Friday, October 25, 2024
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अध्याय – 72 : भारतीय राजनीति में गांधीजी का योगदान – 7

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भारत छोड़ो आन्दोलन (1942 ई.)

भारत छोड़ो आन्दोलन के कारण

क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद कांग्रेस ने भारत छोड़ो आन्दोलन आरम्भ किया। चूंकि यह आंदोलन अगस्त माह में आरम्भ हुआ था इसलिये इस आन्दोलन को अगस्त क्रांति भी कहा जाता है। इस आन्दोलन को आरम्भ करने के कई कारण थे-

(1.) क्रिप्स मिशन की असफलता: कांग्रेस, भारत के लिये स्वराज चाहती थी परन्तु क्रिप्स के प्रस्ताव इस दिशा में अपर्याप्त थे। विंस्टन चर्चिल द्वारा सितम्बर 1941 में स्पष्ट किया जा चुका था कि वह ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्री नहीं बना था। उसने यह भी कहा कि एटलाण्टिक चार्टर में दिया गया आत्मनिर्णय का अधिकार भारत में लागू नहीं होगा। अतः क्रिप्स मिशन की असफलता से भारतीयों को पक्का विश्वास हो गया कि क्रिप्स मिशन को चीन तथा अमेरिका के दबाव के कारण भारत भेजा गया था, न कि भारत की समस्या सुलझाने के लिये।

(3) बर्मा से आये भारतीय शरणार्थियों से भेदभाव: बर्मा पर जापान के आक्रमण के बाद वहाँ से बड़ी संख्या में भारतीय एवं यूरोपीय लोग शरणार्थी के रूप में भारत आये। भारत की गोरी सरकार द्वारा भारतीय शरणार्थियों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया जैसे वे किसी घटिया जाति से सम्बन्धित हों। इसके विपरीत यूरोपियन शरणार्थियों को समस्त प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं। इससे भारतीयों को अँग्रेजी सरकार से और अधिक वितृष्णा हो गई।

(4) पूर्वी बंगाल में आतंक का वातावरण: बर्मा के पतन के बाद, अँग्रेजों को लगा कि अब जापान भारत पर आक्रमण करेगा। उसने जापान को पूर्वी बंगाल में रोकने की तैयारी की तथा सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बहुत सी भूमि पर अधिकार कर लिया। हजारों की संख्या में स्थानीय नावें नष्ट कर दी गईं ताकि जापानी सेना उनका उपयोग न कर सके। सरकार के इस कदम से हजारों परिवारों का रोजगार नष्ट हो गया और वे भूखों मरने लगे। उनमें सरकार के प्रति क्रोध और भी प्रबल हो गया।

(5) कीमतों में वृद्धि: द्वितीय विश्व युद्ध के कारण भारत के बाजारों से बहुत सी आवश्यक वस्तुएं गायब हो गईं तथा महंगाई अपने चरम पर पहुंच गई। इस कारण भारतीयों में अँग्रेज सरकार के प्रति अविश्वास की भावना अधिक गहरा गई।

(6) अँग्रेजों की अपराजेयता का मिथक भंग: यद्यपि अँग्रेज 1842 ई. में प्रथम अफगानिस्तान युद्ध में तथा 1900 ई. में बोअर युद्ध में करारी पराजयों का सामना कर चुके थे जिनसे उनकी अपराजयेता का मिथक भंग हो चुका था किंतु फिर भी उन्हें आम भारतीय द्वारा अपराजेय जाति माना जाता था। द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भिक वर्षों में जापान के हाथों ब्रिटेन की निरन्तर पराजय तथा सिंगापुर, मलाया, बर्मा आदि देशों पर जापान के अधिकार से भारतीयों के मन से अँग्रेजों की अपराजेयता का भय समाप्त हो गया। वे अँग्रेजों का हर तरह से सामना करने को तैयार थे।

(7.) जापनी आक्रमण का भय: गांधीजी सहित अधिकांश कांग्रेसी नेताओं को लगने लगा था कि भारत पर जापान का आक्रमण होने पर अँग्रेज भारत की रक्षा नहीं कर पायेंगे। उनका यह भी विश्वास था कि यदि अँग्रेज भारत में बने रहे तो जापान भारत पर अवश्य आक्रमण करेगा परन्तु यदि अँग्रेज भारत को भारतीयों के हाथ में सौंपकर चले जाये तो संभवतः जापान भारत पर आक्रमण नहीं करे और भारत युद्ध के विनाश से बच जाये। इसीलिए गांधीजी ने अँग्रेजों को भारत से निकल जाने को कहा।

5 जुलाई 1942 को गांधीजी ने हरिजन समाचार पत्र में लिखा- ‘अँग्रेजों भारत को जापान के लिए मत छोड़ो, अपितु भारत को भारतीयों के लिए व्यवस्थित रूप से छोड़कर जाओ।’

भारत छोड़ो प्रस्ताव को स्वीकृति

14 जुलाई 1942 को वर्धा में कांग्रेस की कार्य समिति ने भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित कर दिया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि यदि अँग्रेज भारत से अपना नियंत्रण हटा लें तो भारतीय जनता विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करने के लिए हर प्रकार से योगदान करने को तैयार है। इस प्रस्ताव पर अन्तिम निर्णय 7 तथा 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो प्रस्ताव कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार किया गया।

इस अन्तिम प्रस्ताव में कहा गया- ‘भारत में ब्रिटिश शासन का अंत तुरन्त होना चाहिए। पराधीन भारत, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का चिह्न बना हुआ है किन्तु स्वतन्त्रता की प्राप्ति युद्ध के रूप को बदल सकती है। अतः कांग्रेस भारत से ब्रिटिश सत्ता के हट जाने की मांग दोहराती है। यह मांग न मानी जाने पर यह समिति गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसात्मक संघर्ष चलाने की अनुमति प्रदान करती है तथा भारतीयों से अपील करती है कि इसका आधार अहिंसा हो…. सरकारी दमन नीति के कारण यदि गांधीजी का नेतृत्व उपलब्ध न रहे तो प्रत्येक व्यक्ति अपना नेता स्वयं होगा।’

नेताओं की गिरफ्तारी

भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने से बहुत पहले गांधीजी ने गवर्नर जनरल को एक पत्र लिखा किंतु गवर्नर जनरल ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। गांधीजी ने अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट तथा चीन के राष्ट्रपति च्ंयाग काई शेक को भी पत्र लिखे थे जिनमें उन्होंने कहा था कि वे जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहते। गांधीजी ने उनसे यह अनुरोध भी किया था कि वे भारत की स्वतन्त्रता के लिए इंग्लैण्ड पर दबाव डालें। गवर्नर जनरल लॉर्ड लिनलिथगो, भारत में बढ़ते हुए असन्तोष से सुपरिचित था। वह आन्दोलन आरम्भ होने से पूर्व ही उसे कुचल देना चाहता था। कांग्रेस महासमिति की बैठक भारत छोड़ो प्रस्ताव स्वीकृत करने के बाद, 8 अगस्त 1942 की अर्ध-रात्रि में समाप्त हुई। 9 अगस्त को सूर्योदय होने से पूर्व ही सरकार ने गांधीजी व कांग्रेस कार्यसमिति के समस्त सदस्यों को बम्बई में गिरफ्तार करके अज्ञात स्थान पर भेज दिया। कांग्रेस को फिर से असंवैधानिक संस्था घोषित कर दिया गया। गांधीजी और सरोजिनी नायडू को पूना के आगा खाँ पैलेस में नजरबंद किया गया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को पटना में गिरफ्तार करके वहीं नजरबन्द किया गया। कार्य समिति के अन्य सदस्य अहमद नगर के दुर्ग में नजरबन्द किये गये। नेताओं की अचानक हुई गिरफ्तारी से जनता भड़क उठी और विप्लव करने पर उतर आई। अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘राष्ट्र के नेताओं की इस गिरफ्तारी के विरुद्ध जन आक्रोश बिल्कुल उचित और स्वाभाविक था। ब्रिटिश साम्राजियों की चुनौती को उसने चुप रहकर बर्दाश्त नहीं किया। उसने रेलवे स्टेशनों पर हमले किये और रेल की पटरियां उखाड़ीं, थानों पर हमले करके उनमें आग लगाई, सड़कें काटीं और जो कुछ सरकारी था, उसे नष्ट करने की कोशिश की। जनता अपने गुस्से की आग में उन सब चीजों को नष्ट कर देना चाहती थी जिनका सम्बन्ध ब्रिटिश साम्राज्यियों से था।’

आंदोलन के दौरान हुई तोड़फोड़

भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार इस आन्दोलन के दौरान भारत में तोड़फोड़ की निम्नलिखित घटनाएं हुईं- (1.) आंशिक या पूरी तरह नष्ट किये जाने वाले रेलवे स्टेशन-250, (2.) आक्रान्त पोस्ट ऑफिस- 550, (3.) जलाये गये पोस्ट ऑफिस-  50, (4.) टेलीग्राम और टेलीफोन के तार काटे जाने की घटनाएं- 3500, (5.) जलाये गये पुलिस थाने- 70, (6.) अन्य जलाई गई सरकारी इमारतें- 1274.

जनता पर दमन की कार्यवाही

सरकार ने आंदोलनकारियों का क्रूरता से दमन किया। गिरफ्तारियां, लाठी-चार्ज और गोली-बारी सामान्य बात हो गई। नेताओं की गिरफ्तारी से जनता नेतृत्वहीन हो गयी। जेल जाने से पहले गांधीजी ने केवल इतना कहा- ‘यह मेरे जीवन का अन्तिम संघर्ष होगा।’ जेल जाने से पहले गांधीजी ने करो या मरो का नारा दिया था। जनता ने उसी को मूल मंत्र मान लिया। गांधीजी तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं ने जनता के लिये ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं छोड़ा था कि नेताओं को जेल में डाल दिये जाने के बाद जनता को क्या करना चाहिये। ऐसी स्थिति में कांग्रेस के शेष नेताओं ने कांग्रेस कमेटी की ओर से एक लघु पुस्तिका प्रकाशित की जिसमें 12 सूत्री कार्यक्रम दिया गया। इस पुस्तिका में सम्पूर्ण देश में हड़ताल करने, सार्वजनिक सभाएं करने, नमक बनाने, लगान न देने आदि बातों का उल्लेख किया गया था। इस आंदोलन की अवधि में 1 अगस्त 1942 से 31 दिसम्बर 1942 तक 60,229 लोगों को बंदी बनाया गया। 18,000 लोगों को भारत रक्षा कानून के अन्तर्गत नजरबन्द किया गया। 940 आदमी पुलिस या सेना की गोली से मारे गये और 1,630 लोग गोलियों से घायल हुए।

आन्दोलन का स्वरूप

कांग्रेस द्वारा 1942 के आन्दोलन की कोई तैयारी नहीं की गई थी और न ही आन्दोलन के संचालन की कोई रूपरेखा तैयार की गई थी। यह एक ऐसा आंदोलन था जिसकी घोषणा करने वाले जेल चले गये थे और जनता अपनी मर्जी से इसका संचालन कर रही थी। इस आंदोलन में मुख्यतः विद्यार्थियों, निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों तथा किसानों द्वारा भाग लिया गया। श्रमिकों ने इस आन्दोलन में बहुत कम भाग लिया। भारत छोड़ो आन्दोलन के चार चरण थे जिनका क्रमिक विकास हुआ।

आंदोलन का प्रथम चरण: आन्दोलन की प्रथम अवस्था 1 अगस्त से लेकर केवल तीन-चार दिन तक चली। इस अल्पावधि में देश भर में हड़तालें, प्रदर्शन, तथा जुलूसों का आयोजन किया गया। सरकार ने शान्तिपूर्ण विधि से आन्दोलन चला रहे लोगों को कुचलने के लिए पुलिस एवं सेना का उपयोग किया। इससे लोगों में सरकार के विरुद्ध आग भड़क उठी और वे हिंसा पर उतर आये।

आंदोलन का द्वितीय चरण: आंदोलन के दूसरे चरण में जनता ने सरकारी इमारतों तथा सम्पत्तियों पर आक्रमण किये। रेलवे स्टेशन, डाकखाने और पुलिस स्टेशनों को निशाना बनाया। तोड़-फोड़, लूटमार और आगजनी भी बड़े स्तर पर हुई। बलिया जिले में आंदोलनकारियों ने सरकारी शासन समाप्त करके अस्थायी सरकार स्थापित कर दी। आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने सेना का उपयोग किया जिसने लोगों पर भारी अत्याचार किये। इस चरण में जनता ने सरकारी सम्पत्ति को तो नुक्सान पहुंचाया किंतु पुलिस अथवा सेना पर आक्रमण बहुत कम हुए।

आंदोलन का तृतीय चरण: आंदोलन का तीसरा चरण सितम्बर 1942 के मध्य से प्रारम्भ हुआ। इस चरण में जनता ने पुलिस व सेना के अत्याचारों से क्षुब्ध होकर सरकारी सम्पत्ति तथा संचार तंत्र को भारी क्षति पहुंचाई तथा पुलिस एवं सेना पर भी सशस्त्र आक्रमण किये। बम्बई, संयुक्त प्रदेश और मध्य प्रान्त में कुछ स्थानों पर जनता ने बम फेंके। यह स्थिति फरवरी 1943 तक चलती रही।

आंदोलन का चतुर्थ चरण: आंदोलन का चौथा चरण बहुत ही धीमी गति से 9 मई 1944 तक चला। इस दौरान गांधीजी को रिहा कर दिया गया। लोगों ने तिलक दिवस और स्वतन्त्रता दिवस मनाये परन्तु तोड़-फोड़ और हिंसक वारदातों का दौर बन्द हो गया था।

भारत छोड़ो आंदोलन में जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली तथा उनके सहयोगियों ने उल्लेखनीय कार्य किया। किसानों और विद्यार्थियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

क्या यह कांग्रेस का आंदोलन था ?

अनेक इतिहासकारों का मत है कि 1942 ई. में कांग्रेस ने कोई आन्दोलन आरम्भ नहीं किया था। गांधीजी का तुरन्त आन्दोलन आरम्भ करने का कोई भी कार्यक्रम नहीं था। वे पहले रूजवेल्ट और च्यांगकाई शेक को पत्र लिखने वाले थे। वे सरकार को भी तीन माह का समय देने वाले थे। गांधीजी ने गृह विभाग के नाम लिखे 15 जुलाई 1943 के पत्र में इसका हवाला दिया था कि कांग्रेस ने कोई भी आन्दोलन आरम्भ नहीं किया। इसी प्रकार जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल और गोविन्द बल्लभ पंत ने 21 दिसम्बर 1945 को कांग्रेस की तरफ से एक संयुक्त वक्तव्य देकर कहा- ‘केाई भी आन्दोलन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी या गांधीजी द्वारा आरम्भ नहीं किया गया था।’

गांधीजी ने 23 सितम्बर 1942 को वायसराय को लिखा था– ‘लगता है कि कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी ने लोगों को गुस्से से इतना पागल बना दिया है कि वे आत्म-निंयत्रण खो बैठे हैं। उसके लिए सरकार जिम्मेदार है, कांग्रेस नही।’

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि अगस्त 1942 में आरम्भ हुआ भारत छोड़ो आंदोलन, कांग्रेस का आन्दोलन न होकर जन-साधारण का आन्दोलन था। बाद में कांग्रेस नेताओं ने 1942 की इन्हीं घटनाओं को कांग्रेस का आन्दोलन तथा अगस्त क्रान्ति कहा।

अन्य दलों का आन्दोलन के प्रति रुख

(1.) हिन्दू महासभा की नीति: हिन्दू महासभा भारत के लिये तत्काल स्वतंत्रता चाहती थी। भारत की तरफ बढ़ रही आजाद हिन्द फौज के महानायक सुभाषचंद्र बोस, हिन्दू महासभा के प्रधान वीर सावरकर को अपना मार्गदर्शक मानते थे। इसलिये सावरकर ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहते थे जिससे भारत में सुभाष बाबू की कठिनाइयां बढ़ें तथा सुभाष बाबू के भारत पहुंचने से पहले ही अँग्रेज, कांग्रेस को सत्ता सौंप दें। यही कारण था कि सावरकर ने ब्रिटिश सरकार की कटु आलोचना तो की किन्तु हिन्दुओं को इस आन्दोलन से दूर रहने को कहा।

(2.) मुस्लिम लीग की नीति: मुस्लिम लीग ने भी युद्ध काल में अँग्रेजों की सहायता करने की नीति अपनाई थी। अतः उसने इस आन्दोलन की तीव्र आलोचना की। कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद जिन्ना ने एक वक्तव्य देकर खेद प्रकट किया कि कांग्रेस ने सरकार के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा की है। ऐसा करते समय कांग्रेस ने सिर्फ अपना स्वार्थ देखा है, दूसरों का नहीं। जिन्ना ने मुसलमानों से अपील की कि वे इस आन्दोलन से बिल्कुल अलग रहें। 20 अगस्त 1942 को मुस्लिम लीग की कार्यसमिति ने एक लम्बा प्रस्ताव पारित करके कांग्रेस की कड़ी आलोचना की। इसमें कहा गया कि यह आन्दोलन केवल ब्रिटिश शासकों को ही नहीं अपितु मुसलमानों को भी दबाकर अपनी मांगें हासिल कर लेने की कांग्रेस की चाल है। कांग्रेस का एकमात्र उद्देश्य अपने लिए सत्ता प्राप्त करना तथा हिन्दू-राज्य की स्थापना करना है। मुस्लिम लीग ने 1943 ई. के कराची अधिवेशन में भारत छोड़ो के प्रत्युतर में नया नारा दिया- बाँटो और भागो।

(3.) साम्यवादी दल की नीति: साम्यवादी दल की नीति रूस के कार्यकलापों से प्रभावित होती थी। जब द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ था तो उन्होंने युद्ध को साम्राज्यवादियों का युद्ध कहा किन्तु जब रूस पर जर्मनी का आक्रमण हुआ और रूस, मित्र राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा हो गया तो साम्यवादियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध को जनता का युद्ध कहना आरम्भ कर दिया और भारतीय जनता से अँग्रेजों की सहायता करने को कहा। अतः उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन की निन्दा की।

(4.) उदारवादियों की नीति: उदारवादी नेता वैसे भी अँग्रेजों की सहानुभूति चाहते थे, न कि स्वराज। दंगा-फसाद और आंदोलन उनकी प्रवृत्ति से मेल नहीं खाते थे। इसलिये उदारवादियों के नेता सर तेजबहादुर सप्रू ने कांग्रेस के प्रस्ताव को अनीतिपूर्ण और असामयिक बताया।

(5.) एंग्लो-इंडियन्स की नीति: एंग्लो-इण्डियन लोगों के प्रवक्ता एन्थोनी ने आन्दोलन का विरोध करते हुए कहा कि अँग्रेजों से अपना पुराना बदला चुकाने के लिए, भारत को धुरी राष्ट्रों के हाथों बेचना ठीक नहीं हेागा।

(6.) अन्य पक्षों की नीति: दलितों के नेता डॉ. भीमराव अम्बेडकर, भारतीय ईसाईयों तथा अकाली दल ने भी कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया। इस प्रकार कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य किसी दल ने इस आन्दोलन का समर्थन नहीं किया।

आन्देालन का महत्त्व और परिणाम

भारत छोड़ो आन्दोलन एक व्यापक प्रभाव डालने वाला सिद्ध हुआ। 1857 की सशस्त्र क्रांति के बाद भारत में इतनी व्यापक क्रांति नहीं हुई। इसका कार्यक्षेत्र लगभग सम्पूर्ण भारत था। इसका स्वरूप राजनीतिक दल का आंदोलन न होकर जनता का स्वतः स्फूर्त आंदोलन हो गया था। इस कारण अँग्रेज, भारत में अप्रासंगिक हो गये लगते थे। शासक और जनता दोनों ही एक दूसरे को नष्ट करने पर तुले हुए थे। इस आन्दोलन में हजारों व्यक्तियों ने अदम्य साहस व सहनशीलता का परिचय दिया। लोगों ने करो या मरो की नीति अपनाई और सैकड़ों लोगों ने अपने जीवन का बलिदान कर दिया। अँग्रेजों ने देश में हिंसा भड़काने की सारी जिम्मेदारी गांधीजी पर डाल दी। गांधीजी ने इसका विरोध करने के लिए 10 फरवरी 1943 से 21 दिन का उपवास आरम्भ किया। 13 दिन बाद उनकी हालत खराब होने पर भी सरकार ने उन्हें छोड़ने से मना कर दिया। गांधीजी किसी तरह बच गये किन्तु 22 फरवरी 1944 को उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा का जेल में ही देहान्त हो गया। अन्त में जब लॉर्ड वेवेल भारत का नया गवर्नर जनरल बना, तब 6 मई 1944 को गांधीजी को रिहा किया गया।

इस आन्दोलन को दबाने के लिए पुलिस और सेना ने 538 बार गोलियां चलाईं। सैकड़ों लोग मारे गये और हजारों को जेलों में ठूँस दिया गया। यद्यपि यह आन्दोलन स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य में विफल रहा परन्तु इससे लोगों में सरकार से संघर्ष करने की शक्ति उत्पन्न हुई। इसने भारतीय स्वतन्त्रता के लिये पृष्ठभूमि तैयार की। इस आन्दोलन से अँग्रेजों को यह भलीभांति विदित हो गया कि अब भारतीय, उनका राज्य नहीं चाहते। इस आन्दोलन के फलस्वरूप अँग्रेज और मुस्लिम लीग एक-दूसरे के काफी निकट आ गये क्योंकि दोनों कांग्रेस के विरोधी थे। जिस समय जापान भारत पर आक्रमण करने को तैयार खड़ा था, उस समय अँग्रेजों के लिये जिन्ना की सहायता अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी।

इस आन्दोलन का विदेशों पर भी प्रभाव पड़ा। 25 जुलाई 1942 को च्यांग काई शेक ने रूजवेल्ट को लिखा- ‘अँग्रेजों के लिये सबसे श्रेष्ठ नीति यह है कि वे भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दे दें।’

रूजवेल्ट ने भी च्ंयाग काई शेक के विचार का समर्थन करते हुए चर्चिल को पत्र लिखा। इस पर चर्चिल ने धमकी दी कि यदि चीन भारत के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता रहा तो अँग्रेज, चीन के साथ अपनी सन्धि तोड़ देंगे। ब्रिटिश प्रशासन द्वारा किये जा रहे अनीतिपूर्ण बर्ताव के कारण अमेरिका और इंग्लैण्ड में जन-साधारण भी भारत की आजादी के पक्ष में हो गया।

असहयोग आन्दोलन की असफलता के कारण

असहयोग आंदोलन भी पूर्ववर्ती समस्त आंदोलनों की तरह असफल रहा। इस असफलता के तीन मुख्य कारण थे-

(1.) नेतृत्व, संगठन और योजना का अभाव: इस आन्दोलन में नेतृत्व, संगठन और योजना का नितांत अभाव था। आन्दोलन से पूर्व किसी भी तरह की रणनीति तैयार नहीं की गई। ऐसा लगता था जैसे कांग्रेस के नेता इस आंदोलन का नेतृत्व करने को तैयार नहीं थे। क्योंकि वे अहिंसा के पथ पर चलते हुए वह सब कुछ नहीं कर सकते थे जो इस आंदोलन के दौरान नेतृत्व-विहीन जनता ने कर दिखाया। इसलिये वे आंदोलन में संभावित हिंसा के आरोप से बचने के लिये आसानी से गिरफ्तार हो गये। उन्होंने गिरफ्तारी से बचने के लिये भूमिगत होने का रास्ता नहीं अपनाया। गांधीजी की यह धारणा सर्वथा गलत सिद्ध हुई कि आन्दोलन की चेतावनी देने पर, सरकार उनसे बातचीत करेगी तथा सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं करेगी। जिस प्रकार नेतृत्व के अभाव में 1857 की क्रांति विफल हो गई थी उसी प्रकार नेतृत्व के ही अभाव में अगस्त क्रांति भी विफल हो गई।

(2.) भारतीय कर्मचारियों की आंदोलन से दूरी: आन्दोलन के दौरान भारतीय सरकारी कर्मचारी, सेना, पुलिस और देशी राज्य, अँग्रेजों के प्रति वफादार बने रहे। अतः सरकार का काम-काज बिना किसी व्यवधान के चलता रहा। सरकार के वफादार सेवकों ने आन्दोलनकारियों पर भीषण अत्याचार किये। वफादार सरकारी तंत्र, आन्दोलनकारियों का सबसे बड़ा शत्रु सिद्ध हुआ।

(3.) आन्दोलनकारियों के पास साधनों का अभाव: सरकार के पास जितनी शक्ति और साधन थे, उतने आन्दोलनकारियों के पास नहीं थे। आन्दोलनकारियों के पास पुलिस, सेना, गुप्तचर विभाग, कोष, अस्त्र-शस्त्र कुछ भी नहीं था और न एक-दूसरे को सूचना पहुँचाने के साधन थे। जबकि सरकार के पास साधनों की कोई कमी नहीं थी। इस कारण सरकार ने सरलता से आंदोलन को कुचल दिया। यद्यपि यह आन्दोलन अँग्रेजों को भारत से बाहर निकालने में असफल रहा किन्तु भारतीय जनता के बलिदान व्यर्थ नहीं गये। 1945 ई. में सरदार पटेल ने इस आंदोलन के सम्बन्ध में कहा- ‘भारत में ब्रिटिश राज के इतिहास में ऐसा विप्लव कभी नहीं हुआ, जैसा पिछले तीन वर्षों में हुआ। लोगों ने जो प्रतिक्रिया की, हमें उस पर गर्व है।’

सरदार पटेल के उक्त कथन से स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में यह, आंदोलन मात्र नहीं था अपतिु विप्लव अर्थात् क्रांति था।

अध्याय – 73 : उग्र वामपंथी आन्दोलन – 1

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कांग्रेस के युवा नेताओं में गांधीजी की नीतियों के विरुद्ध निरंतर असंतोष सुलग रहा था जो हर आंदोलन के बाद बढ़ जाता था। जुलाई 1928 में प्रकाशित नेहरू रिपोर्ट में भारत के लिए डोमिनियन स्टेट्स (अधिराज्य का दर्जा) अर्थात् औपनिवेशिक स्वराज्य की मांग की गई जिसे ब्रिटिश सरकार ने ठुकरा दिया।

कांग्रेस दल के प्रगतिशील तत्त्व ने, जो गांधी की नीतियों एवं हठधर्मिता से व्यापक रूप से असन्तुष्ट था और जिसने कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना में पहल की थी, उसने 1929 ई. के लाहौर अधिवेशन में गांधीजी की इच्छा के विरुद्ध, डोमिनियन स्टेट्स के स्थान पर पूर्ण स्वराज्य की मांग की। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस का युवा एवं प्रगतिशील वर्ग, गांधीजी एवं उनके दक्षिणपंथी समर्थकों के हाथों से कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथों में लेने को आतुर था। इस कारण गांधीजी सहित सम्पूर्ण दक्षिणपंथी तत्त्व ने इच्छा न होने पर भी, तात्कालिक राजनीतिक वातावरण को देखते हुए, इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया ताकि कांग्रेस की कमान उनके हाथों से न खिसके। रजनी पामदत्त ने दोनों पक्षों के दृष्टिकोणों की व्याख्या करते हुए लिखा है- ‘दोनों गुटों में इस बात को लेकर साम्य बना रहा कि कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद दोनों के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।’

सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रथम चरण की समाप्ति के बाद 1931 ई. में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में दोनों गुटों के मतभेद पुनः उभर कर सामने आ गये। आन्दोलन के दौरान जनसाधारण ने जिस राजनीतिक जागृति का परिचय देते हुए अभूतपूर्व प्रदर्शन किया, उससे गांधी सहित समस्त दक्षिणपंथी नेता भयग्रस्त हो गये। कांग्रेस के प्रगतिशील तत्त्वों ने गांधीजी को सुझाव दिया कि वे सरकार से तब तक वार्त्ता करना स्वीकार न करें जब तक कि सरकार तीन क्रान्तिकारियों- भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी की सजा को रद्द करना स्वीकार न कर ले परन्तु गांधीजी ने उनके सुझाव की अनदेखी करके वार्त्ता जारी रखी और सरकार ने तीनों क्रान्तिकारियों को फाँसी पर लटका दिया। गांधीजी ने उनके प्राण बचाने के लिए न तो अनशन-उपवास किया और न ही आन्दोलन जारी रखा। इससे वामपंथियों को गहरा आघात पहुँचा। परिणाम स्वरूप जब गांधीजी और निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष सरदार पटेल, अधिवेशन में भाग लेने कराची पहुँचे तो उन्हें जबरदस्त जन-आक्रोश का सामना करना पड़ा। खुले अधिवेशन में भी दक्षिणपंथी नेतृत्व को जोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। फिर भी, कांग्रेस की एकता को स्थापित रखने तथा उसके विघटन को रोकने की दृष्टि से वामपंथियों ने इस मामले को अधिक नहीं खींचा क्योंकि इससे ब्रिटिश सरकार ही लाभ में रहती। फिर भी 1931 ई. के कराची अधिवेशन से एक बात स्पष्ट हो गई कि कांग्रेस के अंदर वामपंथियों की स्थिति कमजोर नहीं है और दक्षिणपंथी उनकी पूर्ण अवज्ञा करने की स्थिति में नहीं हैं।

कांग्रेस समाजवादी दल

कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व से असंतुष्ट कुछ कांग्रेसियों ने सर्वप्रथम 1931 ई. में उत्तरी बिहार में समाजवादी विचारधारा पर आधारित समाजवादी संघों की स्थापना की। 1932-33 ई. के दौरान सरकार ने अनेक कांग्रेसी नेताओं को नासिक केन्द्रीय जेल में बन्द कर रखा था। उनमें वामपंथी कांग्रेसी नेता जयप्रकाश नारायण मुख्य थे। उन्होंने अपने साथियों के विचार-विमर्श के बाद एक अखिल भारतीय समाजवादी दल का प्रारूप तैयार किया। इस प्रारूप को अन्य साथियों के पास भेजा गया। प्रारूप को काफी लोकप्रियता प्राप्त हुई और इसे अमल में लाने के लिए कांग्रेस के अन्दर ही समाजवादी दल की स्थापना का निश्चय किया गया।

अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘कांग्रेस महासमिति के सदस्य सम्पूर्णानन्द ने एक समाजवादी कार्यक्रम तैयार किया और 3 अप्रैल 1934 को जालपा देवी, बनारस सिटी से कांग्रेस के अन्दर के समाजवादी मित्रों के पास एक पत्र लिखकर भेजा गया। पत्र के अन्त में उन्होंने लिखा कि कांग्रेस महासमिति की बैठक पटना में 18-19 मई को हो रही है। मैं आशा करता हूँ कि वहाँ पार्टी बनाने के लिए मिलना संभव होगा।

17 मई 1934 को पटना में आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में कांग्रेस के समाजवादी नेताओं की बैठक हुई जिसमें जयप्रकाश नारायण, अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन, एम. आर. मसानी, डॉ. राममनोहर लोहिया, पुरुषोत्तम त्रिकमदास, यूसुफ मेहराने, गंगाशरणसिंह कमलादेवी चट्टोपाध्याय आदि नेताओं ने भाग लिया। इस बैठक में एक अखिल भारतीय संगठन बनाने का निश्चय किया गया और संगठन के कार्यक्रम एवं विधान तैयार करने के लिए एक समिति गठित की गई। अक्टूबर 1934 में बम्बई में अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया। जयप्रकाश नारायण को संगठन-सचिव और बम्बई अधिवेशन का महासचिव चुना गया।

कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना

21 अक्टूबर 1934 को बम्बई में कांग्रेस समाजवादियों का अखिल भारतीय सम्मेलन आरम्भ हुआ। इस सम्मेलन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का विधान और कार्यक्रम पारित किया गया। उसकी कार्यकारिणी चुनी गई और उसके केन्द्रीय मुखपत्र कांग्रेस सोशलिस्ट के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। विधान एवं कार्यक्रम में यह स्पष्ट कर दिया गया कि यह पार्टी कोई जनसंगठन नहीं बनायेगी अपितु कांग्रेस के भीतर रहकर ही काम करेगी। इस पार्टी की सदस्यता केवल कांग्रेसियों को ही प्रदान की जायेगी। इस अधिवेशन के बाद पार्टी को ई. एम. एस. नंबूदरीपाद, रजनी मुखर्जी, खेडगिकर, शेट्टी, तारकुंडे आदि अनेक नेताओं का सक्रिय सहयोग एवं समर्थन मिला परन्तु समाजवादी विचारों के लिए विख्यात जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस इस पार्टी से दूर रहे। गांधीजी के अन्यतम विश्वासपात्र होने के कारण नेहरू ने इस गांधी-विरोधी पार्टी से दूर रहना ही उचित समझा तो गांधी-विरोधी सुभाष ने इस पार्टी को समर्थन न देकर, इसे जीवित रखने के लिए, स्वयं को इससे दूर रखा। गांधीजी को इस पार्टी की स्थापना से प्रसन्नता नहीं हुई।

अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘1922 में राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ विश्वासघात का परिणाम स्वराज पार्टी का जन्म था और 1934 के विश्वासघात का परिणाम था कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म। स्वराज पार्टी को जन्म देने वाले दक्षिणपंथी थे किन्तु कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को जन्म देने वाले वामपंथी थे।’

कांग्रेस समाजवादी दल का लक्ष्य

कांग्रेस समाजवादी दल ने 21 अक्टूबर 1934 को बम्बई में आयोजित प्रथम अधिवेशन में पार्टी का लक्ष्य, भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता की प्राप्ति और समाजवादी समाज की स्थापना करना घोषित किया गया। कांग्रेस समाजवादी दल ने भारत के लिये संविधान निर्मात्री परिषद् के गठन की भी मांग की। दल के नेताओं का मानना था कि राष्ट्रीय आन्दोलन की सफलता के लिए मजदूरों एवं किसानों का सहयोग प्राप्त किया जाना आवश्यक है। कांग्रेस का दक्षिणपंथी नेतृत्व भी चाहता था कि मजदूर और किसान कांग्रेसी नेतृत्व के अन्तर्गत राष्ट्रीय संघर्ष में भाग लें। जयप्रकाश नारायण के समाजवादी धड़े और गांधीजी के दक्षिणपंथी धड़े के विचारों में मौलिक अंतर यह था समाजवादी धड़ा मजदूरों एवं किसानों की समस्याओं को प्रमुख मानकर उनके समाधान के माध्यम से देश की आजादी की ओर बढ़ना चाहता था जबकि कांग्रेस का दक्षिणपंथी नेतृत्व मजदूरों एवं किसानों की शक्ति का अपने हित में प्रयोग तो करना चाहता था परन्तु उनकी समस्याओं का समाधान करने में उतनी रुचि नहीं रखता था।

कांग्रेस समाजवादी दल का कार्यक्रम

1936 ई. में जयप्रकाश नारायण ने समाजवाद ही क्यों ? शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने कांग्रेस समाजवादी दल के उद्देश्यों तथा समाजवादी कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की। इस पुस्तक के अनुसार कांग्रेस समाजवादी दल के प्रमुख कार्यक्रम इस प्रकार थे-

(1.) देश की सत्ता का हस्तान्तरण समाज के उत्पादक वर्गों के हाथ में हो।

(2.) राज्य द्वारा देश के आर्थिक जीवन, उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के समस्त साधनों का क्रमिक राष्ट्रीयकरण हो।

(3.) विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार हो।

(4.) राष्ट्रीयकरण के बाहर वाले आर्थिक जीवन को चलाने के लिए सहकारिता समितियों का संगठन हो।

(5.) जागीरदारों, जमींदारों तथा अन्य समस्त शोषक वर्गोें का, बिना किसी मुआवजे के उन्मूलन हो।

(6.) किसानों के बीच भूमि का पुनर्वितरण हो।

(7.) किसानों में सहयोगी एवं सामूहिक खेती को प्रोत्साहन हो। 

कम्युनिस्टों को आमंत्रण

1935 ई. में भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा स्थापित करने की दृष्टि से कांग्रेस समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्टों के बीच एक समझौता हुआ। उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी को असंवैधानिक घोषित किया जा चुका था, फिर भी उसके कार्यकर्ता सक्रिय रूप से जन आन्दोलनों से जुड़े हुए थे। जयप्रकाश नारायण ने वामपंथी विचार से जुड़े लोगों को कांग्रेस समाजवादी दल में प्रवेश का निमंत्रण दिया। हजारांे की संख्या में कम्युनिस्टों ने समाजवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। कुछ ही समय में उन्होंने कांग्रेस समाजवादी पार्टी में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। संयुक्त मोर्चे ने ब्रिटिश सरकार को चिन्ता में डाल दिया।

कांग्रेस समाजवादी दल के प्रति कांग्रेसी नेतृत्व का रुख

कांग्रेसी नेतृत्व ने उस समय के राजनीतिक वातावरण से विवश होकर, कांग्रेस के अन्तर्गत कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना को मान्यता प्रदान की थी। प्रारम्भ में कांग्रेस समाजवादी दल ने भी केवल कांग्रेसी सदस्यों को ही पार्टी का सदस्य बनाना निश्चित किया था परन्तु कांग्रेस समाजवादी दल ने कुछ समय बाद ही सदस्यता सम्बन्धी धारा में संशोधन करके वामपंथियों एवं अन्य दलों के सदस्यों के लिए भी द्वार खोल दिया गया। इससे कांग्रेस का दक्षिणपंथी नेतृत्व, समाजवादियों से नाराज हो गया क्योंकि अन्य दलांे से आये अधिकांश सदस्य कांग्रेस की नीतियों के विरोधी थे। इसलिए कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व ने, विशेषकर गांधीजी ने समाजवादी दल की नीतियों और कार्यक्रमों का विरोध किया। इस सम्बन्ध में दो उदाहरण दृष्टव्य हैं-

(1.) कांग्रेस समाजवादी पार्टी; जागीरों, जमींदारों तथा अन्य समस्त शोषक वर्गों का, बिना किसी मुआवजे के उन्मूलन करने की मांग कर रही थी एवं इसकी पूर्ति के लिए कार्यक्रम तैयार करने में जुटी हुई थी। गांधीजी ने समाजवादियों की इस नीति का विरोध किया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने गांधीजी की नीति का समर्थन किया।

(2.) कांग्रेस समाजवादियों ने कांग्रेस महासमिति के गठन के बारे में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की चुनाव-पद्धति अपनाने तथा सदस्यों की संख्या बढ़ाने की मांग की। प्रत्युत्तर में कांग्रेस ने अपने बम्बई अधिवेशन में कांग्रेस प्रतिनिधियों की अधिकतम संख्या दो हजार कर दी और कांग्रेस कमेटी के सदस्यों की संख्या आधी कर दी। तर्क यह दिया गया कि इससे संगठन और अधिक सुदृढ़ होगा। इस अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष को कार्यसमिति के सदस्यों को मनोनीत करने का भी अधिकार दिया गया। स्पष्ट है कि गांधीजी कांग्र्र्र्रेस में समाजवादियों के बढ़ते हुए प्रभाव से प्रसन्न नहीं थे और कांग्रेस के प्रस्तावों के माध्यम से समाजवादियों को प्रभावहीन बनाना चाहते थे। समाजवादी दल के एक प्रवक्ता ने भी स्वीकार किया था कि इन प्रस्तावों का एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस में समाजवादियों के बढ़ते हुए प्रभाव को कम करना है।

कांग्रेस समाजवादी दल की उपलब्धियाँ

भारतीय इतिहास में कांग्रेस समाजवादी दल की उपलब्धियों की चर्चा बहुत कम होती है। उस पर निम्नलिखित आरोप लगते रहे हैं-

(1.) कांग्रेस समाजवादी दल, 1934 से 1947 ई. तक कांग्रेस के अन्तर्गत रहा। इतनी अल्प अवधि में किसी राजनीतिक दल से विशिष्ट उपलब्धियों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।

(2.) कांग्रेस समाजवादी दल ने समाजवादी दल होते हुए भी, समाजवाद के वैज्ञानिक पक्ष को अंगीकार नहीं किया।

(3.) इस दल के सदस्य अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं में विश्वास रखते थे जिनका प्रतिनिधित्व वे दल के मंचों पर निरन्तर किया करते थे। इस प्रकार, विभिन्न राजनीतिक विचारों से ग्रस्त समाजवादी दल, भिन्न विचारों की ऐसी खिचड़ी बन गया जिससे किसी परिणाम की आशा करना व्यर्थ था।

उपरोक्त तथ्यों के सत्य होते हुए भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस समाजवादी दल की कोई उपलब्धियां नहीं थी। इस दल की महत्वपूर्ण उपलब्धियां इस प्रकार से गिनाई जा सकती हैं-

(1.) लेनिनवादी विचारधारा को कांग्रेस पर हावी होने से रोकना: दल के संस्थापक सदस्यों ने भारत में समाजवाद लाने के लिए लेनिनवाद को अनावश्यक समझा और आर्थिक पृष्ठभूमि को बराबर सामने रखा। इस कारण वामपंथी तत्व कांग्रेस पर हावी नहीं हो सका।

(2.) अन्य दलों के प्रहारों से कांग्रेस को सुरक्षा कवच प्रदान करना: कांग्रेस के भीतर बने रहने और कांग्रेस के समस्त लोकप्रिय सिद्धान्तों को स्वीकार करते रहने का एक ही अर्थ था कि कांग्रेस को मजबूत बनाया जाये तथा अन्य राजनीतिक दलों के प्रहारों से उसकी सुरक्षा की जाये। अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि कांग्रेस के प्रभाव को बनाये रखने के लिये कांग्रेस समाजवादी दल ने अन्य राजनीतिक दलों के प्रहार से कांग्रेस को सुरक्षा-कवच प्रदान किया। यह कांग्रेस समाजवादी दल की बड़ी उपलब्धि थी। आचार्य नरेन्द्रदेव का यह कथन कांग्रेस समाजवादी दल की उपलब्धि को स्पष्ट रूप से उजागर करता है- ‘कांग्रेस समाजवादी दल का उद्देश्य कांग्रेस को नवजीवन देना था ताकि वह भावी समाजवादी समाज का लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो सके।’

(3.) युवा संस्थाओं एवं किसानों को कांग्रेस के प्रभाव में लाना: सविनय अवज्ञा आन्दोलन की विफलता के बाद से ही देश का किसान, मजदूर एवं युवा वर्ग, गांधीजी के नेतृत्व पर कम विश्वास करता था। इससे देश में कांग्रेस का प्रभाव कम होता जा रहा था। कांग्रेस समाजवादी दल के प्रयासों से किसान एवं युवा वर्ग पर कांग्रेस का आंशिक नेतृत्व पुनः स्थापित हो गया। मजदूर वर्ग के मामले में विशेष सफलता नहीं मिली, क्योंकि मजदूर संगठनों पर कम्युनिस्ट हावी थे। फिर भी, किसानों एवं युवाओं को कांग्रेसी नेतृत्व में लाना, कांग्रेस समाजवादी दल की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता है। समाजवादियों के प्रभाव के कारण ही कांग्रेस ने 1936 ई. के लखनऊ अधिवेशन में नवयुवकों, मजदूरों और किसानों को विशेष महत्त्व दिया तथा निश्चय किया गया कि कांग्रेस कार्यसमिति, देश के किसानों की स्थिति सुधारने के लिए काम करेगी।

कांग्रेस समाजवादी दल का विघटन

कांग्रेस समाजवादी दल के अधिकांश सदस्य भिन्न-भिन्न राजनीतिक विचार धाराओं से प्रभावित थे। वे इस दल को अपने-अपने अनुसार भिन्न दिशाओं में ले जाना चाहते थे। इनमें से कुछ लोग मार्क्सवादी-समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे तो कुछ फैबियनवादी विचारधारा से। कुछ नेता उदारवादी-समाजवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे। इस कारण इस पार्टी के संगठक तत्त्वों में गम्भीर राजनीतिक मतभेद थे। कम्युनिस्ट सदस्य, पार्टी में रहते हुए अपने स्वतन्त्र अस्तित्त्व को बनाये रखना चाहते थे और पार्टी का उपयोग कम्युनिज्म के प्रचार के लिए करना चाहते थे। जयप्रकाश नारायण यद्यपि मार्क्स के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे किंतु वे पार्टी को लेनिन तथा स्टालिन द्वारा निर्देशित साम्यवाद से दूर रखना चाहते थे। वे मूलतः कम्युनिस्ट विरोधी थे। कम्युनिस्टों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए ही उन्होंने कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की थी।

कांग्रेस समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को जानकारी मिली कि कम्युनिस्ट नेता, कांग्रेस समाजवादी दल के भीतर तोड़-फोड़ करके सदस्यों को अपनी ओर करने का गुप्त षड़यन्त्र कर रहे हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता मीनू मसानी ने कांग्रेस समाजवादी पार्टी के विरुद्ध कम्युनिस्ट षड़यन्त्र शीर्षक से एक दस्तावेज प्रकाशित करवाया। यद्यपि कम्युनिस्टों के प्रति तत्काल कार्यवाही नहीं की गई परन्तु संयुक्त मोर्चे में दरार अवश्य पड़ गई और कम्युनिस्टों के प्रति समाजवादियों का मोह भंग हो गया।

1937 ई. में समजावादी नेताओं द्वारा निर्णय लिया गया कि भविष्य में कम्युनिस्टों को कांग्रेस समाजवादी दल का सदस्य नहीं बनाया जायेगा किंतु वर्तमान सदस्यों को पार्टी में बने रहने दिया जायेगा। इस निर्णय से कम्युनिस्ट नाराज हो गये। 1940 ई. में कांग्रेस समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने कम्युनिस्टों को पार्टी से निष्कासित करने का निर्णय लिया। इसके बाद पुराने कम्युनिस्ट सदस्यों ने समाजवादी पार्टी से सम्बन्ध तोड़ लिये। मीनू मसानी, अशोक मेहता, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन आदि कई नेता कांग्रेस समाजवादी दल से अलग हो गये। ये नेता अच्छी तरह समझ गये थे कि वे कांग्रेस के भीतर बने रहकर कांग्रेस की नीतियों का जोरदार विरोध नहीं कर सकते थे। इस कारण कांग्रेस समाजवादी दल का विघटन हो गया।

1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अरुणा आसफ अली आदि के नेतृत्व में कांग्रेस समाजवादी दल ने कांग्रेस के कार्यक्रम को पूरा समर्थन दिया जबकि भारतीय कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति विरोधी रवैया अपनाया। कांग्रेस समाजवादी दल ने भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय भाग लेकर भारतीय जनता का हृदय जीत लिया।

1947 ई. में भारत को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् कांग्रेस समाजवादी दल का प्रभाव क्षीण होने लगा। इससे क्षुब्ध होकर कांग्रेस समाजवादी दल ने स्वयं को कांग्रेस से पृथक् कर लिया।

अध्याय – 74 : उग्र वामपंथी आन्दोलन – 2

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भारत में साम्यवाद का उदय एवं विकास

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, 1917 ई. में घटित, रूस की महान् अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति ने अन्तर्राष्ट्रीय इतिहास में एक एक नया युग आरम्भ किया। भारत भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। रूस की समाजवादी क्रान्ति ने हमारे स्वाधीनता संग्राम पर गहरा प्रभाव डाला। इसी प्रभाव के करण भारत में ट्रेड यूनियन, किसान आन्दोलन, छात्र और नौजवान संघ तथा कई छोटे-बड़े संघों ने नई दिशा ग्रहण की और कांग्रेस ने भी व्यापक जन-आन्दोलनों का सहारा लिया।

साम्यवादियों की प्रारंभिक प्रवृत्तियाँ

ब्रिटिश शासकों ने भारत को साम्यवादी विचारधारा से दूर रखने का अथक प्रयास किया था, फिर भी यह विचारधारा भारत में प्रवेश कर गई। युद्ध काल में जो भारतीय क्रांतिकारी; जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, तुर्की और अफगानिस्तान से अपनी गतिविधियां चलाते थे, वे रूस की अक्टूबर क्रांति से प्रभावित होकर साम्यवाद की ओर मुड़े। ऐसे क्रांतिकारियों में वी. चट्टोपाध्याय, एम. बरकतुल्ला, एम. एन. रॉय, अबनी मुखर्जी तथा आचार्य प्रमुख थे। प्रवासी सिक्खों और पंजाबी मजदूरों ने रतनसिंह और संतोष सिंह के माध्यम से मार्क्सवादियों एवं लेनिनवादियों से सम्पर्क स्थापित किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वाम पक्ष ने भी भारत में साम्यवाद को विकसित होने में सहयोग किया। फिर भी बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दो दशकों में वामपंथी आंदोलन की गतिविधियां, एक-दो पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों तक सीमित रहीं। इसी तरह अनेक प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों ने मास्को जाकर वहाँ के साम्यवादी नेताओं से सम्पर्क स्थापित किया। मई 1919 में भारतीय कार्यकर्त्ताओं का एक प्रतिनिधि मण्डल लेनिन से मिला। लेनिन की सलाह पर प्रवासी भारतीयों ने 17 अक्टूबर 1920 को ताशकन्द में हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया। एम. एन. राय, एवलिन ट्रेंट राय, ए. एन. मुखर्जी, रोजा फिटिगोफ, मोहम्मद अली (अहमद हसन), मोहम्मद शफीक सिद्दीकी और आचार्य एम. प्रतिवादी भंयकर इस पार्टी के प्रमुख नेता थे। हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी ने कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और लाहौर के कम्युनिस्ट विचारों के लोगों से सम्पर्क स्थापित किया और भारत में कम्युनिस्ट समूहों को संगठित करने में सहयोग दिया।

हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी, पहले मास्को से और फिर बर्लिन से, एम. एन. राय व थर्ड इन्टरनेशनल के नेतृत्व में काम करने लगी। लेनिन ने भारतीय कम्युनिस्टों को यह संदेश दिया था कि वे अपने देश में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थन करें तथा उसमें भाग लें किन्तु सर्वहारा के आन्दोलन का स्वतंत्र अस्तित्त्व बनाये रखें।

भारत में साम्यवादी समूह

भारत में 1920 ई. के बाद से ही साम्यवादी गतिविधियाँ बढ़ने लगी थीं। 1923 ई. तक बहुत से पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से साम्यवादी विचारों का प्रचार होने लगा था। साम्यवादी विचारधारा में रुचि रखने वाले लोग एक-दूसरे के निकट आते गये और संगठित होते गये। इस प्रकार देश के विभिन्न हिस्सों में साम्यवादी समूहों का उदय हुआ। माना जाता है कि 1921-22 ई. की अवधि में बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, लाहौर और कानपुर में साम्यवादी समूह अस्तित्त्व में आ चुके थे।

बम्बई के साम्यवादी समूह: बम्बई के साम्यवादी समूह की स्थापना में श्रीपाद अमृत डांगे की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही। डांगे और उनके साथियों ने कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। बाद में इन लोगों ने बम्बई प्रादेशिक कांग्रेस कमेटी के अन्दर एक रेडिकल गु्रप बनाया। 1921 ई. में डांगे की पुस्तक गांधी बनाम लेनिन प्रकाशित हुई। लगभग इसी समय यह कम्युनिस्ट समूह अस्तित्त्व में आया। अगस्त 1922 से डांगे ने अग्रंेजी भाषा में सोशलिस्ट नामक साप्ताहिक का प्रकाशन आरम्भ किया। बम्बई के साम्यवादी समूह में के. एन. जोगलेकर और आर. एस. निम्बकर भी प्रमुख सदस्य थे। इस समूह का कार्यक्षेत्र भारतीय कांग्रेस के साथ-साथ बम्बई के कपड़ा मिल मजदूरों में भी था।

कलकत्ता के साम्यवादी समूह: कलकत्ता में मुजफ्फर अहमद और काजी नजरूल अहमद के प्रयासों से कम्युनिस्ट ग्रुप की स्थापना हुई। जुलाई 1920 से मुजफ्फर अहमद ने बंगला सांध्य दैनिक नवयुग का प्रकाशन आरम्भ किया। काजी नजरूल अहमद भी उनका हाथ बँटाने लगे। उन्होंने जहाजी मजदूरों की समस्याओं के सम्बन्ध में कई लेख प्रकाशित किये। 1921 ई. के अन्त में दोनों की भेंट नलिनी गुप्त से हुई जिन्हें एम. एन. राय ने भारत में साम्यवादी विचारधारा से जुड़े लोगों से सम्पर्क स्थापित करने के लिये भेजा था। इस प्रकार मुजफ्फर अहमद और काजी नजरूल अहमद का साम्यवादी विचारधारा से जुड़े लोगों से सम्पर्क स्थापित हो गया और कलकत्ता साम्यवादी समूह अस्तित्त्व में आया।

मद्रास के साम्यवादी समूह: मद्रास के वयोवृद्ध वकील मालयापुरम सिंगारावेलू चेट्टियार, मद्रास के साम्यवादी समूह के संस्थापक थे। वे असहयोग आन्दोलन के दौरान वकालत छोड़कर मजदूर आन्दोलन से जुड़ गये। उन्होंने कांग्रेस के गया अधिवेशन में भाग लिया तथा मद्रास में कम्युनिस्ट ग्रुप बनाया। एडवोकेट वेलायुधन ने भी इस कार्य में उनका सहयोग किया।

लाहौर के साम्यवादी समूह: ताशकन्द में स्थापित हिन्दुस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य मोहम्मद अली (अहमद हसन) के मित्र गुलाम हुसैन ने लाहौर के साम्यवादी समूह की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाई। गुलाम हुसैन ने इन्कलाब  शीर्षक से पत्र निकाला तथा मजदूरों को संगठित करके साम्यवादी समूह की स्थापना की। इस कार्य में शम्सुद्दीन अहमद और मुहम्मद सिद्दीकी ने भी उनकी सहायता की।

संयुक्त प्रांत के साम्यवादी समूह: संयुक्त प्रान्त के कुछ हिस्सों में भी साम्यवादी समूह काम करने लगे थे। कानपुर और बनारस उनके मुख्य केन्द्र थे।

महाराष्ट्र के साम्यवादी समूह: नागपुर में भी एक साम्यवादी समूह काम कर रहा था।

भारत में किसी भी साम्यवादी समूह को वैधानिक मान्यता नहीं दी गई थी। इनमें से कुछ समूहों ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से सम्पर्क स्थापित कर रखा था और अपने कार्यों के लिए वहाँ से दिशा-निर्देश प्राप्त करते थे। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने तीन कार्य निर्देशित किये थे-

(1.) कम्युनिस्टों को आवश्यक रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और स्वराज पार्टी के वाम पक्ष (जिनका नेतृत्व सी. आर. दास और मोतीलाल नेहरू के हाथों में था) के भीतर कार्य करना चाहिए।

(2.) यह प्रयास किया जाये कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (जिसके अन्तर्गत स्वराज पार्टी भी सम्मिलित है) साम्राज्यवाद विरोधी खेमे का रूप ग्रहण करे।

(3.) कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल, भारतीय कम्युनिस्टों के लिए इस बात को उचित मानता था कि वे जनता की पार्टी अथवा मजदूर-किसान पार्टी का संगठन करें। यह पार्टी राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर कार्य करे। उसका कार्यक्रम सुस्पष्ट, साम्राज्यवाद विरोधी, सामन्तवाद विरोधी तथा जनतांत्रिक हो।

इस प्रकार, साम्यवादी समूह कांग्रेस के भीतर रहकर कार्य करने लगे और उनका आन्दोलन कांग्रेस तथा अन्य संगठनों के नेताओं की सहानुभूति प्राप्त करने लगा। सरकार का गुप्तचर विभाग उनकी गतिविधियों पर कड़ी निगाह रखे हुए था। उसने सरकार को सावधान किया कि इससे पहले कि भारत के साम्यवादी समूह, एक शक्तिशाली पार्टी के रूप में संगठित हों, उनकी शक्ति को तोड़ना उचित होगा। इसलिए 1922 से लेकर 1930 ई. तक सरकार ने कम्युनिस्टों के विरुद्ध सात मुकदमे चलाये। इनमें से पांच मुकदमे पेशावर में, एक कानपुर में और एक मेरठ में चलाया गया। सरकार द्वारा कम्युनिस्टों को कठोर सजा देकर भारत में कम्युनिस्ट प्रभाव को समाप्त करने का प्रयास किया गया।

कानुपर षड़यंत्र केस

1924 ई. के आरम्भ में ब्रिटिश सरकार ने एस. ए. डांगे, मुजफ्फर अहमद, नलिनी गुप्ता, शौकत उस्मानी, गुलाम हुसैन, रामचरण लाल शर्मा, सिंगारावेलू चेट्टियार, एम. एन. राय आदि कम्युनिस्टों के विरुद्ध कानुपर में एक मुकदमा चलाया जो कानुपर षड़यंत्र केस के नाम से प्रसिद्ध है। एम. एन. राय और रामचरण लाल शर्मा विदेश में थे, अतः पकड़ में नहीं आये। चेट्टियार अत्यधिक बीमार थे, अतः उनके विरुद्ध मुकदमा नहीं चलाया गया। गुलाम हुसैन सरकारी गवाह बन गये। शेष चार अभियुक्तों- एस. ए. डांगे, मुजफ्फर अहमद, नलिनी गुप्ता तथा शौकत उस्मानी को चार-चार साल का कठोर कारावास हुआ। इन लोगों के विरुद्ध मुख्य रूप से दो आरोप लगाये गये-

(1.) इन लोगों के माध्यम से कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल, भारत में अपनी शाखा स्थापित करने का प्रयास कर रहा था।

(2.) ये लोग मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना का प्रयास कर रहे थे।

न्यायालय में हुई बहस में यह भी कहा गया कि कम्युनिस्ट, भारत से ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए ही मजदूरों को संगठित कर रहे हैं तथा कांग्रेस के अन्दर से गरम दल और राष्ट्रवादी नेता, क्रांतिकारियों का साथ दे रहे हैं। देश-विदेश के समाचार पत्रों में इस अभियोग की बहुत चर्चा हुई। सरकार ने कम्युनिस्ट नेताओं को बंदी बनाकर लोगों में भय पैदा करने का प्रयास किया ताकि लोग कम्युनिस्ट पार्टी से दूर रहें परन्तु सरकार के इस प्रयास का परिणाम उल्टा हुआ तथा आम-जन कम्युनिस्टों के कार्य कलापों में पहले से अधिक रुचि लेने लगा।

अध्याय – 75 : उग्र वामपंथी आन्दोलन – 3

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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना

कानपुर षड़यन्त्र केस के कुछ दिनों बाद ही संयुक्त प्रांत में सक्रिय साम्यवादी समूह के नेता सत्यभक्त ने 1 सितम्बर 1924 को कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी का उद्देश्य, सम्पूर्ण स्वराज्य को प्राप्त करना और एक ऐसे समाज का निर्माण करना था जिसमें उत्पादन और धन के वितरण पर सामूहिक स्वामित्व हो। पार्टी का एक तदर्थ संविधान भी तैयार किया गया। इस पार्टी का कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से कोई सम्बन्ध नहीं था।

इसी पार्टी के तत्त्वावधान में दिसम्बर 1924 के अन्तिम सप्ताह में कानुपर में पहली साम्यवादी कान्फ्रेन्स हुई जिसमें एस. वी. घाटे, जागेलेकर, नाग्बियार, शम्शुद्दीन हसन, चेट्टियार, मुजफ्फर अहमद आदि अनेक प्रमुख कम्युनिस्टों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में सत्यभक्त की कड़ी आलोचना की गई क्योंकि उन्होंने अपनी पार्टी को राष्ट्रवादी पार्टी घोषित किया था तथा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रखा था। अन्य कम्युनिस्टों का तर्क था कि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के नियमानुसार पार्टी का नाम भारत की कम्युनिस्ट पार्टी होना चाहिए न कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, और उसे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के निर्देशानुसार कार्य करना चाहिए। सत्यभक्त अल्पमत में पड़ गये, अतः उन्होंने पार्टी तथा राजनीति, दोनों को छोड़ दिया। 1925 ई. तक इस पार्टी के सदस्यों की संख्या 250 तक पहुँच गयी।

कानुपर सम्मेलन दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था-

(1.) कम्युनिस्ट आंदोलन को सत्यभक्त जैसे राष्ट्रवादी आदमी के हाथों में पड़ने से बचा लिया गया जो एक ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण का विचार प्रस्तुत कर रहा था जो राष्ट्रीय हो और जिसका कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ कोई सम्पर्क न हो।

(2.) भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन, समूहों के निर्माण की अवस्था से निकलकर, नियमित रूप से कार्य करने वाली अखिल भारतीय पार्टी की अवस्था में पहुँच गया।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना

कानपुर कान्फ्रेंस में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के समर्थक साम्यवादियों का दबदबा रहा और उन्होंने अन्य ग्रुपों को संगठित करके 27 दिसम्बर 1925 को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की घोषणा की। पार्टी की एक केन्द्रीय समिति का भी गठन किया गया जिसमें 30 सदस्यों का प्रावधान था परन्तु उस दिन केवल 16 सदस्य ही चुने गये। इसी सम्मेलन में पार्टी का नया संविधान पारित किया गया तथा विभिन्न पदाधिकारियों की नियुक्ति की गई। बीकानेर के जानकी प्रसाद बगरहट्टा तथा एस. वी. घाटे महासचिव चुने गये। यह निश्चित किया गया कि पार्टी का मुख्यालय अगले वर्ष बम्बई चला जायेगा और घाटे उसका काम संभालेंगे। इस पार्टी के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार से थे-

1. भारत को पूर्ण रूप से स्वतंत्र करवाना।

2. बलपूर्वक आरोपित ब्रिटिश शासन को समाप्त करना।

3. भारत में सोवियत रूस जैसी सरकार की स्थापना करना।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियाँ

मजदूर-किसान पार्टियों का गठन

कम्युनिस्ट पार्टी के लिए संवैधानिक रूप से काम करना संभव नहीं था, इसलिये मजदूरों, किसानों और श्रमजीवी वर्ग के हितों की रक्षा के लिए मजदूर-किसान पार्टियों के गठन का निर्णय लिया गया ताकि उनकी आड़ में, कम्युनिस्ट अपनी गतिविधियाँ चला सकें। मुजफ्फर अहमद के अनुसार मजदूर-किसान पार्टियों के गठन की दिशा में कदम उठाने का श्रेय काजी नजरूल इस्लाम और शम्सुद्दीन को था। कुछ लेखकों के अनुसार इसका श्रेय ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के फिलिप स्पार्ट को है।

बंगाल में लेबर स्वराज पार्टी की स्थापना: बंगाल में सबसे पहली मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना हुई जिसका प्रारम्भिक नाम लेबर स्वराज पार्टी रखा गया। लेबर स्वराज पार्टी ने दिसम्बर 1925 से लांगल नामक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। अगस्त 1926 में इस पत्र का नाम बदलकर गनबानी (गणवाणी) किया गया। 1928 ई. में पार्टी का नाम मजदूर-किसान पार्टी किया गया।

बम्बई में कामकरी शेतकरी पार्टी की स्थापना: बम्बई में एस. एस. मीरजकर, ढुंढिराज ठेंगड़ी और उनके साथियों द्वारा मार्च 1927 में कामकरी शेतकरी पार्टी (मजदूर किसान पार्टी) की स्थापना की गई। इस पार्टी का मुखपत्र क्रांति शीर्षक से साप्ताहिक आवृत्ति पर प्रकाशित किया जाता था। इस पार्टी का काम मजदूरों, किसानों और युवकों में प्रगतिशील राजनीतिक विचारों का प्रसार करना था। इस पार्टी ने मजदूरों को संगठित करके कई हड़तालों का संचालन किया। 80,000 सदस्यों वाली गिरनी कामगार यूनियन (लाल झण्डा) इसी पार्टी के सदस्यों द्वारा स्थापित की गई।

पंजाब में किरती-किसान पार्टी की स्थापना: दिसम्बर 1927 में पंजाब में किरती-किसान पार्टी की स्थापना हुई। इस पार्टी में अमृतसर और लाहौर, दोनों क्षेत्रों के कृषक एवं श्रमिक सम्मिलित थे। अब्दुल मजीद तथा सोहनसिंह जोश इस पार्टी के प्रमुख नेता थे। किसरती उनका मुखपत्र था जो पंजाबी और उर्दू, दो भाषाओं में प्रकाशित होता था।

संयुक्त प्रांत में मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना: संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में 14 अक्टूबर 1928 को मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना हुई। पूरनचन्द जोशी को पार्टी का सचिव चुना गया।

अखिल भारतीय मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना

1928 ई. के मेरठ सम्मेलन में कम्युनिस्टों ने देश भर की मजदूर-किसान पार्टियों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया। 21-24 दिसम्बर 1928 को कलकत्ता में सोहनसिंह जोश की अध्यक्षता में एक सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन में अखिल भारतीय मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना करने की घोषणा की गई। आर. एस. निंबकर को पार्टी का सचिव बनाया गया और बम्बई में पार्टी का मुख्यालय स्थापित किया गया। पार्टी के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे-

(1.) आर्थिक और सामाजिक मुक्ति सहित सम्पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना।

(2.) मजदूरों और किसानों के शक्तिशाली आन्दोलनों को गति प्रदान करना।

(3.) जनसाधारण के आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर को उन्नत बनाना।

मेरठ षड़यन्त्र केस

1927-28 ई. में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में देश के विभिन्न हिस्सों में मजदूरों ने अनेक हड़तालें कीं। कम्युनिस्टों की बढ़ती हुई शक्ति से भारत सरकार व भारतीय पूँजीपतियों में घबराहट फैल रही थी। इसलिये अनेक उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह कम्युनिस्टों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करे। ब्रिटिश नौकरशाही भी इन आंदोलनों को मजबूती से कुचलना चाहती थी। बम्बई तथा कलकत्ता आदि महानगरों में हड़ताली मजदूर बड़ी संख्या में रहते थे। इसलिये निश्चित किया गया कि देश के विभिन्न हिस्सों से कम्युनिस्टों के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करके मेरठ लाया जाये तथा वहाँ उन पर मुकदमा चलाया जाये। कुल 32 कम्युनिस्ट नेताओं पर मुकदमा चलाया गया और जानबूझ कर मुकदमे की कार्यवाही को लम्बा खींचा गया। सरकार की इस कार्यवाही से कम्युनिस्ट संगठन कमजोर हो गया, मजदूर आन्दोलन को भारी क्षति पहुँची और मजदूर-किसान पार्टियां विघटित हो गईं।

कम्युनिस्ट पार्टी का नया कार्यक्रम

मेरठ षड़यन्त्र केस से पहले, कम्युनिस्ट नेता, देश के बुर्जुआ राष्ट्रवादियों (दक्षिणपंथी कांग्रेसियों) के साथ मिलकर काम करने में विश्वास रखते थे परन्तु अब उन्होंने अनुभव किया कि भारत में विदेशी सत्ता को बनाये रखने तथा जन आन्दोलन को कमजोर बनाने में देश के व्यापारी, पूँजीपति एवं उद्योगपति किसी से कम नहीं हैं और भारतीय कांग्रेस इन्हीं तत्त्वों के प्रभाव में है। अतः कम्युनिस्ट नेताओं ने बुर्जुआ राष्ट्रवाद का विरोध करने का कार्यक्रम तैयार किया और सर्वहारा वर्ग की एक मजदूर पार्टी का निर्माण करने का निर्णय लिया। 1929 ई. के अन्त में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का विभाजन हो गया तथा कम्युनिस्ट, इस संगठन से अलग हो गये। कम्युनिस्टों ने अपना एक नया कार्यक्रम घोषित किया जिसमें बलपूर्वक ब्रिटिश शासन को समाप्त करना, सोवियत रूस की तरह भारत में भी सर्वहारा वर्ग की सरकार बनाना, बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना, देशी रियासतों तथा जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करना आदि अनेक कार्यक्रम सम्मिलत थे। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक गुप्त केन्द्रीय संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया गया।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन और कम्युनिस्ट पार्टी

12 मार्च 1930 से गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ हुआ। गांधीजी के द्वारा चलाये गये पूर्ववर्ती समस्त आंदोलनों की तरह यह आन्दोलन भी विफल रहा। इस आन्दोलन के दौरान कम्युनिस्टों ने रैड ट्रेड यूनियन का गठन किया तथा इसके माध्यम से आन्दोलन को अधिक व्यापक और उग्र बनाने का प्रयास किया। अपैल 1930 में जी. आई. पी. की हड़ताल, जून, 1930 में शोलापुर का विद्रोह, एक आम राजनीतिक हड़ताल तथा अन्य किसान एवं मजदूर आन्दोलनों का सफल संचालन करके, कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश शासन का डटकर मुकाबला किया। मजदूर आन्दोलन में उन्होंने अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके बढ़ते हुए प्रभाव से सरकार चिंतित हो उठी। क्योंकि अधिकांश कम्युनिस्ट नेता जेल में बन्द थे, फिर भी उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा था। 1931 ई. में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में 166 हड़तालें हुईं जिनमें हजारों मजदूरों ने भाग लिया। 1934 ई. में 159 हड़तालें हुईं। बम्बई की कपड़ा मिलों में भी मजदूरों ने बड़ी हड़तालें कीं। विस्तृत स्तर पर हो रही हड़तालें और उग्र प्रदर्शन, देश में कम्युनिस्टों के बढ़ते हुए प्रभाव के स्पष्ट संकेत थे।

सरकार द्वारा कम्युनिस्ट आंदोलन को कुचलने के प्रयास

ब्रिटिश सरकार ने कम्युनिस्टों के बढ़ते हुए प्रभाव को समाप्त करने के लिए कई कदम उठाये। रैड ट्रेड यूनियन तथा कांग्रेस से सम्बद्ध मजदूर यूनियनों के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। मजदूरों के जुलूसों तथा सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 23 जुलाई 1934 को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध अन्य संगठनों को भी गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। विदेशों से आने वाले कम्युनिस्ट साहित्य पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। सरकार को आशा थी कि इन कदमों से कम्युनिस्टों की गतिविधियों पर अंकुश लगेगा और वे प्रभावहीन हो जायेंगे परन्तु इन प्रतिबन्धों के उपरान्त भी कम्युनिस्टों ने हिम्मत नहीं हारी और उनकी गुप्त गतिविधियाँ जारी रहीं।

संयुक्त मोर्चे का गठन

1935 ई. में सातवीं कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का आयोजन हुआ। इसमें भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को सुझाव दिया गया कि वह साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चा गठित करे। रजनी पामदत्त, ब्राडले और रूसी प्रतिनिधि दिमित्रोव ने भी भारत में एक संयुक्त मोर्चे की स्थापना की आवश्यकता जताई ताकि भारत के कम्युनिस्ट, उसकी ओट में पुनः अपना प्रभाव बढ़ा सकें। इसलिये भारत के कम्युनिस्टों ने कांग्रेस के भीतर काम कर रहे कांग्रेस समाजवादी दल के साथ गठजोड़ कर लिया। कांग्रेस समाजवादी दल भी वामपंथी शक्तियों की एकता का समर्थक था इसलिये उसने 1936 ई. में कम्युनिस्टों को कांग्रेस समाजवादी दल में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। कम्युनिस्टों ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। वे कांग्रेस समाजवादी दल के सदस्य बन गये परन्तु उन्होंने अपनी स्वतंत्र पहचान को भी बनाये रखा।

अन्य कम्युनिस्ट संस्थाओं की स्थापना

संयुक्त मोर्चे की स्थापना के फलस्वरूप अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस भी पुनः शक्तिशाली बन गई। 1936 ई. में स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान सभा का निर्माण हुआ। उसी वर्ष अखिल भारतीय छात्र यूनियन अस्तित्त्व में आई। भारत के लेखकों एवं साहित्यकारों ने मुंशी प्रेमचन्द की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना कर ली।

संयुक्त मोर्चे की स्थापना से भारतीय कांग्रेस की नीतियों में बदलाव आया। उसने किसानों की समस्याओं एवं उनके संगठनों की तरफ अधिक ध्यान देना आरम्भ किया। इससे किसान संगठनों की शक्ति का विकास हुआ। 1936 ई. के फैजपुर सम्मेलन में जहाँ 20,000 किसानों ने भाग लिया था, वहीं 1938 ई. में किसान सभा के सदस्यों की संख्या पांच लाख को पार कर गई। संयुक्त मोर्चे की स्थापना के बाद मजदूर संघों की संख्या में भी आशातीत वृद्धि हुई। श्रमिक वर्ग अपनी राष्ट्रव्यापी हड़तालों के माध्यम से अपनी अधिकांश मांगे मनवाने में सफल रहा।

संयुक्त मोर्चे का पतन

संयुक्त मोर्चा अस्थायी सिद्ध हुआ। कांग्रेस समाजवादी दल का दक्षिणपंथी गुट, कांग्रेस समाजवादी दल में कम्युनिस्टों के बढ़ते हुए प्रभाव से चिंतित हो उठा। इस गुट ने धमकी दी कि यदि कम्युनिस्टों को नियंत्रित नहीं किया गया तो वे दल से अलग हो जायेंगे। जब धमकी का असर नहीं हुआ तो जुलाई 1939 में मीनू मसानी, अशोक मेहता, राममनोहर लोहिया तथा अच्युत पटवर्धन आदि नेताओं ने कांग्रेस समाजवादी दल को छोड़ दिया। इस प्रकार संयुक्त मोर्चे में दरार पड़ गई। 1940 ई. में कांग्रेस समाजवादी दल ने कम्युनिस्टों को पार्टी से बाहर निकाल दिया परन्तु समाजवादियों के इस कदम का, उनकी अपनी पार्टी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। संयुक्त मोर्चे के अधिकांश नेता एवं कार्यकर्ता कम्युनिस्ट खेमे में चले गये। दक्षिण भारत से तो कांग्रेस समाजवादी दल का पूरा सफाया हो गया। संयुक्त मोर्चे का भी पतन हो गया।

द्वितीय विश्वयुद्ध और कम्युनिस्ट पार्टी

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, सोवियत रूस के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से प्रभावित होती थी। विश्व युद्ध के प्रारम्भ में सोवियत रूस ने जर्मनी के साथ अनाक्रमण समझौता कर रखा था। अतः भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस विश्व युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध घोषित करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को तेज करने तथा ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की अपील की। यद्यपि कांग्रेस समाजवादी दल और सुभाषचन्द्र बोस का नवोदित फॉरवर्ड ब्लॉक भी विश्व युद्ध में अँग्रेजों को सहयोग देने के विरुद्ध थे परन्तु कम्युनिस्ट पार्टी चाहती थी कि साम्राज्यवादी युद्ध को राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध में बदल दिया जाये। इसी उद्देश्य से कम्युनिस्टों ने 1940 ई. में अनेक मिलों में हड़तालें करवाईं तथा सरकार के युद्ध समर्थक प्रयासों को विफल बनाने का प्रयास किया। इसलिये भारत सरकार ने प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं को बन्दी बना लिया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 480 मुख्य कम्युनिस्ट नेताओं को बन्दी बनया गया।

जब जून 1941 में जर्मनी ने सोवियत रूस पर अचानक आक्रमण कर दिया तो विवश होकर सोवियत रूस को मित्र राष्ट्रों (साम्राज्यवादियों) के गुट में सम्मिलित होना पड़ा। रूस के पासा पलटते ही भारतीय कम्युनिस्टों का दृष्टिाकोण बदल गया। जिस विश्व युद्ध को वे साम्राज्यवादियों का युद्ध कहकर उसका विरोध कर रहे थे, उसी को अब लोक युद्ध (जनता का युद्ध) कहकर उसका समर्थन करने लगे और साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार को हर सम्भव सहयोग देने की अपील करने लगे। ब्रिटिश सरकार ने भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से समस्त प्रतिबन्ध हटा लिये और कम्युनिस्ट नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को जेलों से रिहा कर दिया।

भारत छोड़ो आन्दोलन और कम्युनिस्ट पार्टी

अगस्त 1942 में कांग्रेस के नेताओं की गिरफ्तारी से भारत छोड़ो आन्दोलन भड़क उठा। इस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था तथा रूस, ब्रिटेन आदि साम्राज्यवादी देशों के गुट में था। इसलिये कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और मजदूरों से अपील की कि वे हड़तालों आदि में भाग न लें तथा युद्धोपयोगी सामग्री के उत्पादन में कमी न आने दें। बिटिश सरकार की स्थिति को मजबूत बनाने की दृष्टि से कम्युनिस्टों ने कालाबाजारी, सूदखोरी, जमाखोरी एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन चलाये। पार्टी ने युद्धकाल में अपने विचारों का प्रचार करने के लिए पीपल्स वार शीर्षक से एक पत्रिका भी आरम्भ की। इस अवधि में कम्युनिस्टों को भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ जिसका उन्होंने पूरा-पूरा लाभ उठाया। कम्युनिस्टों द्वारा भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध किये जाने के कारण, कांग्रेसी नेता कम्युनिस्ट पार्टी से नाराज हो गये और दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद कांग्रेस ने कम्युनिस्टों को कांग्रंेस के समस्त निर्वाचित पदों से हटा दिया। इस प्रकार कम्युनिस्ट पूरी तरह से कांग्रेस से अलग हो गये।

युद्ध के बाद की घटनाएँ

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1945-46 ई. में भारत सरकार ने दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा चलाया। पूरे देश में सरकार के इस कृत्य का विरोध हुआ और आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की रिहाई की मांग हुई। कम्युनिस्ट पार्टी ने भी बन्दियों की रिहाई के समर्थन में प्रदर्शन किये। 20 जनवरी 1946 को कराची के वायु सैनिकों ने आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के समर्थन में हड़तील की। फरवरी 1946 में बम्बई के बन्दरगाह पर खड़े तलवार जहाज के नाविकों ने विद्रोह किया जो कराची बन्दरगाह में भी फैल गया। कम्युनिस्टों ने विद्रोही नौ-सैनिकों के पक्ष में हड़ताल तथा प्रदर्शन का आयोजन किया। सरकार ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध हिंसा का सहारा लिया। तीन दिन चले इस आन्दोलन में 250 लोग मारे गये। नौ-सैनिक विद्रोह का भारत सरकार एवं ब्रिटिश साम्राज्यवादियों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। सशस्त्र सेना द्वारा जनता के पक्ष में आ जाने से भारत सरकार में घबराहट चरम पर पहुँच गई। इस अवधि में देशी रियासतों में भी जन-आन्दोलनों का दबाव बढ़ने लगा। जनता, देशी राजाओं से उत्तरदायी शासन की स्थापना करने की मांग करने लगी। कम्युनिस्ट पार्टी ने रियासती जन-आन्दोलनों को पूरा समर्थन दिया और ट्रावनकोर के महाराजा के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में भाग लिया जिसमें 400 कम्युनिस्टों की जान चली गई। उड़ीसा और पंजाब की रियासतों में भी इसी तरह के संघर्ष हुए। उन संघर्षों में भी कम्युनिस्टों ने भाग लिया। हैदराबाद रियासत के निरंकुश शासन के विरुद्ध, तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष चला जिसमें कम्युनिस्टों ने मुख्य भूमिका निभाई। इस आन्दोलन में लगभग 4000 कम्युनिस्ट मारे गये।

मार्च 1946 में नियंत्रित मताधिकार के आधार पर विधान मण्डलों के चुनाव सम्पन्न हुए। कम्युनिस्ट पार्टी ने भी चुनावों में भाग लिया परन्तु उसे केवल 9 स्थान मिले। इन चुनावों में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने पहली बार अपने बल पर, अपने झण्डे के नीचे, चुनाव लड़े।

इस प्रकार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा पार्टी ने भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता का नारा दिया। किसानों एवं मजदूरों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करके उन्हें संगठित किया तथा अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा एवं शक्ति दी।

अध्याय – 76 : उग्र वामपंथी आन्दोलन – 4

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सुभाष चन्द्र बोस और फॉरवर्ड ब्लॉक

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का झुकाव आरम्भ से ही कांग्रेस के वामपंथी तत्त्वों के साथ रहा। वे युवा, संघर्ष-प्रिय, प्रगतिशील एवं वामपंथी गुट के प्रखर पक्षधर थे। उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर 1927 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में सर्वप्रथम सम्पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा, जो गांधी के विरोध के उपरान्त भी पारित हो गया। इस अवसर पर बोस को कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में लिया गया। गांधीजी को यह पसन्द नहीं आया और नवम्बर 1928 में कलकत्ता कांग्रेस के दौरान गांधीजी ने डोमिनियन स्टेट्स (औपनिवेशिक दर्जा) से सम्बन्धित प्रस्ताव पारित करवाया। अगले ही वर्ष लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में अधिक-से-अधिक वामपंथी तत्त्वों को संगठनात्मक दायित्वों से हटा दिया गया जिनमें सुभाषचन्द्र बोस भी थे। इस प्रकार, कांग्रेस में गांधी और सुभाषचन्द्र बोस के बीच अन्तर्विरोध बढ़ने लगा।

1934 ई. में कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व से खिन्न कांग्रेसियों ने, कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने स्वयं को इस दल से सम्बद्ध नहीं किया किंतु वे प्रकट रूप से इस पार्टी की नीतियों का समर्थन करते थे। 1938 ई. में सुभाषचंद्र बोस को हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। 1939 ई. में सुभाषचंद्र बोस पुनः कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए खड़े किये गये जबकि गांधीजी तथा उनके अनुयायी सुभाषचंद्र के पक्ष में नहीं थे। गांधीजी ने पट्टाभि सीतारमैया को सुभाष बाबू के सामने खड़ा कर दिया। सुभाष का कहना था कि दक्षिणपंथी नेतृत्व की समझौतावादी नीति का विरोध करने के लिए मेरा चुनाव लड़ना आवश्यक है। इस प्रकार ये चुनाव गांधी और सुभाष के बीच प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गये।  चुनाव परिणाम सुभाष बाबू के पक्ष में रहा और पट्टाभि सीतारमैया हार गये। गांधीजी ने तिलमिलाकर घोषणा की कि यह मेरी हार है। संयम का पाठ पढ़ाने वाले गांधीजी इस हार में अपना संयम खो बैठे और उन्होंने कांग्रेस में बगावत खड़ी कर दी। गांधीजी के कहने पर कार्यसमिति के 15 सदस्यों ने कार्यसमिति से त्यागपत्र दे दिया। सुभाष बाबू ने कांग्रेस का विघटन रोकने का प्रयास किया परन्तु गांधीजी तथा उनके समर्थकों ने सुभाष से नाता तोड़ने का निर्णय कर लिया। सुभाष ने कांग्रेस को टूटने से बचाने के लिये अध्यक्ष पद त्याग  दिया। दक्षिणपंथियों ने तत्काल डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को नया अध्यक्ष चुन लिया।

सुभाषचन्द्र बोस ने कांग्रेस के अन्दर ही एक ऐसी प्रगतिशील पार्टी की स्थापना करने का निश्चय किया जिसके झण्डे के नीचे समस्त वामपंथी तत्त्व एकत्र हो सकें। यह पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से गठित हुई। दक्षिणपंथियों ने इसकी स्थापना को लेकर कोई विवाद खड़ा नहीं किया। फॉरवर्ड ब्लॉक के तीन प्रमुख उद्देश्य थे-

(1.) भारत की आजादी के लिये तेजी से कार्य करना।

(2.) कांग्रेस पर से गांधी गुट का नेतृत्व हटाना।

(3.) दक्षिणपंथी नेताओं की समझौतावादी नीति का कड़ा विरोध करना।

सुभाषचन्द्र बोस का कहना था- ‘फॉरवर्ड ब्लॉक, श्री गांधी के व्यक्तित्व और अहिंसात्मक असहयोग के सिद्धान्त को पूरा सम्मान देती है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि कांग्रेस के मौजूदा हाईकमान में भी अपनी निष्ठा बनाये रखे।’ इस पर कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सुभाष के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए उन्हें समस्त पदों से हटा दिया और मात्र चार-आने का सामान्य सदस्य रहने दिया। वामपंथी तत्त्वों ने भी फॉरवर्ड ब्लॉक की आलोचना की, क्योंकि वे इसकी स्थापना के पीछे सुभाष बाबू के व्यक्तिगत कारण मानते थे। वास्तविकता यह थी कि न तो गांधी के दक्षिणपंथी चेले, न जयप्रकाश नारायण के समाजवादी चेले और न रूस के पिछलग्गू वामपंथी चेले, सुभाषचंद्र बोस जैसे प्रखर नेता के नेतृत्व को उभरते हुए देखाना चाहते थे। वास्तविकता यह भी थी कि कांग्रेस के नेताओं को लगता था कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अँग्रेज भारत को आजाद कर देंगे। कांग्रेस का कोई भी धड़ा नहीं चाहता था कि आजादी की लड़ाई जीतने का श्रेय किसी भी कीमत पर कोई और ले जाये। कम से कम, सुभाष बाबू तो कतई नहीं। अतः फॉरवर्ड ब्लॉक अलग-थलग पड़ गया परन्तु सुभाष और उनके साथी डटे रहे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फॉरवर्ड ब्लॉक ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। अतः भारत सरकार ने फॉरवर्ड ब्लॉक को असंवैधानिक घोषित कर दिया। सुभाषचंद्र बोस तथा उनके साथियों को जेलों में डाल दिया गया। सुभाष बाबू ने जेल में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल आरम्भ कर दी। कुछ दिनों बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। तब सरकार ने उन्हें जेल से रिहा करके उनके ही घर में नजरबन्द करके रखा। सुभाष वहाँ भी नहीं टिके और एक रात्रि में गुप्त रूप से घर से निकल गये। वे भारत छोड़कर चले गये। उन्हें हर हाल में देश को स्वतंत्र कराना था। सुभाष बाबू के भारत से चले जाने के बाद कांग्रेस के दक्षिणपंथी एवं वामपंथी नेताओं ने राहत की सांस ली तथा फॉरवर्ड ब्लॉक नेतृत्वहीन हो गया।

1946 ई. में फॉरवर्ड ब्लॉक की कार्यकारिणी की बैठक बम्बई में सम्पन्न हुई जिसमें फॉरवर्ड ब्लॉक को एक समाजवादी पार्टी बतलाया गया और वर्ग-संघर्ष की अवधारणा को इसका आधार माना गया परन्तु सुभाष द्वारा स्थापित फॉरवर्ड ब्लॉक, इस परिभाषा से मेल नहीं खाता था। सुभाष बाबू ने स्पष्ट कहा था कि फॉरवर्ड ब्लॉक, कांग्रेस के अभिन्न अंग के रूप में काम करेगा तथा कांग्रेस की संस्कृति, नीति एवं कार्यक्रमों को नहीं त्यागेगा। वह गांधी में भले ही विश्वास न रखे किंतु गांधी के अहिंसात्मक असहयोग के राजनीतिक सिद्धान्त में अटूट विश्वास रखेगा।

अन्य वामपंथी पार्टियाँ

असहयोग आन्दोलन के दौरान, अनेक अतिवादियों एवं क्रांतिकारियों ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली थी। इनमें से अधिकांश मार्क्स की विचारधारा से प्रभावित थे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन की वापसी के बाद कांग्रेस के अन्दर विभिन्न गुट उभरने लगे। कांग्रेस समाजवादी दल के अतिरिक्त अन्य विचारधारा वाले लोग या तो स्वेच्छा से कांग्रेस से अलग हो गये अथवा अलग कर दिये गये। इन लोगों ने विभिन्न वामपंथी दलों की स्थापना की। ये समस्त दल, मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर आधारित थे। यद्यपि ये दल राष्ट्रीय आन्दोलन में कोई विशेष भूमिका नहीं निभा पाये तथापि उनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।

भारतीय क्रांतिकारी साम्यवादी दल

सौम्येन्द्र नाथ टैगोर कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्त्ता थे और उन्होंने असहयोग आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी परन्तु जब गांधीजी ने आन्दोलन को अचानक स्थगित कर दिया तो उनका कांग्रेस से मोह भंग हो गया। वे साम्यवादी विचारधारा की तरफ मुड़ गये। 1927 ई. में सौम्येन्द्र नाथ, बंगाल मजदूर-किसान पार्टी के प्रमुख नेता बन चुके थे। इसी हैसियत से वे मास्को गये तथा इण्टरनेशनल कम्युनिस्ट नेतृत्व को भारत में साम्यवादी आन्दोलन की स्थितियों से अवगत कराया। सौम्येन्द्र चाहते थे कि रूसी नेतृत्व मजदूर-किसान पार्टी को मान्यता प्रदान करे ताकि किसानों और मजदूरों में साम्यवादी आन्दोलन का अधिक प्रचार-प्रसार हो सके परन्तु सोवियत नेतृत्व उस समय औपनिवेशिक देशों में इस प्रकार की पृथक पार्टियों के निर्माण के पक्ष में नहीं था। जब भारतीय कम्युनिस्टों ने कांग्रेस में प्रवेश करने का निश्चय कर लिया तो सौम्येन्द्र टैगोर ने कम्युनिस्टों से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया।

आगामी कुछ वर्षों तक सौम्येन्द्र ने संयुक्त मोर्चा गठित करने वाली समस्त पार्टियों एवं गुटों के विरुद्ध संघर्ष चलाया। उनका मानना था कि साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी आन्दोलन तभी सफल होगा जब इसका नेतृत्व सही अर्थों में सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगा। वे हिंसात्मक कार्यवाहियों को अनुचित नहीं मानते थे। 1942 ई. में सौम्येन्द्र ने भारतीय क्रांतिकारी साम्यवादी दल की स्थापना की।

पार्टी ने द्वितीय विश्व युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध घोषित किया तथा भारतीयों से भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त करने के लिये संघर्ष करने का आह्नान किया। अन्य वामपंथी दलों की भांति इस पार्टी ने भी क्रिप्स योजना का घोर विरोध किया परन्तु वामपंथी दलों की नीति से उलट, भारत छोड़ो आन्दोलन को पूर्ण समर्थन दिया एवं उसमें सक्रिय सहयोग दिया।

क्रांतिकारी समाजवादी दल

बारीन्द्र घोष तथा भूपेन्द्र के नेतृत्व में बंगाल के क्रांतिकारियों ने अनुशीलन समिति नामक संस्था स्थापित की थी। 1924 ई. में कुछ क्रांतिकारियों ने इस संस्था को पुनर्गठित करके हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी का गठन किया। नई संस्था का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारत में ‘संयुक्त राज्य संघीय गणतंत्र’ की स्थापना करना था। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संस्था ने हर सम्भव विधि से अस्त्र-शस्त्र तथा धन जुटाना आरम्भ किया। योगेश चटर्जी इस संस्था के मुख्य कार्यकर्ता थे। बिहार, संयुक्त प्रदेश, पंजाब तथा दिल्ली में भी पार्टी के घटक सक्रिय थे परन्तु इसका संगठन काफी शिथिल रहा। 1930 ई. में चटगांव आर्मरी रेड के दौरान इस संस्था के अनेक कार्यकर्त्ता बंदी बना लिये गये और उन्हें लम्बी सजाएं दी गईं। जेल में रहते हुए वे लोग मार्क्सवादी साहित्य एवं समाजवादी विचारधारा के सम्पर्क में आये। 1937 ई. में इस संस्था के समस्त कार्यकर्त्ताओं को रिहा कर दिया गया। 1940 ई. में उन लोगों ने मिलकर क्रांतिकारी समजावादी दल की स्थापना की परंतु यह निर्णय लिया गया कि पार्टी कांग्रेस समाजवादी दल के अंदर रहते हुए कार्य करेगी। कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में क्रांतिकारी समाजवादियों ने गांधी-बोस विवाद में बोस का साथ दिया जबकि कांग्रेस समाजवादियों ने परोक्ष रूप से गांधी का समर्थन किया। इस कारण दोनों में वैमनस्य उत्पन्न हो गया और क्रांतिकारी समाजवादी दल ने कांग्रेस समाजवादी दल से सम्बन्ध तोड़ लिया। इस दल ने विश्वयुद्ध के दौरान अलग पहचान बनाये रखी और सोवियत रूस का अंधानुकरण न करके ब्रिटिश साम्राज्यवादी विरोधी रुख पर स्थिर रहा। इस दल ने भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया।

भारतीय बोलशेविक पार्टी

बंगाल की लेबर पार्टी का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना तथा भारतीय सामाज को वर्ग-संघर्ष से बचाना था। यद्यपि लेबर पार्टी कम्युनिस्टों से सम्बद्ध थी तथापि कुछ मुद्दों पर वह, कम्युनिस्टों की घोर विरोधी थी। त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के दौरान लेबर पार्टी ने सुभाषचंद्र बोस का समर्थन किया। जबकि कम्युनिस्टों ने बोस को समर्थन नहीं दिया। इस बात पर लेबर पार्टी का कम्युनिस्टों से मोह भंग हो गया और 1939 ई. में एन. दत्त मजूमदार, अजीत राय, शिशिर राय आदि सदस्यों ने भारतीय लेबर पार्टी छोड़कर, भारतीय बोलशेविक पार्टी की स्थापना की। बोलशेविक पार्टी, साम्राज्यवाद विरोधी पार्टी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ में इस पार्टी ने साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन को सहयोग दिया परन्तु जब सोवियत संघ, मित्र राष्ट्रों के खेमे में आ गया तो बोलशेविक पार्टी का दृष्टिकोण बदल गया। अब उसने द्वितीय विश्वयुद्ध को साम्राज्यवादियों का युद्ध न कहकर लोक युद्ध कहना आरम्भ कर दिया और जनता से अपील की कि ब्रिटिश सरकार को हर सम्भव सहायता प्रदान की जाये ताकि फासिस्ट शक्तियों को परास्त किया जा सके। जब कांग्रेस ने भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया तो इस पार्टी ने आन्दोलन को तुरन्त स्थगित करने की मांग की।

इसी प्रकार, बोलशेविक-लेनिनिस्ट पार्टी और दी रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी आदि संगठन भी अस्तित्त्व में आये। इनमें से अधिकांश ने काग्रेस के अन्दर रहते हुए कार्य करना पसन्द किया। ये लोग, कांग्रेस को अपनी विचारधारा के अनुरूप ढालना चाहते थे परन्तु ऐसा नहीं हो सका।

अध्याय – 77 : भारत में मजदूर आन्दोलन – 1

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भारत में 1835 ई. तक चाय बागान श्रमिक अस्तित्व में आ चुके थे फिर भी यह माना जा सकता है कि भारत में औद्योगिक मजदूरों का वर्ग 1850-55 ई. की अवधि में उस समय अस्तित्व में आया, जब देश में पहली कपड़ा मिल खुली, पहली चटकल खुली, पहली रेल चली तथा खानों से बड़ी मात्रा में कोयला निकालना आरम्भ हुआ। जैसे-जैसे मजदूरों की संख्या बढ़ी, उन्हें संगठित होने की आवश्यकता अनुभव हुई और देश में मजदूर संगठनों की स्थापना हुई तथा उनके उदय के साथ ही भारत में मजदूर आंदोलन भी उठ खड़े हुए। रजनी पामदत्त के अनुसार- ‘भारत में मजूदर आन्दोलन की शुरुआत लगभग 50 साल पहले  हुई किन्तु संगठित आन्दोलन के रूप में उसका इतिहास, प्रथम विश्व युद्ध के बाद आरम्भ होता है।’

भारत में औद्योगिक क्रांति

1850-59 ई. का दशक, भारत में औद्योगिक क्रांति का प्रारम्भिक काल था। इस अवधि में भारत में रेल आई तथा बंगाल, बम्बई एवं अन्य राज्यों में कोयला खनन, जूट और सूती कपड़ा निर्माण के बड़े उद्योग आरम्भ हुए। भारत में इन उद्योगों का आरम्भ, पूँजीवादी इंग्लैण्ड को लाभ पहुँचाने के लिये किया गया था। इंग्लैण्ड की मिलांे को कच्चे माल की आवश्यकता थी। भारत में कच्चा माल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था किंतु कच्चे माल वाले क्षेत्रों को आपस में जोड़ना आवश्यक था ताकि कच्चे माल के विशाल भण्डारों को मैदानों से बंदरगाहों तक सरलता से ले जाया जा सके। इस कारण भारत में कच्चा माल ढोने के लिये रेलों का और रेलों को चलाने के लिये कोयला-खनन उद्योग का तेजी से विकास हुआ। भारत के औद्योगिक विकास के प्रथम चरण में जो उद्योग अस्तित्त्व में आये उनकी स्थापना यूरोपीय उद्योगपतियों ने की क्योंकि भारतीय वैश्य, सदियों से व्यापारी और साहूकार के रूप में काम कर रहे थे। वे इतने बड़े पूँजीपति नहीं थे जो उद्योगों में पूंजी निवेश कर सकें परन्तु धीरे-धीरे भारतीय वैश्य भी उद्योगों की स्थापना के लिये आगे आये। इन्हीं उद्योगों के साथ श्रमिक शक्ति का उदय हुआ। लगभग 50-60 वर्षों तक भारत में औद्योगिकीकरण रेलवे, कोयला-खनन, जूट तथा कपड़ा उद्योग तक सीमित रहा।

औद्योगिक मजदूरों की संख्या में वृद्धि

19वीं सदी के अन्त तक कुछ प्रमुख क्षेत्रों- रेलवे, कोयला खनन, जूट तथा कपड़ा आदि का औद्योगिकीकरण हो चुका था। उद्योगों के विस्तार के साथ-साथ मजदूरों की संख्या में भी वृद्धि होती जा रही थी। उस समय के भारतीय मजदूर वर्ग की संख्या का अनुमान लगाना कठिन है क्योंकि सम्पत्ति-विहीन, सर्वहारा श्रमजीवियों की संख्या अत्यधिक थी जबकि आधुनिक ढंग के उद्योगों में काम करने वाले औद्योगिक मजदूरों की संख्या अत्यल्प थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1884 ई. में भारत में 815 कारखाने थे जिनमें 3,49,810 मजूदर काम करते थे। 1902 ई. में 1533 कारखानों में 5,41,634 मजदूर और 1914 ई. में 2,936 कारखानों में 9,50,973 मजदूर कार्यरत थे। फैक्ट्री एक्ट के अंतर्गत वे कारखाने आते थे जिनमें भाप या विद्युत शक्ति से मशीनें चलती थीं और बीस या अधिक मजदूर काम करते थे। कुछ सूबों में दस या दस से अधिक मजदूरों से काम लेने वाले कारखाने भी फैक्ट्री एक्ट के अन्तर्गत आ जाते थे। इस से कम संख्या में नियोजित श्रमिकों वाले कारखानों के मजदूर औद्योगिक मजदूर नहीं माने जाते थे। जिन उद्योगों में भाप या विद्युत शक्ति का प्रयोग नहीं होता था जैसे कि सिगरेट बनाने के कुछ कारखानों में पचास से भी अधिक मजदूर काम करते थे, औद्योगिक मजदूरों में सम्मिलित नहीं किये जाते थे।

भारत में औद्योगिक श्रमिक वर्ग का उदय एक तरह की सामाजिक क्रांति थी। इस वर्ग का जन्म ग्रामीण बेरोजगारों और ग्रामीण निर्धनों से हुआ था। ये वे लोग थे जो औपनिवेशिक विस्तार के दबाव एवं नवीन सामाजिक प्रणाली के कारण गांवों में बेरोजगार हो जाने के कारण, अपने गांव छोड़कर रोजगार की खोज में निकटवर्ती शहरों में चले आये थे परन्तु वहाँ भी रोजगार के सीमित अवसर उपलब्ध थे। श्रमिकों की उपलब्धता आवश्यकता से अधिक होने के कारण उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक पर रखा जाता था। पूँजीपतियों ने इन ग्रामीण मजदूरों का जी-भरकर शोषण किया।

मजदूर वर्ग की दुर्दशा

नये उद्योगों के खुलने के साथ-साथ मजदूरों की संख्या बढ़ती चली गई परन्तु प्रथम विश्व युद्ध के पहले उसके काम, काम की अवधि, वेतन, रहने के घर आदि की हालत बहुत दयनीय थी। पुरुष एवं महिला श्रमिकों से प्रातः 5 बजे से लेकर रात्रि 10 बजे तक काम लिया जाता था। 6-7 साल के लड़के-लड़कियों से भी 13-14 घंटे काम लिया जाता था। इतनी कड़ी और लम्बी मेहनत के कारण अधिकतर मजदूर कम आयु में ही बीमार होकर मर जाते थे अथवा काम करने की क्षमता से हाथ धो बैठते थे। उनका उपचार नहीं करवाया जाता था तथा उनके स्थान पर तुरन्त नये मजदूर भर्ती कर लिये जाते थे। मजदूरों को कितना वेतन मिलता था, इसका सही विवरण नहीं मिलता। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1892 ई. में पुरुषों को 12 रुपये, औरतों को 9 रुपये तथा बच्चों को 6 रुपये मासिक मजदूरी मिलती थी। ये आंकड़े सही नहीं माने जा सकते। वास्तविक पारिश्रमिक इससे काफी कम था। इस पर भी, प्रतिदिन काम नहीं मिल पाता था। पारिश्रमिक तय करने के बाद भी, काम को खराब बताकर, या कम बताकर या अन्य बहाने बनाकर पारिश्रमिक काट लिया जाता था।

1928 ई. में ब्रिटेन की ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रतिनिधि मण्डल ने भारत के कारखानों का दौरा किया तथा भारत के मजदूरों की हालत के बारे में कहा- ‘सारी-जांच पड़ताल से यही पता चलता है कि भारत के अधिकतर मजदूरों को एक शिलिंग रोज से ज्यादा नहीं मिलता।’ प्रतिनिधि मण्डल ने मजदूरों के निवास स्थानों के बारे में लिखा- ‘हम लोग जहाँ भी ठहरे, वहाँ मजदूर-बस्तियों को देखने अवश्य गये और यदि हम उनको न देखते, तो हमें कभी यह विश्वास नहीं होता कि दुनिया के पर्दे पर इतनी गन्दे स्थान भी हैं।’ बीमारी, बेकारी, वृद्धावस्था और मृत्यु के समय मजदूरों की सहायता करने का कोई प्रबन्ध नहीं था।

1931 ई. की जनगणना रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के सबसे बड़े औद्योगिक केन्द्र बम्बई में मजदूर जिस तरह के घरों में रहते हैं, वह किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक की बात है। 1938 ई. में भारतीय मजदूरों के प्रतिनिधि एस. वी. परूलेकर ने जेनेवा में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के समक्ष प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा- ‘भारत में अधिकतर मजदूरों को जितनी मजदूरी मिलती हैं, उससे वे जिन्दगी की मामूली से मामूली जरूरतों को भी पूरा नहीं कर सकते।’

मजदूर वर्ग के असन्तोष के प्रारम्भिक संकेत

औद्योगिक मजदूर वर्ग लम्बे समय तक शोषण को चुपचाप सहन करता रहा, फिर उनका असन्तोष हड़ताल और प्रदर्शन के रूप में अभिव्यक्त होने लगा। मालिकों द्वारा किये जा रहे शोषण, सरकार और पुलिस के अत्याचार तथा अधिकारियों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न के विरुद्ध मजूदरों ने अपना असन्तोष असंगठित रूप में व्यक्त करना आरम्भ किया। मजदूर वर्ग के असन्तोष का पहला प्रभावी संकेत 1877 ई. में देखने को मिला जब मजदूरी की दर के प्रश्न को लेकर नागपुर की एम्प्रेस मिल के मजदूरों ने हड़ताल की। इसके बाद 1882 से 1890 ई. की अवधि में मद्रास प्रेसीडेंसी तथा बम्बई प्रेसीडेंसी में 25 हड़तालें हुईं। ये समस्त हड़तालें संयोगवश ही हुई थीं जो जुर्माने तथा वेतन में कटौती जैसी शिकायतों को लेकर थीं। ये किसी सुव्यवस्थित योजना का परिणाम नहीं थीं। अभी मजदूर संगठित नहीं हो पाये थे फिर भी, उन्होंने हड़ताल रूपी हथियार का प्रयोग करना सीख लिया था। मिल मालिकों ने मजदूरों की हड़तालों को रोकने के लिए कई कड़े नियम लागू किये।

श्रमिक संघों का उदय

भारत में श्रमिक संघों का उदय कब और किन परिस्थितियों में एवं किन व्यक्तियों के माध्यम से हुआ यह विवादास्पद प्रश्न है। अयोध्यासिंह के अनुसार सबसे पहले बंगाल के ब्रह्म समाजी नेता शशिपद बनर्जी ने नवम्बर 1866 में कलकत्ता के उत्तरी किनारे पर स्थित बरा नगर में मजदूरों की एक सभा की तथा उनकी भलाई के लिए सुरापान निवारणी समिति और आशा बैंक की स्थापना की। 1870 ई. में उन्होंने मजदूरों को संगठित करने के लिए श्रमजीवी समिति की स्थापना की। 1872 ई. में उन्होंने भारत श्रमजीवी नामक मासिक पत्र निकाला। बनर्जी का कार्यक्षेत्र मजदूरों की तकलीफें सुनने तथा मजदूरों और मालिकों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने तक सीमित था।

परम्परागत रूप से माना जाता है कि भारत में मजदूर आन्दोलन का इतिहास 1884 ई. में बम्बई में मजदूरों की एक सभा से आरम्भ हुआ जिसे एन. एम. लोखंडी नामक स्थानीय सम्पादक ने आहूत किया था। इस प्रकार, भारत में श्रमिक संघों का उदय एक गैर-श्रमिक व्यक्ति की पहल पर हुआ। लोखंडी ने मजदूरों की मांगों का एक आवेदन-पत्र तैयार किया, जो बम्बई के मजदूरों की तरफ से फैक्ट्री कमीशन को दिया जाने वाला था। इस आवेदन पत्र में मांग की गयी कि काम के घंटों पर पाबन्दी लगायी जाये, सप्ताह में एक दिन का अवकाश मिले, दोपहर में खाने-पीने की छुट्टी दी जाये और दुर्घटनाग्रस्त मजदूरों को मुआवजा मिले। इस आवेदन-पत्र पर लगभग 5 हजार मजदूरों ने हस्ताक्षर किये। लोखंडी स्वयं को बम्बई मिल मजदूर एसोसिएशन का सभापति बताते थे। यद्यपि इस संघ का विधिवत् गठन नहीं हुआ था, तथापि इसका उल्लेख प्रथम मजदूर संगठन के रूप में किया जाता है।

रजनी पामदत्त उपरोक्त विचार से सहमत नहीं हैं। उन्होंने लिखा है- ‘लोखंडे (लोखंडी) का भारत के मजदूर इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है किन्तु यह समझना गलत है कि भारत में मजदूर आन्दोलन लोखंडे के काम से आरम्भ हुआ है। बम्बई मिल मजदूर एसोसिएशन किसी भी अर्थ में मजदूर संगठन नहीं था। उसके न तो सदस्य थे, न कायदे-कानून थे और न ही कोई कोष था। लोखंडे मजदूरों की भलाई चाहने वाले एक परोपकारी वृत्ति के व्यक्ति थे जो मजदूरों के हित में कानून बनवाने का प्रयत्न किया करते थे। वे मजदूरों के संगठन या मजदूरों के संघर्ष का श्रीगणेश करने वाले व्यक्ति नहीं थे।’

मजदूरों के कल्याण की बात को लेकर अन्य संगठन भी बने जैसे- जी. आई. पी. रेलवे सिगनलर्स यूनियन (1896 ई.), एमल्गमेटिड सोसायटी ऑफ रेलवे सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया एण्ड बर्मा (1897 ई.), वर्किंग मेन्स इंस्टीट्यूशन कलकत्ता (1905 ई.), चटकल यूनियन बंगाल (1906 ई.), ईस्ट इंडिया रेलवे इम्प्लॉइज यूनयिन (1907 ई.), बम्बई की पोस्टल यूनियन (1907 ई.), बम्बई कामगार हितवर्धिनी सभा (1910 ई.) आदि। किसी भी यूनियन ने, यहाँ तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी, प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति तक मजदूरों के संघर्ष की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की।

मजदूरों में संगठन की कमी रही, फिर भी वे निष्क्रिय नहीं रहे। उस युग के मजदूर जिस तरह संघर्ष में एक-दूसरे का साथ देते थे, और उनमें प्राथमिक ढंग की जो वर्ग-चेतना उत्पन्न हो गयी थी, उसे कम करके नहीं आंकना चाहिए। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशक की हड़तालें अधिक लम्बी, बड़ी और संगठित थीं। उदाहरण के लिए 1895 ई. में बजबज जूट मिल के मजदूरों की हड़ताल के कारण मिल लगभग 45 दिन बन्द रही। हड़तालियों पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमें दो हड़ताली गम्भीर रूप से घायल हुए। बजबज मिल के डायरेक्टरों ने 1895 ई. में अपनी रिपोर्ट में लिखा- ‘उन्हें इस बात का खेद है कि इस छमाही में मजदूरों ने एक हड़ताल की जिसके कारण मिल 6 हफ्ते तक बन्द पड़ी रही।’ यह अपनी तरह की पहली जोरदार हड़ताल थी।

1897 ई. में जब बम्बई की मिल मालिक एसोसएशन ने मजदूरों को वेतन पर रखने के बजाय ठेके पर रखने का निर्णय किया तो इस निर्णय के विरुद्ध 8000 बुनकरों ने हड़ताल की। 1899 ई. में जी. आई. पी. सी. रेलवे के सिगनल देने वाले मजदूरों की महत्त्वपूर्ण हड़ताल हुई। छोटी-छोटी हड़तालों का क्रम तो चलता ही रहता था। 1882 से 1890 ई. के बीच, बम्बई और मद्रास के विभिन्न कारखानों मे 25 महत्त्वपूर्ण हड़तालें हुईं। छोटी हड़तालें और भी अधिक थीं। ये हड़तालें मजदूरों की एकता और समान उद्देश्यों के लिए संघर्ष की ज्वलन्त उदाहरण हैं। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि 1880-1908 ई. के मध्य, मजदूर वर्ग शक्तिशाली हो चुका था।

डी. एच. बुकानना ने लिखा है- ‘1880 और 1908 के बीच विभिन्न सरकारी कमीशनों के समक्ष जितनी भी गवाहियाँ आयीं, उनमें में यह बात कही गयी कि मजदूरों की कोई वास्तविक यूनियन नहीं बनी है। फिर भी, बहुत से लोगों ने बताया कि अलग-अलग मिलों के मजदूर अक्सर आपस में एक साथ मिल जाते हैं और एक समूह के रूप में बड़ी आजादी का परिचय देते हैं।’

1892 ई. में बॉयलरों के इन्सपेक्टर ने सरकार को बताया- ‘मजदूरों में एक अजीब एका दिखायी देता है जिसकी न तो कोई लिखा-पढ़ी हुई है और न ही जिसे कोई खास नाम दिया गया है।’ बम्बई के कलक्टर ने सरकार को लिखा- ‘मुझे विश्वास है कि इसी एके के कारण मजदूरों ने बहुत दिनों से अपनी मजदूरी में कोई हेर-फेर नहीं होने दिया।’ इसी प्रकार, बम्बई प्रान्त में उद्योगों के संचालक मि. भरूचा ने कहा था- ‘मालिकों के मुकाबले में मजदूर सर्वशक्तिमान मालूम पड़ता है; और हालांकि उनकी कोई यूनियन नहीं है, मगर मालिकों के विरुद्ध एक हो जाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती।’

हड़तालों का जुझारूपन

1905 ई. के बाद मजदूरों की हड़तालों में जुझारूपन आ गया। इसका एक कारण राष्ट्रीय आन्दोलन में जुझारूपन आना था। उससे मजदूर वर्ग भी अछूता न रहा। उसमें भी राजनीतिक चेतना और नवजागरण के लक्षण दिखाई देने लगे। बंगाल के विभाजन से देश में असन्तोष व्याप्त था और बंगाल प्रबल राजनीतिक आन्दोलन का केन्द्र बना हुआ था। बंग-भंग आन्दोलन ने भी मजदूर आन्दोलनों को प्रेरणा दी।

कलकत्ता में छापाखाने की हड़ताल

1905 ई. में बंगाल में कई हड़तालें हुईं परन्तु कलकत्ता में हुई भारत सरकार के छापाखाने के कर्मचारियों की हड़ताल बहुत महत्त्वपूर्ण थी। यह हड़ताल सितम्बर 1905 में आरम्भ हुई और लगभग एक माह तक चली। हड़तालियों की मुख्य मांगें थीं- ओवरटाइम के भत्ते में वृद्धि, रविवार तथा अन्य अवकाश के दिन काम के लिए अतिरिक्त पैसा, जुर्माना बन्द और रुग्णावकाश दिये जाने की व्यवस्था। सरकार ने हड़तालियों से कुछ ही दिनों में समझौता कर लिया। हड़ताल टूटने के तुरन्त बाद 7 हड़ताली नेताओं को नौकरी से हटा कर गिरफ्तार कर लिया गया। सरकार की इस कार्यवाही से मजदूर भड़क उठे और जबरदस्त हड़ताल आरम्भ हुई। राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक नेता भी हड़तालियों की सभा में भाषण देने जाने लगे तो सरकार ने घोर दमन का सहारा लिया। इस पर भी स्थिति नहीं बदली तो सरकार को झुकना पड़ा और कुछ माँगों को स्वीकार करना पड़ा। गिरफ्तार नेताओं को रिहा करना पड़ा। तब जाकर हड़ताल समाप्त हुई। यह मजदूरों की शानदार जीत थी।

ईस्ट इण्डिया रेलवे की हड़ताल

जुलाई 1906 में ईस्ट इण्डिया रेलवे के बंगाल सेक्शन में हड़ताल हुई। इस हड़ताल का मुख्य कारण यूरोपीयों और भारतीयों के वेतन में भारी अन्तर, ब्रिटिश अधिकारियों का भारतीय रेलवे कर्मचारियों के साथ दुव्यर्वहार और अच्छे आवास की मांग आदि थे। यह हड़ताल इतनी जबरदस्त रही कि इंग्लैण्ड के ब्रिटिश शासकों में भी हलचल मच गई। चूँकि हड़तालियों को राजनीतिक नेताओं ने सम्बोधित किया था, इसलिये हड़ताल को राजनीति से प्रेरित बताकर क्रूरता के साथ कुचला गया। कई पुराने रेलवे कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया गया। 1907 ई. में रेलवे कर्मचारियों ने पुनः हड़ताल कर दी। इस बार सारे देश में हड़ताल हुई। मई 1907 में बम्बई के रेलवे वर्कशॉप के मजदूरों ने हड़ताल की। नवम्बर 1907 में ईस्ट इण्डिया रेलवे के मजदूरों ने हड़ताल की। इस हड़ताल के कारण कल-कारखानों और जहाजों को कोयला मिलना बन्द हो गया। सरकार ने पुलिस और सेना की सहायता से हड़ताल को कुचलने का प्रयास किया परन्तु सफलता नहीं मिली। यह हड़ताल बी. एन. आर. में भी फैलने लगी। अन्त में सरकार को झुकना पड़ा और रेलवे मजदूरों की मांगों पर विचार करने के लिए एक बोर्ड बैठाना पड़ा। इससे ब्रिटिश सरकार की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा।

महाराष्ट्र के मजदूरों की हड़ताल: देश में सबसे महत्त्वपूर्ण हड़ताल 22 जुलाई 1908 को तिलक को दिये गये 6 साल के कारावास के विरुद्ध बम्बई के मजदूरों ने की। यह मजदूरों की राजनीतिक आम हड़ताल थी जो 6 दिन तक जारी रही और मजदूरों ने बम्बई की सड़कों पर ब्रिटिश सेना से जमकर लोहा लिया। जब 13 जुलाई को अदालत में तिलक के मुकदमे की सुनवाई आरम्भ हुई तो मजदूरों ने सरकार को, तिलक को न फंसाने की चेतावनी दी तथा हड़ताल पर चले गये। 17 जुलाई को मजदूरों के आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। 18 और 19 जुलाई को लगभग 65,000 मजदूर सड़कों पर निकल आये। पुलिस ने हड़ताली मजदूरों पर गोलियाँ चलाईं। 20 जुलाई को हजारों लोग मजदूरों के समर्थन में आ जुटे। 21 और 22 जुलाई को हड़ताल ने विराट रूप धारण कर लिया। 22 जुलाई को जब तिलक को कारावास की सजा सुनाई गई तो 23 जुलाई से सर्वोच्च स्तर की हड़ताल आरम्भ हो गई। एक लाख मजदूरों और आम जनता ने मिलकर पुलिस और सेना के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। बहुत से लोग मारे गये तथा सैकड़ों घायल हुए। 6 दिन तक चले क्रूर दमन के बाद हड़ताल को कुचल दिया गया। इस हड़ताल ने प्रमाणित कर दिया कि भारत का मजदूर वर्ग भी राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

इस समय तक भारत के औद्योगिक प्रतिष्ठानों में मजदूरों की संख्या में आशातीत वृद्धि हो चुकी थी और वे सरकार तथा मिल मालिकों, दोनों से एक साथ लोहा लेने की स्थिति में आ गये थे। 1914 ई. के आंकड़ों के अनुसार उस समय भारत में 264 कपड़ा मिलें काम कर रही थीं जिनमें लगभग ढाई लाख मजदूर और कर्मचारी कार्य करते थे। जूट उद्योग की 60 मिलों में लगभग दो लाख मजदूर थे और रेलवे में 6 लाख से अधिक मजदूर तथा कर्मचारी थे। सरकारी छापाखानों, टेलीफोन तथा टेलीग्राफ, पोस्ट ऑफिस तथा अन्य उद्योगों में भी लाखों मजदूर कार्यरत थे। इतना होने पर भी उनका कोई टिकाऊ संगठन नहीं बन पाया था। रजनी पामदत्त ने लिखा है- ‘अभी मजदूरों का टिकाऊ संगठन बनाना सम्भव नहीं था। वजह यह नहीं थी कि भारत के मजदूर पिछड़े हुए थे या उनमें लड़ाकू मनोभावना की कमी थी। इसकी वजह केवल यह थी कि मजदूर हद से अधिक गरीब थे, पढ़े-लिखे नहीं थे और उनके पास साधनों का अभाव था।’

प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत में जिस प्रकार की परिस्थितियां बन रही थीं और भारत पर रूसी क्रान्ति तथा उसके बाद सारी दुनिया में उठने वाली क्रान्तिकारी लहर का जो प्रभाव पड़ा था, उनके कारण भारत का मजदूर वर्ग संघर्ष करने के लिये तैयार हो गया। यहीं से भारत में आधुनिक ढंग का मजदूर आन्दोलन आरम्भ हुआ। देश की आर्थिक हालत और राजनीतिक परिस्थिति दोनों ने ही मजदूरों में नयी जागृति पैदा करने में सहायता दी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान देश में वस्तुओं की कीमतें दुगनी हो गईं किन्तु मजदूरों के वेतन में इस हिसाब से वृद्धि नहीं हुई। इस कारण उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई। इसके विपरीत मिल मालिक अंधाधुंध लाभ अर्जित कर रहे थे। समाज के मध्यम वर्ग ने अपने राजनीतिक संघर्ष एवं स्वार्थ के लिए मजदूरों का इस्तेमाल किया और एक जबरदस्त आन्दोलन चलाया गया। पहली बार, मजदूरों को सुनियोजित ढंग से अपने असन्तोष को अभिव्यक्त करने का अवसर मिला परन्तु उनका नेतृत्व मध्यम वर्ग के हाथों में चला गया। 1918 ई. के अंत में एक बड़े औद्योगिक केन्द्र में पहली बार पूरा उद्योग, हड़ताल के कारण ठप्प हो गया। यह उस वक्त हुआ जब बम्बई की सूती मिलों में हड़ताल आरम्भ हुई। 1918 ई. में हड़तालों की जो लहर आरम्भ हुई, वह 1919 ई. में समस्त देश में फैल गयी। जनवरी 1919 ई. तक लगभग समस्त मिलों के 1,25,000 मजदूर बाहर निकल आये। 1919 ई. के बसन्त में रोलट एक्ट के विरुद्ध हड़ताल हुई। उसमें मजदूरों ने जिस तरह भाग लिया, उससे स्पष्ट हो गया कि मजदूर वर्ग भी अब राष्ट्रीय संघर्ष में सबसे आगे बढ़कर लड़ने लगा है। 1919 ई. के खत्म होते-होते और 1920 ई. के पूर्वार्द्ध में हड़तालों की व्यापकता और तेजी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी।

आर. के. दास ने भारत का मजदूर आन्दोलन नामक पुस्तक में लिखा है- ‘4 नवम्बर से 2 दिसम्बर 1919 तक कानपुर की ऊनी मिलों के 17,000 मजदूरों ने हड़ताल की; 7 दिसम्बर 1919 से 9 जनवरी 1920 तक जमालपुर के 16,000 रेलवे मजदूरों ने हड़ताल की; 9 से 18 जनवरी 1920 तक कलकत्ते की जूट मिलों के 35,000 मजदूरों ने काम करना बन्द रखा; 2 जनवरी से 3 फरवरी तक बम्बई में आम हड़ताल रही जिसमें 2 लाख मजदूरों ने भाग लिया, 31 जनवरी को बम्बई में ब्रिटिश इंडिया नैवीगेशन कम्पनी के 10,000 मजदूरों ने हड़ताल की; 26 फरवरी तक शोलापुर के 16,000 मिल मजदूरों ने काम बन्द रखा; 2 से 16 फरवरी तक इण्डियन मैरीन डाक (गोदी) के 20,000 मजदूरों ने हड़ताल रखी; 24 फरवरी से 29 मार्च तक टाटा के लोहे और इस्पात कारखाने के 40,000 मजदूरों ने काम बन्द रखा; 20 से 26 मार्च तक मद्रास के 17,000 मिल मजदूरों ने हड़ताल की; मई, 1920 में अहमदाबाद के 25,000 मजदूरों ने काम बन्द रखा।’

इस प्रकार 1920 ई. के पहले 6 महीने की अवधि में लगभग 200 हड़तालें हुईं जिनमें 15 लाख से अधिक मजदूरों ने भाग लिया।

अध्याय – 78 : भारत में मजदूर आन्दोलन – 2

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ट्रेड यूनियनवाद का उदय

बीसवीं सदी के दूसरे दशक में राष्ट्रव्यापी हड़तालों की पृष्ठभूमि में भारत का ट्रेड यूनियन आन्दोलन उत्पन्न हुआ। लगभग समस्त बड़े उद्योगों तथा औद्योगिक केन्द्रों में अधिकतर ट्रेड यूनियनें इसी अवधि में बनीं। इनमें से कई तो बुनियादी तौर पर हड़ताल कमेटियां मात्र थीं। ऐसी यूनियनों में अधिक समय तक टिकने की शक्ति नहीं थी। मजदूर लोग संघर्ष के लिए तैयार रहते थे परन्तु यूनियन का दफ्तरी काम दूसरे लोग करते थे। इस सम्बन्ध मे रजनी पामदत्त ने लिखा है- ‘अभी देश में समाजवाद के आधार पर, मजदूर वर्ग के विचारों तथा वर्ग-संघर्ष के आधार पर चलने वाला कोई राजनीतिक आन्दोलन नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि विभिन्न कारणों से प्रेरित होकर जो बाहरी लोग दूसरे वर्गों के मजदूरों के संगठनों की सहायता करने को आये, उनमें मजदूर आन्दोलन के उद्देश्यों तथा जरूरतों की कोई समझ नहीं थी…… भारत के मजदूर आन्दोलन के गले में बहुत दिनों तक यह पत्थर बंधा रहा और उसने मजदूरों की शानदार लड़ाकू भावना और वीरता के बढ़ने में बहुत बाधा डाली, और उसका असर, अब भी बाकी है।’

मद्रास श्रमिक संघ की स्थापना

आम तौर पर यह माना जाता है कि नियमित सदस्यता और शुल्क के आधार पर ट्रेड यूनियन संगठन बनाने का पहला प्रयास थियोसोफिकल सोसाइटी की नेता श्रीमती एनीबेसेंट के सहयोगी वी. पी. वाडिया ने 1918 ई. में मद्रास श्रमिक संघ की स्थापना के रूप में किया। यह मद्रास शहर की कपड़ा मिलों में काम करने वाले मजदूरों के लिए बनाई गई थी। उन्हें इस यूनियन का सदस्य बनाया गया और उनसे चन्दा वसूल किया गया। जिस औद्योगिक केन्द्र में यह यूनियन बनी, वह खुद अपेक्षाकृत कमजोर था। वाडिया का दृष्टिकोण भी संकुचित और सीमित था। अप्रैल 1918 में यूनियन बन जाने के बाद मद्रास के मजदूरों ने मिल मालिकों के सामने अपनी मांगें प्रस्तुत कीं और जब मांगें नहीं मानी गईं तो मजदूरों ने वाडिया से मांग की कि अब हड़ताल होनी चाहिए। वाडिया ने हड़ताल का विरोध किया। वाडिया ऐसे समय में हड़ताल करके मिल मालिकों को हानि पहुँचाने के पक्ष में नहीं थे। वे स्वयं को ब्रिटिश साम्राज्य की राजभक्त प्रजा समझते थे। अतः वाडिया ने हड़ताल नहीं होने दी। दूसरी तरफ बिनी एण्ड कम्पनी ने वाडिया के अनुरोध को अनसुना करके कारखाने में ताला लगा दिया। विवश होकर मजदूरों को अपनी मांगें छोड़नी पड़ीं। 1921 ई. में मिल मालिकों ने कारखाने का ताला खोल दिया। ताला खुल जाने के बाद मजदूरों ने हड़ताल कर दी। इस पर कम्पनी ने हाईकोर्ट की शरण ली। हाई कोर्ट ने हड़ताल को असंवैधानिक ठहराते हुए यूनियन पर 1 लाख 5 हजार रुपये का जुर्माना आरोपति किया। कम्पनी ने घोषणा की कि यदि वाडिया, मजदूर आन्दोलन से हट जाये तो हम यूनियन से जुर्माना वसूल करने की कार्यवाही नहीं करेंगे। इस पर वाडिया ने मजदूर आन्दोलन से सम्बन्ध तोड़ लिया।

मजूर-महाजन संघ की स्थापना

1918 ई. में गांधीजी ने अहमदाबाद के मजदूरों का पक्ष लेकर उनका नेतृत्व किया तथा एक यूनियन स्थापित की जो टैक्सटाइल लेबर एसोसिएशन अथवा मजूर-महाजन संघ के रूप में विख्यात हुई। रजनी पामदत्त ने लिखा है- ‘अहमदाबाद में गांधीजी ने मालिकों के सहयोग से एक फुट-परस्त संगठन बनाया जिसका आधार वर्ग-शान्ति स्थापित करना था। उनका बनाया हुआ यह अहमदाबाद लेबर एसोसिएशन अथवा मजूर-महाजन संघ, भारत के मजदूर आन्दोलन से सदैव अलग रहा।’

अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस

अहमदाबाद कपड़ा मिल श्रमिक संघ कांग्रेस की रचना थी। कांग्रेस, मजदूरों की उग्रवादी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहती थी क्योंकि उनके उग्र आंदोलन उन पूंजीपतियों के लिये बहुत खतरनाक सिद्ध हो रहे थे जो कांग्रेस के समर्थक थे। कांग्रेस इन पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करना चाहती थी। इसी ध्येय को लेकर 1920 ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की गई और उसे विभिन्न ट्रेड यूनियनों से सम्बद्ध किया गया। इसका पहला अधिवेशन 1920 ई. में लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में बम्बई में हुआ। जोजेफ बैप्टिस्टा इसके उपाध्यक्ष थे। आरम्भ में यह संस्था केवल ऊपरी नेताओं का संगठन थी। ट्रेड यूनियन कांग्रेस के बहुत से नेताओं का मजदूर आन्दोलन से बहुत कम सम्पर्क था। रजनी पामदत्त ने इस संगठन की स्थापना का कारण यह बताया है कि इस बहाने नेताओं को, जिनेवा के अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में कुछ प्रतिनिधियों को नामित करने एवं भेजने का अधिकार मिल जायेगा। ट्रेड यूनियन कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी एन. एम. जोशी के अनुसार भारत में ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना वाशिंगटन के मजदूर सम्मेलन के प्रभाव से हुई थी।

आगामी कई वर्षों तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मजदूरों की भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर नियन्त्रण बना रहा और लाला लाजपतराय, देशबन्धु चितंरजनदास, वी. वी. गिरि जैसे कांग्रेसी नेता इसके अध्यक्ष चुने जाते रहे। यद्यपि राष्ट्रीय आन्दोलन और श्रमिक आन्दोलन के बीच यह सम्बन्ध कई दृष्टियों से काफी महत्त्वपूर्ण रहा परन्तु मजदूर आन्दोलन के जुझारूपन को हानि पहुँची। क्योंकि इसके सम्मेलनों में प्रायः वर्ग-शान्ति का उपदेश और मजदूरों के सामाजिक एवं नैतिक सुधार की बातें रहती थीं और सरकार से मजदूरों के सम्बन्ध में कानून बनाने और उनका रहन-सहन सुधारने की मांग की जाती थी। मजदूरों को बुरी आदतें छोड़ने तथा ईमानदारी, सन्तोष एवं शान्ति का जीवन बिताने के उपदेश दिये जाते थे। इन कांग्रेसी नेताओं का हड़तालों के प्रति क्या रुख था, इस सम्बन्ध में ट्रेड यूनियन कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी एन. एम. जोशी ने लिखा है- ‘कार्यकारिणी ने कोई भी हड़ताल करने की अनुमति नहीं दी किन्तु भारत के विभिन्न भागों और विभिन्न धंधों में मजदूरों की हालत चूँकि बहुत खराब थी, इसलिए कुछ हड़तालों और तालाबंदियों की नौबत आ ही गयी जिनमें ट्रेड यूनियन कांग्रेस के पदाधिकारियों को भी दिलचस्पी लेनी पड़ी।’

1927 ई. तक ट्रेड यूनियन कांग्रेस का मजदूरों के वर्ग-संघर्ष से बहुत कम सम्बन्ध रहा। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि इस संस्था के रूप में वह मंच तैयार हो गया था जहाँ ट्रेड यूनियनों के नेता जमा होते थे, आपसी विचार-विमर्श होता था और भावी रणनीति के बारे में विचार किया जाता था।

विश्वव्यापी मंदी का प्रभाव

1922 से 1926 ई. का काल भारतीय उद्योग और अर्थव्यवस्था में घोर मन्दी का समय था और मजदूरों के असन्तोष को बढ़ाने वाला था। मजदूरों के वेतन में कटौती की जाने लगी। उद्योगों के पुनर्गठन के नाम पर उनकी छंटनी की जाने लगी, जबकि जनसंख्या वृद्धि के कारण श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हो गई थी। इससे मजदूरों में असन्तोष बढ़ गया। ट्रेड यूनियन कांग्रेस, हड़तालों के पक्ष में नहीं थी। फिर भी जब कई क्षेत्रों में हड़तालों की नौबत आ गई तो ट्रेड यूनियन कांग्रेस के नेताओं ने मजदूरों को वास्तविक लड़ाकू नेतृत्व एवं समर्थन नहीं दिया। अतः अधिकांश हड़तालें असफल रहीं अथवा कुछ मामूली सुविधाओं से सन्तोष करना पड़ा। उदाहरण के लिए सितम्बर 1922 में टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी जमशेदपुर की हड़ताल, अक्टूबर 1922 में सूरत की कपड़ा मिलों की हड़ताल, 1923 ई. में अहमदाबाद कपड़ा मिलों की हड़ताल आदि। 1927 ई. तक ट्रेड यूनियन कांग्रेस में 57 यूनियनें सम्मिलित हो गयी थीं जिनके सदस्यों की संख्या 1,50,555 थी।

संघर्ष की तैयारी

कांग्रेसी नेतृत्व, मजदूरों के असन्तोष को दूर न कर सका और ट्रेड यूनियन कांग्रेस का सफेद झण्डा लाल होने लगा। मजदूरों में साम्यवादी विचारधारा पनपने लगी और अब वे क्रान्ति तथा चिंगारी आदि शब्दों का प्रयोग करने लगे। ब्रिटिश सरकार ने कानपुर षड़यन्त्र केस की आड़ में नवोदित साम्यवादियों को गिरफ्तार करके उनकी शक्ति को कुचलने का प्रयास किया परन्तु इससे मजदूरों में साम्यवाद की लोकप्रियता पहले से भी अधिक बढ़ गई। वे अपने अधिकारों एवं हितों के लिए संघर्ष करने को उत्सुक हो उठे। यद्यपि आरम्भ में मजदूर आन्दोलन को, प्रभावशाली नेतृत्व नहीं मिल पाया, फिर भी भारत सरकार यह बात अच्छी तरह जानती थी कि यदि मजदूर वर्ग ने राजनीतिक चेतना प्राप्त कर ली और यदि उसे मजबूत संगठन और अच्छे नेता मिल गये तो ब्रिटिश साम्राज्य खतरे में पड़ जायेगा। इसीलिए सरकार ने मजदूरों की स्थिति की जांच कराने के लिए कुछ कमेटियां और कमीशन नियुक्त किये। 1921 ई. में बंगाल में औद्योगिक अशान्ति की जांच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की गयी। 1922 ई. में बम्बई प्रान्त में औद्योगिक विवादों की जांच करने के लिए कमेटी बनायी गयी। 1919-20 ई. में मद्रास प्रान्त में सरकार ने एक मजदूर विभाग खोला और फिर बम्बई प्रान्त में भी मजदूर विभाग खुल गया। 1921 ई. से औद्योगिक झगड़ों के आंकड़े रखे जाने लगे। सरकारी कमेटियों की समस्त जांच रिपोर्टों में यही सुझाव दिया गया कि मजदूर यूनियनों की राजनीतिक कार्यवाहियों पर रोक लगा दी जाये। सरकार ने इसके लिये प्रयास किये किंतु मजदूरों में राजनीतिक जागरण के चिन्ह दिखाई देने लगे थे। उनमें समाजवादी और साम्यवादी विचारों का प्रवेश होने लगा।

ट्रेड यूनियन कांग्रेस में साम्यवादियों का प्रवेश

साम्यवादियों ने अपनी पृथक ट्रेड यूनियन स्थापित कर रखी थी परंतु उसकी स्थिति काफी कमजोर थी। उन्होंने अपनी ट्रेड यूनियन को भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से सम्बद्ध करने के लिये अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में प्रभाव बढ़ाना आरम्भ किया। उनके बढ़ते हुए प्रभाव के कारण उनके नेता दत्तोपन्त ठेंगड़ी 1925 ई. में भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1927 ई. में पुनः साम्यवादी नेता एस. पी. घाटे अध्यक्ष चुने गये। इन नेताओं ने ट्रेड यूनियन कांग्रेस के माध्यम से वर्ग-संघर्ष की शुरुआत की परन्तु कार्यकारी परिषद् में सुधारवादी कांग्रेसियों का बहुमत होने के कारण वे ट्रेड यूनियन कांग्रेस को अपनी मनचाही दिशा में नहीं ले जा सके। 1927-28 ई. तक साम्यवादी नेता, ट्रेड यूनियन कांग्रेस में और अधिक शक्तिशाली हो गये। 1927 ई. में दिल्ली तथा कानपुर में ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अधिवेशन हुए। इन दोनों अधिवेशनों में मजदूरों के लड़ाकू नेताओं की चुनौती भरी आवाजें सुनायी देने लगीं और यह भी स्पष्ट हो गया कि भारत की अधिकतर ट्रेड यूनियनें मजदूर वर्ग के इन नये नेताओं के साथ हैं न कि कांग्रेसी नेताओं के।

अखिल भारतीय मजदूर एवं किसान पार्टी

साम्यवादियों ने मजदूर एवं किसान पार्टियों के माध्यम से ट्रेड यूनियनों पर नियन्त्रण स्थापित कर लिया। सर्वप्रथम नवम्बर 1925 में बंगाल में मजदूर-किसान पार्टी स्थापित की गई थी परन्तु तब इसका नाम इण्डियन नेशनल कांग्रेस की लेबर एवं स्वराज्य पार्टी था। इसके संस्थापकों में हेमन्त सरकार, कुतुबुदीन अहमद, काजी नजरुल इस्लाम आदि मुख्य थे। इसके बाद बम्बई, पंजाब और संयुक्त प्रान्त में भी इसी तरह की प्रान्तीय पार्टियां गठित की गईं। दिसम्बर 1928 में कलकत्ता अधिवेशन में इन समस्त पार्टियों को मिलाकर अखिल भारतीय मजदूर एवं किसान पार्टी का गठन किया गया। इस पार्टी के माध्यम से मजदूरों और किसानों के मध्य साम्यवादी विचारधारा का जोरदार ढंग से प्रचार किया गया। रजनी पामदत्त ने लिखा है- ‘मजदूरों में जिस नयी जागृति के चिन्ह 1927 में प्रकट हुए थे, उसका राजनीतिक रूप इस संगठन के रूप में सामने आया, हालांकि शुरु में वह बहुत सी उलझनों का शिकार बना रहा। इस संगठन से यह जाहिर होता था कि देश में कौन सी नयी शक्तियां आगे बढ़ रही हैं।’

हड़तालों की धूम

भारत में 1927-28 ई. का समय भारी अशान्ति का था। सरकार के मुद्रा विधेयक तथा रुपये के अवमूल्यन आदि कार्यों से पूँजीपतियों एवं उद्योगपतियों में बैचैनी थी तथा साइमन कमीशन को लेकर भारतीय राजनीतिक क्षितिज उद्विग्न था। सारे देश में साइमन कमीशन के विरुद्ध जोरदार प्रदर्शन किये गये जिनमें मजदूरों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। पहली बार ऐसे नेता सामने आये जिनका, कारखानों में काम करने वालों मजदूरों से घनिष्ठ सम्पर्क था और जो वर्ग-संघर्ष को अनिवार्य मानते थे। प्रारम्भ में कांग्रेस के नेता और ट्रेड आन्दोलन के सुधारवादी नेता, साइमन कमीशन के विरुद्ध होने वाली हड़तालों और प्रदर्शनों में मजदूरों की भागीदारी के पक्ष में नहीं थे परन्तु जब मजदूरों ने इन हड़तालों एवं प्रदर्शनों में शानदार सफलताएं अर्जित कीं तो कांग्रेसी नेता चौंक गये। 1928 ई. में हड़तालों के कारण 3 करोड़ 15 लाख कार्य-दिवस प्रभावित हुए। इससे जहाँ एक तरफ मजदूरों की एकता सुदृढ़ हुई, वहीं उनमें संघर्ष करने की शक्ति भी बढ़ी। यह सब साम्यवादी नेतृत्व के कारण सम्भव हो पाया। साम्यवादी नेतृत्व ने उद्योगपतियों और सरकार के पक्ष में मजदूरों के साथ विश्वासघात नहीं किया जैसा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नताओं ने किया था।

इस दौरान ट्रेड यूनियनों के संगठन का काम तेजी से आगे बढ़ा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बम्बई में ट्रेड यूनियनों की सदस्य संख्या 1923 ई. में 48,669 थी जो 1927 ई. में बढ़कर 75,602 और मार्च 1929 तक बढ़कर 2,00,325 हो गई। इन यूनियनों में बम्बई के मिल मजदूरों की गिरनी कामगार यूनियन (लाल बावटा) सबसे आगे थी जिसकी सदस्य संख्या मार्च 1929 में 65,000 हो गई थी। इसी बीच, बम्बई की पुरानी सूती मजदूर यूनियन जो 1926 ई. में स्थापित हुई थी और जो ट्रेड यूनियन कांग्रेस के मंत्री एन. एम. जोशी के सुधारवादी नेतृत्व में काम कर रही थी, की सदस्य संख्या घटकर 6,749 रह गयी। इससे पता चल जाता है कि मजदूरों को कौन-सी यूनियन पसन्द थी। गिरनी कामगार यूनियन की शक्ति इस बात में थी कि अलग अलग मिलों में उसकी मिल-कमेटियां थीं और उनका मजदूरों के साथ बहुत निकट का सम्पर्क था। इस प्रकार, मजदूर आन्दोलन आर्थिक और राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में आगे-आगे चल रहा था और सुधारवादी नेतृत्व को हटा रहा था। इससे सरकार और कांग्रेसी नेतृत्व दोनों को चिन्ता हुई।

जनवरी 1929 में वायसराय लॉर्ड इरविन ने कहा- ‘कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रचार से बड़ी चिन्ता उत्पन्न हो रही है।’ 1928-29 ई. की सरकारी रिपोर्ट में कहा गया- ‘कम्युनिस्टों के प्रचार एवं प्रसार से, विशेष तौर पर कुछ बड़े शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच उनके प्रचार और प्रभाव से, अधिकारियों को बहुत चिन्ता हुई।’ भारत के राष्ट्रवादी अखबारों को भी चिन्ता सताने लगी।

मई 1929 में बोम्बे क्रॉनिकल ने लिखा– ‘देश में आजकल समाजवाद का वातावरण है। कुछ महीनों से भारत में विभिन्न सभा-सम्मेलनों, खास तौर पर किसानों और मजदूरों के सम्मेलनों द्वारा समाजवादी सिद्धान्तों का प्रचार हो रहा है।’

ऐसी स्थिति में ट्रेड यूनियन के सुधारवादी नेताओं को अपना नेतृत्व छिन जाने की आंशका उत्पन्न हो गई। ट्रेड यूनियन की कार्यकारिणी समिति के अध्यक्ष शिवराव ने कहा– ‘अब समय आ गया है जब भारत के ट्रेड यूनियन आन्दोलन को अपने संगठन में से शरारती लोगों को निकाल देना चाहिए।’ स्पष्ट है कि उनका संकेत साम्यवादियों की तरफ था।

मेरठ षड़यन्त्र केस

भारतीय मजदूरों में साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने की दृष्टि से 1929 ई. में गवर्नर जनरल ने एक विशेष अध्यादेश निकाला जिसका उद्देश्य भारत में साम्यवादी गतिविधियों पर रोक लगाना था। इसके बाद ट्रेड डिस्प्यूट्स एक्ट (औद्योगिक झगड़ों का कानून) बनाया गया जिसका उद्देश्य मजदूरों और मालिकों के झगड़ों को समझौतों के द्वारा सुलझाना तथा सार्वजनिक आवश्यकता के धन्धों में हड़ताल के अधिकार को सीमित करना था। मार्च 1929 में सारे भारत में मजदूर आन्दोलन के सक्रिय नेता बंदी बना कर मेरठ ले जाये गये जहाँ उन पर मुकदमा चलाया गया। आरम्भ में 31 प्रमुख नेताओं को बंदी बनाया गया था। बाद में लेस्टर हचिंसन नामक एक अँग्रेज को भी गिरफ्तार करके 32वाँ अभियुक्त बनाया गया। उस पर ब्रिटिश सरकार का तख्ता उलटने का षड़यन्त्र रचने का आरोप लगाया गया। इतिहास में यह घटना मेरठ षड़यन्त्र केस के नाम से प्रसिद्ध है। यह इतिहास में सबसे लम्बे और सबसे विशद सरकारी मुकदमों में गिना जाता है। इस मुकदमे में श्रीपाद अमृत डांगे, मुजफ्फर अहमद, एस. वी. घाटे, किशोरी लाल घोष, के. एन. जोगलेकर, फिलिप स्प्रैंट, एस. एस. मिरजकर, बी. एफ. ब्रेडले, पी. सी. जोशी, जी. एम. अधिकारी, धरनी गोस्वामी आदि नेता मुख्य अभियुक्त थे। अभियुक्तों में इंग्लैण्ड के मजदूर आन्दोलन के तीन प्रतिनिधि भी सम्मिलित थे। समस्त अभियुक्त ट्रेड यूनियन कांग्रेस, गिरनी कामगार यूनियन एवं मजदूर-किसान पार्टियों के पदाधिकारी थे। मुकदमे को जानबूझकर तीन साल तक खींचा गया ताकि प्रमुख नेताओं की अनुपस्थिति में ट्रेड यूनियन आन्दोलन और मजदूर किसान आन्दोलन को कुचला जा सके। लम्बी सुनवाई के बाद जनवरी 1933 में समस्त अभियुक्तों को कठोर सजाएं सुनाई गईं। मुजफ्फर अहमद को आजन्म काला पानी; डांगे, घाटे, जोगलेकर, निम्बकर और स्प्रैंट को बारह साल का कालापानी; ब्रेडले, मिरजकर और उस्मानी को दस साल का काला पानी दिया गया। इसी प्रकार की सजाएं शेष अभियुक्तों को भी दी गईं। बाद में विश्व जनमत के दबाव के कारण अपील में सजाएं काफी घटा दी गईं। प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी, लम्बी सुनवाई और लम्बी सजाओं के परिणामस्वरूप मजदूर आन्दोलन को काफी धक्का लगा। भारतीय साम्यवादी दल के अब तक किये गये समस्त प्रयासों पर पानी फिर गया। उसे पुनः संभलने में काफी समय लगा।

ट्रेड यूनियन कांग्रेस में दरार

मेरठ षड़यन्त्र केस के उपरान्त भी सुधारवादियों (कांग्रेसी) और उग्रवादियों (साम्यवादी) में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के नेतृत्व पर कब्जा करने के लिए प्रतिस्पर्धा जारी रही। 1929 ई. के अन्त में नागपुर अधिवेशन में ट्रेड यूनियन कांग्रेस में उग्रवादियों का बहुमत हो गया और सुधारवादी अल्पमत में आ गये। उन्होंने बहुमत के फैसले को मानने से इन्कार कर दिया और ट्रेड यूनियन कांग्रेस में फूट डाल दी। वे अपनी समर्थक यूनियनों को लेकर ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अलग हो गये और उन्होंने अपना अलग ट्रेड यूनियन फेडरेशन बना लिया। जिन उग्रवादी नेताओं के हाथों में ट्रेड यूनियन कांग्रेस की बागडोर आ गयी थी, उनमें भी आपसी एकता एवं सहयोग की कमी थी। 1931 ई. के अधिवेशन में दोनों पक्षों में मतभेद इतने बढ़ गये कि देशपाण्डे के नेतृत्व में साम्यवादियों ने ट्रेड यूनियन कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद करके रैड ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की। इसका मूल कारण रूसी कम्युनिस्ट नेता कामिन्टर्न (तृतीय) का भारतीय कम्युनिस्टों को यह आदेश था कि सुधारवादी बुर्जुआओं अथवा राष्ट्रवादी सुधारवादियों से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखा जाये।

साम्यवादियों का यह निर्णय स्वयं उनके लिए घातक सिद्ध हुआ। अब ब्रिटिश सरकार के लिए साम्यवादियों को गिरफ्तार करना आसान हो गया। गांधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन से स्वयं को अलग रखकर भी उन्होंने आत्मघाती कदम उठाया। वे जनता की सामान्य सहानुभूति को खोकर अलग-थलग पड़ गये। साम्यवादियों के नेतृत्व में हड़तालों का सिलसिला आगे भी जारी रहा परन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। सरकार ने एक संकटकालीन अधिकार आर्डिनेन्स जारी कर दिया जिसके अन्तर्गत कम्युनिस्ट नेता तथा ट्रेड यूनियन नेताओं को बिना मुकदमा चलाये, नजरबन्द कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी को तथा एक दर्जन से अधिक पंजीकृत ट्रेड यूनियनों को असंवैधानिक घोषित कर दिया। यंग वर्कर्स लीग (नौजवान मजदूर सभा) पर रोक लगा दी गई। इस प्रकार सरकार ने मजदूरों के जुझारू संगठनों को कुचलनेेेे का प्रयास किया। उधर साम्यवादी दल में भी नीति सम्बन्धी मतभेद उभरने लगे। देशपाण्डे तथा उसके समर्थक अलगाव की नीति को त्यागने के पक्ष में थे जबकि रणदिवे के उग्रवादी समर्थक इस पर डटे रहना चाहते थे। उनके आपसी विवाद ने रैड ट्रेड यूनियन कांग्रेस को समाप्त कर दिया और उससे सम्बद्ध विभिन्न यूनियनें पुनः अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में लौटने लगीं। नतीजा यह हुआ कि 1935 ई. में दोनों ट्रेड यूनियनें फिर से एक हो गयी।

विभिन्न ट्रेड यूनियनों का एकीकरण

1929 ई. में सुधारवादियों ने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अलग होकर भारतीय ट्रेड यूनियन फेडरेशन के नाम से अलग संगठन बना लिया था। इसके साथ 30 ट्रेड यूनियनें सम्बद्ध थीं। 1931 ई. में ऑल इण्डिया रेलवे मैन्स फेडरेशन तथा कुछ अन्य यूनियनें भी इसमें सम्मिलित हो गईं। 1936 ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के बम्बई में हुए अधिवेशन के मंच से फेडरेशन के सुधारवादी नेताओं से अपील की गई कि उन्हें मजदूरों के केन्द्रीय नेतृत्व में एकता स्थापित करने के लिए आगे कदम बढ़ाना चाहिए और उन्हें विश्वास दिलाया कि एकता के लिए उनकी समस्त शर्तें मान ली जायेंगी, यदि वे दो बुनियादी सिद्धान्त स्वीकार कर लें। पहला यह कि ट्रेड यूनियन आन्दोलन का आधार वर्ग-संघर्ष है और दूसरा यह कि ट्रेड यूनियनों के अन्दर जनवाद होना चाहिए। इस अपील का अच्छा परिणाम निकला। 1938 ई. में नागपुर अधिवेशन के समय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशन, अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में सम्मिलित हो गई। कांग्रेस की प्रबन्ध समिति में दोनों हिस्सों को बराबर-बराबर प्रतिनिधित्व दिया गया। एक बार पुनः अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, मजदूर आन्दोलन को एकजुट करने वाला संगठन बन गयी। केवल अहमदाबाद का लेबर एसोसिएशन (मजूर-महाजन) उसके बाहर रहा, क्योंकि वह गांधीवादी प्रेरणा से चल रहा था।

भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का जन्म

1937 ई. के चुनावों के बाद अधिकांश ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल बने। श्रमिक संघों को उनसे बहुत आशाएं थी परन्तु जब उन्होंने वेतन कटौती तथा छंटनी आदि को लेकर हड़तालें कीं तो कांग्रेसी एवं गैर-कांग्रेसी दोनों तरह की सरकारों ने हड़तालों का दमन किया जिससे श्रमिक संघों का कांग्रेस से मोह भंग हो गया।

1930-38 ई. की अवधि के दौरान ट्रेड यूनियन आन्दोलन बड़ी तेजी से फैला। अनेक नयी यूनियनें बनी। 1928 ई. में पंजीकृत यूनियनोें की संख्या 29 थी, 1938 ई. में 296 हो गई जिनकी सदस्य संख्या 2,61,000 के लगभग थी। 1937 ई. में हड़तालों की संख्या 379 पहुँच गई जिनमें 6,47,801 श्रमिकों ने हिस्सा लिया। इससे अधिक संख्या में श्रमिकों ने इससे पहले कभी हिस्सा नहीं लिया था। सबसे जबरदस्त, बंगाल की जूट हड़ताल रही। प्रबल दमन के बावजूद वह पूरे जूट उद्योग में फैल गयी। इस हड़ताल का मूल कारण था- 1,30,000 श्रमिकों की छंटनी करके उन्हें काम से हटाना, श्रमिकों के वेतन में कटौती करना और रेशनेलाइजेशन के नाम पर मजदूरों से अत्यधिक काम लेना। बंगाल की फजलुल हक सरकार ने हड़ताल को कुचलने का हर सम्भव प्रयास किया। बंगाल सरकार का तर्क था कि इस हड़ताल का कोई आर्थिक आधार नहीं है और साम्यवादी नेता भारत में बगावत करने के लिए उसका उपयोग कर रहे हैं। अन्त में मिल मालिकों को झुकना पड़ा और वेतन कटौती को रद्द करना पड़ा। अहमदाबाद में हड़तालों की समस्या उठ खड़ी होने पर बम्बई प्रान्त की कांग्रेस सरकार ने धारा 144 लगा दी। कानपुर की कपड़ा मिलों में भी हड़ताल हो गई जो शीघ्र ही आम हड़ताल में बदल गई। दूसरे उद्योगों के श्रमिक भी इसमें सम्मिलित हो गये। मिल मालिकों ने साम्प्रदायिक दंगे भड़काने के प्रयास किये परन्तु श्रमिकों ने उनके प्रयास विफल कर दिये। 55 दिन की हड़ताल के बाद श्रमिकों की जीत हुई। बम्बई के श्रमिकों ने ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट के विरुद्ध शानदार हड़ताल की। इसमें लगभग 90 हजार श्रमिक सम्मिलित हुए। रेलवे श्रमिकों का संगठन यद्यपि सुधारवादियों के नियन्त्रण में था, फिर भी बंगाल-नागपुर रेलवे के 40,000 श्रमिकों ने एक महीने हड़ताल रखी। इस प्रकार लगभग सभी प्रांतों में ट्रेड यूनियन आन्दोलन को कांग्रेसी सरकारों से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा श्रमिक संगठनों के सम्बन्ध और अधिक बिगड़ते, उससे पहले ही द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हो गया और कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिये।

युद्ध के प्रारम्भ में साम्यवादी नेतृत्व की ट्रेड यूनियनों ने कई बार हड़तालें करवाईं परन्तु जब सोवियत रूस, मित्र राष्ट्रों के पक्ष में आ गया तो भारतीय साम्यवादी भी ब्रिटिश सरकार का सहयोग करने लगे। उन्होंने 1942-45 ई. के मध्य किसी भी हड़ताल का नेतृत्व अथवा समर्थन नहीं किया। इसके विपरीत कांग्रेसी नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों ने कई बार हड़तालें कीं परन्तु उनके नेताओं की गिरफ्तारी के कारण वे सफल नहीं रहीं। दूसरी तरफ साम्यवादियों को अखिल भारतीय ट्रेड यूनियनों पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने में सफलता मिल गई।

1945-46 ई. की अवधि में देश की स्थिति काफी शोचनीय हो चुकी थी। युद्ध के कारण मंहगाई बढ़ती जा रही थी और आए दिन हड़तालों से आर्थिक जीवन को भारी क्षति पहुँच रही थी। सरकार स्थिति को नियन्त्रण में लाने में असफल हो रही थी और साम्यवादी संगठन नित्य नये विवादों को जन्म दे रहे थे। ऐसी स्थिति में कांग्रेस ने गांधीवादी सिद्धान्तों के आधार पर भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस बनाने का निश्चय किया जिसमें केवल कांग्रेसी विचारधारा वाली यूनियनें ही सम्मिलित हों। मई 1947 में भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस अस्तित्त्व में आई। कांग्रेस द्वारा अलग संगठन बना लेने के बाद कांग्रेस-समाजवादियों ने भी अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन को छोड़ दिया और दिसम्बर 1948 में हिन्द मजदूर सभा नाम से एक स्वतन्त्र यूनियन बना ली। इससे मजदूर वर्ग की एकता को जबरदस्त धक्का लगा। अब देश में तीन मजदूर संगठन अपने-अपने ढंग से काम करने लगे।

अध्याय – 79 : भारत में किसान आन्दोलन

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कांग्रेस के नेतृत्व में किसान आंदोलन

(1.) चम्पारन का सत्याग्रह

अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1885 ई. में अपनी स्थापना होने के बाद लम्बे समय तक किसानों की स्थिति पर ध्यान नहीं दिया। गोपालकृष्ण गोखले ने अवश्य ही ब्रिटिश सरकार को एक ज्ञापन देकर सरकार का ध्यान अज्ञान, अकाल तथा ऋण-ग्रस्त्ता की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया था परन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-19 ई.) के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कृषि सम्बन्धी समस्याओं के प्रति चिन्ता व्यक्त करनी आरम्भ की। 1917 ई. के अन्त में देश के विभिन्न भागों में कृषक संघों की स्थापना की गई। उन दिनों उत्तरी बिहार में स्थित चम्पारन जिला नील की खेती के लिए प्रसिद्ध था। नील की खरीद करने वाले अँग्रेज व्यापारी नीलहे साहब कहलाते थे। उन्होंने पूरे क्षेत्र में अपनी कोठियां बना रखी थीं। वे लोग तिन काठिया प्रणाली के माध्यम से किसानों का जबरदस्त शोषण करते थे। इस प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक किसान को अपनी कुल कृषि भूमि के 3/20वें भाग पर नील की खेती करनी अनिवार्य थी। अँग्रेज व्यापारी नील की फसल को बहुत कम दामों पर खरीदते थे। जो किसान उनके आदेशों का उल्लंघन करता अथवा कम कीमत का विरोध करता तो उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उसके परिवार को बुरी तरह मारा-पीटा जाता और उनके घरों में आग लगा दी जाती। अँग्रेजों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों और शोषण के विरुद्ध कहीं शिकायत नहीं सुनी जाती थी। 1917 ई. में गंाधीजी के नेतृत्व में चम्पारन के किसानों ने आन्दोलन किया। उन्होंने नील की खेती करने से मना कर दिया। चम्पारन के लगभग 850 गांवों के 8000 से अधिक किसानों ने इस आंदोलन में भाग लिया। सरकार ने किसानों की निर्ममतापूर्वक पिटाई की तथा बड़ी संख्या में किसानों को बन्दी बना लिया परन्तु किसान डटे रहे। अन्त में सरकार ने एक जांच समिति गठित की। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने चम्पारन कृषि अधिनियम पारित किया तथा नीलहे साहबों की मनमानी पर अंकुश लगा दिया।

(2.) खेड़ा सत्याग्रह आन्दोलन

1918-19 ई. में गुजरात के खेड़ा क्षेत्र में सूखा पड़ने से फसलें नष्ट हो गईं। सरकार का नियम था कि यदि 25 प्रतिशत पैदावार कम होगी तो किसानों का लगान माफ कर दिया जायेगा। इसी आधार पर खेड़ा के किसानों ने लगान माफी के लिये गुजरात सभा को एक ज्ञापन दिया। गुजरात सभा ने लगान माफी की अनुशंसा की परन्तु सरकार ने लगान माफ करने से मना कर दिया। इस पर मार्च 1919 में गांधीजी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, इन्दुलाल याज्ञिक और एन. एम. जोशी आदि के नेतृत्व में किसानों ने आन्दोलन किया। किसानों ने सरकार को लगान न देने की घोषणा कर दी। इस पर सरकार ने सैंकड़ों किसानों को जेलों में डाल दिया, उनके मकान जब्त कर लिये तथा पशुओं को नीलाम कर दिया। किसानों की खड़ी फसलों पर अधिकार कर लिया गया और उन्हें शारीरिक यातनाएं दी गईं। इन कार्यवाहियों के उपरान्त भी किसानों ने आन्दोलन जारी रखा। अंत में जून 1919 में सरकार को किसानों की मांगें माननी पड़ीं।

(3.) संयुक्त प्रदेश में किसान आन्देालन

संयुक्त प्रदेश  के किसानों को लम्बे समय से स्थानीय जमींदारों और सूदखोर साहूकारों के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा था। अधिकांश किसान खेतिहर श्रमिक थे जो जमींदारों, साहूकारों तथा सम्पन्न किसानों के खेतों पर मजदूरी करते थे। उनसे कठोर परिश्रम करवाया जाता था किंतु बहुत कम मजदूरी दी जाती थी। इस कारण उनकी आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी। 1920-21 ई. में संयुक्त प्रदेश के किसानों ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ करने का निश्चय किया। उन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं से सम्पर्क किया। इन नेताओं ने किसानों के आन्दोलन को अपना समर्थन प्रदान किया। फैजाबाद और रायबरेली जिलों के हजारों किसान आन्दोलन मे कूद पड़े। उन्होंने जमींदारों (ताल्लुकेदारों) की निजी फसलों को नष्ट करना आरम्भ कर दिया। इस पर पुलिस ने किसानों की भीड़ पर गोली चलाई। किसानों ने उत्तेजित होकर साहूकारों और ताल्लुकदारों के घरों और कार्यालयों को लूटना एवं जलाना आरम्भ कर दिया। सुल्तानपुर के किसान भी आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिये सेना बुलाई तथा हजारों किसानों को जेलों में डाल दिया। इसी बीच 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिले में चौरा-चौरी की घटना हुई जिसमें आन्दोलनकारियों ने पुलिस की फायरिंग से उत्तेजित होकर 21 सिपाहियों एवं थानेदार को थाने में बन्द करके आग लगा दी। हिंसा की इस घटना से क्षुब्ध होकर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया। इससे किसानों को भारी धक्का लगा। उन्हें लगा कि कांग्रेस ने किसानों की समस्याओं के हल के लिये किसानों का साथ नहीं दिया अपितु किसानों को अपने उपकरण की तरह इस्तेमाल किया तथा उन्हें बीच मंझधार में छोड़कर किसानों के साथ विश्वासघात किया। गांधीजी ने किसानों का साथ देने की बजाय उन्हें सलाह दी कि- ‘यदि जमींदार उन पर जोर-जुल्म करते हैं तो वे थोड़ा सहन करें। हम जमींदारों से नहीं लड़ना चाहते। जमींदार भी गुलाम हैं। हम उन्हें तंग नहीं करना नहीं चाहते…….।’ गांधीजी के इस कथन से किसानों को विश्वास हो गया कि कांग्रेस कभी भी किसानों की समस्याओं को हल नहीं करेगी। इसलिये किसानों ने पृथक् संगठन बनाया जो राका कहलाया। इसी संगठन ने आगे चलकर किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया।

(4.) बारदौली सत्याग्रह आन्दोलन

जिस समय पूरे देश में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे थे, गुजरात के सूरत जिले में स्थित बारदौली के किसानों ने लगान वृद्धि के विरोध में आन्दोलन आरम्भ किया। बम्बई प्रान्त की सरकार ने 30 जूूून 1927 को बारदौली ताल्लुक का लगान 20 से 25 प्रतिशत बढ़ा दिया। यद्यपि बम्बई की विधायिका परिषद ने बढ़े हुए लगान की वसूली को रोकने का प्रस्ताव पारित कर दिया था तथापि प्रान्तीय सरकार अपने निर्णय पर अडिग रही। इससे किसानों में भारी असन्तोष फैल गया। किसानों ने एक विराट सभा आयोजित की तथा सरकार के राजस्व अधिकारी के पास शिष्टमण्डल भेजकर लगान वृद्धि को अनुचित बताते हुए उसे कम करने का अनुरोध किया परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। 6 दिसम्बर 1927 को किसानों ने पुनः सभा आयोजित की। इस सभा ने बढ़ा हुआ लगान न देने का निर्णय लिया। 4 फरवरी 1928 को पुनः सभा बुलाई गई और बढ़ा हुआ लगान नहीं देने का संकल्प, सर्वसम्मति से दोहराया गया। सरदार वल्लभ भाई पटेल को इस आन्दोलन का नेतृत्व सौंपा गया। सरकार ने बारदोली आंदोलन को कुचलने के लिये किसानों पर अत्याचार किये किंतु किसान डटे रहे। देश के विभिन्न भागों से मांग उठने लगी कि बारदौली के किसानों का लगान कम किया जाये। साथ ही अन्य प्रान्तों की किसान सभाओं ने भी बारदौली के समर्थन में आन्दोलन चलाने की धमकी दी। 12 जून 1928 को गंाधीजी की अपील पर पूरे देश में बारदौली दिवस मनाया गया। अन्त में सरकार को झुकना पड़ा और पुरानी लगान दर फिर से लागू करनी पड़ी।

स्वतन्त्र किसान संगठनों का निर्माण

असहयोग आन्दोलन की समाप्ति के बाद स्वतन्त्र किसान संगठनों के निर्माण का प्रयास किया गया। 1923 ई. में रैयत सभा तथा किसान एवं मजदूर सभा बनी। 1925 ई. में साम्यवादियों ने कामगार एवं किसान दल का गठन किया। पंजाब, संयुक्त प्रदेश तथा बिहार में भी इसी तरह संगठन बने। 1926 ई. में सोहनसिंह जोश ने भारतीय मजदूर एवं किसान पार्टी की स्थापना की। ये समस्त दल थोड़े ही दिनों में निष्क्रिय हो गये। 1927 ई. में बिहार किसान सभा स्थापित हुई। सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में यह एक व्यापक संगठन बन गया। 1935 ई. में संयुक्त प्रदेश में प्रादेशिक किसान सभा गठित हुई। इन किसान सभाओं ने सरकार के समक्ष जमींदारी प्रथा, ऋण-ग्रस्त्ता तथा अन्य समस्याओं के सम्बन्ध में मांग-पत्र प्रस्तुत किये। सरकार ने 1933 ई. में बंगाल में साहूकार अधिनियम; 1934 ई. में उत्तर प्रदेश ऋण राहत अधिनियिम; 1935 ई. में ऋण-ग्रस्त्ता राहत अधिनियम; 1935 ई. में पंजाब रैगुलेशंस ऑफ एकाउंट्स एक्ट पारित किया परन्तु इनसे किसानों को विशेष लाभ नहीं मिला।

1936 ई. में साम्यवादियों ने अखिल भारतीय किसान सभा स्थापित की। संगठित किसान आन्दोलन की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इस संगठन का पहला अखिल भारतीय अधिवेशन दिसम्बर 1936 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के साथ-साथ फैजपुर में हुआ। उसमें 20,000 किसानों ने भाग लिया। कांग्रेस ने फैजपुर अधिवेश में खेती-सम्बन्धी एक कार्यक्रम पारित किया और दोनों संगठनों के भाईचारे की घोषणा की। 1936 ई. में ही कलकत्ता में बंगीय प्रादेशिक किसान सभा की स्थापना हुई। इस सभा ने बंगाल में बटाईदारों की बेदखली तथा तरह-तरह के उप-करों के विरुद्ध कई आन्दोलन चलाये।

अखिल भारतीय किसान सभा का चौथा अधिवेशन अप्रैल 1939 में गया में हुआ। इस समय तक इसके सदस्यों की संख्या 8 लाख हो गई थी। इसके कुछ महीने बाद दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। 1942-45 ई. का काल किसान आन्दोलनों के लिए अग्नि-परीक्षा का काल था। अगस्त 1942 में सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिये कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया तथा आंदोलनकारियों पर भयानक अत्याचार किये। फिर भी किसानों ने साम्राज्यवादी एवं सामन्ती व्यवथा के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। कांग्रेसी नेताओं के जेल में होने से संगठित किसान संगठनों की जिम्मेदारी बढ़ गई। अखिल भारतीय किसान सभा और उसकी प्रान्तीय शाखाओं ने राष्ट्रीय नेताओं की रिहाई और राष्ट्रीय सरकार की स्थापना के लिए दृढ़तापूर्वक आन्दोलन चलाया। किसानों ने सरकार के दमनचक्र का बहादुरी से सामना किया। किसानों ने अँग्रेजों द्वारा युद्ध-कोष के लिए किसानों से की जा रही धन-वसूली का विरोध किया और गांव-गांव में नौकरशाहों, अनाज चोरों ओर चोर-बाजारियों की कार्यवाहियों के विरुद्ध आवाज उठाई।

(5.) तिभागा किसान आन्दोलन

तिभागा आन्दोलन, जोतदारों के विरुद्ध बटाईदारों (बर्गदारों) का आन्दोलन था। इसमें बंगाल के बटाईदार किसानों ने एक जुट होकर आन्दोलन किया। आन्दोलन की शुरुआत नौआखाली से सटे हुए हसनाबाद क्षेत्र से हुई। आन्दोलनकारियों ने घोषणा की कि वे जोतदारों तथा जमींदारों को अपनी फसल में से केवल एक-तिहाई हिस्सा बंटाई के रूप में देंगे तथा शेष भाग अपने पास रखेंगे। फसल बंटवारे के इसी अनुपात के कारण यह आन्दोलन ते-भागा अथवा तिभागा आन्दोलन कहलाता है। यह आन्दोलन बड़ी तेजी से दूर-दूर के गंावों में फैल गया। इस आन्दोलन में बंगाल के साम्यवादी नेताओं- मोवीसिंह, मुजफ्फर अहमद और सुनील सेन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसान सभा के नेतृत्व में चलने वाला यह आन्दोलन बंगाल का सबसे व्यापक आन्दोलन था जिसमें लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया। उन्होंने जोतदारों, जमींदारों, उनके लठैतों और पुलिस का डटकर मुकाबला किया। स्त्रियों ने भी इस आन्देालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आन्देालन नवम्बर 1946 से फरवरी 1947 तक पूरे वेग से चला और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी कुछ समय तक जारी रहा। इस आन्दोलन के दौरान पुलिस ने कई स्थानों पर गोली चलाई जिसमें 73 लोग मारे गये किंतु किसानों की मांगें नहीं मानी गईं।

(6.) तेलंगाना किसान आन्दोलन

हैदराबाद निजाम के राज्य में तेलंगाना क्षेत्र में रहने वाले देशमुखों ने पटेल एवं पटवारियों की सहायता से बड़ी संख्या में किसानों की भूमि पर कब्जा कर लिया था। देशमुखों को निजाम का संरक्षण प्राप्त होने से किसान उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर पाते थे। इस कारण किसानों में देशमुखों के विरुद्ध आक्रोश व्याप्त था। द्वितीय विश्व युद्ध के समय तेलंगाना क्षेत्र के तेलुगू-भाषी किसानों से कम कीमत पर गल्ला वसूल किया जाने लगा। इसके विरोध में तेलुगू-भाषी किसानों ने आन्दोलन आरम्भ किया। 1946 ई. तक यह आन्दोलन नालगोंडा क्षेत्र के कई गाँवों में फैल चुका था। तेलंगाना किसानों के आन्दोलन का तात्कालिक कारण पुलिस द्वारा कमरय्या नामक व्यक्ति की हत्या करना था। कमरय्या साम्यवादी था और स्थानीय किसान सभा का सक्रिय पदाधिकारी था। किसानों ने उसके शव के साथ, विराट जुलूस निकाला। पुलिस और रजाकारों (मुसलमानों का एक विशेष संगठन) ने मिलकर इस जुलूस पर हमला कर दिया। किसानों ने भी पलटकर हमला किया। पुलिस वाले और रजाकर भागकर जमींदारों के घरों में जा छिपे। इसके बाद किसानों ने सूर्यपेट और आस-पास के कई गांवों पर अधिकार कर लिया। हैदराबाद के साम्यवादी नेताओं और आन्ध्र महासभा ने इस आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। निजाम ने किसानों का दमन करने के लिए पुलिस और रजाकारों को भेजा तो किसानों ने लड़ाकू दस्ते गठित कर लिये और अपने अधिकार वाले गाँवों की शासन-व्यवस्था चलाने के लिए ग्राम-पंचायतें गठित कर लीं। किसानों ने जमींदारों की जमीनों को छीनकर भूमिहीन किसानों तथा खेतिहर मजदूरों में बाँट दिया। 1947 ई. में यह सशस्त्र संघर्ष और भी व्यापक तथा खतरनाक बन गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस सरकार ने किसानों का पक्ष न लेकर निजाम तथा जमींदारों का पक्ष लिया, इसलिए तेलंगाना का किसान आन्दोलन साम्यवादियों के नेतृत्व में 1951 ई. तक चलता रहा।

(7) बर्ली किसान आन्दोलन

बम्बई के समीप स्थित बर्ली के किसान मूलतः आदिवासी थे। स्थानीय जमींदारों, साहूकारों और वन-विभाग के ठेकेदारों ने इन लोगों का जीना कठिन कर रखा था। बर्ली के किसान, साहूकारों के ऋण से दबकर बंधुआ मजदूर बन चुके थे। 1946 ई. में जब किसान सभा ने खेतिहर मजदूरों की हड़ताल करवाई तो उसमें बर्ली के किसान भी सम्मिलित हो गये। उन्होंने साहूकारों को बेगार देने से मना कर दिया तथा मांग की कि उनकी मजदूरी बढ़ाई जाये अन्यथा वे खेतों पर काम नहीं करेंगे। उनके पुराने ऋणों को माफ करके उन्हें बन्धुआ स्थिति से मुक्त किया जाये। पुलिस और गुण्डों के सामूहिक आक्रमणों के उपरान्त भी जब बर्ली के किसान डटे रहे तो साहूकारों को झुकना पड़ा और उन्होंने बेगार बन्द कर दी परन्तु मजदूरी और बन्धुआ स्थिति की समस्या लम्बे समय तक चलती रही।

(8.) राजस्थान में किसान आन्दोलन

देशी रियासतों में मुगल काल से ही भूमि का स्वामित्व दो भागों में बंट गया था- (1.) खालसा भूमि तथा (2.) जागीर भूमि। खालसा भूमि सीधे ही शासक के नियंत्रण में होती थी तथा जागीर भूमि जागीरदारों के पास होती थी। खालसा क्षेत्र के किसानों की अपेक्षा, जागीरी क्षेत्र के किसानों की हालत अधिक दयनीय थी। किसान, भू-स्वामी के आश्रित रहकर खेती करता था। जैसे-जैसे अँग्रेजों के कर बढ़ते गये, वैसे-वैसे राजाओं द्वारा जागीरदारों तथा ठिकाणेदारों पर लाग-बाग, खिराज, नजराना, कर भी बढ़ते गये। राजपूताना में जागीरदारों और ठिकाणेदारों ने किसानों पर करों की संख्या तथा मात्रा इतनी बढ़ा दी कि पूरे वर्ष कठोर परिश्रम करने के बाद भी किसान और उसके बच्चे भूखे मरते थे। कर न चुका पाने की स्थिति में किसानों और उनके परिवारों को जागीरदार तथा उसके कामदार के भय से खेती छोड़कर जंगलों में भाग जाना पड़ता था। 19वीं शताब्दी के अंत तक जागीरदार तथा किसानों के सम्बन्ध कटुतम स्तर पर थे। राजस्थान की अनेक रियासतों में समय-समय पर किसान आन्दोलन उठते रहे जिनमें बिजौलिया का किसान आन्दोलन, बेगूं का आन्दोलन, भोमट का भील आन्दोलन, मारवाड़ का किसान आन्दोलन, मेव आन्दोलन, सीकर का किसान आन्दोलन आदि प्रमुख हैं।

बिजोलिया किसान आंदोलन: बिजौलिया ठिकाना मेवाड़ के 19 ठिकानों में से एक था। बिजौलिया किसान आंदोलन का प्रथम चरण 1897 ई. में आरम्भ हुआ। वहाँ के जागीरदार ने जनता पर 84 प्रकार के लाग-बाग लगाये जिनके विरोध में बिजौलिया के किसानों ने महाराणा से अपील की। महाराणा ने जागीरदार को चेतावनी देकर छोड़ दिया। जागीरदार, शिकायत से रुष्ट होकर किसानों पर अत्याचार करने लगा। 1904 ई. में बिजौलिया के जागीरदार राव कृष्णसिंह ने किसानों को कुछ राहत दी किंतु उसके उत्तराधिकारी राव पृथ्वीसिंह ने 1906 ई. में उस छूट को समाप्त कर दिया तथा नये कर भी लगा दिये। 1913 ई. में बिजौलिया आंदोलन के प्रवर्तक साधु सीताराम दास, ब्रह्मदेव और फतहलाल चारण के नेतृत्व में लगभग एक हजार किसान राव के घर के बाहर एकत्रित हुए। वे, राव को एक प्रार्थना पत्र देना चाहते थे किंतु राव ने मिलने से मना कर दिया। इस पर किसानों ने तय किया कि वे जागीर की भूमि पर हल नहीं जोतकर, मेवाड़ की खालसा भूमि और ग्वालियर तथा बूंदी रियासतों की भूमि किराये पर लेकर उस पर हल जोतेंगे। इस कारण बिजौलिया जागीर के खेत खाली रहे और जागीर में अकाल पड़ गया। बिजौलिया जागीर को बड़ी आर्थिक हानि हुई। इन्हीं परिस्थितियों में राव पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गयी तथा उसका अल्पवयस्क पुत्र केसरीसिंह जागीरदार बना। मेवाड़ सरकार ने बिजौलिया का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। महाराणा ने किसानों को कुछ राहत दी तथा ठिकाने का भोग 2/5 के स्थान पर 1/3 कर दिया। फलों के कर में कमी कर दी तथा किसानों को अपने उपयोग के लिये बबूल के पेड़ काटने का अधिकार दे दिया। लकड़ी और घास जो किसान वर्षा ऋतु में ठिकाने को बेगार में देता था, उसे बंद कर दिया किंतु ठिकाने के अधिकारी महाराणा के आदेश की परवाह न करके किसानों से बेगार लेते रहे तथा पहले की तरह ही लाग-बाग मांगने लगे। 1916 ई. में बिजौलिया में सूखा पड़ा किंतु ठिकाने ने किसानों से प्रथम विश्वयुद्ध के लिये वारफण्ड का चंदा वसूलना आरम्भ कर दिया। इससे किसानों में असंतोष और भड़का तथा आंदोलन का नेतृत्व गुर्जर विजयसिंह पथिक ने अपने हाथों में ले लिया। बिजौलिया ठिकाने के कहने पर मेवाड़ राज्य ने पथिक को बंदी बनाने का आदेश जारी कर दिया। पथिक भूमिगत हो गये और किसान आंदोलन को गुप्त रूप से संचालित करने लगे। उनके सहयोगियों ने गाँव-गाँव जाकर किसानों का आह्वान किया कि वे वारफण्ड के लिये चंदा न दें।

बिजौलिया किसान आंदोलन के दूसरे चरण में विजयसिंह पथिक ने बारीसल गाँव में किसान पंचायत बोर्ड की स्थापना की तथा बिजौलिया किसानों का हस्ताक्षर-युक्त पत्र उदयपुर महाराणा के सम्मुख रखा। बिजौलिया जागीर के विभिन्न स्थानों पर आम सभाएं की गयीं तथा अनेक गाँवों में पंचायत बोर्ड की शाखाएं स्थापित की गयीं। किसानों को उत्साहित करने के लिये खेतों और जंगलों में रात को गुप्त सभाएं होती थीं। उदयपुर महाराणा ने पंचायतों से प्राप्त पत्रों पर ध्यान नहीं दिया तथा बिजौलिया के ठिकाणेदार ने किसान नेताओं को बंदी बनाकर बुरी तरह पीटा तथा उनके घरों को लूट लिया। उनकी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया। अप्रेल 1919 में मेवाड़ सरकार ने जाँच कमीशन नियुक्त किया। इस कमीशन ने माणिक्यलाल वर्मा तथा साधु सीताराम को जेल से मुक्त करवाया। इन नेताओं ने कमीशन को बताया कि इस समय खेती से उनकी वार्षिक आय 13.25 रुपये मात्र है जिससे गुजारा नहीं चल सकता। इस पर कमीशन ने किसानों के साथ सहानुभूति दर्शाते हुए 51 किसानों को जेलों से मुक्त कर दिया। कमीशन ने मेवाड़ सरकार को कई उपाय सुझाये किंतु महाराणा ने कोई कदम नहीं उठाया और बिजोलिया किसान आंदोलन चलता रहा।

इस आंदोलन के तृतीय चरण में 1923 से 1926 ई. की अवधि में किसानों की दशा अत्यंत शोचनीय हो गयी और वे भूराजस्व देने की स्थिति में नहीं रहे। 1927 ई. में मेवाड़ राज्य के सेटलमेंट ऑफीसर जी. सी. ट्रेंच ने बिजौलिया ठिकाने में असिंचित भूमि के कर की दर अन्य ठिकानों की अपेक्षा अत्यधिक ऊंची कर दी। किसानों ने इसका भी विरोध किया जिसके बाद कुछ रियायत की गयी। आंदोलन के चतुर्थ चरण में अप्रेल 1938 में माणिक्यलाल द्वारा मेवाड़ में प्रजामण्डल की स्थापना की गयी। यह आंदोलन शीघ्र ही पूरे राज्य में फैल गया। 24 नवम्बर 1938 को बिजौलिया के किसानों ने उमाजी का खेरा की सभा में एक प्रस्ताव पारित किया कि यदि उनकी असिंचित भूमि उन्हें वापिस मिल जाती है तो वे मेवाड़ के प्रजामंडल आंदोलन में भाग नहीं लंेगे। मेवाड़ सरकार ने किसानों को प्रजामंडल के आंदोलन से दूर रखने के लिये उनसे समझौता कर लिया किंतु किसानों को अगले दो वर्ष तक कोई राहत नहीं मिली। 25 दिसम्बर 1939 को टी. राघवाचार्य मेवाड़ के नये प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। उनके समय में 1941 ई. में यह आंदोलन समाप्त हुआ।

बेगूं आंदोलन: 1921 ई. में बेगूं के किसानों ने अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई। इस पर बेगूं ठिकाणे के कर्मचारियों ने किसानों पर और अधिक जुल्म किये। किसानों की अपील पर तत्कालीन रेवेन्यू कमिश्नर ट्रेंच 13 जुलाई 1923 को बेगूं ठिकाणे के गोविंदपुरा गाँव आया। उसने किसानों पर गोली चलाई तथा गाँव में आग लगा दी। कई किसान घटना स्थल पर ही मर गये। पुलिस ने घरों में घुसकर स्त्रियों का सतीत्व भंग किया। इस पर विजयसिंह पथिक ने बेगूं आकर किसानों को ढाढ़स बंधाया तथा उनसे साहस बनाये रखने की अपील की। इस पर पथिक को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 1928 ई. में मुक्त किया गया। इसी तरह का असहनीय अत्याचार धंगडमउ तथा भंडावरी में भी हुआ। पारसोली तथा काछोला में किसानों ने आंदोलन किये।

बूंदी आंदोलन: 1926 ई. में बूंदी के किसानों ने लाग-बाग व बैठ बेगार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा। स्त्रियां भी पीछे नहीं रहीं। सरकार द्वारा आंदोलनकारियों पर सख्ती की गयी। बूंदी के बरड़ गाँव में हाकिम इकराम हुसैन के निर्देशों पर बूंदी रियासत की पुलिस द्वारा एक समारोह में एकत्र भीड़ पर गोली चलायी गयी जिससे नानक भील की मृत्यु हो गयी। नयनूराम को बंदी बना लिया गया। कई स्त्रियां एवं बच्चे भी घायल हो गये। माणिक्यलाल वर्मा ने आंदोलनकारी किसानों का साथ दिया। बूंदी का किसान आंदोलन लगभग 17 वर्ष तक चलता रहा। अंत में 1943 ई. में बूंदी रियासत की सरकार ने किसानों की मांगें स्वीकार कीं और यह आंदोलन समाप्त हुआ।

अलवर आंदोलन: अलवर में जंगली सूअर खेतों में घुसकर फसल नष्ट कर देते थे। किसानों ने इन सूअरों को मारना चाहा किंतु राज्य सरकार ने उन्हें मारने पर पाबंदी लगा दी। इस पर 1921 ई. में अलवर के किसानों ने आंदोलन किया। अंत में अलवर के शासक ने किसानों की मांगें स्वीकार कर लीं। 1925 ई. में एक बार फिर अलवर राज्य में किसानों का जोरदार आंदोलन हुआ। यह आंदोलन 1923-24 ई. में अलवर के शासक द्वारा लगान दर बढ़ाये जाने के विरोध में हुआ। किसानों ने अलवर सरकार से लगान फिर से पुरानी दर पर करने की अपील की किंतु अलवर के शासक ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। किसानों ने सरकार को लगान देने से मना कर दिया तथा अनाज अपने घर ले गये। लगान वृद्धि के विरोध में नीमूचाना गाँव में एक किसान सभा का आयोजन किया गया। अलवर के कुछ राज्याधिकारियों ने अलवर महाराजा जयसिंह को बदनाम करने की नीयत से, सम्मेलन पर गोली चला दी। इस गोली काण्ड में सैंकड़ों किसान, बच्चे, वृद्ध तथा स्त्रियां मारी गयीं। बहुत से पशु, चारा, घर, अनाज भण्डार जल कर राख हो गये। बहुत से किसान गिरफ्तार कर लिये गये। यह सामंती जुल्मों की कड़ी में जोड़ा गया एक बहुत ही भयावह हादसा था। इसने भारत की अंतरात्मा को हिला कर रख दिया। कांग्रेस ने इस नर संहार की तुलना जलियांवाला काण्ड से की। ऐसा किया।

सीकर आंदोलन: सीकर तथा शेखावाटी क्षेत्र में भी किसानों ने लगान, लाग-बाग तथा करों में वृद्धि के विरोध में आंदोलन किया। ठिकानेदार ने किसानों के दमन के लिये कठोर नीति अपनायी। जयपुर राज्य ने सीकर के सामंत को लगान में कमी करने के निर्देश दिये किंतु सामंत ने इन आदेशों को ठुकरा दिया। 1932 ई. में भारतीय जाट महासभा ने सीकर के जाटों को अपना आंदोलन और भी तेज करने के लिये प्रेरित किया। 1934 ई. में प्रजापति जाट महायज्ञ के माध्यम से आंदोलन को तेज किया गया। इस पर ठिकाणेदार ने किसानों पर निर्मम अत्याचार किये। 1935 ई. में सीकर के शांतिपूर्ण किसान प्रदर्शन पर गोलियां दागी गयीं जिससे कुछ किसान मौके पर ही मर गये। बहुत से किसान घायल हुए।

शेखावाटी आंदोलन: सीकर की तरह शेखावाटी क्षेत्र के अन्य जागीरदार भी किसानों पर अत्याचार करने में पीछे नहीं रहे। 1922 ई. में मास्टर प्यारेलाल गुप्ता ने चिड़ावा में अमर सेवा समिति की स्थापना की। मास्टर प्यारेलाल गुप्ता उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले का रहने वाला था तथा चिड़ावा का गांधी कहलाता था। उसी साल खेतड़ी नरेश अमरसिंह ने चिड़ावा का दौरा किया। खेतड़ी नरेश की सेवा के लिये जब अमर सेवा समिति के सदस्यों को बेगार करने के लिये बुलाया गया तो सदस्यों ने बेगार करने से मना कर दिया। राजा के आदेश पर मास्टर प्यारेलाल गुप्ता सहित समिति के सात सदस्यों को बंदी बनाकर भयानक अत्याचार किये गये। चिड़ावा अत्याचार की सूचना पूरे देश में फैल गयी। चांद करण शारदा तत्काल चिड़ावा आये। सेठ जमनालाल बजाज, सेठ घनश्याम दास बिड़ला तथा सेठ वेणी प्रसाद डालमियां आदि नेताओं ने खेतड़ी के राजा को कठोर चिट्ठियां लिखकर कड़ा विरोध जताया। 23 दिन बाद सभी बंदियों को छोड़ा गया।

झुंझुनूं किसान आंदोलन: 1925 ई. में पं. मदन मोहन मालवीय के मुख्य आतिथ्य में अखिल भारतीय जाट सम्मेलन हुआ। पण्डितजी के ओजस्वी वक्तव्य से प्रभावित होकर झुंझुनूं जाट पंचायत की स्थापना की गयी। 1932 ई. में झुंझुनूं जाट महासभा अधिवेशन हुआ जिसमें निर्णय लिया गया कि किसान अपने साथ हथियार रखें ताकि उन्हें कमजोर नहीं समझा जाये। लोगों ने रिवॉल्वर तथा बंदूकें रखने प्रारंभ कर दिये। 1938 ई. तक इस क्षेत्र में हथियारों का प्रदर्शन करना साधारण बात हो गया। 11 मार्च 1938 को झूंझुनूं में वृहत् महिला सम्मेलन बुलाया गया। जब 1939 ई. में सेठ जमनालाल बजाज को जयपुर की सीमा पर गिरफ्तार करके आगरा भेज दिया गया तो शेखावाटी क्षेत्र में किसानों ने विरोध प्रदर्शन किये। झूंझुनूं, सीकर तथा चौमूं में बड़ी-बड़ी सभायें हुईं। जयपुर नरेश के नेतृत्व में जागीरदारों और ठिकानेदारों ने किसानों का मनोबल तोड़ने के लिये किसानों पर बड़े अत्याचार किये। यदि कोई व्यक्ति हाथ में तिरंगा लेकर निकलता तो सिपाही उसे गोली मार देते या नंगा करके पीटते, उन पर थूकते, उल्टा लिटाकर डण्डों की बरसात करते। इन अत्याचारों के विरोध में गाँव-गाँव में चंग बजने लगे जिन पर गाया जाता था- आठ फिरंगी नौ गौरा। लड़े जाट का दो छोरा। सत्याग्रही लोग होली की धमाल इस तरह गाया करते थे- गोरा हटज्या, भरतपुर गढ़ बांको। तू कै जाणैं गोरा, लड़े रे जाट को। ज्याणो बेटो दशरथ को, गोरा हटज्या।

15 मार्च 1939 को झूंझुनूं शहर में सरदार हरलाल सिंह ने गिरफ्तारी दी। झूंझुनूं में पुलिस ने पाशविकता का नंगा नाच किया। झूंझुनूं पहुंचने वाले मार्ग पर कई किलोमीटर तक पुलिस तैनात कर दी गयी किंतु बहुत बड़ी संख्या में लोग हाथों में झण्डा लेकर सड़कों पर निकल आये। पुलिस भूखे भेड़ियों की तरह उन पर टूट पड़ी। उस दिन लगभग 1 लाख किसान झूंझुनूं पहुंचे जिन्हें पुलिस ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। महिलाओं के जत्थों पर भी लाठियां बरसाई गईं किंतु महिलाओं ने पुलिस को झण्डे तक नहीं पहुंचने दिया। पुलिस ने लोगों पर घोड़े दौड़ाये। जब ये समाचार पूरे देश को मिले तो देश स्तब्ध रह गया। इतना होने पर भी जयपुर नरेश मानसिंह ने अपनी टेक नहीं छोड़ी। उसने 29 मार्च 1941 को झूंझुनूं का दौरा किया। पंचपाना के सरदारों ने जयपुर नरेश का महानायक की तरह स्वागत किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही यह आंदोलन समाप्त हो सका।

निष्कर्ष

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए किसान आन्दोलन भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। भारत में अँग्रेजी शासन की स्थापना से ही भारत में किसान आंदोलन आरम्भ हुए जो भारत की आजादी तक चलते रहे। प्रारम्भ में किसानों का गुस्सा साहूकारों और जमींदारों से बदला लेने के लिये आंदोलन का रूप लेता था किंतु बाद में उनके आंदोलन अधिक व्यापक एवं उग्र हो गये। भारत सरकार, प्रांतीय सरकारों, राजाओं एवं जागीरदारों ने किसान आंदोलनों पर लाठियां और गोलियां चलाने से परहेज नहीं किया। इन आंदोलनों से प्रजा और शासकों के सम्बन्ध हमेशा के लिये खराब हो गये। अब उनके बीच किसी तरह की समरसता का उत्पन्न होना संभव नहीं रह गया। किसानों ने पूर्णतः संगठित न होते हुए भी जोरदार आन्दोलन किये। कांग्रेस ने किसानों का साथ नहीं दिया। साम्यवादियों ने किसानों को समर्थन तो दिया किंतु वे किसानों को सरकार की गोलियों से मरने से नहीं बचा पाये। भारत की आजादी की लड़ाई में यद्यपि किसान आंदोलनों की भूमिका को महत्त्व नहीं दिया जाता है किंतु यह उचित नहीं है। वास्तविकता यह है कि आजादी के पौधे को क्रांतिकारियों, किसानों एवं मजदूरों ने भी अपने रक्त से सींचा था।

अध्याय – 80 : भारत में दलित आन्दोलनों का उदय

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हिन्दू समाज में उत्तर वैदिक काल में जिस वर्ण व्यवस्था का उद्भव हुआ, उस वर्ण व्यवस्था ने कालांतर में श्रम विभाजन के आधार को त्यागकर कर्म एवं उसकी श्रेणी के आधार पर जाति व्यवस्था को जन्म दिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण के साथ-साथ एक अन्य वर्ग भी अस्तित्व में आया जिसे अन्त्यज कहा जाता था। इस वर्ग में डोम, मच्छीमार, चिड़ीमार, मातंग, चाण्डाल, चमार, सरगरा, ढोली, रैगर, खटीक, मेहतर, नट, जुलाहे आदि आते थे। इस वर्ग को शूद्रों से भी नीचा माना जाता था इस कारण उन्हें अस्पृश्य माना जाता था। अर्थात् उच्च वर्ण वालों के लिये इस वर्ग के लोगों का स्पर्श करना वर्जित था। यदि कोई व्यक्ति अस्पृश्य जाति के व्यक्ति को छूता था तो स्वयं अपवित्र हो जाता था। उसे अपवित्रता से मुक्त होने के लिये स्नान करना पड़ता था। ये लोग गांव की बाहरी सीमा पर रहते थे। हिन्दू समाज की इस कुप्रथा ने इन जातियों को नीच तथा अछूत कहकर तिरस्कृत एवं बहिष्कृत जैसी स्थिति में पटक दिया था। उन्नीसवी सदी में भी हिन्दू समाज में भेदभाव एवं ऊँच-नीच की भावना व्याप्त थी। निम्न जातियों को शिक्षा प्राप्त करने, अपना परम्परागत कार्य छोड़कर अन्य कार्य करने, सामाजिक उत्सवों में भाग लेने तथा राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था। वे सार्वजनिक कुओं, तालाबों और जलाशयों से स्वयं जल नहीं ले सकते थे। उनके लिये मंदिरों में प्रवेश करना, देवता की प्रतिमा को हाथ लगाना, वेद पढ़ना आदि कार्य पूरी तरह वर्जित थे। वे सामाजिक अधिकारों से वंचित थे तथा अन्य जातियों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं कर सकते थे।

यदि कोई अस्पृश्य जाति का व्यक्ति सामाजिक वर्जनाओं का उल्लंघन करता था तो उसे बुरी तरह मारा-पीटा जाता था। विरोध करने पर उसकी तथा उसके परिवार की हत्या भी कर दी जाती थी। इन कारणों से अस्पृश्यता की कुप्रथा, हिन्दू समाज के लिये कलंक बन गई तथा भारतीय समाज का बहुत बड़ा भाग दयनीय अवस्था को प्राप्त हो गया। शिक्षा एवं संस्कारों के आलोक से वंचित रह जाने से इस वर्ग के लोग निर्धन, कुसंस्कारित, अशिक्षित तथा असभ्य हो गये। उनका कार्य उच्च समझी जाने वाली जातियों की सेवा करना मात्र था। समाज में उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। उनकी आर्थिक दशा अत्यंत खराब थी। उन्हें पर्याप्त भोजन तथा वस्त्र नहीं मिलता था। उन्हें आध्यात्मिक उन्नति के अवसर भी उपलब्ध नहीं थे। उनके कानों में वेदों के मंत्रों का प्रवेश निषेध था। वे मोक्ष के भी भागीदार नहीं थे।

निर्योग्यताएँ दूर करने के प्रयास

अछूतों अथवा दलितों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक दशा सुधारने के लिये सबसे पहले महात्मा बुद्ध तथा महावीर स्वामी आगे आये। उन्होंने जाति प्रथा का खण्डन कर दलितों को भी अन्य मनुष्यों के ही समान बताया। बुद्ध एवं महावीर की शिक्षाओं के कारण दलितों को भी मोक्ष का भागी समझा जाने लगा। कोई भी दलित, बौद्ध धर्म का अनुयायी होकर बौद्ध आश्रम में एवं जैन धर्म का अनुयायी होकर जैन उपाश्रय में बराबरी के अधिकार से प्रवेश पा सकता था। सिद्धों एवं नाथों ने भी वर्ण व्यवस्था को निरर्थक बताया। वैष्णव संतों ने समाज के लिये भक्ति, प्रपत्ति एवं शरणागति के मार्गों का प्रतिपादन करके अछूतों के लिये भी भगवत् प्राप्ति का मार्ग खोला।

मध्य काल में रामानन्द ने जाति-व्यवस्था को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने दलितों को भी अपना शिष्य बनाया। उनके बाद कबीर, नानक, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव आदि सन्तों ने भी अस्पृश्यता दूर करने के प्रयत्न किये। इस युग के संतों ने घोषणा की- ‘जांत-पांत पूछे नहीं कोई, हरि भजे सो हरि को होई।’ इससे धर्म-भीरू हिन्दू समाज में दलितों के प्रति करुणा और सहानुभूति का भाव तो उत्पन्न हुआ किंतु अस्पृश्यता की भावना को समाप्त नहीं किया जा सका। इस काल में जुलाहे और मोची भी भगवान के बड़े भक्त हुए और उन्हें संत का दर्जा दिया गया। 

जब मुसलमानों ने भारत में प्रवेश किया तो दलितों को अपने लिये नई राह दिखाई दी। इस्लाम में जाति भेद, छुआछूत तथा अस्पृश्यता जैसी बुराइयां नहीं थीं। इस्लाम को मानने वाले समस्त मनुष्य बराबर थे। यही कारण था कि बहुत से दलित, मुस्लिम शासकों के काल में स्वेच्छा से मुसलमान बन गये किंतु उन्हें शीघ्र ही अनुमान हो गया कि विदेशी मुसलमानों ने किसी भी भारतीय मुसलमान को बराबरी का दर्जा नहीं दिया, भले ही वह हिन्दुओं की किसी भी जाति से क्यों न आया हो। इसलिये दलितों के मुसलमान बनने की प्रक्रिया रुक गई। वे हिन्दू धर्म के किनारे पर ही सही किंतु अपने धर्म में बने रहे।

आधुनिक काल में दलितोत्थान के लिये किये गये प्रयास

आधुनिक युग में सर्वप्रथम राजा राममोहन राय ने ब्रह्म-समाज के माध्यम से जाति-व्यवस्था के बन्धन शिथिल करके अस्पृश्यता दूर करने का प्रयत्न किया। इसके बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से जाति-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयों का खण्डन किया। उन्होंने शुद्धि संगठन का सूत्रपात किया जिसके माध्यम से उन मुसलमानों को फिर से हिन्दू धर्म में लौट आने के लिये प्रेरित किया जो ना-ना कारणों से मुसलमान अथवा ईसाई हो गये थे। आर्य समाज ने दलितों की दशा सुधारने का अथक प्रयास किया और उन्हें उत्तर भारत के अनेक प्रांतों में कुछ सफलता भी मिली। उन्होंने अछूतों में शिक्षा का प्रसार करके उनमें नई स्फूर्ति फूंकने का प्रयास किया। महाराष्ट्र में ज्योति राव फूले ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने सत्य शोधक समाज के माध्यम से दलितों में स्त्री-शिक्षा का प्रसार किया, अस्पृश्यता का जोरदार विरोध किया तथा ब्राह्मणवाद को चुनौती दी।

ईसाई मिशनरियों के प्रयास

1876-77 ई. में देश में भयंकर अकाल पड़ा जिसके कारण निर्धन अवस्था में जी रहे दलित, बड़ी संख्या में मरने लगे। इस अवस्था में ईसाई मिशनरियों ने आगे बढ़कर दलितों की बड़ी सहायता की। इससे प्रभावित होकर 1880 ई. से दलित जातियाँ बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनने लगीं। आर्य समाज ने इस खतरे का अनुभव करते हुये इनके उद्धार के लिये प्रयत्न किये।

महात्मा गाँधी के अछूतोद्धार कार्य

1920 ई. के बाद महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अस्पृश्यता निवारण को अपने रचनात्मक कार्यक्रम का अंग बनाया। इसी काल में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ। गाँधी और अम्बेडकर के प्रयासों से हरिजनों के मन्दिर प्रवेश के लिये कानून बना। अम्बेडकर द्वारा दलितों को सवर्ण हिन्दुओं से अलग मानते हुये उनके लिये अलग स्थान आरक्षित करने की माँग की गई। इसके परिणाम स्वरूप 1932 ई. में ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक पंचाट की घोषणा की जिसके अनुसार हरिजनों को हिन्दुओं से अलग मानकर विधान मण्डलों में  अलग प्रतिनिधित्व दिया गया। गाँधीजी ने इसके विरोध में पूना में अनशन किया। अन्त में गाँधीजी और अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट हुआ जिसमें गाँधीजी ने दलितों के लिये अलग प्रतिनिधित्व की बात स्वीकार करते हुए हिन्दुओं व दलितों का निर्वाचन संयुक्त रखा। इसी समय गाँधीजी ने दलितों को हरिजन अर्थात् ईश्वर का व्यक्ति, नाम दिया। गाँधीजी ने हरिजनों की दशा सुधारने के लिये हरिजन सेवक संघ की स्थापना की तथा हरिजन नामक समाचार पत्र निकाला जिसमें अस्पृश्यता निवारण एवं हरिजनोद्धार सम्बन्धी लेख प्रकाशित होते थे। गाँधीजी ने हरिजनोद्धार के लिये पूरे देश का दौरा किया तथा हिन्दू समाज में हरिजनों के प्रति नई दृष्टि विकसित की। 1937 ई. में ब्रिटिश प्रान्तों में कांग्रेसी सरकारें स्थापित होने के बाद हरिजनों की उन्नति, शिक्षा तथा सामाजिक प्रतिबन्धों को दूर करने की ओर ध्यान दिया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सरकार द्वारा इस दिशा में कुछ और कार्य किये गये।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर (1891-1965 ई.) के प्रयास

दलितों के मसीहा माने जाने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रेल 1891 को हुआ। 1927 ई. में उन्होंने बम्बई से बहिष्कृत भारत नामक पाक्षिक पत्र निकाला। 1930 ई. में वे अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ के अध्यक्ष बने तथा 1930-31 ई. में दलितों के प्रतिनिधि बनकर लन्दन में आयोजित प्रथम एवं द्वितीय गोलमेज सम्मेलनों में भाग लेने गये। वहाँ उन्होंने अछूतों को हिन्दू-समाज से पृथक् प्रतिनिधित्व दिलाने में सफलता प्राप्त की। दलितों को अलग प्रतिनिधित्च दिलवाने के विषय पर अम्बेडकर का गाँधीजी से टकराव रहा। 1936 ई. में अम्बेडकर ने इंडिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी की स्थापना की और दलितों, मजदूरों तथा किसानों की माँगों के लिये संघर्ष किया। बाद में उन्होंने इस पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ में बदल दिया। 1946 ई. में उन्हें संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। 3 अगस्त 1949 को उन्हें भारत सरकार में विधि मन्त्री बनाया गया। वे अछूत मानी जाने वाली जातियों की स्थिति में सुधार नहीं आने के कारण असंतुष्ट थे। इस कारण सितम्बर 1951 में उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। अक्टूबर 1950 में अम्बेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उनकी दृष्टि में विदेशी धरती से आये किसी भी धर्म का अनुयायी होने के स्थान पर, भारत की भूमि पर उत्पन्न किसी भी धर्म का अनुयायी हो जाना अधिक श्रेयस्कर था। 6 दिसम्बर 1965 को बाबा साहब का निधन हो गया।

डॉ. अम्बेडकर ने ब्राह्मणवाद, सवर्णों एवं उच्च जातियों के दम्भ और पाखण्ड के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने इस संघर्ष को प्रचार आन्दोलन, शास्त्रार्थ, कानूनी लड़ाई, राजनीतिक आंदोलन और अंहिसा के दायरे में रखा। बाबा साहब द्वारा आरम्भ किया गया दलितोद्धार आन्दोलन, ब्रह्म-समाज, आर्य-समाज, विवेकानन्द और गाँधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम से अधिक प्रभावी एवं अधिक रचनात्मक था। उनकी दृष्टि में वर्ण व्यवस्था ही अस्पृश्यता की जड़ थी। इसी वर्ण-व्यवस्था के आधार पर हिन्दू समाज, दलितों के प्रति अन्यायपूर्ण, अव्यवहारिक, अमानवीय तथा शोषणकारी व्यवहार करता था। उनका कहना था कि संसार के अन्य किसी धर्म, देश और समुदाय में ऐसी आत्मघाती व्यवस्था नहीं पायी जाती। श्रम-विभाजन और विशेषीकरण की स्वाभाविक योजना से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मनुष्यों को किसी भी आधार पर स्पष्टतः चार वर्णों में विभाजित नहीं किया जा सकता। पुरूष-सूक्त के अतिरिक्त कहीं भी चार वर्णों का उल्लेख नही मिलता किंतु मनु तथा याज्ञवल्क्य आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रन्थों में स्थायी रूप से शूद्रों को हीन स्थिति में डाल दिया और उन्हें धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकारों से वंचित कर दिया। अस्पृश्यता निवारण के लिये ब्राह्मणवाद तथा ब्राह्मण-शास्त्रों की समाप्ति आवश्यक है। यह केवल राज्य की सहायता से ही किया जा सकता है। उनका मानना था कि अछूतों को सभी सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग का अधिकार हो। स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने 1927 ई. में महद तालाब सत्याग्रह तथा बाद में गंगासागर तालाब सत्याग्रह और 1930 ई. में कालाराम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन चलाये। अस्पृश्यता एवं जाति-प्रथा के विरुद्ध उनका संघर्ष सफल रहा। इससे समाज में छुआछूत की भावना बहुत हद तक कम हो गई। उनके दलितोद्धार कार्यक्रम ने हिन्दू समाज और भारत राष्ट्र की महान् सेवा की है।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद समाज-सुधार के कार्य

दलितों के कल्याण के सार्थक प्रयास, भारत के स्वतंत्र होने के बाद ही आरम्भ किये जा सके। आजादी के बाद भारत सरकार एवं प्रांतीय सरकारों ने दलितों के उत्थान के लिये अनेक कार्यक्रम आरम्भ किये जो आज तक चल रहे हैं। भारत के संविधान ने धर्म, जाति, लिंग, भाषा, वर्ण इत्यादि के भेदभाव से परे सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार प्रदान किये। इसमें दलित एवं वनवासी जनजातियाँ भी सम्मिलित थीं। संविधान की धारा 17 में कहा गया है- ‘अस्पृश्यता समाप्त कर दी गई है और इसके किसी भी रूप में अमल पर पाबन्दी है। छुआछूत से सम्बन्धित कोई भी भेदभाव कानून की नजरों में दण्डनीय अपराध होगा।’

1955 ई. में संसद ने अस्पृश्यता (अपराध) एक्ट पारित किया। इसमें स्पष्ट किया गया कि ऐसे अपराधों के लिये दण्ड, लाइसेन्स रद्द किया जाना एवं सार्वजनिक सहायता बन्द करना आदि प्रावधान सम्मिलित हैं। 1976 ई. में नागरिक अधिकार संरक्षण (संशोधन) एक्ट पारित करके, अस्पृश्यता करने वालों के लिये और भी कठोर सजा का प्रावधान किया। इस कानून की पालना करवाने के लिये विशेष अधिकारियों, विशेष न्यायालयों, विधिक सहायता आदि के प्रावधान किये गये। संविधान में जनजातियों के लिये विधायिकाओं, शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी सेवाओं में सीटों के आरक्षण का प्रावधान भी जोड़ा गया। आरम्भ में आरक्षण दस वर्षों के लिए किया गया किंतु तब से इसे लगातार बढ़ाया जाता रहा है। दलितों की शिक्षा के लिये शिक्षण-संस्थाओं में भी सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गई तथा दलित विद्यार्थियों के लिये विशेष छात्रवृत्तियों की योजनाएं आरम्भ की गईं। उनके लिये अलग से विद्यालय एवं छात्रावास खोले गये। इन उपायों के परिणामस्वरूप दलितों में शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ। सरकारी सेवाओं में उनके आरक्षण की व्यवस्था से उनके लिये रोजगार के अवसर बढ़े जिससे लाखों दलित परिवारों की आर्थिक स्थिति में जबरदस्त बदलाव आया है।

दलितोद्धार कार्यक्रमों का भावी स्वरूप

विगत तिहत्तर वर्षों के दलितोद्धार कार्यक्रमों को चलाये जाने के बाद भी यह अनुभव किया जा रहा है कि दलितों के उद्धार के लिये चलाये जा रहे कार्यक्रमों का लाभ बहुत बड़ी संख्या में दलित परिवारों तक नहीं पहुंच पा रहा है। इसलिये सर्वशिक्षा जैसे अभियान प्रारम्भ किये गये हैं ताकि समाज का कोई भी परिवार शिक्षा के आलोक से वंचित न रहे। यदि सम्पूर्ण भारतीय समाज शिक्षित होगा तो निश्चित रूप से समाज में कोई दलित नहीं रह जायेगा।

अध्याय – 81 : भारत सरकार अधिनियम 1919

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 भारत की गोरी सरकार का 1909 ई. का अधिनियम मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट कहलाता है। यह कांग्रेस की 1907 ई. की सूरत फूट का लाभ उठाने, कांग्रेस के उग्रवादी नेताओं को हतोत्साहित करने, उदारवादी नेताओं की पीठ थपथपाने, क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने और अलगाववादी-मुसलमानों को प्रसन्न करके उन्हें कांग्रेस तथा राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर रखने की एक सोची-समझी तथा सुनिश्चित रणनीति थी। भारतीयों को 1909 ई. के सुधारों से सन्तोष नहीं हुआ और देश में दिन-प्रतिदिन राजनीतिक असन्तोष के साथ-साथ क्रान्तिकारी एवं आतंकवादी गतिविधियों में वृद्धि होती चली गई। 1914 ई. में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हुआ। तिलक और ऐनीबीसेंट ने मिलकर होमरूल आन्दोलन चलाया। भारतीय जनता पुनः संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ी। सरकार को विश्व युद्ध में भारतीयों के सहयोग की आवश्यकता थी। कांग्रेस की अपील पर भारतीयों ने इस युद्ध में अँग्रेजों का पूरा सहयोग दिया।

1916 ई. में इतिहास का पहिया एक बार फिर से सीधी दिशा में घूम गया जब बाल गंगाधर तिलक के प्रयासों से कांग्रेस के नरम दल और गरम दल (उदारवादी एवं उग्रवादी) पुनः एक हो गये। इसी काल में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों एक ही मंच पर आकर अँग्रेजों से अधिक सुधारों की मांग करने लगीं। इस बीच इंग्लैण्ड की सरकार ने मेसोपोटामिया में तुर्की के विरुद्ध युद्ध का संचालन भारत सरकार को सौंपा। भारत सरकार मेसोपोटामिया के मोर्चे पर असफल रही। इस पर इंग्लैण्ड में बड़ा विवाद उठा और मेसोपोटामिया कमीशन की नियुक्ति की गई। इस कमीशन ने भारत सरकार को दोषी ठहराया, उसकी कड़ी आलोचना की तथा उसे सर्वथा अयोग्य बताया। उसने तत्कालीन भारतीय शासन-प्रणाली को त्रुटिपूर्ण बताते हुए उसमें सुधारों की मांग की। फलस्वरूप भारत सचिव चेम्बरलेन को त्यागपत्र देना पड़ा और मांटेग्यू ने उसका स्थान ग्रहण किया।

भारत सरकार अधिनियम-1919 (मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार)

प्रथम विश्व युद्ध जीतने के लिये इंग्लैण्ड को हर हालत में भारतीयों के सहयोग की आवश्यकता थी। इसलिये भारत सचिव मांटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स में एक ऐतिहासिक घोषणा की। उसने कहा- ‘सम्राट की सरकार की नीति जिससे भारत सरकार भी पूर्णतः सहमत है, यह है कि भारतीय शासन के प्रत्येक विभाग में भारतीयों का सम्पर्क उत्तरोत्तर बढ़े और उत्तरदायी शासन प्रणाली का क्रमिक विकास हो, जिसमें अधिकाधिक प्रगति करते हुए भारत में स्वशासन प्रणाली स्थापित हो और वह ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बनकर रहे। उन्होंने यह तय कर लिया है कि जितना शीघ्र हो इस दिशा में ठोस रूप में कुछ कदम उठाये जाएं।’

इस घोषणा में कोई ठोस एवं स्पष्ट व्यवस्था नहीं थी कि कौनसे कदम उठाये जायेंगे। भारत के विभिन्न पक्षों में इस घोषणा पर मिलीजुली प्रतिक्रिया हुई। कांग्रेस के नरम दल ने उसका स्वागत मैग्नाकार्टा के रूप में किया, जबकि गरम दल नेताओं ने इसको शब्दों का जाल बताकर राष्ट्रीयता को अवरुद्ध करने की दिशा में एक षड़यन्त्र बताया। जन-साधारण ने इसे संवैधानिक सुधारों की दिशा में महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा। जब इसके प्रारूप का प्रकाशन हुआ तो भारतीयों को आशा की अपेक्षा निराशा अधिक हुई क्योंकि प्रस्तावित योजना में भारतीयों की प्रगति का मूल्यांकन, ब्रिटिश सरकार के हाथों में रखा गया और एकदम उत्तरदायी सरकार की स्थापना नहीं की गयी, जो कि भारतीयों की प्रमुख मांग थी। मांटेग्यू की रिपोर्ट के आधार पर 2 जून 1919 को एक विधेयक ब्रिटिश संसद में रखा गया। 18 दिसम्बर 1919 को यह विधेयक संसद द्वारा पारित कर दिया गया तथा 23 दिसम्बर 1919 को इंग्लैण्ड के बादशाह ने इसे स्वीकृति प्रदान कर दी जिससे यह कानून बन गया।

अधिनियम को पारित करने के कारण

1919 ई. के सुधार अधिनियम को पारित करने के निम्नलिखित कारण थे-

(1.) मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम-1909 के द्वारा गोरी सरकार ने मुसलमानों की निष्ठा क्रय करने और हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य उत्पन्न करने का प्रयास किया था परन्तु बाद में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिनके कारण मुसलमान भी अँग्रेजों के विरोधी बन गये और 1916 ई. में वे कांग्रेस के साथ मिलकर स्वराज की मांग करने लगे।

(2.) तिलक और ऐनीबीसेंट के होमरूल आन्दोलन ने भारतीयों में नवीन आशा का संचार किया। सरकार ने आन्दोलन को क्रूर तरीके से दबाने का प्रयास किया। इससे जन असन्तोष और अधिक भड़क उठा। इसे शान्त करना आवश्यक था।

(3.) केन्द्रीय विधान परिषद् के 19 निर्वाचित सदस्यों ने भारत मंत्री को भारत में सुधारों के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव भिजवाया था।

(4.) कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष कांग्रेस लीग योजना के नाम से सुधारों की एक योजना प्रस्तुत की थी।

(5.) मेसोपोटामिया कमीशन की रिपोर्ट में भारतीय शासन प्रणाली को त्रुटिपूर्ण बताते हुए उसमें सुधारों की मांग की गई थी।

(6.) प्रथम विश्व युद्ध के काल में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिये ब्रिटिश सरकार ने, युद्ध समाप्ति के बाद भारतीयों को स्वराज्य देने की बात कही थी। युद्ध समाप्ति के बाद जब भारतीयों को कुछ भी नहीं मिला तो उनका आक्रोश चरम पर पहुंच गया। भारतीयों के असन्तोष को कम करने के लिये मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम के माध्यम से उत्तरदायी शासन की स्थापना का नाटक रचा गया।

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट

नवम्बर 1917 में भारत सचिव मांटेग्यू दिल्ली आये। उन्होंने गवर्नर जनरल चेम्सफोर्ड के साथ भारत के प्रमुख नगरों का दौरा किया। मांटेग्यू ने भारतीय सेना के प्रमुख अधिकारियों तथा विभिन्न प्रतिनिधि मण्डलों से विचार-विमर्श करके प्रस्तावित सुधारों के बारे में उनके सुझाव प्राप्त किये। तत्पश्चात् एक रिपोर्ट तैयार की गई जिसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट कहते हैं। 8 जुलाई 1918 को यह रिपोर्ट प्रकाशित कर दी गई। इस रिपोर्ट के मुख्य बिन्दु इस प्रकार से थे-

(1.) जहाँ तक सम्भव हो, स्थानीय संस्थाओं पर जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों का नियन्त्रण हो, सरकार का हस्तक्षेप कम से कम हो।

(2.) प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी सरकारें स्थापित की जायें और प्रान्तों को पहले की अपेक्षा अधिक शक्तियां दी जायें।

(3.) ब्रिटिश संसद के प्रति भारत सरकार की जिम्मेदारी ज्यों की त्यों बनी रहे किन्तु केन्द्रीय विधान परिषद् का विस्तार किया जाये ताकि यह भारत सरकार को पहले से अधिक प्रभावित कर सके।               

(4.) भारत सरकार पर, भारत सचिव का नियन्त्रण कम कर दिया जाये।

(5.) सिक्ख, ईसाई और आंग्ल-भारतीयों को भी अलग प्रतिनिधित्व दिया जाये।

भारत सरकार अधिनियम 1919

मांटेग्यू-चैम्सफोर्ड रिपोर्ट के आधार पर 1919 ई. में ब्रिटिश संसद में एक विधेयक पारित किया गया। इसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम अथवा भारत सरकार अधिनियम 1919 कहते हैं। इस अधिनियम को 1921 ई. में लागू किया गया। इस अधिनियम के अन्तर्गत निम्नलिखित संवैधानिक परिवर्तन किये गये-

(क) गृह सरकार

भारत सचिव: भारत में ब्रिटिश शासन प्रणाली के अंतर्गत भारत के शासन को दो भागों में बांटा गया था- एक भाग इंग्लैण्ड में कार्य करता था और दूसरा भारत में। शासन का इंग्लैण्ड वाला भाग गृह सरकार कहलाता था। इसके पांच मुख्य अंग थे- बादशाह, मन्त्रिमण्डल, संसद, भारत सचिव और भारत परिषद् (इण्डिया कौंसिल)। इनमें भारत सचिव और भारत परिषद् सर्वाधिक महत्त्वूपर्ण थे। भारत सचिव, भारत के शासन सम्बन्धी मामलों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी था। अब तक भारत सचिव को भारतीय राजस्व में से वेतन मिलता था। भारतीयों ने इस प्रणाली के विरुद्ध अनेक बार विरोध प्रदर्शित किया था। अतः 1919 ई. के अधिनियम द्वारा भारत सचिव का वेतन इंग्लैण्ड के कोष से दिये जाने की व्यवस्था की गई। 1919 के अधिनियम के द्वारा भारत सचिव की शक्तियों में मामूली कमी की गई। प्रान्तों में जो विषय भारतीय मंत्रियों को दिये गये, उन्हें हस्तान्तरित विषय कहा गया तथा जो विषय गवर्नर के पास रखे गये, उन्हें रक्षित विषय कहा गया। हस्तान्तरित विषयों में भारत सचिव का हस्तक्षेप निम्नलिखित बातों तक सीमित कर दिया गया –

(1.) ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा करना।

(2.) गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् को 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत जो कार्य सौंपे गये है, उनकी देखभाल करना तथा उनके उचित कार्यों का समर्थन करना।

(3.) केन्द्रीय विषयों के शासन की देखभाल करना।

(4.) भारतीय हाईकमिश्नर, भारतीय नौकरियों और अपने ऋण लेने के अधिकारों की रक्षा करना।

(5.) केन्द्र तथा प्रान्तों के रक्षित विषयों पर भी भारत सचिव का नियन्त्रण कुछ ढीला कर दिया गया। इस अधिनियम के पूर्व जो भी विधेयक केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय विधान सभाओं में प्रस्तुत किये जाते थे, उनमें भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि कुछ विशेष मामलों से सम्बन्धित विधेयक जैसे- विदेशी मामले, सीमा शुल्क, सैनिक मामले, मुद्रा तथा सार्वजनिक ऋण आदि को छोड़कर शेष विषयों में भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होगी। प्रान्तों के मामलों के सम्बन्ध में यह निश्चित कर दिया गया कि किसी भी बिल को भारत सचिव के पास तब तक नहीं भेजा जायेगा, जब तक कि गवर्नर जनरल उसकी स्वीकृति के बारे में कोई रुकावट उत्पन्न न करे।

(6.) भारत सचिव की पूर्व-स्वीकृति के बिना, गवर्नर जनरल, भारत में कोई भी महत्त्वपूर्ण नियुक्ति नहीं करेगा तथा कोई भी महत्त्वपूर्ण पद कम नहीं करेगा।

भारत परिषद्: भारत परिषद् के संगठन में भी सुधार किया गया। अधिनियम के पूर्व भारत परिषद् का सारा व्यय भारत के राजस्व से वसूल किया जाता था। अब इस परिषद् के अधिकारियों, कर्मचारियों तथा कार्यकाल के समस्त खर्चे इंग्लैण्ड के खजाने से देने की व्यवस्था की गई। यह भी व्यवस्था की गई कि भारत परिषद् में कम से कम आठ तथा अधिक से अधिक बारह सदस्य होंगे। इनमें से आधे सदस्य ऐसे होंगे जिन्हें भारत में सेवा करने का कम से कम दस वर्ष का अनुभव हो। भारत परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया तथा उनका वेतन 1000 पौंड से बढ़ाकर 1200 पौंड वार्षिक कर दिया गया।

हाई कमिश्नर: इस अधिनियम के अन्तर्गत पहली बार हाई कमिश्नर के पद का सृजन किया गया। इससे पूर्व भारत सरकार के लिए भण्डारों की समस्त आवश्यक वस्तुएं और मशीनें भारत सचिव लन्दन में खरीदता था। इस अधिनियम में यह तय किया गया कि हाई कमिश्नर, भारत सरकार की समस्त आवश्यक वस्तुएं लन्दन में खरीदेगा। इसके अतिरिक्त वह इंग्लैण्ड में पढ़ने वाले भारतीय विद्यार्थियों की सुविधाओं और आवश्यकताओं पर ध्यान देगा। हाई कमिश्नर की नियुक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल करेगा। उसका वेतन भारतीय कोष से दिया जायेगा। उसे साधारणतः 6 वर्ष के लिये नियुक्त किया जायेगा।

उपर्युक्त परिवर्तनों से गृह-सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इस अधिनियम के बाद भी उसकी वैधानिक सर्वोच्चता ज्यों की त्यों बनी रही। गवर्नर जनरल और उसकी सरकार के समस्त सदस्यों को गृह-सरकार का आदेश मानना तथा उनके द्वारा निर्धारित नीति पर चलना अनिवार्य था।

(ख) केन्द्रीय सरकार

गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी: इस अधिनियम द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद् की रचना और उसकी शक्तियों में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं किया गया। भारत की समस्त कार्यकारिणी शक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल में निहित थी। गवर्नर जनरल की शक्तियां पहले की भांति असीमित, निरंकुश और अनुत्तरदायी थीं। भारत की शान्ति एवं व्यवस्था के लिए वह भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी था और भारत सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। अपने विशेषाधिकारों, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा वित्तीय शक्तियों के कारण गवर्नर जनरल तानाशाह कहा जा सकता था। वह भारत में ब्रिटिश ताज का प्रतिनिधि था। उसकी नियुक्ति इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर इंग्लैण्ड के मुकुट द्वारा पांच वर्ष के लिए की जाती थी। गवर्नर जनरल अपनी कार्यकारिणी परिषद् का प्रधान होता था तथा उसकी अनुशंसा पर भारत सचिव कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों की नियुक्ति करता था। गवर्नर जनरल अपनी इच्छानुसार कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों में कार्य का विभाजन करता था और कार्यकारिणी परिषद् की बैठक बुलाता था। गवर्नर जनरल को ब्रिटिश भारत के हित, उसकी शान्ति और सुरक्षा आदि विषयों में अपनी कार्यकारिणी परिषद् की सम्मति मानने से मना करने का भी अधिकार था।

1919 ई. के अधिनियम में विदेश विभाग और राजनीतिक विभाग पर गवर्नर जनरल का सीधा नियंत्रण स्थापित किया गया। केन्द्रीय व्यवस्थापिका (विधान मण्डल) में कोई ऐसा प्रस्ताव जिसका सम्बन्ध सेना अथवा देशी राजाओं आदि से हो, बिना गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति के प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था। असाधारण परिस्थितियों में ब्रिटिश भारत तथा उसके किसी भाग की शान्ति एवं उत्तम शासन के लिए गवर्नर जनरल को 6 मास के लिये अध्यादेश जारी करने का अधिकार था।

गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में प्रधान सेनापति सहित 7 सदस्य थे। कार्यकारिणी के प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल पांच वर्ष था। 1919 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत विधि-सदस्य की अर्हता में परिवर्तन किया गया। अब उसी व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त किया जा सकता था जो भारत के उच्च न्यायालयों में कम से कम दस वर्ष तक एडवोकेट रहा हो। इस अधिनियम में यह भी कहा गया कि कार्यकारिणी में तीन सदस्य ऐसे होने चाहिए जिन्होंने ब्रिटिश ताज के अधीन कम से कम दस वर्ष सेवा की हो। इसके परिणामस्वरूप कार्यकारिणी में तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति की गई किन्तु इन भारतीयों के हाथों में कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी। कार्यकारिणी परिषद् केन्द्रीय विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य अपनी भावी उन्नति के लिए गवर्नर जनरल की अनुशंसाओं पर निर्भर रहते थे। इसलिये वे किसी भी मामले में गवर्नर जनरल को असन्तुष्ट नहीं करते थे। इस प्रकार कार्यकारिणी पर गवर्नर जनरल का पूरा नियंत्रण था।

 केन्द्रीय व्यवस्थापिका: इस अधिनियम द्वारा पहली बार दो सदनों वाली केन्द्रीय व्यवस्थापिका की स्थापना की गई। पहले सदन को विधान सभा और दूसरे सदन को राज्य सभा कहा जाता था। विधान सभा 3 वर्ष के कार्यकाल के लिए तथा राज्य सभा 5 वर्ष के कार्यकाल के लिए निर्वाचित होती थी। गवर्नर जनरल इन सदनों को कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व भी भंग कर सकता था। इनका संगठन इस प्रकार से किया गया था-

(1.) विधान सभा: विधान सभा में 145 सदस्य थे जिनमें 104 निर्वाचित सदस्य थे। निर्वाचित सदस्यों में से 52 सदस्य सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से, 30 मुस्लिम, 2 सिक्ख, 9 यूरोपियन, 7 जमींदार तथा 4 भारतीय वाणिज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। 41 मनोनीत सदस्यों में 26 सरकारी अधिकारी और 15 गैर-सरकारी सदस्य होते थे।

(2) राज्य सभा: इसकी अधिकतम संख्या 60 थी। इनमें से सरकारी सदस्यों की अधिकतम संख्या 20 हो सकती थी। शेष 40 सदस्यों में से 34 निर्वाचित (19 सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से, 12 साम्प्रदायिक क्षेत्रों में से और 3 विशेष निर्वाचन क्षेत्रों से) होते थे। 6 गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा की जाती थी।

विधान मण्डल का कार्यक्षेत्र: विधान सभा, केन्द्रीय सूची में उल्लिखित विषयों पर ब्रिटिश भारत के लिए कानून बना सकती थी। गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति से यह प्रान्तों के लिए भी कानून बना सकती थी किन्तु यह 1919 के अधिनियम में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती थी तथा ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती थी जो ब्रिटिश संसद के किसी कानून के विरुद्ध हो। केन्द्रीय बजट पहले विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता था और फिर राज्य सभा में भेजा जाता था। बजट के लगभग 85 प्रतिशत भाग पर विधान सभा बहस तो कर सकती थी किन्तु मतदान नहीं कर सकती थी। शेष 15 प्रतिशत भाग के बारे में विधान सभा किसी खर्च के लिए मना कर सकती थी अथवा कोई कटौती कर सकती थी किन्तु यह किसी रकम को बढ़ा नहीं सकती थी।

कोई भी बिल, जब तक दोनों सदनों द्वारा पारित नहीं हो जाता था, कानून नहीं बन सकता था। बजट; राज्य सभा में उसी दिन प्रस्तुत किया जाता था, जिस दिन विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता था। अन्य वित्त विधेयक पहले विधान सभा में प्रस्तुत किये जाते थे। राज्य सभा, वित्त विधेयक को अस्वीकार कर सकती थी अथवा संशोधनों के लिए लौटा सकती थी। यदि विधान सभा, राज्य सभा की अस्वीकृति या संशोधनों के सुझाव से सहमत न हो तो गवर्नर जनरल अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करके उसे स्वीकार कर सकता था।

केन्द्रीय विधान मण्डल का ढांचा अत्यन्त दोषपूर्ण था। गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी, विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। विधान मण्डल, गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें त्यागपत्र देने को बाध्य नहीं कर सकता था। वह केवल सार्वजनिक हितों के मामलों में प्रस्ताव कर सकता था किन्तु इन प्रस्तावों को मानना या न मानना गवर्नर जनरल की इच्छा पर निर्भर था। अतः विधान मण्डल के पास प्रभुत्व शक्ति का अभाव था। यह केवल कार्यकारिणी को प्रभावित कर सकता था। गवर्नर जनरल, विधान मण्डल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को अस्वीकार अथवा संशोधित कर सकता था। आपातकाल में वह अध्यादेश प्रसारित कर सकता था। इससे स्पष्ट है कि गवर्नर जनरल भारतीय प्रशासन में सर्वेसर्वा था और केन्द्रीय विधान मण्डल उसके सामने असहाय था।

कार्य-शक्तियों का विभाजन: इस अधिनियम द्वारा प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी सरकारें स्थापित की गई थीं। अतः शासन सम्बन्धी समस्त विषयों को दो सूचियों मे विभाजित किया गया- केन्द्रीय सूची और प्रान्तीय सूची। जो विषय दोनों सूचियों में सम्मिलित होने से रह गये थे; वे केन्द्रीय सरकार के अर्न्तगत आ जाते थे। जिन विषयों के सम्बन्ध में सम्पूर्ण भारत अथवा एक से अधिक प्रान्तों में समान कानून की आवश्यकता अनुभव की गई, उन्हें केन्द्रीय सूची में रखा गया और प्रान्तीय हित के विषय प्रान्तीय सूची में रखे गये। केन्द्रीय सूची में 47 विषय थे, जैसे- प्रतिरक्षा, वैदेशिक सम्बन्ध, देशी रियासतों से सम्बन्ध, रेल, डाक व तार, सिक्के तथा नोट, सैन्य सम्बन्धी विषय, सार्वजनिक ऋण, दीवानी तथा फौजदारी कानून, सीमा शुल्क, रुई पर उत्पादन कर, नमक कर, आयकर आदि। प्रान्तीय सूची में 50 विषय रखे गये, जैसे- स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा चिकित्सा, शिक्षा, सार्वजनिक निर्माण कार्य, पुलिस तथा जेल, वन, सिंचाई, अकाल राहत, कृषि, भूमि कर, सहकारी संस्थाएं आदि। दोनों सूचियों के किसी विषय के सम्बन्ध में मतभेद होने पर उनका निर्णय गवर्नर जनरल करता था।

राजस्व विभाजन: प्रशासनिक अधिकारों की भांति राजस्व के साधनों को भी दो भागों- केन्द्रीय राजस्व तथा प्रान्तीय राजस्व में विभाजित किया गया। केन्द्रीय राजस्व में चुंगी, आयकर, रेल, डाक व तार, नमक, अफीम आदि रखे गये। प्रान्तीय राजस्व में भूमि कर, चुंगी, सिंचाई, स्टाम्प व रजिस्ट्रेशन आदि रखे गये। इस प्रकार राजस्व के प्रमुख स्रोत केन्द्र सरकार के पास थे।

(ग) प्रान्तीय शासन व्यवस्था

20 अगस्त 1917 को ब्रिटिश ताज की राजकीय घोषणा का लक्ष्य भारत को क्रमिक रूप से उत्तरदायी सरकार प्रदान करना था। इस दिशा में अग्रसर होने के लिए सबसे अधिक उपर्युक्त क्षेत्र प्रान्त ही थे परन्तु प्रान्तों में भी 1919 के अधिनियम द्वारा आंशिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को ही अपनाया गया, पूर्ण उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को नहीं। द्वैध शासन, केवल उन प्रान्तों में लागू किया गया जिनमें गवर्नर होते थे। जिन छोटे प्रान्तों में चीफ कमिश्नर थे, उनमें यह लागू नहीं किया गया।

द्वैध शासन प्रणाली: 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तों में जो शासन व्यवस्था स्थापित की गई उसे द्वैध शासन प्रणाली कहा जाता है। द्वैध शासन का अर्थ है- दो शासकों का शासन। सम्पूर्ण प्रशासनिक विषयों को केन्द्रीय सूची और प्रान्तीय सूची में विभाजित किया गया। इस अधिनियम द्वारा पहली बार प्रान्तीय विषयों को भी दो भागों में बांटा गया- रक्षित विषय और हस्तान्तरित विषय। जिन विषयों को भारतीयों के हाथों में देने से ब्रिटिश सरकार को हानि नहीं थी, उन विषयों को हस्तान्तरित किया गया था तथा उनका शासन भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया। उदाहरणार्थ- स्थानीय स्वशासन, चिकित्सा, सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं सफाई, यूरोपियनों एवं आंग्ल-भारतीयों की शिक्षा को छोड़कर शेष जनता की शिक्षा, सार्वजनिक कार्य, कृषि, सहकारी समितियां, मछली क्षेत्र, उद्योग-धन्धे, खाद्य वस्तुओं में मिलावट, जन्म तथा मृत्यु सम्बन्धी आंकड़े, तौल और माप आदि 22 विषय हस्तान्तरित रखे गये। शेष 28 विषय जो अधिक महत्त्वपूर्ण थे, वे रक्षित सूची में रखे गये, जैसे- भूमि कर, अकाल सहायता, न्यायिक प्रशासन, खनिज विकास, पुलिस, समाचार पत्र एवं छापाखानों पर नियन्त्रण, प्रान्तीय वित्त आदि।

दायित्व हस्तान्तरण: हस्तान्तरित विषयों का दायित्व भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया, जो प्रान्तीय विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी होते थे। रक्षित विषयों का दायित्व गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् को सौंपा गया जो प्रान्तीय विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी न होकर भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी होते थे। रक्षित विषयों पर प्रान्तीय विधान परिषद् का कोई नियन्त्रण नहीं था। जहाँ यह विवाद उत्पन्न हो जाता कि कोई विषय रक्षित है अथवा हस्तान्तरित, वहाँ गवर्नर अन्तिम निर्णय देता था। इस प्रकार, हस्तान्तरित विषयों के सम्बन्ध में केन्द्रीय नियंत्रण में शिथिलता दी गई।

द्वैध शासन प्रणाली की असफलता: इस अधिनियम के माध्यम से यह अपेक्षा की गई थी कि शासन के दोनों भाग (एक ओर गवर्नर तथा कार्यकारिणी परिषद् और दूसरी ओर गवर्नर तथा मंत्रिमण्डल) आपसी सहयोग से शासन का संचालन करेंगे परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होने से द्वैध शासन व्यवस्था असफल हो गई। संयुक्त प्रवर समिति का मत था कि मन्त्रियों को संयुक्त उत्तरदायित्व के अनुसार काम करना चाहिए। इसलिए 1919 ई. के अधिनियम की एक धारा में, ‘हस्तान्तरित विषयों के सम्बन्ध में गवर्नर अपने मन्त्रियों की सलाह से कार्य करेगा’ की व्यवस्था की गई परन्तु अधिनियम में ‘मंत्री संयुक्त रूप से उत्तरदायी होंगे’ के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया। अतः गवर्नर ने इसका लाभ उठाते हुए अलग-अलग मन्त्रियों से पृथक् विचार-विमर्श का तरीका अपनाया ताकि मन्त्रियों को दबा कर रखा जा सके।

प्रान्तीय कार्यपालिका: प्रान्तीय कार्यपालिका को भी दो भागों में बांटा गया। एक भाग तो गवर्नर और कार्यकारिणी परिषद् थी और दूसरा भाग गवर्नर और भारतीय मन्त्री थे। कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में कार्यकारिणी परिषद् में चार सदस्य थे, अन्य प्रान्तों में केवल दो सदस्य थे। यह व्यवस्था की गई कि कार्यकारिणी परिषद् में आधे सदस्य गैर-सरकारी भारतीय होंगे। कार्यकारिणी के समस्त सदस्य पांच वर्ष के लिए ब्रिटिश ताज द्वारा भारत सचिव की अनुंशसा पर नियुक्त किये जाते थे। व्यवहार में जिन व्यक्तियों के नाम की अनुंशसा गवर्नर जनरल करता था, भारत सचिव उन्हीं को स्वीकृति दे देता था। गवर्नर, प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् का प्रधान होता था तथा वह कार्यकारिणी के किसी भी निर्णय की उपेक्षा कर सकता था।

हस्तान्तरित विषयों का शासन चलाने के लिए मन्त्री नियुक्त किये गये। उनकी अधिकतम संख्या निश्चित नहीं की गई। बम्बई, कलकत्ता एवं मद्रास में तीन मन्त्री नियुक्त किये गये और शेष प्रान्तों में दो मन्त्री नियुक्त किये गये थे। मन्त्रियों की नियुक्ति गवर्नर द्वारा की जाती थी तथा उसकी इच्छा रहने तक ही वे अपने पद पर बने रह सकते थे। मन्त्रियों की नियुक्ति विधान परिषद् के सदस्यों में से की जाती थी। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त कर दिया जाता जो विधान परिषद् का सदस्य नहीं होता था, तो उसे 6 महीने में विधान परिषद् का सदस्य बनना होता था अथवा मन्त्री पद छोड़ना होता था। जिस मन्त्री में विधान परिषद् का विश्वास नहीं होता था, उसे भी पद छोड़ना होता था। गवर्नर को बिना कारण बताये मन्त्रियों को हटाने का अधिकार था। इस प्रकार, मन्त्रियों को विधान परिषद् तथा गवर्नर की दया पर छोड़ दिया गया था। इसलिए मन्त्रियों को अपने दो स्वामियों को प्रसन्न रखना पड़ता था। यदि मन्त्रियों की सलाह से प्रान्त की शान्ति या सुरक्षा में बाधा उत्पन्न होती हो अथवा अल्पसंख्यकों के हितों के विरुद्ध हो अथवा भारत सचिव व गवर्नर जनरल के आदेशों के विरुद्ध हो तो गवर्नर, मन्त्रियों की सलाह की उपेक्षा करके अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकता था। यदि किसी कारण से हस्तान्तरित विषयों का शासन इस अधिनियम के अनुसार नहीं चलाया जा सकता था, तो गवर्नर भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति से इस अधिनियम को, अनिश्चित अवधि के लिये स्थगित कर सकता था। ऐसी स्थिति में हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन रक्षित विषयों की तरह चलाया जा सकता था।

प्रान्तीय विधान मण्डल: 1919 के अधिनियम के द्वारा केन्द्र में कानून बनाने के लिए दो सदन रखे गये किंतु प्रान्तों में केवल एक ही सदन रखा गया। अतः प्रान्तीय विधान मण्डल से अभिप्राय केवल विधान परिषद् से है। इस अधिनियम के अन्तर्गत विधान परिषद के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हो गई। प्रत्येक प्रान्त में इसके सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न थी। मद्रास की विधान परिषद् के कुल सदस्यों की संख्या 132 थी, बम्बई 114, बंगाल 140, उत्तर प्रदेश 123, पंजाब 94, बिहार और उड़ीसा 103, मध्य प्रान्त 73, असम 531. यह व्यवस्था की गई कि विधान परिषद् में कम से कम 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होंगे। 20 प्रतिशत से अधिक सरकारी अधिकारी नहीं होंगे। कुछ मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य होते थे। गवर्नर की कार्यकारिणी के सदस्य विधान परिषद् के पदेन सदस्य होते थे। विधान परिषद् का कार्यकाल तीन वर्ष था किन्तु गवर्नर उसे, अवधि से पूर्व भी भंग कर सकता था और विशेष परिस्थिति में उसकी अवधि एक वर्ष के लिए बढ़ा भी सकता था।

यद्यपि प्रान्तों  में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत स्थापित कर दिया गया परन्तु मताधिकार इतना सीमित रखा गया कि 1920 ई. में ब्रिटिश भारत की 24 करोड़ 17 लाख जनसंख्या में से केवल 53 लाख लोगों को ही मताधिकार दिया गया। मताधिकार के लिए प्रत्येक प्रान्त में अलग अर्हताएं निर्धारित की गईं। सामान्यतः जो लोग देहाती क्षेत्रों में 10 रुपये से लेकर 50 रुपये तक प्रतिवर्ष भूमि कर देते थे, उन्हें मत देने का आधिकार दे दिया गया। नगरों में जो कम से कम 2000 रुपये वार्षिक आय पर आयकर देते थे या जिन्हें अपने मकान से कम से कम 36 रुपये वार्षिक किराया मिलता था या जो 36 रुपये वार्षिक किराया देते थे या जो नगरपालिका को कम से कम 3 रुपये वार्षिक टैक्स देते थे, वे अपना नाम मतदाता सूची में लिखवा सकते थे।

प्रान्तीय विधान परिषद् को यह अधिकार दिया गया कि वह अपने प्रान्त में अच्छी सरकार के लिए कानून बनाये। इस अधिनियम से पूर्व प्रत्येक बिल के लिए गवर्नर जनरल की आज्ञा लेना आवश्यक था किन्तु इस अधिनियम में यह तय किया गया कि कुछ विशेष मामलों को छोड़कर शेष के लिए गवर्नर जनरल की आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहेगी परन्तु गवर्नर तथा गवर्नर जनरल को विशेष शक्तियां देकर विधान परिषद् के अधिकारों को सीमित कर दिया गया। विधान परिषद् को कई वित्तीय शक्तियां दी गईं परन्तु गवर्नर की विशेष शक्तियों द्वारा उन पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये गये ताकि यदि विधान परिषद् गवर्नर की इच्छानुसार किसी मांग को पारित न करेे, तो गवर्नर अपनी विशेष शक्ति द्वारा पारित कर सके। बजट को दो भागों में बांट दिया जाता था। पहले भाग में वे रकमें सम्मिलित की जाती थीं जिन पर विधान परिषद् केवल बहस कर सकती थी, अपना मत नहीं दे सकती थी।

द्वैध शासन के दोष और उसकी असफलता के कारण

यद्यपि कांग्रेस ने द्वैध शासन प्रणाली का बहिष्कार किया था तथापि 1924 ई. में कांग्रेस की ओर से स्वराज पार्टी ने चुनावों में भाग लिया तथा विधान मण्डलों में प्रवेश कर इसे असफल बनाने का प्रयास किया। अतः सरकार ने मुडीमैन समिति की नियुक्ति की। इस समिति के यूरोपियन सदस्यों ने द्वैध शासन को मौलिक रूप से सही माना परन्तु समिति के भारतीय सदस्यों ने इसे गलत बताया। साइमन कमीशन ने भी द्वैध शासन प्रणाली के कई दोषों पर प्रकाश डाला। नेहरू रिपोर्ट में भी इसकी कटु आलोचना की गई। 1921 से 1937 ई. तक ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों में द्वैध शासन पद्धति चालू रही परन्तु इसमें निहित दोषों के कारण इसका विफल होना निश्चित था। द्वैध शासन के निम्नलिखित दोष उसकी असफलता के कारण सिद्ध हुए-

(1.) सैद्धान्तिक दृष्टि से दोषपूर्ण: द्वैध शासन सैद्धान्तिक दृष्टि से दोषपूर्ण था। यह मान लिया गया था कि भारतीय अभी पूर्ण उत्तरदायी शासन के लिए अयोग्य हैं। इसलिए भारत में आरम्भ में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाये ताकि भारतीय मन्त्रियों को साधारण अधिकार मिल जायें और वास्तविक सत्ता अँग्रेजों के हाथों में बनी रहे। इसलिए भारतीयों का द्वैध शासन प्रणाली से असन्तुष्ट हो जाना स्वाभाविक था। प्रान्तीय सरकार को दो भागों में बांटना बिल्कुल गलत था जिसमें एक भाग विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी था और दूसरा अनुत्तरदायी था। इससे शासन की एकता तथा कार्यक्षमता नष्ट हो गई। सर रेजीनाल्ड क्राउक ने लिखा है- ‘द्वैध शासन एक प्रकार की वर्णसंकर व्यवस्था है जो कभी स्थाई नहीं रह सकती, क्योंकि किसी देश अथवा प्रांत के शासन का संचालन दो पृथक् अथवा स्वतंत्र मन्त्रिमण्डलों द्वरा सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता।’

(2.) विषयों का अवैज्ञानिक विभाजन: प्रान्तीय विषयों का रक्षित और हस्तांतरित विषयों में बंटवारा, सरकार की एकता को नष्ट करने वाला कदम था। इस विभाजन से नित्य नई समस्याएं उत्पन्न होती थीं। विषयों का बंटवारा भी अवैज्ञानिक ढंग से किया गया ताकि किसी भी मन्त्री के पास किसी भी समूचे विभाग का नियंत्रण न रहे और वे सदैव ही गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी पर निर्भर रहें। उदाहराणार्थ, कृषि और सिंचाई का अभिन्न सम्बन्ध है किन्तु कृषि को हस्तान्तरित विषय और सिंचाई को रक्षित विषय रखा गया। मद्रास सरकार के व्यवसाय मंत्री सर के. वी. रेड्डी ने मुडीमैन कमेटी के समक्ष गवाही देते हुए कहा- ‘मैं कृषि मन्त्री था, पर सिंचाई से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था। कृषि मन्त्री होते हुए भी मेरा मद्रास कृषक ऋण अधिनियम और मद्रास भूमि विकास ऋण अधिनियम से कोई सरोकार नहीं था। सिंचाई, कृषि ऋण, भूमि विकास ऋण और अकाल राहत के बिना कृषि मन्त्री की कार्यक्षमता और प्रभाव की केवल कल्पना ही की जा सकती है। मैं मन्त्री था उद्योग का परन्तु कारखाने, भाप यंत्र, जल-विद्युत तथा श्रम विभाग मेरे पास नहीं थे, क्योंकि ये सब रक्षित विषय थे।’

(3.) गवर्नर की विशेष शक्तियां: 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत गवर्नरों को विशेष शक्तियां प्रदान की गईं जिसके कारण द्वैध शासन सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर पाया। गवर्नर ने तीन प्रकार से सारी शक्तियां अपने हाथों में ले लीं- (1.) गवर्नर को सरकार चलाने के लिये नियम बनाने तथा आदेश जारी करने का अधिकर था। उन्होंने नियम बना दिया कि सचिव अपने विभागीय कार्य के लिए सप्ताह में एक बार गवर्नर से मिले तथा उनके और मंत्रियों के मतभेद के प्रकरण गवर्नर के निर्णय हेतु प्रस्तुत करे। इससे मंत्री बिल्कुल शक्तिहीन हो गये और सचिव उनके विरुद्ध गवर्नर के कान भरने लगे। (2.) गवर्नरों ने मन्त्रियों से इकट्ठा मिलने की बजाय अलग-अलग मिलन आरम्भ कर दिया, इससे मन्त्रियों की बातों की उपेक्षा करना आसान हो गया। (3.) गवर्नरों ने यह सिद्धन्त अपना लिया कि मन्त्री केवल परामर्शदाता है और यह गवर्नर की इच्छा पर निर्भर है कि वह मन्त्रियों की किसी बात को माने या न माने। इसलिये गवर्नर मन्त्रियों की उचित सलाह की भी उपेक्षा करने लगे।

(4.) संयुक्त विचार-विमर्श का अभाव: अधिनियम के निर्माताओं ने प्रान्तीय सरकार के दोनों भागों (रक्षित तथा हस्तांतरित) के संयुक्त विचार-विमर्श की अनुशंसा की थी ताकि मन्त्रियों के माध्यम से गवर्नर की कार्यकारिणी को जन-इच्छाओं की जानकारी मिल सके और कार्यकारिणी के सदस्यों के अनुभव से मन्त्री भी कुछ सीख सकें। गवर्नरों को इस प्रकार के निर्देश भी दिये गये थे किन्तु मद्रास के गवर्नर को छोड़कर अन्य किसी भी गवर्नर ने इन निर्देशों का पालन नहीं किया। बजट पर विचार करने के अतिरिक्त कार्यकारिणी के सदस्य तथा मन्त्रिगण शासन सम्बन्धी मामलों पर विचार विमर्श के लिए कभी सम्मिलित नहीं होते थे। इससे उनमें निरन्तर अविश्वास और तनातनी रहती थी और वे सार्वजनिक रूप से एक दूसरे की निन्दा करते थे।

(5.) संयुक्त उत्तरदायित्व का अभाव: मन्त्री किसी भी संगठित दल के प्रतिनिधि नहीं थे, अतः वे किसी निश्चित कार्यक्रम से बंधे हुए नहीं थे। गवर्नरों ने उनमें संयुक्त उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न करने का प्रयास नहीं किया और न कभी सामूहिक विचार-विमर्श होने दिया। इसलिए विभिन्न समस्याओं पर उनके भिन्न-भिन्न विचार होते थे। कई बार एक मन्त्री, दूसरे मन्त्री की योजना की विधान परिषद् में आलोचना भी कर देता था। मन्त्रियों का कार्यकारिणी के साथ भी कोई समन्वय नहीं था। मन्त्री, विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी थे। जबकि कार्यकारिणी के सदस्य विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। संयुक्त उत्तरदायित्व के अभाव में प्रशासन में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न होने लगीं।

(6.) मन्त्रियों की कमजोर स्थिति: इस अधिनियम के अन्तर्गत मन्त्रियों को वास्तविक अधिकार नहीं दिये गये जिससे उनकी स्थिति काफी कमजोर बनी रही। वे राष्ट्र-निर्माण सम्बन्धी विभिन्न विभागों का संचालन करते थे परन्तु उनके पास कोष नहीं थे। प्रान्तों में वित्त विभाग रक्षित विषय था। अतः वित्त विभाग हर मामले में रक्षित विषयों का पक्ष लेता था और हस्तांतरित विषयों के मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न कर देता था, ताकि यह सिद्ध कर दिया जाये कि भारतीय मन्त्री अयोग्य हैं। वित्त विभाग का प्रयत्न रहता था कि हस्तान्तरित विभागों की मांगों पर विचार करने से पूर्व रक्षित विभागों की सारी मांगें पूरी कर दी जायें और फिर हस्तांतरित विभागों के सामने धन की कमी का बहाना लेकर उनकी मांगें अस्वीकार कर दी जायें। गवर्नर हस्तान्तरित विषयों में जब चाहे हस्तक्षेप कर सकता था और कारण बताये बिना, किसी भी मन्त्री को पदच्युत कर सकता था। इन कारणों से द्वैध शासन का असफलता हो जाना स्वभाविक ही था।

(7.) विधान परिषद् का दोषपूर्ण गठन: प्रान्तों की विधान परिषदों के गठन में दोष था। लगभग 30 प्रतिशत सदस्य सरकारी अधिकारी अथवा सरकार द्वारा मनोनीत गैर-सरकारी अधिकारी होते थे। जो सदस्य निर्वाचित थे, वे विभिन्न सम्प्रदायों तथा विशेषाधिकार प्राप्त तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते थे। मतदान का अधिकार भी सम्पत्ति, आयकर तथा राजस्व सम्बन्धी योग्यता पर आधारित था। अतः विधान परिषद् के अधिकांश सदस्य सरकार को प्रसन्न रखने के पक्ष में थे, ताकि वे अपने-अपने सम्प्रदायों अथवा हितों के लिए अधिक सुविधाएं प्राप्त कर सकें।

(8.) बाह्य परिस्थितियों का योगदान: अनेक बाह्य परिस्थितियों ने भी इस अधिनियम को असफल बनाया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अनेक राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हो गयी थी। ब्रिटेन ने भी अपने कुछ अधिराज्यों के साथ समानता का व्यवहार करना आरम्भ कर दिया था। एशिया में नई राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न हो चुकी थी। ऐसी परिस्थितियों में भारतीयों को ब्रिटिश सरकार के ये सुधार अपर्याप्त और निराशाजनक प्रतीत हुए। स्वराज पार्टी ने विधान मण्डलों में प्रवेश किया परन्तु उसका ध्येय सरकार के मार्ग में रोड़े अटका कर द्वैध शासन को अव्यवहारिक सिद्ध करना था। 1930 ई. के बाद कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना हो गया। ब्रिटिश सरकार ने विधान मण्डलों की इच्छाओं की अवहेलना कर उदारवादियों को भी असंतुष्ट कर दिया। डॉ. जकारिया ने लिखा है- ‘सरकार के इस निर्णय ने कि सुधारों पर इस तरह अमल किया जाय, जिससे लोगों को स्वशासन के कम से कम अधिकार मिलें और दूसरी तरफ स्वराज दल की इस नीति ने कि सरकार के संचालन में अधिक से अधिक रुकावटें लगाई जायें, 1919 के सुधारों के भाग्य का पहले से ही निर्णय कर दिया।’

कूपलैण्ड ने स्वीकार किया है कि द्वैध शासन असफल रहा, क्योंकि वह अपने रचयिताओं के मूल उद्देश्यों का पूरा न कर सका। द्वैध शासन की असफलता का एक कारण सिविल सेवकों पर मन्त्रियों का नियन्त्रण न होना भी था। अखिल भारतीय नौकरियों के सदस्य जो हस्तांतरित विभागों का संचालन करते थे, मन्त्रियों के अधीन नहीं थे। गवर्नर तक सिविल सेवकों की निजी पहुंच थी और उनके हित भारत सचिव द्वारा संरक्षित थे। मन्त्रियों तथा सिविल सेवकों में बनती ही नहीं थी। सिविल सेवकों के विरुद्ध मन्त्रियों की शिकायतें निरर्थक सिद्ध होती थीं। असहयोग आन्दोलन तथा खिलाफत आन्दोलन ने देश में कटुता, अविश्वास और असहयोग का ऐसा वातावरण पैदा कर दिया था कि शासन का चलना असम्भव था।

संसदीय शासन प्रणाली के लिये मील का पत्थर

मारिस जोंस, गुरुमुख निहालसिंह, एम. वी. वायली आदि विद्वानों का मत है कि द्वैध शासन प्रणाली ने भारत में संसदीय सरकार के विकास में योगदान दिया। 1920 से 1937 ई. की अवधि में भारत में चार आम चुनाव हुए। इन चुनावों के उपरान्त गठित विधान सभाओं में भारतीय नेताओं को संसदीय परम्पराओं का व्यक्तिगत अनुभव हुआ तथा भारतीय मन्त्रियों को स्वशासन का प्रशिक्षण मिला। उन्हें इस बात का अनुभव हुआ कि स्वशासन के मार्ग में कौनसी बाधाएं आ सकती हैं और उन्हें कैसे हल किया जा सकता है? मतदाताओं की दृष्टि से भी द्वैध शासन व्यवस्था की यह अवधि बिल्कुल बेकार नहीं गई। विधान सभाओं की दर्शक-दीर्घाएं सामान्यतः भरी रहती थीं। वदा-विवाद का पूरी तरह से प्रचार होता था और जनता उसे पढ़ती थी। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में संसदीय शासन का आरम्भ हो गया था। इस दृष्टि से द्वैध शासन को भारत में संसदीय शासन प्रणाली की दिशा में मील का पत्थर कहा जा सकता है। मारिस जोंस ने लिखा है- ‘प्रान्तीय स्तर पर प्रशासन के एक विशिष्ट क्षेत्र में उत्तरदायी शासन को मान्यता देकर 1919 के अधिनियम ने ससंदीय संस्थाओं का आरम्भ किया।’ 

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