Saturday, July 27, 2024
spot_img
Home Blog Page 170

अध्याय – 18 : चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375-414 ई.)

0

चन्द्रगुप्त (द्वितीय) समुद्रगुप्त की रानी दत्तदेवी का पुत्र था। वह बड़ा ही वीर तथा पराक्रमी राजकुमार था। राजा बनने के बाद उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। विक्रम का अर्थ होता है पराक्रम अथवा प्रताप और आदित्य का अर्थ होता है सूर्य। अर्थात् विक्रमादित्य उस व्यक्ति को कहते हैं जो सूर्य के समान प्रतापी हो। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने ऐश्वर्य तथा प्रताप को उसी प्रकार फैलाया जिस प्रकार सूर्य अपने आलोक को सम्पूर्ण विश्व में फैला देता है।

वैवाहिक सम्बन्ध

स्थायी मित्रों एवं शुभचिंतकों की संख्या में वृद्धि करने के लिये चंद्रगुप्त ने राजनीतिक रूप से शक्ति-सम्पन्न राजकन्याओं से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की नीति का अनुसरण किया।

(1) धु्रवकुमारी से विवाह: धु्रवकुमारी सम्राट रामगुप्त की पत्नी थी तथा गुप्त साम्राज्य की साम्राज्ञी थी। रामगुप्त का वध करने के बाद राज्य में अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने साम्राज्ञी से विवाह कर लिया।

(2) नाग राजकुमारी से विवाह: नागवंश के साथ गुप्तवंश का वैमनस्य बहुत दिनों से चला आ रहा था। इस वैमनस्य को समाप्त करने के लिए चंद्रगुप्त ने नाग-वंश की राजकुमारी कुबेर नाग के साथ विवाह कर लिया।

(3) राजकुमारी प्रभावती का वाकाटकों से विवाह: चंद्रगुप्त तथा महारानी कुबेर नाग के विवाह से प्रभावती नामक राजकन्या उत्पन्न हुई। जब यह राजकन्या बड़ी हुई तो चन्द्रगुप्त ने उसका विवाह बरार के वाकाटक राजा रुद्रसेन (द्वितीय) के साथ कर दिया। यह विवाह चन्द्रगुप्त ने गुजरात तथा सौराष्ट्र के शक क्षत्रपों पर विजय प्राप्त करने के पूर्व किया था। इसलिये डॉ. स्मिथ की धारणा है कि शकों पर विजय प्राप्त करने में चन्द्रगुप्त को रुद्रसेन से बड़ी सहायता मिली होगी। इसलिये राजनीतिक दृष्टि से इस विवाह का बड़ा महत्त्व था।

(4) राजकुमार का विवाह: चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र का विवाह महाराष्ट्र प्रान्त में स्थित कुन्तल राज्य के शक्तिशाली राजा काकुस्थवर्मन की कन्या के साथ किया। इस विवाह का भी बहुत बड़ा राजनीतिक महत्त्व था। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाया।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयें

चन्द्रगुप्त को अपने पिता से एक अत्यंत विशाल तथा सुसंगठित साम्राज्य प्राप्त हुआ। इसलिये उसे साम्राज्य-स्थापना के लिए कोई युद्ध नहीं करना पड़ा परन्तु अपने विशाल साम्राज्य की सुरक्षा करने, उसे सुसंगठित बनाये रखने और अपने साम्राज्य की वृद्धि करने के लिए उसे कई युद्ध करने पड़े। इन युद्धों का विवरण इस प्रकार से है-

(1) गणराज्यों का विनाश: गुप्त साम्राज्य के पश्चिमोत्तर में गणराज्यों की एक पतली पंक्ति विद्यमान थी। समुद्रगुप्त ने इन राज्यों पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था परन्तु इन्हें गुप्त-साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया था। ये राज्य बड़े ही स्वतंत्रता-प्रेमी थे और स्वयं को स्वतंत्र बनाये रखने का प्रयास करते रहते थे। इन गणराज्यों में किसी बाह्य आक्रमण को रोकने की शक्ति नहीं थी। साम्राज्य की सीमा पर ऐसे कमजोर राज्यों की उपस्थिति, जिनमें गणतंत्रात्मक व्यवस्था विद्यमान थी, चन्द्रगुप्त को उचित प्रतीत नहीं हुई। उदयगिरि से प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने इन गणराज्यों पर आक्रमण करके उन्हें गुप्त-साम्राज्य में मिला लिया।

(2) शक-क्षत्रपों का अन्त: अब चन्द्रगुप्त का ध्यान उन शक-क्षत्रपों की ओर गया जो मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र में शासन कर रहे थे। यद्यपि इन क्षत्रपों ने समुद्रगुप्त के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था परन्तु चन्द्रगुप्त ने इस बात का अनुभव किया कि साम्राज्य की सीमा के निकट विदेशी शासन की स्थिति कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है। इसलिये उसने उन पर आक्रमण कर दिया और शक राजा रुद्रसिंह को परास्त कर उसका वध कर दिया तथा उसके राज्य को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त ने चांदी की मुद्राएं चलवाईं। इसके पूर्व के गुप्त सम्राटों ने केवल स्वर्ण मुद्राएं चलवाई थीं। इस विजय से गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिमी समुद्र तट तक पहुंच गई। इस कारण भारत का विदेशों के साथ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों में विस्तार हुआ। इन विजयों से गुप्त साम्राज्य के आंतरिक व्यापार में भी वृद्धि हो गई। मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र के प्रान्त बड़े उपजाऊ तथा धन-सम्पन्न थे। इसलिये न केवल गुप्त साम्राज्य की सीमाओं में वृद्धि हुई अपितु उसके कोष में भी वृद्धि हो गई।

(3) पूर्वी प्रदेश पर विजय: गुप्त साम्राज्य की पूर्वी सीमा पर कई छोटे-छोटे राज्य थे जो गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए संगठन कर रहे थे। महरौली के स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने इन्हें परास्त कर यश प्राप्त किया था।

(4) वाह्लीक राज्य पर आक्रमण: भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में कुषाणों के वंशज अब भी शासन कर रहे थे। महरौली के स्तम्भ लेख से ज्ञाता होता है कि चन्द्रगुप्त ने सिन्ध की सहायक नदियों को पार कर वाह्लीकों को परास्त किया और पंजाब तथा सीमान्त प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर वाह्लीकों को काबुल के उस पार भगा दिया। सम्भवतः इन समस्त विजयों के उपरान्त ही चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

(5) दक्षिणापथ पर पुनर्विजय: महरौली के स्तम्भ-लेख से ज्ञात होता है कि रामगुप्त के शासनकाल में दक्षिण-भारत के राज्यों ने गुप्त साम्राज्य की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था परन्तु चन्द्रगुप्त ने अपने पराक्रम तथा प्रताप के बल से पुनः दक्षिण भारत के राज्यों में गुप्त साम्राज्य की सत्ता स्थापित की।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का साम्राज्य

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी विजयों के फलस्वरूप एक विशाल गुप्त साम्राज्य पर राज्य किया। उसका राज्य पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन प्रबंध

साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ चन्द्रगुप्त ने अपने शासन को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का शासन बड़ा उदार तथा दयालु था। उसका शासन प्रबन्ध उस युग में किसी उपलब्धि से कम नहीं था।

(1) सम्राट: सम्राट राज्य का प्रधान था और अपनी राजधानी से ही सम्पूर्ण राज्य के शासन पर नियंत्रण रखता था। वह अपनी सेना का प्रधान सेनापति था और युद्ध के समय रण-क्षेत्र में उपस्थित रहता था। सम्राट न्याय विभाग का भी प्रधान था। उसका निर्णय अन्तिम समझा जाता था। इस प्रकार सेना, शासन तथा न्याय तीनों शक्तियों का केन्द्र-बिन्दु सम्राट स्वयं होता था।

(2) मंत्री: सम्राट को परामर्श देने तथा शासन में सहायता पहुंचाने के लिए कई मन्त्री नियुक्त किये जाते थे। सेना तथा शासन के अधिकारियों में कोई अंतर नहीं था। जो मन्त्री शासन को देखता था वही सैन्य-विभाग को भी संभालता था। (अ) मंत्रिन्: चन्द्रगुप्त का प्रधान परामर्शदाता मन्त्रिन कहलाता था। (ब) सन्धिविग्रहिक: सन्धि तथा विग्रह (युद्ध) आदि विषयों को देखने के लिये सन्धिविग्रहिक होता था। यह मन्त्री युद्ध के समय रण-स्थल में सम्राट के साथ उपस्थित रहता था। चन्द्रगुप्त का मन्त्री वीरसेन अपने स्वामी के साथ क्षत्रपों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए गया था। (स) अक्षपटल अधिकृत: एक मन्त्री राज-पत्रों को रखता था। उसे अक्षपटल अधिकृत कहते थे।

(3) शासन की विभिन्न इकाइयाँ: चंद्रगुप्त द्वितीय का सम्पूर्ण साम्राज्य कई प्रान्तों में, प्रत्येक प्रांत कई जिलों में तथा प्रत्येक जिला कई ग्रामों में विभक्त था। (अ) प्रांतीय शासन: प्रत्येक प्रान्त ‘देश’ अथवा ‘भुक्ति’ कहलाता था। देश का शासक ‘गोत्री’ और भुक्ति का ‘उपरिक’ कहलाता था। कुछ प्रान्तों के शासक राजकुमार हुआ करते थे। (ब) जिलों का शासन: प्रत्येक प्रान्त कई जिलों में विभक्त रहता था। ये जिले ‘प्रदेश’ अथवा ‘विषय’ कहलाते थे। इनका शासक ‘विषयपति’ कहलाता था। (स) ग्राम्य शासन: प्रत्येक विषय कई ग्रामों में विभक्त रहता था। गांव का शासक ग्रामिक अथवा भोजक कहलाता था। इस पद पर गांव का चौधरी अथवा मुखिया ही नियुक्त किया जाता था। उसकी सहायता के लिए ग्राम-वृद्धों की पंचायतें हुआ करती थीं।

(4) दंड विधान: चन्द्रगुप्त उदार तथा दयालु शासक था। उसका दंड विधान कठोर नहीं था। दंड, अपराध की गुरुता के अनुसार दिया जाता था। साधारण अपराध के लिए साधारण शास्ति और बड़े-बड़े़ अपराधों के लिए बड़ी शास्ति आरोपित की जाती थी। अंग-भंग करने का दंड प्रायः नहीं दिया जाता था। केवल राजद्रोहियों का दाहिना हाथ काट दिया जाता था। किसी को भी प्राण दण्ड नहीं दिया जाता था।

(5) व्यापार तथा वाणिज्य: चन्द्रगुप्त के शासन-काल में बाह्य तथा आन्तरिक व्यापार की बड़ी उन्नति हुई। उसका साम्राज्य पश्चिमी समुद्र तट तक विस्तृत था। इससे भारत का विदेशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध विस्तारित हो गया। उस काल में बंगाल से सूती तथा रेशमी वस्त्र, बिहार से नील, हिमालय प्रदेश से अंगराग तथा दक्षिण भारत से कपूर, चन्दन और मसाले पश्चिमी समुद्र-तट पर लाये जाते थे और रोम को भेजे जाते थे जहाँ से बहुत-सा सोना प्रतिवर्ष भारत आता था।

(6) मुद्राएं: साधारण व्यापार में कौड़ी का प्रयोग किया जाता था। परन्तु बड़े-बड़े व्यापारों में धातु मुद्राओं का प्रयोग होता था। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने तीन प्रकार की मुद्राएं चलाई थी। उत्तर भारत में सोने तथा तांबे की मुद्राएं प्रचलित थीं परन्तु गुजरात तथा काठियावाड़ में चांदी की मुद्राओं का प्रयोग किया जाता था।

(7) धार्मिक सहिष्णुता: चन्द्रगुप्त भागवत धर्म का अनुयायी एवं परम वैष्णव था परन्तु अन्य संप्रदायों के साथ सहिष्णु था। वह राजकीय पदों पर योग्यता के आधार पर नियुक्तियां करता था। इसलिये राजकीय सेवाओं के द्वार किसी भी सम्प्रदाय को मानने वाली प्रजा के लिए खुले रहते थे। चन्द्रगुप्त का सेनापति बौद्ध और उसका एक मन्त्री वैश्य था।

(8) दान-व्यवस्था: सम्राट चन्द्रगुप्त बड़ा ही उदार तथा दानी था। वह अनाथों तथा दीन-दुखियों की सदैव सहायता करता था। उसने दान का अलग विभाग खोल दिया था और उसके प्रबन्ध के लिए एक पदाधिकारी नियुक्त कर दिया था।

चीनी यात्री फाह्यान का आगमन

चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया। उसका बचपन का नाम कुंड् था। जब वह दस वर्ष का था तब उसके पिता का निधन हो गया इसलिये कुंड् के पालन-पोषण का भार उसके चाचा पर पड़ा। उसका चाचा उसे गृहस्थाश्रम में प्रवेश कराना चाहता था, परन्तु कुंड् ने भिक्षु बनने का संकल्प लिया। कुंड् के पिता की मृत्यु के कुछ समय उपरान्त कुंड् की माता का भी निधन हो गया। माता तथा पिता के स्नेह से वंचित हो जाने के कारण कुंड् गृहस्थ-जीवन से विमुख हो गया। बड़े होने पर उसने सन्यास ले लिया और वह फाह्यान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। फाह्यान दो शब्दों से मिलकर बना है- फा तथा हियान। चीनी भाषा में फा का अर्थ है धर्म और हियान का अर्थ है आचार्य। इसलिये फाह्यान का अर्थ हुआ धर्माचार्य। चीन में उस समय बौद्ध धर्म का प्रचार अपने चरम पर था। फाह्यान बौद्ध-धर्म में दीक्षित हो गया। जब उसने बौद्ध-ग्रन्थों ‘त्रिपिटक’ तथा ‘विनय-पिटक’ का अध्ययन किया तो वे ग्रंथ उसे अधूरे तथा क्रमहीन प्रतीत हुए। इसलिये उसने उनकी प्रामाणिक प्रतियां प्राप्त करने तथा बौद्ध धर्म की जन्मभूमि का दर्शन करने के लिए भारत आने का निश्चय किया।

फाह्यान ने 400 ई. में चार अन्य भिक्षुओं के साथ भारत के लिए प्रस्थान किया। मार्ग की भयानक कठिनाइयों का सामना करते हुए वह गांधार पहुंचा। वहाँ से वह तक्षशिला गया और वहाँ से पुष्पपुर (पेशावर) पहुंचा। इस यात्रा में उसके साथी उसका साथ नहीं दे पाये और वे अपने देश लौट गये। केवल एक साथी उसके साथ रह गया। फाह्यान पुष्पपुर से मथुरा, कन्नौज, श्रावस्ती, कुशीनगर, वैशाली, पाटलिपुत्र, नालन्दा, राजगृह, काशी, सारनाथ आदि नगरों के दर्शन करता हुआ ताम्रलिप्ति पहुंचा। यहाँ पर उसने दो वर्ष तक निवास किया। ताम्रलिप्ति से वह सिंहलद्वीप अर्थात् श्रीलंका गया। वहाँ से वह जावा गया और जावा से फिर अपने देश को लौट गया। 414 ई. में वह चीन पहुंच गया।

फाह्यान ने 405 ई. में भारत में प्रवेश किया और 411 ई. में उसने भारत से प्रस्थान किया। इस प्रकार वह लगभग 6 वर्ष तक भारत में रहा और लगभग चौदह वर्ष तक यात्रा करता रहा। जब फाह्यान अपने देश पहुंचा तब उसने अपनी यात्रा का विवरण अपने एक मित्र को सुनाया। फाह्यान के मित्र ने इस विवरण को फो-को-की नामक ग्रंथ में लेखनी-बद्ध कर दिया। यह विवरण, प्रचीन भारत का इतिहास जानने का अच्छा साधन है।

फाह्यान का भारतीय विवरण: फाह्यान 405 से 411 ई. अर्थात् लगभग छः वर्षों तक भारतवर्ष में रहा। उसने भारत के विभिन्न भागों में भ्रमण किया। यद्यपि वह बौद्ध-ग्रन्थों को प्राप्त करने तथा तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के लिये भारत आया था तथा इस कार्य में वह इतना तल्लीन रहा कि उसने पाटलिपुत्र में तीन वर्ष तक निवास करने के उपरांत अपने विवरण में एक बार भी चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का नाम नहीं लिखा। फिर भी उसके विवरण से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

(1) राजनीतिक दशा: फाह्यान लिखता है कि शासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा के जीवन को सुखी बनाना था। चन्द्रगुप्त का शासन बड़ा अच्छा था। उसकी प्रजा बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी। प्रजा को अपना कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता थी। राजा उसके कार्यों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। लोग स्वतंत्रतापूर्वक व्यवसाय करके धन कमा सकते थे। क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग होता था। बड़े-बड़े नगरों में राज्य की ओर से औषधालयों का प्रबंध रहता था, जहाँ प्रजा को निःशुल्क दवा मिलती थी। प्रजा पर राज्य की ओर से बहुत थोड़े कर लगाये गये थे। भूमि कर राज्य की आय का प्रधान साधन था। दण्ड-विधान कठोर न था। अपराधियों को प्रायः जुर्माने का दण्ड दिया जाता था। राजद्रोहियों का दहिना हाथ काट दिया जाता था। लोगों को चोरी तथा ठगी का बिल्कुल भय न था। राजा से उसकी प्रजा प्रेम करती थी। यात्रियों को बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। और उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कें बनी थीं और उनके किनारे पर छायादार वृक्ष लगे थे। स्थान-स्थान पर कुंए खुदे रहते थे और धर्मशालाएं बनी रहती थीं, जिनमें यात्रियों को निःशुल्क भोजन मिलता था।

(2) सामाजिक दशा: फाह्यान के विवरण से भारत की सामाजिक दशा का पर्याप्त परिचय मिलता है। उसने लिखा है कि उत्तरी भारत के लोग बड़े धर्मात्मा तथा धन सम्पन्न थे। वे सदाचारी, विद्या प्रेमी तथा एक दूसरे से सहानुभूति रखने वाले थे। लोग एक दूसरे की सहायता करने के लिए उद्यत रहते थे। वे सत्यवादी होते थे और अपने व्यवहार में सत्य का पालन करते थे। लोग अहिंसात्मक प्रवृत्ति के होते थे। सज्जन लोग न तो आखेट करते थे और न मांस, लहसुन, प्याज, मदिरा आदि का सेवन करते थे। नगरों में इन वस्तुओं की दुकानें तक नहीं थीं। इन वस्तुओं का प्रयोग केवल चाण्डाल लोग तथा नीच जातियां करती थीं। उन्हें नगर के बाहर रहना पड़ता था। वे समाज से बहिष्कृत समझे जाते थे। सूअर तथा मुर्गियों को केवल नीच लोग पालते थे।

(3) धार्मिक दशा: फाह्यान के विवरण से भारत की तत्कालीन धार्मिक दशा का भी पता चलता है। उसके विवरण से हमें ज्ञात होता है कि ब्राह्मण धर्म इस समय बड़ी उन्नत दशा में था और मध्य भारत में उसका बड़ा जोर था। सम्राट चन्द्रगुप्त स्वयं परमभागवत तथा वैष्णव धर्म का अनुयायी था। पंजाब, मथुरा तथा बंगाल में बौद्ध धर्म की प्रधानता थी। महायान तथा हीनयान दोनों ही सम्प्रदाय विद्यमान थे। फाह्यान ने देश के विभिन्न भागों में अनेक बौद्ध विहार देखे थे परन्तु बौद्ध-धर्म अब अधःपतन की ओर जा रहा था। मध्य-भारत में तो इसका प्रभाव समाप्त सा हो रहा था। यद्यपि गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था परन्तु अन्य धर्मों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार करता था। वह बौद्ध-धर्म को मानने वालों के साथ किसी प्रकार का अत्याचार नहीं करता था। समस्त सम्प्रदायों वाली प्रजा मेल-जोल के साथ रहती थी। उनमें ईर्ष्या-द्वेष की भावना नहीं थी। सम्राट ब्राह्मणों के साथ-साथ बौद्धों को भी दान-दक्षिणा देता था।

(4) पाटलिपुत्र की दशा: फाह्यान गुप्त-साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में तीन वर्ष तक रहा। इस अवधि में उसने संस्कृत भाषा सीखी। उसने लिखा है कि पाटलिपुत्र में दो बड़े ही सुन्दर बौद्ध-विहार थे। इनमें से एक हीनयान सम्प्रदाय का और दूसरा महायान सम्प्रदाय का था। इन विहारों में लगभग छः-सात सौ भिक्षु निवास करते थे। भिक्षु बड़े ज्ञानवान होते थे। समाज के विभिन्न भागों से लोग ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन विद्वान भिक्षुओं के पास आया करते थे। फाह्यान ने पाटलिपुत्र में अशोक द्वारा बनवाये हुए सुन्दर भवन को देखा था। इस भवन की सुन्दरता से वह आश्चर्यचकित रह गया था। उसने विचार किया वह भवन देवताओं द्वारा बनाया गया है क्योंकि मनुष्य ऐसे भव्य भवन का निर्माण नही कर सकता था। फाह्यान लिखता है कि नगर में बड़े धनी तथा दानी लोग निवास करते थे। नगर में अनेक संस्थाएं थीं जहाँ दीन-दुखियों, अपाहिजों तथा असहायों को दान मिलता था। पाटलिपुत्र में एक बहुत बड़ा औषधालय था, जहाँ दीन-दुखियों को निःशुल्क औषधि मिलती थी। औषधालय का व्यय नगर के धनी-मानी तथा दानी व्यक्ति वहन करते थे।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के कार्यों का मूल्यांकन

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की गणना भारत के अत्यंन्त योग्य तथा सफल शासकों में होती है। उसने अपने पिता के साम्राज्य को न केवल सुरक्षित तथा सुसंगठित रखा अपितु उसकी सीमाओं में वृद्धि भी की।

महान विजेता: चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने शक-क्षत्रपों को परास्त कर मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र को गुप्त-साम्राज्य में मिलाया। उसने वाह्लीकों को पश्चिमोत्तर प्रदेश से मार भगाया और गणराज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित करके गुप्त-साम्राज्य की सीमा में वृद्धि की। उसने दक्षिण भारत पर भी गुप्त-साम्राज्य की सत्ता को फिर से स्थापित किया। इस प्रकार एक विजेता के रूप में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का स्थान बड़ा ऊँचा है।

महान कूटनीतिज्ञ: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने समय का बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह समस्त प्रकार के साधनों का प्रयोग कर सकता था। उसने नारी का वेश धारण कर शक-राजा की हत्या की और अपने भाई रामगुप्त का वध कर पाटलिपुत्र का सिंहासन प्राप्त किया। उसने नाग-वंश तथा वाकाटक वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी स्थिति को अत्यंत सुदृढ़़ बनाया। इन सबसे सिद्ध होता है कि वह राजनीति का बहुत बड़ा पंडित था।

कुशल प्रशासक: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कुशल प्रशासक था। फाह्यान के विवरण से ज्ञात होता है कि उसकी प्रजा बड़ी सुखी थी और उससे प्रेम करती थी। उसका शासन उदार था। वह न्याय-प्रिय राजा था। उसका दंड-विधान कठोर नहीं था। मृत्यु दंड का सर्वधा निषेध था।

धार्मिक सहिष्णुता: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, भागवत धर्म का उपासक था जिसे वैष्णव धर्म भी कहते हैं। उसके अभिलेखों में उसे परम भागवत कहा गया है। उसमें उच्च-कोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। उसके राज्य में राजकीय नौकरियों के द्वार समस्त प्रजा के लिए खुले रहते थे। उसके मंत्री ‘वीरसेन’ तथा ‘शिखर स्वामी’ शैव धर्म के अनुयायी थे। उसका सेनापति ‘आम्रकार्दव’ बौद्ध था।

महान साहित्य प्रेमी: चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने समय का महान साहित्य प्रेमी तथा साहित्यकारों का आश्रयदाता था। उसकी महानता उसके साम्राज्य निर्माण में नहीं अपितु बौद्धिक पुनरुत्थान में निहित थी। उसकी सभा में नौ महान् विद्वान रहते थे जो नवरत्न कहलाते थे। इनमें कालिदास सर्वश्रेष्ठ थे। चन्द्रगुप्त के शासन-काल में संस्कृत भाषा की बड़ी उन्नति हुई और अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ लिखे गए। कला एवं संस्कृति की उन्नति, प्रजा की सम्पन्नता तथा राज्य में शांति के वातावरण के कारण ही गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहते हैं।

उपर्युक्त विवरण से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य योग्य तथा सफल शासक था और भारत के इतिहास में राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से उसका बड़ा महत्व है।

अध्याय – 19 गोविंदगुप्त, कुमारगुप्त (प्रथम) एवं स्कंदगुप्त

0

गोविंद गुप्त बालादित्य (412-415 ई.)

बसाढ़ (वैशाली) से ध्रुवस्वामिनी की एक मुहर प्राप्त हुई है जिस पर एक लेख इस प्रकार उत्कीर्ण है- महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त-पत्नी महाराज गोविन्दगुप्त माता महादेवी श्री धु्रवस्वामिनी। इस मुहर से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-

1. किसी रानी की मुहर में उसके शासक पति और उसके युवराज पुत्र के नाम की ही अपेक्षा की जा सकती है। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समय यह मुहर जारी की गई उस समय चंद्रगुप्त (द्वितीय) जीवित था। अन्यथा धु्रवस्वामिनी ने स्वयं को राजमाता कहा होता।

3. यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस समय यह मुहर जारी की गई उस समय तक कुमार गुप्त को चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया गया था।

3. यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि गोविंदगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का ज्येष्ठ पुत्र था तथा युवराज होने के कारण इस मुहर पर उसका नाम आया है।

मालव अभिलेख कहता है कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की मृत्यु के बाद गोविंद गुप्त राजा हुआ। अतः अनुमान होता है कि गोविंदगुप्त अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ किंतु उसका शासन अत्यंत अल्पकाल का रहा। अनुमान है कि इस शासन की अधिकतम अवधि दो वर्ष रही। उसने 412 ई. से 415 ई. के बीच की अवधि में शासन किया। संभवतः इसकी उपाधि बालादित्य थी।

कुमार गुप्त प्रथम (415-455 ई.)

बिलसड़ अभिलेख के अनुसार कुमारगुप्त की आरम्भिक तिथि 415 ई. तथा उसके चांदी के सिक्कों पर उसकी अंतिम तिथि 455 ई. प्राप्त होती है। इससे अनुमान होता है कि 415 ई. में चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का कनिष्ठ पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) गुप्तों के सिंहासन पर बैठा। उसे महेन्द्रादित्य भी कहते हैं।

साम्राज्य: कुमारगुप्त के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने अपने पूर्वजों के विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा संगठित रखा। 436 ई. के एक अभिलेख में कहा गया है कि कुमारगुप्त का साम्राज्य उत्तर में सुमेरू और कैलाश पर्वत से दक्षिण में विन्ध्या वनांे तक और पूर्व तथा पश्चिम में सागर के बीच फैला हुआ था।

प्रजा की स्थिति: कुमारगुप्त का राज्य शांतिपूर्ण और समृद्धिशाली था। उसने अपने शासन के 40 वर्ष के शांतिकाल में भी अपनी सेना को बनाये रखा।

अश्वमेध यज्ञ: कुमारगुप्त की मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने एक अश्वमेघ यज्ञ भी किया था।

पुष्यमित्रों पर विजय: कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम भाग में नर्मदा नदी के उद्गम के निकट निवास करने वाले पुष्यमित्र वंश के क्षत्रियों ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने उनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया।

धार्मिक सहिष्णुता: कुमारगुप्त ने अपने पिता की धर्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। वह स्वयं कार्तिकेय का उपासक था तथा अन्य सम्प्रदाय वालों के साथ उदारता का व्यवहार करता था।

निधन: 455 ई. में कुमारगुप्त का निधन हो गया।

स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)

कुमारगुप्त की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कन्दगुप्त 455 ई. में गुप्तों के सिंहासन पर बैठा। इस अभिलेख में स्कन्दगुप्त अपने पिता कुमारगुप्त के नाम का उल्लेख तो करता है किंतु अपनी माता के नाम का उल्लेख नहीं करता जबकि गुप्त शासकों में इस प्रकार के शिलालेखों में अपनी माता का नाम लिखने की अनिवार्य परम्परा थी। इस कारण परमेश्वरीलाल गुप्त ने इससे यह आशय निकाला है कि स्कंदगुप्त को अपनी माता का नाम लिखना गौरवपूर्ण प्रतीत नहीं हुआ।

स्कन्दगुप्त की उपलब्धियाँ

सिंहासन की प्राप्ति: स्कन्दगुप्त वीर राजा था। अपने पिता के शासनकाल में ही उसने पुष्यमित्रों का दमन किया। जिस समय कुमारगुप्त की मृत्यु हुई, उस समय स्कन्दगुप्त राजधानी से दूर युद्ध में व्यस्त था। इस कारण स्कन्दगुप्त के छोटे भाई घटोत्कच ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। स्कन्दगुप्त ने राजधानी लौटकर कुछ माह में ही अपने पिता के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि लक्ष्मी ने समस्त गुण-दोषों को पूरी तरह छान-बीन करने के बाद अन्य राजपुत्रों को ठुकराकर उनका वरण किया।

शत्रुओं का दमन: भितरी अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने अपने पिता के राज्य का दिग्विजय द्वारा विस्तार किया और पराजितों पर दया दिखाई। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि स्कन्दगुप्त ने मान दर्प से अपने फणों को उठाने वाले सर्प रूपी नरपतियों का दमन किया। इससे अनुमान होता है कि स्कन्दगुप्त के सिंहासन पर बैठते ही हूणों का आक्रमण हुआ।

किदार कुषाणों का दमन: जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि स्कंदगुप्त ने म्लेच्छों का दमन किया। परमेश्वरीलाल गुप्त ने इन म्लेच्छों का साम्य किदार कुषाणों से किया है जिन्होंने स्कन्दगुप्त से परास्त होकर उत्तरी पश्चिमी पर्वतीय भूभाग में शरण ली तथा फिर वे छठी शताब्दी में किसी समय वहां से वापस लौटे तथा गांधार के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया।

हूणों का दमन: स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बैठते ही विपत्तियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि हूणों ने सिन्धु नदी को पार कर उसके साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। स्कन्दगुप्त ने उन्हें परास्त कर दिया। इस उपलक्ष्य में उसने देवी-देवताओं को बलि भेंट चढ़ाई तथा विष्णु स्तम्भ का निर्माण करवाया जो गाजीपुर के भीतरी नामक गांव में पाया जाता है।

जूनागढ़ अभिलेख स्कन्दगुप्त के राज्यारोहण के बाद एक-दो वर्ष की अवधि में ही लिखा गया है जिसमें कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों का सामना कर उन्हें पराजित कर पृथ्वी को हिला दिया। जूनागढ़ अभिलेख तथा भितरी अभिलेख दोनों ही स्कंदगुप्त की विजय की स्पष्ट घोषणा करते हुए कहते हैं कि स्कन्दगुप्त ने अपने शत्रुओं को पराजित कर पूर्णतः कुचल दिया।

हूणों ने डैन्यूब नदी से सिंधु तक क्रूर विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर रखी थी। उनके नेता अत्तिल ने रवेन्ना तथा कुस्तुंतुनिया दोनों ही राजधानियों पर भयानक आक्रमण किया था। उसने ईरान को परास्त करके वहां के राजा को मार डाला था। अतः स्कन्दगुप्त ने हूणों को भारत भूमि से परे धकेलकर राष्ट्र एवं प्रजा की रक्षा की।

स्कन्दगुप्त की इस सेवा का वर्णन करते हुए बी. पी. सिंह ने लिखा- ‘यदि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानियों की दासता के बंधन से देश को मुक्त किया तो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने शकों की शक्ति का विनाश किया और स्कन्दगुप्त ने हूणों से साम्राज्य तथा देश की रक्षा की।’ स्कन्दगुप्त को जीवन पर्यन्त उनके साथ संघर्ष करना पड़ा परन्तु हूणों के आक्रमण बन्द नहीं हुए।

शासन प्रबंध: स्कन्दगुप्त उदार शासक था। उसे शास्त्र और न्याय दोनों के प्रति गहरी आस्था थी। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि उसकी प्रजा का कोई व्यक्ति अपने धर्म से च्युत नहीं होता, कोई दारिद्र्य और कदर्य से पीड़ित नहीं है और न किसी दण्डनीय को अनावश्यक पीड़ित किया जाता है। स्कन्दगुप्त के शासन काल में प्रांतपतियों को गोप्ता कहा जाता था। उनका चयन बहुत सोच समझकर किया जाता था। उनमें सर्वलोक हितैषी, विनम्रता तथा न्यायपूर्ण अर्जन की प्रवृत्तियों की परख की जाती थी।

सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार: 455 ई. में अतिवृष्टि के कारण सुदर्शन झील का बांध टूट गया। स्कन्दगुप्त ने विपुल धन राशि लगाकर सुदर्शन झील की मरम्मत कराई तथा इसके बांध का पुनः निर्माण करवाया। इस बांध से चंद्रगुप्त (द्वितीय) के समय में ही सिंचाई के लिये नहरें निकाली गई थीं।

स्कन्दगुप्त का धर्म: स्कन्दगुप्त वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने भी अपने पूर्वजों की भांति धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसने नालंदा में एक बौद्ध संघाराम बनवाया।

साम्राज्य की सुरक्षा: यद्यपि स्कन्दगुप्त का काल भयानक विपत्तियों का काल था परन्तु वह अपने पूर्वजों के साम्राज्य को सुरक्षित रखने में पूरी तरह सफल रहा। 460 ई. के कहवां अभिलेख में कहा गया है कि स्कन्दगुप्त ने नालंदा में बौद्ध संघाराम बनाने में सहायता की इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समय तक स्कन्दगुप्त हूणों, शकों एवं कुषाणों को अपने राज्य की सीमाओं से परे धकेल चुका था तथा राज्य में शांति हो गई थी।

मुद्राओं के भार में वृद्धि: स्कन्दगुप्त ने अपने पूर्ववर्ती गुप्त सम्राटों द्वारा जारी की गई मुद्राओं की अपेक्षा अधिक भार की मुद्रायें चलाईं। जबकि धातु की शुद्धता पहले से भी अधिक बढ़ा दी गई। इससे अनुमान होता है कि स्कन्दगुप्त का राज्य पूरी तरह समृद्ध था तथा राज्यकोष परिपूर्ण था। अनुमान है कि स्कन्दगुप्त के राज्य में सोना और चांदी सस्ते हो गये थे अतः मुद्रा का मूल्य बनाये रखने के मुद्रा के भार तथा शुद्धता में वृद्धि की गई।

चीन के साथ राजनीतिक सम्बन्ध: चीनी स्रोतों के अनुसार 466 ई. में एक भारतीय राजदूत सांग सम्राट के दरबार में गया। उस समय चीनी सम्राट् ने भारतीय नरेश को एक उपाधि प्रदान की जिसका अर्थ था- ‘अपना अधिकार सुदृढ़ रूप से स्थापित करने वाला सेनापति।’ अनुमान होता है कि यह राजदूत स्कन्दगुप्त द्वारा भेजा गया था क्योंकि इस उपाधि में स्कन्दगुप्त के राज्य की घटनाओं की झलक मिलती है।

उत्तर-पश्चिमी पंजाब का पतन: स्कंदगुप्त के शासन के अंतिम दिनों में हूणों ने उत्तर पश्चिमी पंजाब पर अधिकार कर लिया। यह संभवतः पहली बार था जब किसी आक्रांता ने गुप्तों से धरती छीनी हो।

प्रांतपतियों का विद्रोह: स्कन्दगुप्त के शासन के परवर्ती काल का कोई भी शिलालेख उत्तर प्रदेश तथा पूर्वी मध्यप्रदेश से आगे नहीं मिलता। उसकी प्रारंभिक मुद्राओं पर परमभागवत महाराजाधिराज की उपधि मिलती है किंतु बाद के सिक्कों पर परहितकारी राजा की उपाधि उत्कीर्ण है। इससे अनुमान है कि उसके शासन के अंतिम वर्षों में हूणों ने उसके राज्य का बहुत सा भाग दबा लिया जिससे उत्साहित होकर अन्य प्रांतपतियों ने भी विद्रोह करके स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी। काठियावाड़ में मैत्रकों ने वलभी को राजधानी बनाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। स्कंदगुप्त के शासन काल में ही मालवा भी हाथ से निकल गया था।

करद राज्यों का विद्रोह: स्कन्दगुप्त के शासन काल में ही एरण में परिव्राजकों का शासन हो गया था। यह पहले गुप्तों के अधीन एक करद राज्य था।

पश्चिमी राज्यों पर छोटे राज्यों की स्थापना: स्कन्दगुप्त के शासन काल में साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गई।

स्कन्दगुप्त की पराजय एवं राज्य बिखरने के कारण

स्कन्दगुप्त के जीवन काल में ही राज्य में आई शिथिलता, हूणों से पराजय एवं राज्य के बिखरने के दो प्रमुख कारण जान पड़ते हैं-

1. उत्तराधिकारी का अभाव: स्कन्दगुप्त के कुछ सिक्के मिले हैं जिनमें एक स्त्री की प्रतिमा उत्कीर्ण है। स्त्री की प्रतिमा वाले सिक्के स्कन्दगुप्त के शासन काल के प्रारंभिक सिक्के हैं बाद के सिक्कों पर इस तरह की प्रतिमा नहीं है। कुछ इतिहासकार इसे स्कन्दगुप्त की रानी मानते हैं तो कुछ उसे लक्ष्मी की मूर्ति मानते हैं। अधिकांश इतिहासकारों की राय है कि स्कन्दगुप्त अविवाहित था। उसके सिक्कों पर न रानी का उल्लेख मिलता है न किसी राजकुमार का। संभवतः यही कारण था कि सम्राट की वृद्धावस्था तथा उत्तराधिकारी के अभाव के कारण हूणों का सफलता पूर्वक प्रतिरोध नहीं किया जा सका। सम्राट की वृद्धावस्था, पराजय एवं उत्तराधिकारी के अभाव से उत्साहित होकर करद राज्यों ने कर देना बंद कर दिया तथा प्रांतपतियों ने भी स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।

2. बौद्ध धर्म का प्रभाव: स्कन्दगुप्त ने अपने प्रारंभिक सिक्कों में अपने आप को परमभागवत महाराजाधिराज घोषित किया है जबकि बाद के सिक्कों में परहितकारी कहकर अपनी दीनता प्रकट की है। कहला अभिलेख घोषणा करता है कि स्कन्दगुप्त  ने नालंदा में बौद्ध संघाराम का निर्माण करवाया। इन दों तथ्यों से अनुमान होता है कि बौद्ध धर्म में रुचि हो जाने के कारण स्कन्दगुप्त युद्धों के प्रति उदासीन हो गया। इसी कारण हूणों से उसकी पराजय हुई तथा प्रांतीय सामंतों एवं करद राज्यों ने उत्साहित होकर अपने-अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये।

निष्कर्ष

स्कन्दगुप्त की सफलताएं उसे अपने पूर्ववर्ती सम्राटों- चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त (द्वितीय) की पंक्ति में बैठाती हैं। उसके राज्य में पूर्ववर्ती समस्त राजाओं से अधिक समृद्धि थी। उसके अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसके कार्य समुद्रगुप्त की भांति महान थे किंतु वृद्धावस्था आ जाने के कारण, बौद्ध धर्म में आस्था होने के कारण, युद्धों से उदासीन होने के कारण तथा उत्तराधिकारी न होने के कारण राज्य के अंतिम वर्षों में शिथिलता आ गई। हूणों से मिली पराजय के बाद  राज्य बिखरने लगा।

स्कन्दगुप्त की मृत्यु

स्कन्दगुप्त की ज्ञात अंतिम तिथि गुप्त संवत् 148 अर्थात् 467 ई. है। विश्वास किया जाता है कि इसी वर्ष उसकी मृत्यु हुई।

अध्याय – 20 : गुप्त साम्राज्य का पतन

0

उत्तरकालीन गुप्त सम्राट

स्कन्दगुप्त के बाद उसका विमात-पुत्र पुरुगुप्त वृद्धावस्था में सिंहासन पर बैठा। पुरुगुप्त ने 467 ई. से 473 ई. तक शासन किया। उसने धनुर्धर प्रकार की स्वर्ण मुद्रायें चलाईं। डॉ. रायचौधरी ने भरसार से पाये गये सिक्कों पर अंकित प्रकाशादित्य को पुरुगुप्त अथवा उसके किसी तात्कालिक उत्तराधिकारी की गौण उपाधि माना है। पुरुगुप्त साम्राज्य को विश्ृंखलित होने से नहीं बचा सका। उसका चाचा गोविन्दगुप्त, जो मालवा में शासन करता था, स्वतंत्र हो गया। उसका अनुसरण करके अन्य प्रान्तपति भी स्वतंत्र होने का प्रयत्न करने लगे। उसके बाद कई शक्तिहीन राजा हुए जो गुप्त-साम्राज्य को नष्ट होने से नहीं बचा सके। गुप्त सम्राटों में अंतिम सम्राट कुमारगुप्त (तृतीय) तथा विष्णुगुप्त हुए। इनकी अंतिम तिथि 570 ई. के लगभग मिलती है। इसके बाद गुप्तवंश के किसी राजा का उल्लेख नहीं मिलता है।

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण

गुप्त सम्राटों ने 275 ई. से 550 ई. तक पूरी शक्ति एवं ऊर्जा से शासन किया। उसके बाद उनकी अवनति आरंभ हो गई तथा 570 ई. के लगभग उनका राज्य पूरी तरह नष्ट हो गया। गुप्तों के पतन के कई कारण थे जिनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार से हैं-

(1) अयोग्य उत्तराधिकारी: गुप्त साम्राज्य के पतन का सर्वप्रथम कारण यह था कि स्कन्दगुप्त की मृत्यु के उपरान्त पुरुगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त (द्वितीय), भानुगुप्त आदि गुप्त-सम्राट् अयोग्य तथा शक्तिहीन थे। उनमें विशाल गुप्त-साम्राज्य को सुरक्षित रखने की क्षमता नहीं थी। केन्द्रीभूत शासन की सुरक्षा तथा सुदृढ़़ता सम्राट् की योग्यता पर ही निर्भर रहती है। इसलिये अयोग्य शासकों के शासन-काल में साम्राज्य का छिन्न-भिन्न हो जाना स्वाभाविक था।

(2) हूणों के आक्रमण: गुप्त-साम्राज्य के पतन का दूसरा कारण हूणों का आक्रमण था। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने सफलतापूर्वक इन आक्रमणों का सामना किया परन्तु हूणों के आक्रमण बन्द नहीं हुए। उत्तरकालीन निर्बल गुप्त-सम्राटों के शासन-काल में ये आक्रमण और अधिक बढ़ गये।

(3) निश्चित सीमा नीति का अभाव: परवर्ती गुप्त-सम्राटों ने विदेशी आक्रमणों को रोकने के लिए किसी निश्चत सीमा नीति का अनुसरण नहीं किया। न ही सीमाओं पर नियुक्त सेनाओं के सुदृढ़़ीकरण पर ध्यान दिया। इसलिये वे हूणों के लगातार हो रहे आक्रमणों को लम्बे समय तक रोक नहीं सके।

(4) प्रान्तपतियों की महत्त्वाकांक्षाएँ: गुप्त-साम्राज्य के पतन का तीसरा कारण प्रान्तपतियों की महत्त्वाकांक्षाएँ थीं। स्कन्दगुप्त के बाद जब अयोग्य शासक सिंहासन पर बैठे तब प्रान्तपतियों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करना आरम्भ कर दिया। सबसे पहले बल्लभी के मैत्रकों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया। इसके बाद सौराष्ट्र, मालवा, बंगाल आदि के शासकों ने भी स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया जिससे गुप्त-साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

(5) आर्थिक विपन्नता: गुप्त-साम्राज्य के पतन का चौथा करण आर्थिक विपन्नता थी। यह विपन्नता स्कन्दगुप्त के शासन-काल में ही आरम्भ हो गई थी। ब्राह्य-आक्रमणों को रोकने में परवर्ती गुप्त-सम्राटों को विपुल धन व्यय करना पड़ा। जिससे राज-कोष धीरे-धीरे रिक्त हो गया और शासन का सुचारू रीति से संचालित करना असम्भव हो गया। फलतः सर्वत्र कुव्यवस्था फैल गई और गुप्त-साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

(6) बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाना: गुप्त-साम्राज्य के पतन का पांचवां तथा अन्तिम कारण यह था कि गुप्त वंश के परवर्ती शासकों ने ब्राह्मण धर्म त्याग कर बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया। बौद्ध-धर्म अंहिसा-धर्म है इसलिये वह सैन्य-शक्ति को बल नहीं प्रदान करता। इसका परिणाम यह हुआ कि गुप्त-साम्राज्य की सैन्य-शक्ति दिन पर दिन क्षीण होती गई और साम्राज्य हूणों की सैन्य शक्ति का शिकार बनकर नष्ट हो गया।

(7) यशोवर्मन का उत्कर्ष: कुमारगुप्त (तृतीय) के शासनकाल में मंदसौर के क्षेत्रीय शासक यशोवर्मन ने अपनी शक्ति बढ़ाई। उसने हूणों को परास्त किया तथा मगध तक धावा बोला। गुप्त साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यशोवर्मन का पूर्वी भारत का सैनिक अभियान ही था।

अध्याय – 21 : गुप्त कालीन भारत

0

गुप्त-कालीन समाज में बाह्य संस्कृति को आत्मसात् करने की अपूर्व क्षमता थी। यही कारण है कि शक, कुषाण, पह्लव आदि विदेशी संस्कृतियां, जो गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पूर्व से भारत में निवास कर रही थीं, गुप्तों के प्रतापी शासन काल में भारतीयों में घुल-मिल कर अपना अस्तित्त्व खो बैठीं।

सामाजिक जीवन

गुप्तकालीन भारतीय समाज बड़ा ही प्रगतिशील था। गुप्त शासकों द्वारा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किये जाने के कारण समाज में वैदिक धर्म की प्रधानता व्याप्त हो गई। इससे लोगों का सामाजिक जीवन सुख, शांति, सदाचरण एवं सहयोग से परिपूर्ण हो गया।

जाति प्रथा: मौर्य काल से भी पहले से चले आ रहे बौद्ध तथा जैन-धर्मों के प्रचार के कारण गुप्त काल आते-आते, समाज में जाति-प्रथा के बन्धन शिथिल पड़ गये थे परन्तु इस काल में जाति-प्रथा अपने पूर्व स्वरूप में सुदृढ़ बन गई। ब्राह्मणों को फिर से सर्वश्रेष्ठ माना जाने लगा। समाज में उनका आदर-सत्कार फिर से बहुत बढ़ गया। फाह्यान के विवरण से ज्ञात होता है कि उस काल में चाण्डालों की निकृष्ट जाति पैदा हो गई जो घृणा की दृष्टि से देखी जाती थी। चाण्डाल, नगर से बाहर रहते थे। जब वे नगर में प्रवेश करते थे तब उन्हें लकड़ी बजाते हुए चलना पड़ता था जिससे लोगों को चाण्डालों के आने की सूचना मिल जाय और वे मार्ग से अलग हो जायें।

विवाह: वैदिक वर्ण व्यवस्था का प्रचार होने से उस काल में जाति के भीतर विवाह अच्छे समझे जाते थे किंतु अन्तर्जातीय विवाहों का भी प्रचलन था। क्षत्रिय गुप्त सम्राटों ने ब्राह्मण माने जाने वाले वाकाटक वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। इस काल में विधवा विवाह का भी प्रचलन था। चन्द्रगुुप्त द्वितीय ने अपने भाई रामगुप्त की विधवा ध्रुवदेवी के साथ विवाह किया था। बहु-विवाह की प्रथा का भी प्रचलन इस युग में था। इस काल में अनमेल वृद्ध-विवाहों के उदाहरण भी मिलते हैं।

स्त्रियों की दशा: इस काल में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी थी। उन पर किसी तरह के अत्याचार नहीं थे। पर्दे की प्रथा प्रचलन में नहीं थी और स्त्रियाँ स्वतंत्रता पूर्वक बाहर आ जा सकती थीं, परन्तु घर से बाहर निकलते समय वे अपनी देह पर अलग से कपड़े का आवरण डाल लेती थीं। उस काल के विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में सती प्रथा की ओर भी संकेत किया है।

दास-प्रथा: गुप्तकाल में दास-प्रथा का प्रचलन था। युद्ध बंदी प्रायः दास बना लिये जाते थे। ऋण न चुकाने पर ऋणी लोग अपने ऋणदाता के दास बन जाते थे। यदि कोई जुआरी जुए में हार जाता था तो वह भी दासता के बन्धन में फँस जाता था परन्तु यह दासता आजीवन नहीं होती थी। कैद से छूट जाने, ऋण चुका देने तथा जुए में हारे हुए धन को चुका देने पर दासता समाप्त हो जाती थी।

खान-पान: अंहिसा-धर्म के प्रचार के कारण भारतीय समाज धीरे-धीरे शाकाहारी होता जा रहा था और मांस-भक्षण धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। चीनी यात्री फाह्यान ने तो यहाँ तक लिखा है कि चाण्डालों के अतिरिक्त (जो समाज में बड़ी घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे) कोई भी व्यक्ति मांस, मदिरा लहसुन, प्याज आदि का सेवन नहीं करता था। इससे यह प्रकट है कि हिन्दू लोग खान-पान में शुद्धता तथा सात्त्विकता का ध्यान रखते थे।

आर्थिक दशा

गुप्त-काल आर्थिक दृष्टि से बड़े़ गौरव का युग था। इस काल में देश धन-धान्य पूर्ण था। जनता बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी।

कृषि: इस काल में कृषि ही लोगों का मुुख्य व्यवसाय था। मनुस्मृति में पांच प्रकार की भूमियों का उल्लेख किया गया है। विभिन्न प्रकार के अनाजों के साथ-साथ फल तथा मसालों आदि की भी कृषि होती थी। गुप्तकाल में चावल, गेहूँ, अदरक, सरसों, तरबूज, इमली, नारियल, नाशपाती आडू़, खुबानी, अंगूर, संतरा आदि की खेती होती थी। गांधार अभिलेख में कुओं, तालाबों, पीने का पानी एकत्र करने, उद्यानों, झीलों, पुलों आदि नगरीय सुविधाओं का उल्लेख किया गया है।

उद्योग धंधे: गुप्त काल में विभिन्न प्रकार के कुटीर-उद्योग एवं विविध प्रकार के धन्धे उन्नत दशा में थे।

आंतरिक व्यापार: गुप्त साम्राज्य में आन्तरिक व्यापार उन्नत दशा में था और वह नदियों तथा सड़कों द्वारा होता था। गुप्त-साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित हो जाने के कारण व्यापारी निर्भय होकर व्यापार करते थे। इन व्यापारियों की अपनी श्रेणियाँ बनी हुई थीं जिन्हें बड़े़ सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इन श्रेणियों के अपने प्रधान होते थे और इनकी कार्यकारिणी भी होती थी। इससे व्यापार बड़े़ संगठित रूप में चलता था।

विदेशी व्यापार: गुप्त काल में ताम्रलिप्ति बंगाल का प्रसिद्ध बन्दरगाह था। उत्तरी भारत का सारा व्यापार इसी बन्दरगाह द्वारा चीन, वर्मा तथा पूर्वी-द्वीप-समूह से होता था। इन देशों के साथ दक्षिण-भारत के राज्यों से भी व्यापार होता था। यह व्यापार गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के मुहानों पर स्थित बन्दरगाहों के द्वारा होता था। गुप्त-साम्राज्य पश्चिमी समुद्र-तट तक पहँुच गया था। भड़ौंच इस ओर का सबसे प्रसिद्ध बन्दरगाह था। इस बन्दरगाह से पाश्चात्य देशों, विशेषतः रोम-साम्राज्य के साथ व्यापार होता था।

आयात-निर्यात: इस युग में भारत में सोने चाँदी का उत्पादन कम होता था। इसलिये विदेशों में बहुत बड़ी मात्रा में भारतीय माल भेजा जाता था और वहाँ से सोना-चाँदी मँगाया जाता था। भारत से चंदन, लौंग, सुगंधि, लाल मिर्च, शीशम की लकड़ी, मोती, रत्न, सुगन्धि, शंख, चंदन, अगर, सूती किमखाब, चावल तथा वस्त्र आदि का निर्यात किया जाता था। इनके बदले में विदेशों से रेशम, सोना-चांदी, दास दासियों एवं घोड़ों का आयात किया जाता था।

धार्मिक दशा

धार्मिक दृष्टि से गुप्त-काल का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस काल में भारत में कई धर्म प्रचलन में थे।

भागवत धर्म: इस काल में भागवत धर्म की बड़ी तेजी से उन्नति हुई जिसे वैष्णव धर्म भी कहते हैं। गुप्त राजाओं ने वैदिक परम्पराओं के अनुसार अश्वमेध यज्ञ किये जिनमें ब्राह्मणों तथा अन्य धर्मों को मानने वालों को बड़े-बड़े दान दिये गये। गुप्त-साम्राज्य भागवत धर्म के अनुयायी थे। इसी धर्म को उन्होंने अपना राजधर्म बनाया। राजधर्म हो जाने के कारण भागवत धर्म का खूब प्रचार हुआ। लोगों का बौद्ध बनना रुक गया। इस काल में कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया और श्रीमद्भगवद्गीता के सिद्धान्तों का खूब प्रचार हुआ।

शैव धर्म: वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म का भी इस काल में खूब प्रचार हुआ। वाकाटक, मैत्रक, कदम्ब आदि राजाओं ने शैव धर्म को स्वीकार कर उसे प्रश्रय दिया। इस काल में अनेक शिव मन्दिरों का निर्माण हुआ। शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की कल्पना इसी काल में हुई तथा अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की मूर्तियों का निर्माण हुआ।

बौद्ध धर्म: इस काल में देश में बड़ी संख्या में बौद्ध प्रजा निवास करती थी। बौद्ध धर्म में भी महायान का अधिक बोलबाला था।

जैन धर्म: गुप्त काल में जैन धर्म भी उन्नत अवस्था में था। बड़ी संख्या में जैन साधु देश के विभिन्न भागों में घूमते रहते थे। देश के विभिन्न भागों में जैन धर्म को मानने वाली प्रजा भी बड़ी संख्या में निवास करती थी।

धार्मिक सहिष्णुता: गुप्त सम्राट् ने भागवत् धर्म को स्वीकार किया और उसे राज्याश्रय प्रदान किया। उनमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वे समस्त धर्मों तथा उनके मतावलम्बियों को आदर की दृष्टि से देखते थे। समस्त धर्मों तथा मतों को मानने वाली प्रजा उनकी कृपा की पात्र थी। समस्त धर्मों के साधु-संत तथा उपासक गुप्त सम्राटों से दान-दक्षिणा पाते थे। गुप्त सम्राटों ने राजकीय सेवाओं का द्वार समस्त धर्मों के लोगों के लिए खोल रखा था। वे योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ दिया करते थे।

मूर्ति पूजा का विस्तार: गुप्त सम्राटों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति का परिणाम यह हुआ कि बौद्ध तथा जैन-धर्म का अस्तित्त्व बना रहा और वे शान्तिपूर्वक अपनी धार्मिक क्रियाओं को करते रहे। इस काल में बौद्ध तथा जैन दोनों ही धर्म भागवत धर्म से प्रभावित हुए। इस कारण बौद्ध धर्म के अनुयायी, बुद्ध तथा बोधिसत्वों को ईश्वर का अवतार मानने लगे और उनकी मूर्तियाँ बनाकर चैत्यों (मन्दिरों) में उनकी पूजा करने लगे। इसी प्रकार जैन-धर्म के मानने वाले भी जैन मन्दिर बनवा कर तीर्थकरों की मूर्तियों की पूजा करने लगे।

मंदिरों का निर्माण: इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, बुद्ध, बोधिसत्वों तथा तीर्थकरों की पूजा का महत्व बढ़ गया इस कारण उनकी पूजा के लिए बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण किया गया। इन मन्दिरों में पूजा-पाठ तथा देवताओं की उपासना की जाती थी। बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण होने से इस काल में शिल्प-कला तथा चित्र-कला की बड़ी उन्नति हुई। चूँकि इन मन्दिरों में कीर्तन तथा नृत्य हुआ करते थे इसलिये इस युग में संगीत तथा नृत्यकला की भी बड़ी उन्नति हुई।

गुप्त कालीन साहित्य

साहित्य तथा कला की दृष्टि से भी गुप्त युग का बड़ा महत्त्व है। यह साहित्य के पुनरूत्थान तथा पुनर्जागरण का युग माना जाता है। इस युग में संस्कृत-साहित्य की आशातीत वृद्धि हुई। उसे एक बार फिर से देश की एकमात्र साहित्यिक भाषा बनने का गौरव प्राप्त हुआ। इस काल में पाली तथा प्राकृत भाषाओं में साहित्य की रचना बन्द हो गई और संस्कृत ही साहित्यकारों की अभिव्यंजना का माध्यम रह गई। मौर्य काल एवं उसके बाद के समय में, भारतीय कला पर जो विदेशी प्रभाव आ गया था, वह प्रभाव इस युग में हट गया तथा विशुद्ध भारतीय कला की पुनर्प्रतिष्ठा हुई।

संस्कृत-साहित्य का पुनरुद्धार: चूँकि गुप्त-काल में वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना हुई इसलिये उसके साथ-साथ संस्कृत भाषा की उन्नति होनी भी अनिवार्य थी। इस कारण गुप्त काल संस्कृत साहित्य के पुनरुद्धार का युग माना जाता है। इस युग में संस्कृत भाषा में ऐसे उच्चकोटि के ग्रन्थ लिखे गये जो विश्व साहित्य में अमर हो गये। इस काल में संस्कृत को एकमात्र साहित्यिक भाषा बनने का गौरव फिर से प्राप्त हो गया। पाली तथा प्राकृत भाषाओं में साहित्य-रचना की जो मनोवृत्ति आरम्भ हुई थी वह बन्द हो गई। ब्राह्मणों के साथ-साथ अन्य सम्प्रदाय वालों ने भी संस्कृत भाषा में ही साहित्य रचना आरम्भ कर दिया। इतना ही नहीं, विदेशी लेखक एवं यात्री भी संस्कृत भाषा की ओर आकृष्ट हुए और उन्होंने संस्कृत सीखी।

साहित्यकारों को आश्रय: गुप्त-सम्राट् विद्या-व्यसनी थे और साहित्य में उनकी बड़ी रुचि थी। समुद्रगुप्त स्वयं उच्चकोटि का विद्वान् एवं साहित्यकार था और कविताएँ लिखता था। इसी से वह कविराज ‘अर्थात् कवियों का राजा’ कहा गया है। समुद्रगुप्त का मन्त्री हरिषेण भी उच्चकोटि का कवि था। उसकी प्रशस्ति प्रयाग के स्तम्भ लेख में अब भी विद्यमान है। समुद्रगुप्त विद्वानों तथा साहित्यकारों का आश्रयदाता माना जाता है। बौद्ध दार्शनिक वसुबन्धु तथा बौद्ध-नैयापिक दिड्नाग को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।

नव रत्नों की स्थापना: समुद्रगुप्त का पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भी बड़ा विद्या-प्रेमी तथा विद्वानों का आश्रयदाता था। कहा जाता है कि उसने अपनी राज-सभा को नौ महान् विद्वानों से सुशोभित कर रखा था, जो उसकी राज-सभा के ‘नवरत्न’ कहलाते थे। इन विद्वानों में महाकवि कालिदास सर्वश्रेष्ठ थे। कालिदास की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे इस युग के सबसे बड़े कवि तथा नाटककार माने जाते है। कालिदास के लिखे हुए सात ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। इनमें रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत तथा ऋतुसंहार काव्य ग्रन्थ हैं और अभिज्ञानशाकुतलम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्र नाटक ग्रन्थ हैं। शाकुन्तलम् संसार का सर्वोत्कृष्ट नाटक-ग्रन्थ माना जाता है। ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक के रचियता विशाखदत्त इसी काल की विभूति माने जाते है। ‘अमरकोष’ के रचयिता अमर सिंह तथा भारतीय आयुर्वेद के प्रकाण्ड पण्डित एवं चिकित्सक चरक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में थे।

गुप्तकालीन प्रमुख रचनायें

(1) कालिदास: काव्य ग्रंथ- रघुवंशम्, कुमारसम्भवम्, मेघदूतम् तथा ऋतुसंहार। नाटक ग्रंथ- अभिज्ञानशाकुंतलम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्रम्।

(2) भास: स्वप्नवासवदत्तम्, चारुदत्तम्, प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्।

(3) शूद्रक: मृच्छकटिकम्।

(4) विशाखदत्त: देवीचंद्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस।

(5) भट्टी: भट्ठिकाव्य, रावण वध।

(6) वात्स्यायन: कामसूत्र। (वात्स्यायन को मौर्यकालीन चाणक्य भी माना जाता है।)

(7) दण्डि: दशकुमार चरितम्।

(8) सुबंधु: वासवदत्ता।

(9) भारवि: किरातार्जुनीयम्।

(10) विष्णु शर्मा: पंचतंत्रम्।

(11) पुराण: वायु पुराण, स्मृति पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण।

(12) स्मृतियां: बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति।

(13) बौद्ध साहित्य: वसुबंधु चरित, मंजुश्रीमूलकल्प।

(14) जैन साहित्य: जिनसेन रचित हरिवंश पुराण।

(15) विदेशी साहित्य: फाह्यान का फो-क्यो-की तथा ह्वेनसांग का सि-यू-की।

ब्राह्मण ग्रन्थों का पुनरुद्धार: गुप्त काल में अनेक ब्राह्मण-ग्रन्थों का पुनरुद्धार हुआ। पुराणों का सम्वर्द्धन किया गया और मनुस्मृति, याज्ञवलक्य स्मृति, बृहस्पति स्मृति तथा नारद स्मृति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन तथा संशोधन किया गया। सूत्रों पर भी टीकाएँ तथा भाष्य लिखे गये और उन्हें समयानुकूल बनाया गया।

हिन्दू दर्शन का विकास: डॉ. अल्तेकर ने गुप्त-कालीन दर्शन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘उस काल के हिन्दू, भारतीय दर्शन की नूतन तथा साहसिक पद्धति को विकसित करने में उतने ही सफल रहे जितने समुद्र पार सामान ले जाने के लिए विशाल तथा सुदृढ़़ पोतों को बनाने में।’

गणित तथा ज्योतिष की उन्नति: उत्तर-कालीन गुप्त सम्राटों के शासन काल में गणित तथा ज्योतिष की अत्यधिक उन्नति हुई। आर्यभट्ट तथा ब्रह्मगुप्त इस काल के बड़े गणितज्ञ और वराहमिहिर बहुत बड़े ज्योतिषी तथा खगोल शास्त्री थे। स्मिथ ने लिखा है- ‘गणित और ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में गुप्तकाल आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर के महान् नामों से अलकृंत था।’ आर्यभट्ट ने सूर्य का सिद्धांत नामक ग्रंथ लिखा। वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने घोषणा की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उन्होंने दशमलव प्रणाली का विकास किया।

विज्ञान एवं चिकित्सा की उन्नति: गुप्तकाल में विज्ञान तथा चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। वाग्भट्ट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांग हृदय की रचना की। चंद्रगुप्त के दरबार में प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि रहते थे। गुप्तकालीन चिकित्सकों को शल्य-शास्त्र के विषय में भी ज्ञान था। इस काल में अणु सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ।

बौद्धिक सक्रियता का विस्फोट: गुप्त काल में साहित्य तथा कला के विकास पर टिप्पणी करते हुए डॉ. स्मिथ ने लिखा है- ‘गुप्त वंश के योग्य तथा लम्बे शासन-काल में बौद्धिक सक्रियता का असाधारण विस्फोट हुआ। यह काल सामान्य साहित्यिक उद्रेक से ओतप्रोत था जिसके परिणाम काव्य एवं विधि-ग्रन्थों तथा अनेक अन्य प्रकार के साहित्य में परिलक्षित होते हैं।’

विदेशी शासकों से तुलना: गुप्तकालीन साहित्यिक उन्नति की विवेचना करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपठी ने लिखा है- ‘गुप्त काल की तुलना प्रायः यूनान के इतिहास में पेरिक्लीज के काल से अथवा इंगलैंड में एलिजाबेथ के युग से की जाती है। इन काल ने भारत को अनेक बुद्धिमान विभूतियों से विभूषित किया, जिनकी देन से भारतीय साहित्य की विभिन्न शाखाएँ अत्यधिक सम्पन्न हो गईं। गुप्त-सम्राटों ने विद्वता को प्रोत्साहित किया। वे स्वयम् भी वे अत्यधिक सुसंस्कृत थे।’

गुप्त कालीन कलाएँ

गुप्त-काल में विभिन्न प्रकार की कलाओं की अत्यधिक उन्नति हुई।

स्थापत्य कला: गुप्त काल में स्थापत्य कला अर्थात् भवन निर्माण कला की बड़ी उन्नति हुई। गुप्त कालीन स्थापत्य कला के सम्बन्ध में स्मिथ ने लिखा है- ‘इस कथन को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त जानकारी प्राप्त है कि वास्तु कला का बड़े परिणाम में बड़ी सफलता पूर्वक अभ्यास किया जाता था।’ यद्यपि इस काल के अधिकांश भवन नष्ट हो गये हैं परन्तु कई मन्दिर, विहार तथा चैत्य अब भी विद्यमान हैं जो तत्कालीन कला की उच्चता के प्रमाण हैं। इस युग में ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन तीनों ही धर्म अपने-अपने उपास्य देवों की प्रतिमाओं की देवालयों में उपासना करते थे। इस कारण मंदिरों का बड़ी संख्या में निर्माण हुआ। सारनाथ के स्तूप, अजन्ता तथा एलोरा के गुहा विहार, भीतरगाँव का मन्दिर, देवगढ़ का दशावतार मन्दिर आदि गुप्तकालीन कला सौन्दर्य के प्रमाण हैं। देवगढ़ के दशावतार मंदिर का शिखर आरंभ में 40 फुट ऊँचा था। गुप्तकालीन मंदिरों के मुख्य आकर्षण केन्द्र मूर्तिस्थान का प्रवेश द्वार था। गुप्तकालीन मंदिरों में तिगवा का विष्णु मंदिर, भूमरा का शिव मंदिर, खोह का शिव मंदिर, नचना-कुठार का पार्वती मंदिर, देवगढ़ का दशावतार मंदिर तथा भीतरगांव का लक्ष्मण मंदिर उल्लेखनीय हैं

शिल्प कला: गुप्त-काल में शिल्प-कला की भी बड़ी उन्नति हुई। गुप्त कालीन शिल्प कला के सम्बन्ध में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘कुल मिला कर गुप्त काल के शिल्पकारों की कृतियों की यह विशेषता है कि उनमें ओज, अंसयम का अभाव तथा शैली का सौष्ठव पाया जाता है।’ गुप्त काल की शिल्पकला तथा चित्रकला के सम्बन्ध में डॉ. नीलकान्त शास्त्री ने लिखा है- ‘शिल्प कला तथा चित्रकला के क्षेत्र में गुप्त कालीन कला भारतीय प्रतिभा में चूड़ान्त विकास की प्रतीक है और इसका प्रभाव सम्पूर्ण एशिया पर दीप्तिमान है।’ डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने गुप्त कालीन शिल्प की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘सामान्यतः उच्चकोटि का आदर्श और माधुर्य तथा सौन्दर्य की उच्चकोटि की विकसित भावना गुप्त काल की शिल्प कला की विशेषता है।’

मूर्तिकला: गुप्त काल में मूर्ति पूजा का प्रचलन बहुत बढ़ गया था। इसलिये देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बड़ी संख्या में बनाई जाने लगीं। इससे इस काल में मूर्ति निर्माण कला की बड़ी उन्नति हुई। इस काल की मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर है। उनकी पहली विशेषता यह है कि वे विदेशी प्रभाव से मुक्त हैं और विशुद्ध भारतीय बन गई हैं। इनकी दूसरी विशेषता यह है कि इनमें नैतिकता पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। इस काल में नग्न मूर्तियों का निर्माण बन्द हो गया और उन्हें झीने वस्त्र पहनाये गये। इनकी तीसरी विशेषता यह है कि ये बड़ी ही सरल हैं। इन्हें अत्यधिक अलंकृत करने का प्रयत्न नहीं किया गया है। इस काल की सारनाथ की बौद्ध प्रतिमा बड़ी सुन्दर तथा सजीव है। मथुरा से प्राप्त भगवान विष्णु की मूर्ति गुप्तकाल की कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। गुप्तकाल में बनारस, पाटलिपुत्र एवं मथुरा मूर्तिकला के प्रसिद्ध केन्द्र थे।

चित्रकला: इस युग में मूर्तिकला के साथ-साथ चित्रकला की भी बड़ी उन्नति हुई। अजन्ता तथा एलोरा की गुफाओं की दीवारों में इस काल की चित्रकारी के सुन्दर उदाहरण विद्यमान हैं। इन चित्रों कोे वज्रलेप से बनाया गया है। लताओं, फूलों, पशुओं तथा मनुष्यों के जो चित्र इस युग में बने हैं, वे बड़े ही स्वाभाविक, सजीव तथा चित्ताकर्षक हैं। अजन्ता की चित्रकारी के विषय में श्रीमति ग्राबोस्का ने लिखा है- ‘अजन्ता की कला भारत की प्राचीन कला है। चित्रकारियों का सौन्दर्य आश्चर्यजनक है और वह भारतीय चित्रकारी की चरमोन्नति का प्रतीक है।’

संगीत कला: गुप्त-सम्राटों ने संगीत कला को राज्याश्रय प्रदान किया। इस कारण इस काल में संगीत-कला की बड़ी उन्नति हुई। समुद्रगुप्त को संगीत से बड़ा प्रेम था। वह इस कला में प्रवीण था। अपनी मुद्राओं में वह वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि संगीत-कला में उसने नारद तथा तुम्बुरू को भी लज्जित कर दिया था।

नाट्य कला: गुप्त-काल में नाट्य कला की भी उन्नति हुई। इस काल में बहुत से नाटक-ग्रन्थ लिखे गये जिनसे स्पष्ट है कि इन नाटकों को रंगमंच पर खेला जाता रहा होगा।

मुद्रा कला: गुप्त-काल में मुद्रा कला की भी उन्नति हुई। प्रारम्भ में तो गुप्त कालीन सम्राटों ने विदेशी मुद्राओं का अनुसरण किया परन्तु बाद में विशुद्ध भारतीय मुद्राएँ चलाईं। गुप्त-सम्राटों की अधिकांश मुद्राएँ स्वर्ण निर्मित हैं परन्तु बाद में उन्होंने चाँदी की मुद्राएँ भी चलाईं। ये मुद्राएँ बड़ी सुन्दर तथा चिताकर्षक हैं। इनका आकार तथा इन पर अंकित मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर हैं। इन मुद्राओं पर गुप्त-सम्राटों का यशोगान किया गया है तथा अश्वमेध यज्ञ आदि सूचनाएं दी गई हैं।

विदेशी प्रभाव से मुक्त

गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पूर्व भारत में यूनानी, शक, कुषाण, सीथियन आदि जातियाँ प्रवेश कर गई थीं और भारत के विभिन्न भागों में शासन कर रही थीं। इस कारण भारतीय कला पर विदेशी कला, विशेषकर गान्धार-शैली का बहुत प्रभाव हो गया था। गुप्त-कालीन कला ने विदेशी प्रभाव को उखाड़ फेंका और वह विशुद्ध भारतीय स्वरूप में विकसित हुई।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्तकाल भारत के सर्वतोमुखी विकास का काल था। इस काल में भारत में नवजीवन तथा नवोल्लास का संचार हुआ जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रस्फुटित हुआ। महर्षि अरविन्द ने लिखा है- ‘भारत ने अपने इतिहास में कभी भी जीवन की शक्ति का इतना बहुमुखी विकास नहीं देखा।’ हैवेल ने भी गुप्त काल की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘भारतवर्ष उन दिनों शिष्यता की स्थिति में न था वरन् वह सम्पूर्ण एशिया का शिक्षक था और पाश्चात्य सुझावों को लेकर उसने उन्हें सुधारणा के अनुकूल बना लिया।’

भारत के इतिहास में गुप्तों का स्थान

इतिहासकार बर्नेट ने लिखा है- भारतीय इतिहास में गुप्तकाल का वही स्थान है, जो यूनानी इतिहास में परीक्लीज का है और रोमन इतिहास में आगस्टस सीजर का।

अध्याय – 22 भारत भूमि का स्वर्ण-युग: गुप्त काल

0

इतिहास में स्वर्ण युग का तात्पर्य उस युग से होता है जो अन्य युगों से अधिक गौरवपूर्ण तथा ऐश्वर्यवान रहा हो, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से देश का चूड़ान्त विकास हुआ हो, जिसमें प्रजा को भौतिक तथा नैतिक विकास का पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ हो, जिसमें समृद्धि तथा सम्पन्नता का बाहुल्य रहा हो, जिसमें साहित्य तथा कला का विकास हुआ हो।       

गुप्त-काल स्वर्ण युग क्यों

गुप्त काल को भारतीय इतिहास में ‘स्वर्णयुग’ कहा गया है। इस कथन के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

(1) राजनीतिक एकता का युग: इस काल में भारत को जो राजनीतिक एकता प्राप्त हुई, वह इसके पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुई थी। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने गुप्त-सम्राटों द्वारा स्थापित की गई राजनीतिक एकता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘गुप्त साम्राज्य बड़ा ही सुसंगठित राज्य था जिसे अपनी सार्वभौम सम्प्रभुता की छत्रछाया में भारत के बहुत बड़े भाग पर राजनीतिक एकता स्थापित करने में सफलता प्राप्त हुई और इतने बड़े क्षेत्र पर अपना प्रभाव स्थापित किया जो उससे भी बड़ा था जो प्रत्यक्ष रूप में उसके साम्राज्य तथा शासन के अन्तर्गत था।’ इस काल का प्रतापी तथा दिग्विजयी सम्राट् समुद्रगुप्त था। उसने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को जीत कर सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित राज्य की स्थापना की थी। उसने अटवी प्रदेश, दक्षिणापथ तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश के राज्यों को नत-मस्तक कर उन्हें अपना प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए विवश किया। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने उस राजनीतिक एकता को फिर स्थापित कर दिया जो अशोक की मृत्यु के उपरान्त समाप्त हो गई थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने पिता के साम्राज्य में वृद्धि की। उसने शकों को ध्वस्त करके ‘शकारि’ की उपाधि धारण की। उसने वाह्लीकों को नत-मस्तक किया। उसने विक्रमादित्य की

उपाधि धारण की। स्कन्दगुप्त ने हूणों के आक्रमणों का सफलता पूर्वक सामना किया और अपने पूर्वजों के विशाल साम्राज्य को सुरक्षित रखा। इस प्रकार राजनीतिक एकता की दृष्टि से गुप्त-काल को स्वर्णयुग कहना उचित है।

(2) शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग: गुप्त-काल शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग था जिसमें प्रजा को अपनी चरमोन्नति का अवसर प्राप्त हुआ। इसी से डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने लिखा है- ‘देश की जो भौतिक तथा नैतिक उन्नति हुई वह सुव्यवस्थित राजनीति दशा का ही परिणाम था।’ गुप्त शासन बड़ा ही उदार तथा दयापूर्ण था। प्रजा को अपनी उन्नति के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। बाह्य तथा आन्तरिक विपत्तियों से प्रजा की रक्षा करने के लिए राज्य की ओर से पूर्ण व्यवस्था की गई थी। न्याय की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की गई थी किंतु कठोर दण्ड विधान का प्रावधान नहीं किया गया था। किसी अपराधी को प्राण-दण्ड नहीं दिया जाता था। गुप्त-सम्राटों ने यातायात के साधनों की समुचित व्यवस्था करके व्यापार की उन्नति में बड़ा योग दिया। इस काल में न केवल आन्तरिक वरन् बाह्य-व्यापार की भी बहुत बड़ी उन्नति हुई। कृषि की उन्नति की समुचित व्यवस्था की गई। जलाशयों तथा जल-कुण्डों का निर्माण कर सिंचाई की समुचित व्यवस्था की गई जिससे अनावृष्टि होने पर कृषि की रक्षा हो सकती थी। गुप्त सम्राटों के काल में देश धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया और सोने की चिड़िया कहलाने लगा। गुप्त-सम्राटों ने स्वर्ण-मुद्राओं का प्रचलन कर वास्तव में इसे स्वर्ण युग बना दिया। राज्य की ओर से प्रजा की दैहिक, नैतिक तथा आघ्यात्मिक उन्नति का प्रयत्न किया गया। राज्य की ओर से दीन-दुखियों तथा रोगियों की सहायता का भी समुचित प्रबन्ध किया गया था। गुप्त-काल में स्थानीय संस्थाओं को पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त थी और स्वायत्त शासन को प्रोत्साहन दिया जाता था। अल्तेकर ने गुप्त कालीन शासन की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इसलिये गुप्त शासन व्यवस्था पर गर्व कर सकते हैं जो अपने काल के तथा बाद के राज्यों के लिए आदर्श व्यवस्था बन गई।’ इसलिये प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को ‘स्वर्ण युग’ कहना सर्वथा उचित है।

(3) धार्मिक सहिष्णुता का युग: धार्मिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह ब्राह्मण-धर्म के पुनरुद्धार तथा विकास का स्वर्णयुग था। इस काल में न केवल भारत के कोने-कोने में ब्राह्मण-धर्म का प्रसार हुआ अपितु इण्डोचीन तथा पूर्वी-द्वीप समूह में भी इसका प्रचार हो गया। ब्राह्मण-धर्म के अनुयायी होते हुए भी गुप्तवंश के सम्राटों में उच्च-कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। उन्होंने अन्य धर्मों के अनुयायियों को प्रश्रय दिया। स्मिथ ने लिखा है- ‘यद्यपि गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे परन्तु प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुकूल वे समस्त भारतीय धर्मों को समान दृष्टि से देखते थे।’ इसलिये धार्मिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को ‘स्वर्ण युग’ कहना सर्वथा उचित है।

(4) वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा का युग: गुप्त-काल वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा का युग माना जाता है। स्मिथ ने लिखा है- ‘इतना ही बता देना पर्याप्त है कि ब्राह्मण धर्म के पुनरुद्धार के साथ-साथ ब्राह्मणों की पवित्र भाषा संस्कृत का भी विस्तार हुआ।’ वैदिक धर्म, जो निष्प्राण-सा हो गया था, उसे गुप्त सम्राटों ने फिर अनुप्राणित किया और उसे स्वीकार कर, उसे राज्य का आश्रय प्रदान कर उसका विकास किया। समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) तथा स्कन्दगुप्त ने अश्वमेध यज्ञों को कराकर वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित किया। ब्राह्मणों को दान देकर एवं उनका सम्मान कर गुप्त सम्राटों ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। उन्होंने अनेक शैव तथा वैष्णव मन्दिरों का निर्माण करा कर ‘परम भागवत’ होने का परिचय दिया। गुप्त साम्राटों ने वैदिक धर्म के साथ-साथ वैदिक भाषा अर्थात् संस्कृत के विकास में भी बड़ा योग दिया। गुप्त काल में संस्कृत फिर से राष्ट्र की भाषा बन गई। गुप्त सम्राटों ने अपने अभिलेखों तथा मुद्राओं पर संस्कृत भाषा में ही श्लोक लिखवाये। इस कारण संस्कृत ही एक मात्र साहित्यिक भाषा हो गई। बौद्ध तथा जैन धर्मों के लेखक भी संस्कृत भाषा में ही ग्रन्थ रचना करने लगे। इसलिये वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की दृष्टि से निश्चय ही यह काल स्वर्ण युग था।

(5) साहित्य तथा विज्ञान की उन्नति का युग: साहित्य तथा विज्ञान की उन्नति के दृष्टिकोण से भी गुप्त काल ‘स्वर्ण युग’ था। इस काल के साहित्यिक गौरव की प्रशंसा करते हुए स्मिथ ने लिख है- ‘गुप्त युग अनेक क्षेत्रों में अद्वितीय क्रियाशीलता का युग था। यह ऐसा युग था जिसकी तुलना इंगलैण्ड के एलिजाबेथ और स्टुवर्ट के काल से करना अनुचित न होगा। जिस प्रकार इंगलैण्ड में शेक्सपियर अन्य समस्त लेखकों का सिरमौर था, उसी प्रकार भारत में कालिदास सर्वोपरि था। जिस प्रकार यदि शेक्सपियर ने कुछ भी नहीं लिखा होता तो भी एलिजाबेथ का काल साहित्य-सम्पन्न रहा होता, उसी प्रकार यदि भारत में कालिदास का साहित्य जीवित न रहा होता तो भी अन्य लेखकों की रचनाएं इतनी प्रचुर हैं कि वे इस काल की अद्वितीय साहित्यिक सफलता प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त हैं।’ गुप्तकाल में देश में साहित्य तथा दर्शन का चूड़ान्त विकास हुआ। इस युग में अनेक महाकवि, नाटककार तथा दार्शनिक हुए जिनमें कालिदास, हरिषेण, वसुबन्धु, विशाखदत्त, वराहमिहिर आदि अग्रगण्य हैं। साहित्य की चरमोन्नति के कारण ही इसकी तुलना एलिजाबेथ तथा पेरिक्लीज के युग से की गई है। गुप्तकाल में भौतिक, आध्यात्मिक तथा दार्शनिक समस्त प्रकार की साहित्य की उन्नति हुई। विज्ञान की भी इस काल में बड़ी उन्नति हुई। गणित, ज्योतिष, वैदिक, रसायन विज्ञान, पदार्थ विज्ञान तथा धातु विज्ञान के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई। आर्यभट्ट इस काल का बहुत बड़ा गणितज्ञ तथा ज्योतिषी था। वराहमिहिर भी इस काल का बहुत बड़ा ज्योतिषी था। चरक तथा सुश्रुत इस काल के विख्यात वैद्य थे।

(6) कला की चरमोन्नति का युग: गुप्तकाल भारतीय कलाओं का स्वर्ण युग था। इस काल में वास्तु कला, शिल्प कला, मूर्ति निर्माण कला, वाद्य कला, संगीत कला तथा अन्य समस्त कलाओं की उन्नति हुई। अजन्ता की गुफाओं की चित्रकारी, बौद्ध तथा हिन्दू मूर्तियाँ, शैव तथा वैष्णव मन्दिर, विहार, चैत्य तथा स्तूप इस कला की उच्चता के ज्वलंत प्रमाण हैं। इस काल की कला बड़ी ही स्वाभाविक, सरल तथा विदेशी प्रभाव से मुक्त है। सॉण्डर्स ने लिखा है- ‘सारनाथ की बौद्ध प्रतिमाएं इस जागरण का उतना ही प्रतिनिधित्व करती हैं जितना कालिदास की कविताएं। गुप्त काल में एक नवीन बौद्धिकता व्याप्त थी जो वास्तु तथा स्थापत्य कलाओं में उतनी ही प्रतिबिम्बित होती है जितनी साहित्य और विज्ञान में। एक प्रकार का तार्किक सौन्दर्य जो अनेक रूपों में अपनी पूर्ण पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए यूनान की याद दिलाता है और जीवन के प्रति उत्साह तथा साहसिकता की भावना में यह हमें एलिजाबेथ के काल की याद दिलाता है।’ इसलिये कला के दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को स्वर्ण-युग मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती।

(7) विदेशों पर भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रभाव: गुप्त काल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का खूब प्रचार हुआ और विदेशों में भारतीय उपनिवेशों की स्थापना हुई। जावा की एक अनुश्रुति के अनुसार इस काल में गुजरात के एक राजकुमार ने कई हजार मनुष्यों के साथ समुद्र पार कर जावा में उपनिवेश की स्थापना की। गुप्तकाल में पूर्वी द्वीप समूहों के साथ भारत का घनिष्ठ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित हो गया। गुप्तकाल में सुमात्रा, जावा, बोर्निया, चम्पा कम्बोडिया आदि द्वीपों में भारतीय भाषा, साहित्य तथा शिक्षा का खूब प्रचार हुआ। इन द्वीपों में भारतीय सामाजिक प्रथाओं, धर्म, कला तथा शासन पद्धति का अनुसरण होने लगा। डॉ. अल्तेकर ने लिखा है- ‘यदि एक ओर भारत और दूसरी ओर चीन के बीच कोई सांस्कृतिक एकता विद्यमान है, यदि मूल्यवान स्मारक, जो भारत की संस्कृति के गौरव के मूक साक्षी हैं, समस्त इंडोचीन, जावा, सुमात्रा तथा बोर्निया में विकीर्ण परिलक्षित होते हैं तो इसका श्रेय गुप्तकाल को ही प्राप्त है, जिसने भारतीय संस्कृति को बाहर विस्तारित करने की प्रेरणा प्रदान की।’ इसलिये विदेशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार के दृष्टिकोण से गुप्त-काल निःसंदेह ‘स्वर्ण युग है।’

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्त काल में भारत की जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक उन्नति हुई वह न तो उसके पूर्व कभी हो सकी थी और न उसके बाद कभी हो सकी। हर्ष के भगीरथ प्रयास करने पर भी भारत पतनोन्मुख होने से न बच सका। इसलिये गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहना सर्वथा उचित है। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘साम्राज्यवादी गुप्त सम्राटों का काल हिन्दू इतिहास में प्रायः स्वर्ण युग बताया जाता है। इस काल में कई योग्य, विलक्षण प्रतिभाशाली तथा शक्तिशाली राजाओं ने शासन किया, जिन्होंने उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग का संगठन करके उसे एक राजनीतिक छत्र के नीचे ला दिया और एक व्यवस्थित तथा उन्नतिशील युग का प्रादुर्भाव किया। उनके शक्तिशाली शासन के अन्दर बाह्य तथा आन्तरिक दोनों ही प्रकार के व्यापार की उन्नति हुई और देश की सम्पन्नता बढ़ गई। इसलिये यह स्वाभाविक था कि आन्तरिक सुरक्षा तथा भौतिक सम्पन्नता की अभिव्यक्ति धर्म, साहित्य, कला तथा विज्ञान के विकास में उन्नति हुई हो।’

इस प्रकार गुप्त काल भारत की सर्वतोमुखी उन्नति का काल था। इसी कारण इतिहासकारों ने इसे स्वर्ण काल कहा है। स्मिथ ने गुप्त काल के ऐश्वर्य तथा वैभव की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘हिन्दू भारत के इतिहास में महान् गुप्त सम्राटों का युग जितना सुन्दर और सन्तोषजनक है उतना अन्य कोई युग नहीं। साहित्य, कला तथा विज्ञान की असाधारण मात्रा में उन्नति हुई और बिना अत्याचार के धर्म में क्रमागत परिवर्तन किये गये।’

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

शासन व्यवस्था के मूल तत्व

शासन का आदर्श: गुप्त-सम्राटों के शासन का आदर्श बहुत ऊँचा था। वे स्वयं को प्रजा का ऋणी समझते थे और प्रजा की सेवा करके ही इस ऋण से मुक्त होना चाहते थे। इसलिये गुप्त-साम्राज्य ने लोक-हित के अनेक कार्य किये। गमनागमन की सुविधा के लिए सड़कें बनवाईं। उनके किनारे पर छायादार वृक्ष लगवाये। स्थान-स्थान पर कुएँ खुदवाये। धर्मशालाएँ बनवाईं। सिंचाई की सुविधा के लिए झीलें तथा तालाब खुदवाये। रोगियों की चिकित्सा के लिए औषधालय खुलवाये जिनमें रोगियों को निःशुल्क औषधि दी जाती थी। राज्य की ओर से शिक्षा की भी समुचित व्यवस्था की गई। साहित्य तथा कला को प्रोत्साहन दिया गया। राज्य के इन उदार तथा लोकोपकारी कार्यों का परिणाम यह हुआ कि प्रजा सुख तथा शान्ति का जीवन व्यतीत करती थी।

सामंती व्यवस्था: गुप्त-साम्राज्य अत्यन्त विशाल साम्राज्य था। इसलिये उस युग में जब गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था, एक केन्द्र से सम्पूर्ण शासन को चलाना सम्भव न था। फलतः गुप्त सम्राटों ने सामन्ती शासन व्यवस्था का अनुसरण किया और साम्राज्य के सुदूरस्थ प्रान्तों का शासन अपने सामन्तों को सौंप दिया, जिन पर वे कड़ा नियन्त्रण रखते थे। शासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य को कई छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त किया गया था और प्रत्येक इकाई के लिए अलग-अलग पदाधिकारी नियुक्त किये गये थे परन्तु इन सब पर केन्द्रीय सरकार का कड़ा नियन्त्रण रहता था जिससे साम्राज्य सुसंगठित बना रहे।

संघीय शासन व्यवस्था: गुप्त साम्राज्य मौर्यों के साम्राज्य की भांति सम्राटों के सीधे एवं कठोर अनुशासन में नहीं था। साम्राज्य में अनेक महाराजा, राजा और गणराज्य सम्मिलित थे जो सम्राट की अधीनता मानते थे किंतु आंतरिक शासन में स्वतंत्र थे। विशाल गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत यद्यपि उत्तरी भारत के अधिकांश भागों पर गुप्त नरेशों का प्रत्यक्ष शासन स्थापित था। अन्य क्षेत्रों में उनके शासन का स्वरूप संघीय था। जहां उनके अधीनस्थ राजा अर्द्ध स्वतंत्र शासकों की तरह राज्य करते थे। ऐसे क्षेत्रों में गुप्तों का शासन प्रबंध पूरी तरह प्रभावी नहीं था।

केन्द्रीय प्रशासन

            सम्राट: गुप्त कालीन शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी। राजा ही शासन का प्रधान होता था और विभिन्न विभागों पर पूरा नियन्त्रण रखता था। वह शासन के तीनों अंगों- सेना, शासन तथा न्याय का प्रधान होता था। सम्राट अपने मंत्रियों तथा पदाधिकारियों के परामर्श तथा सहायता से शासन चलाता था। राज्य की राजधानी में केन्द्रीय राजकीय कार्यालय होता था। केन्द्रीय शासन कई उपविभागों में विभक्त था जिनमें- सैन्य विभाग, विदेश विभाग, पुलिस विभाग, माल विभाग, न्याय विभाग, धर्म विभाग आदि प्रमुख रहे होंगे। प्रशासनिक कार्यों के लिये अधिकारियों एवं कर्मचारियों का एक बड़ा वर्ग होता था।

मंत्रिपरिषद्: सम्राट शासन के समस्त महत्वपूर्ण कार्यों में मंत्रिपरिषद् से परामर्श लेता था। केन्द्रीय विभागों के कार्य प्रधानमंत्री, अमात्य, कुमारामात्य, युवराज-कुमारामात्य आदि पदाधिकारी करते थे। मंत्रिपरिषद के विभिन्न विभागों के निश्चित स्वरूप की जानकारी नहीं मिलती किंतु गुप्त अभिलेखों से दो प्रमुख मंत्रियों- संधिविग्रहिक (युद्ध एवं संधि सम्बन्धी मंत्री) तथा अक्षपटलाधिकृत (शासकीय पत्रों से सम्बन्धित मंत्री) के बारे में जानकारी मिलती है।

शासन के वरिष्ठ अधिकारी: गुप्त कालीन अभिलेखांे से कुछ अन्य केन्द्रीय पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं- विनयस्थितिस्थापक (न्यायाधीश), दण्डपाशिक (पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी), कुमारामात्य (शासन का वरिष्ठ अधिकारी), महासेनापति (सेना का सर्वोच्च अधिकारी), भाण्डारिक (सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला) आदि।

सैनिक शासन: गुप्त-काल साम्राज्यवाद का युग था। गुप्त सम्राटों ने अत्यन्त विशाल साम्राज्य की स्थापना की। इस साम्राज्य की स्थापना विशाल, प्रशिक्षित तथा सुसज्जित सेना की सहायता से की गई थी। इस सेना के चार प्रधान अंग थे- हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल। सम्राट स्वयं सैनिकों को भर्ती करता था। वह अपनी सेना का प्रधान सेनापति होता था और रणस्थल में सेना की प्रथम पंक्ति में विद्यमान रहता था। सैनिक विभाग का मुख्य अधिकारी संधि-विग्रहिक था जिसे संधि और युद्ध करने का अधिकार प्राप्त होता था। उसके अधीन महासेनापति अथवा महादण्डनायक (प्रमुख सेनापति), रण भाण्डारिक (सैन्य सामग्री की आपूर्ति करने वाला अधिकारी), बलाधिकृत (सैनिकों की नियुक्ति करने वाला अधिकारी), भटाश्वपति (पैदल सेना और घुड़सवारों का अध्यक्ष) आदि अधिकारी होते थे। सेना का कार्यालय बलाधिकरण कहलाता था।

प्रांतीय शासन

शासन की सुविधा के लिये साम्राज्य को अनेक इकाइयों में विभक्त किया गया था। सबसे बड़ी इकाई प्रांत थी जिसे देश या भुक्ति कहते थे। सौराष्ट्र, अवन्ति (पश्चिमी मालवा), ऐरण (पूर्वी मालवा), तीरभुक्ति (उत्तरी बिहार), पुण्ड्रवर्द्धन (उत्तरी बंगाल) आदि गुप्त साम्राज्य के प्रमुख प्रांत थे। प्रान्तीय शासक भोगिक, भोगपति, गोप्ता, उपरिक, महाराज या राजस्थानीय कहलाते थे। प्रांत से छोटी इकाई को प्रदेश कहा जाता था। उससे छोटी इकाई विषय कहलाती थी। विषयों के अधिकारी विषयपति कहलाते थे। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।

स्थानीय शासन

नगर प्रशासन: गुप्तों के साम्राज्य में दशपुर, गिरिनार, उज्जयिनी, पाटलिपुत्र आदि प्रसिद्ध नगर थे। नगरों को पुर भी कहा जाता था। नगर या पुर के शासक को नगरपति या पुरपाल कहते थे। गुप्तों के नगर प्रशासन के सम्बन्ध में दामोदरपुर (बंगाल) के ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है। नगर प्रशासन में स्थानीय श्रेणियों, नियमों, आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता था। मंदसौर अभिलेख में कपड़ा बनाने वालों की पट्टवाय श्रेणी द्वारा एक सूर्यमंदिर बनवाने का उल्लेख मिला है। वैशाली मोहरों से श्रेष्ठि, सार्थवाह, निगमों के अस्तित्व का ज्ञान होता है।

ग्राम प्रशासन: ग्राम प्रशासन के मुखिया को ग्रामिक कहते थे। ग्राम सभा के सदस्य महत्तर कहलाते थे। जंगलों की देखभाल करने वाला गौल्मिक कहलाता था। ग्राम परिषद या ग्राम सभा पर ग्राम प्रशासन का दायित्व होता था।

            न्याय व्यवस्था: राजा, सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। राजा के न्यायालय को सभा, धर्मस्थान अथवा धर्माधिकरण कहा जाता था। गुप्त काल में लिखी गई नारद स्मृति में चार प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख है- (1.) कुल, (2.) श्रेणी, (3.) गण और (4.) राजकीय न्यायालय। न्याय विभाग के अधिकारी को विनस्थितिस्थापक कहा गया है।

दण्ड विधान: अपराधों का पता लगाने के लिये गुप्तचर और अपराधियों को दण्ड देने के लिए दंडाधिकारी होते थे। दंड-विधान कठोर नहीं था। अपराध की गुरुता के आधार पर न्यूनाधिक अर्थदण्ड ही दिया जाता था। शारीरिक यातनायें प्रायः नहीं दी जाती थीं और प्राणदण्ड देने का निषेध था।

आय-व्यय के साधन

आय: राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था, जिसे भाग, भोग या उद्रेग कहते थे। यह उपज का 1/6 भाग होता था। इसके अतिरिक्त एक दूसरा कर उपरिकर था जो राजा के व्यक्तिगत उपयोग के लिये सामान के रूप में लिया जाता था। आय के अन्य स्रोत सिंचाई कर, अर्थदण्ड, सामन्ती राजाओं से कर, उपहार इत्यिादि थे।

व्यय: राजकीय कर्मचारियों को राज्यकोष से वेतन दिया जाता था। राज्य के कोष का बहुत बड़ा भाग इस वेतन में चला जाता था। राज्य द्वारा किये गगये लोकोपकारक कार्यों, सेना व पुलिस विभाग पर भी राज्य का काफी धन खर्च होता था।

निष्कर्ष

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए नीलकान्त शास्त्री ने लिखा है- ‘गुप्तकालीन शासन तथा उसकी सफलता के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त है और यह निष्कर्ष निकलता है कि गुप्तों का शासन बड़ा ही सुव्यवस्थित था।’

अध्याय – 23 : हूण

0

हूण लोग मूलतः चीन के निवासी थे। चीनी भाषा में इन्हें हिगनू कहा जाता था। संस्कृत-साहित्य तथा अभिलेखों में इन्हें हूण कहा गया है। हूण लोग मंगोल जाति के थे और सीथियनों की एक शाखा से थे। ये लोग बड़े ही असभ्य, निर्दयी, रक्त पिपासु तथा लड़ाकू होते थे और युद्ध कला में बड़े कुशल होते थे। लूटमार इनका मुुख्य व्यवसाय था। उनकी एक विशाल सेना थी। शत्रुओं का रक्तपात करने, उनकी सम्पत्ति लूटने तथा उसे जलाकर नष्ट कर देने में उन्हें लेश मात्र भी संकोच नहीं होता था।

खानाबदोश लुटेरे

हूण लोग खानाबदोश लुटेरे थे। वे एक स्थान पर स्थायी रूप से निवास नहीं करते थे अपितु एक स्थान से दूसरे स्थान को निरंतर विचरण करते रहते थे। लगभग 165 ई.पू. में ये लोग यूचियों पर टूट पड़े और उन्हें उत्तरी पश्चिमी चीन से मार भगाया। हूण लोग इस नये प्रदेश में भी स्थायी रूप से नहीं रह सके। इनकी जनसंख्या में वृद्धि हुई और लूट-खसोट की नीति तथा खानाबदोश स्वभाव के कारण ये लोग धीरे-धीरे पश्चिम की ओर बढ़ने लगे। कालान्तर में ये दो शाखाओं में विभक्त हो गये। एक शाखा यूरोप की ओर चली गयी और रोम-साम्राज्य पर टूट पड़ी। दूसरी शाखा ने आक्सस नदी को पार करके फारस को लूटना आरम्भ कर दिया। कालान्तर में ये लोग अफगानिस्तान में प्रवेश कर गये और भारत की सीमा पर आ डटे।

भारत पर आक्रमण

भारत पर हूणों का पहला आक्रमण स्कन्दगुप्त के शासन के प्रारम्भिक भाग में 486 ई. के लगभग हुआ। स्कन्दगुप्त ने बड़ी वीरता तथा साहस के साथ इनका सामना किया इस कारण हूणों को विवश होकर पीछे लौट जाना पड़ा। कुछ समय तक हूण लोग फारस राज्य को लूटते रहे।

तोरमाण: हूणों ने पांचवी शताब्दी ईस्वी के अन्तिम भाग में तोरमाण के नेतृत्व में फिर से भारत पर आक्रमण किया। तोरमाण ने सबसे पहले गान्धार पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया। एरण नामक स्थान पर भानुगुप्त एवं तोरमाण की सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ जिसमें भानुगुप्त का सामन्त गोपराज मारा गया तथा भानुगुप्त परास्त हो गया। इस कारण पूर्वी मालवा पर उसका अधिकार हो गया। मंजुश्रीमूलकल्प के अनुसार मालवा विजय के बाद हूण मगध तक बढ़ गये। तोरमाण ने साकल अर्थात् स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन करने लगा।

मिहिरकुल: तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का शासक हुआ। वह बड़ा ही निर्दयी तथा रक्त पिपासु था। मिहिरकुल के ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि 513 ई. से 528 ई. तक मिहिरकुल का मध्य भारत पर पूर्ण अधिकार रहा। उस समय उत्तरी भारत में गुप्तों के स्थान पर वही एक मात्र प्रतापी राजा था।

ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि बौद्धों के साथ उसने बड़ा अत्याचार किया। उसने उनके मठों, विहारों तथा स्तूपों को लूटा और निर्दयता के साथ उनका वध कराया। मिहिरकुल ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। इन दिनों गुप्त साम्राज्य पर भानुगुप्त बालादित्य शासन कर रहा था। 529-30 ई. में उसने मिहिरकुल को बुरी तरह परास्त किया और उसे बन्दी बना लिया परन्तु बाद में उसने मिहिरकुल को मुक्त कर दिया।

इसी समय मिहिरकुल को एक दूसरे संकट का सामना करना पड़ा। यशोवर्मन नामक एक प्रतापी राजा ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और उस पर अधिकार करके मिहिरकुल को वहाँ से मार भगाया। मिहिरकुल शरण की खोज में काश्मीर भाग गया। काश्मीर के राजा ने दया करके उसे शरण दे दी परन्तु मिहिरकुल ने उसके साथ विश्वासघात कर काश्मीर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस विश्वासघात के बाद एक वर्ष के भीतर ही मिहिरकुल की मृत्यु हो गई।

हूणों का पतन

मिहिरकुल की मृत्यु के उपरान्त हूणों का पतन आरम्भ हो गया। उसके उत्तराधिकारी कमजोर तथा अयोग्य थे जो उसके राज्य को संभाल नहीं सके। जब भारत में राजपूतों का उत्कर्ष आरम्भ हुआ तो उन्होंने हूणों का विनाश आरम्भ कर दिया। उत्तर-पश्चिम की ओर से तुर्कों ने हूणों को दबाना आरम्भ किया। इस प्रकार हूण लोग दो प्रबल शक्तियों के बीच पिस गये और उनकी राजनीतिक शक्ति समाप्त हो गई। राजनीतिक शक्ति समाप्त हो जाने पर हूण लोग भारतीयों में घुल-मिल गये और अपना पृथक अस्तित्त्व खो बैठे।

हूणों का प्रभाव

हूण लोग भारत में यद्यपि एक भयंकर आंधी की भांति आये तथा थोड़े ही दिनों में उनकी सत्ता समाप्त हो गई, तथापि भारतीयों के नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन पर उनका प्रभाव पड़े बिना न रहा।

राजनीतिक प्रभाव: हूणों के आक्रमणों से गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उसके स्थान पर छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गई। इस प्रकार भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई।

धार्मिक प्रभाव: हूणों के आक्रमण से बौद्ध धर्म को बहुत बड़ा धक्का लगा और वह अन्तिम श्वासें लेने लगा। हूणों ने बौद्धों का बड़ी क्रूरता के साथ वध किया और उनके मठों तथा विहारों को लूटा तथा नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

सांस्कृतिक प्रभाव: हूण लड़ाके बड़े ही असभ्य तथा बर्बर थे। उन्होेंने मन्दिरों, मठों, स्तूपों, विहारों आदि का विध्वंस कर भारतीय कला को बहुत क्षति पहुँचाई। वे जहाँ कहीं जाते थे, आग लगा देते थे और उस प्रदेश को उजाड़ देते थे। इससे भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को बहुत बड़ी हानि पहुँची। हूणों के कारण भारतीय समाज में बहुत सी कुप्रथाएँ तथा अन्धविश्वास प्रचलित हो गये। भारतीय समाज में बहुत सी उपजातियाँ भी बन गईं। अन्त में ये लोग भारतीयों में घुल-मिल गये और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति में इस प्रकार रंग गये कि अब उनका कहीं चिह्न तक उपलब्ध नहीं है।

अध्याय – 24 : पुष्यभूति वंश अथवा वर्धन वंश

0

पुष्यभूति वंश का उदय

गुप्त साम्राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने के उपरान्त भारत की राजनीतिक एकता एक बार पुनः समाप्त हो गई और देश के विभिन्न भागों में फिर छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना हो गई जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। देश में कोई ऐसी प्रबल शक्ति नहीं थी जो देश की रक्षा कर सकती और इन छोटे-छोटे राज्यों पर नियंत्रण रख कर देश को सुख तथा शान्ति प्रदान कर सकती। जिस समय देश पर हूणों के आक्रमण हो रहे थे और गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था उन्हीं दिनों छठी शताब्दी के आरम्भ में थानेश्वर में एक नये राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश का संस्थापक पुष्भूति था जो भगवान शिव का परम भक्त था। उसके नाम पर इस वंश को पुष्यभूति वंश कहा जाता है। उसके अधिकांश वंशजों के नाम के अंत में वर्धन प्रत्यय लगा हुआ है, इससे इस वंश को वर्धन वंश भी कहा जाता है।

प्रारंभिक शासक

इस वंश के प्रारंभिक शासकों के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। पुष्यभूति के उपरान्त नरवर्धन, राज्यवर्धन तथा आदित्यवर्धन शासक हुए जो स्वतंत्र शासक न होकर किसी स्वतंत्र शासक के सामन्त के रूप में शासन कर रहे थे। इन शासकों की उपाधि महाराज थी। इनका उल्लेख अभिलेखों तथा राजकीय मोहरों पर मिलता है। अनुमान है कि प्रारंभ में ये गुप्तों के अधीन शासन कर रहे थे और गुप्तों के बाद हूण शासकों के अधीन शासन कर रहे थे।

प्रभाकरवर्धन

हर्ष चरित के अनुसार प्रभाकरवर्धन इस वंश का चौथा शासक था। वह 580 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसने परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज उपाधियां धारण कीं जिनसे ज्ञात होता है कि वह स्वतंत्र तथा प्रतापी शासक था। उसने गुर्जरों के विरुद्ध सफलता पूर्वक युद्ध किया। प्रभाकरवर्धन के चार संतानें थीं, तीन पुत्र- राज्यवर्धन, हर्षवर्धन तथा कृष्णवर्धन और एक पुत्री- राज्यश्री। राज्यश्री का विवाह कान्यकुब्ज (कन्नौज) के मौखरी राजा ग्रहवर्मन के साथ हुआ था। 605 ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो गई।

राज्यवर्धन

प्रभाकरवर्धन के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन सिंहासन पर बैठा। शासन संभालते ही उसे मालवा के शासक देवगुप्त के विरुद्ध अभियान पर जाना पड़ा क्योंकि देवगुप्त ने मौखरी राज्य पर आक्रमण करके राज्यवर्धन के बहनोई ग्रहवर्मन की हत्या कर दी तथा राज्यवर्धन की बहिन राज्यश्री को बन्दीगृह में डाल दिया। इस दुर्घटना का समाचार पाते ही राज्यवर्धन ने शासन का भार अपने छोटे भाई हर्षवर्धन को सौंपकर स्वयं एक विशाल सेना के साथ देवगुप्त को दण्डित करने के लिए प्रस्थान कर दिया। राज्यवर्धन ने देवगुप्त को युद्ध में परास्त किया और उसके राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। गौड़ (बंगाल) का राजा शशांक देवगुप्त का मित्र था। उसने विश्वासघात करके राज्यवर्धन की हत्या करवा दी और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने राज्यश्री को मुक्त कर दिया जो विन्ध्य पहाड़ि़यों में अज्ञात स्थान को चली गई। हर्ष के बांसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेखों में उसके चार पूर्वज शासकों- नरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकर वर्धन एवं उनकी रानियों के नाम मिले हैं।

हर्षवर्धन

राज्यवर्धन की मृत्यु के उपरान्त उसका छोटा भाई हर्षवर्धन थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा। हर्ष के सिंहासनारोहण पर टिप्पणी करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘छठी शताब्दी ईस्वी का प्रारम्भ राजनीतिक मंच पर एक अलौकिक व्यक्ति के आगमन से होता है। यद्यपि हर्षवर्धन में न तो अशोक का उच्चादर्श था और न चन्द्रगुप्त मौर्य का सैनिक कौशल, फिर भी वह उन्हीं दोनों महान् सम्राटों की भांति इतिहासकारों की दृष्टि को आकृष्ट करने में सफल हुआ है।’

हर्ष कालीन इतिहास जानने के साधन

हर्ष के शासनकाल की जानकारी कई साधनों से मिलती है। हर्ष के दरबार में रहने वाले कवि बाणभट्ट ने अपनी कृति हर्षचरित में हर्ष तथा उसके पूर्वजों का वर्णन किया है। हर्ष के समकालीन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने ग्रंथ सी-यू-की में भी हर्ष तथा उसके शासन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया है। हर्ष ने स्वयं भी रत्नावली, नागानंद और प्रियदर्शिका नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में उस समय की राजनीतिक स्थितियों का उल्लेख है। मधुबन, बांसखेड़ा, सोनीपत आदि स्थानों से हर्ष के अभिलेख मिले हैं। इनमें भी कई सूचनाएं दी गई हैं। हर्षकालीन सिक्के भी हर्ष की तिथि, राज्य विस्तार, राज्यकाल की अवधि तथा आर्थिक परिस्थिति पर प्रकाश डालते हैं।

राज्याभिषेक

राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद 606 ई. में हर्ष राजगद्दी पर बैठा। उस समय हर्ष की आयु 16 वर्ष थी।

आरंभिक समस्याएं

हर्ष के समक्ष कई बड़ी समस्याएं थीं। उसके पिता की मृत्यु और भाई की हत्या को अधिक समय नहीं हुआ था। बहनोई की हत्या हो चुकी थी तथा बहन राज्यश्री जंगलों में थी। इस प्रकार उसका परिवार लगभग नष्ट हो चुका था तथा स्वयं हर्ष अल्पायु था। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। उसके समक्ष दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली चुनौती अपनी बहन को जंगलों से ढूंढकर गौड़ के राजा शशांक को दण्डित करने की तथा दूसरी चुनौती स्वयं अपने राज्य को व्यवस्थित करने की।

(1) राज्य श्री की खोज: हर्ष अपनी सेना के साथ विंध्याचल के जंगलों में पहुंचा तथा बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र की सहायता से अपनी बहन राज्यश्री को ढूंढ निकाला। जिस समय हर्ष ने राज्यश्री को देखा, उस समय राज्यश्री अपने दुखों से तंग आकर अग्नि में प्रवेश करने जा रही थी। हर्ष अपनी बहन को समझा-बुझा कर अपने साथ ले आया।

(2) कन्नौज की समस्या: राज्यश्री के कोई संतान नहीं थी। इसलिये कन्नौज राज्य का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। कन्नौज के मंत्रियों ने हर्ष से प्रार्थना की कि वह कन्नौज का राज्य भी संभाल ले। हर्ष ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार हर्ष दो राज्यों का राजा बन गया। इससे हर्ष की जिम्मेदारी तथा शक्ति दोनों ही बढ़ गईं। हर्ष ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

हर्ष की दिग्विजय

हर्ष के पास एक विशाल सेना थी। इस सेना की सहायता से उसने दिग्विजय करने का निश्चय किया। स्मिथ ने हर्ष की विजय योजनाओं की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘सम्पूर्ण भारत को एक छत्र के नीचे लाने के उद्देश्य से उसने अपनी सारी शक्ति तथा योग्यता को एक सुव्यवस्थित विजय योजना के कार्यान्वयन में लगा दिया।’

(1) गौड़ नरेश शशांक पर आक्रमण: हर्ष ने सर्वप्रथम गौड़ नरेश शशांक को दण्डित करने और उसके राज्य को जीतने का निर्णय लिया। हर्षचरित के अनुसार हर्ष को जब अपने भाई की हत्या का समाचार मिला, उसी समय उसने प्रण किया कि कुछ ही दिनों में धरती को गौड़विहीन कर दूंगा। उसकी इस घोषणा का उसके मंत्रियों ने स्वागत किया। बाणभट्ट तथा ह्वेनसांग दोनों ने ही इस युद्ध की घटनाओं तथा परिणामों की जानकारी नहीं दी है। ह्वेनसांग के अनुसार शशांक बौद्ध धर्म के प्रति हिंसक था। उसने बुद्ध के पदचिह्नों से अंकित पत्थरों को नदी में डलवा दिया तथा गया के बोधि वृक्ष को कटवा दिया। मंजूश्रीमूलकल्प के अनुसार हर्ष ने गौड़ नरेश शशांक की राजधानी पुण्ड्र पर आक्रमण कर उस पर विजय अर्जित की किंतु इस विजय के अन्य प्रमाण नहीं मिलते हैं क्यांेकि शशांक की अंतिम तिथ 619 ई. प्राप्त होती है। ह्वेनसांग के अनुसार 637 ई. में उसने जब बोधि वृक्ष को देखा, तब शशांक उसे कटवा चुका था तथा उन्हीं दिनों में शशांक की मृत्यु हुई थी।

(2) पंच भारत पर विजय: ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि जैसे ही हर्ष राजा हुआ, उसने एक विशाल सेना के साथ अपने भाई के हत्यारे से बदला लेने के लिये प्रस्थान किया। वह पूर्व की ओर बढ़ा और लगातार 6 वर्षों तक उन राज्यों से युद्ध करता रहा जो बिना लड़े, उसकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उसने पंचभारत पर भी विजय प्राप्त की। पंच भारत में पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा आते थे। इस प्रकार लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत उसके अधिकार में आ गया।

(3) वल्लभी पर विजय: उस काल में सौराष्ट्र अर्थात् काठियावाड़ में मैत्रक वंश शासन कर रहा था। वल्लभी उसकी राजधानी थी। यह राज्य उत्तर भारत के कन्नौज और दक्षिण भारत के चालुक्य राज्यों के मध्य में स्थित था। इसलिये सैनिक दृष्टिकोण से उसका बहुत बड़ा महत्त्व था। इन दिनों धु्रवसेन द्वितीय वल्लभी में शासन कर रहा था। 633 ई. में हर्ष ने वल्लभी पर आक्रमण करके ध्रुवसेन को परास्त कर दिया। धु्रवसेन ने हर्ष से मैत्री कर ली। हर्ष ने अपनी कन्या का विवाह धु्रवसेन के साथ कर दिया। सम्भवतः धु्रवसेन ने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली और उसी के सामन्त के रूप में वह वल्लभी में शासन करने लगा। वल्लभी के अधीन राज्यों- आनंदपुर, कच्छ तथा काठिायावाड़ ने भी हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली।

(4) चालुक्य राज्य पर आक्रमण: वल्लभी राज्य के दक्षिण में चालुक्य वंश शासन कर रहा था। पुलकेशिन (द्वितीय) इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक था जो हर्ष का समकालीन था। उसने अपने पड़ौसी राज्यों को नत मस्तक कर अपनी शक्ति का विस्तार किया था। लगभग 634 ई. में हर्ष ने पुलकेशिन के राज्य पर आक्रमण किया। पुलकेशिन ने नर्मदा के तट पर हर्ष का सामना किया और उसे परास्त कर दिया। हर्ष निराश होकर नर्मदा के तट से लौट आया। नर्मदा ही उसके राज्य की सीमा बन गई। ह्वेनसांग ने भी इस युद्ध में हर्ष की पराजय का उललेख किया है।

(5) सिंध पर विजय: बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार हर्ष ने सिंध क्षेत्र पर भी आक्रमण किया तथा सिंधुराज को जीतकर उसकी समस्त सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया। ह्वेनसांग ने लिखा है कि जिस समय वह (ह्वेनसांग) सिंधु प्रदेश पहुंचा, उस समय सिंधु प्रदेश एक स्वतंत्र राज्य था। अन्य स्रोतों से भी हर्ष की सिंध विजय के उल्लेख नहीं मिलते।

(6) नेपाल तथा काश्मीर पर विजय: समकालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि नेपाल तथा काश्मीर ने भी हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली।

(7) पूर्वी भारत पर विजय: हर्ष को पूर्वी भारत में की गई विजय यात्रा में बड़ी सफलता प्राप्त हुई। उसने मगध पर अधिकार कर लिया और 641 ई. में मगध के राजा की उपाधि धारण की। कामरूप (आसाम) के राजा भास्कर वर्मन से उसकी मैत्री हो गई।

(8) गौड़ नरेश का अंत: यद्यपि हर्ष अपने सबसे बड़े शत्रु शशांक के राज्य का अन्त न कर सका परन्तु बाद में उसके मित्र भास्करवर्मन ने गौड़ राज्य का अन्त कर दिया।

हर्ष का साम्राज्य

हर्ष का साम्राज्य उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक और पूर्व में आसाम से पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला था। इस सम्पूर्ण प्रदेश में उसका प्रत्यक्ष शासन नहीं था। कुछ भाग में वह स्वयं शासन करता था और कुछ में उसके सामन्त शासक करते थे।

हर्ष का शासन प्रबंध

हर्ष महान् विजेता होने के साथ-साथ कुशल शासक भी था। डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार ने हर्ष की प्रशासकीय प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इसमें सन्देह नहीं कि वह भारत के महानतम सम्राटों में एक था। उथल-पुथल के काल में उसे दो विश्ृंखलित राज्यों पर शासन करना पड़ा। वह उत्तरी भारत के विशाल क्षेत्र के बहुत बड़े अंश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा।’

हर्ष के शासन की इकाइयां: हर्ष का साम्राज्य अत्यंत विशाल था जिसे राज्य अथवा मण्डल कहते थे। हर्ष ने अपने राज्य में गुप्त शासकों की भांति चार स्तरीय शासन व्यवस्था लागू कर रखी थी- 1. केन्द्रीय शासन, 2. प्रांतीय शासन 3. जिला स्तरीय शासन तथा 4. स्थानीय शासन।

केन्द्रीय शासन

हर्ष की शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी जिसमें सम्राट समस्त शासन का केन्द्र बिंदु था। हर्ष ने थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ गुप्त कालीन शासन व्यवस्था का ही अनुसरण किया।

(1) सम्राट: सम्राट केन्द्रीय शासन का प्रधान था। शासन के विभिन्न भागों पर वह अपनी कड़ी दृष्टि रखता था। युद्ध के समय वह स्वयं रणक्षेत्र में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था। शान्ति के समय वह अपनी प्रजा के हित के कार्यों को करने में संलग्न रहता था। प्रजा की दशा को जानने के लिए सम्राट अपने राज्य के विभिन्न भागों में यात्राएं करता था। सम्राट का सारा समय धार्मिक कार्यों को करने तथा शासन को सुचारू रीति से चलाने में व्यतीत होता था।

(2) मन्त्रि परिषद: सम्राट को सहायता देने के लिए मन्त्रि परिषद भी होती थी। ये मन्त्री सचिव अथवा अमात्य कहलाते थे। सम्राट के लिये इस परिषद की सलाह मानना अनिवार्य नहीं था। हर्ष का प्रधान सचिव भाण्डि एवं प्रधान सेनापति सिंहनाद था।

(3) शासन के अधिकारी: हर्ष के दानपत्रों में विभिन्न अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जिनका विवरण इस प्रकार है-

            महासंधिविग्रहाधिकृत      ः युद्ध और शांति का प्रमुख मंत्री

            महाबलाधिकृत                ः सर्वोच्च सेनापति

            राजस्थानीय                   ः राज्यपाल

            कुमारामात्य                   ः युवराज

            उपरिक                          ः प्रांतीय गवर्नर

            विषयपति                      ः जिला अधिकारी

            भोगपति                        ः राजकीय कर एकत्रित करने वाला प्रांतीय                                                   अधिकारी।

(4) सैन्य प्रबंधन: अपनी दिग्विजय को सफल बनाने तथा साम्राज्य को शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षित रखने के लिए हर्ष ने एक विशाल सेना का संगठन किया। इस सेना में हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिक हुआ करते थे। हर्ष ने रथ सेना की व्यवस्था नहीं की थी। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में 60 हजार हाथी थे। यद्यपि सम्राट स्वयं अपनी सेना का सेनाध्यक्ष होता था और रणक्षेत्र में उसका संचालन करता था परन्तु सेना के रख-रखाव के लिये एक अलग सेनापति होता था जो महाबलाधिकृत कहलाता था। सेना के विभिन्न अंगों के लिए अलग-अलग सेनापति होते थे।

(5) न्याय-व्यवस्था: सम्राट स्वयं न्याय विभाग का सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह अपराधियों को दण्ड देता था। हर्ष के शासन काल में दण्ड विधान बड़ा कठोर था। साधारण अपराधों के लिए अर्थदण्ड दिया जाता था और जघन्य अपराधों के लिये हाथ, नाक, कान काट लिये जाते थे। राजद्रोहियों को जीवन भर के लिए जेल में बन्द कर दिया जाता था। दंड विधान की कठोरता के कारण अपराध कम होते थे और लोग शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। उसके शासन काल में चोर एवं डाकू भी थे जो अवसर प्राप्त होते ही प्रजा को लूट लेते थे। सड़कें चोर-डाकुओं से सुरक्षित नहीं थीं। चीनी यात्री ह्वेनसांग कई बार डाकुओं के चक्कर में पड़ गया था।

(6) राजस्व विभाग: हर्ष उदार शासक था। गुप्तों की भांति वह भी अपनी प्रजा से उपज का केवल छठा भाग कर के रूप में लेता था। आयात कर भी बहुत कम था जो सीमा स्थित चुंगीघरों में वसूल किया जाता था। राज्य की आय का बहुत बड़ा भाग विद्वानों को पुरस्कार देने, धार्मिक कृत्यों को सम्पादित करने तथा विभिन्न सम्प्रदायों को दान-दक्षिणा देने में व्यय होता था।

(8) लोकहित के कार्य: हर्ष प्रजापालक शासक था। वह सदैव अपनी प्रजा के कल्याण की चिन्ता करता था। उसने प्रजा का आवागमन सुगम बनाने के लिये कई सड़कें बनवाईं तथा उनके किनारे छायादार वृक्ष लगवाये। यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। इन धर्मशालाओं में यात्रियों के लिए भोजन, चिकित्सा तथा औषधि की व्यवस्था की गई थी। नालन्दा तथा अन्य शिक्षा-केन्द्रों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी। विद्वानों एवं साहित्यकारों को भी राज्य की ओर से सहायता एवं प्रोत्साहन दिया जाता था। हर्ष में उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। विभिन्न धर्मों के मतावलम्बी उससे दान-दक्षिणा प्राप्त करते थे। उसने अनेक मंदिर, चैत्य, विहार, स्तूप आदि बनवाये थे। हर्ष की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हर्ष एक विजेता तथा शासक के रूप में तो महान् था ही, वह शान्ति कालीन कलाओं में और भी अधिक महान् था जिनकी विजयें युद्ध की विजयों से कम विख्यात नहीं होतीं।’

(9) प्रयाग की पंचवर्षीय सभा: हर्ष प्रति पांचवें वर्ष प्रयाग में एक सभा का आयोजन करता था। इस अवसर पर वह बुद्ध, सूर्य, शिव आदि देवताओं की प्रतिमाओं की बड़े समारोह के साथ पूजा करता था। इन सभाओं में वह समस्त सम्प्रदाय वालों तथा दीन-दुखियों को दान-दक्षिणा देता था। इसी से वह महादान-भूमि कहलाता था। सम्राट इस अवसर पर अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान में दे देता था। यहाँ तक कि वह अपने मूल्यवान आभूषण भी दान में दे देता था। प्रयाग की एक पंचवर्षीय परिषद् में चीनी यात्री ह्वेनसांग भी विद्यमान था, जिसका उसने आंखों देखा वर्णन किया है।

प्रांतीय शासन

केन्द्रीय राजधानी से सम्पूर्ण साम्राज्य को संभालना सम्भव नहीं था। फलतः हर्ष ने अपने साम्राज्य को गुप्त शासकों की भांति कई प्रान्तों में विभक्त कर रखा था। ये प्रान्त ‘भुक्ति’, देश आदि नामों से पुकारे जाते थे। भुक्ति के शासक राजस्थानीय, राष्ट्रीय, उपरिक आदि कहलाते थे। इन पदों पर प्रायः राजकुल के राजकुमार नियुक्त होते थे।

जिला स्तरीय शासन

प्रत्येक प्रान्त कई ‘विषयों’ में विभक्त रहता था। इनका शासक विषयपति कहलाता था। विषयपति की नियुक्ति प्रांतीय शासक करते थे। अधिष्ठानों में विषयपति के केन्द्र होते थे जहां उनके अधिकरण (न्यायालय) होते थे। विषय अनेक पठकों में विभक्त थे जिन्हें आज के तहसील के समकक्ष माना जा सकता है। प्रांतीय एवं जिला स्तरीय शासकों की सहायता के लिये दण्डिक, चोरोद्धरणिक तथा दण्डपाशिक आदि पुलिस अधिकारी नियुक्त किये जाते थे।

स्थानीय शासन

शासन की सबसे छोटी इकाई गांव होता था। गांव के समस्त मामलों की देखभाल गांव के प्रतिष्ठित लोग करते थे जो ‘महत्तर’ कहलाते थे। गांव के प्रबन्धन के लिए ‘ग्रामिक’ भी होता था। हर्ष के लेखों में ग्राम स्तरीय अन्य अधिकारियों के भी उल्लेख मिलते हैं। आठ कुलों का निरीक्षक अष्टकुलाधिकरण कहलाता था। शुल्क अर्थात् चंुगी वसूलने वाले को शौल्किक कहते थे। वन, उपवन आदि का निरीक्षक गौल्मिक कहलाता था। भूमिकर का अध्यक्ष धु्रवाधिकरण, गांव का लेखा-जोखा रखने वाला तलवाटक तथा कागज-पत्र रखने वाला अक्षपटलिक कहलाता था। अधिकारियों की इस सूची से अनुमान होता है कि ग्राम शासन पर्याप्त सुदृढ़ था। यह सुदृढ़ता उनकी स्वावलम्बी स्थिति को इंगित करती है।

हर्ष का धर्म

शैव धर्म: हर्ष चरित के अनुसार हर्ष के पूर्ववर्ती चारों पुष्भूति शासक, शैवधर्म के अनुयायी थे। हर्ष भी प्रारंभ में शैव था जिसकी पुष्टि विभिन्न स्रोतों से होती है। हर्ष ने अपने नाटकों रत्नावली एवं प्रियदर्शिका में भी शिव पार्वती एवं अन्य देवी देवताओं की स्तुति की है।

बौद्ध धर्म: बौद्ध धर्म के प्रति हर्ष का झुकाव बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र से भेंट होने के बाद हुआ। दिवाकरमित्र ने राज्यश्री को ढूंढने में हर्ष की सहायता की। इस भेंट के बाद लगातार छः वर्षों तक हर्ष युद्धों में व्यस्त रहा। हर्ष ने ह्वेनसांग के प्रभाव से बौद्ध धर्म स्वीकार किया। ह्वेनसांग ने उसे बौद्ध धर्म की महायान शाखा में दीक्षित किया। महायान धर्म में दीक्षित होने के बाद हर्ष ने कन्नौज में धार्मिक सभा आयोजित की ताकि ह्वेनसांग समस्त धर्मों पर महायान धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध कर सके। अनेक विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं कि हर्ष ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि यद्यपि अंत में हर्ष का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हो गया था किंतु संभवतः उसने अपना प्राचीन धर्म छोड़ा नहीं। न ही अन्य धर्मों को छोड़कर बौद्ध धर्म को आश्रय दिया। मजूमदार के पास अपनी बात सिद्ध करने का कोई प्रमाण नहीं है जबकि ह्वेनसांग तथा बाणभट्ट दोनों ही स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि हर्ष ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। हर्ष द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु धर्म सभायें आयोजित करना, स्तूप व विहारों का निर्माण करना तथा नालंदा विश्वविद्यालय को दान देना, काश्मीर नरेश से महात्मा बुद्ध के दांत प्राप्त करना, हर्ष के बौद्ध धर्म ग्रहण करने की पुष्टि करता है। हर्ष धर्म-सहिष्णु राजा था, बौद्ध धर्म ग्रहरण करने पर भी उसने अन्य धर्मों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया। कन्नौज एवं प्रयाग की सभाओं में उसने बुद्ध के साथ-साथ शिव एवं सूर्य की भी पूजा की।

बौद्ध धर्म का प्रचार: हर्ष के प्रयासों से चीन में महायान धर्म का प्रचार हुआ। भारत में उसके प्रचार की गति तेज हुई। ह्वेनसांग के सम्मान में हर्ष ने गया में धर्म सभा का आयोजन किया जिसमें 20 राज्यों के राजाओं, धार्मिक विद्वानों ब्राह्मणों, हीनयान तथा महायान के हजारों अनुयायियों ने भाग लिया। इस अवसर पर कन्नौज में विशाल संघाराम तथा 100 फुट ऊँचा बुर्ज बनवाया गया। इसमें हर्ष के कद के बराबर की भगवान बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित की गई। हर्ष ने काश्मीर से बुद्ध का दांत मंगवाकर कन्नौज में प्रतिष्ठापित किया। इस सभा में ह्वेनसांग ने महायान सम्प्रदाय की श्रेष्ठता सिद्ध की। ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार इस अवसर पर ब्राह्मणों द्वारा संघाराम में आग लगा दी गई तथा हर्ष की हत्या करने का प्रयास किया गया। इस आरोप में 500 ब्राह्मणों को गया से निष्कासित किया गया।

महामोक्ष परिषद का आयोजन: बौद्ध धर्म ग्रहण करने के उपरांत भी हर्ष प्रत्येक पांचवे वर्ष में प्रयाग में महामोक्ष परिषद का आयोजन करता रहा जिसमें बुद्ध सूर्य तथा शिव की पूजा होती थी। इस अवसर पर वह अपनी समस्त सम्पत्ति यहां तक कि अपने वस्त्र भी दान में दे देता था। ह्वेनसांग ने छठे परिषद का उल्लेख किया है। इस अवसर पर पांच लाख श्रमण, निर्ग्रन्थ, ब्राह्मण, निर्धन, अनाथ आदि एकत्र हुए। यह परिषद 75 दिनों तक चली। इसमें प्रथम दिन बुद्ध की, दूसरे दिन सूर्य की तथा तीसरे दिन शिव की पूजा हुई। चौथे दिन दान दिया गया।

हर्ष के शासन काल में सांस्कृतिक विकास

हर्ष के शासन काल में साम्राज्य में वृद्धि तथा प्रशासनिक कौशल के साथ-साथ कला और साहित्य की भी उन्नति हुई। हर्ष स्वयं कला और साहित्य का अनुरागी था।

कलाओं का विकास

वास्तुकला तथा मूर्तिकला: इस काल में भारत में बड़ी संख्या में हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के मंदिर, चैत्य तथा संघाराम बने। एलोरा का मंदिर, एलिफैण्टा का गुहा मंदिर, कांची में मामल्लपुरम् का शैल मंदिर इसी काल में बने। मंदिरों के निर्माण के कारण मूर्तिकला का भी पर्याप्त विकास हुआ। बौद्धों ने बुद्ध की तथा हिन्दुओं ने शिव तथा विष्णु आदि देवताओं की सुंदर मूर्तियों का निर्माण किया। इस काल की मूर्तिकला में भारशिव शैली तथा मथुरा शैली का सम्मिलन हो गया तथा गोल मुख के स्थान पर लम्बे चेहरे बनाये जाने लगे। अजंता की गुफा संख्या 1 एवं 2 की मूर्तियां इसी काल की हैं।

चित्रकला: इस काल के चित्र अजन्ता की गुफा संख्या 1 और 2 में देखने को मिलते हैं। ये दो प्रकार के चित्र हैं- प्रथम प्रकार के चित्रों में गति और जीवन का अभाव है जबकि द्वितीय प्रकार के चित्रों में संयोजन की समानता का अभाव है। एक चित्र में पुलकेशिन (द्वितीय) को फारस के सम्राट खुसरो परवेज का स्वागत करते हुए दिखाया गया है। इन गुफाओं में बुद्ध तथा पशु-पक्षियों के अनेक चित्र हैं।

अन्य कलायें: हर्ष के काल में उत्तरी भारत में संगीत कला, मुद्रा कला तथा नाट्य कलाओं का विकास हुआ। इनके विकास में हर्ष तथा उसके समकालीन राजाओं ने पर्याप्त रुचि ली।

साहित्य का विकास

हर्षवर्धन विद्वानों का सम्मान करता था एवं उनका आश्रयदाता था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष ने अपने दरबारी कवियों से रचनाएं लिखने के लिये कहा था जिनके संग्रह को जातकमाला कहा जाता है। हर्ष अपने राजकोष का एक भाग, विद्वानों को पुरस्कार देने में व्यय करता था। हर्ष के दरबारी लेखक बाणभट्ट ने हर्षचरित तथा कादम्बरी नामक ग्रंथों की रचना की। हर्ष ने संस्कृत में तीन नाटक- नागानंद, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका की रचना की। संस्कृत साहित्य में इन नाटकों का विशेष स्थान है। बाणभट्ट ने हर्ष को सुंदर काव्य रचना में प्रवीण बताया है। हर्ष की सभा में बाणभट्ट के साथ-साथ मयूर, हरिदत्त, जयसेन, मातंग, दिवाकर, भृतहरि आदि प्रसिद्ध कवि और लेखक रहते थे। हर्ष के समय में अन्य लेखकों ने भी बड़ी संख्या में ग्रंथ लिखे।

ह्वेनसांग की भारत यात्रा

ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था, जो हर्षवर्धन के शासन काल में भारत आया था। ह्वेनसांग का जन्म 605 ई. में चीन के एक नगर में हुआ था। ह्वेनसांग का बड़ा भाई बौद्ध भिक्षु था। ह्वेनसांग ने भी उसका अनुसरण किया और बौद्ध भिक्षु के रूप में दीक्षा ले ली। ह्वेनसांग बाल्यकाल से ही बड़ा जिज्ञासु था और सदैव सत्य की खोज में संलग्न रहता था। उसने चीन के विभिन्न स्थानों में जाकर अध्ययन किया और अपने ज्ञान की वृद्धि की। अन्त में वह चड्गगन में निवास करने लगा। यहीं पर उसने भारत आने की योजना बनाई। वह अपने कुछ मित्रों के साथ चीन सम्राट् के पास गया और उससे भारत यात्रा में सहायता देने की प्रार्थना की। सम्राट ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की परन्तु ह्वेनसांग निराश नहीं हुआ। 626 ई. में जब उसकी अवस्था 24 वर्ष की थी, वह दो अन्य साहसिक व्यक्तियों को अपने साथ लेकर भारत के लिए चल पड़ा। कुछ समय तक ह्वेनसांग के साथ यात्रा करने के उपरान्त उसके दोनों साथी हताश हो गए और अपने देश लौट गए परन्तु ह्वेनसांग ने साहस नहीं छोड़ा और मार्ग की कठिनाईयांे को झेलता हुआ आगे बढ़ता गया। मार्ग में व्यापारियों से उसे बहुत सहायता मिली। मार्ग की भयंकर कठिनाइयों को सहन करता हुआ ह्वेनसांग अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता गया। जिस किसी राज्य में ह्वेनसांग गया, वहीं उसका स्वागत तथा सम्मान हुआ और उसे सहायता मिली।

ह्वेनसांग 631 ई. में काश्मीर पहुंचा। यहाँ पर उसने एक बौद्ध विहार में रहकर दो वर्ष अध्ययन मंें व्यतीत किए। इसके उपरांत वह काश्मीर से मथुरा तथा थानेश्वर आदि स्थानों की यात्रा करता हुआ हर्ष की राजधानी कन्नौज पहुंचा। हर्ष ने उसका बड़ा स्वागत तथा आदर-सत्कार किया। उसने कन्नौज, अयोध्या, श्रावस्ती, कपिलवस्तु आदि तीर्थ-स्थानों की यात्रा की। वह प्रयाग, कौशाम्बी, अयोध्या, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, पाटलिपुत्र, गया तथा राजगृह होता हुआ नालन्दा पहुंचा। वहाँ पर उसने संस्कृत तथा बौद्ध-ग्रन्थों के अध्ययन में दो वर्ष व्यतीत किए। 640 ई. में वह कांचीपुर अर्थात् कांजीवरम पहुंचा। यहाँ से वह महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, सिन्धु, मुल्तान तथा गजनी होता हुआ काबुल नदी के किनारे पहुंच गया। वहाँ से पामीर की पहाड़ि़यों को पार करके काशगर तथा खोतान होता हुआ अपने देश को लौट गया।

चीन के राजा ने ह्वेनसांग का बड़ा स्वागत तथा आदर सत्कार किया। ह्वेनसांग ने अपने जीवन का शेष भाग भारत से लाये हुए ग्रंथों का अनुवाद करने तथा अपनी यात्रा के विवरण लिखने में व्यतीत किया। 664 ई. में ह्वेनसांग का निधन हो गया परन्तु भारत तथा चीन के इतिहास में ह्वेनसांग का नाम अमर हो गया।

ह्वेनसांग का भारतीय विवरण

ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा का वर्णन करते हुए भारत की तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दशा पर अच्छा प्रभाव डाला है।

(1) राजनीतिक दशा: तत्कालीन राजनीतिक दशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग  ने लिखा है कि हर्ष का शासन प्रबंध बड़ा ही अच्छा था। वह अपनी प्रजा की सुरक्षा तथा सुख का बड़ा ध्यान रखता था। राज्य कर बहुत कम तथा हल्के थे। इससे प्रजा बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी। लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। श्रमिकों से बेगार नहीं ली जाती थी। किसानों से भूमि की उपज का छठा भाग राजकीय कर के रूप में लिया जाता था। राजकीय भूमि चार भागों में बंटी थी। एक भाग की आय से राजकीय व्यय चलता था। दूसरा भाग राजकीय कर्मचारियों को जागीर के रूप में दिया जाता था। तीसरे भाग की आय विद्या तथा कला कौशल में व्यय की जाती थी। चौथे भाग की आय विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की सहायता करने तथा दान-दक्षिण देने में व्यय की जाती थी। सड़कें बड़ी सुन्दर तथा चौड़ी होती थीं और सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगे होते थे। यद्यपि सड़कों पर सुरक्षा की पूरी व्यवस्था रहती थी, परन्तु वे डाकुओं से मुक्त नहीं थीं। यात्रियों को राज्य की ओर से हर प्रकार की सुविधा देने का प्रयत्न किया जाता था। अपराधियों को बड़े कठोर दण्ड दिये जाते थे। राजद्राहियों को जीवन भर के लिए बन्दीगृह में डाल दिया जाता था। बड़े अपराधों के लिए अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था और लोगों के हाथ, पैर, नाक-कान काट लिए जाते थे। व्यापार से राज्य को अच्छी आय होती थी। हर्ष की सेना बड़ी विशाल थी और उसके सैनिक शस्त्र चलाने में बड़े कुशल थे।

(2) सामाजिक दशा: ह्वेनसांग के विवरण से भारत की तत्कालीन सामाजिक दशा का ज्ञान होता है। वह लिखता है कि भारत के लोग बड़ी सरल प्रकृति के तथा ईमानदार होते थे। उनका जीवन बड़ा ही सादा था। लोगों का रहन-सहन तथा खान-पान आडम्बरहीन था। दूध, घी, भुने चने तथा मोटी रोटी लोगों का साधारण भोजन था। मांस, लहसुन, प्याज आदि का प्रयोग बहुत कम लोग करते थे। मिट्टी तथा काठ के बर्तनों में केवल एक बार भोजन किया जाता था, फिर उन्हें फेंक दिया जाता था। जाति-प्रथा के बन्धन कठोर थे। लोग छूआछूत का बड़ा विचार करते थे। वस्त्रों की स्वच्छता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। अन्तर्जातीय विवाहों की प्रथा नहीं थी। बाल-विवाह का प्रचलन था। पर्दे की प्रथा नहीं थी और स्त्री-शिक्षा पर ध्यान दिया जाता था। सती-प्रथा का प्रचलन था। विधवा-विवाह की प्रथा नहीं थी। विद्या तथा कला कौशल में लोगों की बड़ी रुचि थी। संस्कृत ही विद्वानों की भाषा थी। समाज में संन्यासियों का बड़ा आदर था। वे जनता में ज्ञान का प्रचार करते थे। सन्यासियों पर निन्दा तथा प्रशंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।

(3) आर्थिक दशा: ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष की प्रजा सुखी तथा सम्पन्न थी। अधिकांश लोग खेती करते थे। खेती ही उनकी आजीविका का प्रधान साधन थी। वैश्य जाति व्यापार करती थी। व्यापार जल तथा स्थल दोनों ही मार्गों से होता था। उन दिनों भवन इतने सुन्दर बनते थे कि ह्वेनसांग उनकी सुन्दरता को देखकर आश्चर्य चकित हो गया था। निर्धन लोगों के मकान भी ईंट अथवा काठ के बने होते थे। इन भवनों पर भांति-भांति की चित्रकारी बनी रहती थी। देश धन-धान्य से पूर्ण था और लोग सुखी थे। ह्वेनसांग स्वयं बहुमूल्य धातुओं की बनी बुद्ध की मूर्तियां अपने साथ चीन ले गया था।

(4) धार्मिक दशा: ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उन दिनों भारत में ब्राह्मण धर्म का अधिक प्रचार था। ब्राह्मणों को समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था। प्रजा में यज्ञ आदि खूब होते थे। अधिकांश प्रजा वैष्णव अथवा शैव धर्म की अनुयायी थी। थानेश्वर में शैव धर्म का प्रचलन अधिक था। मंदिरों में पूजा के लिए देव मूर्तियों की स्थापना की जाती थी। ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म का भी प्रचार था। जिन क्षेत्रों में ब्राह्मण धर्म उन्नत दशा में था, उन क्षेत्रों में बौद्ध धर्म का जोर कम था। बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान दोनों ही पंथों का प्रचलन था। पश्चिमोत्तर भारत में बौद्ध धर्म निष्प्राण सा हो गया था परन्तु पूर्वी भारत में उसका प्रचार था। बौद्धों की संख्या धीरे-धीरे घटती जा रही थी, परन्तु उनके विहार, मठ, स्तूप आदि अब भी बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान थे। बौद्ध लोग भी मूर्ति पूजा करते थे। ये लोग बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानने लगे थे और उनकी मूर्ति बनाकर पूजा  करते थे।

(5) सांस्कृतिक दशा: ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष के राज्य में शिक्षक विद्यार्थियों से सहानुभूति रखते थे और उन्हें परिश्रम के साथ पढ़ाते थे। शिक्षा निःशुल्क थी। विद्यार्थियों से व्यक्तिगत सेवा के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया जाता था। अध्यापक योग्य तथा चरित्रवान होते थे। नालन्दा उस समय का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था जो पटना जिले में राजगृह के निकट स्थित था। ह्ेवनसांग ने स्वयं दो वर्षों तक इस विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। इस विश्वविद्यालय की इतनी अधिक ख्याति थी कि विदेशों से भी विद्यार्थी अध्ययन करने के लिए आते थे। नालंदा में कई हजार भिक्षु निवास करते थे। यद्यपि नालन्दा प्रधानतः बौद्ध शिक्षा का केन्द्र था परन्तु इनमें समस्त धर्मों की शिक्षा दी जाती थी। विद्वानों को वाद-विवाद करने की पूरी स्वतंत्रता थी। विश्वविद्यालय के नियम कठोर थे जिनका पालन अध्यापकों तथा विद्यार्थियों दोनों को करना पड़ता था। इस संस्था में आचार्यों की संख्या लगभग 1000 और विद्यार्थियों की संख्या लगभग 10,000 थी। इसका व्यय 220 गांवों की आय से चलता था। इस काल में बौद्ध शिक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण शिक्षा भी बड़ी उन्नत दशा में थी।

हर्ष की मृत्यु

लगभग 42 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन करने के उपरान्त 648 ई. में हर्ष का निधन हो गया। उसके कोई पुत्र नहीं था, इसलिये उसकी मुत्यु के उपरांन्त उसके मंत्री अर्जुन ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। साम्राज्य बिखर गया और कई नये राज्यों की स्थापना हो गई। इस प्रकार पुष्यभूति वंश का अन्त हो गया।

हर्ष का मूल्यांकन

हर्ष की गणना भारत के महान् सम्राटों में की जाती है, इसके निम्नलिखित कारण हैं-

(1) महान् विजेता: स्मिथ ने हर्ष की उपलब्धियों का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘एक युद्ध ने अशोक की रक्त पिपासा को शांत कर दिया किंतु हर्ष अपनी तलवार को म्यान में रखने के लिए तब संतुष्ट हुआ जब उसने लगातार सैंतीस वर्ष तक, जिनमें छः वर्षों तक निरन्तर और शेष समय में सविराम युद्ध कर लिया।’ हर्ष ने पंजाब, कन्नौज, मगध, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, वल्लभी, आनंदपुर, कच्छ, काठिायावाड़ तथा सिंध आदि राज्यों पर विजय प्राप्त की। नेपाल तथा काश्मीर ने उसकी अधीनता स्वीकार की।

(2) महान् साम्राज्य निर्माता: हर्ष एक महान् साम्राज्य निर्माता था। उसे अपने पूर्वजों से थानेश्वर का छोटा सा राज्य प्राप्त हुआ परन्तु अपनी दिग्विजय द्वारा उसने उसे एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया और सम्पूर्ण उत्तरी भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया। यद्यपि दक्षिण भारत के युद्ध अभियान में उसे सफलता नहीं मिली और चालुक्य राजा पुलकेशिन (द्वितीय) ने उसे परास्त कर दिया परन्तु उसकी उत्तर भारत की विजयें उसे भारत के महान सम्राटों में स्थान दिलवाती हैं। गुप्त साम्राज्य के छिन्न भिन्न हो जाने पर भारत की राजनीतिक एकता को फिर से स्थापित करने का श्रेय हर्ष को ही प्राप्त है। जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना उसने अपने बाहुबल से की थी वह उसे अपने जीवन काल में सुरक्षित रखने में भी समर्थ रहा। इसलिये उसकी गणना भारत के महान् विजेताओं तथा साम्राज्य निर्माताओं में करनी उचित ही है।

(3) महान् शासक: हर्ष न केवल महान् विजेता तथा साम्राज्य निर्माता था वरन् अपने बाहुबल से उसने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की उसके सुशासन की भी सुन्दर व्यवस्था की। एक शासक के रूप में उसकी महानता इस बात में पाई जाती है कि उसका शासन उदार, दयालु तथा प्रजा के लिये हितकारी था। उसने कर बहुत कम लगाये थे, जिससे प्रजा को कर देने में कष्ट न हो और उसकी आर्थिक दशा भी अच्छी बनी रहे। हर्ष ने देश में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए दण्ड विधान को कठोर बना दिया। अपराधों में कमी होने के कारण प्रजा सुख तथा शान्ति का जीवन व्यतीत करने लगी। हर्ष अपने राज्य में घूम-घूम कर अपनी प्रजा की कठिनाईयों को जानने तथा उनको दूर करने का प्रयत्न करता था। हर्ष अपने विशाल साम्राज्य के सुशासन की स्वयं देख-रेख करता था और अपने कर्मचारियों पर निर्भर नहीं रहता था। स्मिथ ने उसके इस गुण की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अपने विस्तृत साम्राज्य पर नियंत्रण रखने के लिए हर्ष अपने प्रशिक्षित कर्मचारियों की सेना पर निर्भर न रहकर अपने व्यतिगत निरीक्षण पर भरोसा करता था।’ इस सम्बन्ध में डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘अपने विस्तृत शासन सम्बन्धी मामलों के निरीक्षण के कठोर कार्य को उसने स्वयं करने का प्रयत्न किया।’ उसने अनेक लोक मंगलकारी कार्य किए, जिनसे उसकी प्रजा सुखी तथा सम्पन्न बन गई। इसलिये एक शासक के रूप में हर्ष महान् था।

(4) महान् धर्म-परायण: हर्ष का हृदय बड़ा कोमल तथा दयालु था। उसमें उच्च कोटि की धर्मपरायणता थी। प्रारम्भ में वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था और शिव, सूर्य आदि देवों की उपासना करता था। बाद में वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया परन्तु इससे उसके धार्मिक विचारों में किसी भी प्रकार की संकीर्णता नहीं आई। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी और वह समस्त धर्मों के मानने वालों को सम्मान देता था। वह समस्त सम्प्रदायों के साधु-सन्यासियों का आदर करता था और उन्हें दान-दक्षिणा देता था। प्रयाग की पंचवर्षीय सभा में वह समस्त धर्म वालों का आदर करता था और उन्हें दान-दक्षिणा देता था। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी हर्ष महान् शासक था।

(5) महान् विद्यानुरागी: हर्ष महान् साहित्यानुरागी था। उसके विद्यानुराग की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हर्ष के स्मरणीय होने का एक कारण यह भी है कि वह विद्वानों का उदार आश्रयदाता था।’ हर्ष ने विद्वानों को आश्रय देने के साथ-साथ स्वयं भी अपनी लेखनी का प्रयोग उसी कौशल के साथ किया जिस कौशल से वह अपनी तलवार का प्रयोग करता था। इस सम्बन्ध में डॉ. विन्सेन्ट स्मिथ ने लिखा है- ‘सम्राट हर्ष न केवल योग्य साहित्यकारों का उदार आश्रयदाता था, वह स्वयं भी एक उच्चकोटि का लेख-विशारद तथा सुविख्यात लेखक था।’ उसने ‘नागानन्द’, ‘रत्नावली’ तथा ‘प्रियदर्शिका‘ नामक तीन ग्रन्थों की रचना की। उसके दरबार का सबसे बड़ा विद्वान बाणभट्ट था, जिसने ‘हर्ष-चरित’ तथा ‘कादम्बरी’ नामक ग्रन्थों की रचना की। शिक्षा प्रसार में भी हर्ष की बड़ी रुचि थी। उसने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना करवाई और बड़ी उदारतापूर्वक उनकी सहायता की। हर्ष ने नालन्दा विश्वविद्यालय की सहायता के लिए 220 गाँवों की आय दान में दी। इस प्रकार हर्ष ने प्रजा के न केवल भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्न किया, अपितु प्रजा के बौद्धिक विकास के लिए भी सुविधाएँ दीं। इस दृष्टि से भी उसे महान् सम्राट् मानना सर्वथा उचित है।

(6) संस्कृति का महान् सेवक: हर्ष ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के पोषण तथा प्रचार का अथक प्रयास किया। उसके शासन काल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में खूब प्रचार हुआ। तिब्बत, चीन तथा मध्य एशिया के साथ भारत के घनिष्ठ सांस्कृतिक सम्बन्ध बने और इन देशों में भारतीय संस्कृति का खूब प्रचार हुआ। इस काल में दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीप समूहों में भी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हुआ। इस प्रकार भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के दृष्टिकोण से भी हर्ष का शासन काल बड़ा गौरवपूर्ण था। इसलिये हर्ष को भारतीय सम्राटों में उच्च स्थान प्रदान करना तथ्य-संगत है।

डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने हर्ष की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘हर्ष प्राचीन भारत के इतिहास के श्रेष्ठतम सम्राटों में से है। उसमें समुद्रगुप्त तथा अशोक दोनों ही के गुण संयुक्त थे। उसका जीवन हमें समुद्रगुत की सैनिक सफलताओं और अशोक की पवित्रता की याद दिलाता है।’

नालंदा विश्वविद्यालय

हर्ष के समय में नालंदा का विश्वविद्यालय अपने शिखर पर था। ह्वेनसांग ने भी छः वर्ष तक नालंदा में रहकर अध्ययन किया। उसके समय में शीलभद्र इस महाविहार का अध्यक्ष था। ह्वेनसांग के अनुसार इस महाविहार में 8500 विद्यार्थी तथा 1510 शिक्षक थे। नालंदा महाविहार में अध्ययन करने के इच्छुक विद्यार्थियों को कड़ी परीक्षा देनी होती थी। 100 परीक्षार्थियों में से केवल 20 को ही प्रवेश मिलता था। यह स्नातकोत्तर विद्यालय था जिसमें भारत, कोरिया, चीन, मंगोलिया, जापान, लंका आदि देशों के विद्यार्थी पढ़ते थे। प्रतिदिन 100 आसनों से शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं और ग्रंथों के साथ-साथ वेद, सांख्य, योग, न्याय, दर्शन, तर्कशास्त्र, आयुर्वेद, विज्ञान, शिल्प, उद्योग आदि विषय भी पढ़ाये जाते थे। शीलभद्र, नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबंधु और दिड्नाग आदि प्रसिद्ध आचार्य थे। ह्वेनसांग के समय इसमें आठ विहार थे जिनके भवन गगनचुम्बी थे। पुस्तकालय का भवन नौ मंजिला था। इस महाविहार को 100 गांवों की आय प्राप्त होती थी। विभिन्न राजवंश एवं धनी लोग इस महाविहार को दान तथा आर्थिक सहायता देते थे। विद्यार्थियों को इस महाविहार में अध्ययन करते समय प्रत्येक सुविधा निःशुल्क मिलती थी।

अध्याय – 25 : भारतीय संस्कृति में पल्लवों का योगदान

0

दक्षिण भारत के राज्य

भारतवर्ष के मध्य भाग में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर, विन्ध्याचल पर्वत श्ृंखला स्थित है। प्राचीन काल में विन्ध्याचल पर्वत तथा इसके निकट का भूभाग घने वनों से आच्छादित था, जिसे पार करना अत्यन्त दुष्कर था। इस पर्वत के लगभग समानांतर नर्मदा नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। विन्ध्याचल पर्वत तथा नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित भूभाग उत्तरापथ अथवा उत्तर भारत कहलाता है और दक्षिण में स्थित भूभाग दक्षिणापथ अथवा दक्षिण भारत कहलाता है। प्राचीन काल में जब यातायात के साधनों की बड़ी कमी थी और मार्ग बड़े ही दुर्गम थे तब उत्तर भारत से दक्षिण भारत में जाना बहुत कठिन था। इस कारण काफी लम्बे समय तक आर्य अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार उत्तर भारत में और अनार्य अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का विकास दक्षिण भारत में करते रहे। जब आर्य लोग सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार कर चुके, तब उन्होंने दक्षिण भारत में भी प्रवेश किया और वहाँ पर भी अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। प्रारंभ में इस कार्य को ऋषियों ने आरम्भ किया। कालान्तर में बहुत से महत्त्वाकांक्षी राजकुमार भी दक्षिण भारत में गये। उन्होंने वहाँ पर अपने राज्य स्थापित कर लिये। गुप्त साम्राज्य के पतन के उपरान्त जब उत्तरी भारत में विश्ृंखलता आरम्भ हुई, ठीक उसी समय दक्षिण भारत में भी छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये।

पल्लव वंश

दक्षिण के राज्यों में पल्लव वंश का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस वंश ने दक्षिण भारत पर लगभग 500 वर्ष तक शासन किया। इस वंश का उदय लगभग 350 ई. में चोड अथवा चोल देश के पूर्वी समुद्र तट पर हुआ। इस वंश का प्रथम शासक चोल राजा का पुत्र था और उसकी माता नाग राजकुमारी थी। कहा जाता है नाग राजकुमारी की जन्मभूमि मणिपल्लवम् के ही नाम पर इस वंश का नाम पल्लव पड़ा है। इन लोगों ने काँची अथवा कांजीवरम् को अपनी राजधानी बना लिया और वहीं से शासन करने लगे। जिस समय गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया, उन दिनों कांची में विष्णुगोप नामक राजा शासन कर रहा था। उसे समुद्रगुप्त ने युद्ध में परास्त कर दिया। इस वंश के प्रारम्भिक इतिहास का ठीक-ठीक पता नहीं चलता है।

सिंहविष्णु: पल्लव वंश का राजा सिहंविष्णु 575 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल से इस वंश के निश्चित इतिहास का पता चलता है। सिंहविष्णु शक्तिशाली सम्राट् था। उसने पड़ोसी राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने सम्भवतः श्रीलंका के राजा पर भी विजय प्राप्त की। उसने 600 ई. तक शासन किया।

महेन्द्रवर्मन (प्रथम): सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन (प्रथम) सिंहासन पर बैठा। उसका शासन काल 600 ई. से 625 ई. माना जाता है। चालुक्य राजा पुलकेशिन् (द्वितीय) ने उसके राज्य पर आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया। इससे पल्लवों की प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा। महेन्द्रवर्मन प्रारम्भ में जैन धर्म का अनुयायी था परन्तु बाद में शैव हो गया था। उसने बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया। 

नरसिंहवर्मन (प्रथम): महेन्द्रवर्मन के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन (प्रथम) शासक हुआ। उसने 625 ई. से 645 ई. तक शासन किया। वह प्रतापी शाासक हुआ। उसने चालुक्यों पर आक्रमण करके उनकी राजधानी वातापी पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उसने चालुक्यों से अपने पिता की पराजय का बदला लिया। इस विजय से पल्लवों की प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हुई। अब वे दक्षिण के राज्यों में सर्वाधिक शक्तिशाली समझे जाने लगे। नरसिंहवर्मन के ही शासन-काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग कांची आया। ह्वेनसांग ने कांची के विषय में लिखा है कि वह एक विशाल नगर था और उसमें हजारों बौद्ध भिक्षु रहते थे।

महेन्द्रवर्मन (द्वितीय): नरसिंहवर्मन के बाद महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) पल्लवों का शासक हुआ। उसके राज्य काल की घटनाओं के विषय में अधिक ज्ञात नहीं होता है। उसका शासनकाल केवल दो साल के लिये था। उसके शासन में चालुक्य शासक विक्रमादित्य (प्रथम) ने आक्रमण किया। इस युद्ध में महेन्द्रवर्मन परास्त हो गया।

परमेश्वरवर्मन (प्रथम): महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) के बाद परमेश्वरवर्मन (प्रथम) सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल में 655 ई. में चालुक्य राजा विक्रमादित्य (प्रथम) ने पल्लव राज्य पर आक्रमण कर उसकी राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया। इस पर भी परमेश्वरवर्मन ने हार नहीं मानी तथा विक्रमादित्य को अपनी राजधानी काँची छोड़कर जाने पर विवश कर दिया।

नरसिंहवर्मन (द्वितीय): परमेश्वरवर्मन के बाद नरसिंहवर्मन (द्वितीय) शासक हुआ। उसने राजसिंह की उपाधि धारण की। वह अपने राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा। कांची के कैलाशनाथ मन्दिर का निर्माण उसी ने करवाया था। वह साहित्यानुरागी शासक था।

नन्दिवर्मन (द्वितीय): पल्लव वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक नन्दिवर्मन था। उसने चालुक्यों के साथ सफलतापूर्वक युद्ध किया और कांची पर अधिकार कर लिया। उसने राष्ट्रकूटों तथा पाण्ड्यों से युद्ध किया। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने कई वैष्णव मन्दिर बनवाये। नन्दिवर्मन के बाद पल्लव वंश में कोई शक्तिशाली शासक नहीं हुआ।

अपराजितवर्मन: इस वंश का अन्तिम शासक अपराजितवर्मन था, जिसने 876 ई. से 895 ई. तक शासन किया। अन्त में चोलों ने उसे युद्ध में परास्त करके पल्लव वंश का अन्त कर दिया।

पल्लवों की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

भारतीय संस्कृति के विकास में पल्लवों का महत्वपूर्ण योगदान है। यह योगदान भारतीयों के जीवन के हर अंग पर देखा जा सकता है।

भक्ति आंदोलन का जन्म

आठवीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति पर छा जाने वाले महान् धार्मिक सुधारों का जन्म पल्लवों के ही शासन काल में हुआ। अधिकांश पल्लव शासक वैष्णव धर्मावलम्बी थे। कुछ पल्लव शासक शैव धर्म में विश्वास रखते थे। इस काल में पल्लवों के प्रभाव से दक्षिण भारत में ब्राह्मण धर्म का बोलबाला हो गया। अनेक पल्लव शासकों ने अश्वमेध, वाजसनेय एवं अग्निष्टोम यज्ञ किये। पल्लवों के प्रभाव से दक्षिण भारत में मूर्ति पूजा, यज्ञ एवं कर्मकाण्डों की स्थापना हुई। प्रजा में हिन्दू धर्म की भक्ति, अवतारवाद एवं अन्य विश्वासों का प्रसार हुआ। पल्लव शासकों ने अनेक धार्मिक ग्रंथों का तमिल भाषा में अनुवाद करवाया तथा अनेक ग्रंथों की तमिल भाषा में रचना करवाई। भक्ति आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण भारत से ही हुआ। भागवत पुराण के अनुसार भक्ति द्रविड़ देश में उपजी, कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ काल तक महाराष्ट्र में रहने के बाद गुजरात में जीर्ण हो गई। दक्षिण के भक्ति आंदोलन को पल्लव एवं चोल शासकों ने संरक्षण प्रदान किया। पल्लवों के शासन काल में शैव आचार्य नायनार तथा वैष्णव आचार्य आलवार ने बौद्ध एवं जैन विद्वानों से शास्त्रार्थ करके उन्हें परास्त किया। इससे दक्षिण में बौद्ध एवं जैन धर्म की जड़ें हिल गईं। नायनारों तथा आलवारों का भक्ति आंदोलन छठी शताब्दी से नौवीं शताब्दी ईस्वी तक चला।

स्थापत्य कला का विकास

आज के तमिल प्रदेश को तब द्रविड़ देश कहा जाता था। पल्लव शासकों ने इस क्षेत्र में जिस स्थापत्य शैली का विकास किया, उसे द्रविड़ शैली कहा जाता है। इस प्रदेश पर पल्लवों ने छठी से दसवीं शताब्दी तक शासन किया। उनके शासन काल की वास्तुकला के उदाहरण उनकी राजधानी कांची तथा महाबलीपुरम् में अधिक पाये जाते हैं। पल्लव कलाकारों ने वास्तुकला को काष्ठ कला एवं गुहाकला से मुक्त किया। पल्लवकालीन कला को चार शैलियों में विभक्त किया जा सकता है-

1. महेन्द्रवर्मन शैली, 2. मामल्ल शैली, 3. राजसिंह शैली तथा 4. नन्दिवर्मन शैली।

महेन्द्रवर्मन शैली: इस शैली का विकास 610 ई. से 640 ई. के मध्य हुआ। इस शैली के मंदिरों को मण्डप कहा जाता है। ये मण्डप साधारण स्तम्भ युक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं। ये कक्ष कठोर पाषाण को काटकर गुहा मंदिर के रूप में बनाये गये हैं। मण्डप के बाहरी द्वार पर दोनों ओर द्वारपालों की मूर्तियां लगाई गई हैं। मण्डप के स्तम्भ सामान्यतः चौकोर हैं। महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपट्टु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पंचपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्र विष्णुगृह मण्डप, मामण्डूर का विष्णु मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

मामल्ल शैली: इस शैली का विकास 640 ई. से 674 ई. तक की अवधि में नरसिंहवर्मन (प्रथम) के शासन काल में हुआ। नरसिंहवर्मन ने महामल्ल की उपाधि धारण की थी इसलिये इस शैली को महामल्ल शैली कहा जाता है। इसी राजा ने मामल्लपुरम् की स्थापना की जो बाद में महाबलीपुरम् कहलाया। इस शैली में दो प्रकार के मंदिरों का निर्माण हुआ है- 1. मण्डप शैली के मंदिर तथा 2. रथ शैली के मंदिर। मण्डप शैली के मंदिर वैसे ही हैं जैसे महेन्द्रवर्मन के काल में बने थे किंतु मामल्ल शैली में उनका विकसित रूप दिखाई देता है। महेन्द्रवर्मन शैली की अपेक्षा मामल्ल शैली के मण्डप अधिक अलंकृत हैं। इनके स्तम्भ सिंहों के शीर्ष पर स्थित हैं तथा स्तम्भों के शीर्ष मंगलघट आकार के हैं। इनमें आदिवराह मण्डप, महिषमर्दिनी  मण्डप, पंचपाण्डव मण्डप तथा रामानुज मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

रथ शैली के मंदिर विशाल पाषाण चट्टान को काटकर बनाये गये हैं। ये रथ मंदिर, काष्ठ के रथों की आकृतियों में बने हुए हैं। इनकी वास्तुकला मण्डप शैली जैसी है। इन रथों का विकास बौद्ध विहार तथा चैत्यगृहों से हुआ है। प्रमुख रथ मंदिरों में द्रोपदी रथ, अर्जुन रथ, नकुल-सहदेव रथ, भीम रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिडारि रथ आदि हैं। ये सब शैव मंदिर हैं। द्रोपदी रथ सबसे छोटा है। धर्मराज रथ सबसे भव्य एवं प्रसिद्ध है। इसका शिखर पिरामिड के आकार का है। यह मंदिर दो भागों में है। नीचे का खण्ड वर्गाकार है तथा इससे लगा हुआ संयुक्त बरामदा है। यह रथ मंदिर आयताकार तथा शिखर ढोलकाकार है। मामल्ल शैली के रथ मंदिर अपनी मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध हैं। इन रथों पर दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। नरसिंहवर्मन (प्रथम) के साथ ही इस शैली का भी अंत हो गया।

3. राजसिंह शैली: नरसिंहवर्मन (द्वितीय) ने राजसिंह की उपाधि धारण की थी। इसलिये उसके नाम पर इस शैली को राजसिंह शैली कहा जाता है। महाबलीपुरम् में समुद्रतट पर स्थित तटीय मंदिर और कांची में स्थित कैलाशनाथ मंदिर तथा बैकुण्ठ पेरुमाल मंदिर इस शैली के प्रमुख मंदिर हैं। इनमें महाबलीपुरम् का तटीय शिव मंदिर पल्लव स्थापत्य एवं शिल्प का अद्भुत स्मारक है। यह मंदिर एक विशाल प्रांगण में बनाया गया है जिसका गर्भगृह समुद्र की ओर है तथा प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर। इसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ तथा सीढ़ीदार शिखर है। शीर्ष पर स्तूपिका निर्मित है। इसकी दीवारों पर गणेश तथा स्कंद आदि देवताओं और गज एवं शार्दुल आदि बलशाली पशुओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। कांची के कैलाशनाथ मंदिर में राजसिंह शैली का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। इसका निर्माण नरसिंहवर्मन (द्वितीय) के शासन काल में आरंभ हुआ तथा उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) के शासनकाल में पूर्ण हुआ। द्रविड़ शैली की समस्त विशेषतायें इस मंदिर में दिखाई देती हैं। मंदिर में शिव क्रीड़ाओं को अनेक मूर्तियों के माध्यम से अंकित किया गया है। इस मंदिर के निर्माण के कुछ समय बाद ही बैकुण्ठ पेरुमल का मंदिर बना। इसमें प्रदक्षिणा-पथ युक्त गर्भगृह है तथा सोपान युक्त मण्डप है। मंदिर का विमान वर्गाकार तथा चार मंजिला है जिसकी ऊँचाई लगभग 60 फुट है। प्रथम मंजिल में भगवान विष्ण के विभिन्न अवतारों की मूर्तियां हैं। मंदिर की भीतरी दीवारों पर राज्याभिषेक, उत्तराधिकार चयन, अश्वमेध, युद्ध एवं नगरीय जीवन के दृश्य अंकित किये गये हैं। यह मंदिर पल्लव वास्तुकला का पूर्ण विकसित स्वरूप प्रस्तुत करता है।

4. नन्दिवर्मन शैली: इस शैली के मंदिरों में वास्तुकला का कोई नवीन तत्व दिखाई नहीं देता किंतु आकार-प्रकार में ये निरंतर छोटे होते हुए दिखाई देते हैं। इस शैली के मंदिर, पूर्वकाल के पल्लव मंदिरों की प्रतिकृति मात्र हैं। ये मंदिर नंदिवर्मन तथा उसके उत्तराधिकारियों के शासन में बने थे। इस शैली के मंदिरों में स्तम्भ शीर्षों में कुछ विकास दिखाई देता है। इस शैली के मंदिरों में कांची के मुक्तेश्वर तथा मातंगेश्वर मंदिर तथा गुड़ीमल्लम का परशुरामेश्वर मंदिर उल्लेखनीय हैं। इनमें सजीवता का अभाव है। इससे अनुमान होता है कि इन मंदिरों के निर्माता किसी संकट में थे। दसवीं शताब्दी के अंत तक इन मंदिरों का निर्माण लगभग बंद हो गया।

साहित्य का विकास

पल्लव शासन में संस्कृत तथा तमिल भाषाओं के साहित्य का उन्न्यन हुआ। पल्लवों के समय नायनार तथा आलवार संतों के भक्ति आंदोलन ने वैष्णव साहित्य तथा तमिल भाषा के विकास में अपूर्व योगदान किया। अधिकांश पल्लव शासक विद्यानुरागी थे। उन्होंने कवियों और साहित्यकारों को राज्याश्रय दिया। पल्लवों की राजधानी कांची अत्यंत प्राचीन काल से ही संस्कृत विद्या के केन्द्र के रूप में विख्यात रही। पतंजलि के महाभाष्य से ज्ञात होता है कि मौर्य काल में भी कांची की ख्याति दूर-दूर तक विस्तृत थी। छठी शताब्दी ईस्वी के अंतिम दिनों में सिंहविष्णु ने संस्कृत के विद्वान भारवि को अपने दरबार में आमंत्रित किया। उस समय भारवि कांची में गंगराज दुर्विनीत के साथ रह रहे थे। भारवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ किरातार्जुनीय की रचना इसी समय की। माहुर अभिलेख के अनुसार किसी वैदिक विद्यालय की सहायता के लिये राज्य की ओर से तीन ग्राम दान में दिये गये थे।

राजा महेन्द्रवर्मन (प्रथम) अपने समय का महान लेखक था। उसने मत्तविलासप्रहसन नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का वर्णन मिलता है। सम्पूर्ण नाटक हास्य तथा विनोद से सम्पन्न है। राजा महेन्द्रवर्मन (प्रथम) शैव था। उसने बौद्ध धर्म पर सुनीतिपूर्ण आक्रमण किया। उसकी शैली सरल तथा ललित है। अनेक स्थलों पर उसने काव्य शक्ति का चमत्कार दिखाया है। छंदों के प्रयोग में उसने विशेष प्रतिभा का परिचय दिया है। राजा महेन्द्रवर्मन ने नृत्य कला पर भी पुस्तक लिखी। उसने चित्रकला तथा संगीत के सिद्धांतों की व्याख्या करने के लिये दक्षिणचित्र नामक ग्रंथ की रचना की। पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन भी उच्च कोटि का विद्यानुरागी था। उसकी राजसभा में दशकुमारचरितम् के रचयिता दण्डी रहते थे। पल्लव शासकों के अधिकांश लेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं।

निष्कर्ष: इस प्रकार पल्लवों का भारतीय संस्कृति के उन्नयन में महत्वपूर्ण योगदान है। पल्लवों की वास्तुकला भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। पल्लवों ने बौद्ध चैत्यों से विरासत में प्राप्त कला का विकास करके नवीन शैलियों को जन्म दिया जो चोल एवं पाण्ड्य काल में पूर्ण विकसित हो गईं। पल्लव कला की विशेषतायें दक्षिण-पूर्वी एशिया तक विस्तृत हुईं। पल्लवों ने कला, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में भारत को बहुत कुछ दिया। उनकी कला का प्रभाव भारत से बाहर अन्यान्य द्वीपों की कला, साहित्य एवं संस्कृति पर भी पड़ा।

अध्याय – 26 भारतीय संस्कृति में चालुक्यों का योगदान

10

चालुक्य वंश

चालुक्यों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार वे प्राचीन क्षत्रियों के वंशज थे तो कुछ इतिहासकार उन्हें विदेशियों की संतान बताते हैं। स्मिथ के अनुसार वे विदेशी गुर्जर थे जो राजपूताना से दक्षिण की ओर जा बसे। डॉ. बी. सी. सरकार उन्हें कन्नड़ जातीय मानते हैं जो आगे चलकर स्वयं को क्षत्रिय कहने लगे। चालुक्यों की अनुश्रुतियों में चालुक्यों का मूल स्थान अयोध्या बताया गया है। चालुक्यों ने दक्षिण भारत में पाँचवी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक शासन किया और बहुत ख्याति प्राप्त की।

चालुक्यों की शाखाएँ: दक्षिण भारत के चालुक्यों की तीन प्रमुख शाखाएँ थीं- 1. बादामी (वातापी) के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य, 2. कल्याणी के उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य तथा 3. वेंगी के पूर्वी चालुक्य। चालुक्यों की एक शाखा गुजरात अथवा अन्हिलवाड़ा में भी शासन करती थी। ये चालुक्य, दक्षिण के चालुक्यों से अलग थे। कुछ इतिहासकार उन्हें प्राचीन काल में एक ही शाखा से उत्पन्न होना मानते हैं।

बादामी अथवा वातापी के चालुक्य

जिन चालुक्यों ने बीजापुर जिले में स्थित बादामी (वातापी) को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया वे वातापी के चालुक्य कहलाये। इन चालुक्यों ने 550 ई. से 750 ई. तक शासन किया।

आरंभिक शासक: इस वंश का पहला राजा जयसिंह था। वह बड़ा ही वीर तथा साहसी था। उसने राष्ट्रकूटों से महाराष्ट्र छीना था। जयसिंह के बाद रणराज, पुलकेशिन् (प्रथम) कीर्तिवर्मन, मंगलेेेेश आदि कई राजा हुए।

पुलकेशिन् (द्वितीय): इस वंश का सबसे प्रतापी राजा पुलकेशिन् (द्वितीय) था, जिसने 609 ई. से 642 ई. तक सफलतापूर्वक शासन किया। वह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने राष्ट्रकूटों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया और कदम्बों के राज्य पर आक्रमण कर उनकी राजधानी वनवासी को लूटा। उसके प्रताप से आंतकित होकर कई पड़ोसी राज्यों ने उसके प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। पुलकेशिन् की सबसे बड़ी विजय कन्नौज के राजा हर्षवर्धन पर हुई। इससे उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई। पल्लवों के साथ भी उसने युद्ध किया। चोलों के राज्य पर भी उसने आक्रमण किया। उसने पाण्ड्य तथा केरल राज्य के राजाओं को भी अपना प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। विदेशी राज्यों के साथ भी पुलकेशिन् ने कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये। उसने फारस के शासक के साथ राजदूतों का आदन-प्रदान किया था। पुलकेशिन् के अन्तिम दिन बड़े कष्ट से बीते। पल्लव राजा नरसिंहवर्मन ने कई बार उसके राज्य पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी वातापी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। सम्भवतः इन्हीं युद्धों में पुलकेशिन् की मृत्यु हो गई।

पुलकेशिन् (द्वितीय) के उत्तराधिकारी: पुलकेशिन् (द्वितीय) के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिये संघर्ष हुआ। इस कारण 642 ई. से 655 ई. तक चालुक्य राज्य में कोई भी एकच्छत्र राज्य नहीं रहा। इस वंश में कई निर्बल शासक हुए, जो इसे नष्ट होने से बचा नहीं सके। अन्त में 753 ई. के आस-पास राष्ट्रकूटों ने इस वंश का अन्त कर दिया।

कल्याणी के चालुक्य

753 ई. में राष्ट्रकूटों ने वातापी के चालुक्यों की सत्ता उखाड़ फैंकी किंतु चालुक्यों का समूल नाश नहीं किया। परवर्ती चालुक्य राष्ट्रकूटों के अधीन सामंत के रूप में शासन करने लगे। 950 ई. में चालुक्य सामंत तैलप (द्वितीय) ने राष्ट्रकूटों के राजा कर्क को परास्त करके कल्याणी में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। उसके वंशजों ने 1181 ई. तक शासन किया। इस प्रकार चालुक्यों की जिस शाखा ने 950 ई. से 1181 ई. तक कल्याणी को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया, वे कल्याणी के चालुक्य कहलाते हैं।

तैलप (द्वितीय): तैलप राष्ट्रकूटों का सामन्त था। 950 ई. में परमार सेनाओं ने राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण किया। अवसर पाकर तैलप ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। उसने 47 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया। 997 ई. में तैलप की मृत्यु हुई। तैलप के बाद सत्याश्रय, विक्रमादित्य (पंचम), जयसिंह, सोमेश्वर (प्रथम), सोमेश्वर (द्वितीय) आदि कई राजा हुए।

विक्रमादित्य षष्ठम्: कल्याणी के चालुक्यों में विक्रमादित्य (षष्ठम्) सबसे प्रतापी शासक था। उसने चोल, होयसल तथा वनवासी के राजाओं को परास्त किया। उत्तर भारत में परमारों से उसकी मैत्री थी परन्तु सुराष्ट्र के चालुक्यों के साथ उसका निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। विक्रमादित्य बड़ा विद्यानुरागी था। ‘विक्रमांकदेव चरित्र’ के रचियता विल्हण को उसका आश्रय प्राप्त था। उसने बहुत से भवनांे तथा मन्दिरों का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य के बाद इस वंश में कई निर्बल राजा हुए, जो इसे पतनोन्मुख होने से नहीं बचा सके। अन्त में 1181 ई. के आसपास देवगिरि के यादवों ने कल्याणी के चालुक्यों का अन्त कर दिया।

वेंगी के चालुक्य

इन्हें पूर्वी चालुक्य भी कहा जाता है क्योंकि इनका राज्य कल्याणी के पूर्व में स्थित था। वातापी के चालुक्य राजा पुलकेशिन (द्वितीय) ने 621 ई. के लगभग आन्ध्र प्रदेश को जीतकर वहां अपने भाई विष्णुवर्धन को प्रशासक नियुक्त किया। विष्णुवर्धन ने इस क्षेत्र में अपने नये राजवंश की स्थापना की। इस राजवंश ने वेंगी को राजधानी बनाकर लगभग 500 वर्षों तक शासन किया। विष्णुवर्धन ने 625 ई. से 633 ई. तक शासन किया। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र जयसिंह (प्रथम) वेंगी के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल में चालुक्यों के मूल राज्य वातापी पर पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन ने आक्रमण किया। इस युद्ध में पुलकेशिन (द्वितीय) मारा गया। इससे वातापी के चालुक्य कमजोर पड़ गये। उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर वेंगी के चालुक्यों ने अपने राज्य का विस्तार करना आरंभ किया। जयसिंह के बाद इन्द्रवर्मन, मंगि, जयसिंह (द्वितीय), विष्णुवर्धन (तृतीय), विजयादित्य (प्रथम), विष्णुवर्धन (चतुर्थ), विजयादित्य (द्वितीय) और (तृतीय), भीम (प्रथम), विजयादित्य (चतुर्थ) एवं अम्म (प्रथम) आदि राजा हुए। 970 ई. में दानार्णव चालुक्यों के सिंहासन पर बैठा। 973 ई. में उसके साले जटाचोड भीम ने उसकी हत्या कर चालुक्यों के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। 999 ई. में राजराज चोल ने वेंगी पर आक्रमण करके वेंगी के राजा जटाचोड भीम को मार डाला और जटाचोड भीम के पूर्ववर्ती राजा दानार्णव के पुत्र शक्तिवर्मन को वेंगी का राजा बनाया। 1063 ई. में कुलोत्तुंग चोल, वेंगी के सिंहासन पर बैठा। उसमें चोलों की अपेक्षा चालुक्य रक्त की प्रधानता थी। अतः उसके शासनकाल में चालुक्य राज्य और चोल राज्य एक ही हो गये। वेंगी के चालुक्यों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया।

चालुक्यों की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

विभिन्न धर्मों को प्रश्रय

चालुक्यों ने दक्षिण भारत में एक विशाल राज्य की स्थापना की तथा उनकी तीन शाखाओं ने दक्षिण में दीर्घ काल तक शासन किया। इसलिये उन्हें कला एवं साहित्य में योगदान देने का विपुल अवसर प्राप्त हुआ।

वैदिक यज्ञों का प्रसार: चालुक्य राजा हिन्दू धर्म के मतावलम्बी थे। उनके समय के साहित्य तथा अभिलेखों में अनेक प्रकार के वैदिक यज्ञों के उल्लेख मिलते हैं। पुलकेशिन (प्रथम) ने अश्वमेध, वाजपेय तथा हिरण्य गर्भ आदि यज्ञ किये। उसके पुत्र कीर्तिवर्मन ने बहुसुवर्ण तथा अग्निष्टोम यज्ञ किया। इस काल में वैदिक यज्ञों के सम्बन्ध में कई ग्रंथों की रचना हुई।

जैन धर्म को सहायता: चालुक्यों के राज्य में हिन्दुओं के बाद जैन धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में रहते थे। इसलिये चालुक्यों ने जैन प्रजा की भावनाओं का सम्मान करते हुए जैन धर्म के लिये काफी दान दिया तथा जैन मंदिरों का निर्माण करवाया। ऐहोल अभिलेख का लेखक रविकीर्ति जैन धर्म का अनुयायी था, वह पुलकेशिन (द्वितीय) के दरबार की शोभा बढ़ाता था। पुलकेशिन भी उसका बहुत सम्मान करता था। चालुक्य नरेश विजयादित्य की बहन कुंकुम महादेवी ने लक्ष्मीश्वर में एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया। विजयादित्य ने अनेक जैन पण्डितों को ग्राम दान में दिये।

बौद्ध चैत्यों का निर्माण: अजंता की गुफाओं में कुछ बौद्ध चैत्यों का निर्माण चालुक्य शासकों के काल में हुआ। ह्वेनसांग के अनुसार चालुक्य राज्य में लगभग 100 बौद्ध विहार थे जिनमें 5000 से अधिक भिक्षु निवास करते थे। ह्वेनसांग ने वातापी के भीतर और बाहर 5 अशोक स्तूपों का भी उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि चालुक्य शासकों ने बौद्ध धर्म को भी संरक्षण दे रखा था।

चालुक्य वास्तु कला

इस काल में ऐहोल, वातापी और पट्टड़कल में बड़ी संख्या में हिन्दू देवताओं के मंदिर बने। चालुक्य शासकों ने विष्णु के अनेक अवतारों को अपना अराध्य देव माना। इनमें भी विष्णु के नृसिंह और वाराह रूपों की लोकप्रियता अधिक थी। इस काल में भगवान शिव के कैलाशनाथ, विरूपाक्ष, लोकेश्वर, त्रैलोक्येश्वर आदि रूपों की पूजा की जाती थी। अतः भगवान शिव के मंदिर भी बड़ी संख्या में बने।

वातापी राज्य में इस काल में बने मंदिरों को चालुक्य शैली के मंदिर कहा जाता है। चालुक्य शैली की वास्तु कला के तीन प्रमुख केन्द्र थे- ऐहोल, वातापी और पट्टड़कल। ऐहोल में लगभग 70 मंदिर मिले हैं। इसी कारण इस नगर को मंदिरों का नगर कहा गया है। समस्त मंदिर गर्भगृह और मण्डपों से युक्त हैं परंतु छतों की बनावट एक जैसी नहीं है। कुछ मंदिरों की छतें चपटी हैं तो कुछ की ढलवां हैं। ढलवां छतों पर भी शिखर बनाये गये हैं। इन मंदिरों में लालखां का मंदिर तथा दुर्गा का मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं। बादामी में चालुक्य वास्तुकला का निखरा हुआ रूप देखने को मिलता है। यहां पहाड़ को काटकर चार मण्डप बनाये गये हैं। इनमें एक मंडप जैनियों का है, शेष तीन मण्डप हिन्दुओं के हैं। इनके तीन मुख्य भाग हैं- गर्भगृह, मण्डप और अर्धमण्डप। पट्टड़कल के मंदिर वास्तु की दृष्टि से और भी सुंदर हैं। पट्टड़कल के वास्तुकारों ने आर्य शैली तथा द्रविड़ शैली को समान रूप से विकसित करने का प्रयास किया। पट्टड़कल में आर्य शैली के चार मंदिर तथा द्रविड़ शैली के 6 मंदिर हैं। आर्य शैली का सर्वाधिक सुंदर मंदिर पापनाथ का मंदिर है। द्रविड़ शैली का सर्वाधिक आकर्षक मंदिर विरुपाक्ष का मंदिर है। पापनाथ का मंदिर 90 फुट की लम्बाई में बना हुआ है। इस मंदिर के गर्भगृह और मण्डप के मध्य में जो अंतराल बना हुआ है, वह भी मण्डप जैसा ही प्रतीत होता है। गर्भगृह के ऊपर एक शिखर है जो ऊपर की ओर संकरा होता चला गया है। विरुपाक्ष मंदिर 120 फुट लम्बाई में बना हुआ है। मंदिर की स्थापत्य कला भी अनूठी है।

चालुक्य कालीन साहित्य

चालुक्य शासकों ने साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। उनके दरबार में अनेक विद्वान रहते थे। ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि चालुक्य शासक विद्यानुरागी थे। विक्रमादित्य (षष्ठम्) के दरबार में विक्रमांकदेव चरित्र का लेखक विल्हण और मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर का बड़ा सम्मान था। सोमेश्वर (तृतीय) स्वयं परम विद्वान था। उसने मानसोल्लास नामक ग्रंथ की रचना की। अपनी विद्वत्ता के कारण वह सर्वज्ञभूप कहा जाता था। 

अध्याय – 27 भारतीय संस्कृति में चोलों का योगदान

0

चोल वंश

चोल तमिल भाषा के ‘चुल’शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है घूमना। चूंकि ये लोग एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते थे इसलिये ये चोल कहलाये। चोल स्वयं को सूर्यवंशी क्षत्रिय् कहते थे। चोलों का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। इनका उल्लेख अशोक के शिलालेखों में भी मिलता है। दक्षिण भारत के इतिहास में लम्बे अन्धकार काल के बाद नौवीं शताब्दी ईस्वी में चोलों का अभ्युत्थान हुआ। अनुमान है कि ये पहले उत्तर भारत के निवासी थे परन्तु घूमते हुए दक्षिण भारत में पहुँच गये। कालांतर में आधुनिक तंजौर तथा त्रिचनापल्ली के जिलों में अपनी राजसत्ता स्थापित कर और तंजौर को अपनी राजधानी बनाकर शासन करने लगे। धीरे-धीरे चोलों ने अपने साम्राज्य की सीमा बढ़ा ली और वे दक्षिण भारत के शक्तिशाली शासक बन गये। प्रारम्भ में चोल आंध्र तथा पल्लव राज्यों की अधीनता में शासन करते थे परन्तु जब पल्लवों की शक्ति का ह्रास होने लगा, तब इन लोगों ने पल्लव राज्य को समाप्त कर दिया और स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे।

विजयालय: नौवीं शताब्दी के मध्य तक चोल शासक, पल्लवों के अधीन राज्य करते थे। वि

जयालय ने 846 ई. में स्वतंत्र चोल वंश की स्थापना की। उसका शासनकाल 846 ई. से 871 ई. माना जाता है।

आदित्य (प्रथम): विजयालय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र आदित्य (प्रथम) हुआ। पल्लव नरेश ने उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे तंजौर के निकटवर्ती कुछ क्षेत्रों पर राज्य करने का अधिकार दे दिया। आदित्य (प्रथम) ने शीघ्र ही पल्लवों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा तोण्डमण्डलम् पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में पल्लव नरेश अपराजित मारा गया। इस प्रकार पल्लव वंश का अंत हो गया और पल्लव राज्य पर चोल वंश का शासन हो गया। आदित्य (प्रथम) ने पाण्ड्य नरेश पर आक्रमण करके उससे कोंगु प्रदेश छीन लिया। इस प्रकार आदित्य (प्रथम) ने शक्तिशाली चोल राज्य की स्थापना की।

परांतक प्रथम: आदित्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र परान्तक (प्रथम) हुआ। उसने मदुरा के पाण्ड्य नरेश को परास्त करके मदुरा पर अधिकार कर लिया। इस उपलक्ष्य में उसने मदुरईकोण्ड् अर्थात् मदुरा के विजेता की उपाधि धारण की। लंका नरेश ने पाण्ड्य नरेश का साथ दिया था किंतु वह भी परान्तक से परास्त होकर चला गया। राष्ट्रकूट वंश के शासक कृष्ण (द्वितीय) को भी परांतक (प्रथम) ने परास्त किया किंतु बाद में वह स्वयं राष्ट्रकूट शासक कृष्ण (तृतीय) से तक्कोलम् के युद्ध में परास्त हो गया। परान्तक ने अनेक शैव मंदिरों का निर्माण करवाया। संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान वैंकट माधव इसी समय हुआ। उसके द्वारा ऋग्वेद पर लिखा गया भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है।

राजराज (प्रथम): चोल वंश का प्रथम शक्तिशाली विख्यात शासक राजराज (प्रथम) था, जिसने 985 ई. से 1014 ई. तक शासन किया। राजराज एक महान् विजेता तथा योग्य शासक था। सबसे पहले उसका संघर्ष चेर राजा के साथ हुआ। उसने चेरों के जहाजी बेड़े को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसके बाद उसने पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण किया और मदुरा पर अधिकार कर लिया। उसने कोल्लम तथा कुर्ग पर भी प्रभुत्व जमा लिया। उसने सिंहल द्वीप पर भी आक्रमण कर दिया और उसके उत्तरी भाग पर विजय प्राप्त कर उसे अपने साम्राज्य का प्रान्त बना लिया। उसने कुछ अन्य पड़ोसी राज्यों पर भी अधिकार जमा लिया। इसके बाद राजराज का चालुक्यों के साथ भीषण संग्राम आरम्भ हो गया। यह संग्राम बहुत दिनों तक चलता रहा। अन्त में राजराज की विजय हुई। राजराज ने कंलिग पर भी विजय प्राप्त की।

राजराज (प्रथम) की सांस्कृतिक उपलब्धियां: यद्यपि राजराज (प्रथम) शैव था, परन्तु उससमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। उसने कई वैष्णव मन्दिर भी बनवाये। उसने चक्र बौद्ध विहार को गाँव दान में दिया। तंजौर का भव्य एवं विशाल राजराजेशवर शिव मन्दिर उसी का बनवाया हुआ है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तु का सर्वोत्तम नमूना है। यह मंदिर शिल्पकला, उत्कृष्ट अलंकरण विधानों एवं प्रभावोत्पादक स्थापत्य योजना के लिये प्रख्यात है। मंदिर की दीवारों पर उसकी उपलब्धियों के लेख मिले हैं। स्वयं शिवभक्त होने पर भी राजराज ने विष्णु मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने जावा के राजा को एक बौद्ध विहार के निर्माण में सहायता दी और उसके लिये दान भी दिया। वास्तव में राजराज चोल वंश का महान् शासक था। चोल इतिहास का स्वर्णकाल राजराज (प्रथम) से आरम्भ होता है।

राजेन्द्र (प्रथम): राजराज के बाद उसका पुत्र राजेन्द्र (प्रथम) शासक हुआ। उसने 1015 ई. से 1042 ई. तक शासन किया। वह चोल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। उसने सबसे पहले दक्षिण के राज्यों पर विजय की। उसने सिंहल द्वीप, चेर एवं पाण्ड्यों पर विजय प्राप्त की। उसने कल्याणी के चालुक्यों से लम्बा संघर्ष किया। इसके बाद उसने उत्तर की ओर प्रस्थान किया। उसने बंगाल, मगध, अण्डमान, निकोबार तथा बर्मा के अराकान और पीगू प्रदेश को भी जीत लिया। इसके बाद उसने अपनी जलसेना के साथ पूर्वी द्वीप समूह की ओर प्रस्थान किया और मलाया, सुमात्रा, जावा तथा अन्य कई द्वीपों पर अधिकार कर लिया।

राजेन्द्र (प्रथम) की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ: राजेन्द्र (प्रथम) की राजनैतिक विजयों से विदेशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हुआ। राजेन्द्र (प्रथम) कलाप्रेमी भी था और उसने बहुत से नगरों, भवनों आदि का निर्माण करवाया। उसने गंगईकोण्डचोलपुरम् का निर्माण करवाकर सुंदर मंदिरों, भवनों तथा तड़ागों से अलंकृत कर उसे अपनी राजधानी बनाया। वह साहित्यप्रेमी तथा विद्यानुरागी था। वेद विद्या एवं शास्त्रों के अध्ययन के लिये उसने एक विद्यालय स्थापित किया।

राजेन्द्र (प्रथम) के बाद भी चोलवंश में कई योग्य राजा हुए जिन्होंने अपने पूर्वजों के राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखा परन्तु बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में चोल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। पड़ोसी राज्यों के साथ निरन्तर संघर्ष करने तथा सामन्तों के विद्रोहों के कारण चोल साम्राज्य धीरे-धीरे निर्बल होता गया। अन्त में पाण्ड्यों ने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया।

चोल शासकों की सास्कृतिक उपलब्धियाँ

स्थापत्य कला

चोल शासकों ने अपने पूर्ववर्ती पल्लव राजाओं की भांति द्रविड़ स्थापत्य एवं शिल्प को चरम पर पहुंचा दिया। चोल शासक परान्तक ने अपने राज्य में अनेक शैव मंदिरों का निर्माण करवाया। राजराज (प्रथम) ने कई शिव मंदिर तथा वैष्णव मन्दिर बनवाये। तंजौर का भव्य एवं विशाल राजराजेशवर शिव मन्दिर उसी का बनवाया हुआ है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तु का सर्वोत्तम नमूना है। यह मंदिर शिल्पकला, उत्कृष्ट अलंकरण विधानों एवं प्रभावोत्पादक स्थापत्य योजना के लिये प्रख्यात है। राजराज ने जावा के राजा को बौद्ध विहार के निर्माण में सहायता दी और उसके लिये दान भी दिया।

चोल शासकों के काल में विकसित मंदिर शैली, दक्षिण भारत के अन्य भागों एवं श्रीलंका में भी अपनाई गई। उनके शासन के अंतर्गत सम्पूर्ण तमिल प्रदेश बड़ी संख्या में मंदिरों से सुशोभित हुआ। कहा जाता है कि चोल कलाकारों ने इन मंदिरों के निर्माण में दानवों की शक्ति और जौहरियों की कला का प्रदर्शन किया। चोल मंदिरों की विशेषता उनके विशाल शिखर या विमान हैं।

चोल मंदिरों में तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर प्रमुख है जो एक दुर्ग के भीतर निर्मित है। इसका निर्माता राजराज (प्रथम) था। इसके विमान का 13 मंजिला शिखर 58 मीटर ऊँचा है। प्रवेशद्वार का गोपुर 29 मीटर वर्गाकार आधार ढांचे पर निर्मित है। गुम्बदाकार शिखर 7.8 मीटर की वर्गाकार शिला पर अधिष्ठित है। इसके ऊपर एक अष्टकोणीय स्तूप तथा 12 फुट ऊँचा कलश स्थापित है। 81 फुट की इस भीमकाय शिला को ऊपर तक ले जाने के लिये मिश्र शैली को अपनाते हुए ऊँचाई में उत्तरोत्तर बढ़ती सड़क का निर्माण किया गया जिसकी लम्बाई 6.4 किलोमीटर थी। शिखर के चारों तरफ 2 मीटर गुणा 1.7 मीटर के आकार में दो-दो नंदी प्रतिष्ठित हैं। स्तूप और विमान इस तरह से निर्मित हैं कि उनकी छाया भूमि पर नहीं पड़ती। इस मंदिर के गर्भगृह में विशाल शिवलिंग स्थापित है जिसे वृहदीश्वर कहा जाता है। पर्सी ब्राउन के अनुसार बृहदीश्वर मंदिर का विमान भारतीय स्थापत्य कला का निचोड़ है। इसी मंदिर की अनुकृति पर राजेन्द्र चोल (प्रथम) ने गंगईकोण्डचोलपुरम् में शिव मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर भी चोल कला का उत्कृष्ट नमूना है।

चोल शासक राजेन्द्र (प्रथम) कलाप्रेमी था। उसने बहुत से नगरों, भवनों आदि का निर्माण करवाया। उसने गंगईकोण्डचोलपुरम् का निर्माण करवाकर सुंदर मंदिरों और भवनों तथा तड़ागों से अलंकृत कर उसे अपनी राजधानी बनाया।

दक्षिण के चोल मंदिरों में मण्डप नामक बड़ा कक्ष होता था जिसमें स्तम्भों पर बारीक नक्काशी की जाती थी तथा छतें सपाट रखी जाती थीं। मण्डप सामान्यतः गर्भगृह के सामने बनाये गये। इसमें भक्त एकत्र होकर विधि-विधानपूर्वक नृत्य करते थे। कहीं-कहीं देव प्रतिमों से युक्त एक गलियारा गर्भगृह के चारों ओर जोड़ दिया जाता था ताकि भक्तगण उसकी परिक्रमा कर सकें। सम्पूर्ण ढांचे के चारों ओर ऊँची दीवारों और विशाल द्वारों वाला एक आहता बनाया जाता था जिसे गोपुरम कहते थे। कुछ मंदिरों में राजा और उसकी रानियों के चित्र भी लगाये गये।

साहित्य

चोल काल में तमिल भाषा एवं सहित्य का विकास हुआ। इस काल का प्रसिद्ध लेखक जयगोन्दर था जिसने कलिंगत्तुप्परणि की रचना की। परांतक (प्रथम) के शासन काल में संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान वैंकट माधव हुआ जिसके द्वारा ऋग्वेद पर लिखा गया भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है। चोल शासक राजेन्द्र (प्रथम) साहित्य एवं विद्यानुरागी था। वेद विद्या एवं शास्त्रों के अध्ययन के लिये उसने एक विद्यालय स्थापित किया। जयगोन्दर, कुलोत्तुंग (प्रथम) के दरबार को सुशोभित करता था। कुलोत्तुंग (प्रथम) के समय में कम्बन नामक प्रसिद्ध कवि हुए जिन्होंने तमिल रामायण की रचना की। इसे तमिल साहित्य का महाकाव्य माना जाता है। इस काल की अन्य रचनाओं में जैन कवि विरुत्तक्कदेवर कृत जीवक चिंतामणि, जैन विद्वान तोलामोल्लि कृत शूलमणि, बौद्ध विद्वान बुद्धमित्त कृत वीर सोलियम, आदि प्रमुख हैं। चोलकाल के संस्कृत लेखकों में वैष्णव आचार्य नाथमुनि, यमुनाचार्य तथा रामानुज सुप्रसिद्ध हैं।

- Advertisement -

Latest articles

छत्रपति शिवाजी संघर्ष एवं उपलब्धियाँ - www.bharatkaitihas.com

छत्रपति शिवाजी संघर्ष एवं उपलब्धियाँ

0
छत्रपति शिवाजी संघर्ष एवं उपलब्धियाँ शीर्षक से लिखी गई इस पुस्तक में हिन्दू हृदय सम्राट छत्रपति शिवाजी राजे की जीवनी, इतिहास, उपलब्धियों एवं संघर्षों...
सरदार वल्लभ भाई पटेल - www.bharatkaitihas.com

सरदार वल्लभ भाई पटेल प्रेरक एवं रोचक प्रसंग

0
सरदार पटेल के व्यक्तित्व का आकर्षण न केवल उस समय के ब्रिटिश शासकों, भारतीय नेताओं और देशवासियों के सिर चढ़कर बोलता था अपितु आज भी देशवासियों के दिलों की धड़कनें बढ़ा देता है।
भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या www.bharatkaitihas.com

भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एवं हिन्दू प्रतिरोध

0
इस पुस्तक में भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एवं हिन्दू प्रतिरोध का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है। हिन्दू धर्म, भारतवर्ष की भूमि पर आकार...
भारत की लुप्त सभ्यताएँ - www.bharatkaitihas.com

भारत की लुप्त सभ्यताएँ

0
मानव सभ्यता के उस कालखण्ड को जिसमें मानव अर्थात् ‘आदिमानव’ पत्थर, लकड़ी एवं हड्डी के औजार और उपकरण काम में ले रहा था, प्रागैतिहासिक कालखण्ड है और जहाँ से मानव अर्थात् ‘विकसित मानव’ धातुकालीन सभ्यता में प्रवेश करता है, वहीं से मानव सभ्यता का ऐतिहासिक काल आरम्भ होता है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास - bharatkaitihas.com

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास

0
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास का लेखन विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों के आधार पर किया गया है। ‘भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति’ विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता...
// disable viewing page source