Sunday, April 20, 2025
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अध्याय – 49 : भारत में राजनीतिक संगठनों का उदय – 1

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बंगाल प्रेसीडेंसी में राजनीतिक संगठनों का उदय

उन्नीसवीं सदी का भारत हर तरफ से द्वंद्वों एवं संघर्षों में फंसा हुआ था। देश किसानों के आंदोलन, सामाजिक सुधार आंदोलन, आदिवासियों के आंदोलन, सन्यासियों के आंदोलन, सैनिक असंतोष जैसे द्वंद्वों एवं संघर्षों में फंसा हुआ था। इन आंदोलनों एवं समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले विचारों के कारण चारों ओर उत्तेजना का वातावरण बना गया था। लोग अपने पुराने विचारों को त्याग रहे थे, नई शिक्षा एवं नये विचार ग्रहण कर रहे थे। वे बेकारी और गरीबी से उबरना चाहते थे। आजादी चाहते थे। नागरिक अधिकारों में वृद्धि चाहते थे। इसलिये धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन आरम्भ होने के साथ-साथ अराजनीतिक एवं राजनीतिक संस्थाओं का भी उदय हुआ। भारत के अराजनीतिक संगठनों में 1828 ई. में स्थापित अकादमिक एसोसिएशन, 1830 ई. में स्थापित कलकत्ता ट्रेड ऐसोसिएशन, 1834 ई. में स्थापित बंगाल चेम्बर ऑफ कॉमर्स आदि संस्थायें प्रमुख थीं इन संस्थाओं का भारत की राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं था। फिर भी इन संगठनों ने शिक्षाविदों तथा व्यापारियों आदि प्रमुख सामाजिक वर्गों को संगठित होने का रास्ता दिखाया। शीघ्र ही भारत में राजनीतिक संस्थायें भी प्रकट होने लगीं।

ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार द्वारा भारत में तीन प्रेसिडेंसियां- बंगाल प्रेसीडेंसी, बम्बई प्रेसीडेंसी तथा मद्रास प्रेसीडेंसी की स्थापना की गई थी। प्रशासनिक मुख्यालयों की दृष्टि से इनकी तुलना आज की राज्य सरकारों से की जा सकती है। कम्पनी सरकार की राजधानी कलकत्ता में थी जिसकी तुलना देश की केन्द्र सरकार से की जा सकती है। चूंकि नागरिक अधिकार सरकार से अनुरोध करके, या संघर्ष करके लिये जा सकते थे, इसलिये स्वाभाविक था कि ब्रिटिश शासित क्षेत्र विशेषकर उसके प्रेसीडेंसी मुख्यालयों पर ही इन राजनीतिक संस्थाओं का उदय होता।

यह ध्यान देने वाली बात है कि उन्नीसवीं सदी की अराजनीतिक एवं राजनीतिक संस्थाओं का उदय केवल ब्रिटिश भारत में हुआ। विभिन्न राजाओं, नवाबों एवं जागीरदारों द्वारा शासित भारत जिसे रियासती भारत कहते थे, इन संस्थाओं से अलग था। रियासती भारत की जनता राजाओं, जागीरदारों एवं ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंटों द्वारा बुरी तरह शोषित की जा रही थी किंतु अभी उसमें राजनीतिक चेतना कोसों दूर थी।

बंगाल प्रेसीडेंसी में राजनीतिक संगठनों की स्थापना

कम्पनी सरकार की राजधानी कलकत्ता होने के कारण कलकत्ता में ही सर्व प्रथम राजनीतिक संगठनों का उदय हुआ। माना जाता है कि 1833 ई. के चार्टर एक्ट में कुछ धारायें राजा राममोहन राय की प्रेरणा से जोड़ी गई थीं। इस प्रकार राजा राम मोहन राय को ब्रिटिश भारत का पहला राजनीतिक आंदोलनकारी कहा जा सकता है। उन्हीं की प्रेरणा से 1836 ई. में बंगभाषा प्रकाशक सभा की स्थापना हुई। इसे भारत की पहली राजनीतिक संस्था कहा जा सकता है।

लैंड होल्डर्स सोसायटी (जमींदारी एसोसियेशन)

राजनीतिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने का पहला काम लैंड होल्डर्स सोसायटी ने किया। इसे जमींदारी एसोसियेशन भी कहते थे। इसकी स्थापना 1838 ई. में कलकत्ता में हुई। यह भारत के गैर सरकारी अँग्रेजों और भारतीय जमींदारों की संयुक्त संस्था थी। इसे जमींदारों के हितों की सुरक्षा के लिये स्थापित किया गया था परन्तु यह, समाज के अन्य वर्गों के प्रतिनिधित्व का भी दावा करती थी। इस संस्था के भारतीय सदस्यों में प्रसन्नकुमार ठाकुर, राजा राधाकान्त देव, राजा कालीकृष्ण, द्वारकानाथ ठाकुर और रामकमल सेन प्रमुख थे। अँग्रेज सदस्यों में थियोडोर डिफेंस, विलियम कॉब हैरी, विलियम थियोबाल्ड और जी. ए. प्रिंसेप प्रमुख थे। यह संस्था भारत में भारतीयों के लिये उन्हीं अधिकारों की मांग करती थी, जो ब्रिटेन में ब्रिटिश जनता को प्राप्त थे। इस संगठन ने कलकत्ता में हलचल मचा दी। देशी समाचार पत्रों ने इस संस्था का स्वागत किया तथा कट्टरपंथी अँग्रेजी समाचार पत्रों ने इसे ब्रिटिश साम्राज्य के लिये खतरा बताया। लैंड होल्डर्स सोसायटी ने अपनी गतिविधियाँ इंग्लैण्ड में भी बढ़ाने का प्रयास किया। उसकी गतिविधियों से चिंतित होकर कई अँग्रेज, सरकार को यह सलाह देने लगे कि इस संगठन के मुकाबले में जमींदारों का दूसरा संगठन खड़ा किया जाये। 1838 ई. में लैंड होल्डर्स सोसायटी ने कम्पनी सरकार को एक ज्ञापन देकर माफी की जमीन छीनना बन्द करने का अनुरोध किया। ज्ञापन पर बीस हजार से ज्यादा लोगों के हस्ताक्षर थे। सोसायटी ने सरकार के समक्ष अन्य माँगें भी रखीं जिनमें मुख्य थीं- अदालतों में बंगला भाषा का प्रयोग, स्टाम्प ड्यूटी में कमी, फौजदारी मुकदमों में गवाहों के भोजन की व्यवस्था और भारतीय कुलियों को मॉरीशस भेजना बन्द करना। यह संस्था केवल सात-आठ वर्षों में निष्क्रिय हो गई।

पेट्रियाटिक एसोसिएशन

पेट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना 9 फरवरी 1839 को कलकत्ता में भारतीयों और यूरेशियनों (एंग्लो-इंडियन्स) ने मिलकर की। इसके अध्यक्ष सी. आर. फेनविक, तेजपुर कलेक्टर के हेड क्लर्क थे। इस संगठन का उद्देश्य कम्पनी सरकार के अन्यायों के विरुद्ध आवाज उठाना था। पेट्रियाटिक एसोसिएशन 1833 ई. के चार्टर एक्ट को पूरी तरह लागू करवाना चाहता था। संगठन का कहना था कि कम्पनी सरकार, यूरेशियनों और भारतीयों को वे अधिकार और सुविधाएं नहीं देती जो उन्हें महारानी विक्टोरिया की प्रजा की हैसियत से मिलनी चाहिये। उन्हें न तो उच्च सरकारी नौकरियाँ दी जाती हैं और न कानून-कायदे बनाने में उनकी राय ली जाती है। फेनविक ने कहा कि कोई भी राष्ट्र ऐसे महान् अपराधों के सामने चुपचाप आत्मसमर्पण नहीं करेगा। कुछ दिनों बाद इस संगठन ने अपना नाम बदलकर यूनाइटेड इण्डिया एसोसिएशन रख लिया। कुछ समय बाद यह निष्क्रिय हो गया।

देश-हितैषिणी सभा

इस संगठन की स्थापना 3 अक्टूबर 1841 को कलकत्ता में की गई। इसके संस्थापकों में हिन्दू कॉलेज के कुछ पुराने छात्र और देशी समाचार पत्रों के कुछ संचालक थे। भारतीय और अँग्रेज, दोनों ही इस संगठन के सदस्य हो सकते थे। संगठन के स्थापना दिवस पर एक भाषण में कहा गया- ‘राजनीतिक स्वाधीनता के भोग से हमारा वंचित होना हमारे दुःख और पतन का कारण है। नागरिक स्वाधीनता के चले जाने से सुख उसी प्रकार चला जाता है जैसे काया के चले जाने से आत्मा।’

संगठन का मानना था कि भारत के तत्कालीन शासक भारतीयों को राजनीतिक अधिकार कदापि नहीं देंगे। वे भारत का आर्थिक शोषण कर रहे हैं। सभा ने कम्पनी के शोषण के विरुद्ध भारतवासियों की एकता और देशप्रेम पर जोर दिया और ब्रिटिश इंडिया सोसायटी के साथ मिलकर काम करने की सलाह दी। देश हितैषिणी सभा भी कम्पनी सरकार के अत्याचारों से भारत को छुटकारा दिलवाना चाहती थी और ब्रिटिश संसद के माध्यम से न्याय प्राप्त करना चाहती थी। अपनी पूर्ववर्ती संस्थाओं की भांति यह संस्था भी शीघ्र ही समाप्त हो गई।

बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी

बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी की स्थापना 20 अप्रैल 1843 को कलकत्ता में हुई। इसके अध्यक्ष जॉर्ज थॉम्पसन लन्दन की ब्रिटिश इंडिया सोसायटी के सक्रिय सदस्य थे। इस संगठन के सचिव प्यारीचन्द्र मित्र, अपने समय के प्रसिद्ध समाज सुधारक थे। यह भारतीयों और गैर-सरकारी अँग्रेजों का सम्मिलित संगठन था। इस संगठन ने देश में प्रशासन, पुलिस विभाग, न्यायपालिका, नगरपालिका आदि में सुधार करवाने में रुचि ली और पत्रिकाएँ प्रकाशित करवाकर सरकार की कमियों को उजागर किया। संगठन ने सार्वजनिक महत्व के विषयों पर अधिक ध्यान दिया और समय-समय पर कम्पनी सरकार और ब्रिटिश सरकार को आवेदन भिजवाये। इस सोसाइटी ने बंगाल में सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की दयनीय स्थिति को सुधारने की मांग की तथा समाज सुधार पर ध्यान दिया। स्त्री शिक्षा पर जोर दिया और विधवा-विवाह का समर्थन किया। इन कार्यों के कारण बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी को एक तरफ तो कम्पनी सरकार का और दूसरी तरफ पुराने विचारों के जमींदारों के विरोध का सामना करना पड़ा। इसके सचिव प्यारीचन्द्र मित्र जमींदारी प्रथा की आलोचना करते थे और किसानों के अधिकारों की मांग करते थे। इस कारण जमींदार परिवार इस संगठन से अलग हो गये। जनतान्त्रिक कार्यक्रमों के कारण संगठन को राजद्रोह के प्रचार के अभियोग का सामना करना पड़ा। इस कारण अँग्रेज सदस्यों ने भी संगठन से सम्बन्ध तोड़ लिया। 1846 ई. के बाद यह सोसायटी निष्क्रिय हो गई।

ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन

ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना 31 अक्टूबर 1851 को कलकत्ता में हुई। इसके अधिकांश सदस्य लैंड होल्डर्स और बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी के सक्रिय सदस्य रह चुके थे। राजा राधाकान्त देव इस नये संगठन के अध्यक्ष और देवेन्द्रनाथ ठाकुर सचिव चुने गये। इसके स्थापना दिवस पर कहा गया कि इस संस्था का लक्ष्य अपनी शक्ति भर प्रत्येक उचित उपाय से ब्रिटिश भारत के शासन की दक्षता को बढ़ाना और उसमें सुधार करना और इस तरह ग्रेट ब्रिटेन तथा भारत के सामान्य हितों को आगे बढ़ाना एवं पराधीन भारत के देशी निवासियों की स्थिति सुधारना होगा। इस संस्था ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के 1853 ई. चार्टर के नवीनीकरण के सम्बन्ध में संसद को महत्त्वपूर्ण स्मृति-पत्र दिये जिनमें भारत के प्रशासन के जनतन्त्रीकरण और उसमें भारतीयों के प्रतिनिधित्व की माँग की गई। संस्था ने मांग की कि विधान सभा में भारतीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाये। बड़े अधिकारियों का वेतन कम किया जाये। नमक कर समाप्त किया जाये। संस्था के प्रयासों के फलस्वरूप 1853 के चार्टर एक्ट में गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में 6 सदस्य कानून बनाने के लिये जोड़ दिये गये। ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने 1856 ई. में ब्रिटिश संसद से अनुरोध किया कि केन्द्र और प्रेसीडेन्सियों में ऐसी सस्थाएँ बनाई जायें जो विधान सभाओं का काम करें और उनमें भारतीयों के प्रतिनिधि भी हों।

1857 की क्रांति ने ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन को गहरा झटका दिया किन्तु कुछ समय बाद वह पुनः सक्रिय हो गया। 1860 ई. में उसने पुनः भारत में विधान सभाओं की स्थापना की माँग को जोर-शोर से उठाया। संस्था ने 1861 ई. के कौंसिल एक्ट में भी संशोधन की मांग उठाई। ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने 1875 ई. तक चले सिविल सर्विस आन्दोलन को समर्थन दिया। उसने इंग्लैण्ड और भारत में सिविल सर्विस परीक्षा एक साथ लेने की मांग की। जब 1865 ई. में सिविल सर्विस परीक्षा की आयु 22 साल से घटाकर 21 साल कर दी गई तो ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने जोरदार विरोध किया। 1860-61 ई. में इसने नील की खेती से सम्बन्धित विवादों के कारणों की जाँच के लिये जाँच आयोग बैठान की मांग की। 1860 ई. में इस ऐसोसियेशन ने अकाल पीड़ितों की सहायता के लिये धन एकत्रित किया। 1860 ई. में जब सरकार ने आयकर लगाया तो संस्था ने इसका भी विरोध किया।

ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन उस समय भारत का सबसे प्रभावशाली संगठन था। सरकार भी उसका सम्मान करती थी। उसकी शाखाएँ बंगाल और उसके बाहर फैली हुई थीं। यह संस्था मूलतः जमींदारों का संगठन थी किंतु इसे व्यापक बनाने के लिये बुद्धिजीवियों और मध्यमवर्ग के लोगों को भी संगठन की सदस्यता दी गई। 1860 ई. से संगठन में जमींदारों और बुद्धिजीवियों में मतभेद उभरने लगे। बुद्धिजीवियों का आरोप था कि एसोसिएशन के जमींदार सदस्य किसानों और आम जनता के हितों की उपेक्षा करते हैं। उन्हें सिर्फ अपने वर्ग के हितों की चिन्ता रहती है। उनका यह आरोप भी था कि एसोसिएशन समय के साथ आगे बढ़ने और अत्यन्त उपयोगी लोगों का सहयोग लेने से इन्कार करता है। बुद्धिजीवियों ने संगठन में सुधार लाने के कई प्रयास किये किन्तु उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस कारण उन लोगों का एसोसिएशन से मोह भंग होता चला गया और वे एसोसिएशन से अलग होते गये। इस कारण संगठन का जनाधार कम हो गया। 1880 ई. तक वह कुछ जमींदारों का संगठन मात्र रह गया जिससे उसकी राजनीतिक प्रतिष्ठा नष्ट हो गई।

इण्डियन लीग

अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक और मालिक शिशिर कुमार घोष ने 25 सितम्बर 1875 को इण्डियन लीग की स्थापना की। इस संगठन ने मध्यम वर्ग को आकर्षित करने के लिये मात्र पाँच रुपये वार्षिक चन्दा रखा। इस संगठन का उद्देश्य लोगों में राष्ट्रीयता की भावना जगाना और राजनीतिक शिक्षा को बढ़ावा देना था। इसकी स्थापना की सभा के प्रस्ताव में कहा गया कि यह संस्था महारानी की प्रजा के समस्त वर्गों का प्रतिनिधित्व करना चाहती है। इण्डियन लीग ने अक्टूबर 1875 में बंगाल सरकार को एक स्मृति-पत्र देकर कलकत्ता की नगरपालिका के प्रशासन में सुधार और चुनाव की प्रथा जारी करने का अनुरोध किया। उसने प्रिन्स ऑफ वेल्स के कलकत्ता आगमन की स्मृति में तकनीकी विज्ञान की शिक्षा देने वाला एक स्कूल खोलने के लिये लगभग डेढ़ लाख रुपया एकत्र किया और इस योजना के लिये छोटे लाट टेंपुल का आशीर्वाद प्राप्त किया। 1876 ई. के आरम्भ में बंगाल सरकार ने नगर पालिका विधेयक पेश किया जिसमें नाममात्र के लिये चुनाव की प्रथा को माना गया तथा नगर पालिका के कमिशनरों पर सरकारी नियंत्रण का प्रावधान रखा गया। ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने नये विधेयक का जोरदार विरोध किया परन्तु इण्डियन लीग ने टेंपुल के इस विधेयक का स्वागत किया। लीग का मानना था कि चुनाव की प्रथा चाहे जितनी सीमित हो, एक बार लागू हो जाने से उसका प्रसार होकर रहेगा और विधान सभा भी एक दिन लागू होकर रहेगी परन्तु लोगों को लीग का यह दृष्टिकोण पसन्द नहीं आया। इण्डियन लीग का अँग्रेजों के प्रति सम्मोहन इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि जब टेंपुल बंगाल से बदल कर बम्बई प्रेसीडेन्सी का गवर्नर बना तो लीग के प्रमुख नेता उसे अभिनन्दन-पत्र देने बम्बई गये। इसी प्रकार, 1 जनवरी 1877 को दिल्ली दरबार के अवसर पर एक मानपत्र वायसराय लिटन को दिया गया जिसमें महारानी विक्टोरिया के कैसरे हिन्द की उपाधि धारण करने पर खुशी प्रकट की गई।

शिशिर कुमार घोष के अनियमित कार्यों से लीग के अन्य नेता रुष्ट हो गये और उन्होंने लीग से त्याग-पत्र देकर नई संस्था बनाने का निश्चय किया। इस पर लीग ने भी अपने संगठन में फेर बदल किया। अध्यक्ष शम्भूचन्द्र मुखर्जी को हटाकर, नरम दल के कृष्णमोहन बनर्जी को अध्यक्ष बनाया गया परन्तु इससे मामला सुलझ नहीं पाया। 1876 ई. में कलकत्ता मे भूतपूर्व वायसराय नार्थब्रुक की शोक सभा में उनकी मूर्ति बनाने का प्रस्ताव आया। गरम दल वालों ने इसका विरोध किया। इसके चलते लीग के गरम नेताओं और नरम नेताओं में झगड़ा हो गया। 1876 ई. में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना ने इण्डियन लीग के भविष्य को नष्ट कर दिया। लीग के अध्यक्ष कृष्णमोहन बनर्जी अपने समर्थकों के साथ इण्डियन एसोसिएशन में सम्मिलित हो गये। सिर्फ कुछ लोग शिशिर कुमार घोष के नेतृत्व वाली लीग में बने रहे परन्तु इण्डियन लीग की प्रतिष्ठा गिर जाने से लीग ने अपना जनाधार खो दिया।

इण्डियन एसोसिएशन

आनन्द मोहन बसु ने समान विचारों वाले प्रमुख लोगों के साथ मिलकर 26 जुलाई 1876 को कलकत्ता में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना की। इस संगठन की कार्यकारिणी में 28 सदस्य रखे गये और आनन्दमोहन बसु को इसका सचिव नियुक्त किया गया। इस संगठन को वकीलों, पत्रकारों और शिक्षकों का जोरदार समर्थन मिला। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा अन्य युवा नेता इस संगठन को अखिल भारतीय संगठन बनाना चाहते थे और सारे भारत को संगठित कर एक मंच पर लाना चाहते थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार इण्डियन एसोसिएशन के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार से थे-

(1.) देश में जनमत की एक शक्तिशाली संस्था का गठन करना।

(2.) सामान्य राजनीतिक हितों के आधार पर भारतीय जनता को एक करना।

(3.) हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को बढ़ाना।

(4.) सार्वजनिक आन्दोलनों में जनसामान्य की भागीदारी बढ़ाना।

इण्डियन एसोसिएशन में जमींदारों के स्थान पर मध्यम वर्ग की प्रधानता थी। मध्यम वर्ग में भी अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की प्रधानता थी। उनमें से अनेक इंग्लैण्ड से शिक्षा प्राप्त करके आये थे जो अपने देश में भी जनतन्त्र लाना चाहते थे। वे इस दिशा में धीरे-धीरे कदम उठाना चाहते थे। जनतन्त्र की स्थापना के लिये वे आन्दोलन भी चाहते थे परतु क्रान्तिकारी कदम उठाने के पक्ष में नहीं थे। वे अपने आन्दोलनों के द्वारा सरकार पर दबाव डालकर कुछ अधिकार हासिल करना चाहत थे। उन्होंने आन्दोलन, दबाव और समझौते का सुधारवादी मार्ग अपनाया। इण्डियन एसोसिएशन ने उन सवालों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जिन पर अधिकांश भारतीय सहमत थे, यथा- सिविल सर्विस आन्दोलन, वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, आर्म्स एक्ट, इल्बर्ट बिल आन्दोलन इत्यादि। अपने काम को आगे बढ़ाने के लिये एसोसिएशन ने लाहौर, मेरठ, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ आदि स्थानों पर शाखाएँ भी स्थापित कीं।

अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘इण्डियन एसोसिएशन का आदर्श महान् था। वह राजधानी कलकत्ता में एक शक्तिशाली केन्द्रीय संगठन स्थापित करना चाहती थी जिसकी शाखाएँ सारे भारत में हों। उसके पास बहुत ही बुद्धिमान, योग्य और कर्मठ नेता तथा कार्यकर्ता भी थे पर इस कार्य के लिये आवश्यक धन का अभाव था। यह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। अपनी जिन्दगी के प्रथम दस वर्षों में उसकी वार्षिक आय 2,000 रुपये से अधिक नहीं हुई।’

आर्थिक कठिनाई के उपरान्त भी एसोसिएशन ने अखिल भारतीय संगठन और भारतीय जनता का प्रवक्ता बनने का पूरा प्रयास किया। इण्डियन एसोसिएशन द्वारा सम्पादित प्रमुख गतिविधियाँ इस प्रकार से थीं-

(1.) 1876 ई. से किसानों के अधिकार सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण कामों का सम्पादन तथा किसानों का पक्ष लेकर मालगुजारी विधेयक का समर्थन।

(2.) 1879 ई. तक सिविल सर्विस आन्दोलन का सफलता पूर्वक संचालन।

(3.) 1879 ई. से स्थानीय स्वायत्त शासन आन्दोलन का संचालन।

(4.) 1883 ई. में एसोसिएशन के नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की गिरफ्तारी और सजा के विरुद्ध आन्दोलन का संचालन।

(5.) 1884 ई. में बंगाल में नया स्वायत्त शासन कानून लागू होने पर इण्डियन एसोसिएशन द्वारा लोगों से चुनावों में भाग लेने का अनुरोध।

(6.) नगर पालिकाओं के अध्यक्ष गैर-सरकारी व्यक्ति होने की मांग।

(7.) इल्बर्ट बिल के पक्ष में सारे बंगाल में जबरदस्त आन्दोलन का संचालन।

(8.) आर्म्स एक्ट को रद्द कराने के लिये आन्दोलन का संचालन।

इण्डियन एसोसिएशन ने सार्वजनिक प्रश्नों को लेकर जन-आन्दोलन चलाये और वे एक सीमा तक सफल भी रहे। अँग्रेजों का भी मानना था कि एसोसिएशन ने इंग्लैण्ड के राजनीति मंचों के उपयोग के विचार को बहुत तेजी से ग्रहण कर लिया है।

अध्याय – 50 : भारत में राजनीतिक संगठनों का उदय – 2

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बम्बई प्रेसीडेंसी में राजनीतिक संस्थाओं का उदय

बॉम्बे एसोसिएशन

बम्बई प्रेसीडेन्सी में राजनीतिक गतिविधियाँ मराठी मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी के अस्तित्व में आने से हुई। 1841 ई. में ब्रिटिश शासन की आलोचना करते हुए भास्कर पाण्डुरंग तरखदर ने कहा- ‘यदि मैं आपको (अँग्रेजों) को इस बात का श्रेय हूं कि आपने हमारी पिण्डारियों तथा रमोसियों से रक्षा की है तो यह भी सत्य है कि आपकी व्यापारिक प्रणाली ने अधिक सुचारू रूप से हमारी जेबें खाली कर दी हैं और जितना वे लोग पांच-छः सौ साल में भी न लूट सके उतना आपने थोड़े से वर्षों में ही लूट लिया है। आपके ज्ञान और बुद्धि के साथ-साथ आपकी धूर्तता और कपट भी बढ़ गई है।’

बॉम्बे एसोसिएशन, बम्बई की पहली राजनीतिक संस्था थी। इसकी स्थापना 26 अगस्त 1852 को हुई। इस संस्था में हिन्दू, मुसलमान, पारसी आदि विभिन्न धर्मों के लोग सदस्य थे। बड़े पूँजीपतियों, व्यापारियों और मध्यम वर्गीय लोगों ने इसकी सदस्यता ग्रहण की। सर जमदेशजी जीजी भाई इसके अधीष्ट अध्यक्ष, जगन्नाथ शंकर सेठ अध्यक्ष और भाऊदा तथा विनायक राव जगन्नाथ संयुक्त सचिव चुने गये। बम्बई की राजनीति में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।

बॉबे एसोसिएशन का उद्देश्य सरकार को जनता की कठिनाइयों से अवगत कराना था किंतु यह अँग्रेजों की पक्षधर संस्था थी। उसने 1857 ई. की क्रांति की निन्दा की। क्रांति के बाद जब सरकार ने व्यापारियों और मध्यम वर्ग पर नये टैक्स लगाये तो बम्बई में काफी हलचल हुई। लाइसेंस बिल के विरोध में भारी जनसभा भी हुई परन्तु बॉम्बे एसोसिएशन के शीर्ष नेता सरकार के भय से इस आन्दोलन से दूर रहे। कलकत्ता और मद्रास में लाइसेंस बिल के विरुद्ध जोरदार विरोध प्रदर्शन किया गया। जब बम्बई का जनमत इस बिल के विरुद्ध हुआ तब 8 अक्टूबर 1859 को जगन्नाथ शंकर सेठ के घर पर बॉम्बे एसोसिएशन की बैठक की गई और लाइसेंस बिल पर रिपोर्ट तैयार करने के लिये लगभग एक सौ लोगों की कमेटी बनाई गई। काफी समय बाद रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। इस पर विचार करने के लिये पुनः दूसरी बैठक बुलाई गई। इस पर एसोसिएशन के नौजवान और गरम विचारों वाले सदस्यों ने कड़ा विरोध प्रकट किया परंतु एसोसिएशन के शीर्ष नेतृत्व ने उनके विरोध पर ध्यान नहीं दिया। इस पर भाऊदाजी के नेतृत्व में गरम विचार वालों ने जनसभाएँ आयोजित करके लाइसेंस बिल वापस लेने के प्रस्ताव पारित किये। उन्होंने ब्रिटिश संसद को स्मृति-पत्र भेजकर मांग की कि आयकर का बोझ देश के औद्योगिक वर्गों पर लादा जा रहा है जबकि सम्पत्तिवान और अन्य वर्गों पर कोई शुल्क नहीं लगाया गया है। इसके बाद बॉम्बे एसोसिएशन सक्रिय हुआ और उसने लाइसेंस बिल के विरुद्ध विनम्र शब्दों में एक आवेदन पत्र भारत सरकार की लेजिस्लेटिव कौंसिल को दिया। इसमें बिल वापस लेने की बात नहीं कही गई थी अपितु बिल में नाममात्र के संशोधन सुझाये गये थे। इसके साथ ही बॉम्बे एसोसिएशन धीरे-धीरे निष्क्रिय होता चला गया और 1865 ई. में जगन्नाथ शंकर सेठ की मृत्यु के साथ ही मृत प्रायः हो गया।

1867 ई. के अन्त में बॉम्बे एसोसिएशन को पुनर्जीवित करने के लिये मंगलदास नाथू भाई के घर पर प्रमुख नागरिकों तथा बॉम्बे एसोसिएशन के पुराने सदस्यों एवं समर्थकों की एक बैठक बुलाई गई जिसमें एसोसिएशन को फिर से स्थापित करने का निर्णय लिया गया। तदनुसार मंगलदास नाथू भाई को इसका अध्यक्ष और नौरोजी फरदूनजी को उसका सचिव चुना गया। पुनर्स्थापना के बाद यह संस्था आगामी कुछ वर्षों तक काफी सक्रिय रही। उसने जन-साधारण से जुड़े विभिन्न विषयों पर सरकार के सामने आवेदन-पत्र प्रस्तुत किये। इनमें इंग्लैण्ड और भारत में सिविल सर्विस परीक्षा का एक साथ आयोजन, सरकारी पदों पर भारतीयों की ज्यादा नियुक्तियाँ, भारत का वित्तीय प्रशासन, भारत और इंग्लैण्ड के वित्तीय सम्बन्ध, अतिरिक्त कर, सेना पर किया जाने वाला व्यय, विधान परिषदों का पुनर्गठन, भारतीय प्रशासन की जाँच के लिये संसदीय समिति का गठन इत्यादि विषय सम्मिलित थे।

बॉम्बे एसोसिएशन के नौजवान और मध्यमवर्गीय सदस्य एसोसिएशन की गतिविधियों से सन्तुष्ट नहीं थे। क्योंकि इसके अधिकांश नेता शहरी जमींदार, धनी व्यापारी और नामी वकील होने से उनके पास सार्वजनिक कार्यों के लिये समय नहीं था। संगठन के लगभग सभी शीर्ष नेता नरम विचारों के थे। वे सरकार को नाराज नहीं करना चाहते थे। उनका मानना था कि सरकार को प्रसन्न रखकर ही संगठन कुछ हासिल कर सकता है। एसोसिएशन के एक प्रमुख सदस्य वकील शान्ताराम नारायण ने 1871 ई. में कहा- ‘भारतीय मामलों के प्रशासन में हमारे ऊपर बैठाये गये अधिकारियों के साथ सबसे अच्छे सम्बन्ध बनाये रखना हमारे एसोसिएशन के लिये बहुत ही मूल्यवान है।’

जबकि भारत के अन्य क्षेत्रों के राजनीतिक संगठन ब्रिटिश सरकार का विरोध करने लगे थे। इसलिये गर्म विचार वालों ने जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे, फीरोजशाह मेहता और काशीनाथ त्रियंबक तैलंग के नेतृत्व में बॉम्बे एसोसिएशन के नर्म विचार वाले नेताओं के विरुद्ध आवाज उठाई। जब उनकी बात नहीं सुनी गई तो अगस्त 1871 में उन्होंने टाउन एसोसिएशन की स्थापना की परन्तु टाउन एसोसिएशन कुछ समय में ही समाप्त हो गया।

उन दिनों म्युनिसिपल कमिश्नर आर्थर काफोर्ड की गलत नीतियों के कारण बम्बई नगरपालिका की आर्थिक हालत खराब थी। इस कारण बम्बई के नागरिकों में उसके प्रति असन्तोष था। वे नगरपालिका में सुधारों की मांग करने लगे। 6 नवम्बर 1870 को जी. ए. फारबेस के नेतृत्व में रेंट पेयर्स एसोसिएशन की स्थापना हुई। इस एसोसिएशन ने नगरपालिका सुधार आन्दोलन चलाया। एसोसिएशन की मांग थी कि नगरपालिका का प्रबन्ध कर-दाताओं के चुने गये प्रतिनिधियों को सौंपा जाये। सुधारों की मांग को लेकर आन्दोलन चलाने वालों को रिफॉर्म पार्टी का नाम दिया गया। इस सुधारवादी दल में कई अँग्रेज भी सम्मिलित थे।

रिफॉर्म पार्टी के बढ़ते हुए प्रभाव को कम करने के लिये सरकार के प्रयासों से शंकर सेठ पार्टी खड़ी की गई। इस पार्टी ने बम्बई प्रेसीडेन्सी की लेजिस्ट्लेटिव कौंसिल को स्मृति-पत्र देकर मांग की कि सम्पत्ति वालों पर ही नहीं अपितु समस्त लोगों पर आय के हिसाब से नगर पालिका कर लगना चाहिए। बॉम्बे एसोसिएशन के नेताओं ने इस सुझाव का विरोध किया। उनका मानना था कि इससे सरकार को आयकर स्थाई बना देने का रास्ता मिल जायेगा। जब बॉम्बे एसोसिएशन में शंकर सेठ पार्टी की नहीं चली तो यह गुट बॉम्बे एसोसिएशन से अलग हो गया और 19 अप्रैल 1873 को इस गुट ने वेस्टर्न इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की परन्तु अक्टूबर 1873 को शंकर सेठ की मृत्यु के साथ ही इस संगठन का अन्त हो गया।

वेस्टर्न इंडिया एसोसिएशन की समाप्ति के बाद भी बॉम्बे एसोसिएशन अपनी स्थिति को सुधारने में असफल रहा। नौरोजी फरदूनजी के इंग्लैण्ड चले जाने पर एच. दादाभाई को कार्यवाहक सचिव नियुक्त किया गया परन्तु जुलाई 1874 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनके स्थान पर वकील काशीनाथ त्रियंबक तैलंग को नियुक्त किया गया। वे एसोसिएशन को पर्याप्त समय नहीं दे पाये और एसोसिएशन निष्क्रिय होता चला गया। 1875 ई. में फरदूनजी के इंग्लैण्ड से वापस आने पर एसोसिएशन को पुनः सक्रिय बनाने की चेष्टा की गई परन्तु इस कार्य में सफलता नहीं मिली। अतः अक्टूबर 1875 में मंगलदास नाथू भाई और नौरोजी फरदूनजी ने एसोसिएशन से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद कुछ वर्षों तक एसोसिएशन बनी रही किंतु बम्बई की राजनीति में उसका महत्त्व नहीं रहा।

पूना एसोसिएशन

1876 ई. में पूना के कुछ जमींदारों, व्यापारियों और मध्यमवर्गीय लोगों ने पूना एसोसिएशन की स्थापना की। प्रभावशाली जमींदार रामचन्द्र नाटू को अध्यक्ष, वासुदेव रामचन्द्र धमधीरे को उपाध्यक्ष और बाबूराव कृष्ण गोखले को सचिव चुना गया। इस संस्था के सदस्यों में समस्त धर्मों, जातियों और व्यवसायों के लोग थे। इसके अधिकांश सदस्य पूना से थे। कुछ सदस्य बम्बई, कल्याण, करहद और नागपुर से भी थे। इस संस्था के प्रमुख उद्देश्य सरकारी कानूनों के बारे में जनता का पक्ष सरकार के सामने रखना, स्थानीय समस्याओं की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित करना, जनता के विभिन्न हितों का ध्यान रखना और सरकार एवं प्रजा के मध्य सद्भाव उत्पन्न करना था। यह संस्था 1869 ई. के मध्य तक समाप्त हो गई।

पूना सार्वजनिक सभा

बम्बई प्रेसीडेन्सी के राजनीतिक संगठनों में पूना सार्वजनिक सभा सबसे महत्त्वूपर्ण थी। इस संस्था की स्थापना गणेश वासुदेव जोशी ने 2 अप्रैल 1870 को की। वे कई वर्षों तक संस्था के सचिव रहे। 1871 ई. में इस संस्था को महादेव गोविन्द रानाडे का सहयोग भी मिल गया। जोशी और रानाडे ने मिलकर पूना सार्वजनिक सभा को पश्चिम भारत का प्रगतिशील एवं प्रमुख संगठन बना दिया। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य सरकार और जनता के बीच मध्यस्थता करना, जनता को सरकार के वास्तविक उद्देेश्यों की जानकारी देना और उसे अपने अधिकार प्राप्त करने का मार्ग सुझाना था। प्रारम्भिक दो वर्षों में संस्था ने स्थानीय प्रश्नों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया। साथ ही टैक्स वृद्धि, यूरोपीय और भारतीय सिपाहियों के बीच संघर्ष, भारतीय राजाओं और उनकी प्रजा के बीच सम्बन्ध तथा भारतीय राजाओं और ब्रिटिश सरकार के बीच सम्बन्ध आदि प्रश्नों को भी उठाया। इस संस्था का एक काम विधान परिषदों में हुई बहसों तथा सरकारी विधेयकों का देशी भाषाओं में प्रकाशन करना भी था।

पूना सार्वजनकि सभा ने हर सम्भव प्रश्न पर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिये पत्र लिखे। उसने दक्षिण में स्वदेशी आन्दोलन चलाने में भी पहल की। 1872 ई. और 1876 ई. के अकाल के समय उसने बड़ी लगन से अकाल पीड़ितों की सहायता की। उसने किसानों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिये एक उपसमिति बनाई और अपने कार्यकर्ताओं को विभिन्न गाँवों में भेजकर उनसे रिपोर्टें तैयार करवाईं। इन रिपोर्टों को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया गया। 1874 ई. में पूना सार्वजनिक सभा ने बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिये धन एकत्रित किया। उसके इन कार्यों की न केवल प्रजा ने अपितु सरकार ने भी प्रशंसा की। 1876 ई. में संस्था ने लगभग 22 हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षरों से युक्त एक आवेदन-पत्र ब्रिटिश संसद को भेजकर मांग की कि ब्रिटिश संसद में भारत के 16 प्रतिनिधि लिये जायें। सभा का तर्क था कि भारतीयों का प्रतिनिधित्व नहीं होने से ब्रिटिश संसद भारत की समस्याओं पर समुचित ध्यान नहीं दे पाती है।

जुलाई 1876 में सभा ने अपना त्रैमासिक पत्र निकाला जिसमें देश की विभिन्न समस्याओं पर लेख होते थे। रानाडे के लेख अत्यंत तर्क-संगत होते थे। पूना सार्वजनिक सभा ने स्वयं को दक्षिण भारत की जनता का प्रतिनिधि होने का दावा किया। 1876 ई. में सभा ने स्थान-स्थान पर न्याय सभाएँ स्थापित कीं और लोगों से अपील की कि वे अपने विवाद और झगड़े सरकारी अदालतों में ले जाने की बजाय इन न्याय सभाओं मे लायें। इससे ब्रिटिश सरकार सार्वजनिक सभा को सन्देह से देखने लगी। 1876 ई. में गायकवाड़ मुकदमे के सम्बन्ध में सभा ने आन्दोलन चलाया। इससे सरकार का सन्देह और बढ़ गया। अब सरकार ने सभा के कार्यों की जाँच करवाई परन्तु सरकार को सभा के सरकार-द्रोही कार्यों का कोई प्रमाण नहीं मिला। यद्यपि कुछ अधिकारियों ने अपनी गुप्त रिपोर्टों में सभा को राजद्रोही संघ बताया था।

सरकार इस तथ्य से परिचित थी कि जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे पूना सार्वजनिक सभा के मस्तिष्क थे, इसलिये बम्बई सरकार ने रानाडे को पूना से नासिक भेज दिया। 1878 ई. में महाराष्ट्र में वासुदेव बलवन्त फड़के के विद्रोह के समय सरकार को सभा की गतिविधियों पर पुनः सन्देह हुआ। उसे आंशका थी कि सभा और रानाडे इस विद्रोह को समर्थन दे रहे थे। अतः सरकार ने रानाडे को नासिक से धूलिया स्थानान्तरित कर दिया। 1880 में ई. में सरकार ने रानाडे को जज नहीं बनने दिया, यद्यपि वे इस पद के लिये समस्त प्रकार की योग्यताएँ रखते थे।

रानी विक्टोरिया द्वारा कैसरे हिन्द की उपाधि धारण किये जाने पर पूना सार्वजनिक सभा ने मई 1876 को अभिनन्दन-पत्र भेजने का निर्णय किया। इस अभिनन्दन-पत्र में ब्रिटिश शासन की प्रशंसा की गई थी और सरकारी उत्पीड़न तथा अत्याचार की बातों का उल्लेख नहीं किया। अभिनन्दन पत्र में विधान सभा या इसी तरह की किसी संस्था की माँग भी की गई थी। चूंकि पूना सार्वजनिक सभा नवोदित मध्यमवर्ग, जमींदारों और व्यापारियों के स्वार्थों का प्रतिनिधित्व करती थी। यही कारण है कि वह महाराष्ट्र के किसानों में प्रवेश नहीं पा सकी। हालांकि वह कभी-कभी उनसे सम्बन्धित प्रश्नों को भी उठाती थी। पूना सार्वजनिक सभा में ब्राह्मणों और बनियों की प्रधानता बनी रही। पूना सार्वजनिक सभा ने विभिन्न प्रदेशों के एसोसिएशनों के साथ सम्पर्क बनाये रखा और वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, आबकारी शुल्क, सैनिक व्यय, इंग्लैण्ड और भारत के बीच व्यापारिक सम्बन्ध, आर्म्स एक्ट, भारतीय संसद का निर्माण आदि प्रश्नों पर विचार-विमर्श जारी रखा। यह सभा निर्भय होकर काम करती रही और सारे देश का प्रतिनिधि संगठन बनने का प्रयास भी करती रही।

1873 ई. में ज्योति बा फूले ने सत्य शोधक समाज की स्थापना की। यह हिन्दू समाज के अन्दर सुधारवादी आन्दोलन था, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देता था और जात-पाँत के स्थान पर मनुष्य मात्र की समानता पर जोर देता था। महात्मा फूले ने शूद्रों और अति-शूद्रों को सार्वजनिक सभा से अलग रखने का सफल प्रयास किया।

अध्याय – 51 : भारत में राजनीतिक संगठनों का उदय – 3

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मद्रास प्रेसीडेंसी में राजनीतिक संस्थाओं का उदय

मद्रास नेटिव एसोसिएशन

26 फरवरी 1852 को मद्रास के व्यापारियों ने कलकत्ता की ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन की एक शाखा मद्रास में स्थापित की। 13 जुलाई 1852 को इसने अपना नाम बदलकर मद्रास नेटिव एसोसिएशन रख लिया। इस संस्था ने भी चार्टर के सम्बन्ध में एक स्मृति पत्र ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जिसमें वही माँगें उठाई गईं जो ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने उठाई थीं। संगठन के स्मृति-पत्र में मालगुजारी वसूली में सरकारी अधिकारियों पर उत्पीड़न और शोषण का आरोप लगाया गया। इस पर सरकार ने उत्पीड़न की जाँच के लिये टार्चर कमीशन (यंत्रणा आयोग) नियुक्त किया। एसोसिएशन ने अपने आरोप को सही सिद्ध करने का पूरा प्रयास किया। इस कारण स्थानीय अधिकारी उससे नाराज हो गये। इस कारण एसोसिएशन के बहुत से समर्थक डर कर एसोसिएशन से अलग हो गये। सरकार को प्रसन्न करने के लिये इस संस्था ने 1857 के विप्लव की निन्दा की किंतु अँग्रेजों पर इस प्रशंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 1862 ई. तक एसोसिएशन काफी कमजोर पड़ गया और 1868 ई. में भंग हो गया। 1872 ई. में संस्था को फिर से जीवित करने का प्रयास किया गया परन्तु सफलता नहीं मिली।

मद्रास महाजन सभा

1880 ई. के बाद मद्रास प्रेसीडेन्सी में चिंगिलपुट काण्ड के कारण राजनीतिक हलचल तेज हो गई। इस काण्ड में अनेक काश्तकारों की जमीन-जायदाद कुर्क कर ली गई थीं और सलेम दंगा मुकदमे में सलेम के अगस्त 1882 के हिन्दू-मुस्लिम दंगों के अनेक निर्दोष लोगों को सजा दी गई थी। इन दोनों घटनाओं के परिणामस्वरूप मद्रास प्रेसीडेन्सी में कर्मठ कार्यकर्ताओें का एक दल तैयार हो गया जिनमें जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, पी. रंगैया नायडू, आर. बालाजी राव, सी. विजयराघवाचारी, पी. आनन्द चार्लू और रामस्वामी मुदालियर जैसे प्रभावशाली व्यक्ति सम्मिलित थे। इनमें से कुछ सदस्य मद्रास नेटिव एसोसिएशन से भी जुड़े हुए थे परन्तु उन्हें एसोसिएशन की सरकार परस्ती पसन्द नहीं थी। 1882 ई. के अन्त में एक घटना ने नवोदित युवा वर्ग को पुराने नेताओं से टकराव की स्थिति में ला खड़ा किया। पुराना नेतृत्व गवर्नर की कौंसिल के अवकाश प्राप्त सदस्य डी. एफ. कारमाइकेल को सत्कार के साथ विदाई देना चाहता था किंतु नया नेतृत्व इसका विरोधी था। नये नेतृत्व ने 16 मई 1884 को मद्रास महाजनसभा की स्थापना की। पी. रंगैया नायडू को इसका अध्यक्ष और बी. राघवाचारी तथा आनन्द चार्लू को सचिव चुना गया। सभा के उद्घाटन समारोह में नायडू ने घोषित किया कि सभा की सदस्यता केवल गैर-सरकारी लोगों को दी जायेगी ताकि वे निडर होकर जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व कर सकें। यह बात भी स्पष्ट कर दी गई कि सभा का मुख्य उद्देश्य जनता के हितों को आगे बढ़ाना होगा।

मद्रास महाजन सभा ने आरम्भ से ही शानदार प्रगति की। इसका कारण मद्रास नेटिव एसोसिएशन के बहुत से नेताओं का महाजन सभा में सम्मिलित हो जाना था। दूसरा कारण छोटे-छोटे संगठनों को अपने साथ सम्बद्ध करना था। परिणाम स्वरूप महाजन सभा, मद्रास प्रेसीडेन्सी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संस्था बन गई। लॉर्ड रिपन की विदाई के उपलक्ष्य में महाजन सभा ने स्थान-स्थान पर सभाएँ आयोजित करवा कर अभिनन्दन-पत्र पारित कराये। मद्रास महाजन सभा ने बम्बई के नेताओं के साथ निरन्तर सम्पर्क रखा। 29 दिसम्बर 1884 को मद्रास महाजन सभा ने मद्रास प्रेसीडेन्सी के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 70 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में विधान परिषद् के सुधार, कार्य पालिका से न्यायपालिका के पृथक्कीरण, भारत सरकार के ढाँचे में परिवर्तन, खेतीहर वर्गों की स्थिति आदि विषयों पर विचार किया गया। बम्बई के नेताओं की भाँति महाजन सभा के नेता भी चाहते थे कि साल में एक बार देश के प्रतिनिधियों का सम्मेलन हो परन्तु अपनी सीमित क्षमता के कारण महाजन सभा स्वयं यह दायित्व उठाने में असमर्थ थी।

इण्डियन नेशनल कान्फ्रेंस

बंगाल, बम्बई और मद्रास, इन तीनों प्रेसीडेन्सियों के नेताओं की इच्छा थी कि देश में एक केन्द्रीय राजनीतिक संगठन बने। 1870 ई. के बाद राजनीतिक चेतना में वृद्धि के साथ-साथ यह इच्छा भी प्रबल होती चली गई। बंगाली नेता अपने इण्डियन एसोसिएशन को अखिल भारतीय आन्दोलन का केन्द्र बनाना चाहते थे। उन्होंने इसके लिये भरसक प्रयास भी किया परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली और इण्डियन एसोसिएशन बंगाल तक ही सीमित रह गया। इसी प्रकार पूना सार्वजनिक सभा महाराष्ट्र तक और मद्रास महाजन सभा मद्रास तक सीमित रही।

1880 ई. के पूर्व, कर-विरोधी आन्दोलन, सिविल सर्विस आन्दोलन, वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट विरोधी आन्दोलन, आर्म्स एक्ट विरोधी आन्दोलन भारत के समस्त राजनीतिक संगठनों को एक-दूसरे के निकट लाने में सहायक हुए। 1880 ई. के बाद इल्बर्ट बिल आन्दोलन, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की गिरफ्तारी आदि ने भी इन राजनीतिक संगठनों को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया। इल्बर्ट बिल आन्दोलन ने भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना और एकता बढ़ाई। साथ ही यह भी भान करवाया कि भारतीयों के लिये एक शक्तिशाली अखिल भारतीय संगठन का होना आवश्यक है। इल्बर्ट बिल आन्दोलन के दौरान ही सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को कलकत्ता हाईकोर्ट के एक बदनाम जज के विरुद्ध एक लेख लिखने के आरोप में 5 मई 1883 को दो महीने की कैद की सजा सुनाई गई। इस निर्णय से समूचे देश में आन्दोलन भड़क उठा। कई स्थानों पर आन्दोलन ने हिंसक रूप भी ले लिया। इस आन्दोलन में हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, जैन आदि विभिन्न धर्मों के लोग सम्मिलित हुए। स्पष्ट है कि सुरेन्द्रनाथ की कैद ने भारतीय एकता को बढ़ाने में बहुत सहायता की।

इण्डियन एसोसिएशन ने मई 1882 ई. में आगामी किसी समय एक राष्ट्रीय कांग्रेस बुलाने का निर्णय लिया। 4 दिसम्बर 1883 को कलकत्ता में बहुत बड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी आरम्भ होने वाली थी। कई समाचार पत्रों ने इस अवसर पर राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की आवश्यकता पर जोर दिया। फलस्वरूप 15 दिसम्बर 1883 को इण्डियन एसोसिएशन के सचिव आनन्द मोहन बसु की तरफ से देश की विभिन्न एसोसिएशनों और प्रमुख व्यक्तियों को राष्ट्रीय सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिये निमंत्रण भेजे गये। सम्मेलन की तिथि 29 और 30 दिसम्बर 1883 निश्चित की गई।

निश्चित तिथि पर रामतनु लाहिड़ी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सम्मेलन आरम्भ हुआ। इसमें भारत के विभिन्न भागों से आये लगभग 100 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये-

(1.) सिविल सर्विस परीक्षा का आयोजन इंग्लैण्ड और भारत में एक साथ किया जाये और इसमें बैठने की उम्र पहले की भांति 22 साल की जाये।

(2.) एक राष्ट्रीय कोष की स्थापना की जाये।

(3.) भारत में प्रतिनिधि विधान सभाओं की स्थापना की जाये।

(4.) इल्बर्ट बिल पर हुए समझौते पर खेद प्रकट किया गया।

इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि सब राष्ट्रीय नेताओं को एक मंच पर लाना था। इसके साथ ही एक संयुक्त अखिल भारतीय संगठन (इण्डियन नेशनल कान्फ्रेंस) की स्थापना में सार्थक कदम था।

1884 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने सारे भारत का दौरा किया और नवम्बर 1885 में उन्होंने इण्डियन एसोसिएशनों के सचिव की हैसियत से दूसरी नेशनल कान्फ्रेंस का निमन्त्रण-पत्र देश की विभिन्न एसोसिएशनों और प्रमुख व्यक्तियों के पास भेजा। सम्मेलन की तारीख 25-27 दिसम्बर तय की गई। इसी समय ह्यूम और उनके मित्रों ने इण्डियन नेशनल यूनियन की तरफ से बम्बई में इण्डियन नेशनल कांफ्रेन्स बुला रखी थी परन्तु उन्होंने इस बात की चर्चा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी से नहीं की। जब कलकत्ता की नेशनल कान्फ्रेंस की तैयारियाँ लगभग पूरी हो गईं तब उन्हें अपनी कान्फ्रेंस को स्थगित कर बम्बई में होने वाली कान्फ्रेंस में सम्मिलित होने को कहा गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को उस समय उनका प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था। अतः निश्चित समय पर कलकत्ता की नेशनल कान्फ्रेस का दूसरा अधिवेशन आरम्भ हुआ। इस बार सम्मेलन में सम्मिलित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या कम रही। सम्मेलन में स्पष्ट किया गया कि इसका उद्देश्य राष्ट्रीय शक्तियों को एक केन्द्र बिन्दु पर लाना और उनके सार्वजनिक हित को बढ़ाने वाले किसी सर्वमान्य उद्देश्य पर केन्द्रित करना है।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि 1828 ई. में स्थापित अकादमिक एसोसिएशन, 1830 ई. में स्थापित कलकत्ता ट्रेड ऐसोसिएशन, 1834 ई. में स्थापित बंगाल चेम्बर ऑफ कॉमर्स आदि अराजनीतिक संस्थाओं का यद्यपि राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं था। फिर भी इन संगठनों ने शिक्षाविदों तथा व्यापारियों आदि प्रमुख सामाजिक वर्गों को संगठित होने का रास्ता दिखाया। 1836 ई. में स्थापित बंगभाषा प्रकाशक सभा को भारत की पहली राजनीतिक संस्था कहा जा सकता है।

इसके बाद कलकत्ता प्रेसीडेंसी में 1838 ई. में लैंड होल्डर्स सोसायटी, 1839 ई. में पेट्रियाटिक एसोसिएशन, 1841 ई. में देश-हितैषिणी सभा, 1843 ई. में बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी, 1851 ई. में ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन, 1875 ई. में इण्डियन लीग, 1876 ई. में इण्डियन एसोसिएशन आदि राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुई। बम्बई प्रेसिडेंसी में 1852 ई. में बॉम्बे एसोसिएशन, 1871 ई. में टाउन एसोसिएशन, 1870 ई. में रेंट पेयर्स एसोसिएशन, 1876 ई. में पूना एसोसिएशन, 1870 ई. में पूना सार्वजनिक सभा की स्थापना हुई।

मद्रास प्रसिडेन्सी में 1852 ई. में मद्रास नेटिव एसोसिएशन, 1884 ई. में मद्रास महाजनसभा की स्थापना हुई। कांग्रेस के उद्भव से पूर्व इन संस्थाओं ने जन साधारण की मांगों को सरकार के समक्ष उठाया तथा कानूनों में संशोधन करवाकर तथा उनमें अपनी मांगों को जुड़वाकर अनेक महत्त्वपूर्ण सफलताएं अर्जित कीं। इन संस्थाओं ने राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त करने के भी प्रयास किये किंतु जन साधारण की भागीदारी नहीं होने से ये संस्थायें कुछ वर्ष तक चलकर समाप्त हो गईं।

दिसम्बर 1883 में इण्डियन नेशनल कान्फ्रेस की स्थापना हुई किंतु ए. ओ. ह्यूम द्वारा अलग पार्टी बनाने का निर्णय कर लेने से इस संस्था के दो राष्ट्रीय सम्मेलन ही हुए किंतु इण्डियन नेशनल कान्फ्रेस, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था।

अध्याय – 52 : भारत में राजनीतिक जन-जागरण के कारण

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भारत में अँग्रेजी शिक्षा पद्धति के आरम्भ होने के बाद भारतीय समाज में एक नये शिक्षित वर्ग का उदय हुआ जिसे बुद्धिजीवी वर्ग कहा जाने लगा। इसके साथ ही औद्योगिकीकरण तथा नौकरशाह वर्ग के उदय के कारण भारत में मध्यम वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। भारत के बुद्धिजीवी एवं मध्यम वर्ग ने मिलकर भारत में राजनीतिक संस्थाओं की नींव रखी। भारतीय उद्योगपतियों एवं व्यवसाइयों ने भी इन संस्थाओं से स्वयं को जोड़ा ताकि सरकार एवं जनता के बीच मध्यस्थता की भूमिका ग्रहण कर अपने हितों की रक्षा की जा सके।

भारत में राजनीतिक चेतना का प्रादुर्भाव; प्रशासनिक सुधारों तथा नागरिक अधिकारों की मांग के रूप में प्रस्फुटित हुआ। ये मांगें किसी प्रान्त विशेष, क्षेत्र विशेष, जाति विशेष अथवा गुट विशेष तक सीमित नहीं थीं। भारत के हर क्षेत्र एवं हर समुदाय से ये मांगें उठ रही थीं जिनकी अनदेखी करना न तो भारत के बुद्धिजीवी वर्ग के लिये सम्भव था और न मध्यम वर्ग के लिये। भारतीयों का जो आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक शोषण किया जा रहा था, भारतीय उस शोषण के विरुद्ध खड़े होने लगे।

उन्नीसवीं सदी में भारत में उत्पन्न राजनीतिक जागृति के पीछे बहुत से कारक काम कर रहे थे-

(1.) सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन

राजनीतिक जागरण की प्रक्रिया में भारत में चले सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों की भूमिका उल्लेखनीय थी। इन सुधार आन्दोलनों ने भारत में राष्ट्रवाद की अवरुद्ध धारा का मार्ग फिर से खोल दिया। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसायटी आदि संस्थाओं ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म की कमजोरियों की ओर जन-साधारण का ध्यान आकर्षित किया। छुआछूत, बाल-विवाह, सती-प्रथा, दहेज-प्रथा जैसी समस्याओं के समाधान के लिए जनमत तैयार करने में इन संस्थाओं ने सराहनीय कार्य किया। इन्होंने व्यक्तिगत एवं सामाजिक समानता पर जोर दिया। ये भावनाएँ आगे चलकर राष्ट्रीयता के रूप में प्रस्फुटित हुईं। राजनीतिक जनजागरण को उद्वेलित करने वाले प्रमुख सामाजिक एवं धार्मिक सुधारक इस प्रकार से थे-

राजाराम मोहन राय: राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.) को भारतीय राष्ट्रवाद का जनक कहा जाता है। उन्नीसवीं सदी में भारतीयों की उन्नति के लिए जितने भी मुख्य आन्दोलन हुए, उनमें से अधिकांश आंदोलनों की नींव राजा राममोहन राय ने रखी। उन्होंने अँग्रेजों द्वारा भारतीयों को अँग्रेजी भाषा और यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने तथा सती-प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों पर प्रतिबन्ध लगाने आदि कदमों का पूरा समर्थन किया परन्तु जहाँ भी ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों के साथ भेदभाव किया या भारतीयों के हितों पर आघात किया, वहीं उनका विरोध भी किया।

राजा राममोहन राय ने एक तरफ हिन्दू धर्म की कुरीतियों और दूसरी तरफ ईसाई धर्म-प्रचारकों की धर्मान्धता के विरुद्ध लड़ने के लिए 1828 ई. में ब्रह्म सभा की स्थापना की। वस्तुतः भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद ईसाई धर्म का प्रचार भी बड़ी तेजी से होने लगा था। पढ़े-लिखे भारतीयों में ईसाई धर्म के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा था और वे ईसाई धर्म स्वीकार करने लगे थे। राजा राममोहन राय ने ब्रह्म सभा के माध्यम से ईसाई धर्म के प्रति आकर्षण को कम कर दिया। राजा राममोहन राय राष्ट्रीय समाचार पत्रों तथा प्रेस की स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे।

उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि किसानों का लगान और जमींदारों की मालगुजारी कम कर दी जाए। भोग-विलास की वस्तुओं पर करों में वृद्धि की जाये। यूरोपीय कलक्टरों के स्थान पर भारतीय कलक्टरों को नियुक्त किया जाये और भारतीय सेना का भारतीयकरण किया जाये।

स्वामी दयानन्द सरस्वती: स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने सामाजिक सुधार कार्य में धर्म की महत्ता पर अधिक जोर दिया। इसलिये उन्हें उग्र हिन्दूवादी सुधारक कहा जाता है। वेदों के ज्ञान एवं निराकार ईश्वर में उनका अटूट विश्वास था। उन्होंने विभिन्न धर्मों एवं समाजों के अन्धविश्वासों तथा पाखण्डों पर जोरदार प्रहार किया। उनका प्रमुख उद्देश्य भारतवासियों को उनके स्वर्णिम अतीत का स्मरण करवाकर उनके प्राचीन गौरव को जागृत करना था। वे पक्के देशभक्त थे। उन्होंने ब्रिटिश शासन की जकड़ में फँसे देशी रियासतों के राजाओं को जागृत करने का प्रयास किया। वे हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा मानते थे। उनका स्वदेशी प्रेम असीमित था। वे मानते थे कि पारस्परिक द्वेष, अज्ञान एवं विलासिता के कारण भारत की स्वतन्त्रता का लोप हो गया। वे विदेशी शासन को उचित नहीं मानते थे चाहे वह कितना ही उन्नत एवं सुसभ्य क्यों न हो और कितना ही धर्मनिरपेक्ष एवं दयालु क्यों न हो। उन्हें विश्वास था कि भारत एक दिन स्वतन्त्र होगा। दयानंद के सम्बन्ध में वेलेन्टीन शिरोल ने लिखा है- ‘स्वामी दयानन्द सिद्धहस्त राजनीतिज्ञ तथा अँग्रेजी शासन को अन्दर से उखाड़ने में प्रयत्नशील थे।’

वस्तुतः दयानंद प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा था- ‘भारत भारतीयों के लिए है।’

स्वामी विवेकानन्द: स्वामी विवेकानन्द ने समस्त विश्व में हिन्दू धर्म और अध्यात्म की श्रेष्ठता को स्थापित किया। उन्होंने कहा कि वेदान्त और आध्यात्मिकता के बल पर समस्त विश्व पर सांस्कृतिक विजय प्राप्त की जा सकती है किन्तु जब तक भारत दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, वह इस महत्त्वपूर्ण भूमिका को नहीं निभा सकता। वे राष्ट्रवाद का आध्यात्मीकरण करना चाहते थे। भारत को राजनीतिक दासता से मुक्ति प्राप्त करने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा था- ‘आज हमारे देश को जिन चीजों की आवश्यकता है, वे हैं लोहे की मांसपेशियाँ, इस्पात की तंत्रिकाएँ, प्रखर संकल्प, जिसका कोई प्रतिरोध न कर सके, जो अपना काम हर प्रकार से पूरा कर सके? अपने में विश्वास रखो और उस विश्वास पर दृढ़ता पूर्वक खड़े रहो। क्या कारण है कि हम तेतीस करोड़ लोगों पर पिछले एक हजार वर्ष से मुट्ठी भर विदेशी शासन करते  आये हैं ? क्योंकि उन्हें अपने में विश्वास था और हमें नहीं।’

विवेकानन्द ने आम भारतीय को जागृत करते हुए कहा– ‘निर्भीक बनो, साहस धारण करो, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गर्व के साथ घोषणा करो, मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।’

थियोसोफिकल सोसाइटी: थियोसोफिकल सोसाइटी ने सर्व प्रथम दक्षिण भारत में लोगों को जागृत किया। भारत में इस आन्दोलन को व्यापक बनाने का श्रेय श्रीमती ऐनीबेसेंट को है जिन्होंने राष्ट्रीय चेतना की इस धारा को आगे बढ़ाया।

अन्य सुधारक: महाराष्ट्र में सरदार गोपाल हरि देशमुख तथा ज्योति बा फूले जैसे सुधारकों ने सामाजिक बुराइयों की अपेक्षा विदेशी नियंत्रण को अधिक खतरनाक बताया।

इस प्रकार, इन समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलनों ने भारतीयों में आत्म-विश्वास तथा प्राचीन गौरवमयी परम्पराओं के प्रति श्रद्धा उत्पन्न की जिससे देश में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ।

(2.) यंग बंगाल आंदोलन

भारतीयों में राष्ट्रीयता के बीज बोने में यूरेशियन (एंग्लो-इंडियन) युवक हैनरी लुई विवियन डिरोजियो (1809-31 ई.) का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है। वह 1828 ई. में कलकत्ता के हिन्दू कॉलेज में सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्त हुआ। 1831 ई. में 22 वर्ष की अल्पायु में ही उसका निधन हो गया। तीन वर्ष की अत्यंत अल्प अवधि में वह बहुत कुछ कर गया। उसने कॉलेज के विद्यार्थियों के सहयोग से 1828 ई. में एक एकेडेमिक एसोसिएशन की स्थापना की। इस एसोसिएशन की बैठकों में स्वतन्त्र इच्छा, भाग्य, धर्म, देश प्रेम इत्यादि विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था। इस एसोसिएशन के सदस्य, क्रान्तिकारी विचारों की प्रशंसा तथा ब्रिटेन के टोरियों (अनुदारवादियों) की कटु आलोचना करते थे। वे अपने देश (भारत) की दुर्दशा पर कविताएँ लिखते थे और स्वतन्त्र एवं स्वाशासित भारत का स्वप्न देखते थे। वे एक तरफ भारत के सामन्ती कुसंस्कारों के विरोधी थे तो दूसरी तरफ ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रतिक्रियावादी नीतियों के विरुद्ध भी आवाज उठाते थे। एसोसिएशन की गतिविधियों को यंग बंगाल आंदोलन कहा जाने लगा। डिरोजियो की मृत्यु के बाद यह आन्दोलन बिखर गया परन्तु अपने अल्प काल में ही बंगालियों के हृदय में राष्ट्रवाद की भावना संचारित कर गया।

(3.) अँग्रेजी शिक्षा एवं साहित्य का प्रसार

भारत में पाश्चात्य शिक्षा आरोपित किए जाने का उद्देश्य भारतीय सभ्यता, संस्कृति और धर्म को नष्ट करके पाश्चात्य शिक्षा, संस्कृति एवं धर्म को स्थापित करना था। अँग्रेज भारत में एक ऐसे वर्ग की स्थापना करना चाहते थे जो रक्त और वर्ण से भले ही भारतीय हो किन्तु विचार, भाषा तथा रुचि से अँग्रेज हो। अँग्रेजी शिक्षा के प्रचार का उद्देश्य भारत में व्यापारिक कम्पनियों और ब्रिटिश उपनिवेश की शासन व्यवस्था के लिए कलर्कों को तैयार करना था। मैकाले का कहना था- ‘भारत को स्वतन्त्र सरकार की प्राप्ति नहीं हो सकती किन्तु उसे उसके नीचे की सबसे अच्छी वस्तु मिल सकती है- दृढ़ निष्पक्ष निरंकुशता।’

अँग्रेज अपने उद्देश्यों में सफल रहे परन्तु इस नीति के ऐसे विपरीत परिणाम भी निकले जिनकी अँग्रेजों ने आशा नहीं की थी। पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार से भारतीयों को मिल्टन, बर्क, मिल, मैकाले, स्पेन्सर, रूसो एवं वाल्टेयर आदि अँग्रेजी विद्वानों के प्रसिद्ध ग्रन्थों का अध्ययन करने का अवसर मिला। इन ग्रन्थों में स्वतन्त्रता, राष्ट्रीयता, स्वशासन आदि विचारों की भरमार थी। इस कारण पश्चिमी शिक्षा ने भारतीयों को स्वतन्त्रता और राष्ट्रीयता के पश्चिमी सिद्धान्तों से परिचित करा दिया। अँग्रेजी शिक्षा के परिणामस्वरूप भारतीय नौजवानों में देश की वर्तमान स्थिति के प्रति असन्तोष उत्पन्न हुआ और वे प्रशासन में सुधारों की मांग करने लगे।

 अँग्रेजी शिक्षा का एक अन्य प्रभाव यह पड़ा कि समस्त देश को एक सम्पर्क भाषा प्राप्त हो गई जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रान्तों के निवासियों में पारस्परिक विचार-विनिमय के लिए माध्यम मिल गया। इससे पूर्व देश में ऐसी कोई एक भाषा नहीं थी जिसके माध्यम से सम्पर्क स्थापित हो सके। सर हेनरी कॉटन ने इस सम्बन्ध में लिखा है- ‘यह केवल पाश्चात्य शिक्षा का परिणाम है कि विविधता से भरा भारत वर्ष एकता के सूत्र में बंध सका। विभिन्न भाषाओं के होते एकता का कोई दूसरा सूत्र नहीं था।’

अनेक भारतीय विद्वानों ने भी अँग्रेजी शिक्षा एवं पश्चिम के सम्पर्क के महत्त्व को स्वीकार किया है। यह भी कहा जाता है कि भारतीय राष्ट्रवाद रूपी शिशु को पश्चिमी शिक्षा रूपी माँ ने दूध पिलाया किंतु यह कहना गलत होगा कि भारत में अँग्रेजी शिक्षा के अभाव में राष्ट्रीय आन्दोलन पैदा ही नहीं होता। क्रांति रूपी संग्राम के लिये जितनी आवश्यकता विचारों और शिक्षा की होती है, उससे अधिक आवश्यकता उन परिस्थितियों की होती है जिनके कारण आदमी संघर्ष करने और मरने-मारने पर उतारू हो जाता है।

(4.) पाश्चात्य सम्पर्क का प्रभाव

पश्चिमी देशों से भारतीयों का व्यक्तिगत सम्पर्क हो जाने से भारत में राष्ट्रीयता की तीव्र भावना जागृत हुई। अनेक भारतीय उच्च शिक्षा, व्यापार, पर्यटन एवं अन्य कारणों से इंग्लैण्ड तथा यूरोप के कई देशों में जाते थे। वे वहाँ के स्वतन्त्र वातावरण से अत्यधिक प्रभावित होते थे और उनमें वहाँ की प्रजातांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान एवं आकर्षण उत्पन्न होता था। जब वे पुनः भारत आते और यूरोपीय देशों की स्थिति से अपने देश की स्थिति की तुलना करते तो उनके मन में तीव्र असन्तोष होता था। इस असन्तोष ने भारतीयों को राष्ट्रीय आन्दोलन के लिये अग्रसर किया।

(5.) गैर-सरकारी अँग्रेजों की भूमिका

1857 ई. से पहले अनेक गैर-सरकारी अँग्रेज भारत आये। ये अँग्रेज ब्रिटेन के औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग की प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित थे और उसका प्रतिनिधित्व करते थे। ये लोग भारत में वकील, शिक्षक, पत्रकार आदि बन कर आये थे। कम्पनी सरकार के अधिकारी इन्हें तिरस्कार-वश इण्टर-लोफर (अनधिकार प्रवेशकारी) कहते थे। इन अँग्रेजों का कई बातों पर कम्पनी के अधिकारियों से वाद-विवाद होता रहता था। इन्हीं लोगों ने कुछ प्रमुख भारतीयों के साथ मिलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के विरुद्ध आन्दोलन चलाने के लिए लैण्ड होल्डर्स सोसाइटी (1838 ई.), ब्रिटिश इण्डिया सोसाइटी (1839 ई.) और बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसाइटी (1843 ई.) जैसे प्रभावशाली संगठन स्थापित किये थे। इन संगठनों द्वारा चलाये गये आन्दोलनों से भारतीयों को ब्रिटिश सरकार से अच्छा प्रशासन, राजनीतिक अधिकार एवं स्वतंत्रता प्राप्त करने की प्रेरणा मिली।

(6.) यूरोपीय विद्वानों द्वारा भारतीय संस्कृति की प्रशंसा

 मैक्समूलर, मोनियर विलयम्स, रौथ, सैसून, बुनर्फ आदि अनेक यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का गहन अध्ययन किया और उन्होंने समस्त विश्व को भारतीय संस्कृति की उच्चता से अवगत कराया। पश्चिमी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय साहित्य, धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में शोध करके विश्व के सम्मुख भारतीयों के राजनैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास का समृद्ध चित्र प्रस्तुत किया। इन अनुसन्धानों के परिणाम स्वरूप भारत की प्राचीन आध्यात्मिक श्रेष्ठता और दैदीप्यमान सभ्यता के चिन्ह भारतीयों के समक्ष आए। इससे भारतीयों का आत्म विश्वास तथा आत्माभिमान बढ़ा और उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना ने जोर पकड़ा। आर. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘वह खोज भारतीयों के हृदय में चेतना उत्पन्न करने में असफल नहीं हो सकती थी जिसके परिणाम स्वरूप उनके हृदय राष्ट्रीयता की भावना और तीव्र देशभक्ति से भर गये।’

(7.) जातीय विभेद की नीति

1858 ई. में महारानी विक्टोरिया की घोषणा में भारतीयों को योग्यतानुसार सरकारी नौकरियाँ दिये जाने का आश्वासन दिया गया था किन्तु इस घोषणा पर अमल नहीं करके, इस घोषणा का ठीक उलटा किया गया। शासकीय क्षेत्र में भारतीयों को उच्च पदों से वंचित करने, उन्हें अयोग्य घोषित करने तथा उनके प्रति रंगभेद बरतने पर अधिक बल दिया गया। 1869 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इण्डियन सिविल सर्विसेज की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु एक साधारण अँग्रेज क्लर्क की शिकायत पर उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। जबकि इससे भी गम्भीर भूलें करने वाले अँग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती थी। इस घटना के सम्बन्ध में स्वयं बनर्जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘मेरे मामले ने भारतीयों के हृदय में भारी क्षोभ उत्पन्न कर दिया, उनमें यह विचार फैल गया कि यदि मैं भारतीय न होता तो मुझे इतनी कठिनाइयाँ नहीं उठानी पड़तीं।’

1877 ई. में अरविंद घोष ने यह परीक्षा उत्तीर्ण की किंतु घुड़सवारी में उनकी अकुशलता की आड़ लेकर सरकार ने उनकी छंटनी कर दी।

किसी भी भारतीय न्यायाधीश को अँग्रेजों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। एक ही अपराध के लिए भारतीयों व अँग्रेजों के लिए दण्डविधान में भी अन्तर था। सर थियोडोर मोरिसन के अनुसार- ‘भारत में घोर अदालती पापाचार है। यह एक निन्दनीय सत्य है जिसे छिपाया नहीं जा सकता। अँग्रेज भारतीयों की हत्या बारम्बार करते हैं।’

एक बार एक अँग्रेज सैनिक ने एक भारतीय रसोइये को इसलिए मार डाला कि वह उसके लिए एक भारतीय स्त्री न ला सका। अँग्रेजों ने अकारण ही अनेक भारतीयों की हत्याएँ कीं परन्तु उन्हें किसी प्रकार की सजा नहीं मिली।

हेनरी कॉटन ने लिखा है– ‘यदि चाय के रोपक पर किसी असहाय कुली को निर्दयता पूर्वक पीटने का अभियोग चलाया जाता तो उसका निर्णय करने के लिए चाय के रोपकों की जूरी बनाई जाती थी। यह जूरी स्वाभाविक रूप से अभियुक्त के पक्ष में होती थी। यदि किसी कारण से दोष सिद्ध हो जाता तो अँग्रेजों का सारा जनमत उस निर्णय की निन्दा करता। आंग्ल-भारतीय समाचार पत्र इस विरोध को प्रकट करते थे। अपराधी के लिए चन्दा एकत्रित करते थे। प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा स्मरण-पत्र तैयार किये जाते तथा उनमें अपराधी के छुटकारे के लिए निवेदन किया जाता था।’

गैरेट ने लिखा है- ‘भारतीय राष्ट्रीयता के उत्थान का प्रमुख कारण यूरोपियन एवं भारतीयों के मध्य जातीय कटुता थी। भारतीयों में असन्तोष फैलने और अँग्रेजों का विरोध करने का प्रमुख कारण भारतीयों से किया गया दुर्व्यवहार था।’

वस्तुतः भारत में अँग्रेज शासकों ने भेदभाव की नीति को अपनाया। इस जाति-विभेद नीति के पीछे अँग्रेजों की निश्चित मान्यताएं काम कर रही थीं। इनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

(1.) अँग्रेजों का मानना था कि भारतीय केवल भय और दण्ड की भाषा को ही समझ सकते हैं।

(2.) अँग्रेजों का मानना था कि एक यूरोपियन का जीवन अनेक भारतीयों के बराबर है।

(3.) अँग्रेजों का मानना था कि अँग्रेज, असभ्य भारतीयों को सभ्य बनाने के लिये भारत में आये हैं।

इस प्रकार की विकृत मनोवृत्ति के कारण ही भारतीयों को बारम्बार हीन ठहराया जाता था। अँग्रेजों के निवास स्थान भारतीय निवास-स्थानों से बिल्कुल पृथक् थे। उनके साथ रेल-यात्रा, रेस्टोरेन्ट आदि स्थानों पर दुर्व्यवहार किया जाता था। जाति-विभेद की नीति और न्यायिक मामलों में भेद-भाव के कारण जातीय कटुता में वृद्धि होती चली गई। अँग्रेजों के प्रति भारतीयों के मन में घृणा की भावना जागृत हो गई। इस भावना ने राष्ट्रीय आन्दोलन को गति प्रदान की।

(8.) कर-विरोधी आन्दोलनों का प्रभाव

1859 से 1875 ई. के दौरान अनेक कर-विरोधी आन्दोलन हुए। इन आंदोलनों ने राष्ट्रीयता के विकास में योगदान दिया। सरकारी खर्च को पूरा करने के लिए 1859 ई. में ब्रिटिश सरकार की तरफ से व्यापार, वकालत, डाक्टरी आदि व्यवसाय करने वाले लोगों पर लाइसेंस टैक्स का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया। गैर-सरकारी अँग्रेजों तथा भारतीयों ने इस विधेयक का जोरदार विरोध किया। इस कारण सरकार ने यह विधेयक वापस ले लिया और उसकी जगह आयकर का प्रस्ताव रखा। आयकर के विरोध में भी देशव्यापी आन्दोलन हुआ। सरकार ने आन्दोलन के प्रमुख नेताओं को बंदी बना कर उन पर भारी जुर्माना लगाया। सरकारी दमन से आन्दोलन तो दब गया परन्तु सरकार की साख खराब हुई तथा भारतीयों में एकता बढ़ गई। पश्चिम उत्तर प्रदेश के महाजन, बनारस के पंडित, बम्बई के साहूकार, तंजौर के सूदखोर और मलाबार के मोपाला व्यापारी, मांग बुलन्द करने लगे कि आयकर वापस लिया जाये। आयकर विरोधी आन्दोलन ने ब्रिटिश भारत की देशी जातियों को एकता का एक साझा मंच दे दिया।

(9.) स्वदेशी आन्दोलन का प्रभाव

भारत को सार्वजनिक रूप से, स्वदेशी अपनाने का विचार देने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती थे। उन्नीसवीं सदी के सातवें और आठवें दशक में पैदा हुआ स्वदेशी आन्दोलन, राष्ट्रीय आन्दोलन का ही अंग था। इस आन्दोलन का नेतृत्व मध्यम वर्ग ने किया। इसके अन्तर्गत स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की आवाज उठाई गई। बंगाल में इस आन्दोलन का नेतृत्व राजनारायण बसु तथा नवगोपाल मित्र ने किया। उन लोगों ने 1867 ई. से प्रतिवर्ष स्वदेशी मेला लगाना आरम्भ किया जिसे हिन्दू मेला या राष्ट्रीय मेला कहा जाता था। इस प्रकार के मेलों के आयोजन का उद्देश्य देशी उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन देना और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की भावना का विकास करना था। पंजाब में स्वदेशी आन्दोलन को रामसिंह कूका और उनके नामधारी सिक्खों ने नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं को अपनाया तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। महाराष्ट्र में इस आन्दोलन का नेतृत्व गणेश वासुदेव जोशी ने किया। इस आन्दोलन के अन्तर्गत महाराष्ट्र के कई शहरों में देशी उद्योगों के प्रोत्साहन के लिए समितियां बनाई गईं। इन समितियों के सदस्य अपने दैनिक जीवन में देशी वस्तुओं के इस्तेमाल की शपथ लेते थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने एक प्रतिज्ञा-पत्र छपवाया- ‘हम लोग आज से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहनेंगे………. हिन्दुस्तान का बना कपड़ा ही पहनेंगे।’

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके मित्रों ने इस सम्बन्ध में लोकगीतों की रचना भी की और इनके माध्यम से लोगों में स्वदेशी वस्तुओं के प्रति लगाव की भावना उत्पन्न करने का प्रयास किया। उत्तरी भारत में भी स्वदेशी अपनाई जाने लगी।

23 दिसम्बर 1905 को टाइम्स ऑफ इण्डिया में एक समाचार छपा- ‘डेरा इस्माइल खाँ में एक स्वदेशी वस्तु भण्डार खोला गया जिसमें 50 हजार की पूंजी लगी है। इसका एक शेयर 20 रुपये का है जो बिक रहा है …..।’

कलकत्ता के रिपन कॉलेज में एक परीक्षा के दौरान छात्रों ने विदेशी कागज वाली उत्तर पुस्तिकाओं को छूने से मना कर दिया। उन्हें देशी कागज से बनी कॉपियां दी गईं। ऐसी घटनाएं पूरे देश में होने लगीं। लोगों ने विदेशी खिलौनों और विदेशी दवाओं तक का बहिष्कार कर दिया।

(10.) सिविल सर्विस आन्दोलन

ब्रिटिश शासित क्षेत्रों में नागरिक प्रशासन का दायित्व इण्डियन सिविल सर्विस के अधिकारियों को सौंपा गया। भारतीयों को इस सेवा से दूर रखा गया। यद्यपि 1858 ई. की महारानी की घोषणा में यह आश्वासन दिया गया था कि भारत में किसी भी पद पर नियुक्ति देने में अँग्रेजों और भारतीयों के बीच भेदभाव नहीं किया जायेगा। इस आश्वासन के उपरांत यह सावधानी बरती गई कि कोई भी भारतीय इसमें न चुना जाये। 1861 ई. में यह व्यवस्था की गई कि कोई भी भारतीय 22 वर्ष की आयु-सीमा तक लन्दन जाकर सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठ सकता है। आम भारतीय के लिये लन्दन जाना सम्भव नहीं था, अतः भारतीयों ने मांग की कि सिविल परीक्षा के केन्द्र लन्दन के साथ-साथ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में स्थापित किये जायें। सरकार ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया। 1863 ई. में सत्येन्द्रनाथ टैगोर ने लन्दन जाकर परीक्षा दी और उत्तीर्ण हो गये। एक भारतीय द्वारा सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने पर, सिविलि सर्विस की परीक्षा के विषयों में परिवर्तन किया गया और 1866 ई. में अधिकतम आयु-सीमा को घटाकर 21 वर्ष कर दिया गया ताकि भारतीयों के लिए पीरक्षा उत्तीर्ण करना और कठिन हो जाये। 1869 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सहित चार भारतीयों ने परीक्षा में सफलता प्राप्त की। इस पर ब्रिटिश सरकार ने 1877 ई. में परीक्षा देने की आयु सीमा घटाकर 19 वर्ष कर दी तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को अन्याय पूर्ण ढंग से नौकरी से निकाल दिया। सिविल सेवा परीक्षा में बैठने की आयु सीमा 19 वर्ष किये जाने पर सारे भारत में एक प्रबल आन्दोलन चला जो सिविल सर्विस आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध है। इस आन्दोलन का नेतृत्व इण्डियन एसोसिएशन ने किया। कलकत्ता, बम्बई, सूरत, पूना, लाहौर, अमृतसर, मेरठ, दिल्ली, आगरा, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद और मद्रास के बुद्धिजीवियों ने इस आन्दोलन का समर्थन किया।

(11.) स्थानीय स्वायत्त शासन में भारतीयों का प्रवेश

स्थानीय स्वायत्त शासन आन्दोलन ने राष्ट्रीय जागृति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों से नाना प्रकार के करों की वसूली के उद्देश्य से नगर पालिकाओं की स्थापना की थी। भारतीयों ने आरम्भ में तो विभिन्न करों के कारण इनका विरोध किया और बाद में इन संस्थाओं में प्रवेश पाने का प्रयास किया ताकि सरकारी नीतियों का विरोध किया जा सके। अतः समस्त देश में नगर पालिकाओं के लिए चुनावों की मांग की गई। 1870 ई. के बाद बहुत सी नगर पालिकाओं में चुनावों को आंशिक तौर पर स्वीकार कर लिया गया। इण्डियन एसोसिएशन आदि राजनीतिक संस्थाओं ने इन आंदोलनों को चलाया जिनका नेतृत्व मध्यम वर्ग के लोगों ने किया। इस कारण भारतीय राजनीति में मध्यम वर्ग हावी होने लगा। आगे चलकर इसी मध्यम वर्ग ने राष्ट्रीय आन्दोलन चलाया।

(12.) राजनीतिक एवं प्रशासनिक एकता

मुगल सल्तनत के पतन के बाद भारत सैंकड़ों राज्यों में विभक्त हो गया था। अँग्रेजों ने इन राज्यों के शासकों को अपने अधीन करके काश्मीर से कन्याकुमारी तक और बिलोचिस्तान से बर्मा तक सम्पूर्ण भारत को अँग्रेजी शासन के अधीन कर लिया। सम्पूर्ण ब्रिटिश शासित क्षेत्र में एक जैसी प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की गई। डाक व्यवस्था, तार व्यवस्था, रेल परिवहन, सड़क परिवहन आदि व्यवस्थाओं के आरम्भ होने से देश के प्रशासन में एकरूपता आयी और देश एक दिखाई देने लगा। इस एकरूपता से आम भारतीय में एक विशाल देश का नागरिक होने का भाव जागृत हुआ। जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- ‘ब्रिटिश प्रशासन द्वारा स्थापित भारत की राजनैतिक एकता, साम्राज्यिक दासता की एकता थी किन्तु उसने सामान्य राष्ट्रीयता की एकता को जन्म दिया।’

(13.) आर्थिक शोषण का प्रभाव

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारतीय कुटीर उद्योगों, दस्तकारों एवं काश्तकारों की  कमर पहले ही तोड़ दी थी। 1857 की क्रांति के बाद भी ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखकर आर्थिक नीति अपनाई गई। इस कारण भारतीय कुटीर उद्योग, काश्तकार एवं दस्तकार कभी नहीं पनप सके। अकालों ने समस्या को और बढ़ा दिया। इससे भारत में बेरोजगारी की समस्या विकराल हो गई। 1857 ई. के बाद भारत में तैयार माल को इंग्लैण्ड ले जाना बंद कर दिया गया तथा केवल कच्चा माल ले जाया जाने लगा। भारत में तैयार माल के निर्यात पर इतने अधिक कर लगाये गये कि यदि वह विदेशों में ले जाया जाये तो वहाँ आसानी से बिकने न पाये। साथ ही इंग्लैण्ड में तैयार माल पर नाममात्र का कर रखा गया। करों के इस अंतर के कारण भारतीय माल भारत में भी खपना बंद हो गया। होरेस विल्सन ने लिखा है- ‘पेल्सी और मैनचेस्टर के कारखाने भारत के हस्त-उद्योगों का बलिदान करके बनाये गये।’

सर विलियम डरबी ने लिखा है- ‘भारत में लगभग दस करोड़ मनुष्य ऐसे हैं जिन्हें किसी भी समय पेट भर अन्न नहीं मिल सकता। ऐसे पतन का दूसरा दृष्टान्त इस समय किसी सभ्य और उन्नतिशील देश में कहीं पर भी दिखाई नहीं देता।’

ड्यूक ऑफ आरागील्ड ने लिखा है- ‘भारत की जनता में दरिद्रता है। रहन-सहन का स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। उसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता।’

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द ने भी अपनी कविताओं में इस सत्य को अंकित किया है– ‘अँग्रेज राज सुख साज सजे महाभारी। पै धन विदेश चलि जाये यह है दुःख भारी।’

डी. ई. वाचा ने लिखा है- ‘भारतीयों की आर्थिक स्थिति ब्रिटिश शासन काल में अधिक बिगड़ी थी। चार करोड़ भारतीयों को केवल दिन में एक बार के भोजन से सन्तुष्ट रहना पड़ता था। इसका एकमात्र कारण यह था कि भारत भूखे किसानों से कर प्राप्त करता था तथा इंग्लैण्ड अपना माल भेजकर लाभ कमाता था।’

भारत के आर्थिक शोषण ने भारतीयों में राजनैतिक चेतना जागृत की। राष्ट्रीय आन्दोलन में इन्हीं भूखे किसानों ने प्रमुख भूमिका का निर्वहन किया।

(14.) यातायात तथा संचार के साधनों का विकास

यातायात तथा संचार के साधनों का विकास होने से भारतीय नागरिकों के बीच तेजी से सम्पर्क स्थापित होने लगा। इससे वैचारिक आदान-प्रदान को बढ़ावा मिला। लोग अपनी और अपने देश की दुर्दशा पर बात करने लगे। अपने-अपने क्षेत्रों में किये जा रहे शोषण एवं संघर्षों की बात करने लगे। लोग एक दूसरे को अपने देश का व्यक्ति समझने की भावना से भी परिपूर्ण होग गये। इससे राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। लोगों में पनपी इस भावना के कारण राष्ट्रीय नेताओं के लिए प्रचार कार्य सुगम हो गया। इन विकसित साधनों के कारण ही सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सिविल सर्विस आन्दोलन के दौरान भारत के अधिकांश क्षेत्रों का दौरा करके उसे अखिल भारतीय रूप दे पाये। घोड़े की पीठ पर बैठकर पूरे भारत का दौरा करना संभव नहीं था। डाक-व्यवस्था से राष्ट्रवादियों का एक-दूसरे से पत्र-व्यवहार सुगम और तेज हो गया। इस कारण राजनैतिक विचारों का तेजी से प्रसार हुआ तथा बड़े-बड़े आंदोलनों की भूमिका बनने लगी। आंदोलनों को चलाने के लिये संस्थाओं को खड़ा करने का काम भी इन संचार एवं परिवहन साधनों ने सुगम कर दिया।

(15.) विदेशी आन्दोलनों का प्रभाव

उन्नीसवीं शताब्दी में इटली, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका आदि देशों में कई राजनीतिक आन्दोलन हुए। कई देशों के स्वतन्त्रता संग्राम लड़े गये। आन्दोलनों ने भारतीयों में भी उत्साह का संचार किया। इटली के राष्ट्रीय नेता मैजिनी का युवा भारतीयों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। मैजिनी ने इटली को एकता एवं राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाया था। इटली के कारबोनरी नामक संगठन का अनुकरण करते हुए 1870 ई. के बाद बंगाल में अनेक क्रांतिकारी गुप्त संगठन स्थापित हुए। इटली के एक अन्य नेता गेरीबाल्डी के साहसिक कार्यों ने भी युवा भारतीयों विशेषकर क्रान्तिकारियों को अत्यधिक प्रभावित किया। 1871 ई. में फ्रांस में तृतीय गणराज्य की स्थापना का भी भारत के राष्ट्रवादियों पर गहरा प्रभाव पड़ा।

(16.) समाचार पत्रों का योगदान

भारतीय समचार-पत्र ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी एवं साम्राज्यवादी नीतियों के कटु आलोचक थे। समचार पत्रों ने अँग्रेज सरकार से भारतीयों के साथ समानता का व्यवहार करने तथा न्यायपूर्ण आचरण करने की मांग की। भारत में सबसे पहला समाचार पत्र 1780 ई. में बंगाल गजट प्रकाशित हुआ। यह एक साप्ताहिक समाचार पत्र था। इसके बाद कलकत्ता गजट और द इण्डियन वर्ल्ड आदि पत्र आरम्भ हुए। 1857 की क्रान्ति के पूर्व के समाचार पत्रों में राजा राममोहन राय का संवाद कौमुदी (1821 ई.), फार्दनजी मुर्जबान का बॉम्बे समाचार (1822 ई.), तथा अन्य पत्रों में बंगदूत, रास्तगुफतार आदि उल्लेखनीय हैं। 1857 ई. के बाद भारतीय पत्रकारिता का तीव्र गति से विकास हुआ। समाचार पत्रों की संख्या, प्रसार संख्या और प्रभाव क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हुई। इनमें इण्डियन मिरर, बम्बई समाचार, अमृत बाजार पत्रिका, द हिन्दू, दी केसरी, टाइम्स ऑफ इण्डिया, स्टेट्समेन, मद्रास मेल, ट्रिब्यून आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। 1870 ई. तक भारत में 644 समाचार पत्र निकलने लगे थे। इनमें से 400 से अधिक समाचार पत्र देशी भाषाओं में थे। फिलियन्स के अनुसार 1877 ई. में देशी भाषाओं में बम्बई देश-विभाग और उत्तर भारत से 62, बंगाल से 28 और दक्षिण भारत से 20 समाचार पत्र प्रकाशित होते थे जिनके नियमित पाठकों की संख्या एक लाख से अधिक थी। देशी भाषाओं के समाचार पत्रों में सरकारी नीतियों की तीव्र आलोचनाएँ होती थी। इस कारण समाचार पत्रों के प्रति सरकारी दृष्टिकोण कठोर होता गया। इन समाचार पत्रों ने भारतीय जनता को अहसास कराया कि ब्रिटिश साम्राज्य भारतीय जनता को नैतिक, आर्थिक और मानसिक पतन की ओर ले जा रहा है। 1878 ई. में गवर्नर जनरल लॉर्ड लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित करके इन समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। भारतीयों ने उसके इस कदम का कड़ा विरोध किया। 1882 ई. में लॉर्ड रिपन ने इस एक्ट को रद्द किया। इस प्रकार भारत में राष्ट्रीय चेतना विस्तृत करने में समाचार पत्रों का बहुत बड़ा योगदान रहा।

(17.) राष्ट्रीय साहित्य

राष्ट्रीय भावनाओं को जगाने में उन्नीसवीं सदी के साहित्यकारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। साहित्यकारों ने नाटकों, उपन्यासों, लेखों एवं कविताओं आदि के माध्यम से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने का कार्य किया। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में राष्ट्रीय साहित्य का जन्म हुआ जिसने आम भारतवासी को राष्ट्रीयता का महत्त्व समझाया। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र (1850-1884 ई.) उन्नीसवीं सदी में स्वदेशी आन्दोलन के अग्रदूत थे। उन्होंने भारत दुर्दशा नाटक में भारत की दुर्दशा का वर्णन करके लाखों भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत की। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से अँग्रेजी छल-कपट और मायाजाल का उग्र शब्दों में वर्णन किया-

भीतर भीतर सब रस चूसे, बाहर से तन मन धन मूसै।

जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि, सज्जन नहीं अंगरेज।।

भारतेन्दु के समकालीन कवियों बदरी नारायण चौधरी और प्रताप नारायण मिश्र की रचनाएँ भी देश-प्रेम से ओत-प्रोत थीं। दीनबन्धु मित्र द्वारा रचित नील दर्पण ने भारतीयों को स्वदेश-प्रेम का संदेश दिया। बंगला और मराठी भाषाओं में भी उच्चकोटि के राष्ट्रीय साहित्य का सृजन हुआ। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के आनन्द मठ को देश-प्रेम और क्रान्तिकारियों की गीता कहा जाता है। शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय की रचनाओं ने प्राचीन भारत के गौरव को प्रदर्शित किया। नर्मद ने गुजराती भाषा में, चिपलूणकर ने मराठी भाषा में और सुब्रमण्यम भारती ने तमिल भाषा में राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण साहित्य की रचना कर देशवासियों को स्वतंत्रता प्राप्ति हेतुे संघर्ष करने के लिये प्रेरित किया। मुहम्मद हुसैन आजाद और ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली की उर्दू रचनाओं में देश-भक्ति की चेतना निहित थी।

(18.) किसानों के सशस्त्र विद्रोह

19वीं सदी में भारतीय किसानों ने अँग्रेज सरकार तथा उसके द्वारा पोषित जमींदारों, साहूकारों तथा सूदखोरों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाया। इस संघर्ष ने भारत में राष्ट्रीय चेतना का संचार करने में बहुत बड़ा योगदान दिया। उन्नीसवीं सदी के किसान आंदोलनों में नील विद्रोह (1859-61 ई.), जयंतिया विद्रोह (1860-63 ई.), कूकी विद्रोह (1860-90 ई.), फूलागुडी का बलवा (1861 ई.), कूका विद्रोह (1869-72 ई.), पवना का किसान विद्रोह (1872-73 ई.), महाराष्ट्र के किसानों का विद्रोह (1875 ई.), पूना में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में विद्रोह (1879 ई.) और रंपा विद्रोह (1879-80 ई.) प्रमुख हैं। किसान आंदोलनों ने आम भारतीयों का ध्यान किसानों की दुर्दशा की ओर खींचा। इससे लोगों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असन्तोष की अग्नि और तेज हुई।

(19) लॉर्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीति

लॉर्ड लिटन (1876-80 ई.) के अन्यायपूर्ण शासन ने लोगों को अँग्रेजों के विरुद्ध एकजुट होने के लिये प्रेरित किया। लिटन की साम्राज्यवादी नीतियों ने शिक्षित भारतीयों को भीतर तक क्रोधित कर दिया। लिटन ने भारतीय सिविल सर्विस में प्रवेश की आयु-सीमा 21 वर्ष से कम करके 19 वर्ष कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।  इससे भारतीयों के लिए इस परीक्षा में सम्मिलित होना अत्यन्त कठिन हो गया। इससे भारतीयों में रोष फैला। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इसका घोर विरोध किया तथा समूचे देश को इसके विरुद्ध संगठित करने का प्रयास किया। लिटन द्वारा पारित शस्त्र-अधिनियम ने भारतीयों को अत्यधिक उत्तेजित किया। इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को बिना लाईसेन्स के शस्त्र रखने की मनाही कर दी गई परन्तु इस अधिनियम को यूरोपीय लोगों पर लागू नहीं किया गया। भारतीयों ने इस कार्य को बड़ा अपमानजनक समझा  क्योंकि इस अधिनियम ने भारतीय जनता से आत्मरक्षा का अधिकार छीन लिया। 1878 ई. में लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस-अधिनियम पारित किया जिसका उद्देश्य प्रेस की स्वतन्त्रता समाप्त करना था। लिटन के इस कार्य की भारत तथा इंग्लैण्ड में तीव्र आलोचना हुई।

लॉर्ड लिटन के समय भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। दुर्भिक्ष काल में ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीयों के प्रति अपनाई गई गलत नीति के कारण लाखों लोग मर गये। जब भारतीय जनता भूख से तड़प रही थी तब ब्र्रिटिश सरकार ने  भारत से 80 लाख टन अन्न का दूसरे देशों में स्थित अँग्रेजी मोर्चों को भेज दिया। यह भारतीयों के साथ किसी क्रूरता से कम नहीं था। 1 जनवरी 1877 को लिटन द्वारा दिल्ली दरबार का आयोजन करना, भारतीयों को चिढ़ाने के लिये पर्याप्त था। दरबार को भव्य बनाने के लिये धन को पानी की तरह बहाया गया। इस सम्बन्ध में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- ‘यदि एक स्वेच्छाचारी वायसराय की प्रशंसा के लिए देश के राजा तथा अमीर-उमरावों को एकत्र होने के लिए बाध्य किया जा सकता है तो देशवासियों को न्याय संगत ढंग से स्वेच्छाचारिता को रोकने के लिए क्यों नहीं संगठित किया जा सकता।’

लिटन की अफगान नीति के कारण द्वितीय अफगान युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध का भारत की सुरक्षा से कोई लेना-देना नहीं था किंतु भारतीय जनता को इस युद्ध का सारा खर्च उठाना पड़ा। इससे असन्तोष तीव्र हो गया। लॉर्ड लिटन ने कपास सीमा-शुल्क समाप्त कर दिया जिससे भारतीय कोष को हानि पहुँची। लिटन के कार्यों से भारतीयों को पक्का विश्वास हो गया कि उसके हृदय में भारतीयों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। भारतीयों को यह भी अनुभव हुआ कि अँग्रेजों का प्रबल विरोध करने के लिये भारतीयों को एक देशव्यापी संगठन की आवश्यकता है। सर विलियम वेडरवर्न ने लिखा है- ‘लॉर्ड लिटन के शासन काल के अन्त में स्थिति विद्रोह की सीमा तक पहुँच गई थी।’

उन्हीं दिनों पूना के मिलिट्री एकाउण्ट्स ऑफिस के बाबू वासुदेव बलवंत राव फड़के के दल द्वारा घोषणा की गई कि यदि कोई व्यक्ति बम्बई के गवर्नर रिचर्ड टेम्पुल का सिर काटकर लायेगा तो उसे 500 रुपये का पुरस्कार दिया जायेगा।

(20.) इल्बर्ट बिल विवाद

अब तक भारत की तीनों ब्रिटिश प्रेसीडेन्सियों को छोड़कर अन्य कहीं भी अँग्रेजों के विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई केवल अँग्रेज न्यायाधीश ही कर सकते थे।  भारतीय न्यायाधीश किसी भी अँग्रेज के विरुद्ध फौजदारी अभियोग की सुनवाई नहीं कर सकते थे। लॉर्ड रिपन के समय तक अनेक भारतीय सेशन जज बन चुके थे किन्तु वे अँग्रेजों के विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई नहीं कर सकते थे। लॉर्ड रिपन की कौंसिल के विधि सदस्य सी. पी. इल्बर्ट ने रिपन के आदेश से एक विधेयक प्रस्तुत किया जिसमें भारत में रहने वाले यूरोपियनों के विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई करने का अधिकार भारतीय न्यायधीशों तथा मजिस्ट्रेटों को देने की व्यवस्था थी। इस विधेयक से भारत स्थित समस्त यूरोपीय लोगों में खलबली मच गई। अँग्रेजों ने इसे काला कानून कहा। उन्होंने इस विधेयक को अपना जातीय अपमान समझा और इसके विरुद्ध आन्दोलन चलाने के लिए एंग्लो-इण्डियन डिफेन्स एसोसिएशन का गठन करके डेढ़ लाख रुपयों से अधिक का चन्दा एकत्रित किया। भारत स्थित अधिकांश गैर-सरकारी अँग्रेज भी इस विरोध में सम्मिलित हो गये। उन्होंने अपने प्रतिनिधि इंग्लैण्ड भेजे और रिपन को वापस बुलाने की मांग की। भारत में रह रहे अँग्रेजों ने यह भी धमकी दी कि यदि बिल वापिस नहीं लिया गया तो रिपन को बलपूर्वक जहाज में बैठाकर इंग्लैण्ड के लिये पार्सल कर दिया जायेगा।

बहुत से अँग्रेजों का मानना था कि गोरी जाति का अपमान करने के लिए भारतीय काले न्यायाधीश उनको कठोर सजा देंगे। जबकि अन्य अँग्रेजों को कहना था कि भारतीय न्यायाधीश, गोरे अभियुक्तों को सजा देने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। भारतीयों ने पहली बार संयुक्त रूप से सरकार के समर्थन में (अर्थात् इल्बर्ट बिल के पक्ष में) जबरदस्त आन्दोलन चलाया परन्तु गोरों के आन्दोलन से परास्त होकर लॉर्ड रिपन को इल्बर्ट विधेयक में संशोधन करना पड़ा। यह निश्चित किया गया कि केवल यूरोपियन जिलाधीश व सेशन जज ही यूरोपियन अपराधियों के मुकदमे सुनने के अधिकारी होंगे। यूरोपियन अपराधियों को अपने फैसले के लिए जूरी बैठाने की मांग करने का अधिकार दिया गया। इस जूरी में कम से कम आधे सदस्य यूरोपियन होने आवश्यक थे।

इल्बर्ट बिल के विरुद्ध यूरोपीय समुदाय के संगठित विरोध ने भारतीयों की आँखें खोल दीं। भारतीय नेताओं ने अनुभव किया कि यदि राजनीतिक प्रगति वांछनीय है तो वह केवल एक राष्ट्रीय संस्था द्वारा ही सम्भव है। उन्हें विश्वास हो गया कि जब तक वे विदेशी शासन के अन्तर्गत हैं तब तक उन्हें यह भेदभाव और अन्याय सहना ही पडे़गा।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने लिखा है- ‘कोई भी स्वाभिमानी भारतीय आँख मून्द कर सुस्त नहीं बैठा रह सकता। जो इल्बर्ट बिल-विवाद महत्त्व को समझते थे उनके लिए यह देशभक्ति का महान् आह्वान था।’

इल्बर्ट बिल की घटना ने भारतीय शिक्षित वर्ग को संगठित कर राजनैतिक आन्दोलन की आवश्यकता से परिचित कराया। भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में इल्बर्ट बिल के योगदान की चर्चा करते हुए हेनरी कॉटन ने लिखा है- ‘इस विधेयक के विरोध में किए गए यूरोपियन आन्दोलन ने भारत की राष्ट्रीय विचारधारा को जितनी एकता प्रदान की उतनी तो विधेयक पारित होने पर भी नहीं होती।’

आर. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘भारतीयों ने अनुभव किया कि यदि राजनैतिक प्रगति करनी है तो उसे केवल एक राष्ट्रीय संस्था से ही प्राप्त किया जा सकता है। इस संस्था का सम्बन्ध विभिन्न प्रान्तों की स्वतन्त्र राजनीति से न होकर देश की एक व्यापक राजनीति से होना चाहिए।’ इसी भावना ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

(21.) कांग्रेस के पूर्व की संस्थाओं का योगदान

कांग्रेस के पूर्व स्थापित विभिन्न संस्थाओं ने भी भारतीय राष्ट्रीय चेतना को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 1850 ई. के पूर्व स्थापित संस्थाओं में कलकत्ता ट्रेड एसोसिएशन (1830 ई.), बंगाल चेम्बर ऑफ कामर्स (1834 ई.), लैंड होल्डर्स सोसायटी (1838 ई.), पैट्रियाटिक एसोसिएशन (1839 ई.), देश हितैषिणी सभा (1841 ई.) और बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी (1843 ई.) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। लैंड होल्डर्स सोसायटी की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। यह भारत के अँग्रेजों और भारतीय जमींदारों का संयुक्त संगठन था जिसका उद्देश्य वर्ण, जन्म, स्थान या धर्म का भेदभाव किये बिना जमींदारों के आम स्वार्थों की रक्षा करना था। बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी भी भारतीयों और गैर-सरकारी अँग्रेजों का सम्मिलित संगठन था। जब इसमें जमींदारी-प्रथा की आलोचना तथा किसानों के हितों पर चर्चाएँ होने लगीं तो बड़े जमींदार इस संगठन से अलग हो गये। अपने जनतांत्रिक कार्यक्रम के कारण इस संगठन को राजद्रोह के प्रचार का भागी होना पड़ा। पैट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना कुछ भारतीयों और यूरेशियनों ने मिलकर की थी। इसका उद्देश्य कम्पनी सरकार के अन्यायों के विरुद्ध आवाज उठाना था। देश हितैषिणी सभा का गठन भी इसी उद्देश्य को लेकर किया गया था इन संस्थाओं ने देश में राजनीतिक संघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया।

1850 ई. के बाद देश में अनेक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुई जिनमें ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन (1851 ई.), बॉम्बे एसोसिएशन (1852 ई.), मद्रास नेटिव एसोसिएशन (1852 ई.), पूना दक्कन एसोसिएशन (1852 ई.), ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन (1866 ई.), पूना एसोसिएशन(1867 ई.), रेंटस्पेयर्श एसोसिएशन, बम्बई (1870), पूना सार्वजनिक सभा (1870 ई.), इण्डियन एसोसिएशन (1876 ई.), इण्डियन लीग (1875 ई.) उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं ने राष्ट्रीय आंदोलनों के लिये विचार-भूमि तैयार करने में योगदान दिया।

ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना कलकत्ता में हुई। इस संस्था का उद्देश्य सरकारी विधियों और शासन कार्य की आलोचना करना और भारतीयों के लिए अधिकारों की आवाज उठाना था। यह संस्था अधिक समय तक नहीं चली। 1875 ई. में बंगाल के कुछ प्रगतिशील व्यक्तियों ने इण्डियन लीग की स्थापना की। इसका उद्देश्य भारतीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा देना और उनमें राजनैतिक जागृति उत्पन्न करना था। 1876 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना हुई। राष्ट्रीयता के विकास में इस संस्था का सर्वाधिक योगदान रहा। इसने सम्पूर्ण भारत में सक्रिय राजनीतिक प्रचार का काम किया। इस संस्था एक अन्य उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करना और सार्वजनिक आन्दोलनों में किसानों का सहयोग प्राप्त करना था। बम्बई में बदरूद्दीन तैयबजी और फिरोजशाह मेहता ने निष्क्रिय बॉम्बे एसोसिएशन को सजीव करने का प्रयास किया। महादेव गोविन्द रानाडे ने महाराष्ट्र में राजनैतिक जागृति उत्पन्न करने और समाज सुधार का कार्य करने के उद्देश्य से पूना सार्वजनिक सभा की स्थापना की। इन्हीं उद्देश्यों से मद्रास में महाजन सभा की स्थापना हुई।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में राजनीतिक चेतना की सर्व-प्रथम प्रेरणा समाज सुधारकों एवं धर्म-सुधारकों ने दी। उनके द्वारा चलाये गये आन्दोलनों से भारतीयों के हृदय में स्वाभिमान एवं राष्ट्रभक्ति का अंकुरण हुआ। अँग्रेजों की दमनात्मक कार्यवाहियों ने उस अंकुर को पल्लवित होने के लिये प्रेरित किया। धीरे-धीरे अनेक राजनीतिक संगठनों की गतिविधियों ने राजनीतिक चेतना की भावना को विकसित किया। भारतीयों ने यह भी अनुभव किया कि राजनैतिक प्रगति एक राष्ट्रीय संगठन द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। इन्हीं भावनाओं ने 1885 ई. में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के लिये मार्ग प्रशस्त किया।

अध्याय – 53 : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

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कांग्रेस की स्थापना से पहले कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेंसी में कई राजनीतिक संस्थाओं का उदय हुआ किंतु ये संस्थाएं स्थानीय हितों के लिये काम करती रहीं। सरकार के भय के कारण इन संस्थाओं के सदस्य, इन संस्थाओं को छोड़ जाते थे तथा इस कारण कई संस्थाएं दम तोड़ चुकी थीं। इल्बर्ट बिल के बाद पूरे भारत में एक ऐसी संस्था की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी जो पूरे भारत की समस्याओं को एक साझा मंच दे सके। दिसम्बर 1884 में अड्यार नगर में थियोसाफिकल सोसायटी के वार्षिक अधिवेशन में देश के विभिन्न भागों से आये 17 प्रतिनिधि दीवान बहादुर रघुनाथराव के निवास पर एकत्रित हुए। इस बैठक में एक देशव्यापी संगठन स्थापित करने का निश्चय किया गया जिसके फलस्वरूप इण्डियन नेशनल यूनियन नामक एक संस्था स्थापित हुई।

1885 ई. में इण्डियन एसोसिएशन ने 25-27 दिसम्बर को अपनी दूसरी कान्फ्रेंस बुलाने का निश्चय किया और इसके लिए जोरदार तैयारियाँ कीं। इसी समय एलन ओक्टावियन ह्यूम और उसके मित्रों ने इण्डियन नेशनल यूनियन की तरफ से बम्बई में नेशनल कान्फ्रेंस बुलाने का निश्चय किया। इसकी तिथि भी 25 दिसम्बर रखी गई। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और इण्डियन एसोसिएशन को इस सम्बन्ध में पहले से कोई जानकारी नहीं दी गई। जब निर्धारित तिथि से कुछ दिनों पहले उन्हें इण्डियन एसोसिएशन के सम्मेलन को रद्द करने तथा बम्बई में होने वाले सम्मेलन में भाग लेने को कहा गया तो बनर्जी तथा उनके साथियों ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इस पर ह्यूम तथा उसके साथियों ने अपने सम्मेलन का नाम और सम्मेलन की तिथि में परिवर्तन कर दिया। अब उसका नया नाम इण्डियन नेशनल कांग्रेस रखा गया और अधिवेशन की तिथि 28-30 दिसम्बर 1885 निश्चित की गई।

ए. ओ. ह्यूम और कांग्रेस की स्थापना

अखिल भारतीय स्तर पर संस्था बनाने का विचार अनेक भारतीय नेताओं के मस्तिष्क में था परन्तु इस दिशा में उठाए गये कदमों को व्यवहारिक रूप प्रदान करने का श्रेय अवकाश प्राप्त अँग्रेज अधिकारी ए. ओ. ह्यूम को है। इसीलिए ह्यूम को कांग्रेस का संस्थापक कहा जाता है। माना जाता है कि ह्यूम ने सामाजिक सुधार आन्दोलन के लिए देशव्यापी संस्था की योजना पर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन से विचार-विमर्श किया। लॉर्ड डफरिन ने उसे इस संस्था का कार्यक्षेत्र बढ़ाने का सुझाव दिया। अर्थात् डफरिन ने ह्यूम के विचारों को राजनैतिक दिशा प्रदान की। डफरिन ने कहा- ‘भारत में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो इंग्लैण्ड के विरोधी दल की भाँति यहाँ भी कार्य कर सके और सरकार को यह बता सके कि शासन में क्या त्रुटियाँ हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है।’

ह्यूम द्वारा कांग्रेस की स्थापना किये जाने के सम्बन्ध में यह भी माना जाता है कि सरकारी पद पर रहते हुए ह्यूम ने कुछ गुप्त सरकारी रिपोर्टें देखी थीं।  उनसे उसे आभास हुआ कि भारतवासियों का बढ़ता हुआ असन्तोष किसी भी समय राष्ट्रीय विद्रोह का रूप धारण कर सकता है और इसका स्वरूप 1857 के विद्रोह से भी अधिक भयानक हो सकता है। ब्रिटिश शासकों ने भारत को राष्ट्रीय आन्दोलन के मार्ग पर जाने से रोकने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म दिया। 1884 ई. के अन्त में ह्यूम बम्बई गया तथा महाराष्ट्र व मद्रास के भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श करने के बाद मार्च 1885 में उसने एक राष्ट्रीय संस्था बनाने की योजना तैयार की। उसकी इच्छा थी कि बम्बई के गवर्नर को इसका अध्यक्ष बनाया जाये परन्तु लॉर्ड डफरिन ने कहा- ‘गवर्नर को ऐसी संस्थाओं की अध्यक्षता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उसकी उपस्थिति में लोग अपने विचार स्वतन्त्रता पूर्वक प्रकट नहीं कर सकेंगे।’

कांग्रेस की स्थापना से पहले ह्यूम इंग्लैण्ड गया और वहाँ उसने लॉर्ड रिपन, डलहौजी, ब्राइस आदि ब्रिटिश राजनीतिज्ञों से विचार-विमर्श किया। इंग्लैण्ड से वापस आकर ह्यूम ने नेशनल यूनियन का नाम बदल कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रखा। मई 1885 में ह्यूम ने पहला परिपत्र जारी किया जिसके माध्यम से उसने दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में देश के समस्त भागों के प्रतिनिधियों की एक सभा पूना में बुलाई। इस परिपत्र में उसने इस सभा के दो उद्देश्य बताये-

(1.) राष्ट्र की प्रगति के कार्य में लगे लोगों का एक-दूसरे से परिचय।

(2.) इस वर्ष में किये जाने वाले कार्यों की चर्चा और निर्णय। 

पूना में प्लेग फैल जाने का कारण कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन पूना की बजाय बम्बई में किया गया। 28 दिसम्बर 1885 को बम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज भवन में हुए इस अधिवेशन की अध्यक्षता उमेशचन्द्र बनर्जी ने की। इसमें देश के विभिन्न भागों से आये 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इन प्रतिनिधियों में बैरिस्टर, सॉलिसिटर, वकील, व्यापारी, जमींदार, साहूकार, डॉक्टर, समाचार पत्रों के सम्पादक और मालिक, निजी कॉलेजों के प्रिंसिपल और प्रोफेसर, स्कूलों के प्रधानाध्यापक, धार्मिक गुरु और सुधारक समस्त प्रकार के लोग थे। इनमें दादाभाई नौरोजी, फीरोजशाह मेहता, वी. राघवचार्य, एस. सुब्रह्मण्यम्, दिनेश वाचा, काशीनाथ तेलंग आदि प्रमुख थे। यह सम्मेलन सफल रहा और राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक संस्था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। अधिवेशन की समाप्ति पर ह्यूम के आग्रह पर महारानी विक्टोरिया की जय के नारे लगाये गये।

कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्य

कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए उमेशचन्द्र बनर्जी ने कांग्रेस की स्थापना के निम्नलिखित उद्देश्य बताये-

(1.)  सारे भारतवर्ष में देशहित में काम करने वाले लोगों का आपस में सम्पर्क बढ़ाना और उनमें मित्रता की भावना उत्पन्न करना।

(2.) व्यक्तिगत मित्रता और मेल-जोल के द्वारा देशप्रेमियों के बीच में जाति-पाँति के भेदभाव, वंश, धर्म और प्रान्तीयता की संकीर्ण भावनाओं का नाश करना तथा राष्ट्रीय एकता की जनभावनाओं का विकास करना जिनकी उत्पत्ति लॉर्ड रिपन के काल में हुई थी।

(3.) पूरे वाद-विवाद के बाद भारत में शिक्षित लोगों की सामाजिक समस्याओं के बारे में सम्मतियाँ प्राप्त कर उनका प्रामाणिक संग्रह तैयार करना।

(4.) उन तरीकों पर विचार कर निर्णय करना जिनके अनुसार आने वाले बारह महीनों में राजनीतिज्ञ देशहित के लिये कार्य करेंगे।

प्रथम अधिवेशन में नौ प्रस्ताव पारित हुए जिनमें विभिन्न विषयों पर सुधारों की मांग की गई। इन प्रस्तावों से भी कांग्रेस के उद्देश्यों की जानकारी मिलती है। प्रथम प्रस्ताव में भारतीय प्रशासन की जांच के लिए एक रॉयल कमीशन नियुक्त करने तथा द्वितीय प्रस्ताव में केन्द्रीय एवं प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाआंे में नामित सदस्यों के स्थान पर निर्वाचित भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाने की मांग की गई। अन्य प्रस्तावों में सैनिक खर्च में कमी, भारत और इंग्लैण्ड में सिविल सर्विस प्रतियोगिता परीक्षाओं को साथ-साथ कराने और आयात करों में वृद्धि करने आदि मांगें की गईं। इन समस्त प्रस्तावों पर भारत में पहले से ही विभिन्न मंचों पर चर्चा चल रही थी।

कांग्रेस की स्थापना के कारण

सेवानिवृत्त वरिष्ठ अँग्रेज नौकरशाह द्वारा कांग्रेस की स्थापना में अत्यधिक रुचि लेने की बात ने आरम्भ से ही कांग्रेस की स्थापना के वास्तविक कारण को विवादास्पद बना दिया। नन्दलाल चटर्जी ने लिखा है- ‘कांग्रेस रूसी भय की सन्तान थी।’ एन्ड्रूज और मुखर्जी ने अपनी पुस्तक राइज एण्ड ग्रोथ ऑफ द कांग्रेस इन इण्डिया में लिखा है- ‘कांग्रेस की स्थापना के ठीक पहले जैसी स्थिति थी, वैसी 1857 के बाद इससे पहले कभी नहीं हुई थी।’ बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना, ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से की गई थी। इन इतिहासकारों के अनुसार कांग्रेस का जन्म इसलिए हुआ क्योंकि ब्रिटिश शासक इसकी आवश्यकता समझते थे। यह राष्ट्रीय आन्दोलन के स्वाभाविक विकास का नहीं, राष्ट्रीय आन्दोलन में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का परिणाम था। इस मत के विपरीत कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना केवल ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा के उद्देश्य से नहीं की गई थी, उसके और भी कारण थे। इन कारणों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(अ.) कांग्रेस की स्थापना साम्राज्य की रक्षा के लिए हुई

(1.) ह्यूम उच्च सरकारी अधिकारी रह चुका था। उसे भारत में बढ़ते हुए खतरनाक असन्तोष की जानकारी थी।  इसीलिए उसने ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से कांग्रेस की स्थापना में इतनी अधिक रुचि ली। ह्यूम ने सर आकले कारविन को एक पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य, अँग्रेजी शासकों के कार्यों के फलस्वरूप उत्पन्न एक प्रबल और उमड़ती हुई शक्ति के निष्कासन के लिए रक्षा-नली (सेफ्टी फनल) का निर्माण करना था।

(2.) बढ़ते हुए भारतीय असन्तोष से ब्रिटिश साम्राज्य को बचाने का एकमात्र रास्ता इस आन्दोलन को वैधानिक मार्ग पर लाना था, ह्यूम इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे। लाला लाजपतराय ने लिखा है- ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य अँग्रेजी साम्राज्य को खतरे से बचाना था। भारत की राजनैतिक स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करना नहीं, अँग्रेजी साम्राज्य के हितों की पुष्टि करना था।’

सर विलियम वेडरबर्न का मत है- ‘भारत में असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचने के लिए एक सेफ्टी-वाल्व (रक्षा-अवरोधक) की आवश्यकता है और कांग्रेस से बढ़कर अन्य कोई सेफ्टी-वाल्व नहीं हो सकता।’

(3.) सरकार के व्यवहार से भी तथ्य की पुष्टि होती है कि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए की गई थी। प्रारम्भिक अधिवेशनों में कांग्रेस प्रतिनिधियों को गवर्नरों द्वारा गार्डन पार्टियाँ दी गईं और अधिवेशन की व्यवस्था में भी पूरा सहयोग दिया गया परन्तु जब ऐसे लोग जिन्हें ब्रिटिश शासक नहीं चाहते थे, कांग्रेस में घुस गये और कांग्रेस ने ब्रिटिश शासकों की इच्छा के विरुद्ध मार्ग पकड़ लिया तब लॉर्ड डफरिन और ब्रिटिश शासक, कांग्रेस के विरुद्ध हो गये और उसको समाप्त करने का प्रयास करने लगे। क्योंकि कांग्रेस, ब्रिटिश सरकार की तीव्र आलोचना करने लगी थी। सरकार के इस आचरण से स्पष्ट है कि अँग्रेज, कांग्रेस की स्थापना अँग्रेजी साम्राज्य के सुरक्षा कवच के रूप में करना चाहते थे।

(4.) डा. नन्दलाल चटर्जी का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना के समय भारत पर रूसी आक्रमण का भय था। अतः अँग्रेज भारत की राजनीतिक स्थिति सुधारने के लिए प्रयत्नशील थे ताकि युद्ध की स्थिति में भारतीयों का सहयोग लिया जा सके। रूसी आक्रमण का भय के समाप्त होते ही सरकार ने कांग्रेस के प्रति अपने रुख में परिवर्तन कर लिया।

(5.) रजनीपाम दत्त ने लिखा है- ‘कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश सरकार की पूर्व-निश्चित गुप्त योजना का अंग थी।’

(ब.) कांग्रेस की स्थापना केवल साम्राज्य की रक्षा के लिए नहीं हुई

कुछ विद्वानों का मत है कि कांग्रेस की स्थापना केवल ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से नहीं की गई थी। इसके जन्मदाता इसे केवल सरकार समर्थित संस्था बनाना नहीं चाहते थे। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

(1.) यह सही है कि कांग्रेस के संस्थापकों में से कुछ का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था परन्तु उनका उद्देश्य राष्ट्रीय चेतना को दबाना नहीं था। वे सरकार विरोधी असन्तोष को हिंसक रास्ते की तरफ जाने से रोक कर वैधानिक मार्ग की ओर मोड़ना चाहते थे। स्वयं वेडरबर्न ने कहा था कि कांग्रेस की भूमिका इंग्लैण्ड के विरोधी दल के समान होनी चाहिए। वायसराय डफरिन भी ऐसा ही चाहते थे।

(2.) सामान्यतः यह कहा जाता है कि ह्यूम एक भूतपूर्व अँग्रेज अधिकारी थे और वे ऐसी किसी संस्था की स्थापना क्यों करते जो ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी हो? इसके उत्तर में कहा जाता हे कि ह्यूम व्यक्तिगत रूप से उदारवादी विचारधारा से प्रभावित थे और वे चाहते थे कि भारत में ब्रिटिश शासन प्रजातांत्रिक रूप से काम करे। इसके अलावा, कांग्रेस का प्रारम्भिक रुख भी अँग्रेजों का विरोधी नहीं था।

(3.) 1888 ई. में ह्यूम ने कांग्रेस के मंच से जो भाषण दिया उससे भी पता चलता है कि ह्यूम का उद्देश्य केवल ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा करना नहीं था। उन्होंने अपने भाषण में जहाँ एक तरफ ब्रिटिश सरकार की निरंकुशता की आलोचना की, वहीं दूसरी तरफ देश में राजनीतिक जागरण को फैलाने की बात भी कही ताकि सरकार पर दबाव डाला जा सके। अपने भाषण में ह्यूम ने कहा था- ‘हमारे शिक्षित भारतीयों ने अलग-अलग रूप में, हमारे अखबारों ने व्यापक रूप में तथा हमारी राष्ट्रीय महासभा के समस्त प्रतिनिधियों ने एक स्वर से सरकार को समझाने की चेष्टा की है किन्तु सरकार ने जैसा कि प्रत्येक स्वेच्छाचारी सरकार का रवैया होता है, समझने से इन्कार कर दिया है। अब हमारा कार्य यह है कि देश में अलख जगाएँ, ताकि हर भारतीय जिसने भारत माता का दूध पिया है, हमारा साथी, सहयोगी तथा सहायक बन जाये और यदि आवश्यकता पड़े तो……..स्वतन्त्रता, न्याय तथा अधिकारों के लिये जो महासंग्राम हम छेड़ने जा रहे हैं, उसका सैनिक बन जाये।’

(4.) कांग्रेस की स्थापना केवल ह्यूम ने नहीं की थी। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, उमेश चन्द्र बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, जस्टिस रानाडे आदि भारतीय नेताओं ने भी सक्रिय सहयोग दिया था। यह सम्भव नहीं है कि इन भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के उद्देश्य से कांग्रेस की स्थापना में सहयोग दिया। उनका उद्देश्य भारतीयों के लिए शासन में कुछ सुधारों की मांग करना था।

(5.) डॉ. ईश्वरी प्रसाद का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के उद्देश्य से नहीं अपितु भारतीयों के हित की दृष्टि से की गई।

(6.) कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष उमेशचन्द्र बनर्जी ने कांग्रेस की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है- ‘ह्यूम का विचार था कि भारत के प्रमुख व्यक्ति वर्ष में एक बार एकत्र होकर सामाजिक विषयों पर चर्चा करें। वे नहीं चाहते थे कि उनकी चर्चा का विषय राजनीति रहे क्योंकि मद्रास, कलकत्ता और बम्बई में पहले से ही राजनैतिक संस्थाएँ थीं।’ अर्थात् राष्ट्रीय कांग्रेस एक सामाजिक संस्था के रूप में कार्य करने वाली संस्था के रूप में उद्भूत हुई।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भले ही ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षा कवच देने के उद्देश्य से हुई किंतु बड़े भारतीय नेताओं की उपस्थिति के कारण यह संस्था आरम्भ से ही भारतीयों के हितों की सुरक्षा के काम में लग गई।

कांग्रेस का स्वरूप

कांग्रेस के स्वरूप के सम्बन्ध में विद्वानों में जबर्दस्त मतभेद रहा। यद्यपि इसके निर्माण एवं विकास में मद्रासी, मराठी और पारसियों का उतना ही हाथ था जितना बंगालियों का किंतु कुछ लोग इसे बंगाली कांग्रेस कहते थे। कुछ लोग इसे हिन्दू कांग्रेस कहते थे। कुछ लोग इसे केवल पढ़े-लिखे भारतीयों की संस्था कहते थे और इसके राष्ट्रीय स्वरूप को नकारते थे। जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार कांग्रेस के संगठन और उद्देश्यों पर दृष्टि डालने से सिद्ध हो जाता है कि कांग्रेस का जन्म राष्ट्रीय संस्था के रूप में हुआ। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में सम्मिलित होने वाले प्रतिनिधि विभिन्न धर्मों, वर्गों, सम्प्रदायों एवं प्रांतों से थे। कांग्रेस के प्रथम तीन अधिवेशनों में सम्मिलित प्रतिनिधियों की सूची से इसके राष्ट्रीय स्वरूप की पुष्टि होती है-

प्रान्तबम्बई (1885 ई.)कलकत्ता (1886 ई.)मद्रास (1887 ई.)
मद्रास              2147362
बम्बई और सिन्ध           384799
पंजाब              3179
उत्तर पश्चिम, उत्तर प्रदेश और अवध        77445
मध्य प्रदेश और बरार0813
बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम323879
कुल72431607

कांग्रेस का विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव

विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्ग पर प्रभाव: कांग्रेस की स्थापना भले ही ए. ओ. ह्यूम के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों ने की थी किंतु भारत का बुद्धिजीवी वर्ग इसे सम्भालने के लिये आगे आया। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, उमेश चन्द्र बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे, पण्डित मदन मोहन मालवीय आदि बुद्धिजीवी भारतीय नेताओं ने कांग्रेस को खड़ा करने में सक्रिय सहयोग दिया।

भारत में रहने वाले अँग्रेजों पर प्रभाव: 1907 ई. तक लगभग समस्त प्रतिष्ठित भारतीय किसी न किसी रूप में कांग्रेस से जुड़ गये थे। ए. ओ. ह्यूम, विलियम वेडरबर्न, सर हेनरी कॉटन, एण्ड्रिल यूल और नार्टन जैसे उदारवादी आंग्ल-भारतीय भी कांग्रेस में सम्मिलित हो गये थे।

जनसामान्य पर प्रभाव: कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में ब्रिटिश भारत में रहने वाले विभिन्न धार्मिक समुदायों एवं जातियों के शिक्षित प्रतिनिधि भाग लेते थे। ये लोग परस्पर स्नेह और विश्वास की भावना प्रकट करते थे। यही कारण था  कि कांग्रेस की स्थापना के बाद देश में राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रीय एकता तथा जनसेवा के उच्चादर्शों का तेजी से विकास हुआ। कांग्रेस के उस काल के उच्चादर्श उसके राष्ट्रीय स्वरूप को प्रकट करते हैं। प्रारम्भ में कांग्रेस की लोकप्रियता शिक्षित वर्ग तक सीमित रही किंतु बाद में इसके द्वारा राजनीतिक अधिकारों की मांग किये जाने के कारण सामान्य लोगों का ध्यान भी इसकी तरफ आकर्षित होने लगा।

विभिन्न धर्मों पर प्रभाव: कांग्रेस के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता उमेशचंद्र बनर्जी ने की जो हिन्दू थे। दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी ने की जो पारसी थे और तीसरे अधिवेशन की अध्यक्षता बदरुद्दीन तैयबजी ने की जो मुसलमान थे। कांग्रेस के चौथे अधिवेशन की अध्यक्षता प्रसिद्ध अँग्रेज व्यवसायी जार्ज यूल ने की जो ईसाई थे। आगे भी यह क्रम जारी रहा। इस प्रकार विभिन्न धर्मों के नेताओं को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने से यह संस्था किसी एक धर्म के प्रभाव वाली संस्था न बनकर राष्ट्रीय व्यापकता वाली संस्था के रूप में विकसित हुई।

मुसलमानों पर प्रभाव: आरम्भ में कांग्रेस में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या कम थी किन्तु धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ती गई। सर सैय्यद अहमद ने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने ब्रिटिश राजभक्तों की एक संस्था यूनाइटेड पौट्रियाटिक एसोसिएशन और मुसलमानों के लिए मोहम्मडन एजूकेशन कांग्रेस बनाई। इन मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर कांग्रेस पूर्णतः लोक प्रतिनिधि संस्था थी और इसके प्रतिनिधि राष्ट्रीय विचारों का प्रतिनिधत्व करते थे। कांग्रेस के चौथे सम्मेलन में 1248 प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे जिनमें से 221 मुसलमान तथा 220 ईसाई थे।

रियासती जनता पर प्रभाव: कांग्रेस ने ब्रिटिश भारत में राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लिया था फिर भी 1938 ई. के हरिपुरा अधिवेशन से पहले तक कांग्रेस ने देशी रियासतों को अपने कार्यक्षेत्र से पूरी तरह अलग रखा। इस कारण रियासती भारत की जनता पर 1885 से 1938 ई. तक की अवधि में कोई विशेष प्रभाव नहीं था।

साम्राज्यवादियों पर प्रभाव: कांग्रेस की स्थापना साम्राज्यवादियों के प्रयासों से हुई थी। फिर भी अनेक साम्राज्यवादी अँग्रेज आरम्भ से ही कांग्रेस को घृणा की दृष्टि से देखते थे। मई 1886 में सर हेनरी मेन ने डफरिन को एक पत्र लिखकर ह्यूम के विरुद्ध गंभीर टिप्पणी की- ‘ह्यूम नामक एक दुष्ट व्यक्ति है जिसे लॉर्ड रिपन ने बहुत सिर चढ़ाया था और जिसके सम्बन्ध में ज्ञात होता है कि वह भारतीय होमरूल आंदोलन के मुख्य भड़काने वालों में है। यह बहुत ही चालाक, पर कुछ सिरफिरा, अहंकारी और नैतिकताहीन व्यक्ति है…. जिसे सत्य की कोई परवाह नहीं है।  दिसम्बर 1886 में लार्ड डफरिन ने कांग्रेस के प्रतिनिधियों के लिये कलकत्ता में एक स्वागत समारोह आयोजित किया किंतु जब कांग्रेस की मांगें सामने आईं तो वे कांग्रेस के सचिव ए. ओ. ह्यूम से बुरी तरह नाराज हो गये। डफरिन ने ह्यूम के विरुद्ध अत्यंत उग्र शब्दों में नाराजगी व्यक्त की।’

इंग्लैण्ड वासियों पर प्रभाव: 1890 ई. में कांग्रेस ने एक प्रतिनिधि मण्डल इंग्लैण्ड भेजा, जिसने इंग्लैण्ड, वेल्स और स्कॉटलैंण्ड के निवासियों में कांग्रेस का प्रचार किया। इस प्रतिनिधि मण्डल की यात्रा के बाद ब्रिटिश संसद के सदस्यों की एक समिति बनाई गई जिसका उद्देश्य भारतीय समस्याओं पर विचार करना था। ब्रिटिश जनमत को आकर्षित करने के लिए लंदन में इण्डिया नामक समाचार पत्र प्रकाशित किया जाने लगा। इन प्रचार कार्यों के कारण इंग्लैण्ड के लोग भी कांग्रेस के कार्यों में रुचि लेने लगे। 1890 ई. में स्वयं लॉर्ड लैंन्सडाउन ने स्वीकार किया कि कांग्रेस देश की एक शक्तिशाली उत्तरदायी राजनैतिक संस्था है।

निष्कर्ष

निश्चित रूप से कांग्रेस अपनी स्थापना के समय से ही राष्ट्रीय संस्था थी। इसमें समाज के हर वर्ग, धर्म, जाति का व्यक्ति सदस्य हो सकता था। इसका प्रभाव भी भारत के किसी एक कोने तक सीमित न होकर राष्ट्रव्यापी था। आरम्भ में इसे जनसामान्य का समर्थन कम मिला किंतु समय के साथ कांग्रेस का राष्ट्रीय स्वरूप विस्तृत होता चला गया तथा इसकी लोकप्रियता में वृद्धि होने लगी। कांग्रेस ने सम्पूर्ण देश की राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए संवैधानिक उपायों से प्रयास करना आरम्भ किया। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में पं. मदनमोहन मालवीय ने कहा- ‘इस महान संस्था के द्वारा भारतीय जनता को एक जीभ मिल गई है जिसके द्वारा हम इंग्लैण्ड से कहते हैं कि वह हमारे राजनैतिक अधिकारों को स्वीकार करे।’ कांग्रेस के प्रारम्भिक कार्यों का ही परिणाम था कि देश में प्रबल जनमत का विकास हुआ। सर हेनरी कॉटन ने लिखा है- ‘कांग्रेस के सदस्य किसी भी स्थिति में सरकारी नीति में परिवर्तन लाने में सफल नहीं हुए किन्तु अपने देश के इतिहास के विकास में तथा देश वासियों के चरित्र निर्माण में निश्चित रूप से उन्होंने सफलता प्राप्त की।’

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कांग्रेस का जन्म भारत के राजनैतिक इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब ब्रिटिश साम्राज्य अपनी सफलता के सर्वोच्च शिखर पर था। उसकी शक्ति को चुनौती देना सरल नहीं था फिर भी कांग्रेस ने कुछ ही वर्षों में व्यापक राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त कर लिया।

अध्याय – 54 : उदारवादी नेतृत्व (नरमपंथी कांग्रेस) -1

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भारत की आजादी के लिये संघर्ष अँग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ ही आरम्भ हो गया था। 18वीं शती में प्रेस के उदय साथ ही भारतयों को अपने अधिकारों की मांग करने के लिये मंच मिलना आरम्भ हो गया था। उन्नीसवीं सदी से ब्रिटिश राज्य में राजनीतिक संस्थाओं का उदय होने लगा। 1857 ई. में सशस्त्र क्रांति का प्रयास किया गया किंतु 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद सही अर्थों में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हुआ। यही कारण है कि 1885 से लेकर 1947 ई. तक कांग्रेस का इतिहास, भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का ही इतिहास है। कांग्रेस के इतिहास को मुख्यतः दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है-

(1.) प्रथम चरण: स्थापना से लेकर रोलट एक्ट तक अर्थात् 1885 से 1919 ई. तक। इस चरण में 1885 से 1905 ई. तक कांग्रेस का नेतृत्व उदारवादियों ने किया और 1905 से 1919 ई. तक कांग्रेस का नेतृत्व उग्रवादी विचारधारा के नेताओं के हाथों में रहा।

(2.) द्वितीय चरण: असहयोग आंदोलन से लकर भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक अर्थात् 1920 से 1947 ई. तक। इस काल में कांग्रेस का नेतृत्व दक्षिणपंथी मोहनदास कर्मचंद गांधी और उनके समाजवादी वामपंथी सहयोगी जवाहरलाल नेहरू आदि के हाथों में रहा।

उदारवादी युग

राजनीतिक उदारवाद 19वीं सदी के चिंतन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।  इस चिंतन का आधार यह विचार है कि विश्व में प्रत्येक व्यक्ति की नैतिक उपादेयता है। फिर भी यह शब्द तुलनात्मक है। देश, काल एवं पात्र के अनुसार उदारवाद की परिभाषा में परिवर्तन हो जाता है। कोई विचार किसी समुदाय में उदारवादी माना जा सकता है जबकि वही विचार दूसरे समुदाय में अनुदारवादी अथवा उग्रवादी माना जा सकता है।

1885 से 1905 ई. तक कांग्रेस की बागडोर पूरी तरह से उदारवादियों अथवा नरम राष्ट्रवादियों के हाथों में रही। अतः राष्ट्रीय आन्दोलन का यह काल उदारवाद का युग कहलाता है। इस युग में भारतीय राजनीति में ऐसे व्यक्तियों का प्रभाव था जो अँग्रेजों तथा अँग्रेजी शासन के प्रति नरम रवैया रखते थे और बहिष्कार तथा असहयोग जैसे क्रान्तिकारी विचारों के विरुद्ध थे। वे उच्च शिक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। उनका दृष्टिकोण सर्वथा वैधानिक था। इनमें से अधिकांश नेताओं के हृदय में ब्रिटिश राज के प्रति कृतज्ञता के भाव थे। वे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को वरदान समझते थे। उन्होंने अनेक सामाजिक संस्थाओं एवं रीति-रिवाजों में सामाजिक समानता तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की स्थापना के लिए परिवर्तन का सुझाव दिया। वे भारत में प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं की स्थापना और नागरिक स्वतन्त्रता की मांग प्रस्तुत करते थे। राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए उदारवादियों ने संवैधानिक आन्दोलन का समर्थन किया। उनके द्वारा जो राजनीतिक आन्दोलन प्रारम्भ किया गया वह भारत की एकता, जातीय एवं साम्प्रदायिक समन्वय, आधुनिककरण, सामाजिक रूढ़ियों का विरोध एवं भेदभाव का निषेध, नवीन आर्थिक प्रगति तथा औद्योगिकरण का समर्थन करता था। उदारवादियों ने सेवाओं के भारतीयकरण, पाश्चात्य शिक्षा के विस्तार, व्यवस्थापिका सभाओं के चुने हुए सदस्यों की संख्या में वृद्धि, विधि का शासन, स्वतन्त्रता के अधिकारों का व्यापक प्रयोग आदि विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया।

दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, लालमोहन घोष, रासबिहारी, गोपालकृष्ण गोखले, श्रीनिवास शास्त्री, महादेव गोविंद रानाडे आदि नेता उदारवादी युग के प्रमुख स्तम्भ थे। कुछ उदारवादी अँग्रेज यथा- ए. ओ. ह्यूम, विलियम वेडरबर्न, जार्ज यूल, मेक्विन, स्मिथ आदि भी कांग्रेस के सदस्य थे। इन उदारवादी नेताओं ने 1885 से 1905 ई. तक कांग्रेस का नेतृत्व किया। उदारवादी नेताओं ने भारत के ब्रिटिश शासकों को प्रसन्न रखते हुए उनकी दयालुता एवं न्यायप्रियता की दुहाई देकर स्वशासन की ओर बढ़ने का प्रयत्न किया। जेल जाने का कष्ट उठाना इन नेताओं के वश की बात नहीं थी। वे अपनी सामजिक स्थिति, पद, व्यवसाय आदि को यथावत् बनाये रखते हुए भारत में स्वराज्य की स्थापना का स्वप्न देखते थे।

उदारवादी नेतृत्व की विशेषताएँ

(1.) भारत की एकता

उदारवादियों की मनोवृत्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू था- भारतीयों में एकता की भावना का बोध कराना। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कहना था कि एकता के अभाव में भारत अपनी महानता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए हमें सर्वप्रथम पूरे भारत को स्नेह के बंधन में बांधना होगा। दादाभाई नौरोजी ने भी इस बात पर जोर दिया कि विभिन्न धर्मों को मानने वाली जनता में एकता तथा सहानुभूति होनी चाहिए। उदारवादी नेताओं के प्रचार से भारत के बुद्धिजीवी वर्ग में एकता की भावना का विकास हुआ तथा विभिन्न धर्मों एवं व्यवसायों में लगे लोग राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित होने लगे। यह उदारवादियों की बड़ी उपलब्धि थी।

(2.) ब्रिटिश शासन के प्रति भक्ति भावना

कांग्रेस के अधिकांश उदारवादी नेता ब्रिटिश शासन के समर्थक एवं प्रशसंक थे। वे असहयोग तथा क्रान्तिकारी विचारों के विरोधी थे। उदारवादियों को ब्रिटिश जनतन्त्रीय व्यवस्था में असीम आस्था थी। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन ने ही भारत को आधुनिक सभ्यता के मार्ग पर अग्रसर किया, स्वतन्त्रता की भावना उत्पन्न की, राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया और देश की जनता को एकसूत्र में बांधने का काम किया। जस्टिस रानाडे का मानना था कि भारत में अँग्रेजी शासन भारतीयों को नागरिक एवं सार्वजनिक गतिविधियों का राजनैतिक शिक्षण देने की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हुआ था।

उनका कहना था- ‘हिन्दुओं एवं मुसलमानों में वैज्ञानिक क्रियाकलाप, नवीन शिक्षण तथा व्यसायिक दृष्टिकोण की कमी होने के कारण प्रगति शिथिल होती गयी। अँग्रेजों के आगमन ने यह स्थिति बदल दी। भारत को एक नवीन ज्योति दिखाई दी। आधुनिकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ। अँग्रेजों के सम्पर्क में आने से हमें स्वतन्त्रता की महत्ता का आभास हुआ। सदियों की गुलामी एवं जड़ता को पाश्चात्य प्रभाव ने समाप्त कर दिया। भारतीय नवजागरण प्रारम्भ हुआ।’

दादाभाई नौरोजी की धारणा थी कि अँग्रेजों का शासन भारत के चहुँमुखी विकास के लिए दैविक वरदान का कार्य करेगा। उनका कहना था कि- ‘अँग्रेजों का उस समय तक भारत में बने रहना आवश्यक है जब तक कि भारतीयों को वे स्वावलम्बी बनाने सम्बन्धी अपना न्यासिता का उद्देश्य पूरा नहीं कर लेते।’

उदारवादियों ने भारतीयों की इंग्लैण्ड के प्रति वफादारी और उनकी देशभक्ति के बीच गहरा सम्बन्ध स्थापित करने में कभी असुविधा महसूस नहीं की।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था- ‘ईश्वर भविष्य में हमारी वफादारी को और गहरा करे, हमारी देशभक्ति को और प्रोत्साहित करे और ब्रिटिश साम्राज्य के साथ हमारे सम्बन्धों को और अधिक दृढ़ करे।’

(3.) क्रमिक सुधारों के पक्ष में

उदारवादी नेता देश की शासन व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तनों के विरोधी थे। उनका मानना था कि भारत में सुधार कार्य एक साथ सम्भव नहीं है, इसलिए क्रमिक सुधार होने चाहिये। वे राजनीतिक एवं प्रशासकीय क्षेत्र में धीरे-धीरे सुधार लाना चाहते थे। वे सरकार में जनता की समुचित भागीदारी चाहते थे। आर. जी. प्रधान ने लिखा है- ‘कांग्रेस के प्रारम्भिक दिनों के प्रस्तावों से पता चलता है कि उनकी मांगें अत्यन्त साधारण थीं। कांग्रेस के नेता आदर्शवादी नहीं थे। वे हवाई किला नहीं बनाते थे। वे व्यवहारिक सुधारक थे तथा आजादी, क्रमशः कदम-कदम करके हासिल करना चाहते थे।’

फीरोजशाह जैसे नेता, अँग्रेजों के संरक्षण में भारत के राजनीतिक शिक्षण का मार्ग ढूँढ रहे थे और उनका विश्वास था कि किसी दिन अँग्रेज स्वयं ही, भारत की राष्ट्रीय मांगों को स्वीकार कर लेंगे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भी ब्रिटेन के मार्गदर्शन में भारत की प्रगति का स्वप्न देखते थे। उनका उद्देश्य भारत में राजनीतिक सुधारों की मांग प्रस्तुत करना तथा अँग्रेजी शासन से प्रार्थना एवं याचिकाओं के माध्यम से नवीन सुधारों को लागू करवाना था। गोपालकृष्ण गोखले भारत के राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं पुनर्जीवन के लिए क्रमिक विकास का सहारा लेना चाहते थे।

(4.) ब्रिटेन से स्थायी सम्बन्धों की स्थापना

उदारवादी नेता, पाश्चात्य सभ्यता एवं विचारों के पोषक थे। उनकी मान्यता थी कि भारतीयों के लिए, भारत का ब्रिटेन से सम्बन्ध होना एक वरदान है। ब्रिटेन से सम्बन्धों के कारण पाश्चात्य साहित्य, आधुनिक शिक्षा पद्धति, यातायात के साधन, न्याय प्रणाली, स्थानीय स्वशासन आदि व्यवस्थाएँ भारत के लिए अमूल्य वरदान सिद्ध हुई हैं। पाश्चात्य विचार एवं दर्शन, लोगों में स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र के प्रति आदर उत्पन्न करता है। अतः भारत के हित में यही उचित होगा कि ब्रिटेन से उसका अटूट सम्बन्ध बना रहे। श्रीमती एनीबीसेन्ट का माना था- ‘इस काल के नेता स्वयं को ब्रिटिश प्रजा मानने में गौरव का अनुभव करते थे।’

गोपालकृष्ण गोखले का कहना था- ‘हमारा भाग्य अँग्रेजों के साथ जुड़ा हुआ है। चाहे वह अच्छे के लिए हो अथवा बुरे के लिए।’

इसी प्रकार दादाभाई नौरोजी का कहना था- ‘कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने वाली संस्था नहीं है, अपितु वह तो ब्रिटिश सरकार की नींव को दृढ़ करना चाहती है।’

उदारवादी नेता मानते थे कि अँग्रेजों की मुक्त व्यापार नीति भारतीय उद्योगों के हितों के विरुद्ध है और भारत की निर्धनता के लिए ब्रिटिश शासन उत्तरदायी है फिर भी वे भारत और ब्रिटेन के आर्थिक हितों को एक-दूसरे का विरोधी नहीं मानते थे। गोखले राष्ट्रीय शक्ति तथा स्वालम्बन के विकास के साथ-साथ शासकीय संरक्षण में भारत के नव-स्थापित उद्योगों को इतना विकसित हुआ देखना चाहते थे कि वे अन्य देशों से प्रतिस्पर्धा में मात न खा जाये। उदारवादियों ने बंगाल-विभाजन के बाद प्रारम्भ हुए स्वदेशी आन्दोलन का केवल आर्थिक दृष्टि से समर्थन किया, न कि राजनैतिक शस्त्र के रूप में। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था कि स्वदेशी आन्दोलन का आधार देश-प्रेम था, न कि विदेशियों के प्रति घृणा। स्वदेशी का उद्देश्य आदर्श, विद्या, कला और उद्योगों को देश से बाहर निकालना नहीं है; अपितु वह उन्हें राष्ट्रीय पद्धति में समाविष्ट करने पर जोर देता है।

(5.) अँग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास

उदारवादियों का विश्वास था कि अँग्रेज, संसार के सर्वाधिक ईमानदार, शक्ति सम्पन्न और प्रजातन्त्रवादी लोग हैं। वे भारत में भी प्रजातान्त्रिक संस्थाओं का विकास करेंगे। यदि ब्रिटिश संसद और जनता को भारतीय समस्याओं से अवगत कराया जाए तो वे निश्चित रूप से सुधार के कदम उठायेंगे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कहना था- ‘अँग्रेजों के न्याय, बुद्धि और दया भावना में हमारी दृढ़ आस्था है। संसार की इस महानतम प्रतिनिधि सभा, संसदों की जननी ब्रिटिश कॉमन सभा के प्रति हमारे हृदय में असीम श्रद्धा है; अँग्रेज स्वेच्छा से भारत से चले जायेंगे।’

इस प्रकार, कांग्रेस के उदारवादी नेताओं का अँग्रेजों की न्यायप्रियता में असीम विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि अँग्रेज न्यायप्रिय एवं स्वतन्त्रता प्रेमी हैं। यदि उन्हें भारतीयों की योग्यता पर विश्वास हो जायेगा तो वे बिना किसी हिचकिचाहट के भारतीयों को स्वशासन का अधिकार प्रदान कर देंगे। बाद में उदारवादियों का भारत के ब्रिटिश शासकों की न्यायप्रियता से विश्वास उठने लगा परन्तु ब्रिटिश राजनीतिज्ञों और ब्रिटिश जनता की न्यायप्रियता में उनका विश्वास बना रहा। इसलिये वे ब्रिटिश राजनीतिज्ञों तथा ब्रिटिश जनमत का समर्थन जीतने का प्रयास करते रहे।

(6.) ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन

कांग्रेस के उदारवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन चाहते थे। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- ‘स्वशासन एक प्राकृतिक देन है, ईश्वरीय शक्ति की कामना है। प्रत्येक राष्ट्र को स्वयं अपने भाग्य का निर्णय करने का अधिकार होना चाहिए, यही प्रकृति का नियम है।’

ब्रिटिश साम्राज्य से सम्बन्ध विच्छेद की तो वे स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते थे। इसलिए पूर्ण स्वतन्त्रता की बात उनके मस्तिष्क में नहीं थी। वे तो ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन प्राप्त करना चाहते थे। दादाभाई नौरोजी ने अपनी सुधारवादी वृत्ति के कारण समस्त प्रकार के सुधारों के लिए अँग्रेजी शासन का सहारा लेना उचित ठहराया। उन्होंने मांग रखी कि भारत को शीघ्र ही प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं से युक्त किया जाये। इस योजना के अन्तर्गत भारत सरलता से सुशासन की ओर बढ़ते हुए एक पूर्ण लोकतान्त्रिक राज्य बन सकता था। 1906 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में पहली बार भारतीयों को स्वराज्य शब्द का मन्त्र देते हुए कहा कि बदलते हुए समय के अनुसार अब भारतीय जनता केवल सुशासन तक ही सीमित नहीं रखी जा सकती, उसे स्वशासन की आवश्यकता है। इसी प्रकार फीरोजशाह मेहता ने कहा कि प्रतिनिधि संस्थाओं की मांग भारत के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ही की गई थी न कि किसी क्रान्तिकारी परिप्रेक्ष्य में। भारतीयों द्वारा अपने अधिकारों का जो ज्ञान शिक्षा के माध्यम से अर्जित किया गया है, उसी सन्दर्भ में भारतीयों ने प्रतिनिधि संस्थाओं की मांग रखी है।

(7.) वैधानिक उपायों में विश्वास

चूँकि उदारवादी नेताओं को अँग्रेजों की न्यायप्रियता में अटूट विश्वास था, अतः वे क्रान्तिकारी उपायों को अपनाने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने सरकार के साथ संघर्ष करने की बात कभी नहीं की। उनका पूर्ण विश्वास वैधानिक संघर्ष में था। वे अपने कार्यों से सरकार को असन्तुष्ट नहीं करना चाहते थे। हिंसात्मक एवं क्रान्तिकारी उपाय उनके मस्तिष्क में कभी नहीं आये। उन्होंने प्रार्थनाओं, प्रार्थना-पत्रों, याचिकाओं, स्मरण-पत्रों और प्रतिनिधि-मण्डलों द्वारा सरकार से अपनी न्यायोचित मांगों को मानने का आग्रह किया। अनेक विद्वानों का मानना है कि इस समय कांग्रेस की नीति प्रार्थना करने की थी, अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने की नहीं। इस रीति-नीति को कुछ लोगों ने राजनीतिक भिक्षावृत्ति कहा। अन्य विद्वानों का मत है कि उदारवादियों ने अँग्रेजी शासन का इसलिए विरोध नहीं किया क्योंकि उन्हें आंशका थी कि यदि उन्होंने ऐसा किया तो अँग्रेज सरकार कांग्रेस को ही समाप्त कर देगी। संभवतः उनका ऐसा सोचना सही था। अभी कांग्रेस अपनी जड़ंे मजबूत नहीं कर पाई थी। इसलिए उन्होंने जनता की इच्छाओं तथा भावनाओं को अपने प्रस्तावों तथा अन्य वैधानिक उपायों द्वारा सरकार के सामने बड़े विनम्र रूप में प्रस्तुत किया।

उदारवादियों की मांगें

कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक बीस वर्षों में वार्षिक अधिवेशनों में विभिन्न प्रस्ताव पारित करके ब्रिटिश सरकार का ध्यान भारतीय जनता की समस्याओं की ओर आकर्षित किया तथा नागरिक प्रशासन में विभिन्न प्रकार के सुधार करने की मांग की। उनकी विभिन्न मांगंे इस प्रकार से थीं-

(1.) राजनीतिक मांगें

प्रारम्भिक राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा भारत की गोरी सरकार से भारतीयों के लिये अनेक राजनीतिक अधिकारों की मांगें की गईं-

1. प्रशासन व्यवस्था में भारतीयों की अधिक से अधिक भागीदारी हो।

2. विधायी परिषदों में सुधार हो।

3. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय कौंसिलों का विस्तार हो तथा उनमें सरकार द्वारा नामित सरकारी सदस्यों की संख्या में कमी करके निर्वाचित और गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों की संख्या में वृद्धि की जाये।

4. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण हो तथा मुकदमों की सुनवाई में जूरी प्रथा को मान्यता दी जाये।

5. वित्तीय व्यवस्था का पुनर्गठन करके करों का बोझ कम किया जाये।

6. अँग्रेजी साम्राज्य की सुरक्षा और विस्तार के व्यय में ब्रिटिश सरकार भी भागीदारी निभाये।

7. सरकार के सैनिक व्यय में कमी की जाये।

8. किसानों की स्थिति सुधारने के लिए भू-राजस्व की दर कम की जाये तथा यह 20 से 30 वर्षों के लिये स्थाई की जाये।

9. भारतीय जनता की दशा सुधारने के लिए उचित कदम उठाए जाएँ। प्राथमिक शिक्षा का विस्तार हो, औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा की सुविधा दी जाये, सफाई में सुधार के लिए अधिक अनुदान दिया जाए इत्यादि।

1886 ई. में हुए कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में केन्द्रीय और प्रान्तीय कौंसिलों के विस्तार और उनमें निर्वाचित प्रतिनिधियों की मांग उठी। यह मांग हर अधिवेशन में अधिक मजबूती के साथ दोहराई जाती रही। तीसरे अधिवेशन के प्रस्तावों में कहा गया कि कौंसिल में आधे प्रतिनिधि निर्वाचित पद्धति से आएं। यह निर्वाचन सीधा न होकर परोक्ष विधि से हो। अर्थात् नगरपालिका, विश्वविद्यालय, व्यापार मण्डल, स्थानीय मण्डल और स्थानीय कौंसिल में निर्वाचन किया जाये और स्थानीय कौंसिल के माध्यम से केन्द्रीय कौंसिल में किया जाये। चौथे अधिवेशन में इस बात पर सर्वाधिक जोर डाला गया कि विधान परिषदों को इतना बढ़ाया जाए कि उनमें देश के हितों का प्रतिनिधित्व हो जाए। 1889 ई. के पांचवें अधिवेशन में 21 वर्ष के प्रत्येक भारतीय को मताधिकार देने की बात उठाई गई।

(2.) नागरिक अधिकारों की मांगें

उदारवादी नेता नागरिकों के लिये भाषण और प्रेस की स्वतन्त्रता का अधिकार, संगठन बनाने की स्वतन्त्रता का अधिकार जैसे नागरिक अधिकारों की मांग उठाते थे। जब कभी सरकार इन अधिकारों को सीमित करने का प्रयास करती थी, तब उदारवादी नेता इन अधिकारों के समर्थन में दलीलें देते थे। 1878 ई. में पारित प्रेस अधिनियम का उदारवादियों ने तब तक विरोध किया जब तक कि सरकार ने इस अधिनियम को निरस्त नहीं कर दिया। इसी प्रकार, 1880-90 ई. में जब सरकार ने समाचार पत्रों के आलोचना करने के अधिकार को समाप्त करने का प्रयास किया, तब उदारवादियों ने सरकारी प्रयासों का विरोध किया।

फीरोजशाह मेहता प्रेस की स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने टाइम्स ऑफ इण्डिया के नाम पत्र में लिखा- ‘यदि वर्नाक्यूलर प्रेस का कार्य शासन को अनुत्तरदायी दिखाई देता है तो यह अनुत्तरदायित्व सरकार के नियमन एवं पंजीकरण द्वारा भी बना रह सकता है। प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन भारत में नवपल्ल्वित स्वतन्त्रता के विकास को अवरुद्ध कर देगा। इससे शासन को संचार के एक महत्त्वपूर्ण साधन से वंचित रहना पड़ेगा और उसे जन प्रतिक्रिया की सही जानकारी नहीं प्राप्त हो सकेगी। यदि प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन किसी व्याप्त विरोध को दबाने में प्रयुक्त किया जाता है तो वह उचित नीति नहीं होगी।’

उन्होंने भारत सरकार को चेताया कि वह ऐसी किसी भी नीति का अनुसरण नहीं करे।

(3.) सांविधानिक सुधार और स्वशासी सरकार की मांग

उदारवादी नेता एक स्वशासी सरकार की स्थापना चाहते थे परन्तु इस दिशा में उन्होंने जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाया। प्रारम्भ में उन्होंने विधान परिषदों के विस्तार और विभिन्न सुधारों के माध्यम से भारतीय जनता को सरकार में अधिक हिस्सा देने की मांग की। इसके बाद उन्होंने विधान परिषदों के अधिकारों में वृद्धि की मांग की ताकि बजट पर बहस की जा सके और प्रशासन के कार्यों की समीक्षा करने का अवसर मिल सके। 1905 ई. तक इस विषय में प्रस्ताव पारित किये जाते रहे।

(4.) नागरिक सेवाओं के भारतीयकरण की मांग

उदारवादियों का मानना था कि विभिन्न प्रशासकीय एवं वित्तीय बुराइयों को तब तक दूर नहीं किया जा सकता जब तक कि अधिक-से अधिक भारतीयों को सिविल सेवाओं में भरती नहीं किया जायेगा। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उमेशचन्द्र बनर्जी ने कहा- ‘मैं समझता हूँ कि यूरोप की तरह की शासन पद्धति की आकांक्षा रखना, कदापि राजद्रोह नहीं है। हमारी आकांक्षा केवल इतनी है कि शासन का आधार अधिक व्यापक हो और उसमें देशवासियों को समुचित तथा न्यायपूर्ण भाग मिले।’

1890 ई. के अधिवेशन में सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया कि देश के 95 प्रतिशत उत्तरदायित्व पूर्ण उच्च पदों पर यूरोपियनों का अधिकार है किंतु वे भारत के हित में नहीं सोचते हैं। उनका सारा चिंतन इस बात में निहित है कि ब्रिटिश शासन की नींव को और गहरा किया जाये। अतः उदारवादियों ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स के 2 जून 1893 के उस प्रस्ताव को लागू करने की मांग की जिसके द्वारा भारत और इंग्लैण्ड में सिविल सेवाओं के लिए प्रतियोगी परीक्षा का आयेाजन साथ-साथ किये जाने की व्यवस्था की गई थी। उन्होंने भारतीय सेवाओं के पुनर्गठन की मांग भी की। उन्होंने यह भी मांग की कि न्यायिक कार्य केवल उन्हीं व्यक्तियों को दिया जाये जो कानून के विशेषज्ञ हों।

(5.) भारत से धन निष्कासन रोकने की मांग

दादाभाई नौरोजी भारत में व्याप्त निर्धनता के लिए आवाज उठाने वाले प्रथम व्यक्ति थे। उन्होंने दो पुस्तकें- (1.) पावर्टी इन इण्डिया तथा (2.) पावर्टी ऐन अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया लिखीं। उन्होंने भारत की निर्धनता के लिए अन्य विचारकों एवं आलोचकों द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों को, जिनमें भारत की निर्धनता के लिए भारत की बढ़ती हुई आबादी को दोषी ठहराया था, अमान्य सिद्ध किया। भारत की निर्धनता के लिए उन्होंने भारत की बढ़ती आबादी के स्थान पर अँग्रेजों की क्रूर आर्थिक शोषण की नीति को उत्तरदायी ठहराया। धन निर्गम सिद्धान्त में उन्होंने लिखा कि विशेष रूप से चार मदों में इस देश की विपुल धन राशि ब्रिटिश हुकूमत की नहर प्रणाली से इंग्लिश चैनल तक पहुंच रही है- (1.) ब्रिटिश अधिकारियों की पेंशन,

(2.) भारत में सेना के व्यय के लिये ब्रिटेन के युद्ध विभाग को भुगतान (3.) भारत सरकार का ब्रिटेन में व्यय और (4.) भारत स्थित ब्रिटिश व्यावसायिक वर्ग द्वारा स्वदेश भेजी गई अपनी कमाई।  भारत से जो पूँजी इंग्लैण्ड जाती थी उसके बदले में भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं होता था। भारत से इंग्लैण्ड भेजा गया धन सार्वजनिक ऋण के रूप में पुनः भारत आता था जिसे चुकाने के लिए ब्याज देना पड़ता था। उदारवादियों ने मांग की कि देश का उत्पादन देश में ही रहे तथा भारत से धन-निष्कासन रोका जाये।

(6.) भारतीय उद्योगों को संरक्षण की मांग

उदारवादियों का मानना था कि भारत के तीव्र औद्योगीकरण में कई बाधाएँ हैं। जैसे- 1. स्वदेशी उद्योगों का ह्रास, 2. पूंजी की कमी, 3. तकनीकी शिक्षा का अभाव, 4. भारतीयों में उद्यम भावना की कमी और 5. मुक्त व्यापार की नीति। उदारवादी नेताओं ने इन बाधाओं को दूर करने तथा भारतीय उद्योगों को सरकारी प्रोत्साहन एवं सरंक्षण देने की मांग की। क्योंकि सरकारी सहायता के बिना भारत का औद्योगिक विकास सम्भव नहीं था और बिना औद्योगिक विकास के आर्थिक समृद्धि की कल्पना करना निरर्थक था।

जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे का कहना था- ‘भारत की गिरती हुई आर्थिक स्थिति का वास्तविक कारण भारत के घरेलू उद्योग-धन्धों का ह्रास तथा भारत की कृषि पर अत्यधिक निर्भरता है।’

नवीन उद्योगों की स्थापना तथा औद्योगिक उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करके भारत की निर्धनता को दूर किया जा सकता था। रानाडे का यह भी मानना था कि अँग्रेजी शासन की विरोधी नीति इसके मार्ग में बाधक सिद्ध हो रही है। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कहना था कि जब तक भारत के उद्योगों का उचित संरक्षण एवं संवर्धन नहीं होगा तब तक भारत आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं हो पायेगा। उन्होंने बम्बई के कपड़ा उद्योग, बंगाल के जूट उद्योग, आसाम के चाय उद्योग तथा मध्य प्रदेश एवं दक्षिण भारत के कोयला एवं लोहा उद्योगों को बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया। वे फैक्ट्री नियमों को उत्पादन घटाने तथा उत्पादन मूल्य बढ़ाने वाले मानते थे। बनर्जी ने लंकाशायर के सूती कपड़ा उद्योगपतियों को भारत के सूती कपड़ा उद्योग को शिथिल करने का दोषी बताया।

(7.) श्रमिकों की दशा सुधारने की मांग

उदारवादी नेताओं ने श्रमिकों की स्थिति सुधारने की मांग की परन्तु इस विषय में अधिक उत्साह नहीं दिखाया। रानाडे, दादाभाई नौरोजी, जी. वी. जोशी, आर. सी. दत्त जैसे नेताओं ने भी श्रमिकों के प्रति कोई विशेष सहानुभूति प्रकट नहीं की। कांग्रेस के अधिवेशनों में भी श्रमिकों से सम्बन्धित प्रस्ताव पारित नहीं किये गये जबकि इस युग में भारतीय श्रमिकों की दशा शोचनीय थी। आगे चलकर लाला लाजपतराय ने इस विषय को पूरी शक्ति के साथ उठाया।

(8.) कृषि एवं कृषकों की दशा सुधारने की मांग

ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत कृषि एवं कृषक दोनों की दशा खराब होती जा रही थी। उदारवादी नेताओं का मानना था कि कठोरतापूर्वक किया गया कर निर्धारण और कर की ऊँची दर के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है। उन्होंने सरकार से भूमि कर में कमी करने तथा किसानों की स्थिति सुधारने के लिए पुराने ऋण माफ करने की मांग की। उन्होंने जमींदारों के अधिकारों में कमी करने तथा किसानों को स्वतंत्र बनाने का सुझाव दिया ताकि किसान अपनी जमीन पर जी-तोड़ परिश्रम करके उत्पादन को बढ़ा सके। कांग्रेस के चौथे अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित करके कहा गया- ‘जमीन बन्दोबस्त के बदलते रहने से आम जनता परेशान और क्षुब्ध है। अतः प्रान्तीय कांग्रेस समितियाँ इस समस्या का अध्ययन करें और सुझावों सहित अपनी रिपोर्ट आगामी अधिवेशन में प्रस्तुत करें।’ इस प्रकार कांग्रेस के मंच से कृषि एवं कृषकों से सम्बन्धित समस्याएँ उठाई जाने लगीं।

(9.) अन्य माँगें

उदारवादी नेताओं ने नागरिक जीवन से सम्बन्धित अन्य समस्याओं पर भी प्रस्ताव पारित किये। इन प्रस्तावों में सिंचाई की उचित व्यवस्था, कृषि-बैकों की स्थापना, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन, भारत में सैनिक कॉलेज की स्थापना, प्रिवी कौंसिल में भारतीयों को प्रतिनिधित्व, पुलिस व्यवस्था में सुधार, विदेशों में रहने वाले भारतीयों की रक्षा आदि विषय सम्मिलित थे। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि लोगों ने शिक्षित बेरोजगारों की समस्या को उठाया। उनका कहना था कि भारत की निर्धनता; रोजगार के नये तरीकों के प्रयोग तथा अधिक रोजगार प्रदान करने से दूर हो सकती थी। बनर्जी ने कहा था- ‘हमारी मांगों का प्रमुख लक्ष्य भारत में प्रतिनिधि संस्थाओं की स्थापना करवाना कहा जा सकता है।

अध्याय – 55 : उदारवादी नेतृत्व (नरमपंथी कांग्रेस) -2

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उदारवादियों की रणनीति

कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की रणनीति बहुत सरल, स्पष्ट और विनम्र संघर्ष की थी। उन्होंने सरकार के विरुद्ध कटु भाषा का प्रयोग किये बिना तथा सरकार को नाराज किये बिना, कांग्रेस अधिवेशनों में नागरिक अधिकारों की मांगों के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किये तथा उन मांगों की पूर्ति के लिये सरकार पर विनम्र दबाव डाला।

(1.) जन साधारण से दूरी

उदारवादी नेताओं ने इस काल के राजनीतिक संघर्ष में जन-साधारण की भागीदारी को विशेष महत्त्व नहीं दिया तथा इसे केवल शिक्षित वर्गों तक सीमित रखा। गोपालकृष्ण गोखले का मानना था कि भारत का विशाल जनसमूह उदासीन, विभाजित, निर्धन और अज्ञानी है। अन्य उदारवादी नेताओं का मानना था कि जब तक समाज के विभिन्न वर्गों को एक राष्ट्र के सूत्र में बाँध नहीं दिया जाता तब तक राष्ट्रीय आंदोलन नहीं चलाया जा सकता। जनसामान्य में राजनीतिक जागृति पैदा करके ही उन्हें राष्ट्रीय समस्याओं के निवारण के लिये आंदोलन का रास्ता दिखाया जा सकता है। उनका विश्वास था कि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता किसी क्रान्ति के फलस्वरूप नहीं अपितु विकास के फलस्वरूप प्राप्त होगी। अतः उनकी रणनीति धीरे-धीरे राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने और स्वायत्त शासन की ओर अग्रसर होने की थी। उनका मानना था कि सरकार पर नैतिक दबाव डालने, बातचीत करने, समझौते करने और रियायतें प्राप्त करने से राजनीतिक विकास सम्भव है।

(2.) सरकार से विनम्र अनुरोध

उदारवादी नेता संवैधानिक तरीकों में विश्वास रखते थे। इस कारण अपनी मांगें कानून की सीमा के अंतर्गत रखते थे। वे कांग्रेस के अधिवेशनों में पारित मांगों को समाचार पत्रों और भाषणों के माध्यम से जनसाधारण में प्रसारित करते थे और उनकी पूर्ति के लिये अत्यंत विनम्र भाषा में भारत सरकार एवं गृह-सरकार के समक्ष याचिकाएँ एवं स्मरण-पत्र प्रस्तुत करते थे। उनकी भाषा इस प्रकार होती थी- ‘हम हमारी प्रिय लोकप्रिय सरकार से प्रार्थना करते हैं कि उपर्युक्त सुधारों को लागू करने की कृपा कर हमें अनुग्रहित करें।’

समय के साथ उदारवादी नेताओं की मांगों में वृद्धि होती रही किंतु इस काल में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता, जब कांग्रेस द्वारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उग्र भाषा का प्रयोग किया गया हो। इन तरीकों से उदारवादियों ने ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालने तथा ब्रिटिश जनता की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास किया परन्तु वे राष्ट्रव्यापी आन्दोलन खड़ा नहीं कर सके।

(3.) इंग्लैण्ड में जनमत पक्ष में करने के प्रयास

इग्ंलैण्ड में कुछ अँग्रेज अधिकारियों और समाचार पत्रों ने कांग्रेस की छवि को विकृत करना आरम्भ किया। इस पर उदारवादी नेताओं ने इंग्लैण्ड में कांग्रेस की सही छवि प्रस्तुत करने और जनमत अपने पक्ष में करने का निश्चय किया। उन्होंने इंग्लैण्ड में अपने प्रचार-प्रसार को अधिक महत्त्व देना आरम्भ किया क्योंकि समस्त प्रकार के सुधारों को अततः ब्रिटिश संसद द्वारा ही लागू किया जाना था। 1887 ई. में दादाभाई नौरोजी ने लन्दन में भारतीय सुधार संघ की स्थापना की। इस अवसर पर उन्होंने कहा- ‘शासन का प्रमुख स्रोत इंग्लैण्ड में है, इसलिए इंग्लैण्ड में कांग्रेस द्वारा किये गये कोई भी वैधानिक प्रयत्न अधिक प्रभावशाली और लाभदायक होंगे।’

1888 ई. में उमेशचन्द्र बनर्जी तथा नार्टन इंग्लैण्ड गये और उन्होंने नौरोजी व भारत के पक्षधर चार्ल्स ब्रेडला की सहायता से एक भारतीय राजनैतिक एजेन्सी की स्थापना की जो बाद में ब्रिटिश कमेटी ऑफ इण्डियन नेशनल कांग्रेस में परिवर्तित हो गई। इसका मुख्यालय 25 क्रेवल स्ट्रीट, स्ट्रेण्ड पर खोला गया। अनेक प्रतिष्ठित अँग्रेजों ने इसकी सदस्यता ग्रहण की। इसके अध्यक्ष वेडरबर्न और सचिव डिग्वी थे। इस संस्था के माध्यम से इंग्लैण्ड में भारतीय पक्ष का प्रचार-प्रसार हुआ। ब्रेडले ने इंग्लैण्ड के अनेक भागों में भारत के पक्ष में भाषण दिये। इससे इंग्लैण्ड के तटस्थ बुद्धिजीवियों में भारत के प्रति स्वतंत्र दृष्टिकोण उत्पन्न हुआ। इंग्लैण्ड में इण्डिया नामक एक पत्रिका आरम्भ की गई। इसका मुख्य उद्देश्य भारत की समस्याओं को ब्रिटिश जनता के समक्ष रखना था। यह पत्रिका इंग्लैण्ड में काफी लोकप्रिय हुई और ब्रिटिश जनता में, भारत की समस्याओं के प्रति रुचि बढ़ी। इसी समय दादाभाई नौरोजी ब्रिटिश ससंद के सदस्य निर्वाचित हुए। 1893 ई. में भारतीय संसद समिति बनी जिसके प्रयत्नों से ब्रिटिश संसद ने भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा भारत में भी आयोजित करने का प्रस्ताव पारित किया परन्तु इस पर अमल करने में बहुत विलम्ब किया गया।

उदारवादियों के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति

डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार कांग्रेस और इसके आन्दोलन के प्रति अँग्रेज सरकार का रुख प्रतिकूल रहा। नौकरशाही को भी इसके प्रति सहानुभूति नहीं थी और कुछ विशेष व्यक्तियों को छोड़कर सम्पूर्ण ब्रिटेन इसके विरुद्ध था।

डॉ. प्रसाद ने लिखा है- ‘नौकरशाही ने आरम्भ में तो कांग्रेस आन्दोलन का मजाक उड़ाया, फिर गाली-गलौच पर उतर आई और अन्त में सशक्त होकर इसके विरुद्ध दमन की नीति अपनाई।’

रैम्जे मेकडोनल्ड ने लिखा है- ‘राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति काफी सीमा तक सरकार की नीति पर निर्भर करती थी, जो आरम्भ में मैत्रीपूर्ण रही किन्तु बाद में घोर विरोध की हो गई।’

कांग्रेस की स्थापना वायसराय लॉर्ड डफरिन की स्वीकृति से हुई थी तथा इसकी स्थापना के पीछे सरकार का उद्देश्य राष्ट्रीय आन्दोलन के हिंसक मार्ग को संवैधानिक मार्ग की तरफ मोड़ना था। सरकार को विश्वास था कि कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे सम्पन्न एवं आराम-पसन्द भारतीयों के हाथों में रहेगा जो न तो हिंसक मार्ग अपनायेंगे और न सरकार की कटु आलोचना करेंगे। इस प्रकार कांग्रेस, सरकार द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलती रहेगी। यही कारण है कि कांग्रेस के प्रथम तीन अधिवेशनों के अवसर पर सरकार की ओर से कांग्रेस के प्रतिनिधियों को चाय-पार्टियाँ दी गईं।

1988 ई. में ह्यूम और डफरिन के सम्बन्ध बिगड़ गये। इस कारण सरकारी नीति में परिवर्तन आ गया। अँग्रेज शासक, भारतीयों के समानता के दावे को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। 30 नवम्बर 1888 को लॉर्ड डफरिन ने अपने भाषण में कांग्रेस द्वारा की गई संसदीय सरकार की मांग की खिल्ली उड़ायी और कांग्रेस को एक सीमित वर्ग की संस्था कहा। डफरिन ने सख्त शब्दों में कहा- ‘भारत के कुछ सुशिक्षित व मनीषी यह चाहते हैं कि सरकार लोकतांत्रिक हो, नौकरशाही उसके अधीन हो और उन्हें राष्ट्र के खजाने पर अधिकार मिल जाए और शनैः शनैः ब्रिटिश पदाधिकारी उनके सामने करबद्ध खड़े हों।’

डफरिन द्वारा इस प्रकार के विचार प्रकट किये जाने के बाद ब्रिटिश शासक कांग्रेस के विरोधी बन गये और उसके समाप्त होने की कामना करने लगे। सरकार ने कांग्रेस के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया। चौथा अधिवेशन 1888 ई. में दिसम्बर के अंतिम दिनों में इलाहाबाद में होना था। वहाँ के गवर्नर ऑकलैण्ड कोलविन ने प्रयास किया कि उसके प्रांत में अधिवेशन के लिए पैसा एकत्र न हो, अधिवेशन के लिए कांग्रेस का प्रचार न होने पाए और अधिवेशन के लिए कांग्रेस को इलाहाबाद में कोई जगह न मिले। यदि महाराजा दरभंगा ने सहायता न की होती तो कांग्रेस को कोई स्थान नहीं मिल पाता। महाराजा ने लोथर कैसल नामक भवन खरीद कर कांग्रेस के लिए दे दिया। सरकारी अधिकारियों ने लोगों पर दबाव डालना आरम्भ किया कि वे कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित न हों। मुसलमानों, देशी राजाओं तथा जमींदारों को कांग्रेस से दूर रखने का प्रयास किया गया। सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने पर रोक लगा दी। भारत सचिव हेमिल्टन ने कांग्रेस को धन देने वालों पर निगरानी रखने का आदेश जारी कर दिया। कुछ प्रान्तों के गवर्नरों ने तो यह सुझाव भी दिया कि कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों पर रोक लगा दी जाये किन्तु यह सुझाव स्वीकार नहीं हुआ। 1895 ई. के बाद कांग्रेस के प्रति सरकार का दृष्टिकोण दिनों-दिन कठोर होता गया।

मुस्लिम नेता सर सैयद अहमद ने आरम्भ से ही कांग्रेस का विरोध किया था। उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने का अथक प्रयास किया। जब सरकार ने प्रारम्भ में कांग्रेस की सहायता की तो उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि यह सहायता बन्द की जाये। सरकार को हिन्दू कांग्रेस की तरफ नहीं झुकना चाहिए। जब सरकार ने कांग्रेस विरोधी नीति पर चलना आरम्भ किया तो सर सैयद अहमद को अत्यधिक प्रसन्न्ता हुई और वे कांग्रेस की निन्दा तथा सरकार की प्रशंसा करने लगे।

कांग्रेस के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति में परिवर्तन के कारण

कांग्रेस के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीति में केवल तीन सालों में ही आये बड़े परिवर्तन के पीछे कई कारण थे। इनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार से हैं-

(1.) कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में ह्यूम द्वारा आमंत्रित सदस्य ही आये थे जबकि बाद के अधिवेशनों में चुने हुए प्रतिनिधि आने लगे। इस कारण कांग्रेस ने संगठित राजनीतिक पार्टी का रूप लेना आरम्भ कर दिया था।

(2.) अभी तक कांग्रेस का विधान अस्तित्त्व में नहीं आया था, फिर भी वकील एसोसिएशन, शिक्षक एवं स्थानीय संस्थाओं के सदस्य अपने प्रतिनिधि चुनकर कांग्रेस के अधिवेशन में भेजते थे। इस प्रकार वे किसी न किसी रूप में चुने हुए प्रतिनिधि थे न कि आमंत्रित सदस्य।

(3.) कांग्रेस की लोकप्रियता में तेजी से वृद्धि हो रही थी। प्रथम अधिवेशन में केवल 72 आमंत्रित व्यक्तियों ने भाग लिया, दूसरे अधिवेशन में 431 ने और तीसरे में 607 चुने हुए प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसकी बढ़ती लोकप्रियता से सरकार का सतर्क हो जाना स्वाभाविक ही था।

(4.) कांग्रेस का नेतृत्व बुर्जुआ विचारधारा के लोगों के हाथों में था जिनमें वकीलों की संख्या सर्वाधिक थी। पहले अधिवेशन में इनकी संख्या 39 थी, जो दूसरे अधिवेशन में बढ़कर 166 और तीसरे अधिवेशन में 206 हो गई थी।

(5.) भारतीय राजाओं, जमींदारों तथा तालुकेदारों की एक बड़ी संख्या कांग्रेस से जुड़कर इसकी सक्रिय सहायता कर रही थी। कांग्रेस के अधिवेशनों में इन लोगों के प्रतिनिधि भी पहुंच रहे थे। राजाओं, जमींदारों एवं तालुकेदारों ने कांग्रेस के अधिवेशनों को सफल बनाने के लिये विपुल धन दिया। महाराजा दरभंगा ने कई साल तक कांग्रेस को 10,000 रुपये प्रति वर्ष दिये। विजयनगरम के महाराजा भी नियमित रूप से कांग्रेस को रुपया देते थे। यह वर्ग ब्रिटिश शासन का आधार स्तम्भ था किंतु कांग्रेस के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित कर रहा था इस कारण सरकार का उद्विग्न हो जाना स्वाभाविक था।

(6.) कांग्रेस का नेतृत्व यद्यपि बुद्धिजीवी नेताओं के हाथों में था तथापि 1987 से ही कांग्रेस में निम्न मध्यम वर्ग और रैयत का घुसना आरम्भ हो गया। इस कारण दूर स्थानों से आये प्रतिनिधियों के भाषणों में देशी भाषा का प्रयोग होने लगा। इससे गोरी सरकार, कांग्रेस को संदेह की दृष्टि से देखने लगी।

(7.) ब्रिटिश शासक जिन लोगों को नहीं चाहते थे, वेे भी कांग्रेस के अन्दर घुस आये और ब्रिटिश शासक कांग्रेस को जिस रास्ते पर ले जाना चाहते थे, कांग्रेस ने उसका उल्टा रास्ता पकड़ लिया था।

मद्रास अधिवेशन के बाद डफरिन और अन्य ब्रिटिश अधिकारी, कांग्रेस के विरुद्ध हो गए। सुप्रसिद्ध इतिहासकार अयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के लिए वे अपने वफादार चाकरों और खैरख्वाहों को लेकर उस पर टूट पड़े। एक तरफ वायसराय डफरिन और पश्चिमोत्तर प्रदेश के गवर्नर कोलविन ने, दूसरी तरफ बनारस के राजा और हैदराबाद के नवाब ने, तीसरी तरफ सर सैयद अहमद और राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद ने, चौथी तरफ ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने तथा पांचवी तरफ सर दिनशा मानकजी पेटिट और अन्य धनी पारसियों ने आक्रमण किये। ब्रिटिश नौकरशाही ने मुसलमानों और पारसियों को, हिन्दुओं के एक बड़े हिस्से को, जमींदारों और धनी-मानी व्यक्तियों को कांग्रेस से अलग कर देने और उसका दुश्मन बना देने की कोशिश की।’

उदारवादी नेता सरकार को नाराज नहीं करना चाहते थे। सरकार की इस नाराजगी को उन्होंने चुपचाप सहन कर लिया और वे अविचलित भाव से अपना काम करते रहे।

उदारवादियों की उपलब्धियाँ

उदारवादी नेतओं की कार्यविधि चाहे जो भी रही हो किंतु उनकी उपलब्धियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण थीं-

(1.) संवैधानिक विकास में योगदान

उदारवादी आन्दोलन का भारत के संवैधानिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। कांग्रेस ने ब्रिटिश संसद द्वारा भारत के शासन की जाँच करवाने में सफलता प्राप्त की। 1897 ई. का वेल्वी कमीशन, जिसने भारत सरकार के खर्चों की जांच की, उदारवादियों के प्रयत्नों का ही परिणाम था। कांग्रेस के प्रचार ने सरकार की निरंकुशता को कम किया। उन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप 1892 ई. का परिषद् अधिनियम पारित हो पाया। यह अधिनियम राष्ट्रीयता के युद्ध में भारतीयों की प्रथम विजय थी। इस अधिनियम से शासन की निरंकुशता में थोड़ी-बहुत कमी अवश्य आई। इसके द्वारा केन्द्रीय व्यवस्थापिका तथा प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई। पहली बार बजट पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार मिला। अप्रत्यक्ष चुनाव की प्रथा प्रारम्भ हुई। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का मानना था कि इस अधिनियम के द्वारा भारत में प्रतिनिधि शासन की नींव डाली गई।

उदारवादियों ने सरकार के कुछ प्रतिक्रियावादी कानूनों का सफलतापूर्वक विरोध किया। 1890 ई. में बंगाल सरकार ने अपने अधिकारियों को कांग्रेस अधिवेशन में दर्शक के रूप में भाग नहीं लेने का आदेश दिया। उदारवादियों ने इसकी घोर निन्दा करके इसे रद्द करवाया। 1894 ई. में केन्द्रीय सरकार ने 1879 ई. के लीगल प्रेक्टिशनर एक्ट में संशोधन करने के लिए व्यवस्थापिका सभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया। इस संशोधन से वकीलों को जिलाधीशों तथा रेवेन्यू कमिश्नरों के अधीन रहकर काम करना पड़ता और राजनीतिक क्षेत्र में स्वतन्त्रापूर्वक कार्य करने पर भी रोक लग जाती। इस विधेयक का मूल उद्देश्य कांग्रेस में सम्मिलित वकीलों को नियंत्रित करना था। उदारवादियों ने इस विधेयक का भरपूर विरोध किया जिससे सरकार ने विधेयक वापस ले लिया। कुछ विद्वान् 1909 के अधिनियम को भी उदारवादियों की उपलब्धि मानते हैं। इसका प्रारूप गोखले तथा अन्य भारतीय नेताओं की सलाह से तैयार किया गया था। 

(2.) प्रमुख अँग्रेजों से सहानुभूति का अर्जन

उदारवादियों के वैधानिक आन्दोलन एवं उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप ब्रिटिश जनता का ध्यान भारतीय राजनीतिक समस्याओं की ओर आकृष्ट हुआ और ब्रिटिश संसद के कुछ सदस्यों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति सहानुभूति प्रकट की। मजदूर दल के नेता चार्ल्स ब्रेडला ने खुले रूप से हिन्दुस्तानी सदस्य की उपाधि धारण की। अनेक अँग्रेज नेताओं ने भी अपने लेखों के माध्यम से इंग्लैण्ड की जनता का ध्यान भारतीय राजनीतिक मांगों की ओर आकर्षित किया। 1893 ई. में ब्रिटिश संसद के सर विलियम वेडरबर्न, डब्ल्यू. एम. केन. आदि सदस्यों ने एक भारतीय संसदीय समिति की स्थापना की। इस समिति का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश संसद में भारत के राजनीतिक सुधारों के प्रश्नों पर हलचल उत्पन्न करना था। भारतीय कांग्रेस इस समिति को भारतीय समस्याओं की जानकारी देती थी। इस प्रकार, उदारवादियों ने अँग्रेज नेताओं की जो सहानुभूति प्राप्त की उसके फलस्वरूप इंग्लैण्ड में राष्ट्रीय आन्दोलन के विरुद्ध किये जाने वाले प्रचार को अप्रभावी बनाने में सहायता मिली।

(3.) राष्ट्रीय आन्दोलन की शुरुआत

उदारवादी नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत की। यद्यपि वे जन साधारण के बीच जाकर काम नहीं करते थे तब भी समाचार पत्रों में छपने वाली रिपोर्र्टों के कारण कांग्रेस के कार्यक्रमों में रुचि लेने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। देश भर में कांग्रेस के कार्यों की प्रशंसा होने लगी। कांग्रेस के उन दिनों के नेता ही भारतीय राष्ट्रीयता के जनक माने जाते हैं। भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जगाने का श्रेय उन्हीं को था। अब आम आदमी भी सरकार के कार्यों पर ध्यान रखने लगा। 1901 से 1905 ई. के दौरान सरकार के विरुद्ध प्रबल विरोध उठ खड़ा हुआ। इस कारण कांग्रेस का राष्ट्रीय आन्दोलन विस्तृत होकर जन-आन्दोलन में बदल गया।

(4.) भारतीयों को राजनीतिक सूझबूझ की शिक्षा

उदारवादी नेतृत्व ने भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान की तथा भारतीयों में लोकतन्त्र के प्रति रुचि उत्पन्न की। दिसम्बर के अन्तिम दिनों में कांग्रेस प्रतिवर्ष अपना अधिवेशन करती थी जिसमें विभिन्न प्रान्तों के शिक्षित एवं राजनीतिक काम में रुचि रखने वाले लोग आते थे। ये लोग राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्नों पर विचार-विमर्श करते थे और अपने दृष्टिकोण को विनीत, तर्कयुक्त एवं राजभक्ति पूर्ण भाषा में लिखे हुए प्रस्तावों द्वारा व्यक्त करते थे। समाचार पत्रों में इन प्रस्तावों को और प्रस्तावों से सम्बन्धित नेताओं के व्याख्यानों को प्रकाशित किया जाता था तथा उन पर सम्पादकीय टिप्पणियाँ भी लिखी जाती थीं। हजारों भारतीय इन लेखों तथा टिप्पणियों को पढ़ते थे और अपने स्तर पर विचार-विमर्श करते थे। इस प्रकार, कांग्रेस ने भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा एवं सूझबूझ प्रदान की।

(5.) ब्रिटिश शासन के दोषों का खुलासा

उदारवादियों की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह भी है कि उन्होंने भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के दोषों से अवगत कराया। उन्होंने साम्राज्यवादियों द्वारा किये जा रहे शोषण तथा ब्रिटिश नौकरशाही के काम करने के तरीकों की खुलकर आलोचना की। इस प्रकार कांग्रेस ने सरकार की आलोचना करने तथा भारतीयों की मांगों को प्रकाश में लाने के लिए मंच प्रदान किया। इस कारण लॉर्ड डफरिन तथा अन्य ब्रिटिश अधिकारी कांग्रेस के विरोधी हो गये। उदारवादियों के सीमित क्रिया-कलापों के उपरान्त भी भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन का विरोध बढ़ता ही गया।

(6.) राष्ट्रीयता का प्रसार

उदारवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव को मजबूत किया जिससे जन साधारण में राष्ट्रीयता का प्रसार हुआ। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन से ही इसमें राष्ट्रगीत गाया जाने लगा। इसकी कुछ पंक्तियां वंदेमातरम से ली गई थीं। इसके बाद हर अधिवेशन में राष्ट्रगीत गायन की परम्परा बन गई। उदारवादी नेताओं ने कांग्रेस को नौकरशाही के क्रूर हाथों से बचाकर भविष्य के लिए उसकी जड़ें इतनी गहरी कर दीं कि बाद में नौकरशाही तो क्या स्वयं इंग्लैण्ड की सरकार भी कांग्रेस को नष्ट नहीं कर सकी।

सर हेनरी कॉटन ने कहा था- ‘इस संगठन के नेता देश में एक शक्ति बन गए हैं जिनकी आवाज देश के एक कोने से दूसरे कोने तक निनादित होती है।’

इस काल में कांग्रेस द्वारा किये गये कार्यों का लाभ भारत की आजादी तक होता रहा। कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी ने लिखा है- ‘यदि पिछले तीस वर्षों में कांग्रेस के रूप में एक अखिल भारतीय संस्था, राजनैतिक क्षेत्र में कार्यरत न रहती तो सम्भवतः गांधीजी का कोई आन्दोलन सफल नहीं होता और न ही सरदार पटेल की अध्यक्षता में कांग्रेस इतनी कुशल यंत्र प्रमाणित होती।’

पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है- ‘उन्होंने ही (नींव में दबे हुए ईंट-गारे की तरह) औपनिवेशिक स्वशासन, साम्राज्य के अन्तर्गत गृह-शासन, स्वराज्य तथा सबसे ऊपर पूर्ण स्वतन्त्रता की मंजिलों वाले ऊपर के ढांचे के निर्माण को सम्भव बनाया।’

उदारवादी नेतृत्व की आलोचना

(1.) नेताओं में त्याग की कमी

उदारवादी नेताओं ने जो साधन अपनाये उन्हें राजनीतिक भिक्षावृत्ति कहकर उनकी आलोचना की जाती है। गुरुमुख निहालसिंह ने लिखा है- ‘सम्भवतः गोखले को छोड़कर कांग्रेस के उदार नेता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए त्याग करने तथा कष्ट सहने को तैयार नहीं थे। इसलिए वे भारत के लिए शासन-सुधारों की भीख मांगना ही पसन्द करते थे, उनके लिए मांग करना नहीं।’

डॉ. पुरुषोत्तम नागर ने लिखा है- ‘उदारवादियों ने भारत के ब्रिटिश शासकों को प्रसन्न रखते हुए उनकी दयालुता एवं न्यायप्रियता की दुहाई देकर स्वशासन की ओर बढ़ने का प्रयत्न किया। साहस एवं कष्ट सहन करने की क्षमता आदि के अभाव के कारण कारावास का जीवन उनके लिए असह्य था। वे अपने पद, व्यवसाय तथा सामाजिक स्तर को अक्षुण्ण रखते हुए भारत में स्वराज्य की स्थापना का स्वप्न देखते थे।’

एक अन्य इतिहासकार ने उदारवादियों की आलोचना करते हुए लिखा है- ‘गांधी पूर्व युग के कॉलर-टाई धारी राष्ट्रवादी, शहरों में लेक्चर देते थे जहाँ कार उन्हें लेने पहुंचती थी और जहाँ टी तथा टिफिन उनके लिये तैयार रहता था। वे क्रिसमस की छुट्टियों में वार्षिक बैठकें करते थे, ब्रिटिश राज के शुभाशीषों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते थे, भारतीयों के लिये कुछ दुख दर्द रखते थे। बर्क और ग्लड्स्टन को उद्धृत करते थे, हिज मेजस्टी के स्वास्थ्य की कामना करते थे तथा पुनः स्वास्थ्यप्रद मौसम के आगमन तक विसर्जित हो जाते थे….।’

(2.) मनोवृत्ति के सम्बन्ध में आलोचना

उदारवादी नेता, ब्रिटिश शासकों की न्यायप्रियता में विश्वास जताते थे। उनका मानना था कि प्रजातन्त्र के समर्थक अँग्रेज, भारत के लिए भी इंग्लैण्ड जैसी व्यवस्था का समर्थन करेंगे। 1895 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- ‘इंग्लैण्ड से हमें प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन की आशा है…….इंग्लैण्ड से वह महान् आदेश आएगा जिससे हमारी जनता को मताधिकार मिलेगा। इंग्लैण्ड हमारा राजनीतिक नेता है।’

उदारवादियों ने भारतीयों की इंग्लैण्ड के प्रति वफादारी और उनकी देशभक्ति के बीच गहरा सम्बन्ध स्थापित करने में कभी असुविधा अनुभव नहीं की। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने लिखा है- ‘हमारा यह पक्का विश्वास है कि केवल ब्रिटिश सरकार के माध्यम से ही उन राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है जिनकी तीव्र अभिलाषा अँग्रेजी शिक्षा और अँग्रेजी शासन ने हम से की है।’

तत्कालीन उदारवादी नेताओं का ऐसा विश्वास उनकी गम्भीर भूल समझी जाती है। क्योंकि अँग्रेजों ने उदारवादियों के प्रस्तावों और प्रार्थना पत्रों पर कभी ढंग से ध्यान नहीं दिया। उदारवादी नेता, भारत और ब्रिटिश हितों को एक समझते थे जबकि वास्तविकता यह थी कि अँग्रेज भारत को अपना एक उपनिवेश मात्र समझते थे।

(3.) राजनीतिक सुधारों की प्राप्ति नहीं

उदारवादी प्रतिवर्ष अपने प्रस्तावों एवं याचिकाओं के माध्यम से राजनीतिक सुधारों की मांग करते रहे परन्तु विदेशी शासन से राजनीतिक सुधारों की मांग का नतीजा निराशा जनक रहा। भारत में पनपने वाले क्रान्तिकारी असन्तोष के लिए ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को सेफटी वाल्व की भांति प्रयोग किया और प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपनाया परन्तु जब कांग्रेस, सरकार की इच्छानुसार कार्य न कर सकी तो सरकार ने कांग्रेस-विरोधी रुख अपना लिया। उदारवादियों की यह धारणा नितान्त मिथ्या थी कि राजनीतिक सुधारों के विषय में कांग्रेस ने सरकार को निर्देश देने का साहस किया। क्योंकि सरकार ने उसके सुझावों को मानने से इन्कार कर दिया। उदारवादी राजनीतिक सुधारों की प्राप्ति में असफल रहे।

(4.) आम जनता का सहयोग नहीं

प्रायः यह कहा जाता है कि उदारवादी नेता अपने आन्दोलन को जन-आन्दोलन नहीं बना पाये। उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन का सामाजिक आधार केवल शहरी शिक्षित वर्ग तक ही सीमित था। शहरी शिक्षित वर्ग में भी वकील, डॉक्टर, पत्रकार, अध्यापक, कुछ व्यापारी तथा कुछ भूमिपति कांग्रेस के आंदोलन से जुड़ पाये। अधिकांश औद्योगिक, व्यापारिक, पूँजीपति तथा जमींदार आदि प्रभावशाली लोग कांग्रेस के आंदोलन से दूर थे। इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन का कार्य उच्च मध्य वर्ग अथवा शिक्षित अभिजात्य वर्ग के हाथों में था जिनका आम जनता की राजनीतिक समझ में बहुत कम विश्वास था। उनका मत था कि जन साधारण में राजनीतिक संघर्ष करने के लिये आवश्यक शक्ति एवं चारित्रिक दृढ़ता का अभाव है। इस दृष्टिकोण के कारण उदारवादी नेताओं की कार्यप्रणाली बहुत सुस्त रही। उनका मानना था कि अभी वह समय नहीं आया था जब भारतीय जनता विदेशी शासन को चुनौती दे सके।

उदारवादी आंदोलन का मूल्यांकन

कुछ लोगों के मतानुसार राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में प्रारम्भिक उदारवादी नेताओं का काल सबसे कम महत्त्वपूर्ण रहा क्योंकि उस काल के कार्यक्रमों में वह क्रियाशीलता दिखाई नहीं देती जो राष्ट्रीय आन्दोलन में होनी चाहिए। लाला लाजपतराय ने लिखा है- ‘राष्ट्रीय आन्दोलन के तत्त्वों की कमी थी, वह एक ऐसा रुक-रुक कर चलने वाला आन्दोलन था जो उसी वर्ग की सहानुभूति एवं सद्भावना पर निर्भर था, जिसके विरुद्ध यह चलाया गया था। यह आन्दोलन जनता द्वारा न तो संयोजित था और न उसके द्वारा अनुप्राणित था।’

वस्तुतः ऐसा कहना उचित नहीं है उस काल की कांग्रेस में राष्ट्रीय आंदोलन के तत्त्वों की कमी थी। कांग्रेस की स्थापना, 1857 की क्रांति के केवल 28 वर्ष बाद हुई थी। उस समय सरकार फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी और उसे ऐसी सूचनाएँ मिल रही थीं कि यदि भारतीय जनता के गुस्से को निकलने के लिये सुरक्षा नली नहीं दी गई तो वह ज्वाला के रूप में फटेगा। कांग्रेस की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई थी। फिर भी अपनी स्थापना के तीन वर्ष के भीतर ही कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के मार्गदर्शन से मुक्ति पा ली और भारतीयों के अधिकारों के विरुद्ध भारत तथा इंग्लैण्ड में अच्छा-खासा जनमत जगा लिया। यह उसकी बहुत बड़ी सफलता थी। यदि कांग्रेस गोरी सरकार के विरुद्ध उग्र आंदोलन करती तो निश्चय ही गोरी सरकार उसे कुचल कर समाप्त कर देती। कांग्रेस के लिये यह बिल्कुल भी उचित नहीं होता क्योंकि अभी भारत में उसका जनाधार न के बराबर था। ऐसी पस्थितियों में इस काल के नेताओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन की दृढ़ नींव डाली और ऐसे मार्ग का निर्माण किया जिस पर चलकर आजादी प्राप्त की गई। उन्होंने जीवन के प्रति वैज्ञानिक पद्धति को अपनाने पर बल दिया तथा सामाजिक समानता के आधार पर भारतीय समाज के पुनर्निर्माण पर बल दिया।

1897 ई. में सी. शंकर नायर ने उदारवादियों के विचारों का सार प्रस्तुत करते हुए कहा- ‘हम अपनी प्रणाली की उन सब बुराइयों को दूर करना चाहते हैं, जो हमारी उन्नति के मार्ग में बाधक हैं, उन पाश्चात्य सभ्यता के गुणों को अपनाना चाहते हैं जो हमारे लिए गुणकारी हैं और यह तब तक असम्भव है जब तक कोई सरकार पुराने ढांचे की सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहे……. हमें धर्मनिरपेक्ष सरकार की आवश्यकता है जो उदारवादी विचारों के माध्यम से उन्नति में सहायक हो।’

गुरुमुख निहालसिंह ने लिखा है- ‘उस समय की कांग्रेस राजभक्ति प्रदर्शित करती थी। उसकी संकुचित नीति नरमदली थी और उसकी भाषा निवेदनात्मक ही नहीं वरन् याचनापूर्ण थी; तथापि उसने उस युग में भारतवासियों  में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने; उन्हें एकसूत्र में बांधने और उनमें राष्ट्रीय एवं राजनीतिक जागृति फैलाने के लिए महत्त्वपूर्ण तथा मौलिक काम किया था।’

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उदारवादियों ने याचक रहते हुए भी भारतीयों के लिये प्रतिनिधि संस्थाओं में अधिकाधिक प्रतिनिधित्व देने, विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने, प्रेस को स्वतन्त्रता देने तथा उच्च प्रशासनिक पदों पर भारतीयों को भी समान रूप से नियुक्ति देने के लिये सरकार पर दबाव बनाया। उदारवादी नेताओं ने आर्थिक विकास के प्रति राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने कराधान की एक न्यायसंगत पद्धति अपनाने की वकालत की जिसके अन्तर्गत जनता भुगतान कर सकने में समर्थ हो सके। उन्होंने औद्योगीकरण पर बल दिया, जिससे राष्ट्रीय आय के साधनों में वृद्धि हो सके और बेरोजगारों को काम मिल सके परन्तु उदारवादियों ने किसानों और श्रमिकों के हितों की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया। फिर भी उनकी सफलताएँ सरहानीय थीं और देश की आजादी की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हुईं।

अध्याय – 56 : उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन (गरमपंथी कांग्रेस) – 1

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भारत में उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा, कांग्रेस के जन्म से बहुत पहले जन्म ले चुकी थी। 1857 ई. की क्रांति उसी की अभिव्यक्ति थी। पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र तथा बंकिमचंद्र चटर्जी ने उग्र राष्ट्रवाद के लिये आधार भूमि तैयार की क्योंकि उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन के चेहरे पर हिन्दू लक्षण बहुत स्पष्ट था।

कांग्रेस के उदारवादी नेता ब्रिटिश सरकार से विधान सभाओं में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि, भारत सचिव की कौंसिल में भारतीयों की नियुक्ति, सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अँग्रेजों के समान अवसर, भू-राजस्व की दर में कमी, भारतीय उद्योगों को सरंक्षण आदि मांगें करते रहे किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इन मांगों पर बहुत कम ध्यान दिया। इससे कुछ युवा कांग्रेसी नेताओं का वह भ्रम टूट गया कि इंग्लैण्ड की सरकार भारत में भारतीयों के लिये भी वैसी ही व्यवस्था करेगी जैसी कि अँग्रेजों के लिये इंग्लैण्ड में थी। उदारवादी नेता गोपालकृष्ण गोखले ने स्वीकार किया कि सरकार अपने वचनों का पालन नहीं कर रही थी और जो वायदे उसने किये थे, उनसे पीछे हट रही थी।

उग्र राष्ट्रवादियों का उदय

ब्रिटिश सरकार द्वारा उदारवादी नेताओं की मांगों पर ध्यान न दिये जाने के कारण कांग्रेस में युवा नेताओं का एक नया गुट उभर कर सामने आया जिसने संघर्ष के माध्यम से सरकार पर दबाव डालने का निश्चय किया। अँग्रेज लेखकों ने इस नवीन नेतृत्व को उग्र राष्ट्रीयता, उग्रवादी तथा गरम दल नेता कहा। उनके द्वारा चलाये गये आंदोलन को उग्र राष्ट्रवाद, उग्रवाद तथा रेडिकल नेशनलिस्ट मूवमेंट कहा जाता है। इन युवा उग्रवादी नेताओं ने वृद्ध एवं उदारवादी नेताओं का विरोध किया जो अँग्रेजों की न्यायप्रियता में अटूट विश्वास रखते थे और आवेदन-निवेदन, तथा स्मरण-पत्रों के माध्यम से भारतीयों को राजनीतिक अधिकार दिलवाना चाहते थे। उग्र राष्ट्रवादियों को उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की शैली पसन्द नहीं आई। वे उग्र जन-आन्दोलन के माध्यम से भारतीयों के लिये राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने के लिए अधीर थे। उग्रवादी नेताओं का मानना था कि कमजोर विरोध तथा अस्थिर वैधानिक सुधारों से भारत की समस्याओं का समाधान नहीं होगा। उस काल में कतिपय प्रमुख उग्र राष्ट्रवादी नेता इस प्रकार से थे-

बालगंगाधर तिलक

कांग्रेस में उग्रराष्ट्रवाद के जनक बाल गंगाधर तिलक थे। वे कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही उग्र राष्ट्रवाद का दीप प्रज्वलित कर चुके थे। 1882 ई. में बाल गंगाधर तिलक ने कोल्हापुर के राजा का, वहाँ के ब्रिटिश रेजीडेण्ट के विरुद्ध समर्थन करते हुए, केसरी में तथ्यों का प्रकाशन किया। इस कार्य के लिये तिलक को 4 माह की सजा हुई। 1896 ई. में बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस के मंच से कहा- ‘गत 12 वर्षों से हम चिल्ला रहे है कि शासन हमारी बातों को सुने किन्तु सरकार हमारी आवाज को नहीं सुनती, बन्दूक की आवाज को सुनती है। हमारे शासकों ने हमारे ऊपर अविश्वास किया है। अब हमें अधिक शक्तिशाली संवैधानिक साधनों के आधार पर अपनी बात उन्हें सुनानी चाहिए।’

 1897 ई. में तिलक ने कमिश्नर रैण्ड की हत्या को न्याय-संगत ठहराते हुए एक लेख लिखा। इसके लिये उन्हें 18 माह की सजा हुई। 1899 ई. में बम्बई के गवर्नर सैण्डहर्स्ट ने प्लेग ग्रस्त महाराष्ट्र की जनता पर आतंकपूर्ण कार्यवाही की। तिलक ने 1899 ई. के लखनऊ अधिवेशन में सैण्डहर्स्ट के विरुद्ध प्रस्ताव रखा किंतु उदारवादियों के दबाव में उन्हें वह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा।

इस प्रकार 19वीं सदी के अंतिम दशक में तिलक की अगुवाई में कांग्रेस में उग्र राष्ट्रवाद का प्रवेश हुआ। तिलक का कहना था कि हर हाल में विदेशी राज का विरोध करो। तिलक का आदर्श था- ‘दूसरों की सेवा और स्वयं के लिये कष्ट।’ वे गांव की चौपाल पर बैठकर बात करते थे। वे पिटीशिन (याचिका) की बजाये प्रोटेस्ट (विरोध) करने में विश्वास करते थे। तिलक ने स्पष्ट घोषणा की- ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर ही रहेंगे……. स्वराज्य क बिना कोई सामाजिक सुधार नहीं हो सकते, न कोई औद्योगिक प्रगति, न कोई उपयोगी शिक्षा और न ही राष्ट्रीय जीवन की परिपूर्णता। यही हम चाहते हैं और इसी के लिये ईश्वर ने मुझे इस संसार में भेजा है।’

यही कारण है कि ब्रिटिश पत्रकार वेलेंटाइन शिरोल ने तिलक को फादर ऑफ इण्डियन अनरेस्ट (भारतीय असन्तोष का जनक) कहा है। कांग्रेस में गरम दल की स्थापना का श्रेय तिलक को ही है।

महर्षि अरविंद घोष

यदि तिलक भारतीय असंतोष के जनक थे तो अरविंद हिन्दू धर्म के राष्ट्रीयकरण के शिल्पी थे। अगस्त 1893 में अरविन्द घोष ने न्यू लैम्प्स फॉर ओल्ड (पुरानों के स्थान पर नये दीप) शीर्षक से एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने विचार प्रकट किया कि विरोध-पत्रों, प्रार्थना-पत्रों और स्मृति-पत्रों से देश कभी स्वतन्त्र नहीं हो सकता। अपने वन्देमातरम् नामक पत्र में उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्य करने और संघर्ष करने के लिए एक कार्यक्रम बनाया। इस कार्यक्रम में उन्होंने भारतीयों को स्वदेशी, असहयोग, राष्ट्रभाषा और बहिष्कार का मन्त्र दिया।

अरविंद घोष ने भारतीयों को स्पष्ट मार्ग दिखाते हुए कहा- ‘स्वतंत्रता हमारे जीवन का उद्देश्य है। हिन्दू धर्म ही हमारे इस उद्देश्य की पूर्ति करेगा। राष्ट्रीयता एक धर्म है और ईश्वर की देन है….. भारत पुनः एक गुरु और मार्ग दर्शक के रूप में अपनी भूमिका निभाए, लोगों की आत्ममुक्ति हो ताकि राजनीतिक जीवन में वेदान्त के आदर्श प्राप्त किये जा सकें। यही भारत के लिये सच्चा स्वराज्य होगा। 1905 ई. में जब बंगभंग आंदोलन चला तो अरविंद ने घोषित किया कि राष्ट्रवाद कभी मर नहीं सकता क्योंकि यह ईश्वर ही है जो बंगाल में कार्य कर रहा है, ईश्वर को कभी मारा नहीं जा सकता, ईश्वर को जेल नहीं भेजा जा सकता।’

लाला लाजपतराय

उग्रवादी आंदोलन के प्रमुख नेता लाला लाजपतराय को पंजाब केसरी तथा शेरे-पंजाब कहा जाता था। उन्होंने पंजाबी तथा वन्देमातरम् नामक दैनिक समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। वे आर्यसमाज के प्रबल समर्थक थे। 1902 ई. के कलकत्ता अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। उन्हें सरदार अजीतसिंह के साथ मिलकर कोलोनाइजेशन बिल के खिलाफ आंदोलन चलाने के अपराध में बर्मा की माण्डले जेल में बंद किया गया। उनका कहना था– ‘जैसे दास की आत्मा नहीं होती उसी प्रकार दास जाति की कोई आत्मा नहीं होती। आत्मा के बिना मनुष्य निरा पशु है इसलिये एक देश के लिये स्वराज्य परम आवश्यक है और सुधार अथवा उत्तम राज्य इसके विकल्प नहीं हो सकते।’ 

विपिनचंद्र पाल

विपिनचंद्र पाल; लाल (लाला लाजपतराय), बाल (बालगंगाधर तिलक) और पाल (विपिनचंद्र पाल) की उग्रवादी तिकड़ी (बिग थ्री) में थे। उनका कहना था- ‘देश को रिफॉर्म (सुधार) की नहीं अपितु री-फार्म (फिर से निर्माण) की आवश्यकता है….. अँग्रेजों को अपनी इच्छा से कर लगाने और उसे खर्च करने का अधिकार छोड़ना होगा।’

अन्य बड़े नेता: उदारवादी नेताओं की नीतियों की आलोचना करने वालों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, विवेकानन्द और लाला मुंशीराम  भी थे। फरवरी 1902 में स्वामी विवेकानन्द ने स्वामी अखण्डानन्द को एक पत्र लिखकर उनसे पूछा- ‘भयंकर अकाल, बाढ़, बीमारी और महामारी के इन दिनों में बताइए कि आपके कांग्रेसी लोग कहाँ हैं? क्या सिर्फ यही कहने से काम चलेगा कि देश की सरकार हमारे हाथ में सौंप दीजिए? और उनकी बात सुनता भी कौन है ? अगर कोई आदमी काम करता है तो क्या उसे किसी चीज के लिए मुँह खोलना पड़ता है?’

इस प्रकार, कांग्रेस में उग्र राष्ट्रीयता की भावना पनपने लगी। बाल, पाल, लाल, तथा अरविंद की चतुष्टयी (फोर बिग) और उनके अनुयायी, भारतीयों की शक्ति को संगठित करके ब्रिटिश सरकार पर इतना दबाव डालना चाहते थे कि सरकार उनकी मांगों को ठुकरा न सके और भारतीयों को उनका देश सौंप दे।

उग्रवाद की उत्पत्ति के कारण

कांग्रेस में उग्रवादी नेतृत्व के उदय के कारणों को मोटे तौर पर दो भागों में रखा जा सकता है- (1.) राष्ट्रीय स्तर पर घटित घटनाएँ और (2.) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर घटित घटनाएँ।

राष्ट्रीय स्तर पर घटित घटनाएँ

(1.) 1892 ई. का अधिनियम: कांग्रेस के उदारवादी नेतृत्व द्वारा किये गये निवेदनों के कारण ब्रिटिश सरकार ने 1892 ई. का अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम को भारतीयों के स्वतन्त्रता संग्राम की प्रथम विजय के रूप में देखा गया किंतु यह भारतीयों को सन्तुष्ट नहीं कर सका। इस अधिनियम में निर्वाचन के सिद्धान्त को कोई स्थान नहीं दिया गया। जो व्यक्ति विधान परिषदों के लिए निर्वाचित होते थे, वे जनता के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं थे। निर्वाचित प्रतिनिधि को जब गवर्नर जनरल विधान सभा में मनोनीत करता था तभी वह बैठकों में भाग ले सकता था। निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम रखी गई और इन सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं रखा गया। बजट पर विधान परिषद् का कोई नियन्त्रण नहीं था। सदस्यों को बजट पर मतदान अथवा संशोधन उपस्थित करने का अधिकार नहीं था। सदस्य पूरक प्रश्न भी नहीं पूछ सकते थे। प्रश्न पूछने के अधिकार पर लगभग प्रतिबन्ध था। लॉर्ड लैंसडाउन ने कहा था- ‘प्रश्न इस प्रकार के होने चाहिए, जिनमें केवल सम्मति प्रकट करने की प्रार्थना हो, उनमें किसी प्रकार की तर्क-भावना, कल्पना तथा मानहानि पूर्ण भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए।’

इस अधिनियम से कार्यकारिणी के अधिकारों में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आई। मदनमोहन मालवीय ने लिखा है- ‘इस अधिनियम से भारतीयों को उनके देश की शासन व्यवस्था में कोई वास्तविक अधिकार प्राप्त नहीं हुआ।’

अँग्रेजों की इस कारस्तानी से भारतीयों में उग्र विरोध को विकसित होने का अवसर मिला।

(2.) राजनीतिक भिक्षावृत्ति से आस्था का हटना: 1892 से 1905 ई. तक ब्रिटेन में अनुदार दल (टोरी दल) की सरकार रही। यह दल भारत में किसी तरह के राजनीतिक सुधारों का पक्षधर नहीं था। उसने कांग्रेस की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया तथा भारतीयों के प्रति जातीय-विभेद की नीति को व्यापक रूप में लागू किया। इन वर्षों में गोरी सरकार ने भारत में ऐसे कानून लागू किए जिनसे जनता और नौकरशाही में खुला विरोध आरम्भ हो गया। अँग्रेजी कुशासन के विरोध में कांग्रेस के युवा नेताओं में उग्रता आई तथा उनमें अपने नेताओं की राजनीतिक भिक्षा-वृत्ति में आस्था समाप्त हो गई। ब्रिटेन के अनुदार दल ने भारत के उदारवादी नेतृत्व की अवहेलना की और भारत के शिक्षित वर्ग का अपमान किया। सरकार की इस मनोवृत्ति ने बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय, अरविन्द घोष आदि उग्रपंथी नेताओं को अँग्रेजों के विरुद्ध कटु भाषा का प्रयोग करने के लिये उद्वेलित किया।

उदारवादी नेता गोपालकृष्ण गोखले ने भी ब्रिटेन के अनुदार दल के कार्यों की आलोचना की। कांग्रेस के आठवें अधिवेशन में उन्होंने लॉर्ड लैन्स डाउन की सरकार को चेतावनी देते हुए कहा- ‘उसकी शिक्षा, स्थानीय स्वशासन और नौकरियों में भारतीयों की भर्ती से सम्बन्धित नीतियाँ संकट का आह्वान कर रही हैं।’

लॉर्ड एल्गिन (1894-1898 ई.) के काल में अँग्रेज अधिकारियों द्वारा अपनाई गई दमन की नीति से भारत के राजनीतिक असंतोष में उबाल आ गया। 1898 ई. में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में आर. सी. दत्त ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पिछले दो वर्षों में भारतीय जनता में असन्तोष की और भी वृद्धि हुई है। लाला लाजपतराय ने कहा– ‘भारतीयों को अब भिखारी बने रहने में सन्तोष नहीं कर लेना चाहिए और न अँग्रेजी सरकार के सामने गिड़गिड़ाना चाहिए…….. अँग्रेजों द्वारा कांग्रेस की मांगों की उपेक्षा का कारण यह था कि अधिकांश कांग्रेसी नेताओं में त्याग और बलिदान की भावना नहीं है।’

(3.) भारत का तीव्र आर्थिक शोषण: अँग्रेजों ने लगभग सवा सौ वर्ष के शासन में भारत के लगभग समस्त निर्याताकारी उद्योग समाप्त करके भारत को कच्चे माल की मण्डी बना दिया। इस कारण भारत से करोड़ों रुपया प्रति वर्ष इंग्लैण्ड जाने लगा और भारत की जनता निर्धन हो गई। 1870 ई. के बाद भारतीय नेताओं का ध्यान इस भयावह आर्थिक शोषण की ओर गया। भारतीय उद्योगों का विनाश, कपास की बनी चीजों पर आयात कर में कमी और भारतीय मिलों में तैयार होने वाले कपड़े पर 7.5 प्रतिशत उत्पादन कर, कृषि पर भू-राजस्व का अत्यधिक बोझ, किसानों की बढ़ती हुई निर्धनता और शासन के उच्च पदों से भारतीयों को दूर रखने की मनोवृत्ति आदि कारकों से स्पष्ट था कि अँग्रेज भारत को हर तरह से लूट रहे हैं। उनके शासन का मूल उद्देश्य यही था। इस कारण भारत में उग्रवादी विचारों का पनपना स्वाभाविक था।

दादाभाई नौरोजी, रमेशचन्द्र दत्त, महादेव रानाडे, डी. एन. वाचा और सर विलियम डिग्वी आदि विचारकों ने अपने लेखों एवं पुस्तकों द्वारा अँग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति को उजागर कर दिया। उन्होंने बताया कि भारत में महत्त्वपूर्ण व्यापारिक प्रतिष्ठान अँग्रेजों के नियन्त्रण में हैं। कपड़ा उद्योग भारतीयों के नियन्त्रण में होते हुए भी अँग्रेजों ने उसके विकास में अनेक बाधाएँ खड़ी कर दी हैं। सरकार की नीतियों के कारण निम्न-मध्यम वर्ग में बेकारी की समस्या उग्र रूप धारण कर रही थी। अकाल, भूचाल आदि प्राकृतिक प्रकोपों से जनता में असन्तोष अधिक बढ़ गया।

शिक्षित वर्ग के असन्तोष और जनता के कष्टों ने उग्र राष्ट्रीयता को बढ़ावा दिया। कांग्रेस के युवा नेता समझ गये कि जब तक भारत पराधीन रहेगा, तब तक उसका आर्थिक शोषण होता रहेगा और जनता निर्धनता के चंगुल से मुक्त नहीं हो सकेगी। इस कारण बहुत से लोग ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फैंकने के लिये कटिबद्ध हो गये।

(4.) अकाल तथा प्लेग के समय सरकार की दुष्टता: गुरुमुख निहाल सिंह ने लिखा है- ‘देश में अकाल, प्लेग आदि राष्ट्रीय विपत्तियों का सामना करने के लिए सरकार ने संतोषजनक नीति नहीं अपनाई।’

1896-97 ई. तथा 1899-1900 ई. में देश में पड़े भयंकर दुर्भिक्ष तथा उसके बाद फैली महामारी से लाखों लोग मर गये। जनता को राहत पहुंचाने में गोरी सरकार ने अत्यंत धीमी गति से कार्य किया। बम्बई प्रान्त में फैले प्लेग की रोकथाम के लिए अँग्रेज अधिकारियों ने अमानवीय ढंग से लोगों को बलपूर्वक घरों से निकाल दिया। पूना में यह काम सेना को सौंपा गया और गोरे सैनिकों को घर-घर जाकर रोगियों की जांच करने को कहा। गोेरे सैनिक भारतीयों के घरों में घुसकर स्त्रियों की जांच करने के बहाने उनके साथ अत्यन्त अशिष्ट व्यवहार करते थे। इनसे जनता का क्रोध भड़क उठा और एक नौजवान दामोदर हरि चापेकर ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा बालकृष्ण चापेकर ने उसके सहायक लेफ्टिनेंट एयर्स्ट की हत्या कर दी। चापेकर बन्धुओं को मृत्युदण्ड दिया गया। उनकी सहायता करने के आरोप में नाटू बन्धु बंदी बनाये गये। उन्हें बिना मुकदमा चलाए चार-पांच माह तक जेल में रखा गया और फिर देश निकाला दे दिया गया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, चापेकर बंधु इस बात से नाराज थे कि अँग्रेजों ने 400 ब्राह्मणों को घुड़सवार सेना में लेने से इसलिये मना कर दिया क्योंकि अँग्रेजों को लगता था कि ब्राह्मण जाति के सैनिक अधिक विद्रोही प्रकृति के हैं।

(5.) सांस्कृतिक नवजागरण: अँग्रेजों ने भारतीयों को यह समझाने का प्रयास किया कि पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति, भारत की सभ्यता एवं संस्कृति से श्रेष्ठ है। अँग्रेजों ने भारत में जिस प्रकार की शिक्षा का विस्तार किया, उसमें भी उनका ध्येय भारत में पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना था। कांग्रेस के उदारवादी नेता भी पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगे हुए थे परन्तु उन्नीसवीं सदी के अन्त तथा बीसवीं सदी के प्रारम्भ में भारत के अनेक क्षेत्रों में धार्मिक पुनरुत्थान ने शिक्षित वर्ग में पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति के विरुद्ध प्रतिक्रिया उत्पन्न की। आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसायटी आदि धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं के प्रचार ने जनता का ध्यान अपने प्राचीन गौरव की ओर आकर्षित किया। स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म की महानता सिद्ध करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। इन महान् धार्मिक नेताओं ने जनता में आत्म-विश्वास तथा नवीन स्फूर्ति उत्पन्न की। इसी समय राष्ट्रीय साहित्य का भी विकास हुआ। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे साहित्यकारों ने भारतवासियों का ध्यान सामाजिक विद्रूपताओं की ओर खींचा। इस युग का बंगला साहित्य देशभक्ति की उदात्त भावनाओं से सिंचित था। बंकिमचन्द्र का उपन्यास आनन्द मठ सन्यासी आंदोलन पर लिखा गया था। इसका गीत वन्दे मातरम् स्वतंत्रता की लड़ाई का प्रमुख गीत बन गया। जब श्रीमती एनीबीसेंट ने कहा कि विश्व का कोई भी धर्म इतना पूर्ण नहीं है, जितना हिन्दू धर्म, तो भारतीयों का आत्म विश्वास चरम पर पहुंच गया। उनमें पाश्चात्य शिक्षा, पाश्चात्य जीवन शैली एवं पश्चिमी वस्तुओं से विरक्ति होने लगी। गुरुमुख निहाल सिंह का मत है कि उग्रवादी आन्दोलन को देश के धार्मिक पुनरुत्थान से प्रेरणा मिली थी।

(6.) अँग्रेजों एवं एंग्लो-इण्डियनों का अंहकार युक्त व्यवहार: अँग्रेजों और एंग्लो-इण्डियनों के अंहकार युक्त व्यवहार ने भारत में उग्रवाद के जन्म एवं विकास में बड़ा योगदान दिया। अँग्रेज, भारतीयों को निम्न प्रजाति का समझते थे तथा घृणा की दृष्टि से देखते थे। आंग्ल-भारतीय समाचार पत्र खुले रूप में अँग्रेजों को भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करने के लिये प्रोत्साहित करते थे। सरकार की ओर से भी उन्हें प्रोत्साहन एवं सरंक्षण मिलता था। बहुत से ब्रिटिश सैनिक तथा अधिकारी, भारतीयों के साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार करते थे। सरकार उन लोगों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती थी। किसी भारतीय की हत्या कर देने पर भी अँग्रेजों को नाममात्र की सजा दी जाती थी। लॉर्ड कर्जन की नीतियों ने जातिभेद की नीति को काफी प्रोत्साहित किया। कर्जन द्वारा रंग, क्षेत्र एवं जाति के आधार पर किये गये भेदभाव ने भारतीयों में उग्रवादी विचारों को जन्म दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में कर्जन ने भारतयों के जीवन आदर्श पर अनैतिक रूप से कठोर प्रहार करते हुए कहा- ‘सत्य का उच्च आदर्श, पाश्चात्य अवधारणा है। इस आदर्श ने पहले पश्चिम की नैतिक परम्परा में उच्च स्थान बनाया, बाद में यह आदर्श पूर्व में भी आया जहाँ पहले धूर्तता और कुटिलता सम्मान प्राप्त करती थी….. भारत राष्ट्र जैसी कोई चीज नहीं है।’

(7.) आंग्ल-भारतीय पत्रों का भारत विरोधी दृष्टिकोण: हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवाद के उदय का एक कारण आंग्ल भारतीय समाचार पत्रों द्वारा भारत विरोधी दृष्टिकोण का प्रचार करना था। इन समाचार पत्रों में शिक्षित भारतीयों को गुलाम, घुड़सवार भिखमंगे, नीच जाति आदि गालियां दी जाती थीं। फिर भी, सरकार इन पत्रों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती थी। इससे युवा भारतीयों का उत्तेजित होना स्वाभाविक था।

 (8.) लैन्स डाउन और लॉर्ड एल्गिन का कार्यकाल: भारत के गवर्नर जनरल रहे लॉर्ड लैन्स डाउन (1888-94 ई.) और लॉर्ड एल्गिन (1894-98 ई.) भारतीयों से घृणा करते थे। उन्होंने भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा पैदा करने वाले कई काम किये। दोनों के काल में अनेक दमनकारी कानून बनाये गये। लॉर्ड एल्गिन के समय भयंकर अकाल पड़ा किन्तु उसने राहत कार्यों की ओर ध्यान न देकर दिल्ली में एक शानदार दरबार का आयोजन किया जिसमें लाखों रुपये पानी की तरह बहाये। अपना कार्यकाल पूरा करके इंग्लैण्ड लौटते समय एल्गिन ने घमण्ड से घोषणा की कि- ‘हिन्दुस्तान तलवार के जोर पर जीता गया था और तलवार के जोर से ही उसकी रक्षा की जायेगी।’ उसके इस कथन ने देश के भोले-भाले लोगों के दिलों में भी आग लगा दी। एल्गिन के समय में तिलक को राजद्रोह के अपराध में 18 मास का कठोर कारावास, चापेकर बन्धुओं को प्राण दण्ड, नाटु बन्धुओं को देश-निकाला आदि घटनाओं ने भी उग्रवादी भावनाओं को पनपाया।

(9.) कर्जन की दमनकारी नीतियाँ: कर्जन 1809-1905 ई. तक भारत का गवर्नर जनरल रहा। उसने जनआकांक्षाओं और जनता की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया। उग्रवाद के उदय में उसके द्वारा अपनाई गई दमनकारी नीतियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें से निम्नलिखित प्रमुख है-

 (क) केन्द्रीकरण की नीति: लॉर्ड कर्जन शासन ने भारत के शासन का केन्द्रीयकरण किया। उसने शिक्षा, कृषि, सिंचाई, पुरातत्त्व, खनिज इत्यादि के निर्देशन और नियंत्रण के लिए विशेषज्ञों की नियुक्तियां कीं तथा मद्रास और बम्बई के गवर्नरों की विशेष स्थिति के विरुद्ध आवाज उठायी। उसकी इन नीतियों से सरकार में केन्द्रीयकरण को बढ़ावा मिला। भारतीयों ने उसकी इस नीति को पसन्द नहीं किया।

(ख) कलकत्ता निगम अधिनियम (1899): 1899 ई. में कलकत्ता निगम अधिनियम पारित करके कलकत्ता निगम में सदस्यों की संख्या 75 से घटाकर 50 कर दी गई। अब तक निगम में दो-तिहाई सदस्यों का चुनाव, शहरी करदाता करते थे। नई व्यवस्था में केवल आधे सदस्य ही जनता से चुकर आ सकते थे। शेष आधे सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार सरकार को दे दिया गया। यह व्यवस्था भी की गई कि निगम के चेयरमैन की नियुक्ति सरकार करे। चेयरमैन को कई विशेषाधिकार भी दिये गये। इस प्रकार चुने हुए प्रतिनिधियों के अधिकारों में स्वतः कटौती हो गई। सरकार ने तर्क दिया कि निगम के सदस्य वास्तविक काम न करके, केवल बहस करते रहते थे। बंगाल में तथा देश के दूसरे भागों में सरकार की इस नीति का विरोध हुआ। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस अधिनियम  की भर्त्सना करते हुए कहा- ‘जिस दिन यह अधिनियम पारित किया गया उसे बंगाल की भावी पीढ़ियां उस दिन के रूप में स्मरण रखेंगी जब कलकत्ता में स्थानीय शासन का उन्मूलन कर दिया गया।’ निगम के 28 भारतीय सदस्यों ने विरोध स्वरूप निगम की सदस्यता छोड़ दी।

(ग) दिल्ली दरबार में धन का अपव्यय: 1899-1900 ई. में बम्बई, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बड़ौदा और मध्य भारत की कई रियासतें भयंकर अकाल की चपेट में आ गईं। भारत के बड़े क्षेत्र में इस अकाल का असर कई वर्षों तक रहा। लार्ड कर्जन ने जनता की बुरी अवस्था की परवाह न करके, सम्राट एडवर्ड सप्तम् के राज्यारोहण के अवसर पर 1903 ई. में दिल्ली में भव्य दरबार का आयोजन किया जिसमें भारत के धन का अपव्यय किया गया।  भारतीय नेताओं और समाचार पत्रों के विरोध को सरकार ने अनसुना कर दिया। कांग्रेस के 1903 ई. के अधिवेशन में कर्जन के इस कृत्य की कटु आलोचना की गई।

(घ) भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम: कर्जन ने भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम 1904 लागू करके उच्च शिक्षा पर सरकारी शिकंजा अत्यंत मजबूती से कस दिया। भारतीयों के लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र को सीमित कर दिया और शिक्षा को राष्ट्रीय विचारधारा के विरुद्ध तथा साम्राज्यवादी विचारधारा के प्रचार का साधन बना दिया। इस अधिनियम द्वारा विश्वविद्यालयों में सीनेट के सदस्यों की संख्या सीमित करके उनमें सरकार द्वारा नामित सदस्यों का बहुमत स्थापित किया गया। इस अधिनियिम के अन्तर्गत विश्वविद्यालयों को सम्बद्ध कॉलेजों पर नियन्त्रण करने के लिए अधिक अधिकार दिये गये तथा नये कॉलेजों को मान्यता देने के नियम कठोर बना दिये गये। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्तियों पर सरकार की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई। इस अधिनियम का एक ही अर्थ था कि उच्च शिक्षा के विषय में सरकार की इच्छा के बिना कोई भी कदम नहीं उठाया जा सकता था। कर्जन के इस निर्णय की देश भर में कटु आलोचना हुई तथा अधिनियम के विरोध में विशाल जनसभाएं आयोजित हुईं।

(ड.) राजकीय सूचनाओं की गोपनीयता का अधिनियम: लार्ड कर्जन ने राजकीय सूचनाओं की गोपनीयता का अधिनियम (1904) पारित करके समाचार पत्रों सहित समस्त नागरिकों पर यह प्रतिबंध लगा दिया कि वे असैनिक विषयों की जानकारी किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं दे सकते। समाचार पत्रों में सरकार के प्रति घृणा पैदा करने वाले समाचार नहीं छापे जा सकते। वर्ग-द्वेष को प्रोत्साहन देना दण्डनीय अपराध बना दिया गया। इस कानून की आड़ में किसी भी नागरिक एवं सम्पादक को पकड़ा जा सकता था। इसलिये जनता में सरकार के विरुद्ध व्यापक असन्तोष फैल गया और लोगों ने इस अधिनियम का कड़ा विरोध किया।

(च) सैनिक व्यय में वृद्धि: भारत की गोरी सरकार द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार हेतु चीन और दक्षिण अफ्रीका में भारतीय व्यय से सेनाएं भेजी गईं। 1904 ई. में तिब्बत पर आक्रमण किया गया। इस अभियान का सारा खर्च भारत से वसूल किया गया। जबकि चीन, दक्षिण अफ्रीका और तिब्बत में की गई कार्यवाहियों से भारत का कोई सम्बन्ध नहीं था। कांग्रेस के गरमदल नेताओं ने भारत के राजकोष पर अनैतिक रूप से भार डालने के लिये सरकार की कटु आलोचना की।

(छ) विक्टोरिया मेमोरियल का निर्माण: लॉर्ड कर्जन ने इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया की स्मृति में कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल बनवाया। इस पर एक करोड़ रुपये से भी अधिक खर्च किया गया। भारतीय नेताओं ने कर्जन द्वारा किये गये इस धन के अपव्यय पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की।

(ज) बंगाल का विभाजन: 1905 ई. में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल प्रान्त का विभाजन कर दिया। भारतीय इतिहास में इस घटना को बंग-भंग कहा जाता है। उस समय बंगाल प्रांत की जनसंख्या लगभग 8 करोड़ तथा क्षेत्रफल लगभग 1,90,000 वर्ग मील था। बंगाल, बिहार, उड़ीसा और छोटा नागपुर भी बंगाल प्रांत के अंतर्गत थे। इतने बड़े प्रान्त का प्रशासन चलाना कठिन कार्य था। इसलिये लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन करके मुसलमानों के बहुमत वाले क्षेत्र को अलग कर दिया। पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक अलग प्रान्त बनाया गया जिसमें 3 करोड़ 10 लाख लोग रहते थे। इस जनसंख्या में 1 करोड़ 80 लाख मुसलमान थे। लॉर्ड कर्जन ने पूर्वी बंगाल प्रान्त में मुसलमानों की सभाएं आयोजित कीं जिनमें उसने कहा कि यह विभाजन केवल शासन की सुविधा के लिए ही नहीं किया जा रहा है वरन् उसके द्वारा एक मुस्लिम प्रान्त बनाया जा रहा है जिसमें इस्लाम के अनुयायियों की प्रधानता होगी। बचे हुए पश्चिमी बंगाल प्रान्त में 1 करोड़ 70 लाख बंगला-भाषी लोगों की तुलना में बिहारी तथा उड़िया भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 4 करोड़ 10 लाख थी। इस प्रकार बंगाली हिन्दू, पूर्वी बंगाल में धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक बना दिये गये तथा पश्चिमी बंगाल में भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक बना दिये गये।

बंगला विभाजन के पीछे अँग्रेजों के मन में कई प्रकार के भय कार्य कर रहे थे। उस समय के भारत सरकार के गृह सचिव हारवर्ट होप रिसले ने एक गोपनीय रिपोर्ट लिखी- ‘संयुक्त बंगाल एक शक्ति है। बंगाल का विभाजन हो जाने पर वह अलग-अलग रास्तों में बंट जायेगा…….. हमारा एक मुख्य उद्देश्य है हमारे विरोध में संगठित शक्ति को विभाजित करना और उसे कमजोर बनाना।’

लॉर्ड रोनाल्डशे ने कहा था- ‘बंगाली राष्ट्रीयता की बढ़ती हुई दृढ़ता पर आघात किया गया था।’ कर्जन के इस कृत्य की ब्रिटेन के समाचार पत्रों ने भी निन्दा की। मैनचेस्टर गारजियन ने लिखा- ‘बंगाल को दो टुकड़ों में बांट देने की कर्जन की योजना को समझना कठिन है और उसे क्षमा कर देना और भी कठिन।’

बंगाल के विभाजन से राष्ट्रीय आन्दोलन में अचानक तेजी आ गयी। समस्त भारत ने इस विभाजन का कड़ा विरोध किया। सरकार ने आन्दोलन को दबाने के लिए दमन का सहारा लिया जिससे गरम दल नेताओं को नया कार्यक्षेत्र एवं अनुकूल वातावरण प्राप्त हो गया।

(10.) बाल, पाल और लाल का उत्कर्ष: लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय, को भारत के इतिहास में बाल, पाल और लाल कहा जाता है। इन नेताओं ने कांग्रेस के उदारवादी नेताओं से ठीक उलट, उग्र राष्ट्रवाद को चिन्गारी दी। इन नेताओं ने आम भारतीय को अपने आंदोलन में सम्मिलित करते हुए उन्हें ब्रिटिश शासन का विरोध करने की प्रेरणा दी। बाल गंगाधर तिलक ने जन साधारण को अद्भुत नारा देकर राष्ट्रीय आंदोलन के लिये नई भूमि तैयार की।

उन्होंने कहा- ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।’ तिलक के साथ लाला लाजपतराय, विपिनचन्द्र पाल, अरविन्द घोष आदि नेताओं ने भी अपना स्वर तीखा कर दिया। इन नेताओं ने कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन को भारत की आजादी के आंदोलन में बदल दिया।

(11.) लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी: लोकमान्य तिलक ने अपने समाचार पत्र केसरी में पूना में घटित घटनाओं के लिये सरकार की कटु आलोचना की। तिलक पर जनता को भड़काने और राजद्रोह करने के आरोप लगाकर बन्दी बनाया गया और उन्हें 18 माह के कठोर कारावास की सजा दी गई। पूना में उपद्रवियों को दण्ड देने वाली पुलिस टुकड़ी नियुक्त की गई। इन घटनाओं ने भारतीयों को और अधिक आंदोलित कर दिया। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं का भी अँग्रेजों की न्यायप्रियता से विश्वास डगमगाने लगा।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- ‘हम पूना में दण्ड देने वाली पुलिस की तैनाती गलत समझते हैं। तिलक और पूना के कुछ अन्य पत्रकारों को कैद में डालना और भी अधिक गलत समझते हैं। तिलक की कैद पर सारा राष्ट्र रो रहा है।’ श्रीमती एनीबीसेंट की मान्यता थी कि इन्हीं घटनाओें से भारत में उग्रवाद का विकास हुआ था।

अध्याय – 57 : उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन (गरमपंथी कांग्रेस) – 2

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अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर घटित घटनाएँ

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अंतराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कई घटनाएं हुईं जिन्होंने भारत में साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं को उभारा।

(1.) जापान की रूस पर विजय: लगभग डेढ़ सौ वर्षों में यूरोपवासियों की एशिया और अफ्रीका के विभिन्न देशों में निरन्तर विजयों से एशिया में यह धारणा बन गई थी कि यूरोपवासी अजेय हैं परन्तु एशिया के एक छोटे से देश जापान ने 1905 ई. मे यूरोप के शक्तिशाली देश रूस को परास्त कर, इस धारणा को ध्वस्त कर दिया। इस घटना से भारतवासियों में यह आशा उत्पन्न हुई कि भारत भी ब्रिटिश शासन को समाप्त कर सकता है। देश के शिक्षित नवयुवक जापान की इस तीव्र प्रगति के कारणों को जानने के लिए उत्सुक हो उठे। उनके हृदय पर जापान के त्याग और देशभक्ति की भावना का गहरा प्रभाव पड़ा। 1 जुलाई 1905 को अँग्रेजी समाचार पत्र द पायनियर ने लिखा- ‘भारतीय शिक्षित वर्ग इस युद्ध को बहुत रुचि के साथ देख रहा था। ……जापानियों की विजय ने उनके उत्साह में बिजली पैदा कर दी थी।’

(2.) रूस की ड्यूमा क्रांति: 1905 ई. में रूस में ड्यूमा क्रांति हुई जिसमें जनतंत्र, राजतंत्र पर भारी पड़ रहा था। इस क्रांति में रूसी जनता की इच्छा-शक्ति के अच्छे प्रदर्शन का भारत की जनता पर भी प्रभाव पड़ा। उदारवादी नेता दादाभाई नौरोजी तक को कांग्रेस के 1906 ई. के अधिवेशन में कहना पड़ा- ‘रूस अपनी मुक्ति के लिये संघर्ष कर रहा है….. ये सभी निरंकुशतावाद के विरुद्ध है ….. क्या ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के स्वतंत्र नागरिक निरंकुश तंत्र की प्रजा रहना जारी रखेंगे?’

(3.) इटली की पराजय: 1896 ई. में अबीसीनिया जैसे छोटे अफ्रीकी देश ने इटली जैसे शक्तिशाली यूरोपीय राष्ट्र की सेना को परास्त करके उसके साम्राज्यवादी स्वरूप को चकनाचूर कर दिया। भारतीयों ने इस घटना को आश्चर्य के साथ देखा।

(4.) बोअर युद्ध: 1899-1902 ई. तक बोअर युद्ध हुआ। दक्षिण अफ्रीका में बोअर (डच) लोगों ने अपनी स्वतन्त्रता को बनाये रखने के लिए अँग्रेजों से जमकर लोहा लिया और एक बार तो ब्रिटिश सेना को बुरी तरह से परास्त करके खदेड़ दिया।

(5.) विदेशों में घटित क्रांतियाँ: 1899-1900 ई. का बॉक्सर विद्रोह, 1908 ई. की युवा तुर्क क्रान्ति, 1910 ई. की मैक्सिको क्रान्ति और 1911 ई. की चीन क्रान्ति ऐसी ही प्रमुख क्रांतियां थीं जिनके कारण भारतीयों के लिये भी अँग्रेज अजेय नहीं रहे।

(6.) दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार: दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की बड़ी संख्या रहती थी जिनके साथ वहाँ की गोरी सरकार असमानता युक्त व्यवहार करती थी। गोरे अँग्रेज, काले भारतीयों को नीच जाति का मनुष्य कहते थे। उन्होंने भारतीयों पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये। भारतीय, रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकते थे और रात के नौ बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकल सकते थे। उन दिनों बैरिस्टर मोहनदास कर्मचंद गांधी वहाँ वकालात कर रहे थे। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में गोरी सरकार द्वारा किये जा रहे भेदभाव के विरोध में शान्तिपूर्ण प्रतिरोध और सत्याग्रह आन्दोलन किया। गांधी के संघर्ष के फलस्वरूप भारतीयों को कुछ सुविधाएं मिल गईं। इससे भारतवासियों को भरोसा हुआ कि अनुनय-विनय की बजाय आन्दोलन और संघर्ष का तरीका अधिक उपयोगी है।

बंग-भंग आन्दोलन

बंगाल एक विशाल प्रान्त था। इसमें बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा तथा छोटा नागपुर तक विस्तृत भू-भाग सम्मिलित था। इतने बड़े प्रांत का शासन सुचारू रूप से  सम्भाला जाना कठिन था। इस कारण बंागल के विभाजन पर 1892 ई. से विचार चल रहा था। लॉर्ड कर्जन ने 18 जुलाई 1905 को बंगाल के विभाजन की घोषणा की तथा पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल नामक दो प्रांत बनाये। पहले टुकड़े में बंगाल का पूर्वी भाग और आसाम का क्षेत्र रखा गया। इस प्रांत के लिये पृथक् लेफिटनेंट गवर्नर नियुक्त किया गया जिसकी राजधानी ढाका रखी गई। पश्चिमी बंगाल में बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल के क्षेत्र रखे गये। इसकी राजधानी कलकत्ता में रही। बंगाल को विभाजित करने का वास्तविक उद्देश्य बंगाल की एकजुट राजनीतिक शक्ति को भंग करना था। अँग्रेजों ने बंग-भंग के माध्यम से पूर्वी बंगाल के रूप में एक ऐसा प्रान्त बना दिया जिसमें मुसलमानों की प्रधानता थी। अँग्रेजों को आशा थी कि नया प्रांत, हिन्दू बहुल पश्चिमी प्रांत के विरुद्ध आवाज बुलंद करता रहेगा। सैयद अहमद खाँ तथा उनके आदमियों ने इस कार्य में अँग्रेजों का साथ दिया ताकि उनकी राजनीति चमक जाये।

बंगाल-विभाजन के विरुद्ध पूरे देश में राष्ट्रव्यापी आन्दोलन खड़ा हो गया। बंगाल-विभाजन का प्रस्ताव सामने आते ही कलकत्ता में महाराजा जतीन्द्रमोहन ठाकुर की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक सभा आयोजित हुई जिसमें सरकार से बंगाल विभाजन के सम्बन्ध में कुछ संशोधन करने की मांग की गई। कर्जन ने किसी भी प्रकार का संशोधन करने से मना कर दिया। 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता के टाउन हाल में विराट जनसभा हुई जिसमें बड़े-बड़े नेता तथा विभिन्न जिलों के प्रतिनिधि मण्डल उपस्थिति थे। इसके बाद पूरे बंगाल में बंग-भंग के विरोध में जनसभाएँ हुईं। इन सभाओं में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम स्वीकार किया गया।

16 अक्टूबर 1905 को कर्जन ने बंग-भंग की घोषणा को कार्यान्वित कर दिया। बंगाली जनता ने इस दिन को शोक-दिवस के रूप में मनाया। प्रातःकाल से ही कलकत्ता सहित विभिन्न नगरों की सड़कें वन्देमातरम् के गायन से गूँज उठीं। मनुष्यों के समूह नदी के किनारे एकत्रित होकर एक-दूसरे की कलाई पर राखी बांधने लगे। गायन मण्डलियों ने वीर रस से ओत-प्रोत गीत गा-गाकर जनता में देशभक्ति की भावना जागृत की। उस दिन पूरे बंगाल में हड़ताल रही। स्थान-स्थान पर आयोजित जन-सभाओं में बंगालियों ने प्रण लिया कि हम एक जाति की हैसियत से, अपने प्रांत के बँटवारे से पैदा हुए बुरे प्रभावों को दूर करने और अपनी जाति की एकता बनाये रखने के लिए शक्ति-भर सब-कुछ करेंगें।

कलकत्ता में एक फेडरेशन हॉल का शिलान्यास किया गया जिसमें समस्त जिलों की मूर्तियों को रखा गया। पृथक् किये गये जिलों की मूर्तियों को पुनः एक होने तक के लिये ढक दिया गया। अनेक स्थानों पर हड़ताल के साथ-साथ उपवासों के भी आयेाजन किये गये। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बुनकर उद्योग की सहायता से राष्ट्रीय निधि की स्थापना की। विदेशी माल के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए व्यापक अभियान आरम्भ किया गया। प्रान्त के कोने-कोने में तथा प्रान्त के बाहर भी बंग-भंग के विरोध में जनसभाएं आयोजित की गईं। पूरा बंगाल वन्देमातरम् के गायन से गूँज उठा। सरकारी दमन ने आन्दोलन को और अधिक उग्र बना दिया। वन्देमातरम् के गीत पर नियन्त्रण व आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी से आन्दोलन ने अत्यधिक उग्र रूप धारण कर लिया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और विपिनचन्द्र पाल ने समूचे बंगाल का दौरा करके जनता से अपील की कि वे बंग-भंग विरोधी अभियान को सफल बनायें। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व इस समय भी उदारवादियों के हाथों में था किंतु कांग्रेस ने बंग-भंग की कटु आलोचना की। नवयुवकों और विद्यार्थियांे ने इस आन्दोलन में बड़ी संख्या में भाग लिया।

लॉर्ड कर्जन और उनके सहयोगियों ने मुसलमानों को इस आन्दोलन से अलग रखने के प्रयास किये किंतु अब्दुल रसूल, लियाकत हुसैन, अब्दुल हलीम गजनवी, यूसुफ खान बहादुर, मुहम्मद इस्माइल चौधरी आदि नेताओं के नेतृत्व में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भी बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में भाग लिया। मुसलमान नेताओं ने विशाल सभा का आयोजन करके प्रस्ताव पारित किया कि देश की उन्नति के लिए जो काम हिन्दू करेंगे, मुसलमान उसका समर्थन करेंगे, मुसलमान हिन्दुओं का साथ बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में ही नहीं अपितु दूसरे मामलों में भी देंगे, और विदेशी माल के बॉयकाट और देशी माल के इस्तेमाल का समर्थन करेंगे। इस पर अँग्रेज अधिकारियों ने उन अलगाववादी मुस्लिम नेताओं को दंगे करने के लिये भड़काया जो अपने लिये एक मुस्लिम-बहुल प्रांत चाहते थे।

सरकार की दमन नीति

बंग-भंग विरोधी आंदोलन के फूट पड़ते ही सरकार ने सार्वजनिक सभाओें पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अध्यापकों को चेतावनी दी गई कि वे अपने छात्रों को इस आन्दोलन से दूर रखें। मैमनसिंह जिले में दो लड़कों पर केवल इसलिए जुर्माना किया गया कि वे वन्देमातरम् गा रहे थे। सरकार ने निजी शिक्षण संस्थाओं को धमकी दी कि जिस स्कूल के अधिकारी अपने छात्रों एवं अध्यापकों को इस आन्दोलन से अलग नहीं रखेंगे उनकी मान्यता समाप्त करके सरकारी सहायता बंद कर दी जायेगी। इन स्कूलों के प्रबंधकों ने बहुत से छात्रों और शिक्षकों को स्कूलों से हटा दिया। सरकार ने बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों को बन्दी बनाकर उन्हें अमानवीय सजाएं दीं। गोरी सरकार का भयावह चेहरा उस समय खुलकर सामने आया जब सरकार ने मुसलमानों को हिन्दुओं पर आक्रमण करने तथा उन पर भीषण अत्याचार करने के लिये उकसाया। एक स्थान पर तो मुसलमानों ने ढोल-बजा-बजा कर घोषणा करवाई कि सरकार ने उन्हें, हिन्दुओं को लूटने एवं हिन्दू-विधवाओं के साथ विवाह करने की अनुमति दे दी है। बंगाल के गवर्नर वैमफील्ड फुलर ने लोगों को भड़काने के लिये यह बयान दिया- ‘…… मेरी हिन्दू और मुस्लिम पत्नियों में, मुस्लिम पत्नी मेरी ज्यादा चहेती है।’

बंगाल में घटी इन घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए उन दिनों के प्रसिद्ध समाचार पत्र मार्डन रिव्यू ने लिखा था- ‘आन्दोलन-काल की घटनाएं समस्त सम्बन्धित पक्षों के लिए निन्दनीय हैं…….हिन्दुओं के लिए उनकी भीरूता के लिए, क्योंकि उन्होंने मन्दिरों के अपवित्रीकरण, मूर्तियों के खण्डन तथा स्त्रियों के अपहरण के विरुद्ध बल-प्रयोग नहीं किया, स्थानीय मुस्लिम जनता के लिए नीच व्यक्तियों के बाहुल्य के कारण और अँग्रेजी सरकार के लिए इस कारण कि उसके शासन में इस प्रकार की घटनाएँ बिना रोक-टोक के बहुत दिनों तक होती रहीं।’

आन्दोलन का महत्त्व और प्रभाव

बंग-भंग आन्दोलन भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। वन्देमातरम् के नारे ने सदियों से सोई जनता को जागृत कर दिया। इस कारण राष्ट्रीय एकता की जो प्रबल भावना जागृत हुई उसने स्वतन्त्रता प्राप्ति की इच्छा को दृढ़ बना दिया। अब कांग्रेस का अपने उदारवादी नेताओं से मोह भंग हो गया। स्वयं गोखले को कहना पड़ा- ‘नवयुवक यह पूछने लगे हैं कि संवैधानिक उपायों का क्या लाभ है, यदि इनका परिणाम बंगाल का विभाजन ही होना था।’

इस प्रकार बंग-भंग की घटना ने भारतीय राजनीति में उग्रवाद को बढ़ावा दिया। इन घटनाओं ने उग्रवादी नेताओं की लोकप्रियता में भी वृद्धि की। जब ब्रिटिश सरकार ने उग्रवादी नेताओं का दमन करना आरम्भ किया तो जनसाधारण और अधिक उद्वेलित हो उठा। उन्हीं दिनों कुछ युवकों ने रक्त-रंजित क्राति का मार्ग अपना लिया।

इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण परिणाम विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग तथा राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया जाना था। आगे चलकर गांधीजी ने स्वदेशी को राष्ट्रीय आन्दोलन में एक प्रमुख अस्त्र के रूप में प्रयोग किया। बंग-भंग आंदोलन के दौरान लॉर्ड कर्जन ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक खाई उत्पन्न कर दी, जो उत्तरोतर गहरी होती गई और देश में साम्प्रदायिकता की भयानक समस्या उत्पन्न हो गई। बंग-भंग आन्दोलन के दौरान अनेक स्थानों पर दंगे हुए तथा हिन्दुओं के साथ घोर अन्याय किया गया। यह आन्दोलन दिसम्बर 1911 तक चलता रहा। 1911 ई. में बंग-भंग को निरस्त करके अँग्रेज सरकार ने इस आंदोलन को समाप्त करवाया। उसी वर्ष ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले जाई गई। यह भारतीयों की बड़ी जीत थी।

उदारवादियों और उग्रवादियों के अलग-अलग रास्ते

बंगाल विभाजन के बाद कांग्रेस में, उदारवादियों और उग्रवादियों का अंतर्विरोध और अधिक गहरा हो गया। 1905 ई. में बनारस में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसकी अध्यक्षता गोपाल कृष्णा गोखले ने की। इस समय बंगाल में विदेशी वस्तुओं का बायकाट और स्वदेशी आन्दोलन जोरों पर था। सरकार का दमनचक्र भी पूरे जोरों पर था। इस कारण कांग्रेस के बहुत से सदस्य सरकार से अत्यधिक कुपित थे तथा बनारस सम्मेलन में हंगामा होने की आंशका थी। इस हंगामे से बचने की रणनीति तैयार करने के लिये उदारवादी नेताओं ने, मुख्य अधिवेशन से पहले, अलग से एक बैठक की।

बनारस के मुख्य अधिवेशन में उदारवादियों और उग्रवादियों की पहली टकराहट, प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के प्रश्न पर हुई। उदारवादी नेता, प्रिंस के हार्दिक स्वागत का प्रस्ताव पारित कराना चाहते थे किंतु तिलक और लाजपतराय इस प्रस्ताव के विरोध में थे। अंत में तिलक एवं लाजपतराय ने इस शर्त पर विरोध को त्याग दिया कि अधिवेशन के कार्यवाही विवरण में, प्रिंस के स्वागत का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ नहीं लिखा जायेगा। इसके बाद उग्रवादियों द्वारा अधिवेशन में, सरकार द्वारा बंगाल के आन्दोलन को कुचलने के लिये किये जा रहे प्रयासों की निन्दा का प्रस्ताव लाया गया। इस प्रस्ताव पर दोनों गुटों के बीच विरोध और मुखर हो गया।

दोनों गुटों के बीच अंतर्द्वन्द्व का तीसरा बिंदु स्वदेशी आंदोलन था। उग्रवादी नेता विदेशी बायकाट और स्वदेशी आन्दोलन को सारे देश में फैलाना चाहते थे, जबकि उदारवादी नेता, इसे बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे। उदारवादी नेता पं. मदनमोहन मालवीय ने खुले अधिवेशन में जोर देकर कहा कि मैं बॉयकाट के पक्ष में नहीं हूँ। इस पर उग्रवादी भी भड़क गये। अंत में लाला लाजपतराय ने सत्याग्रह का मार्ग अपनाने का सुझाव दिया। इस प्रकार यह अधिवेशन बिना किसी और बड़ी घटना के सम्पन्न हो गया।

अगला अधिवेशन 1906 ई. में कलकत्ता में हुआ। इस अधिवेशन के कुछ महीने पहले से ही उग्रवादियों के गुट ने लोकमान्य तिलक अथवा लाला लाजपतराय को अध्यक्ष बनाने की मुहिम आरम्भ कर दी किन्तु उदारवादियों ने उग्रवादियों को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से दूर रखने के लिए बड़ी तिकड़मबाजी की। स्वागत समिति के अध्यक्ष भूपेन्द्रनाथ बसु ने, स्वागत समिति की राय लिए बिना ही दादाभाई नौरोजी को कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनने के लिये लिख भेजा। इस प्रकार 81 वर्षीय नौरोजी को कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष बना दिया गया। उग्रवादियों ने नौरोजी का विरोध करना उचित नहीं समझा। दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में निम्नलिखित बिन्दुओं पर जोर दिया-

(1.) आन्दोलन करते रहना समीचीन है।

(2.) ब्रिटिश सरकार आन्दोलन को बर्दाश्त करने की मानसिकता नहीं रखती है; किंतु निरन्तर आन्दोलन करते रहने से अन्ततोगत्वा ब्रिटिश सरकार झुक जायेगी।

(3.) आन्दोलन लोकतान्त्रिक, वैधानिक तथा उपद्रवों से दूर रहने वाले हों।

इस अधिवेशन में बहुत से प्रस्ताव पास किये गये जिनमें से निम्नलिखित प्रस्ताव उग्रवादियों की नीतियों के अनुकूल रहे-

(1.) जब तक बंग-विभाजन समाप्त नहीं किया जाता है, तब तक आन्दोलन अनवरत चलता रहे। दोनों बंगाल मिलकर पुनः एक हों।

(2.) ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार जारी रहे।

(3.) सरकार की दमन नीति की घोर भर्त्सना की गई।

दादाभाई नौरोजी के व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस का यह अधिवेशन टूटने से बच गया परन्तु इस अधिवेशन का परिणाम सुखद नहीं हुआ, क्योंकि दोनों दल, इस अधिवेशन में पारित प्रस्तावों की अपने अनुकूल व्याख्या करते रहे।

सूरत की फूट

यद्यपि कलकत्ता अधिवेशन में उग्रवादी अपने कुछ प्रस्तावों को पारित करवाने में सफल रहे परन्तु उदारवादी नेता उन प्रस्तावों को कार्यान्वित करने को तैयार नहीं थे। अतः दोनों गुटों में कांग्रेस के आगामी अधिवेशन पर कब्जा करने की स्पर्धा आरम्भ हो गई। उदारवादी नेता हर कीमत पर कांग्रेस पर अपना कब्जा बनाए रखने पर तुले थे और उग्रवादी नेता, उदारवादियों को हटाकर कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथ में लेने को आतुर थे। 1906 ई. के कलकत्ता अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया था कि कांग्रेस का अगला अधिवेशन 1907 ई. में नागपुर हो। 22 सितम्बर 1907 को कांग्रेस की स्वागत समिति की बैठक में दोनों पक्षों के बीच इतना झगड़ा हुआ कि उदारवादियों ने कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर के स्थान पर सूरत में करने का निर्णय लिया। सूरत में उदारवादी नेताओं का प्रभाव अधिक था।

कांग्रेस का सूरत अधिवेशन, कांग्रेस के दोनों गुटों के शक्ति परीक्षण का स्थल बन गया। 27 दिसम्बर 1907 को उदारवादियों ने अध्यक्ष पद के लिए रासबिहारी घोष का नाम प्रस्तावित किया किन्तु उग्रवादियों ने लाला लाजपतराय का नाम प्रस्तावित करने का निश्चय किया। उस समय कांग्रेस में उदारवादियों का बहुमत था तथा लालाजी का जीतना कठिन था। इस कारण लालाजी ने इस पद के लिए अनिच्छा प्रकट की। इस पर उग्रवादियों ने बारीसाल के अश्विनी कुमार दत्त का नाम प्रस्तुत किया। अध्यक्ष पद के लिए रासबिहारी घोष का नाम प्रस्तावित और समर्थित होते ही, तिलक ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के पास दो बार अपना नाम भेजा तथा आग्रह किया कि मुझे बोलने दिया जाये किंतु स्वागत समिति के अध्यक्ष ने तिलक को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इसी बीच रासबिहारी घोष को अध्यक्ष घोषित कर दिया गया।

तिलक, उदारवारियों की इस घपलेबाजी से तिलमिला गये। उन्होंने स्वयं-सेवकों को धकेल कर माइक अपने हाथ में ले लिया और भाषण देने लगे। तिलक की इस कार्यवाही से अधिवेशन में हंगामा मच गया। गरम दल वाले कह रहे थे कि उन्हें सुना जाये और नरम दल वाले चीख रहे थे कि तिलक बैठ जाएं। तिलक कहते रहे कि उन्हें अपनी बात कहने का पूरा-पूरा अधिकार है, इसलिये उन्हें सुना जाये। जब तिलक नहीं माने तो बहुत से उदारवादी नेता एकजुट होकर तिलक पर टूट पड़े और उन्हें पकड़ कर, माइक से दूर खींचने लगे। तभी एक नोकदार मराठा जूता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के गाल पर लगा और फिर उछल कर फीरोजशाह मेहता पर जा गिरा। इसके बाद चारों तरफ जूते चलने लगे। अधिवेशन में उपस्थित लोग, एक दूसरे को कुर्सियों और लाठियों से मारने लगे। गाली-गलौच और घूसेबाजी का तो कोई अंत ही नहीं था। बहुत से लोगों के शरीर से रक्त बहने लगा। इस पर पुलिस ने अधिवेशन स्थल पर प्रवेश किया। पुलिस के सामने कठिनाई यह थी कि उदारवादी और उग्रवादी गुटों के नेताओं को अलग करना कठिन था। इसलिये पुलिस ने सब लोगों को हॉल से बाहर निकाल दिया। इसके साथ ही कांग्रेस का अधिवेशन स्थगित कर दिया गया।

अधिवेशन के स्थगित होने के बाद अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक मोतीलाल घोष, बी. सी. चटर्जी तथा लाला हरिकिशन लाल आदि नेताओं ने कांग्रेस की एकता को बनाये रखने के प्रयास किये। तिलक इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार हो गये किंतु उन्होंने शर्त रखी कि उन्हें अपनी बात कहने का पूरा अवसर दिया जाये। उदारवादी नेताओं ने समझौता करने से मना कर दिया तथा अधिवेशन स्थगित होने के अगले ही दिन उन्होंने अपना पृथक सम्मेलन करने के लिये एक नोटिस जारी कर दिया।

उदारवादियों द्वारा आयोजित पृथक् अधिवेशन में कांग्रेस के 1600 में से 900 सदस्यों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में एक समिति का गठन किया गया जिसे कांग्रेस का संविधान बनाने का कार्य दिया गया। इस प्रकार उदारवादी कांग्रेसी, गोखले के नेतृत्व में तथा उग्रवादी कांग्रेसी, महात्मा तिलक के नेतृत्व में अलग हो गये। उदारवादी गुट स्वयं को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहने लगा जबकि उग्रवादी गुट स्वयं को राष्ट्रीय पार्टी कहने लगा। उदारवादियों ने पहले की ही तरह भारत की गोरी सरकार से सहयोग, समझौते और याचना का मार्ग अपनाया जबकि राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश सरकार से संघर्ष करने तथा उग्र आंदोलन करने का मार्ग पकड़ लिया। इस समय ब्रिटेन में लिबरल पार्टी की सरकार थी। इस सरकार से उदारवादी नेताओं को बहुत आशाएं थीं।

श्रीमती एनीबीसेन्ट को कहना पड़ा- ‘सूरत की फूट कांग्रेस के इतिहास में सर्वाधिक दुखःपूर्ण घटना है।’

सूरत फूट के कारण

सूरत में कांग्रेस की फूट के लिये तीन बड़े कारण जिम्मेदार थे-

(1.) उदारवादी नेताओं का अहंकार: उदारवादी नेता आरम्भ से ही बड़े अहंकारी थे। एक तरफ वे अँग्रेजों से प्रार्थना कर रहे थे तथा दूसरी तरफ कांग्रेस को राष्ट्रवादियों के हाथों में जाने से रोकने के लिये तिकड़मबाजी का सहारा ले रहे थे। वे कांग्रेस के भीतर की बदलती हुई परिस्थितियों को भी समझने में असफल रहे।

(2.) उग्रवादियों की राष्ट्रवादी नीतियां: उग्रवादियों की राष्ट्रवादी नीतियां उन्हें सरकार से उग्र संघर्ष के लिये प्रेरित कर रही थीं और अब वे उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की राजनीति पर चलने को तैयार नहीं थे।

(3.) ब्रिटिश शासन की चालबाजियां: ब्रिटिश शासन पर्दे के पीछे काम कर रहा था। वह उदारवादी गुट की पीठ थपथपा कर उसे फूट के लिये उकसाता रहा ताकि कांग्रेस अपनी ऊर्जा सरकार से संघर्ष करने में व्यय करने के स्थान पर परस्पर संघर्ष में व्यय करे।

सूरत की फूट के परिणाम

कांग्रेस की इस फूट से गोरी सरकार बड़ी प्रसन्न हुई। लॉर्ड मिण्टो ने लिखा है- ‘सूरत में कांग्रेस का पतन अँग्रेजों की बड़ी जीत थी।’ सरकार ने कांग्रेस की इस फूट का लाभ उठाने के लिये उग्रवादी नेताओं के विरुद्ध नये सिरे से दमनचक्र आरम्भ कर दिया। उसने उग्रवादी नेताओं की चतुष्टयी अर्थात् लाला लाजपतराय, विपिनचंद्र पाल, बालगंगाधर तिलक तथा अरविन्द घोष को जेल में ठूंसने का निर्णय लिया।

(1.) अरविन्द घोष की गिरफ्तारी: 1907 ई. में अलीपुर बम काण्ड के सम्बन्ध में श्री अरविन्द को उनके भाई वारीन्द्र घोष सहित बंदी बना लिया। बाद में वारीन्द्र घोष को आजीवन कारावास दिया गया।

(2.) लाला लाजपतराय की गिरफ्तारी: लाला लाजपतराय ने कांग्रेस अधिवेशन से लौटकर, पंजाब के लैंड एलीयनेशन तथा कोलोनाइजेशन कानूनों के विरुद्ध किसानों का जनमत तैयार किया। उनकी प्रेरणा से पंजाब के किसानों ने व्यापक प्रदर्शन किये जिससे अँग्रेजी शासन हिल गया। सरकार ने लाला लाजपतराय को भारत के बादशाह के प्रदेशों में अशांति मचाने के आरोप में बन्दी बनाकर बर्मा के माण्डले दुर्ग भेज दिया। उन पर कोई मुकदमा नहीं चलाया गया।

(3.) विपिनचंद्र पाल की गिरफ्तारी: 1907 ई. में अलीपुर बम काण्ड के सम्बन्ध में श्री अरविन्द की गिरफ्तारी हुई तो विपिनचन्द्र पाल को साक्ष्य के लिए बुलाया गया परन्तु पाल ने जाने से इन्कार कर दिया। इस पर उन्हें अदालत की मानहानि के आरोप में 6 माह का कारावास दिया गया। बाद में पाल राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए भारत छोड़कर इंग्लैण्ड चले गये और 1908 से 1911 ई. तक वहीं रहे।

(4.) बालगंगाधर तिलक की गिरफ्तारी: अब सरकार तिलक को कारावास में ठूंसने का अवसर ढूँढने लगी। तिलक के समाचार पत्र केसरी में मुजफ्फरपुर बम्ब-काण्ड पर कुछ अग्रलेख प्रकाशित हुए थे जिनमें यह तर्क दिया गया था कि यदि स्वतन्त्रता के इच्छुकों से खुली सशस्त्र क्रान्ति सम्भव नहीं हो तो पराधीन जाति के सामने इसके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं बचता है कि बम आदि का प्रयोग करे। इन्हीं अग्रलेखों के आधार पर तिलक को बंदी बनाया गया। उनकी जमानत स्वीकार नहीं की गई और न उनको अपने बचाव में कुछ कहने का अवसर दिया गया। जज की सहायता के लिए एक जूरी बनाई बई जिसमें सात यूरोपियन और दो पारसी थे। तिलक ने अपने मुकदमे की स्वयं तैयारी की। उन्होंने अपने ऊपर लगाये गये अभियोगों का 21 घण्टे 10 मिनट तक तर्कसंगत भाषण द्वारा खण्डन किया परन्तु उनकी एक भी बात नहीं मानी गई और उन्हें 6 वर्ष का कारावास एवं एक हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई।

(5.) देश में क्रांतिकारी आंदोलन का आरम्भ: तिलक को बंदी बनाये जाने के बाद भारत भर में उग्र आंदोलन एवं प्रदर्शन आरम्भ हो गये। अनेक स्थानों पर जन-साधारण ने पुलिस का सामना किया जिनमें 15 व्यक्ति मारे गये और 40 घायल हुए। जनता को इस आंदोलन से दूर करने के लिये सरकार ने दो नये कानून बनाये-

(अ.) एक्स्पलोजिव सब्सटैंसेज एक्ट: इस कानून के द्वारा विस्फोटक पदार्थों के लेन-देन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

(ब.) इन्साइटमेंट टू ऑफेन्सेज एक्ट: इस कानून के द्वारा सरकार ने राजद्रोह की गतिविधियों में भाग लेने पर रोक लगा दी।

भारतीय जनता पर इन दोनों कानूनों का असर नहीं हुआ। पूरे देश में आंदोलन जोर पकड़ने लगा। अब सरकार किसी भी संस्था पर सन्देह होने से ही उसे असंवैधानिक घोषित कर सकती थी। सरकार ने इस कानून का भरपूर दुरुपयोग किया। ढाका की अनुशीलन समिति, मैमनसिंह की सुहृद समिति, बारीसाल की स्वदेश बाँधव समिति आदि अनेक संस्थाएँ शान्ति पूर्वक एवं अंहिसात्मक विधि से कार्य कर रही थीं किंतु इन्हें असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। सरकार की इस दमनकारी नीति से देश के नवयुवकों का खून खौल उठा और उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग पकड़ा। उन्होंने सरकार से बदला लेने के लिए गुप्त रूप से बम बनाने आरम्भ कर दिये।

मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट 1909: ब्रिटिश सरकार ने एक तरफ तो उग्रवादियों को जेल में ठूंसने का मार्ग अपनाया तो दूसरी ओर उदारवादियों को सन्तुष्ट करने के लिए उनकी कुछ मांगें मान लीं। 1909 ई. के मार्ले-मिण्टो सुधार इसी नीति के परिणाम थे। इन सुधारों के द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को स्थान दिया गया; प्रान्तों के गवर्नरों की कार्यकारिणी में भारतीयों की संख्या बढ़ाई गई; विधान सभाओं के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई। उन्हें बजट तथा अन्य विषयों पर बहस करने और प्रस्ताव रखने के अधिकार दिये गये। सरकार ने मुसलमानों, जमींदारों और व्यापारियों को अलग प्रतिनिधित्व दिया। नरम पंथी नेताओं ने इन सुधारों का स्वागत किया। गोखले की धारणा थी कि सरकार का यह कदम निःसन्देह उदार एवं उचित है। वे अनुरोध कर रहे थे कि जनता उनको स्वीकार करे और सरकार का अभिनन्दन करे। उग्रवादियों का कहना था कि ये सुधार भारतीयों को मूर्ख बनाने के लिए किये गए थे। कांग्रेस के 1910 ई. के इलाहाबाद अधिवेशन में उदारवादी नेताओं द्वारा भी मार्ले-मिण्टो सुधार की कड़ी आलोचना की गई तथा उसे हिन्दुओं एवं मुसलमानों में फूट डालने वाला एवं साम्प्रदायिक भावनाओं को उभारने वाला बताया गया।

अध्याय – 58 : उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन (गरमपंथी कांग्रेस) – 3

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उग्रवादियों की कार्यशैली

उग्रवादी गुट का प्रादुर्भाव, उदारवादी नेताओं की कार्यशैली के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। अतः स्वाभाविक था कि उग्रवादी नेताओं की कार्यशैली उदारवादियों से बिल्कुल भिन्न थी। उग्रवादियों की कार्यशैली में निम्नलिखित मुख्य तत्व सम्मिलित थे-

(1.) आवेदन-निवेदन की नीति में अविश्वास: उदारवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त भारत की कल्पना नहीं करते थे इसलिये वे सरकार से सहयोग एवं अनुनय का मार्ग अपनाने पर जोर देते थे जबकि उग्रवादी नेता आवेदन-निवेदन और याचना की नीति में विश्वास नहीं करते थे। वे भारतीयों द्वारा अँग्रेजी साम्राज्य से सहयोग करने की नीति को भी उचित नहीं समझते थे।

(2.) राष्ट्रव्यापी आंदोलन की आवश्यकता में विश्वास: उग्रवादी नेता भारतीयों के लिये स्वराज्य चाहते थे तथा स्वराज्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की आवश्यकता अनुभव करते थे। वे जन साधारण में राष्ट्र-प्रेम एवं बलिदान की अटूट भावना विकसित करना चाहते थे जिससे घबराकर गोरी सरकार भारत से चली जाये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार और राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देते थे।

(3.) जन साधारण को संगठित करने हेतु धार्मिक समारोहों का प्रयोग: इस काल में भारत का सम्पन्न वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग एवं मध्यम वर्ग पश्चिमी शिक्षा एवं जीवन शैली के आकर्षण में फंसे हुए थे। इन लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए उनके समक्ष भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक श्रेष्ठता को स्थापित करना आवश्यक था। इसी उद्देश्य से तिलक ने महाराष्ट्र में जन साधारण के स्तर पर गणेश पूजन तथा शिवाजी उत्सव मनाने की परम्परा आरम्भ की। अरविन्द घोष ने बंगाल में एक माह तक चलने वाली काली पूजा आरम्भ की। लाला लाजपतराय ने पंजाब में आर्य समाज आन्दोलन को सशक्त बनाने का काम किया। इस प्रकार इन उग्रवादी नेताओं ने इन धार्मिक एवं सामाजिक समारोहों को व्यापक रूप देकर उन्हें राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक चेतना उत्पन्न करने का प्रभावी माध्यम बना दिया।

(4.) द्विराष्ट्र के सिद्धांत का विकास: राष्ट्रवादी नेताओं ने जनसाधरण को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उठ खड़े होने एवं उनमें एकता की भावना उत्पन्न करने के लिये व्यापक स्तर पर सामाजिक एवं धार्मिक समारोहों को आरम्भ किया था किंतु अँग्रेजों ने इन समारोहों की आड़ में मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध उकसाया तथा कट्टर मुस्लिम नेताओं को पृथकतावादी आन्दोलन आरम्भ करने हेतु प्रोत्साहित किया। सरकार द्वारा उग्र राष्ट्रवाद को मुस्लिम-विरोधी बताकर उसे असफल करने के प्रयास किये गये। इस कारण भारत में द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धान्त का विकास हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार भारत में एक राष्ट्र नहीं होकर दो राष्ट्र बसते हैं- पहला हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र। इस विचार से प्रभावित होकर अनेक मुसलमानों ने स्वयं को राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर कर लिया तथा 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना की।

(5.) राष्ट्रवादी शिक्षा के विकास की आवश्यकता: उग्रवादी नेता भारत में ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति स्थापित करना चाहते थे जो देशभक्त नागरिक तैयार कर सके। उनका मानना था कि अँग्रेजी शिक्षा पद्धति से मानसिक गुलाम तैयार किये जा रहे हैं। यदि भारतीय नौजवानों में स्वतंत्र चिंतन की योग्यता उत्पन्न हो जाये तो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को स्वतः गति प्राप्त हो जायेगी। इस विचार से प्रेरित होकर उग्रवादी नेताओं ने देश भर में थियोसॉफिकल स्कूल और कॉलेज, डी. ए. वी. स्कूल, हिन्दू कॉलेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आदि स्थापित कियेे। इन संस्थाओं ने राष्ट्रीयता के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस पर अँग्रेजों ने मुसलमानों तथा अन्य धर्मावलम्बियों को भी अपनी अलग शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने के लिये उकासाया जिनमें उन धर्मों, मतों एवं पंथों की धार्मिक शिक्षा दी जाने लगी।

उग्र राष्ट्रवाद की मुख्य विशेषताएँ

भारत एक समष्टिवादी देश है जिसमें परम्परा से ही प्राणी मात्र के प्रति दया एवं शरण देने का भाव रहा है। इस कारण भारतीय लोग सनातन रूप से सांस्कृतिक उच्चता, परस्पर सहयोग और शांति के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे न कि राजनीतिक सीमाओं पर आधारित राष्ट्रवाद के सिद्धांत में। भारत में राष्ट्रवाद का विचार यूरोप से आया जहाँ छोटे-छोटे देश अपने राष्ट्र के गौरव की वृद्धि के लिये सैंकड़ों सालों से एक-दूसरे से संघर्ष कर रहे थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में भारत में उग्र राष्ट्रवाद का उदय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। उग्र राष्ट्रवाद की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार से थीं-

(1.) उग्र राष्ट्रवाद के समर्थक नेता, उन्नीसवीं सदी में भारत में चले अनेकानेक धर्मिक एवं समाजिक सुधार आन्दोलनों से प्रभावित थे।

(2.) उग्र राष्ट्रवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा एवं जीवन शैली को भारत के लिये विनाशकारी मानते थे। वे भारतीयों के लिये भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को ही श्रेष्ठ मानते थे।

(3.) उग्र राष्ट्रवादियों का उद्देश्य स्वराज्य की प्राप्ति था न कि ब्रिटिश सरकार की अनुकम्पा प्राप्त करके नागरिक अधिकारों में वृद्धि करवाना।

(4.) उग्र राष्ट्रवादी नेता देशवासियों में राष्ट्रीयता का विकास चाहते थे। वे युवाओं में स्वतंत्र चिंतन एवं उच्च चारित्रिक गुणों का विकास करके ऐसी पीढ़ी तैयार करना चाहते थे जो अपने देश की आजादी के लिये संघर्ष कर सके।

(5.) उग्र राष्ट्रवादियों को अँग्रेजों की न्यायप्रियता एवं परोपकारिता के दावों में विश्वास नहीं था।

(6.) उग्रवादी देशहित, आत्मनिर्भरता एवं ईश्वर में विश्वास करते थे।

(7.) उग्रवादियों का विश्वास था कि भारत और ब्रिटेन के आर्थिक हित एक दूसरे के विरोधी हैं। इसलिए भारत को ब्रिटेन से आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध तोड़ने आवश्यक हैं।

उदारवाद तथा उग्र राष्ट्रवाद में अन्तर

उदारवाद कांग्रेस के आरम्भिक काल का दौर था और उग्र राष्ट्रवाद उसकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न भारत की स्वाभाविक चेतना का प्राकट्य। इस कारण इन दोनों विचारधाराओं में पर्याप्त अंतर थे। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि इन दोनों विचार धाराओं के उद्देश्यों में जितना अधिक अंतर था उतना ही अधिक अंतर उनके साधनों में भी था। इस अंतर को निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-

(1.) राजनीतिक उद्देश्यों में अंतर: उदारवादियों एवं उग्रवादियों के राजनीतिक उद्देश्यों में बहुत बड़ा अंतर था। उदारवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत ही उत्तरदायी सरकार की कल्पना करते थे। वे अँग्रेजों के रहने में ही भारत का कल्याण समझते थे। एक बार लॉर्ड हार्डिंग ने गोखले से कहा- ‘तुम्हें कैसा लगेगा यदि तुम्हें मैं यह कहूँ कि एक माह में ही समस्त ब्रिटिश अधिकारी और सेना भारत छोड़ देंगे।’

इस पर गोखले का उत्तर था- ‘मैं इस समाचार को सुनकर प्रसन्नता अनुभव करूंगा किन्तु इससे पूर्व कि आप लोग अदन तक पहुँचेगें, हम आपको वापस आने के लिये तार कर देंगे।’

उदारवादियों से ठीक उलट, उग्रवादियों ने देश के लिये स्वराज की मांग की। तिलक का कहना था कि जितनी जल्दी हो सके अँग्रेजों को भारत से चले जाना चाहिए। इससे भारतीयों को अपार प्रसन्नता होगी। उग्रवादी नेताओं का मानना था कि विदेशी सुशासन कितना ही अच्छा क्यों न हो, वह स्वशासन से श्रेष्ठ नहीं हो सकता।

(2.) राजनीतिक आंदोलन के तरीके में अंतर: उदारवादी नेता, संवैधानिक उपायों, अनुनयों, विनम्र प्रार्थनाओं, स्मृति पत्रों, ज्ञापनों, अधिवेशन में परित प्रस्तावों तथा भाषणों के माध्यम से भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों में वृद्धि चाहते थे। वे अपनी सुविधा भोगी जिंदगी में व्यवधान उत्पन्न करके जेल जाने को तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिये साम्राज्यवादियों के देश इंग्लैण्ड में जाकर भी अभियान चलाया तथा सरकार से सहयोग करने का मार्ग अपनाया। इसके विपरीत उग्र राष्ट्रवादी नेता, अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिये उग्र राष्ट्रीय आंदोलन एवं राजनीतिक संघर्ष में विश्वास करते थे। वे सड़कों पर लाठियां खाने एवं जेल जाने के लिये तैयार थे। विदेशी शासन से सहयोग का विचार उन्हें तनिक भी मान्य नहीं था। वे स्वराज्य को अपना अधिकार मानकर उसे स्वयं प्राप्त करना चाहते थे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से सहानुभूति, भीख एवं उदारता की अपेक्षा नहीं थी।

विपिनचन्द्र पाल का कहना था- ‘कोई किसी को स्वराज्य नहीं दे सकता। यदि आज अँग्रेज उन्हें स्वराज्य देना चाहें तो वह ऐसे स्वराज्य को ठुकरा देंगे क्योंकि मैं जिस वस्तु को उपार्जित नहीं कर सकता; उसे स्वीकार करने का भी पात्र नहीं हूँ।’

तिलक का कहना था कि- ‘राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ना पड़ेगा…… अँग्रेजों के साथ सहयोग करना और भिक्षा तथा उपहार, वरदानों के रूप में अधिकार प्राप्त करना नितान्त भ्रामक है।’

लाला लाजपतराय ने 1905 ई. के कांग्रेस अधिवेशन में कहा था- ‘एक अँग्रेज को भिखारी से बड़ी घृणा और विरक्ति होती है। मेरे विचार में भिखारी है ही इस योग्य कि उससे घृणा की जाये। अतः हमारा कर्त्तव्य है कि अब हम अँग्रेजों को दिखा दें कि हम भिक्षुक नहीं हैं। हमारा आदर्श भीख मांगना नहीं, वरन् आत्म-निर्भरता है।’

(3.) भारतीय संस्कृति से लगाव में अंतर: उदारवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा एवं जीवन शैली से प्रभावित थे। वे अँग्रेजों की न्यायप्रियता एवं परोपकारिता में विश्वास करते थे। इस कारण वे भारत के पश्चिमीकरण के समर्थक थे। गोपालकृष्ण गोखले का विचार था कि भारतीय परम्पराएं भारत के धर्मनिरपेक्ष तथा प्रजातान्त्रिक आधुनिक राष्ट्र बनने के मार्ग में बाधक हैं। जबकि उग्रवादी नेता, भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में विश्वास करते थे और हिन्दू राष्ट्रवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। उग्रवादियों का राष्ट्रवाद भारत के गौरवपूर्ण प्राचीन महत्त्व पर आधारित था। तिलक तथा अन्य उग्रवादी नेताओं ने हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान का प्रचार किया। तिलक ने महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव तथा गणपति पूजा को पुनर्जीवित किया तथा विपिनचन्द्र पाल ने कलकत्ता में विराट स्तर पर काली पूजा की परम्परा आरम्भ की। लाला लाजपतराय ने आर्य समाज की गतिविधियों को बल प्रदान किया। गणपति पूजा के उत्सव में हिन्दुओं के साथ-साथ शिया और सुन्नी भी भाग लेते थे।

(4.) स्वदेशी आन्दोलन सम्बन्धी नीति में अंतर: कांग्रेस के मंच से 1891 ई. में विदेशी वस्तुओं की जगह स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का नारा दिया गया था परन्तु इस दिशा में कभी गम्भीर प्रयास नहीं किया गया था। उदारवादी नेतृत्व में स्वदेशी का विचार भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन देने तक ही सीमित था जबकि उग्रवादी नेतृत्व ने बंग-भंग आन्दोलन के दौरान स्वदेशी अपनाने के नारे को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध शक्तिशाली हथियार बना लिया। उग्रवादी नेतृत्व ने स्वदेशी के विचार को प्रत्येक भारतीय वस्तु के साथ गहन अनुराग का स्वरूप प्रदान किया।

(5.) विदेशी विचारों एवं वस्तुओं के बॉयकाट सम्बन्धी नीति में अंतर: उदारवादी नेता विदेशी वस्तुओं एवं विचारों के बहिष्कार के घोर-विरोधी थे। उनका मानना था कि ऐसा करना अव्यावहारिक है तथा जनता की सेवा के लिए उपलब्ध सुनहरे अवसरों का परित्याग है। जबकि उग्रवादी नेता, विदेशी वस्तुओं के साथ-साथ विदेशी विचारों के बहिष्कार के भी समर्थक थे। उनकी दृष्टि में बहिष्कार का अर्थ केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार नहीं था अपितु विदेशी शासन से असहयोग, सरकारी नौकरियों तथा उपाधियों का बहिष्कार तथा विदेशी सामान खरीदने-बेचने वालों का बहिष्कार भी सम्मिलित था।

(6.) शिक्षा सम्बन्धी विचारों में अंतर: ब्रिटिश शासन ने भारत की शिक्षा नीति पर पूर्ण रूपेण शिकंजा कस रखा था। इस पर भी उदारवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा को भारतीयों के लिए अच्छा मानते थे। बंग-भंग आन्दोलन आरम्भ होने पर सरकार द्वारा सरकारी शिक्षा विभाग का उपयोग, छात्रों और शिक्षकों को बॉयकाट तथा स्वदेशी आन्दोलन से दूर रखने के लिए किया गया। शिक्षा के सम्बन्ध में उग्रवादी नेताओं के विचार, उदारवादी नेताओं की नीति से बिल्कुल विपरीत थे। उग्रवादी नेता पाश्चात्य शिक्षा के स्थान पर राष्ट्रीय शिक्षा चाहते थे तथा शिक्षा नीति पर विदेशी शासकों का अंकुश नहीं चाहते थे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर ब्रिटिश नियंत्रण के सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का कहना था- ‘भारत में विदेशियों द्वारा शिक्षा का नियन्त्रण और निर्देशन सबसे ज्यादा अस्वाभाविक घटना है……… देश की आवश्यकताओं को पूरा करना ही भारत में राष्ट्रीय शिक्षा का उद्देश्य और लक्ष्य है।’

महाराष्ट्र में तिलक और पंजाब में लाजपतराय आदि नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार कार्य को आगे बढ़ाया ताकि नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार हो सके।

(7.) ब्रिटिश न्यायप्रियता में आस्था सम्बन्धी अंतर: उदारवादी नेता ब्रिटिश शासन के प्रशंसक थे। उनका ब्रिटिश प्रजातन्त्र में असीम विश्वास था। उदारवादियों के लिये अँग्रेजी शासन उनके लिए अभिशाप न होकर वरदान स्वरूप था। उनका यह भी मानना था कि एक दिन ब्रिटिश सरकार भारतीयों को भी भारत में वही अधिकार दे देगी जो इंग्लैण्ड में अँग्रेज जनता को प्राप्त थे। उग्रवादी नेता ब्रिटिश शासन के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि भारतीयों को स्वतन्त्रता पाने के लिए केवल अपने-आप पर ही भरोसा करना होगा। अँग्रेज अपनी इच्छा से भारत का शासन भारतीयों को नहीं सौपेंगे। इसके लिए संघर्ष करना होगा। उग्रवादी नेता भारत में अँग्रेजी शासन को अभिशाप मानते थे।

(8.) नेताओं की पृष्ठभूमि में अंतर: उदारवादियों का नेतृत्व शिक्षित और उच्च वर्ग के लोगों के हाथों में था जबकि उग्रवादी विचारधारा का नेतृत्व मध्यम वर्गीय और सामान्य पृष्ठभूमि से आये व्यक्तियों के हाथ में था। उदारवादी पक्ष भारतीय संस्कारों के ज्यादा अनुकूल नहीं था जबकि उग्रवादी पक्ष भारतीय आवश्यकताओं के अधिक अनुकूल था।

(9.) ब्रिटिश नेताओं के समर्थन में अंतर: उदारवादियों को अनेक प्रतिष्ठित उदारवादी अँग्रेजों तथा ब्रिटिश सांसदों का समर्थन एवं सहयोग मिला परन्तु उग्रवादियों को ब्रिटिश नेताओं एवं जनमत से समर्थन अथवा सहयोग नहीं मिला। उदारवादियों को बढ़ावा देने के लिये भारत की गोरी सरकार ने उग्रवादियों को कुचलने की नीति अपनाई। उदारवादी नेताओं ने उग्रवादी नेताओं के बचाव के लिये कुछ नहीं किया।

उदारवाद तथा उग्र राष्ट्रवाद में समानताएँ

यद्यपि उग्र राष्ट्रवाद, उदारवाद की प्रतिक्रया में उत्पन्न हुआ था तथापि वे एक दूसरे के पूरक थे। उदारवादियों ने, कांग्रेस के रूप में उग्रवादियों के लिये एक पृष्ठभूमि तैयार की तथा उग्रवाद ने उसी कांग्रेस का उपयोग अपनी नीतियों को आगे बढ़ाने में किया। दोनों ही सच्चे देशभक्त और देशप्रेमी थे। उदारवादी आलोचना, भाषण और प्रार्थना-पत्रों से सरकार को प्रभावित करना चाहते थे जबकि उग्रवादी सक्रिय आन्दोलन का मार्ग अपनाने के पक्ष में थे।

रामनाथ सुमन ने लिखा है- ‘जब हम नरम व गरम दोनों दलों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण और अध्ययन करते हैं तो मालूम पड़ता है कि हमारी राष्ट्रीयता के विकास में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों हमारी राजनीति के स्वाभाविक उपकरण हैं। वस्तुतः वे एक ही आन्दोलन के दो पक्ष हैं। एक ही दीपक के दो परिणाम हैं। पहला प्रकाश का द्योतक है; दूसरा गर्मी का। पहला बुद्धि-पक्ष है; दूसरा भाव-पक्ष है। पहला जहाँ कुछ सुविधाएं प्राप्त करना चाहता था, वहाँ दूसरे का उद्देश्य राष्ट्र में मानसिक परिवर्तन करना था।’

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि उदारवादियों एवं उग्रवादियों, दोनों का लक्ष्य एक सीमा तक ही एक जैसा था। दोनों ही पक्ष राष्ट्रीय शक्तियों को मजबूत बनाना चाहते थे। दोनों ही पक्षों के नेता राष्ट्रहित की भावना से प्रेरित होने के कारण उच्चकोटि के देश-भक्त थे। दोनों ही पक्ष भारत की सर्वांगीण प्रगति चाहते थे किंतु इन दोनों के मार्ग तथा लक्ष्यों का अंतिम पड़ाव बिंदु अलग थे। उदारवादी नेता ब्रिटिश सरकार से सहयोग एवं समझौता करके, वैधानिक उपायों से राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के समर्थक थे। उनका उद्देश्य स्वराज प्राप्त करना नहीं था। वे अँग्रेजों की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन चाहते थे जबकि तिलक आदि उग्रवादी नेताओं को राजनीतिक भिक्षावृत्ति पसन्द नहीं थी और वे अँग्रेजों द्वारा प्रदत्त सुराज के स्थान पर स्वयं द्वारा निर्मित स्वराज चाहते थे और इसकी प्राप्ति के लिए संघर्ष करने के समर्थक थे।

उग्रवादी आन्दोलन का मूल्यांकन

उग्रवादियों की सफलताएँ

उग्रवादी आन्दोलन का प्रमुख क्षेत्र बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब था परन्तु इसका प्रभाव सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत में व्याप्त था। उग्रवादी अथवा गरम दल नेताओं ने भारत के राजनीतिक जीवन में नये युग का सूत्रपात किया। उन्होंने उदारवादियों की समझौतावादी राजनीति और ब्रिटिश न्यायप्रियता तथा ईमानदारी में विश्वास की नीति का परित्याग करके संघर्ष की नीति को अपनाया। उन्होंने भारतीय नवयुवकों में नवीन उत्साह का संचार किया तथा उनको आत्म-निर्भरता, आत्म-विश्वास और आत्म-बलिदान की शिक्षा दी। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन में बदलने का प्रयास किया। इस कारण भारत के श्रमिक, किसान, शिक्षित बेरोजगार नवयुवक, असन्तुष्ट निम्न मध्यम वर्ग, कम वेतन पाने वाले बुद्धिजीवी तथा अन्य व्यवसायों में लगे लोग इस आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए। उग्रवादियों ने ही इस बात को जोर देकर कहा कि राजनीतिक आजादी ही राष्ट्र का जीवन है।

उग्रवादियों की विफलताएँ

उग्र राष्ट्रवादी नेताओं की सफलताएं बहुत बड़ी थीं किंतु उन्हें कुछ असफलताओं का भी सामना करना पड़ा। इनमें से कुछ असफलताएँ इस प्रकार से हैं-

(1.) उग्रवादियों ने भारतीय जन साधारण को आंदोलन का सही मार्ग तो दिखा दिया परन्तु वे जनता के उत्साह को संगठित आन्दोलन का रूप नहीं दे पाये।

(2.) 1907-1916 ई. की अवधि में, उदारवादियों का मनोबल गिरा हुआ था किंतु फिर भी उग्रवादी नेता न तो कांग्रेस पर कब्जा कर पाये और न ही उसके स्थान पर कोई नया लोकप्रिय दल बनाकर अपने संगठन का कौशल दिखा पाए।

(4.) उदारवादियों के विफल होते ही, ब्रिटिश सरकार ने पूरी ताकत के साथ उग्रवादियों की गतिविधियों को कुचलना आरम्भ कर दिया। 1908 ई. में समाचार पत्रों का मुंह बन्द करने के लिए समाचार पत्र विधेयक लागू किया गया, आतंकवादी अभियोगों से निपटने के लिए दंडविधि संशोधन अधिनियम (1908) लागू किया गया और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबंधित करने के लिए राजद्रोह सम्मेलन अधिनियम-1911 लागू किया गया। बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय तथा अन्य उग्रवादी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया जिससे उग्रवादियों को भारी धक्का लगा। रिहाई के बाद इनमें से बहुत से नेताओं का मनोबल टूट गया।

(4.) 1916 ई. में तिलक, लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस की एकता फिर से स्थापित करने में सफल रहे और एनीबीसेंट के साथ मिलकर होमरूल आन्दोलन चलाते रहे। जब 1919 ई. में मोहनदास गांधी ने असहयोग सम्बन्धी प्रस्ताव रखा तो तिलक और एनीबीसेंट ने कांग्रेस छोड़ दी।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उग्रवादी अथवा राष्ट्रवादी कांग्रेसी नेताओं ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा दी किंतु उग्रवादी नेताओं के विरुद्ध उदारवादी नेताओं के अड़ियल रुख तथा उग्रवादी नेताओं का अंग्रेजी सरकार द्वारा किये गये दमन के कारण उग्रवादी नेता अधिक सफलताएँ अर्जित नहीं कर पाये।

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