओं और कम्पनी के हाथों में भारत का शासन बनाये रखने के विरुद्ध लगातार लिखता रहा और इंग्लैण्ड में जनमत बनाने का प्रयत्न करता रहा।

राजा राममोहन राय का योगदान

राजा राममोहन को भारतीय पत्रकारिता का जनक कहा जाता है। उन्होंने सत्य का प्रचार करने तथा विविध विषयों पर तर्क करके जनमानस का निर्माण करने के उद्देश्य से संवाद कौमुदी, मिरात-उल-अखबार तथा ब्राह्मनिकल मैगजीन नामक तीन पत्रों की स्थापना की। उस समय ईसाई पादरी अपने धर्म-प्रचार के लिए हिन्दू धर्म पर आक्षेप कर रहे थे। राजा राममोहन राय ने अपने तर्कों से ईसाई पादरियों के दुष्प्रचार को निष्प्रभावी कर दिया। बंकिघम ने खुले हृदय से राजा राममोहन राय की सराहना की। कार्यवाहक गवर्नर जनरल जॉन एडम, प्रेस की स्वतन्त्रता को कम्पनी शासन के लिए अत्यधिक हानिकारक समझता था। मुनरो का कहना था कि विदेशी शासन और प्रेस की स्वतन्त्रता दोनों आपस में विरोधी हैं। ये अधिक समय तक साथ-साथ नहीं रह सकते। 1823 ई. में एडम ने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की अनुमति से प्रेस पर प्रतिबन्धों की घोषणा की। इन प्रतिबन्धों का उद्देश्य भारतीय भाषाओं के पत्रों पर अंकुश लगाना था। सरकार ने मिरात्-उल-अखबार पर कई आरोप लगाकर उस पर प्रतिबंध लगा दिये। राजा राममोहन राय ने अखबार का प्रकाशन बन्द कर दिया। 1825 ई. में एक और प्रेस कानून लागू किया गया जिसके अनुसार किसी सरकारी अधिकारी का सम्बन्ध किसी भी समाचार पत्र से नहीं हो सकता था।

एडम का प्रेस नियन्त्रण

जॉन एडम द्वारा पारित प्रेस सम्बन्धी कानूनों को 1878 ई. में लॉर्ड लिटन द्वारा पारित वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट का पूर्वगामी कहा जा सकता है। बंकिघम के चले जाने के बाद सरकार ने कलकत्ता जर्नल को जब्त कर लिया। यद्यपि एडम के कानूनों के अन्तर्गत कलकत्ता जर्नल तथा विलियम एडम द्वारा सम्पादित कलकत्ता क्रोनिकल, दो ही ऐसे समाचार पत्र थे जिनके अनुमति पत्र रद्द किये गये थे किन्तु लगभग 6 वर्षों तक किसी भी समाचार पत्र ने सरकार की आलोचना करने का साहस नहीं किया।

जॉन एडम द्वारा प्रेस पर लगाये गये प्रतिबन्धांे के साथ ही समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष का इतिहास भी प्रारम्भ हो जाता है। इस संघर्ष का नेतृत्व राजा राममोहन राय ने किया। उन्होंने पाँच व्यक्तियों के हस्ताक्षर कराके इन कानूनों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में वाद दायर किया किन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। इस पर उन्होंने लंदन की प्रिवी कौंसिल के समक्ष वाद प्रस्तुत करवाया किन्तु वहाँ भी असफलता मिली। इन प्रयासों से यह स्पष्ट हो गया कि अँग्रेज सरकार किसी भी कीमत पर भारत में स्वतंत्र प्रेस नहीं पनपने देना चाहती थी। इस दृष्टि से राजा राममोहन राय को भारत में स्वतन्त्र पत्रकारिता का अग्रदूत कहना उचित होगा।

भारतीय समाचार पत्र एडम के कानूनों से भयभीत होकर सतर्कता की नीति पर चलने लगे। इस कारण भारत में अँग्रेजी भाषा के समाचार पत्रों का प्रकाशन बढ़ने लगा। हिन्दी भाषा का सबसे पहला समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड कलकत्ता से युगल किशोर शुक्ल ने सम्पादित किया जिसका पहला अंक 30 मई 1826 को प्रकाशित हुआ। 1829 ई. में राजा राममोहन राय ने अँग्रेजी भाषा में बंगाल हेराल्ड साप्ताहिक पत्र निकला। इसी समय नीलरत्न हालदार ने बंगदूत प्रकाशित किया। इस पत्र का प्रकाशन बंगला, हिन्दी और फारसी भाषा में होता था। इस अवधि में सरकार ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रकाशित पत्रों को आवश्यक सुविधाएँ दे रही थी किन्तु किन्तु अँग्रेजी पत्रों के प्रति सरकारी नीति भिन्न थी। अँग्रेजी भाषा के पत्रों को चेतावनी अवश्य दी जाती थी, किन्तु उनकी बड़ी-बड़ी गलतियों को माफ कर दिया जाता था, जबकि भारतीय भाषा के समाचार पत्रों का अनुमति पत्र रद्द कर दिया जाता था। राजा राममोहन राय ने सरकार की इस नीति का प्रतिवाद किया तथा भारतीय पत्रकारिता को बढ़ावा देने के प्रयास किये। राजा राम मोहन राय का प्रभाव टैगोर परिवार के प्रबुद्ध सदस्यों पर था। इस परिवार ने राजा राममोहन राय के सहयोग से तत्कालीन पत्रकारिता की सहायता की। राजा राममोहन राय की प्रेरणा से द्वारिकानाथ टैगोर ने बंगाल से प्रकाशित होने वाले कुछ अँग्रेजो के समाचार पत्रों को खरीद लिया। इस कारण बंगाल हरकारू तथा कट्टरपन्थी यूरोपियनों का बुल इन द ईस्ट, टैगोर परिवार के पास आ गये। नये संचालकों द्वारा बुल इन द् ईस्ट को इंग्लिशमैन के नाम से प्रकाशित किया गया।

बैण्टिक के समय में पत्रकारिता

लॉर्ड विलियम बैण्टिक (1828-1833 ई.) के काल में भारतीय पत्रकारिता ने बहुत उन्नति की। उस समय देश में एडम के कानूनों के विरुद्ध वातावरण बन रहा था। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य चार्ल्स मैटकॉफ ने इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि समाचार पत्रों को स्वतन्त्रता देने से सरकार की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी किन्तु स्वतन्त्रता से साम्राज्य का अस्तित्त्व ही खतरे में पड़ जाये तो सरकार को उचित सुरक्षा के अधिकार होना चाहिए। वर्तमान में समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता से किसी भी विपत्ति के चिन्ह नहीं हैं।

1831 ई. में ईश्वरचन्द्र गुप्त का संवाद प्रभाकर प्रकाशित हुआ। 1836 ई. में यह दैनिक पत्र में परिवर्तित हो गया तथा बंगाल के प्रथम दैनिक होने का गौरव प्राप्त कर सका। 6 फरवरी 1835 को पत्रकारों का एक शिष्ट मण्डल, जिसमें 3 भारतीय व 8 विदेशी थे, गवर्नर जनरल से मिला। इन पत्रकारों ने एडम कानूनों को सरकार और समाचार पत्र दोनों की प्रतिष्ठा के लिए घातक बताया। बैण्टिक इस सम्बन्ध में कुछ कार्यवाही करता, उससे पूर्व ही उसका भारत से स्थानांतरण हो गया।

चार्ल्स मैटकाफ की उदार नीति

बैण्टिक के बाद सर चार्ल्स मेटकॉफ (1835-36 ई.) कार्यवाहक गवर्नर जनरल बना। उसने लॉर्ड मैकाले से एक कानून बनाने का आग्रह किया। मैकाले ने एडम कानूनों को अनावश्यक बताकर उन्हें रद्द करने की अनुशंसा की। उसके विचार में प्रेस को स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिये। इसमें हस्तक्षेप तथा अंकुश केवल विशेष परिस्थितियों में किया जाना चाहिये। कम्पनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने मेटकॉफ के कानून का समर्थन नहीं किया, फिर भी मेटकॉफ ने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की परवाह नहीं की और अपनी नीति पर दृढ़ रहा। इस प्रकार मेटकॉफ के समय से भारत में समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता का युग आरम्भ हुआ।

महाराष्ट्र की पत्रकारिता

बंगाल के साथ-साथ भारत के अन्य प्रदेशों में भी पत्रकारिता तेजी से आगे बढ़ रही थी। 1830 ई. में बम्बई प्रेसीडेन्सी से गुजराती भाषा के समाचार पत्र प्रकाशित होते थे, इनमें से मुम्बई वर्तमान तथा जामे जमशेद का उल्लेख किया जा सकता है। उर्दू का सबसे पहला अखबार सैयद-उल-अखबार दिल्ली से 1837 ई. में निकला। मराठी भाषा का पहला पत्र मुम्बई समाचार 1840 ई. में निकला जिसके सम्पादक सूर्याजी कृष्णाजी थे। 1849 ई. में कृष्णाजी, तिम्बकजी, रानाडे ने पूना से ज्ञान-प्रकाश निकाला। इस अवधि में समाचार पत्रों की संख्या तथा पाठकों की संख्या में काफी वृद्धि हुई। कुछ पत्रों की बिक्री हजारों तक होने लगी।

19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पत्रकारिता के उद्देश्य

19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विभिन्न विषयों पर केन्द्रित पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित हुईं। भारत की पुरातन सभ्यता, संस्कृति और साहित्य की जानकारी के लिए 1784 ई. में सर विलियम जॉन्स ने कलकत्ते में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। 1832 ई. में जेम्स प्रिंसेप के सम्पादकत्व में जर्नल ऑफ द् रायल सोसायटी ऑफ बंगाल प्रकाशित होने लगा। इसमें वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक विषयों से सम्बन्धित लेख छपा करते थे। मद्रास में भी एशियाटिक सोसायटी की शाखा मद्रास लिट्रेरी सोसायटी के अन्तर्गत जर्नल ऑफ लिटरेचर एण्ड साइन्स का प्रकाशन हुआ। इसी प्रकार 1843 ई. में देवेन्द्रनाथ टैगौर द्वारा प्रकाशित तत्त्वबोधिनी-पत्रिका आरम्भ हुई। यह पहली पत्रिका थी जिसमें भारतीय भाषा और देवनागरी लिपि में वैज्ञानिक तथा अन्य विषयों पर लेख प्रकाशित होते थे।

19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के समाचार पत्रों का उद्देश्य पढ़े-लिखे लोगों को नई बातों की जानकारी देना तथा जनहित के समाचार देना था। वे राजनीतिक जागृति अथवा जन-अधिकार की बातों दूर रहे। नयी चेतना के अग्रदूत राजा राममोहन राय ने भी अपने पत्र मिरात्-उल-अखबार में यह विचार प्रकट किया कि उनका उद्देश्य ऐसे लेखों को प्रकाशित करना है जिससे लोगों का अनुमान बढ़ सके तथा समाज सुधार किया जा सके। शासक वर्ग के सामने ऐसी जानकारी रखी जा सके जिससे वे जनता को सरंक्षण तथा राहत दे सकें। भारतीय समाचार पत्रों ने आरम्भ से ही ऐसी भूमिका तैयार कर दी जिसके आधार पर भारतीयों की समस्याओं को समाचार पत्रों में प्रमुख स्थान मिलने लगा। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इन समस्याओं में राजनीतिक अधिकार और संवैधनिक सुधारों की मांगें भी सम्मिलित हो गईं।

19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय पत्रकारिता में दो वर्ग थे- (1.) प्रबुद्ध भारतीयों द्वारा संचालित पत्र और (2.) एंग्लो-इण्डियन अथवा अँग्रेजों द्वारा चलाये जाने वाले समचार पत्र।

(1.) भारतीयों द्वारा संचालित पत्र: उस युग में प्रबुद्ध भारतीयों द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले समाचार पत्र शिक्षित जनता में आदर पाते रहे। उस समय साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम था तथा समाचार पत्रों के प्रकाशन में कई बाधाएं होती थीं। कुछ ही धनी भारतीय व्यक्तियों की रुचि समाचार पत्रों के प्रकाशनों की ओर थी। इस कारण बहुत कम संख्या में समाचार पत्र प्रकाशित होते थे। उनकी प्रतियाँ भी बहुत कम होती थीं। फिर भी, इन समाचार पत्रों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया।

(2.) एंग्लो-इण्डियन अथवा अँग्रेजों द्वारा चलाये जाने वाले समचार पत्र: उस युग के अधिकांश समाचार पत्र अँग्रेजों द्वारा संचालित थे, वे सामान्यतः भारत-विरोधी विचारों के प्रतीक बने रहे। उनकी दृष्टि में भारतीयों को किसी प्रकार के अधिकार एवं सुविधा देना उचित नहीं था। इन पत्रों ने उन अँग्रेज शासकों की कटु आलोचना की जिन्होंने भारतीयों के न्याय सम्मत अधिकारों का समर्थन किया। जब लॉर्ड विलियम बैटिंक ने सुझाव दिया कि भारतीयों को भी कम्पनी प्रशासन में उच्च पदांे पर नियुक्त किया जाना चाहिए तो इस वर्ग के समाचार पत्रों ने गवर्नर जनरल की कटु आलोचना की। अधिकांश अँग्रेज अधिकारी इस प्रकार के समाचार पत्रों में व्यक्त विचारों से प्रभावित होते रहे।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पत्रकारिता के उद्देश्य

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में भारतीय पत्रकारिता ने राजनीति को अपना मुख्य विषय बना लिया और उनका ध्यान संवैधानिक विकास पर केन्द्रित होने लगा। 1853 ई. में हिन्दू पैट्रियट के सम्पादक हरिशचन्द्र मुकर्जी ने अपने समाचार पत्र के उद्देश्यों के बारे में लिखा- ‘लोग अब 1853 ई. के चार्टर एक्ट के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करने लगे हैं। अतः एक ऐसे माध्यम की अत्यन्त आवश्यकता है, जो भारतीयों द्वारा संचालित हो और जिसके द्वारा उदार तथा प्रबुद्ध सिद्धान्तों का प्रचार किया जा सके। इस दिशा में हिन्दू पैट्रियट अग्रणी हो सकेगा और जनता के अधिकारों तथा संवैधानिक सुधारों की दिशा में भविष्य में कार्य कर सकेगा।’

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का सोम प्रकाश भी उसी अवधि में प्रकाशित हुआ जो जन अधिकारों का प्रबल समर्थक था।

अध्याय – 40 : भारत में अट्ठारह सौ सत्तावन के बाद की पत्रकारिता

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1857 ई. की सैनिक क्रान्ति के लिये भारतीय समाचार पत्रों को दोषी ठहराया गया। भारतीय लेखकों ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि तत्कालीन समाचार पत्रों ने विस्फोटक स्थिति उत्पन्न करने में योगदान दिया परन्तु जे. लोंग, जो सदैव भारतीय पत्रों के समर्थक रहे थे, ने अपनी 1858 ई. की रिपोर्ट में लिखा कि यदि कम्पनी के अधिकारियों ने दिल्ली से प्रकाशित जनवरी 1857 के भारतीय पत्रों का अवलोकन किया होता तो स्पष्ट हो जाता कि भारतीय इस क्रान्ति के लिए कितने उतावले थे और ईरान तथा रूस से सहायता की आशा कर रहे थे। वस्तुतः उस समय भारतीय तथा अँग्रेजों के समाचार पत्रों में भारतीय क्रान्ति को लेकर जो वातावरण बना, वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।

लॉर्ड केनिंग द्वारा बनाये गये कानून

जून 1857 में लॉर्ड केनिंग ने प्रेस सम्बन्धी नये कानून प्रस्तुत करते हुए कहा- ‘यह सबको विदित नहीं है कि इन पत्रों ने राजद्रोह को समाचारों के रूप में जनता में फैलाया है। यह काम बड़ी चतुराई से किया गया, तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर उनका अनुचित प्रसंग एवं अर्थ प्रस्तुत कर जनता एवं शासकों के बीच असन्तोष को बढ़ावा दिया गया है। यद्यपि यूरोपियन पत्रों ने राजभक्ति का परिचय दिया तथापि उनके पत्रों में कुछ अंश ऐसे अवश्य छपे जिनका उपयोग भारतीयों के समक्ष विषम स्थिति प्रस्तुत करने के लिए किया गया। इसलिए यह कानून यद्यपि यूरोपियन पत्रों के विरुद्ध नहीं है परन्तु कोई भी कानून जिसके द्वारा विदेशी और भारतीय पत्रों में भेदभाव किया जाये, न्यायोचित नहीं होगा। इसलिए यह हर प्रकार के प्रकाशन पर समान रूप से लागू होगा।’

लॉर्ड केनिंग ने कहा कि वह इस कानून को प्रस्तुत करके प्रसन्न नहीं है परन्तु ऐसी स्थितियाँ आती है जब स्वतन्त्रता और अधिकारों का बलिदान करना पड़ता है। यह कानून एक वर्ष के लिए अर्थात 13 जून 1858 तक लागू रहेगा। 1857 ई. के अधिनियम 15वें के अन्तर्गत अब प्रत्येक प्रेस के मालिक को एक लाइसेंस लेना होगा तथा शासन को यह अधिकार होगा कि वह किसी भी पत्र-पत्रिका अथवा पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दे। 18 जून 1858 को जारी सरकारी आदेश से केवल उन्हीं पत्रों को लाइसेंस देने की घोषणा की गई जो भविष्य में ब्रिटिश शासन की आलोचना नहीं करेंगे, सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध घृणा अथवा द्वेष की भावना का प्रचार नहीं करंेगे तथा सरकारी अधिकारियों के आदेशों का विरोध नहीं करेंगे। केनिंग का यह कानून एडम कानूनों जैसा ही था किन्तु केनिंग ने इस कानून को को सारे भारत में एक समान रूप से लागू किया जबकि एडम कानून, अँग्रेजी पत्रों पर लागू नहीं था।

भारतीय समाचार पत्रों पर कार्यवाही

केनिंग के इस कानून से कई समाचार पत्रों को हानि उठानी पड़ी। द्वारिकानाथ टैगोर के बंगाल हरकारू का अनुमति पत्र छिन गया। 25 जून 1857 को फ्रेण्ड्स ऑफ इण्डिया में प्लासी के सौ वर्ष शीर्षक से एक लेख छपा। इसे सरकारी अधिकारियों ने आपत्तिजनक माना और पत्र को गम्भीर चेतावनी दी। अनेक भारतीय समचार पत्रों- बोम्बे समाचार, जामे-जामशेद, रास्तगुफ्तार आदि ने अँग्रेजी समाचार पत्रों द्वारा अपनाये गये भारत विरोधी रुख की आलोचना की। ब्रिटिश अधिकारियों ने दूरबीन, सुल्तान-उल-अखबार तथा समाचार सुधा दर्पण आदि समाचार पत्रों के विरुद्ध कार्यवाहियाँ की। गुलशन-ए-नौ-बहार ने छापाखाना छिन जाने पर प्रकाशन ही बन्द कर दिया। 1857 ई. की क्रान्ति समाप्त हो जाने पर भी कई अँग्रेजी अखबारों में भारतीयों के खून की माँग की जा रही थी। क्योंकि उन्होंने असंख्य अँग्रेजों की हत्याएँ की थीं। बोम्बे टाइम्स के जॉर्ज ब्यूएस्ट ने बदले की भावना को भड़काया। कलकत्ता के ईसाइयों ने महारानी विक्टोरिया से माँग की कि केनिंग का प्रेस एक्ट केवल भारतीय भाषाओं के पत्रों पर लागू किया जाये। इस प्रकार 1857 ई. की क्रान्ति के समय और बाद में एंग्लो-इण्डियन प्रेस में जो कुछ सामग्री छपी, उससे भारतीयों द्वारा सम्पादित पत्रों में रोष उत्पन्न हुआ। इस रोष ने राष्ट्रीयता की भावना को हवा दी। यद्यपि 1857 ई. की क्रान्ति में सेना के भारतीय सिपाहियों ने मुख्य रूप से भाग लिया था, फिर भी भारतीय समाचार पत्रों ने देश में राजनीतिक जागृति का जो वातावरण तैयार किया उससे अब अँग्रेज सतर्क हो गये।

भारतीय समाचार पत्रों में आशा का संचार

1857 ई. की क्रान्ति के दमन के बाद भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त करके ब्रिटिश क्राउन का शासन स्थापित हुआ। लॉर्ड केनिंग को भारत का वायसराय बनाया गया। महारानी विक्टोरिया की घोषणा और संवैधानिक परिवर्तन से भारतीय समाचार पत्रों में नवीन आशा का संचार हुआ। भारतीय जनता में शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ। भारतीय बुद्धिजीवियों को अपने विचार जनता तक पहुँचाने के लिए अनेक भारतीय भाषाओं में नये समाचार पत्र प्रकाशित करने पड़े। इनके माध्यम से देशभक्ति तथा राजनीतिक जागृति का काम आगे बढ़ा।

प्रसिद्ध समाचार पत्रों का आरम्भ

1857 ई. से 1867 ई. के बीच भारत के अनेक प्रसिद्ध समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। उनमें से कई समाचार पत्रों का प्रकाशन आज तक हो रहा है। 28 सितम्बर 1861 को बोम्बे टाइम्स (जिसके अन्तर्गत बोम्बे स्टैण्डर्ड, दी टेलीग्राफ तथा कूरियर थे) ने अपना नाम बदलकर दी टाइम्स ऑफ इण्डिया कर लिया। इसी प्रकार 1865 ई. में इलाहाबाद से पायोनियर और 1857 ई. में कलकत्ता से स्टेट्समैन का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1868 ई. में गिरीशचन्द्र घोष ने बंगाली पत्र निकाला जो हिन्दू पैट्रियट की भाँति स्पष्टवादी और साहसी था। आगे चलकर इसे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने खरीद लिया। इस काल में भारतीय समाचार पत्रों का ध्यान राजनीतिक तथा राष्ट्रीय विचारों के प्रचार पर केन्द्रित था। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सोम प्रकाश में भी राजनीतिक विषयों पर स्पष्ट टिप्पणियां की जाती थीं। नील दर्पण नाटक के कारण उत्पन्न विवाद में सोम-प्रकाश का योगदान महत्त्वपूर्ण था। इण्डियन मिरर भी उस काल का महत्त्वपूर्ण समाचार पत्र था जिसे मनमोहन घोष और द्वारिकानाथ टैगोर ने मिलकर निकाला। बाद में यह केशवचन्द्र सेन द्वारा सम्पादित किया गया। केशवचन्द्र सेन ने सबसे पहले एक पैसे कीमत का सुलभ समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसे बड़ी सफलता मिली। 1867 ई. से 1877 ई. के बीच अनेक प्रगतिशील तथा लोकप्रिय पत्र आरम्भ हुए। केशवचन्द्र सेन के सुलभ समाचार की भाँति बंगला भाषा में साप्ताहिक भारत श्रमजीवी का मूल्य एक पैसा रखा गया। इसके सम्पादक शशिपद बंद्योपाध्याय थे। इसके ग्राहकों की संख्या पन्द्रह हजार तक पहुँच गई। 1872 ई. में बंगला के प्रसिद्ध लेखक बंकिमचन्द्र चटर्जी का बंगदर्शन आरम्भ हुआ। इसके कुछ समय बाद ही द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर की भारती एवं आर्य दर्शन, योगेन्द्रनाथ विद्याभूषण का बान्धव और रवीन्द्रनाथ की साधना नामक पत्रिकाएं आरम्भ हुईं। इन पत्रिकाओं का बंगला साहित्य के विकास और संवर्द्धन में विपुल योगदान रहा।

हिन्दू पैट्रियट का योगदान

 हरिशचन्द्र मुकर्जी द्वारा बंगाल से प्रकाशित हिन्दू पैट्रियट का भारतीय पत्रकारिता के विकास में प्रमुख योगदान रहा। इस पत्र में नील की खेती करने वाले अँग्रेज अधिकारियों द्वारा किये जा रहे शोषण के विरुद्ध जमकर लिखा गया तथा नीलहे साहबों द्वारा भारतीय मजदूरों पर अत्याचारों की मार्मिक घटनाओं का विवरण दिया गया। इन्हें पढ़कर भारतीयों का खून खौल उठता था। 1861 ई. में हरिशचन्द्र मुकर्जी के देहान्त के बाद हिन्दू पैट्रियट कुछ समय के लिये शिथिल पड़ गया किन्तु क्रिस्टोपाल दास के सम्पादकत्व में यह पुनः उसी जोर-शोर से प्रकाशित होने लगा। क्रिस्टोपाल दास ने बड़ौदा नरेश मल्हारराव गायकवाड़ को पदच्युत किये जाने की कटु आलोचना की। क्रिस्टोपाल दास राजनीति तथा पत्रकारिता दोनों ही क्षेत्रों में विशिष्ट पहचान रखते थे। ब्रिटिश अधिकारी हिन्दू पैट्रियट के विचारों को भारतीयों की भावना का प्रतीक मानते थे। क्रिस्टोपाल दास ने लगभग 23 वर्षों तक इस पत्र का सम्पादन किया। वे ब्रिटिश इण्डियन एसोसियेशन के सचिव भी रहे। यद्यपि हिन्दू पैट्रियट के रुख में अपेक्षाकृत नरमी रही किन्तु अनेक अवसरों पर इस पत्र ने अँग्रेजी शासन का जमकर विरोध किया।

अमृत बाजार पत्रिका का योगदान

इस काल में प्रारम्भ हुआ अमृत बाजार पत्रिका भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर था। इसका उदय 1868 ई. में बंगलादेश के जेसोर जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। इस गाँव के घोष परिवार के तीन भाइयों- बसन्त कुमार, हेमन्त कुमार और शिशिर कुमार ने मिलकर इस पत्र को आरम्भ किया। घोष बन्धु ब्रह्म समाजी थे। इनमें से दो भाई- शिशिर कुमार और हेमन्त कुमार, सरकार में डिप्टी कलेक्टर थे और तीसरे भाई बसन्त कुमार अपने गाँव में रहकर कामकाज देखते थे। बसन्त कुमार ने एक छोटा प्रेस खरीद कर बंगला भाषा में अमृत प्रवाहिनी नामक पाक्षिक पत्रिका आरम्भ की। बसन्त कुमार की मृत्यु हो जाने पर, घोष परिवार ने अमृत प्रवाहिनी के स्थान पर बंगला भाषा में अमृत बाजार पत्रिका के नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र आरम्भ किया। पत्रिका की निर्भीक नीति के कारण उसके प्रबन्धकों को शासन के क्रोध का शिकार होना पड़ता था। पत्रिका के 7 मई 1868 के अंक में स्वतन्त्र होने की कामना रखने वाली एक कविता प्रकाशित हुई। 1870 ई. में पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में भारतीय हितों की व्याख्या करते हुए देश की राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए संसदीय शासन का सुझाव दिया गया। पत्रिका के प्रकाशन को अभी दो वर्ष पूरे नहीं हुए थे कि उस पर एक भारतीय महिला का अँग्रेज डिप्टी मजिस्ट्रेट द्वारा किये गये बलात्कार का समाचार छापने का मुकदमा चलाया गया जिसमें मुद्रक और संवाददाता को कारावास की सजा सुनाई गई। फिर भी पत्रिका अपनी निर्भीक नीति पर चलती रही। पत्रिका ने राष्ट्रीयता के पोषण और विकास में अग्रणी रूप से भाग लिया। 1875 ई. में जब बड़ौदा नरेश गायकवाड़ द्वारा अपने दरबार में अँग्रेज रेजीडेण्ट कर्नल फायरे को विष देने का प्रयास किया गया तो पत्रिका ने टिप्पणी की- ‘निष्कंटक राज्य करने के लिये एक अज्ञात कर्नल को विष देना, निःसंदेह एक समूचे राष्ट्र को नपुंसक बना देने की तुलना में एक छोटा अपराध है।’

इस प्रकार अमृत बाजार पत्रिका के प्रकाशन से भारतीय समाचार पत्रों के तेवरों में परिवर्तन दिखाई देने लगा। इसने भारतीय समाचार पत्रों के लिए एक आदर्श उपस्थित किया और राष्ट्रीयता की भावनाओं का प्रसार किया।

अन्य प्रांतों में पत्रकारिता का विकास

भारत के अन्य प्रान्तों में भी समाचार पत्रों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई। पंजाब के सिविल और मिलिट्री गजट तथा लाहौर के प्रसिद्ध पत्र ट्रिब्यून की स्थापना भी इसी समय हुई। ब्रिटिश ताज के शासन में भारत नवजागरण के पथ पर अग्रसर हुआ। नयी बौद्धिक चेतना ने भारतीयों को उत्साहित किया और वे समाज सुधार, शिक्षा के विकास, देश की राजनीतिक समस्याओं आदि अनेक प्रश्नों को सुलझाने में लग गये। इस दिशा में भारतीय समाचार पत्र, पत्रिकाओं ने अपूर्व योगदान दिया। भारतीय प्रकाशनों को वर्नाक्यूलर प्रेस (देशी छापाखाना) कहा जाता था। 1876 ई. में बम्बई प्रेसीडेन्सी से मराठी, गुजराती, हिन्दुस्तानी और फारसी के पत्रों की संख्या 62 थी, उत्तर-पश्चिमी प्रदेश से 60, बंगाल से 28 एवं मद्रास से तमिल, तेलगू, मलयालम तथा हिन्दुस्तानी में 19 समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे थे। इन समाचार पत्रों की अनुमानित ग्राहक संख्या लगभग एक लाख थी।

लॉर्ड लिटन का वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट

 भारतीय समाचार पत्रों में अँग्रेजी अधिकारियों के विरुद्ध निर्भिकता से समाचार प्रकाशित किये जाते थे। वायसराय लॉर्ड लिटन के कार्यकाल में 14 मार्च 1878 को वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट की घोषणा की गई। इस कानून के अनुसार सरकार को यह अधिकार मिल गया कि वह भारतीय भाषा के किसी पत्र के सम्पादक, प्रकाशक अथवा मुद्रक से यह इकरारनामा ले सकेगी कि वह अपने समाचार पत्र में कोई ऐसी बात प्रकाशित नहीं करेगा जिससे जनता में सरकार के विरुद्ध घृणा अथवा द्रोह की भावना फैल सकती हो। यदि कोई प्रकाशक अथवा सम्पादक इस कानून के अन्तर्गत कार्य नहीं करेगा तो उसे पहली बार चेतावनी दी जायेगी और दूसरी बार में पत्र की सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली सामग्री का प्रकाशन के पूर्व ही सरकारी अधिकारियों द्वारा सेंसर करने का प्रावधान भी रखा गया। इस कानून ने भारतीय समाचार पत्रों की स्वतंत्रता पर गहरी चोट की।

वर्नाक्यूलर प्रेस के सम्बन्ध में पारित किये गये इस अधिनियम का सर्वत्र विरोध हुआ। भारतीय समाचार पत्रों में इस अधिनियम की आलोचना में अनेक लेख लिखे गये। भारत सचिव लॉर्ड क्रेनबुक ने भी इसका विरोध किया। ब्रिटिश संसद में तत्कालीन उदार दल के नेता ग्लैडस्टोन ने इस कानून को समाप्त करने का एक प्रस्ताव संसद में रखा किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। भारत सचिव की कौंसिल के तीन सदस्य भी इस कानून के विरुद्ध थे। 1878 ई. में भारत सचिव लॉर्ड क्रेनबुक के प्रयत्नों से इस सम्बन्ध में एक नया विधेयक पारित करके, सेंसर से सम्बन्ध रखने वाले अंश को निकाल दिया गया। फिर भी कानून की कठोरता में विशेष अन्तर नहीं आया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस कानून का विरोध करते हुए इण्डियन एसोसियेशन की ओर से ग्लैडस्टोन को एक पत्र भेजा। ग्लैडस्टोन ने यह संशोधन रखा कि इस अधिनियम के अधीन जो कार्यवाही की जाये उसकी सूचना भारत सचिव व संसद को दी जाये। यद्यपि यह संशोधन स्वीकार नहीं हुआ परन्तु यह स्पष्ट हो गया कि संसद के काफी सदस्य इसके विरुद्ध हैं। भारत सचिव लॉर्ड क्रेनबुक ने कहा कि इसका पालन सोच-विचार कर करना चाहिए। जहाँ सरकार की आलोचना सुधार के उद्देश्य से की जाये, उसे निरुत्साहित नहीं किया जाये, क्योंकि भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों से सरकार को जन-साधारण की भावनाएं जानने का अवसर मिलता है।

भारतीय भाषाओं के कई समाचार पत्रों को लॉर्ड लिटन के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट का शिकार होना पड़ा। बंगाल के सोम प्रकाश का प्रकाशन बन्द हो गया। सरकार ने उसके प्रकाशकों को जमानत प्रस्तुत करने का आदेश दिया। इस कानून के कारण अमृत बाजार पत्रिका का रूप और कलेवर बदल गया। यह बंगला भाषा का पत्र था जो सप्ताह में दो बार प्रकाशित होता था। यह आरम्भ से ही विदेशी शासन के अत्याचारों के विरुद्ध तथा भारतीय नागरिकों के अधिकारों का समर्थक रहा। बंगाल के तत्कालीन गवर्नर सर एश्ले ने अखबार के मालिक बाबू शिशिर कुमार को प्रलोभन दिया कि यदि वे एश्ले के शासन की कड़ी आलोचना न करें और आलोचना करने से पहले पांडुलिपि उन्हें दिखा दें तो सरकार समय-समय पर उनसे सलाह लेगी और उनके अखबार की काफी प्रतियाँ खरीद लेगी। उस समय अमृत बाजार पत्रिका की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी परन्तु शिशिर कुमार ने कहा कि आप देश में एक ईमानदार पत्रकार तो रहने दीजिए। सर इडेन इस उत्तर से बहुत नाराज हुआ। उसने कहा- ‘मैं एक दिन तुम्हें जेल में ठूँस सकता हूँ और छः महीने में तुम्हें बोरी-बिस्तर बाँधकर जेसोर वापिस भेज सकता हूँ।’

शिशिर कुमार निर्भीक तथा चतुर पत्रकार थे। उन्होंने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के लागू होने की तिथि से एक सप्ताह पहले अर्थात् 21 मार्च 1878 को अमृत बाजार पत्रिका का अंक अँग्रेजी भाषा में प्रकाशित कर सर इडेन को मुँह-तोड़ जवाब दे दिया। स्वयं इडेन ने कहा था कि मुझे दुःख है कि अँग्रेजी भाषा के पत्र इस एक्ट के प्रभाव क्षेत्र में नहीं आते हैं।

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के प्रभाव से भारत में कुछ नवीन समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1857 ई. में मद्रास से द हिन्दू नामक समाचार पत्र प्रकाशित होने लगा। इससे पहले, मद्रास से केवल दो समाचार पत्र- द नेटिव पब्लिक ओपीनियन तथा मद्रासी प्रकाशित होते थे। जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर और वी. राघवाचार्य के सम्पादकत्व में प्रकाशित द हिन्दू ने राष्ट्रीयता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आरम्भ में यह साप्ताहिक पत्र था। 1883 ई. में यह सप्ताह में तीन बार प्रकाशित होने लगा और 1889 ई. में यह प्रतिदिन प्रकाशित होने लगा। अँग्रेज विद्वान ब्लंट ने द हिन्दू के सम्पादकों के सम्बन्ध में टिप्पणी की कि उनका स्तर लन्दन के समाचार पत्रों से किसी तरह कम नहीं था। आगे चलकर कस्तूरी रंगाचार्य आयगंर के सम्पादकत्व में द हिन्दू की प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई।

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट निरस्त

1880 ई. में इंग्लैण्ड में उदार दल की विजय हुई और ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री बने। वे वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के विरोधी थे। उन्होंने लॉर्ड रिपन को भारत का गर्वनर जनरल बनाकर भेजा। लॉर्ड रिपन भारतीयों के प्रति सहानूभूति रखते थे। 1881 ई. में भारत सचिव ने भारत सरकार को लिखा कि ऐसा कानून बनाये रखने का कोई लाभ नहीं है जिससे समस्त वर्गों को समान अधिकार न मिल सकें। लार्ड रिपन ने 7 दिसम्बर 1881 को इस कानून को रद्द कर दिया। इस अवसर पर दिये गये एक भाषण में उन्होंने कहा- ‘मुझे बड़ा संतोष है कि मेरे समय में ऐसे कानून को रद्द किया जा रहा है।’ अब केवल डाकखाने को यह अधिकार रह गया कि वह ऐसी सामग्री का वितरण करने से मना कर सकता था जिससे भेदभाव अथवा अशान्ति फैलती हो। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट की समाप्ति के पश्चात् भारतीय पत्रकारिता में और विकास हुआ।

बंगाली का योगदान

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का समाचार पत्र बंगाली, राष्ट्रीय विचारों तथा निर्भीक नीतियों के कारण अपने समय के समस्त समाचार पत्रों में अग्रणी हो गया। सुरेन्द्रनाथ द्वारा की गई तीखी आलोचना से सरकार नाराज हो गई और उसने दमन का सहारा लिया। 1883 ई. में बंगाली में कलकत्ता हाईकोर्ट के एक निर्णय पर कुछ टीका प्रकाशित हुई। यह टीका अँग्रेज न्यायाधीश द्वारा भारतीय रीति-रिवाजों के विरुद्ध कहे जाने को लेकर थी। इस टीका को लेकर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी पर अदालत का अपमान करने का वाद स्थापित किया गया और उन्हें दो माह का कारावास दिया गया। सुरेन्द्र बाबू ने इस अन्याय को स्वीकार करते हुए कहा- ‘मैं इसे अपने लिए गौरव समझता हूँ, क्योंकि जन-कर्त्तव्य का पालन करते हुए जेल जाने का सम्मान प्राप्त करने वालों में मैं अपने युग का प्रथम भारतीय हूँ।’

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की निर्भीकता और देशभक्ति ने देश में भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में नई चेतना उत्पन्न की। भारतीय पत्रकारों के समक्ष नये आदर्श स्थापित हुए। 19वीं शताब्दी के अन्त में बंगाल में कुछ नये पत्रों का प्रकाशन भी उल्लेखनीय है। इस समय बंगाल में बंगवासी और संजीवनी नामक दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित हुए। ये दोनों समाचार पत्र अपने समय के लोकप्रिय पत्र माने जाते रहे।

महाराष्ट्र में पत्रकारिता का विकास

इस समय महाराष्ट्र में भी पत्रकारिता का तेजी से विकास हुआ। पूना में उत्साही नवयुवकों द्वारा मराठी भाषा का दैनिक पत्र केसरी तथा अँग्रेजी भाषा का साप्ताहिक पत्र मराठा आरम्भ किये गये। इनमें आगरकर और बालगंगाधर तिलक के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। बालगंगाधर तिलक के समाचार पत्र केसरी का प्रकाशन 4 जनवरी 1881 को तथा मराठा का प्रकाशन 2 जनवरी 1881 को प्रारम्भ किया गया। लोकमान्य तिलक ने भारतीय पक्ष का जोरदार समर्थन किया। उन्होंने अपने पत्र में अंग्रेजी शासन की नीतियों की तीखी आलोचना की। 19वीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रीयता की जो नयी लहर महाराष्ट्र में उठी, उसके जन्मदाता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे। तिलक ने ‘स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है…..।’ का उद्घोष किया तथा अपने लेखों में विदेशी शासन से मुक्ति पाने का आह्नान किया। 1884-85 ई. में केसरी की बिक्री साढ़े चार हजार हो गई। इन पत्रों में राष्ट्रीय महत्त्व के समाचारों के साथ-साथ राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धित समाचार तथा लेख छपते थे। ब्रिटिश शासन की आलोचना के कारण 1897 ई. में तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। तिलक, अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक शिशिर कुमार को अपना गुरु मानते थे। तिलक ने कई बार स्वयं कहा कि वे अपने पत्रों में विशेषतः केसरी के संचालन में अमृत बाजार पत्रिका की नीति एवं पद्धति का पालन करते रहे हैं।

1885 ई. में इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के बाद भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में बम्बई के रास्तगुफ्तार , कलकत्ता के इण्डियन मिरर, मद्रास के द हिन्दू और पूना के मराठा तथा केसरी आदि कई भारतीय समाचार पत्रों के सम्पादकों तथा प्रतिनिधियों ने सक्रिय सहयोग दिया तथा सम्मेलन की गतिविधियों को राष्ट्रव्यापी प्रचार दिया। 1891 ई. में रामानन्द चटर्जी ने अँग्रेजी की सफल पत्रिका मार्डन रिव्यू का सम्पादन कर कीर्तिमान स्थापित किया। 1894 ई. में सच्चिदानन्द सिन्हा के प्रयत्नों से पटना में बिहार टाइम्स का प्रकाशन आरम्भ हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकाशित होने वाला अन्तिम जर्नल इण्डियन रिव्यू था। इसका प्रकाशन जनवरी 1900 में मद्रास के राष्ट्रवादी विचारधारा के सम्पादक जी. ए. नरेशन द्वारा किया गया। इसमें समकालीन पत्रिकाओं के भारतीय समस्याओं से सम्बन्धित अंश प्रकाशित किये जाते थे।

उन्नीसवीं सदी के अन्त में समाचार पत्र

19वीं शताब्दी में भारत में पत्रकारिता के विकास के तीन चरण थे-

 (1.) पहला चरण (1801 से 1817 तक): 19वीं शताब्दी के पहले दो दशकों में उदार यूरोपियन सम्पादकों द्वारा अँग्रेजी भाषा के पत्र-पत्रिका प्रकाशित किये गये जिनमें प्रशासनिक अधिकारियों की व्यक्तिगत बातें, नियुक्तियां तथा यूरोप के व्यापार आदि से सम्बन्धित समाचार छपते थे। इनमें प्रकाशित कुछ समाचारों के कारण उन समाचार पत्रों का सरकार से विवाद हुआ तथा उन्हें अपना प्रकाशन बन्द करना पड़ा। इन पत्रों का सबसे कमजोर पक्ष यह था कि इनकी प्रसार संख्या बहुत कम थी क्योंकि केवल अँग्रेजी शिक्षित लोग ही उन्हें पढ़ सकते थे।

(2.) दूसरा चरण (1818 से 1885 ई. तक): 1818 ई. में ईसाई मिशनरियों ने भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया। राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने इनका विस्तार किया। भारतीय भाषाओं में होने के कारण इन समाचार पत्रों से भारत में शैक्षणिक विकास, सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जागृति तथा धार्मिक आन्दोलनों के प्रचार-प्रसार में सहायता मिली। प्रबुद्ध भारतीयों ने इन पत्रों के माध्यम से सरकार से अपील की कि वह भारतीयों की दशा सुधारने का प्रयत्न करे। इस काल के भारतीय समाचार पत्रों का स्वर रचनात्मक था। वे सरकार से भारतीय समाज की विसंगतियों को दूर करने का आग्रह करते थे। बाद में उनका ध्यान कम्पनी शासन द्वारा किये जा रहे शोषण पर केन्द्रित हो गया। 1857 ई. की क्रांति के पश्चात् भारतीय समाचार पत्र विदेशी सरकार द्वारा किये जा रहे शोषण के विरुद्ध अधिक मुखर हो गये। हिन्दू पैट्रियट के सम्पादक हरिश्चन्द मुकर्जी को नौकरशाही तथा नीलहे साहबों द्वारा किये जा रहे भारतीय मजदूरों के शोषण के विरुद्ध लिखने के कारण सरकार के कोप का भाजन होना पड़ा। इस कारण 29 अगस्त 1861 को एक विशाल सभा का आयोजन किया गया जिसमें मुकर्जी के विरुद्ध कार्यवाही करने वाले अँग्रेज अधिकारी सर मारडेन्ट वेल्स की तीव्र भर्त्सना की गई।

(3.) तीसरा चरण (1885 एवं उसके बाद): 1885 ई. में इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के बाद भारतीय पत्रकारिता का तीसरा चरण आरम्भ हुआ। इस काल में राष्ट्रीयता की भावना का तेजी से विकास हुआ जिसे समाचार पत्रों ने स्वर प्रदान किया। इस काल के कतिपय एंग्लो-इण्डियन समाचार पत्रों- पायोनियर तथा द मॉर्निंग पोस्ट को छोड़कर लगभग समस्त भारतीय समाचार पत्रों में राष्ट्रीय भावना की नई लहर दिखाई देती है। कांग्रेस के अधिकांश प्रमुख नेता भी इस काल में समाचार पत्रों से सम्बद्ध रहे तथा उनके द्वारा इन समाचार पत्रों का उपयोग कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों के लिए किया गया। इस काल के समाचार पत्रों ने विदेशी शासन की आलोचना करने में संकोच नहीं किया। अमृत बाजार पत्रिका ने इस अवधि में कतिपय देशी राजाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकारी नीतियों की आलोचना की। विभिन्न समाचार पत्रों ने महाराजा मल्हारराव गायकवाड़, महारानी रींवा, बेगम भोपाल आदि के मामलों को विस्तार से छापकर जनता के समक्ष सरकारी नीति की पोल खोल दी। समाचार पत्रों ने गिलगिट प्रदेश पर अधिकार करने के सरकारी षड़यंत्र का भण्डाफोड़ किया। समाचार पत्रों द्वारा सरकारी नीति की आलोचनाओं के कारण सरकार ने 1889 ई. में एक कानून पारित किया। इसके बाद किसी समाचार पत्र को यह अधिकार नहीं रह गया कि वह शासन की गुप्त सूचनाओं अथवा दस्तावेजों के आधार पर कोई समाचार प्रकाशित करे। सरकार का आक्रोश केवल भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों पर था। इस पर भी भारतीय समाचार पत्र देश की सम-सामयिक समस्याओं के प्रति जागरूक बने रहे। 19वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में महाराष्ट्र व भारत के अन्य पश्चिमी भागों में भीषण अकाल पड़ा। इसके बाद प्लेग की बीमारी फैलने से सैकड़ों व्यक्ति प्रतिदिन मरने लगे। सरकार ने इस महामारी को रोकने के उपाय किये किंतु ये उपाय अपर्याप्त थे। इस कारण जनता को राहत नहीं मिली। सरकारी कर्मचारी भारतीयों के धर्म और सम्मान की भी उपेक्षा करने लगे। सरकार की नीति से जनता में इतना आक्रोश फैला कि पूना के प्लेग कमिश्नर की हत्या कर दी गई। समाचार पत्रों ने भी सरकार की नीति का घोर विरोध किया। सरकार ने उन समाचार पत्रों के विरुद्ध कार्यवाही की। केसरी में प्रकाशित एक लेख के लिये लोकमान्य बालगंगाधर तिलक पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें डेढ़ वर्ष का कारावास दिया गया। सरकार द्वारा समाचार पत्रों का दमन इस बात का प्रमाण था कि इस काल में भारतीय समाचार पत्र भारतीय हितों और राष्ट्रीयता की भावना का स्वर बुलंद किये हुए थे।

अध्याय – 41 : अँग्रेजी शासन की पहली शताब्दी में हुए विद्रोह

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अठारहवीं शताब्दी के मध्य में ईस्ट इण्डिया कम्पनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति में लग गई। उसे भारतीय शासकों एवं उनके परिवारों की फूट का लाभ मिला किंतु फिर भी स्थान-स्थान पर कम्पनी तथा उसके अधिकारियों को भारी विरोध एवं विद्रोहों का सामना करना पड़ा। कम्पनी का पथ अंगारों से भरा था जिस पर चलने के लिये दीर्घ कालीन योजना एवं असीम धैर्य की आवश्यकता थी। भारत के दुर्भाग्य से अंग्रेजों में ये दोनों गुण विद्यमान थे।

गंगा घाटी तथा दोआब के विद्रोह

1757 ई. की प्लासी विजय के बाद कलकत्ता में अँग्रेजों का आधार पर्याप्त सुदृढ़ हो गया और उनके लिये गंगा घाटी तथा दो-आब पर सैनिक नियंत्रण रखना सरल हो गया। फिर भी इस क्षेत्र में अँग्रेजों का तीव्र विरोध हुआ। 1778 ई. में जब वॉरेन हेस्टिंग्ज ने बनारस के राजा चेतसिंह से अधिक कर की माँग की तब राजा चेतसिंह ने इसका विरोध किया। 1781 ई. में जब वॉरेन हेस्टिग्ज ने चेतसिंह को बन्दी बनाने का प्रयास किया, तब चेतसिंह के सैनिकों और अधिकारियों ने उसकी रक्षा की तथा उसे भाग निकलने में सहायता दी। 1798 ई. में लार्ड वेलेजली ने अवध के नवाब वजीर अली को उसके चाचा साहिब अली के पक्ष में गद्दी त्यागने के लिए कहा, तब वजीर अली ने ब्रिटिश रेजीडेन्ट पर हमला करके उसकी हत्या कर दी और स्वयं भूमिगत हो गया। 1801 ई. में उसने अपनी छोटी सेना के साथ गोरखपुर में ब्रिटिश सेना से मुकाबला किया किन्तु उसे बन्दी बना लिया गया।

सन्यासी विद्रोह

1769-70 ई. में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। लोगों ने इस अकाल के लिये कम्पनी की नीतियों को दोषी माना। इसलिये शंकराचार्य के अनुयायियों और गिरि सम्प्रदाय के सन्यासियों ने जन-साधारण से मिलकर कम्पनी की कोठियों तथा खजानों पर आक्रमण किये। सरकार ने सन्यासियों को दबाने के लिये सेना भेजी किंतु अकाल से प्रभावित जमींदार, किसान, कारीगर तथा सैनिक भी सन्यासियों से मिल गये और उन्होंने कम्पनी के गोदामों तथा खेतों में खड़ी फसलों को लूटना आरम्भ कर दिया। यह आंदोलन 1780 ई. तक चला। वारेन हेस्टिंग्ज ने इसे मजबूती से कुचल दिया।

मद्रास और बम्बई प्रेसीडेन्सियों के विद्रोह

गंगा घाटी और दो-आब की अपेक्षा मद्रास और बम्बई प्रेसीडेन्सियों में हुए विद्रोहों को दबाने में अँग्रेजों को अधिक कठिनाई हुई। 18वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान और मद्रास प्रेसीडेंसी के अधिकारियों के बीच, दक्षिण भारत में प्रभुत्व स्थापित करने के लिए संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में जो भी विजयी होता उसे पूर्वी घाट के सेनापतियों, जिन्होंने विजयनगर साम्राज्य के अन्तिम वर्षों में, घाट के जंगलों तथा पहाड़ियों में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बना लिया था, को नियन्त्रण में रखना होता था। टीपू सुल्तान ओर अँग्रेजों के बीच हुए संघर्ष में अँग्रेज विजयी रहे किन्तु इस विजय के बाद उन्हें पूर्वी घाट के सेनापतियों को दबाने के लिये लम्बा अभियान चलाना पड़ा। 1799 ई. से 1801 ई. की अवधि में अँग्रेजों को एक साथ कई मोर्चों पर युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में रामनाथपुरम्, तिरूनेलवेली, डिंडुगल, कन्नड़ तथा मैसूर की सेनाओं ने अँग्रेजों से लोहा लिया। वे लोग इस संग्राम के माध्यम से भारत को अँग्रेजों से मुक्त कराकर उन्हें वापिस उसी समुद्र में धकेल देना चाहते थे, जिससे होकर वे आये थे। उनकी गुरिल्ला युद्ध पद्धति, उस प्रदेश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त थी। स्थानीय ग्रामीणों ने भी उन्हें हर प्रकार की सहायता दी। अमिलदारों की सरकारें स्थापित कर दी गईं और फ्रांस से सहायता हेतु सम्पर्क किया गया किन्तु यूरोप में युद्ध की गम्भीर स्थिति को देखते हुए नेपेालियन बोनापार्ट से सहायता की आशा करना व्यर्थ था। अँग्रेजों के लिए इस संघर्ष को दबाना कठिन हो गया। अंत में अँग्रेजों ने किलों को ध्वस्त करके बड़ी संख्या में लोगों को बंदी बना लिया और उनके नेताओं को मार डाला।

1792 से 1798 ई. की अवधि में मलाबार के शासकों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह किया किन्तु अन्ततः वे पराजित हुए। 1805 ई. में त्रावणकोर को अँग्रेजों ने अपना सहायक राज्य बना लिया। इस पर त्रावणकोर के दीवान ने रेजीडेन्ट के मकान पर हमला बोल दिया किन्तु अँग्रेजों ने दीवान और उसके सैनिकों को पकड़ लिया। 1817 ई. में मध्य भारत में अँग्रेजों ने मराठों को परास्त करने के बाद सागर और दमोह पर अधिकार कर लिया। वहाँ के कई ठाकुरों की जमीनें छीन ली गईं। 1842 ई. में जब अँग्रेजों की अफगानिस्तान में पराजय हुई तब इन ठाकुरों ने उत्साहित होकर विद्रोह का झण्डा बुलंद किया किंतु यह विद्रोह अधिक दिनों तक नहीं टिक सका। 1875 ई. में बुंदेलों में फिर से असंतोष भड़का। उसे भी दबा दिया गया।

राजपूताना के विद्रोह

1803-05 ई. की अवधि में भरतपुर, अलवर, जोधपुर आदि राज्यों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ सहायक संधियाँ कीं। भरतपुर ने लेक के विरुद्ध होलकर को सहायता देकर सहायक संधि को तोड़ दिया। इस कारण अंग्रेजों को भरतपुर पर आक्रमण करना पड़ा। जोधपुर के राजा मानसिंह ने राज्य की आंतरिक स्थितियों से उबरने के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि की किंतु वह अँग्रेजों का घोर विरोधी था। इस कारण अजमेर के पोलिटिकल एजेण्ट ने जोधपुर के विरुद्ध सैनिक अभियान किया। मानसिंह व्यर्थ के रक्तपात से बचने के लिये किला छोड़कर बाहर आ गया और कम्पनी के रेजीडेण्ट को किले की चाबियां सौंप दीं। अँग्रेजी सेना एक माह तक किले में रहकर लौट गई।

1817-18 ई. में राजपूताना के शासकांे ने अँग्रेजों से नये सिरे से अधीनस्थ सहायक सन्धियाँ कीं। अँग्रेज अधिकारियों द्वारा इन राज्यों के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप किये जाने से अँग्रेजों के विरुद्ध असंतोष उत्पन्न हो गया। जयपुर में जब अँग्रेजों ने राजमाता को अधिकारच्युत करने का प्रयास किया तो जयपुर में कप्तान ब्लैक की हत्या कर दी गई। कोटा में अँग्रेजों ने महाराव किशोरसिंह के विरुद्ध फौजदार झाला जालिमसिंह और उसके उत्तराधिकारियों के दावों का समर्थन किया, जिससे हाड़ा राजपूतों ने अपने राजा किशोरसिंह के पक्ष में अँग्रेजों के विरुद्ध शस्त्र उठा लिये। महाराव किशोरसिंह ने हाड़ा राजपूतों को साथ लेकर अँग्रेजों से युद्ध किया, जिसमें दो अँग्रेज अधिकारी मारे गये। अन्त में हाड़ा राजपूत पराजित हो गये। अँग्रेजों ने राजपूताना के सामन्तों को अधिकार विहीन करने का प्रयास किया जिससे सामन्ती वर्ग भी अँग्रेजों का घोर विरोधी हो गया।

मिदनापुर एवं तराई क्षेत्र के विद्रोह

आधुनिक उड़ीसा के सुदूर उत्तरी भाग में स्थित मिदनापुर के जंगलों में अँग्रेजों और किसानों के बीच कई संघर्ष हुए। पुराने शासकों ने तराई क्षेत्रों तथा मिदनापुर के पहाड़ी क्षेत्र के निवासियों को घाटवाली के माफी पट्टे दे रखे थे। इन पट्टों के बदले में वे घाटक्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखते थे। अँग्रेजों ने माफी के पट्टों को रद्द कर करके वहाँ सेना की नई भर्ती की। इस कारण रैयत से आजीविका का साधन छिन गया। 1799 ई. में मिदनापुर क्षेत्र में राजस्व वसूली में रियायत नहीं देने से बड़ा विद्रोह हुआ। अँग्रेेजों ने इस विद्रोह को कुचलने के बाद जंगल-महालों को मिदनापुर से अलग करके अलग जिला बना दिया। बंगाल एवं बिहार के बीच स्थित भागलपुर से लेकर राजमहल पहाड़ियों तक फैले हुए तराई क्षेत्र में 1870 ई. से 1903 ई. तक छोटे-बड़े कई विद्रोह हुए। 

ब्रह्मपुत्र घाटी के विद्रोह

इसी अवधि में ब्रह्मपुत्र घाटी के रंगपुर के सीमावर्ती क्षेत्र में उपद्रव भड़का। अकाल के समय में भी यहाँ से अधिक लगान की मांग की जाने लगी, जिससे क्रुद्ध होकर यहाँ की हिन्दू और मुसलमान रैयत ने 1783 ई. में लगान वसूली का ठेका लेने वाले इजारेदार और उसके एजेण्टों के विरुद्ध विद्रोह किया। पांच सप्ताह तक इजारेदार देवीसिंह कुछ न कर सका और उसकी एक न चली। रैयत में एक नौजवान धीरज नारायण था जिसके पिता ने 25 वर्ष पूर्व नवाब के कर वसूल करने वाले कारिन्दों के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया था। रैयत में एक नौजवान नूरूलद्दीन था। रैयत ने इन दोनों नौजवानों को अपना नेता चुन लिया। उन्होंने रंगपुर के सीमावर्ती क्षेत्र में अपनी सरकार स्थापित कर ली। धीरज नारायण को नवाब और नूरूलद्दीन को बख्शी बनाया गया। यद्यपि उन्होंने एक व्यक्ति को अपना नवाब मान लिया किन्तु उनका कहना था कि अपने नेता हम स्वयं हैं और हम न्याय लेकर रहेंगे। उन्होंने न केवल लगान देना बन्द किया बल्कि विद्रोह का खर्चा पूरा करने के लिए डींग खर्च भी वसूल करने लगे। लगभग दस हजार लोगों ने एकत्रित होकर कचहरी और कोतवाली पर हमला कर दिया। उन्होंने कम्पनी के अनाज भण्डार को जला दिया और देवीसिंह के एक एजेन्ट को मार डाला। बाद में वहाँ के अँग्रेज कलेक्टर ने उन्हें क्षमा करने का वादा नहीं निभाया तब एक बार पुनः विद्रोह फूट पड़ा। इस बार विद्रोहियों को निर्ममता से मारा गया तथा उन्हें रंगपुर से निर्वासित कर दिया गया। यद्यपि यह विद्रोह देवीसिंह के द्वारा अधिक लगान मांगने पर हुआ था, फिर भी अँग्रेजों की सहायता के कारण देवीसिंह का कुछ भी नुकसान नहीं हुआ।

हाथीखेड़ा का विद्रोह

1824 ई. में रंगपुर के दक्षिण में मैमनसिंह इलाके में किसानों का विद्रोह भड़क उठा। इस क्षेत्र के जमींदार विगत बीस वर्षों से अपनी जमींदारियों की सीमाओं के पुनर्निधारण के लिए झगड़ रहे थे। ब्रह्मपुत्र नदी के बहाव में परिवर्तन होते रहने से जमीन के आकार में परिवर्तन होता रहता था। इसके बावजूद रैयत से भारी लगान वसूल किया जाता था। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट हो रही थी। 1820 ई. से जमींदारों ने हाथीखेड़ा में बेगार को अनिवार्य कर दिया। किसानों ने बेगार करने से मना कर दिया। इस विद्रोह को हाथीखेड़ा का विद्रोह कहा जाता है। ब्रिटिश सरकार बर्मा के विरुद्ध चल रहे युद्ध में यहाँ से सेना भेजना चाहती थी। अतः ब्रिटिश सरकार ने यहाँ के जमींदारों से सड़कें बनाने को कहा। जमींदारों ने अपनी रैयत से मुफ्त मजदूरी (बेगार) करा कर सड़क का निर्माण कराना चाहा। किसानों ने टीपू नामक फकीर को अपना नेता बनाया। टीपू के पिता स्वर्गीय करमशाह के कुछ हिन्दू व कुछ मुसलमान अनुयायी थे। ये लोग अपने आपको पागलपंथी कहते थे। लोगों में अफवाह फैल गई कि अँग्रेजों व जमींदारों का शासन समाप्त होने वाला है और टीपू का शासन आरम्भ होने वाला है। अतः ब्रिटिश सेना के पहुंचने पर सशस्त्र किसानों ने उसका विरोध किया। इन किसानों को आदेश था कि वे जमींदारों को राजस्व अदा न करें। किसानों ने जमींदारों के मकानों पर आक्रमण किया और उनके जुल्मों के विरुद्ध अँग्रेजों से सहायता मांगी। 1825 ई. में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ किन्तु बर्मा युद्ध के समाप्त होते ही सड़क का निर्माण रुक गया तथा अँग्रेजों ने किसानों से वायदा किया कि वे लगान वसूली पर पुनः विचार करेंगे। इस पर विद्रोह शान्त हो गया। 1827 ई. में टीपू को गिरफ्तार कर लिया गया। 1833 ई. में जब किसानों ने देखा कि लगान वसूली में कोई रियायत नहीं दी जा रही है, तब पुनः सशस्त्र विद्रोह आरम्भ हो गया। बाद में रैयत ने मैमनसिंह में अपना एक कानूनी प्रतिनिधि और स्थायी प्रतिनिधि मण्डल नियुक्त करके ब्रिटिश शासन के प्रति विश्वास प्रकट किया।

अहोम विद्रोह

प्रथम बर्मा युद्ध के समय कम्पनी ने अहोम होकर अपनी सेना भेजी। युद्ध के बाद अँग्रेजों ने चालाकी से अहोम प्रदेश पर अधिकार करना चाहा। इस पर 1828 ई. में अहोम लोगों ने गोमधर कुंवर को अपना राजा घोषित कर रंगपुर पर चढ़ाई करने की योजना बनाई किंतु सरकार ने इसे विफल कर दिया। 1830 ई. में रूपचंद कोनार के नेतृत्व में पुनः रंगपुर पर आक्रमण की तैयारी की किंतु सरकार ने इसे भी विफल कर दिया। 1833 ई. में सरकार ने उत्तरी असम पुरंदरसिंह को और राज्य का एक हिस्सा अहोम राजा को दे दिया।

खासी विद्रोह

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बर्मा युद्ध में सेना भेजने के लिये असम और सिलहट के बीच एक सैनिक मार्ग बनाने की योजना बनाई तथा सैनिक मार्ग के लिये खासी पहाड़ियों के कामरूप और सिलहट पर अधिकार कर लिया। खासियों के राजा तीरतसिंह ने अँग्रेजों के इस कदम का विरोध किया और 1829-32 ई. में सरकार के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध आरम्भ कर दिया। उसने खासी, गारो, खामटी और सिंगपो लोगों की सहायता से उत्तर-पूर्वी सीमा पर चढ़ाई कर दी। सरकार ने सेना भेजकर आदिवासियों को हरा दिया और तीरतसिंह को पकड़ लिया। उससे कहा गया कि यदि वह ब्रिटिश शासन को स्वीकार कर ले तो उसका राज्य वापस लौटाया जा सकता है किंतु तीरतसिंह ने जवाब दिया- ‘एक साधारण स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में मर जाना अच्छा है, पर गुलाम होकर राजा होना अच्छा नहीं।’ इस पर राजा तीरसिंह को खासी राज्य से निर्वासित करके ढाका भेज दिया गया।

तमिल के कल्लारों के विद्रोह

मदुरै क्षेत्र के कल्लार लोग शताब्दियों से गाँवों में और राजमार्गों पर चौकीदारी का काम करते थे। उनमें से कुछ लोग दक्षिण भारत के 1799-1801 ई. के विद्रोह में अँग्रेजों के विरुद्ध हुए विद्रोह में सम्मिलित हुए थे। अतः उन्हें दण्डित करने के लिए अँग्रेजों ने उनके पुश्तैनी काम पर प्रतिबन्ध लगा दिया और उन्हें जरायमपेशा जाति घोषित कर दिया।

पायकों के विद्रोह

उड़ीसा तट की पहाड़ियों में खुर्द क्षेत्र के पायकों (पैदल सैनिकों) ने 1817 ई. में विद्रोह किया। इस कारण उनसे माफी की भूमि (कर-मुक्त जमीन) छीन ली गई।

मुक्तादारों के विद्रोह

आन्ध्र में गंजम, विशाखापट्टम, और गोदावरी जिलों के पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले मुक्तादारों (जमीदारों के मालगुजारी वसूल करने वाले सैनिक) ने विद्रोह किया क्योंकि अनेक पुराने जमींदारों की जमीनें नव-धनाढ्यों ने खरीद ली थी। 1844 ई. में जब कोल्हापुर नगर का शासन संभालने के लिए नये अधिकारी की नियुक्ति की गई तो वहाँ के किलेदारों ने उसका विरोध किया तथा उसे बन्दी बनाकर सरकारी दस्तावेज जला दिये और सरकारी खजाना लूट लिया।

आर्थिक कारणों से हुए विद्रोह

सरकार द्वारा नमक पर एकाधिकार स्थापित कर लेने से नमक उत्पादक क्षेत्रों में जबरदस्त आक्रोश हुआ। जब अँग्रेजों ने बर्मा को अधीन कर लिया, तब बीस वर्ष तक वहाँ कोई जुर्म नहीं हुआ किन्तु उसके बाद वहाँ चालीस वर्ष तक बराबर जुर्म होते रहे, क्योंकि इस दौरान किसानों की जमीनें छीनकर शहरों में रहने वाले जमींदारों को बांट दी गईं। इससे किसान दिन-प्रतिदिन गरीब होते चले गये। ब्रिटिश भारत में तथाकथित जुर्म उन किसानों एवं आदिवासियों द्वारा किये गये थे, जो गरीब हो गये थे या जिन्हें धोखे से बर्बाद किया गया था। जब ये जुर्म व्यापक क्षेत्र में फैल जाते थे तब उन्हें विद्रोह तथा उपरद्रव कहा जाता था। एक अनुमान के अनुसार 1783 ई. से 1900 ई. तक ग्रामीण क्षेत्रों में 110 उपद्रव हुए। इन उपद्रवों के पीछे जो शिकायतें थी उनका सम्बन्ध भू-राजस्व व्यवस्था, राजस्व की वसूली में बरती गई कठोरता और अनाज की बिक्री को नियमित करने से मना कर देने से था। 1844 ई. में बिक्री कर दुगुना किये जाने के विरोध में हजारों लोगों ने तीन दिन तक प्रदर्शन किया। सरकार ने आदेश वापस ले लिया। 1848 ई. में नाप-तौल के मानकीकरण के विरुद्ध प्रदर्शन हुए। मुद्रा सम्बन्धी मामलों में नये तरीके अपनाने के विरुद्ध कई नगरों में व्यापारियों ने हड़ताल की। 1810-11 ई. में बनारस में गृह-कर के विरोध में विरोध प्रदर्शन हुए।

अफीम और नील के किसानों द्वारा विद्रोह

बंगाल में ब्रिटिश अधिकारी बलपूर्वक अफीम की खेती करवाते थे। इसलिए बंगाल की बहुसंख्यक रैयत ब्रिटिश प्रशासकों से नाराज थी। कुछ लोग जमींदारों द्वारा लगाये गये अवैध करों से भी पेरशान थे। ऐसी स्थिति में फैराजी सुधारक नेता शरियतुल्ला के पुत्र दूधू मियां ने किसानों को विद्रोह के लिए संगठित किया। उसने बारसाल, जैसोर, पाबना, माल्दा और ढाका में खलीफा नियुक्त कर दिये। उसने किसानों को स्वयं अपनी पंचायतें गठित करने और ब्रिटिश न्यायालयों का बहिष्कार करने के लिये उकसाया। 1831 ई. में कलकत्ता के निकट बारसाल में टीटू मीर ने, जो एक जुलाहा था तथा एक जमींदार का लठियल रह चुका था, किसानों को विद्रोह के लिए संगठित किया। टीटू मीर को सैयद अहमद बरेलवी से, अँग्रेजों से स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की प्रेरणा मिली थी। बारसाल विद्रोह जमींदारों द्वारा लगाये गये दाड़ी कर और अँग्रेजी शासन के विरुद्ध था। किसानों ने एक नील फैक्ट्री पर हमला करके सारे दस्तावेज नष्ट कर दिये। 1837 ई. में फिर से विद्रोह हुए जिससे अँग्रेज काफी आतंकित हो गये। क्योंकि यह विद्रोह उस समय हुए जब अफगान सीमा पर स्वतंत्र राज्य स्थापित करने हेतु सैयद अहमद के नेतृत्व में एक बड़ा वहाबी आंदोलन चल रहा था। 1843 ई. और 1847 ई. में भी विद्रोह हुए। 1861 ई. में एक बड़ा विद्रोह हुआ। इस विद्रोह का प्रचार दीनबन्धु मित्रा द्वारा लिखे गये नाटक नील दर्पण द्वारा हुआ। एक अँग्रेज अधिकारी ने उस नाटक का अँग्रेजी में अनुवाद किया।

साम्प्रदायिक कारणों से विद्रोह

1766 ई. और 1791 ई. में जब मालाबार पर हैदरअली और टीपू सुल्तान का शासन था, तब मलाबार के हिन्दू जमींदार, जिन्हें जम्मी कहा जाता था, मुसलमानों के हमलों से तंग आकर दक्षिण की ओर भाग गये। उनकी जमींनों पर मोपला किसानों (मुसलमान किसानों) ने कब्जा कर लिया। 1796 ई. में जब यह क्षेत्र अँग्रेजों के नियंत्रण में आ गया तब जम्मी वापिस लौट आये और उन्होंने अपनी जमीनों पर अधिकार मांगा। अँग्रेजों ने जम्मियों को उनकी जमीनें लौटा दीं तथा उन्हें यह अधिकार दिया कि वे लोग उनकी जमीन पर खेती करने वाले किसानों अर्थात् रैयत को अपनी इच्छानुसार बेदखल कर सकते हैं। जम्मियों को यह अधिकार मलाबार क्षेत्र पर शासन करने वाले मैसूर के हिन्दू राजाओं के समय में भी मिला हुआ था। जम्मियों ने अपनी जमीनों पर अधिकार मिलते ही मनमाने ढंग से लगान की दरें बढ़ा दीं तथा जिन किसानों ने लगान नहीं दिया, उन्हें जमीनों से बेदखल कर दिया। इससे मोपला काश्तकारों ने जम्मियों के विरुद्ध हिंसक विद्रोह किया। 1836 ई. से 1840 ई. के मध्य जम्मियों पर सोलह बड़े आक्रमण हुए। 1840 ई. में यह विद्रोह चरम पर पहुंच गया। जिन लोगों ने इन हमलों में भाग लिया, उनमें से अधिकांश लोग सैयद अली और उसके पुत्र सैयद फजल से प्रभावित होने के कारण धार्मिक उन्माद से ग्रस्त थे। 1851 ई. में मोपलाओं का पुनः विद्रोह हुआ। इस विद्रोह के बाद सैयद फजल मलाबार से चला गया। 1854 ई. में अँग्रेजों ने अपराधियों के विरुद्ध कठोर कानून बनाये। इससे 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्रोहों की संख्या कम हो गई।

धार्मिक एवं सामाजिक कारणों से हुए विद्रोह

1813 ई. से पूर्व भारत में ईसाई मिशनरियों के आगमन पर रोक लगी हुई थी तथा उन्हें भारत में धर्म-प्रचार की अनुमति नहीं दी गई थी। 1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म-प्रचार की अनुमति दी गई, तब भी उन्हें प्रत्यक्ष रूप से सरकारी संरक्षण नहीं दिया गया। इस कारण मिशनरी पादरी, शिक्षा के माध्यम से अपने धर्म का प्रचार करने लगे। 1854 ई. के बाद जब गैर-ईसाई निजी स्कूलों को अनुदान देने का निर्णय लिया गया, तब ईसाई मिशनरी स्कूलों को भी सरकारी अनुदान दिया जाने लगा। जब सती-प्रथा को एक कानून द्वारा गैर कानूनी घोषित कर दिया गया तब कई हजार हिन्दुओं ने इस कानून के विरोध में कलकत्ता में प्रदर्शन किया। इस अवधि में विलियम बैंटिक द्वारा एक कानून बनाया गया जिसके अनुसार किसी व्यक्ति द्वारा धर्म-परिवर्तन कर लेने पर वह अपनी पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था। यह अप्रत्यक्ष रूप से ईसाई धर्म-प्रचार को प्रोत्साहन था। 1856 ई. में एक कानून द्वारा विधवा-विवाह की अनुमति दे दी गई। जब ब्रह्मा मेरिजेज एक्ट और सहवास-वय अधिनियम पारित किये गये तब मध्यम वर्ग के भारतीयों ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करके तथा याचिका देकर विरोध प्रकट किया। विरोध प्रदर्शन करने वाले यद्यपि समाज सुधारों के पक्ष में थे किन्तु वे यह नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार, कानून बनाकर सुधारों को लागू करे। 1837-38 ई. में जब अँग्रेजी भाषा को सरकारी भाषा बनाया गया, तब हजारों मुसलमानों ने इसका विरोध किया।

निष्कर्ष

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि ब्रिटिश शासन की पहली शताब्दी में भारत के विभिन्न भागों में अलग-अलग कारणों से विद्रोह हुए किंतु उनके मूल में कुछ कारण बिल्कुल स्पष्ट और एक जैसे थे। अँग्रेजों की नई प्रशासनिक व्यवस्था के कारण लोगों को उनके परम्परागत कामों से हटाया जा रहा था। भू-राजस्व में वृद्धि करके किसानों से जमीनें छीनी जा रही थीं। अधिकांश विद्रोह उस स्थिति में हुए जिनमें अकाल की स्थिति होने पर भी राजस्व में छूट नहीं दी गई थी और राजस्व वसूली में पूरी सख्ती बरती गई थी। 1857 ई. तक आते-आते समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं था जिसमें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असन्तोष की भावना न हो। यही कारण है कि 1857 ई. में भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध व्यापक सशस्त्र क्रांति हुई।

अध्याय – 42 : उन्नीसवीं सदी में किसान आन्दोलन प्रारम्भ होने के कारण

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भारत में किसानों की दुर्दशा का आरम्भ मुस्लिम आक्रांताओं के भारत आक्रमणों के समय हुआ। राजस्व वसूली के लिये मुस्लिम शासकों एवं उनके कारिंदों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों के कारण लाखों किसान अपनी खेतियां छोड़कर जंगलों में भाग जाते थे। उनमें से बहुत कम किसान फिर से लौटकर अपनी जमीनों पर खेती करते थे। इस कारण भारत में उपजाऊ धरती बेकार हो जाती थी तथा फसल की उत्पादकता भी बहुत कम थी।

ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन के बाद किसानों की दुर्दशा का नया दौर आरम्भ हुआ। 1764 ई. में बक्सर की लड़ाई में मिली विजय के बाद कम्पनी को बंगाल सूबे की दीवानी का अधिकार प्राप्त हुआ। इससे भू-राजस्व वसूली का अधिकार, बंगाल के नवाब के हाथों से निकलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों में चला गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी थी जिसे अपने असल और सूद के अलावा किसी और बात से मतलब नहीं था। इसलिये वह बंगाल के किसानों से भू-राजस्व प्राप्त करने की तो इच्छुक थी किंतु कृषि-भूमि की स्थिति या किसानों की स्थिति के बारे में चिन्तित नहीं थी। कम्पनी द्वारा तेजी से भू-राजस्व की मांग में वृद्धि की गई। इससे किसानों पर करों का बोझ पहले से भी अधिक हो गया।

वारेन हेस्टिंग्ज ने भू-राजस्व प्रशासन में कई तरह के बदलाव किये। उसका उद्देश्य कम से कम खर्चा करके अधिक से अधिक भू-राजस्व वसूल करना था। लार्ड कार्नवालिस द्वारा किये गये स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत जमींदार, किसानों का शोषण करने लगे। भू-राजस्व चुकाने में विलम्ब होने अथवा असफल होने पर किसानों को अत्याचारों एवं शारीरिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था। इस कारण जमींदारी प्रथा सामाजिक एवं आर्थिक शोषण की प्रतीक बन गई। बम्बई और मद्रास में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया गया किन्तु यह जमींदारी बंदोबस्त से भी अधिक बुरा सिद्ध हुआ। यहाँ जमींदार के स्थान पर प्रशासनिक कर्मचारी किसानों का शोषण करने लगे। पंजाब, आगरा, अवध आदि कुछ क्षेत्रों में महलवाड़ी बन्दोबस्त लागू किया गया। यह जमींदारी व्यवस्था का ही संशोधित रूप था। अँग्रेजों ने भू-व्यवस्था के सम्बन्ध में जितने भी प्रयोग किये, उन सब में किसानों के हितों की उपेक्षा की गई। ब्रिटिश सरकार ने किसानों को कोई संरक्षण नहीं दिया। न ही कृषि में सुधार करने का प्रयास किया। इस कारण कई स्थानों पर किसान आन्दोलन उठ खड़े हुए।

भारत में किसान आन्दोलनों के कारण

भारत में किसान आंदोलनों के उठ खड़े होने के कई कारण थे-

(1.) अँग्रेजों की कठोर भू-राजस्व नीतियाँ

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की भू-राजस्व नीतियाँ अत्यन्त कठोर थीं। इनके कारण किसानों का सर्वस्व छिन गया। 1793 ई. में बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त के माध्यम से किसानों से भूमि का स्वामित्व छीनकर उन्हें अपनी ही जमीन पर किराएदार बना दिया गया। जमींदारों को लगान वसूली के असीमित अधिकार मिल गये। स्थायी बन्दोबस्त के माध्यम से औपनिवेशिक शासन ने राजस्व वसूली की जिम्मेदारी अपने ऊपर न रखकर, अपने लिये कनिष्ठ भागीदारों को सृजन किया। ये कनिष्ठ भागीदार जमींदार के रूप में सामने आये और अंत तक ब्रिटिश सत्ता के प्रति निष्ठावान बने रहे। दक्षिण भारत के कुछ प्रान्तों में रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त तथा अवध, आगरा एवं पंजाब सूबों में महलवाड़ी बन्दोबस्त आरम्भ किये गये। ये बंदोबस्त भी औपनिवेशिक शासन के उतने ही पैने हथियार थे जितना कि स्थायी बंदोबस्त। महलवाड़ी व्यवस्था जमींदारी प्रथा का ही संशोधित रूप थी। इस व्यवस्था में जमींदारी प्रथा के समस्त दोष विद्यमान थे जिससे किसानों की स्थिति खराब होती चली गई।

(2.) लगान दर की अधिकता

प्रत्येक प्रकार के राजस्व बंदोबस्त में लगान की दर बहुत ऊँची थी। किसान जितना उत्पादन करता था, उसका दो-तिहाई हिस्सा उसके हाथ से निकल जाता था। जो कुछ बच पाता था, उसी से या फिर ऋण लेकर गुजारा करना पड़ता था। पूर्व में किसान अपनी भूमि के स्वयं स्वामी थे किन्तु अब वे जमींदार की भूमि पर खेती करने वाले काश्तकार बन गये। कुछ समय बाद जब उन्हें जमींदारों एवं साहूकारों ने भूमि से बेदखल कर दिया, तब वे भूमिहीन खेतिहर श्रमिक बन गये। ऐसे उत्पीड़न से किसानों में असन्तोष उत्पन्न होना स्वाभाविक था।

(3.) अवैध करों की अधिकता

जमींदार, ताल्लुकेदार और साहूकार, किसानों से बल-पूर्वक पथ कर, पर्वी कर , मेला खर्च, डाक खर्च   दाखिल खर्च , टोल खर्च  आदि अनेक प्रकार के अवैध कर लेते थे। अवैध करों को समय पर नहीं चुकाने पर भी किसानों तथा उनके परिवार की महिलाओं का घोर उत्पीड़न किया जाता था।

(4.) नये शोषक वर्गों का उदय

जमींदार के रूप में किसानों के लिये बड़े शोषक वर्ग का उदय हुआ। इनके शोषण चक्र ने अन्य शोषक वर्गों को जन्म दिया। बढ़े हुए लगान एवं अवैध कर चुकाने के लिये किसान नगद रुपया उधार लेने के लिए बाध्य हुआ। इस कारण समाज में साहूकार वर्ग का उदय हुआ। शहरों में रहने वाले जमींदारों ने किसानों से भू-राजस्व वसूली के लिए गांवों में अपने एजेन्ट नियुक्त किये। ये एजेन्ट उप-भूस्वामी बन गये। इस प्रकार बिचौलिये वर्ग का सृजन हुआ जो कानूनी और गैर-कानूनी तरीकों से किसानों का शोषण करने लगा। रैय्यतवाड़ी बन्दोबस्त में लगान वसूल करने का काम कलेक्टर को दिया गया। उसके कर्मचारी किसानों का शोषण करते थे।

(5.) किसानों का भूमिहीन श्रमिक बनना

जब किसान लगान नहीं चुका पाते थे तो उन्हें जमींदार द्वारा भूमि से बेदखल कर दिया जाता था। अधिकांश किसान, जमींदार के लगान तथा साहूकार के सूद को भरने के लिये स्वयं ही अपनी जमीनें बेच देते थे। जबरदस्त अकाल पड़ने पर भी लगान में कोई कमी नहीं की जाती थी। ऐसी स्थिति में किसानों के पास, कृषि छोड़कर मजदूरी करने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं था।

(6.) खेती की दुर्दशा

ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रांति से भारत के घरेलू उद्योग धन्धे लाभ का धन्धा नहीं रहे। भारत में अँग्रेजी फैक्ट्रियों में बना अच्छा और सस्ता सामान आयात होने लगा। इस कारण ढाका, मुर्शिदाबाद, सूरत आदि प्रख्यात भारतीय औद्योगिक नगर उजड़ गये। शहर के बुनकर, जुलाहे, दस्तकार, ठठेरे, लुहार, सुनार आदि पेट भरने के लिये गांवों की ओर भागे और खेती से जीविकोपार्जन करने का प्रयास किया। गांवों के भी घरेलू उद्योग तथा शिल्प नष्ट हो गये और ग्रामीण व्यवस्था, जो कृषि एवं लघु उद्योगों का मिश्रण थी, कृषि पर आधारित होकर रह गई। इससे खेती पर दबाव बढ़ा। खेतों का बंटवारा होने से खेत छोटे होते गये और पैदावार घटती चली गई। किसानों को आधा पेट खा कर रहने के लिये विवश होना पड़ा। इस विपन्नता का हल विद्रोहों एवं आंदोलनों से ही मिल सकता था। इस कारण किसान आंदोलनों को हवा मिली।

(7.) अनाज के स्थान पर व्यापारिक फसलों को प्रोत्साहन

1813 ई. के बाद ब्रिटेन में बढ़ते हुए औद्योगीकरण के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी। इसलिये किसानों को केवल वही फसलें उगाने के लिये विवश किया गया जिनकी ब्रिटेन की मिलों को आवश्कता थी। पूर्व-ब्रिटिश काल में भारत में ऐसी वस्तुओं का उत्पादन होता था जिनका प्रयोग स्थानीय स्तर पर उपभोग एवं विनिमय के लिए होता था किन्तु अब किसान केवल वे वस्तुएं उगाने लगा जिनका बाजार के दृष्टिकोण से अधिक मूल्य था। अब कई स्थानों पर एक सी फसलें उगाई जाने लगीं, जैसे- बंगाल में जूट, पंजाब में गेहूं और रुई, बिहार में अफीम, बम्बई में रुई तथा आसाम में चाय, बंगाल में नील, बनारस, बंगाल, मध्य-भारत और मालवा में अफीम तथा बर्मा में चावल। नगदी फसलों को उगाने के लिए सरकार किसानों को अग्रिम राशि देती थी। 1853 ई. के बाद नील, चाय, कॉफी, रबर आदि की खेती पर अत्यधिक बल दिया गया। इससे सरकार और व्यापारी वर्ग को तो लाभ हुआ किन्तु किसानों की गरीबी बढ़ गई। क्योंकि व्यापारी पहले तो किसानों को बड़े-बड़े सपने दिखाते थे किंतु फसल पकने पर उसे खेत में ही सस्ते दाम में खरीद लेते थे। किसान तुरंत रुपया मिलने की आशा में अपनी फसल मंडी में न ले जाकर खेत में बेच देता था। छः महीने बाद किसान को अपनी आवश्यकता के लिये, वही फसल बिक्री की कीमत से अधिक मूल्य देकर खरीदनी पड़ती थी। इस प्रकार किसान की कमाई का अधिकतर हिस्सा व्यापारी लूट लेते थे। इस लूट से दुखी किसानों में संगठन की भावना का विकास हुआ ताकि वे शोषणकर्ताओं का एकजुट होकर सामना कर सकें।

(8.) भूमिहीन किसानों की संख्या में वृद्धि

एक तरफ तो भारतीय किसान अपनी जमीनों से बेदखल किये जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ अँग्रेजों को अपने चाय, कॉफी, रबर तथा नील के बागों में बड़ी संख्या में कृषि-श्रमिकों की आवश्यकता थी। अँग्रेज व्यापारी, दो-आब के मैदानों से बेदखल हुए किसानों को इन बागानों में काम करने के लिये ले गये जहाँ वे बंधुआ मजदूरों की तरह रहने लगे। ये लोग परस्पर निकट आ जाने के कारण संगठित होने लगे। इस कारण कई स्थानों पर छुट-पुट विद्रोह हुए।

(9.) किसानों की ऋण-ग्रस्तता

ज्यों-ज्यों ब्रिटिश सत्ता का विस्तार होता गया, सरकार का खर्च भी बढ़ता गया और लगान की दर में भी वृद्धि होती गई। प्रत्येक भूमि-बन्दोबस्त में लगान की दर बहुत ऊँची रखी गई। उदाहरणार्थ, स्थायी बन्दोबस्त में लगान दर 89 प्रतिशत थी। रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के प्रारम्भ में लगान दर 66 प्रतिशत थी किन्तु बाद में उत्पादन में कमी के कारण 45 से 55 प्रतिशत कर दी गई। अकाल की स्थिति में लगान चुकाने तथा अपने सामाजिक कार्यों के लिए साहूकारों से ऋण लेना पड़ता था। इस प्रकार किसान निरन्तर ऋण में ही डूबा रहता था। अँग्रेज अधिकारी, किसानों की ऋण-ग्रस्त्ता के लिये लगान, सूद एवं शोषण को जिम्मेदार न मानकर किसान की फिजूल खर्ची तथा सामाजिक उत्सवों में धन फूंकने की आदत को उत्तरदायी ठहराते थे। 1875 ई. में दक्षिण भारत के किसान विद्रोहों की जांच करने वाले कमीशन ने लिखा- ‘ब्याह-शादी और तीज-त्यौहार पर जो खर्चा होता है, इसे अनावश्यक महत्व दिया गया है। ………इस मद में किसान को काफी रुपया खर्च करना पड़ता है किन्तु ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि इस मद के खर्चों के कारण किसान कभी कर्ज में फंसा हो।’

(10.) साहूकार की मनोवृत्ति में विकृति

ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन आरम्भ होने से पहले गांव में साहूकार अपने आसामियों की स्थिति का ध्यान रखकर काम करता था। अर्थात् शादी, गमी या अकाल के समय वह अपने आसामियों के प्रति उदारता का प्रदर्शन करता था तथा ऋण वसूलने के लिये किसान की भूमि छीनने का प्रयास नहीं करता था किन्तु ब्रिटिश कानून के अंतर्गत ऋणग्रस्त किसान को जेल में बन्द किया जा सकता था तथा उसकी भूमि जब्त की जा सकती थी। पुलिस और अदालत साहूकार का साथ देते थे। साहूकार ने किसान को कितना कर्ज दिया, कितना सूद लिया और कितना मूलधन चुकाया, इसका हिसाब साहूकार अपने बही-खाते में मनमाने ढंग से लिखकर किसान को अपने चंगुल में फंसाये रखता था। सरकार की तरफ से किसानों को कोई संरक्षण नहीं दिया गया। 1858 ई. के बाद सरकार ने कुछ कानून बनाये किन्तु उन्हें ढंग से लागू नहीं किया गया। ऐसी स्थिति में किसानों में असन्तोष बढ़ना स्वाभाविक था।

(11.) कृषि के उन्नयन से सरकार की विमुखता

ब्रिटिश सरकार ने कृषि के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया। किसान अपने पुराने उपकरणों- तथा हल-बैल की जोड़ी से छोटी-छोटी जोतों पर खेती करता रहा। यही कारण है कि 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब भयंकर अकाल पडे़ तब हजारों किसानों को अपने प्राण गंवाने पड़े। लाखों किसान पूरी तरह बर्बाद हो गये। कार्ल मार्क्स ने लिखा है- ‘भारत में अँग्रेजों ने अपने पूर्वाधिकारियों से विरासत में मिले अर्थ तथा युद्ध विभागों की जिम्मेदारी तो अपने ऊपर ओढ़ी, मगर सार्वजनिक निर्माण के कार्यों की जिम्मेदारी से उन्होंने लापरवाही बरती। खेती के पतन का यही कारण था…..।’ 1838 ई. में जी. थाम्पसन ने, 1854 ई. में सर आर्थर कॉटन ने और 1858 ई. में मोंटगोमरी तथा जॉन ब्राइट ने सार्वजनिक निर्माण कार्यों के प्रति कम्पनी की उदासीनता का उल्लेख किया है।

(12.) किसानों के पास पूंजी का अभाव

1879 ई. में प्रकाशित सर जेम्स केर्ड की रिपोर्ट में कहा गया है- ‘देश के विभिन्न हिस्सों में बहुत सी अच्छी जमीनें बेकार पड़ी हैं, जिन पर जंगल उगे हुए हैं। उसे साफ करके खेती योग्य बनाया जा सकता है। इसके लिए पूंजी की आवश्यकता है। लोगों के पास बहुत कम पूंजी है, जो ऐसे कामों में लगा सकें।’ इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि पूंजी के अभाव में लोग इतने लाचार थे कि वे चाहकर भी भूमि को साफ करके उसे फिर से खेती योग्य नहीं बना सकते थे। किसानों के पास पूंजी का इतना अधिक अभाव था कि वे भूमि की ऊर्वरता बनाये रखने में असफल हो गये। फसलों का बचा हुआ डंठल व भूसा पशुओं को खिलाया जाता था तथा पशुओं से प्राप्त गोबर घरों में जलाया जाता था। इस कारण खेतों में डालने के लिये खाद भी नहीं बचती थी। भूमि की ऊर्वरता घटने से उपज में भारी कमी आ गई जिसने अकालों की भयावहता को बढ़ा दिया।

(13.) श्रमिक आंदोलनों का प्रभाव

ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत मजदूरों की स्थिति भी किसानों की स्थिति से अच्छी नहीं थी किन्तु औद्योगिक इकाइयों की संख्या बढ़ने के साथ ही श्रमिकों ने संगठित होना प्रारम्भ कर दिया। ट्रेड यूनियनों की स्थापना होने से श्रमिक अपने हितों के लिए संघर्ष करने लगे। विवश होकर सरकार को श्रमिकों की समस्या की ओर ध्यान देना पड़ा। उस काल में चल रहे विभिन्न श्रमिक आंदोलनों ने किसानों में भी नव-चेतना का संचार किया। इससे भारत के विभिन्न भागों में समय-समय पर कई किसान आंदोलन उठ खड़े हुए।

अध्याय – 43 : भारत में उन्नीसवीं सदी के प्रमुख किसान आन्दोलन

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1855 ई. से 1885 तक की अवधि में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक विद्रोह हुए। इनमें से कुछ प्रमुख आंदोलन इस प्रकार से हैं-

(1.) बंगाल के कृषक विद्रोह

बंगाल में संथाल कृषकों द्वारा किये गये आंदोलन को संथाल-विद्रोह तथा नील कृषक विद्रोह भी कहा जाता है। नील की खेती करने वाले अधिकतर किसान संथाल जनजाति के थे। आधुनिक रसायन उद्योग द्वारा नीले रंगों के निर्माण से सैंकड़ों साल  पहले भारतीय किसान नील (इण्डिगो) नामक एक पौधे की खेती करते थे। इस पौधे से नीला रंग बनता था जो सूती कपड़ांे को नीली चमक देता था। ब्रिटेन के वस्त्र उद्योग में भारतीय नील की बहुत मांग थी। इस कारण नील, ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापार का महत्वपूर्ण मद था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी एवं अँग्रेज व्यापारी, नील की खेती करने वाले संथालों पर बहुत अत्याचार करते थे। बागान मालिक ढाई बीघा भूमि को एक बीघा गिनते थे और नील के दो गट्ठर पौधों को एक गट्ठर मानते थे। यदि किसान मना करते तो बागान मालिक किसानों की फसलों को नष्ट कर देते थे, उनके परिवार उजाड़ देते थे, घर जला देते थे और उनके मवेशियों को जबरदस्ती लूटकर ले जाते थे या उन्हें पानी में डुबो देते थे। बागान मालिकों के इस पाशविक दमन के विरुद्ध किसानों में विरोध की भावना जोर पकड़ती जा रही थी। उन्होंने गाँव-गाँव में हथियारबन्द दस्ते गठित कर लिए। उनके अलग-अलग काम नियत करके उन्हें हर-सम्भव हथियारों से लैस कर दिया। बागान मालिक के कारिन्दे जब किसानों पर अत्याचार करने आते तो गाँव के सैकड़ों किसान लाठी-डंडा व अस्त्र-शस्त्र लेकर उन पर टूट पड़ते थे। इन आक्रमणों का बदला लेने के लिये बागान मालिक भी किसानों पर आक्रमण करने लगे। इस प्रकार ज्यों-ज्यों किसानों का विरोध बढ़ता गया, उनका दमन भी बढ़ता गया। संथाल किसानों ने शहरी मध्यम वर्ग से और कुछ मिशनरियों तक से व्यापक समर्थन जुटा लिया। दूसरी ओर राजा राममोहन राय और द्वारकानाथ टैगोर जैसे महत्वपूर्ण समाज-सुधारकों ने बागान मालिकों को सद्व्यवहार के प्रमाण-पत्र दे दिये क्योंकि ये सुधारक इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि अँग्रेज बागान मालिक, किसानों से दुर्व्यवहार कर सकते हैं, वे तो उन्हें सद्व्यवहारी ही मानते थे।

बंगाल के संथाल किसानों ने नील बागानों के मालिकों के साथ-साथ जमींदारों एवं साहूकारों के विरुद्ध भी विद्रोह किया। क्योंकि जमींदारों को उस जमीन पर मालिकाना हक दे दिया गया था जिस पर किसान हजारों साल से खेती करते आ रहे थे और साहूकारों ने ऋण न चुकने के आधार पर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करवा दिया था। संथाल इस शोषण के विरुद्ध उठ खड़े हुए। उन्होंने स्वयं को परम्परागत हथियारों से लैस किया और कलकता की तरफ कूच कर दिया ताकि अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए वे गवर्नर को एक याचिका दे सकें। रास्ते में एक इन्सपेक्टर ने उन्हें रोकने का प्रयास किया जिससे वे हिंसा पर उतारू हो गये। यह घटना संथाल विद्रोहों की शृंखला का आरम्भ था। ब्रिटिश सरकार ने निर्मम दमन-नीति का परिचय दिया। कुछ विद्धानों के अनुसार नील विद्रोह, चम्पारन, खेड़ा और बारदौली के किसाना आन्दोलनों को भी पीछे छोड़ देता है।

वहाबी रफीक मण्डन ने उत्तर बंगाल में नील विद्रोहियों का साथ दिया और मध्य बंगाल में विश्वास बन्धुओं ने उनका नेतृत्व किया। मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों ने अखबारों और मंचों से उन्हें सहारा दिया। हिन्दू पैट्रीयट के हरिशचन्द्र मुखर्जी ने उनके दुःखों का वर्णन किया और रांेगटे खड़े कर देने वाले कष्टों की कहानियाँ उजागर कीं। जसोर और नदिया से प्रकाशित समाचार पत्रों में बागान मालिकों के अत्याचारों की कहानियाँ लिखी गईं। ऐसे गीतों की रचना हुई, जिनमें बागान मालिकों तथा उनके गोरे सिपाहियों के प्रति घृणा व्यक्त की गई। दीनबन्धु मित्रा ने नील दर्पण नामक नाटक की रचना की। मधुसुदन दत्त ने इसका अँग्रेजी में अनुवाद किया। इन दोनों के विरुद्ध बागान मालिकों ने मुकदमे दायर किये। दीनबंधु मित्रा एवं मधुसूदन दत्त को एक महीने की कैद और एक हजार रुपया जुर्माना किया गया। इस मुकदमे से जनता में भारी उत्तेजना फैल गई।

एक बार लॉर्ड केनिंग ने नदी के रास्ते भ्रमण करते हुए देखा कि नदी के दोनों किनारे हजारों लोगों की भीड़ थी जो बहुत सम्मान और व्यवस्था के साथ केनिंग से न्याय माँग रही थी। इस पर लार्ड केनिंग ने सोचा कि जो लोग इस समझदारी के साथ व्यवहार कर सकते हैं, उनके साथ बर्ताव करने में बड़ी सावधानी की जरूरत है। सरकार ने नील विद्रोहियों को शान्त करने के लिए तुरन्त उपाय किये। वरिष्ठ एवं अनुभवी अधिकारियों को नदिया जिले में तैनात किया गया। वस्तु-स्थिति की रिपोर्ट देने के लिए एक जाँच आयोग की स्थापना हुई। इस जाँच आयोग के समक्ष ब्रिटिश अधिकारियों ने स्वीकार किया कि उन्होंने संथालों की निर्ममतापूर्वक हत्या की थी। जाँच आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी कि रैयतों की यह शिकायत कि खेती से उनको कोई लाभ नहीं होता और पेशगी की पद्धति जबरदस्ती-सी है, सही है। जाँच आयोग ने सिफारिश की कि संथालों को अत्याचारों से मुक्ति दिलवाई जाये। फलस्वरूप 1885 ई. में सरकार ने बंगाल काशतकारी अधिनियम पारित किया जिसने खोये हुए भू-धारण अधिकार और जमींदारों द्वारा लगान के रूप में एक निश्चित राशि वसूल करने की प्रथा को फिर से स्थापित किया। बागान मालिकों पर अंकुश लगाया गया। बाद में सरकार ने धमकी व डर के जरिये होने वाली नील की खेती की पद्धति को बन्द कर दिया तथा यह स्वीकार किया कि रैयत को खेती में स्वतन्त्रता होनी चाहिये।

(2.) मराठा किसानों का विद्रोह

एक ओर तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भू-राजस्व में वृद्धि, दूसरी तरफ अनावृष्टि तथा तीसरी तरफ सूदखोर साहूकारों के अत्याचारों ने मराठा किसानों को भी विद्रोह करने के लिए विवश कर दिया। जिस समय संथालों का विद्रोह चल रहा था, उसी समय मराठा किसान भी जमींदारों और साहूकारों के अत्याचारों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। मराठा किसानों ने स्थान-स्थान पर साहूकारों के मकान जला डाले, उनकी जायदाद एवं अन्य सम्पत्ति को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया तथा अपने ऊपर जुल्म ढाने वालों को और जो सरकारी अधिकारी उनकी सहायता के लिए आये उनको मार दिया। बम्बई प्रेसीडेंसी के कई जिलों- खेड़ा, अहमदाबाद और पूना में किसान विद्रोह हुए। मारवाड़ी साहूकार उनके क्रोध के विशेष रूप से शिकार हुए। किसानों का प्रमुख लक्ष्य साहूकारों के कब्जे से ऋण सम्बन्धी कागजात, इकरारनामे, डिग्रियाँ आदि नष्ट करना था। जिन स्थानों पर साहूकारों ने भयभीत होकर ये अभिलेख किसानों के हवाले कर दिये, उन स्थानों पर विद्रोही किसानों की भीड़ ने कम हिंसक कार्यवाही की किंतु जिन स्थानों पर साहूकारों ने ऐसा नहीं किया, उन स्थानों पर बड़ी हिंसक कार्यवाहियां की गईं। ब्रिटिश सरकार ने इन विद्रोहों को सख्ती से दबाया तथा किसानों के दंगों की जाँच के लिए एक आयोग नियुक्त किया। विद्रोहों का दमन करने के बाद सरकार ने दक्कन कृषक राहत अधिनियम पारित किया जिसमें प्रावधान किया गया कि मराठा किसानों को कर्ज न अदा कर पाने की स्थिति में बंदी नहीं बनाया जा सकता।

(3.) पंजाब का कूका आंदोलन

19वीं शताब्दी के मध्य में कूका आंदोलन ने ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया। पश्चिमी पंजाब में भगत जवाहरमल ने सिक्खों में फैली हुई कुछ कुरीतियों का अन्त करने के लिए कूका आन्दोलन का सूत्रपात किया था। 1863 ई. में नामधारी सिक्खों ने अपने नेता रामसिंह कूका के नेतृत्व में आन्दोलन चलाया जिसका लक्ष्य पंजाब में सिक्ख सत्ता की पुनर्स्थापना करना था। चूँकि उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध कूक (आवाज) उठाई थी, इसीलिये इसे कूका आन्दोलन कहा जाता है। कूकाओं ने पजंाब में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध एक समानान्तर हुकूमत कायम करने का प्रयास किया। जब कूकाओं ने हिंसक वारदातें आरम्भ कीं तब ब्रिटिश सरकार ने उनका दमन किया। सरकारी सैनिकों ने अनेक कूकाओं को मौत के घाट उतार दिया तथा रामसिंह कूका को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया जहाँ 1885 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार कूका विद्रोह शांत हो गया।

(4.) पंजाब के किसानों का विद्रोह

कूका विद्रोह के बाद पंजाब में किसानों का आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। पंजाब के किसान अपनी जमीनों पर साहूकारों का तेजी से कब्जा होते जाने की वजह से उत्तेजित थे। अँग्रेेजों की नीतियों के कारण साहूकारों से ऋण लेना पड़ता था। साहूकार ऋण के बदले में किसान की जमीन रेहन रखवा लेता था। 19वीं शताब्दी के सातवें दशक में खेतों के रेहन रखे जाने की संख्या चौंकाने की सीमा तक पहुँच गई। आरम्भ में सरकारी अधिकारियों के एक भाग ने, साहूकारों के हाथों में जमीन के हस्तान्तरण का स्वागत किया, क्योंकि उनके पास कृषि को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त उद्यम व पूँजी थी किन्तु कानून एवं व्यवस्था की गिरती हुई स्थिति, पश्चिमी पंजाब के गाँवों में बढ़ती हुई हिंसा, सिक्ख काश्तकारों का कनाडा एवं अमेरिका के लिए पलायन आदि कई ऐसे कारण थे जिन्होेंने अँग्रेज अधिकारियों को भूमि के इस हस्तान्तरण के बारे में फिर से सोचने के लिए बाध्य कर दिया। अँग्रेजों को भय हुआ कि यदि काश्तकारों का पलायन होता रहा तो इसका असर सैनिक सेवा में भर्ती पर पड़ेगा। कृषि में धन निवेश करने की दृष्टि से भी अँग्रेजों ने साहूकारों को उपयोगी नहीं माना, क्योंकि साहूकार केवल लगान व ब्याज पर कर्ज देकर संतुष्ट हो जाते थे। पश्चिमी क्षेत्रों में किसान, जमींदार और खेतिहर, मुसलमान थे जबकि साहूकार प्रायः हिन्दू बनिया थे। इस कारण कर्जदार और साहूकार के बीच संघर्ष ने साम्प्रदायिक रूप ग्रहण कर लिया। 1876 ई. में एस. एस. थार्नबर्न ने कहा कि साहूकारों के हाथों में भूमि के हस्तान्तरण को समय पर नहीं रोका गया तो अन्ततः इस देश में ब्रिटिश साम्राज्य का स्थायित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। पंजाब के अधिकारी व न्यायाधीश ग्रामीण असंतोष के बारे में बराबर अपनी रिपोर्ट भेजते रहे।

किसान साहूकारों के द्वारा लूटे जा रहे थे और उन्हें सरकारी संरक्षण की आवश्यकता थी किन्तु पंजाब में अँग्रेजों की चिंता राजनीति से प्रेरित थी। पंजाब, शाही ब्रिटिश सेना का भर्ती क्षेत्र था। ब्रिटिश सेना के पचास प्रतिशत कर्मचारी और सैनिक इसी क्षेत्र से थे। एक ओर पंजाबी व्यापारी एवं साहूकार किसानों की भूमियां हथिया रहे थे और दूसरी ओर उन्होंने पंजाब में आर्य समाज आंदोलन को तेजी से विस्तार दिया था। इस कारण अँग्रेज, पंजाबी व्यापारियों एवं साहूकारों के विरुद्ध हो गये। अँग्रेज अधिकारी, आर्य समाज को उग्र हिन्दुत्व का रूप मानते थे जो ब्रिटिश सत्ता का घोर विरोधी था। किसानों के असन्तोष को दूर करने के लिए सरकार ने 1900 ई. में भूमि अन्य-संक्रामण अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम के अनुसार पंजाब के लोगों को कृषक एवं अकृषक जातियों एवं वर्गों में बाँटा गया और यह प्रावधान किया गया कि किसानों की भूमि गैर-कृषक वर्ग को हस्तान्तरित नहीं की जा सकती। यह अधिनियम उस किसान आन्दोलन का परिणाम था जो लाला लाजपतराय और सरदार अजीतसिंह के नेतृत्व में चलाया गया था। इस अधिनियम से बड़े किसानों को बड़ा लाभ हुआ किन्तु छोटे किसानों को राहत नहीं मिली। पूर्व में साहूकार किसानों की भूमि हड़पते थे, अब उन्हीं की बिरादरी के सम्पन्न किसान उनकी भूमि हड़पने लगे।

(5.) पबना के किसानों का विद्रोह

वर्तमान में पबना का क्षेत्र बांगलादेश में है। 1872-73 ई. में पबना के किसानों ने भी विद्रोह किया। उनका विद्रोह मूलतः जमींदारों के अत्याचारों और जमींदारों के संरक्षक ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध था। इस आन्दोलन के दौरान किसानों ने जगह-जगह अपनी सभाएँ स्थापित कीं और अपने को संगठित व हथियारों से लैस किया। उन्होंने लगान-वृद्धि को रद्द करने, बेदखली को तुरन्त बन्द करने और जमींदारी प्रथा को समाप्त करने की माँग की किन्तु ब्रिटिश सरकार उनकी किसी भी माँग को मानने के लिए तैयार नहीं थी। इस कारण ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह को बड़ी क्रूरता से कुचल दिया।

(6.) असम में किसानों का विद्रोह

इस विद्रोह को कूकियों का विद्रोह भी कहते हैं। यह विद्रोह बेइमान साहूकारों, सूदखोरों तथा उनके संरक्षक अँग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध था। कूकियों ने आदिम हथियारों तथा पहाड़ी क्षेत्रों का लाभ उठा कर 1860-90 ई. के मध्य संघर्ष किया। असम के नौगांव जिले के फुलागुडी के आदिवासी किसानों का संघर्ष अफीम की खेती को सरकारी नियंत्रण में लाने और सरकार की आयकर तथा अन्य कर लगाने की योजना के विरुद्ध था। लम्बे संघर्ष के उपरांत कूकियों ने अँग्रेजी सेना के समक्ष समर्पण किया।

(7.) मोपला किसानों का विद्रोह

19वीं शताब्दी के दौरान कृष्णा तथा गोदावरी डेल्टा के किसानों तथा कर्नाटक एवं रायलसीमा के किसानों ने नई लगान व्यवस्था के विरुद्ध कई बार विद्रोह किये। किसानों की मुख्य शिकायतें इस प्रकार से थीं- (1.) अत्यधिक लगान की वसूली, (2.) सरकारी सरंक्षण तथा साँठ-गाँठ से साहूकारों द्वारा शोषण तथा (3.) सिंचाई के साधनों के विकास के प्रति सरकार की अकर्मण्यता। मलाबार क्षेत्र में मोपला लोग किसान और पट्टेदार थे। वे लोग चाय तथा कॉफी के बागानों में खेती करते थे। अधिकांश मोपला किसान मुसलमान थे, जबकि जमींदार और साहूकार प्रायः हिन्दू थे। मोपलाओं ने जमींदारों और साहूकारों के विरुद्ध विद्रोह किया। मोपला किसानों का आन्दोलन बाद में साम्प्रदायिक बन गया और उसमें हिन्दुओं को काफी क्षति उठानी पड़ी । सरकार ने सैन्य-बल से विद्रोह को कुचला किन्तु बाद में जब-जब देश में साम्प्रदायिक उपद्रव हुए, मोपलाओं ने भी विद्रोह किये।

(8.) पूना और अहमदनगर जिलों में आन्दोलन

अन्य प्रदेशों की भाँति बम्बई प्रदेश के किसान भी कर्ज में डूब गये और अत्यधिक निर्धनता के कारण उनका जीवन यापन दुष्कर हो गया। भारत के अन्य प्रदेशों की भाँति बम्बई प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में भी मारवाड़ी साहूकार चक्रवर्ती ब्याज की भारी दरों पर रुपया कर्ज देते थे। कर्ज लेने के लिए किसान अपनी कृषि भूमि अमानत के तौर पर साहूकार के पास गिरवी रखते थे। भारत सरकार द्वारा नियुक्त आयोग ने निष्कर्ष निकाला था कि सरकारी भूमि पर काश्त करने वाले किसानों में से एक-तिहाई लोग अपनी जमीनों के औसत वार्षिक उत्पादन की रकम से अठारह गुना अधिक कर्ज के बोझ से दबे हुए थे। इनमें से दो-तिहाई लोगों ने जमीन को गिरवी रखकर कर्जा लिया था। इस कारण अधिकांश लोगों की जमीनें साहूकारों को हस्तांतरित हो गईं। इन साहूकारों में मारवाड़ियों की प्रधानता थी। आर. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘कुछ मक्कार साहूकार तो ऋणग्रस्त किसानों, विशेषकर कुनबी जाति के किसानों को ऋणों के बोझ से राहत देने के लिए, उन्हें अपनी स्त्रियों की अस्मत का सौदा करने को बाध्य करते थे।’

1874 ई. में पूना जिले के सिकर ताल्लुक के करदा गाँव में एक साहूकार, न्यायालय से एक किसान के मकान की कुर्की की डिक्री लेकर आया तथा उसने बड़ी निर्लज्जतापूर्वक मकान पर अधिकार कर लिया। इस घटना ने ग्रामवासियों को साहूकार के विरुद्ध संगठित कर दिया। उन्होंने सर्वसम्मति से साहूकारों का सामाजिक एवं आर्थिक बहिष्कार कर दिया। घरों में पानी भरने वालों, नाइयों और अन्य घरेलू नौकरों ने साहूकारों को किसी भी प्रकार की सेवा देने से मना कर दिया। गाँव वालों ने साहूकारों के घरों के सामने कुत्तों की हड्डियाँ तथा अन्य गन्दी वस्तुएँ फेंककर साहूकारों को बुरी तरह से परेशान किया। इस उत्पीड़न से दुःखी होकर साहूकार गाँव छोड़कर चले गये। करदा गाँव की सफलता से उत्साहित होकर आस-पास के गाँवों में भी साहूकारों के विरुद्ध ऐसी ही कार्यवाहियाँ हुईं। उन गाँवों से भी साहूकार पलायन कर गये। 12 मई 1875 को सूपा गाँव में उपद्रवी भीड़ ने साहूकारों की दुकानों और मकानों में लूटपाट की और एक घर को जला दिया। इसके बाद अहमदनगर जिले के 33 गाँवों में हिंसक उपद्रव भड़क उठे और बड़े पैमाने पर साहूकारों के प्रतिष्ठानों तथा मकानों में लूटपाट की गई। इन उपद्रवों के बाद 951 लोगों को बन्दी बनाया गया जिनमें से 500 से अधिक व्यक्तियों को सख्त कारावास की सजा सुनाई गई। डॉ. मजूमदार के अनुसार इन उपद्रवों की चारित्रिक विशेषता कर्ज दने वाले सेठ-साहूकारों की सम्पत्ति की व्यापक पैमाने पर लूटपाट और उन पर प्राण-घातक प्रहार करना था, फिर भी, सामान्यतः हत्या जैसे क्रूर कृत्यों का सहारा नहीं लिया गया। लगभग प्रत्येक मामले में उपद्रवियों का एकमात्र उद्देश्य किसानों से लिखवाये गये बाण्ड्स, डिक्री आदि दस्तावेजों को जलाना अथवा अपने कब्जे में लेना था। हिंसा का प्रयोग उन्हीं साहूकारों के विरुद्ध किया गया जिन्होंने किसानों को दस्तावेज सौंपने से मना कर दिया। ऐसे साहूकारों को शारीरिक यातनाएं दी गईं तथा उनकी महिलाओं की इज्जत खराब की गई। 15 जून 1875 तक इस प्रकार की घटनाएँ जारी रहीं। इसके बाद छुटपुट घटनाएँ होने लगीं। 22 जुलाई 1875 को पूना जिले के निम्बूत गाँव में सात व्यक्तियों ने मिलकर साहूकारों के घरों में डकैती डाली तथा बलपूर्वक रेहन के कागजातों तथा अन्य कागजातों को अपने कब्जे में किया। एक साहूकार, जो न्यायालय से प्राप्त डिक्री की तामील करवा रहा था, की नाक काटकर फेंक दी। 10 सितम्बर 1875 को सतारा में कुकरूर नामक गाँव में लगभग 100 लोगों की भीड़ ने एक प्रमुख साहूकार के आवास पर धावा बोल दिया। मकान को बुरी तरह से लूटा और घर में मिले समस्त कागजों एवं बहीखातों को जला दिया।

इन दंगों के कारणों की जाँच करने के लिए भारत सरकार ने एक आयोग नियुक्त किया। आयोग ने सर्वसम्मति से निष्कर्ष निकाला कि किसानों की दरिद्रता और ऋणग्रस्त्ता ही इन दंगों का मूूल कारण है। आयोग ने अनुभव किया कि उपद्रव-ग्रस्त क्षेत्रों की रैयत की सामान्य स्थिति कर्ज में डूबे हुए व्यक्ति के समान है और उपद्रवों के पहले के बीस वर्षों में यह स्थिति धीरे-धीरे असहनीय होती गई। बीच के कुछ वर्षों में कपास की अच्छी फसल होने से ऋणग्रस्त्ता के बुरे परिणाम स्थगित रहे, किन्तु पिछले वर्षों में ये बुरे परिणाम और भी तीव्र गति से सामने आने लगे। आयोग ने इस सम्बन्ध में 1855 ई. के संथाल विद्रोह और 1845 ई. में भील सरदार रघु भांगरिया, जो कि बड़ी तादाद में अपने अनुयायी लुटेरों के साथ लूटमार करता था और साहूकारों के नाक, कान काटता था, के दृष्टांत भी दिये। अप्रैल 1871 और जुलाई 1875 के मध्य कैरा जिले में हिंसक उपद्रवों के दौरान नौ लोगों को मार डाला गया, 10 लोगों पर प्राणघातक हमले हुए, 36 लोगों को मारा-पीटा गया और 7 मकानों को लूटपाट के बाद जला दिया गया। ऋणग्रस्त तीन किसानों ने आत्महत्या कर ली ताकि साहूकारों के शोषण से मुक्ति मिल सके। आयोग के आँकड़ों के अनुसार 1871 ई. से 1874 ई. के मध्य अहमदनगर जिले में हत्या की 2 वारदातें, डकैती की 5 वारदातें, मकानों में तोड़-फोड़ की 7 घटनाएँ, उपद्रव की 3 और आगजनी की एक घटना हुई। पूना में 1873-74 ई. की अवधि में एक व्यक्ति की हत्या हुई और लूटपाट की 7 घटनाएँ हुई। पाँच वर्षों की अवधि में 77 गम्भीर मामले घटित हुए।

आयोग के एक सदस्य वेडर्नबर्ग का मानना था कि भारत में जिस सम्भावित उपद्रव की कल्पना की जाने लगी है, वह बम्बई प्रेसीडेन्सी में होने वाले कृषक विद्रोहों से मिलती-जुलती है। ये घटनाएँ छितराई हुई गैंग डकैतियों और साहूकारों पर हमलों से आरम्भ होती हैं। अन्त में जब बहुत सारे डकैत मिलकर कार्यवाही करने लगे तो पूना में नियुक्त पैदल, अश्वारोही और तोपखाना सेना को उनके विरुद्ध प्रयुक्त किया गया। ये डकैत दल पश्चिमी घाटों के जंगलों में घूमते रहते थे। सैनिक टुकड़ियों के आगमन की सूचना मिलते ही बिखर कर छिप जाते और बाद में पुनः एकत्रित हो जाते। रात्रि में महाबलेश्वर और माथेरान के पहाड़ी शिखरों पर उन्हें अलाव जलाते तथा खाना पकाते हुए देखा जा सकता था। ये लोग हिंसक कार्यवाहियों के बाद जंगलों में आश्रय लिये हुए थे तथा अवसर पाते ही दूर-दूर के गाँवों में साहूकारों पर टूट पड़ते थे। इन डकैतों पर नियंत्रण करने में सरकार को बहुत धन एवं समय व्यय करना पड़ा।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि किसानों के आंदोलन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गलत नीतियों के कारण हुए। कम्पनी द्वारा राजस्व प्रबंधन की तीनों पद्धतियों में राजस्व की दर बहुत ऊंची रखी गई थी। कारिंदों की मनमानी एवं लूट के कारण स्थिति और खराब हो गई थी। अकाल पड़ने पर भी लगान वसूली के लिये सख्ती की जाती थी। लगान वसूली की नई व्यस्था से इंग्लैण्ड की पद्धति के अनुसार भारत में नये जमींदार वर्ग का उदय हुआ। लगान भरने के लिये कर्जा लेने की मजबूरी के कारण साहूकार वर्ग का जन्म हुआ तथा जमींदारों के शहरों में रहने के कारण उनके प्रतिनिधियों के रूप में उप-भू-स्वामी वर्ग का उदय हुआ। इन लोगों ने किसानों पर भयानक अत्याचार किये ताकि अपना अस्तित्व बना रहे और ईस्ट इण्डिया कम्पनी का लगान चुकता रहे। एक ओर किसान पर ऋण बढ़ता जा रहा था और दूसरी तरफ भूमि की ऊर्वरा शक्ति गिरती जा रही थी तथा किसानों की जमीनें उनके हाथों से निकल कर साहूकारों के हाथों में जा रही थी। इन सब कारणों से भारत के विभिन्न भागों के किसानों को विद्रोह करने पड़े।

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