Saturday, July 5, 2025
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अध्याय – 90 : भारत का विभाजन

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कांग्रेस में भारत विभाजन के प्रति सहमति

गांधीजी सहित लगभग समस्त कांग्रेसी नेता भारत विभाजन के विरुद्ध थे। राजाजी राजगोपालाचारी जैसे नेता तथा घनश्यामदास बिड़ला जैसे उद्योगपति, भारत की आजादी के मामले को उलझाये जाने से अच्छा यह समझते थे कि भारत का युक्तियुक्त आधार पर विभाजन कर दिया जाये। घनश्यामदास बिड़ला ने नेहरूजी के नाम एक पत्र लिखा कि- ‘साझे के व्यापार में अगर कोई साझेदार संतुष्ट नहीं हो तो उसे अलग होने का अधिकार मिलना ही चाहिये। विभाजन युक्तियुक्त अवश्य होना चाहिये लेकिन विभाजन का विरोध कैसे किया जा सकता है…….। अगर मैं मुसलमान होता तो पाकिस्तान न कभी मांगता, न कभी लेता। क्योंकि विभाजन के बाद इस्लामी भारत बहुत ही गरीब राज्य होगा जिसके पास न लोहा होगा न कोयला। यह तो मुसलमानों के सोचने की बात है।’

उन्हीं दिनों माउण्टबेटन की पत्नी एडविना ने भारत के साम्प्रदायिक दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया। वह दंगों में मारे गये लोगों के शवों को देखकर हैरान रह गयी। एडविना ने दंगाग्रस्त क्षेत्रों से लौटकर अपने पति से कहा कि कांग्रेस कभी भी विभाजन स्वीकार नहीं करेगी किंतु यदि अँग्रेज जाति को करोड़ों लोगों की हत्या का आरोप अपने सिर पर नहीं लेना है तो आप जबर्दस्ती भारत का विभाजन कर दें तथा कांग्रेसी नेताओं को इसके लिये तैयार करें। माउण्टबेटन ने गांधी, नेहरू और पटेल से, भारत के विभाजन के लिये बात की। गांधीजी ने विभाजन को मानने से साफ इंकार कर दिया किंतु नेहरू और पटेल मान गये।

गांधीजी का रुख

गांधीजी किसी भी हालत में भारत का विभाजन नहीं चाहते थे। 3 मार्च 1947 को गांधीजी ने कहा कि भारत का विभाजन मेरे शव पर होगा किंतु पटेल और नेहरू ने भारत में चल रहे साम्प्रदायिक दंगों पर ध्यान केन्द्रित किया तथा भारत विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार कर लिया।  माउण्टबेटन से मिलने के बाद गांधीजी ने नेहरू और पटेल से बात की। नेहरू और पटेल ने गांधीजी के प्रस्ताव का विरोध किया और गांधीजी से कहा कि वे अपना प्रस्ताव वापिस ले लें।

मौलाना अबुल कलाम आजाद का रुख

मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। वे भारत विभाजन के प्रबल विरोधी थे। 2 अप्रेल 1947 को उन्होंने गांधीजी से भेंट की। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अब गांधीजी देश के विभाजन के विरोध में नहीं बोल रहे थे। मौलाना को यह देखकर और भी आश्चर्य हुआ कि गांधी, सरदार पटेल की दलीलें दोहरा रहे थे। गांधीजी को भी देश के विभाजन के लिये तैयार हुआ देखकर मौलाना अबुल कलाम ने गांधीजी के सामने प्रस्ताव रखा कि वर्तमान स्थिति को दो वर्ष और चलाया जाये क्योंकि वास्तविक शासन तो भारतीयों के हाथ में आ ही चुका है। वैधानिक रूप से सत्ता का हस्तांतरण यदि दो-तीन वर्ष के लिये रुक भी जाये तो कोई हानि नहीं होगी। इस बीच संभवतः मुस्लिम लीग का मत बदल जाये और वह देश के विभाजन की मांग छोड़ दे। गांधीजी ने मौलाना के सुझाव के प्रति उदासीनता दिखायी। गांधीजी ने घोषणा कर दी कि अब वे वायसराय के साथ किसी बातचीत में भाग नहीं लेंगे, सिर्फ कांग्रेस के मामलों में सलाह दिया करेंगे। गांधीजी दिल्ली छोड़कर फिर से बिहार चले गये जहाँ उन्हें साम्प्रदायिक सद्भाव के लिये कार्य करना था। मौलाना ने गांधीजी के विचारों में परिवर्तन के लिये सरदार पटेल को अधिक दोषी माना है।

माउण्टबेटन द्वारा जिन्ना को समझाने का प्रयास

माउण्टबेटन ने अप्रेल 1947 में देश के विभाजन के प्रश्न पर जिन्ना से छः बार बात की। माउण्टबेटन ने लिखा है- ‘देश का विभाजन करने पर जिन्ना इस कदर आमादा थे कि मेरे किसी शब्द ने उनके कानों में शायद प्रवेश ही न किया। हालांकि मैंने ऐसी हर चाल चली, जो मैं चल सकता था। ऐसी हर अपील मैंने की, जो मेरी कल्पना में आ सकती थी। पाकिस्तान को जन्म देने का सपना उन्हें घुन की तरह लग चुका था। मेरा कोई तर्क किसी काम न आया।’ जिन्ना ने माउण्टबेटन को वचन दिया कि यदि पाकिस्तान अलग कर दिया गया तो कोई हुल्लड़, कोई खून खराबा नहीं होगा।

भारत विभाजन का प्रस्ताव अथवा माउण्टबेटन योजना

मुस्लिम लीग के अड़ियल रवैये के कारण, माउण्टबेटन ने अपने चीफ ऑफ स्टाफ लार्ड इस्मे तथा जार्ज एबेल से भारत विभाजन का प्रस्ताव तैयार करवाया। इस योजना को माउण्टबेटन योजना तथा इस्मे योजना भी कहते हैं। इसे बनाने में केवल अँग्रेज अधिकारियों को लगाया गया। प्रत्येक हिंदुस्तानी यहाँ तक कि मेनन  को भी इससे पूरी तरह अलग रखा गया क्योंकि वायसराय को आशंका थी कि मेनन के हिंदू होने के कारण मुसलमान आपत्ति करेंगे। वायसराय तथा उसके साथियों द्वारा देश के विभाजन की जो योजना बनायी गयी, उसमें पंजाब और बंगाल को पाकिस्तान में रखने के कारण एक ऐसे देश की कल्पना की गयी जिसके दो सिर होंगे। एक सिर पूरब में और एक सिर पश्चिम में। इनके बीच 970 मील का फासला होगा। एक सिर से दूसरे सिर तक पहुंचने के लिये समुद्र के रास्ते भारत की परिक्रमा करना अनिवार्य हो जायेगा जिसमें बीस दिन लगेंगे। यदि दोनों सिरों के बीच सीधी हवाई उड़ान भरनी हो तो चार इंजनों वाले हवाई जहाज की आवश्यकता होगी। प्रस्तावित पाकिस्तान जैसे गरीब राष्ट्र के लिये ऐसे हवाई जहाजों का खर्च वहन करना सरल नहीं होगा।

2 मई 1947 को लार्ड इस्मे तथा जार्ज एबेल भारत विभाजन का प्रस्ताव लेकर वायसराय के विशेष विमान से लंदन गये ताकि उस प्रस्ताव पर मंत्रिमंडल की सहमति प्राप्त की जा सके। इंगलैण्ड भेजने से पहले यह योजना किसी भी हिंदुस्तानी नेता अथवा हिंदुस्तानी अधिकारी को नहीं दिखायी गयी। उन्हें योजना का केवल ढांचा ही बताया गया था। क्योंकि माउण्टबेटन का विश्वास था कि उसने इस योजना में उन सब बातों को शामिल कर लिया है जो बातें नेताओं से हुए विचार विमर्श के दौरान सामने आयीं थीं। माउण्टबेटन ने एटली सरकार को अपनी ओर से विश्वास दिलाया कि जब भी यह योजना भारतीय नेताओं के समक्ष रखी जायेगी, वे इसे स्वीकार कर लेंगे।

इस्मे के साथ इंग्लैण्ड भेजी गयी विभाजन योजना कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों पर ही आधारित थी। इसमें कहा गया था कि पार्टी के नेताओं की सहमति के बिना ही एक तरफा तौर पर प्रदेशों को सत्ता हस्तांतरित कर देनी चाहिये और केन्द्र में मजबूत केंद्रीय सरकार के स्थान पर एक फैडरेशन होना चाहिये।

योजना में यह भी प्रस्तावित किया गया था कि किसी प्रदेश की जनता, भारत और पाकिस्तान दोनों में से किसी के भी साथ न मिलकर अपने प्रदेश को स्वतंत्र राज्य बना सकती है। ऐसा करने के पीछे माउण्टबेटन का तर्क यह था कि प्रजा पर न तो भारत थोपा जाये और न ही पाकिस्तान। प्रजा अपना निर्णय स्वयं करने के लिये पूर्ण स्वतंत्र रहे। जो प्रजा पाकिस्तान में मिलना चाहे, वह पाकिस्तान में मिले। जिसे भारत के साथ मिलना हो, वह भारत का अंग बने। जिसे दोनों से अलग रहना हो, वह सहर्ष अलग रहे। ऐसा संभवतः बंगाल की स्थिति को देखते हुए किया गया था। क्योंकि आबादी के अनुसार पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान में तथा पश्चिमी बंगाल को भारत में शामिल होना था किंतु इससे बंगाल की अर्थव्यवस्था बिल्कुल चरमरा जाती। पूर्वी बंगाल का सारा व्यापार कलकत्ता में था और कलकत्ता के पटसन कारखाने जिन फसलों पर अधारित थे, उनका अधिकांश क्षेत्र पूर्वी बंगाल में केन्द्रित था। अतः विभाजन से बंगाल की अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का लगना स्वाभाविक था।

जिन्ना की तरफ से आशंका

योजना को स्वीकृति के लिये लंदन भेज दिये जाने के बाद माउण्टबेटन को आशंका हुई कि कि जिन्ना छंटे हुए पाकिस्तान का विरोध करेगा। इसलिये वायसराय ने जिन्ना से निबटने के लिये एक आपात योजना भी तैयार की कि यदि जिन्ना ने अंतिम क्षण में मना कर दिया तो उस समय क्या किया जायेगा। इस आपात् योजना में मुख्यतः यह प्रावधान किया गया था कि चूंकि जिन्ना ने योजना को अस्वीकार कर दिया है इसलिये सत्ता वर्तमान सरकार को ही सौंपी जा रही है। क्योंकि प्रदेशों के आधार पर पाकिस्तान की मांग नहीं चल सकती इसलिये हम छंटे हुए पाकिस्तान तक पहुंच गये थे। यदि अब भी तीन वर्षों के भीतर मुस्लिम लीग को छंटा हुआ पाकिस्तान स्वीकार्य हो तो गवर्नर जनरल वह कानून पास कर सकेगा जिससे मुसलमानों के बहुल वाले क्षेत्रों में अलग सरकार बन जाये। तब तक वर्तमान सरकार ही देश का शासन संभालेगी।

गांधीजी द्वारा जिन्ना को समझाने का प्रयास

गांधीजी विभाजन के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए। उन्होंने वायसराय से कहा कि वे जिन्ना से भेंट करना चाहते हैं। वायसराय के प्रयास से 6 मई 1947 को नई दिल्ली में जिन्ना के निवास पर गांधीजी ने जिन्ना से भेंट की। उन दोनों के बीच भारत का वह नक्शा रखा गया जिसमें पाकिस्तान हरे रंग से दिखाया गया था। जिन्ना ने भारत विभाजन को अस्वीकार करने से मना कर दिया तथा इस भेंट के बाद एक परिपत्र जारी करके कहा- ‘मि. गांधी बंटवारे के सिद्धांत को नहीं मानते हैं। उनके लिये बंटवारा अनिवार्य नहीं है। जबकि मेरी दृष्टि में वह अनिवार्य है…… हम दोनों ने अपने-अपने क्षेत्रों में सांप्रदायिक शांति बनाये रखने का सरतोड़ प्रयास करने का संकल्प लिया है।’

औपनिवेशिक स्वतंत्रता का प्रस्ताव

वायसराय ने इस्मे के साथ जो योजना इंग्लैण्ड भिजवाई थी उसमें डोमिनियन स्टेटस की कोई बात नहीं की गई थी। इस्मे के इंगलैण्ड चले जाने के बाद वायसराय ने वी. पी. मेनन से इस सम्बन्ध में बात की। मेनन ने वायसराय को बताया कि लार्ड वेवेल के समय में पटेल इस शर्त पर औपनिवेशिक स्वतंत्रता स्वीकार करने के लिये सहमत थे कि इससे भारत को तत्काल आजादी मिल जायेगी। माउण्टबेटन को लगा कि वे एक अच्छा अवसर चूक गये। यदि यह प्रस्ताव माउण्टबेटन योजना में डाल दिया जाता तो न केवल ब्रिटिश सरकार से अपितु विपक्ष से भी भारत के विभाजन की योजना को सरलता से स्वीकृति मिल जाती।

औपनिवेशिक स्वतंत्रता को नेहरू की स्वीकृति

8 मई 1947 को पं. नेहरू, कृष्णामेनन के साथ शिमला आये। माउण्टबेटन तथा मेनन ने भारत को डामिनियन स्टेटस दिये जाने के सम्बन्ध में नेहरू से बात की। माउण्टबेटन ने नेहरू से कहा कि मुसलमानों के बहुमत वाले प्रदशों को हिंदुस्तान से अलग होने दिया जाये। फिर दो केंद्रीय सरकारों को सत्ता सौंपी जाये। दोनों के अपने-अपने गवर्नर जनरल हों। जब तक दोनों उपनिवेशों की विभिन्न विधान सभाओं द्वारा उनके विधान तैयार न हों, तब तक उनका विधान गवर्नमेंट ऑफ इण्डया एक्ट 1935 के अनुसार चले। पं. नेहरू ने इस प्रस्ताव पर सहमति प्रकट करते हुए कहा कि भारत के लोग शीघ्रातिशीघ्र अपना शासन संभालना चाहते हैं और देरी करने से भारत का विकास रुक जायेगा।

माउण्टबेटन योजना को स्वीकृति

जिस दिन शिमला में माउण्टबेटन तथा उनके सलाहकारों की, नेहरू तथा मेनन के साथ बैठक पूरी हुई उसी दिन अर्थात् 10 मई 1947 को लंदन से माउण्टबेटन योजना मंत्रिमंडल की स्वीकृति के साथ तार से वापस आ गयी। मि. एटली और उनके मंत्रिमण्डल की सलाह पर उसमें बहुत सारे संशोधन किये गये थे लेकिन मूल योजना ज्यों की त्यों थी। इस कारण वायसराय ने नेहरू और मेनन से की गयी वार्ता को अमल में न लाने का निश्चय त्याग कर अपने प्रेस सलाहकार कैम्पबेल जॉनसन को बुलाया और अखबारों में यह विज्ञप्ति प्रकाशित करवायी कि 17 मई को दिल्ली में एक महत्वपूर्ण बैठक होगी। इस बैठक में कांग्रेस से पटेल और नेहरू को, सिक्ख प्रतिनिधियों में से बलदेवसिंह को तथा मुस्लिम लीग से जिन्ना और लियाकत अली को बुलाया जायेगा। उस दिन वायसराय, नेताओं के सामने हिंदुस्तानियों के हाथों सत्ता सौंप देने की योजना पेश करेंगे जिसे ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति मिल चुकी है।

नेहरू द्वारा माउण्टबेटन योजना का विरोध

इंग्लैण्ड से जो योजना संशोधित होकर आयी थी उसे 17 मई तक किसी को नहीं दिखाया जाना चाहिये था किंतु वायसराय ने 10 मई की शाम को पं. नेहरू को योजना दिखाई। नहेरू ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया। माउण्टबेटन योजना में एक ओर तो देशी रियासतों को अपनी मर्जी से भारत या पाक में मिलने अथवा स्वतंत्र रहने की छूट दे दी गयी थी तो दूसरी ओर ब्रिटिश प्रांतों को भी इन दोनों देशों से अलग रहकर कोई स्वतंत्र देश बना लेने की छूट दे दी गयी थी। इसमें प्रावधान किया गया था कि ब्रिटिश सरकार द्वारा पहले तो प्रांतों को सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जाये तथा अँग्रेजों के भारत छोड़ देने के बाद प्रांतों का समूहों में ध्रुवीकरण किया जाये जो कि प्रत्येक प्रांत को अलग से तय करना था कि वे भारत में रहेंगे या पाकिस्तान में या स्वतंत्र देश के रूप में। यदि इस प्रस्ताव को मान लिया जाता तो भारत की दशा योरोप के बलकान प्रदेशों से भी अधिक गई गुजरी हो जाती।

भारत विभाजन योजना का पुनर्निर्माण

नेहरू के विरोध के कारण वायसराय ने 17 मई के लिये प्रस्तावित बैठक की तिथि बढ़ाकर 2 जून कर दी तथा प्रधानमंत्री एटली को तार भिजवाया कि आपके द्वारा स्वीकृत योजना को रद्द समझा जाये। संशोधित योजना भिजवायी जा रही है। वायसराय के निर्देश पर वी. पी. मेनन ने माउण्टबेटन योजना में संशोधन करके एक नई योजना तैयार की। इस योजना में समस्त ब्रिटिश प्रांतों को यह अधिकार दिया गया कि वे ये निर्णय लें कि उनके लिये संविधान निर्माण का काम वर्तमान संविधान निर्मात्री सभा द्वारा करवाया जाये अथवा अलग से संविधान निर्मात्री समिति गठित की जाये। अर्थात् उन्हें भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुनने की छूट दी गई। पंजाब और बंगाल की विधानसभाओं को यह अधिकार दिया गया था कि वे यह भी निर्णय लें कि उनके प्रांतोें को साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित किया जाये अथवा नहीं? इस योजना में देशी रियासातों के बारे में केवल इतना प्रस्तावित किया गया था कि ऊपर जिस निर्णय की घोषणा की गयी है, उसका सम्बन्ध ब्रिटिश भारत से है और भारतीय रियासतों के बारे में उनकी नीति वही रहेगी जिसका विवरण 22 मई 1946 के कैबिनेट मिशन के मैमोरेण्डम में दिया गया है।

संशोधित योजना को स्वीकृति

वायसराय ने मेनन द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट पर विचार करने के लिये अपने सहायक अधिकारियों की बैठक बुलाई। बंगाल के गर्वनर सर फ्रेडरिक को छोड़कर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की।  माउण्टबेटन ने संशोधित योजना को मंत्रिमण्डल की स्वीकृति के लिये 14 मई को स्वयं लंदन जाने का निश्चय किया। के. एम. मुंशी ने लिखा है- ‘मेनन ने देश की महान सेवा की है। उन्होंने न केवल सरदार के नेतृत्व में देश को एक किया है, बल्कि उससे पहले देश को भयानक संकट से भी बचाया है, जिसमें निश्चय ही भारत फंस जाता यदि मेनन इस्मे योजना में हस्तक्षेप न करते।’

माउण्टबेटन ने इंगलैण्ड पहुंचकर संशोधित योजना एटली के सामने रखी। एटली की सलाह पर माउण्टबेटन ने चर्चिल को योजना की जानकारी दी और यह भी बताया कि भारत के सामने गंभीर और डरावने गृहयुद्ध का खतरा है। भारत और पाकिस्तान दोनों देश, कॉमनवैल्थ की सदस्यता ग्रहण करने पर सहमत हैं। जब चर्चिल को यह ज्ञात हुआ कि भारत व पाकिस्तान दोनों ही कॉमनवैल्थ के सदस्य बनने को तैयार हैं तो चर्चिल ने भारत विभाजन की उस नयी योजना को स्वीकृति दे दी।

पूर्वी एवं पश्चिमी पाकिस्तान को जोड़ने के लिये कोरीडोर की मांग

जब माउण्टबेटन संशोधित योजना की स्वीकृति लेकर भारत आ गये तो अचानक जिन्ना ने मांग की कि उसे पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान को मिलाने के लिये हिंदुस्तान से होकर एक हजार मील का रास्ता चाहिये। जिन्ना की इस मांग पर कांग्रेस में तीखी प्रतिक्रिया हुई। माउण्टबेटन ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

गांधीजी द्वारा विभाजन का पुनः विरोध

31 मई 1947 को अपनी शाम की प्रार्थना सभा में गांधीजी ने एक बार फिर भारत विभाजन के प्रति अपना विरोध दोहराया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस, भारत विभाजन का विरोध करेगी, यदि भयानक उपद्रव का खतरा हो तो भी। यदि संपूर्ण भारत जल जाये तब भी। नेहरू, पटेल और राजगोपालाचारी जैसे नेता स्थिति की गंभीरता को समझ गये थे किंतु गांधीजी अब भी अति-आदर्शवाद के सागर में गहरे गोते लगा रहे थे। माईकल एडवर्ड्स ने लिखा है- ‘गांधीजी द्वारा इस समय पर विरोध क्यों किया गया? जबकि वे इससे पूर्व ही कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में अपनी सहमति दे चुके थे। ……..गांधीजी समझ नहीं पा रहे थे कि भारत में सिविल वार छिड़ जाने का पूरा खतरा बना हुआ था।’

2 जून की बैठक

2 जून 1947 को माउण्टबेटन ने कांग्रेस की ओर से नेहरू, पटेल तथा कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी को, मुस्लिम लीग की ओर से लियाकत अली खान तथा रबनिस्तर को एवं साठ लाख सिखों का प्रतिनिधित्व करने वाले सरदार बलदेवसिंह को अपने निवास पर आमंत्रित किया और उन्हें इस योजना की प्रतिलिपियां सौंप दीं तथा उनसे इस योजना पर उनकी सहमति मांगी ताकि इस सहमति की घोषणा ऑल इण्डिया रेडियो के माध्यम से की जा सके तथा उसके बाद लंदन रेडियो से प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली द्वारा उसका अनुमोदन किया जा सके। कांग्रेस तथा सिक्ख प्रतिनिधियों ने देश के विभाजन के लिये अपनी सहमति माउण्टबेटन को दे दी  किंतु जिन्ना ने यह कहकर सहमति देने से इंकार कर दिया कि मैं तब तक इस पर अपनी सहमति नहीं दे सकता जब तक कि मुस्लिम लीग की कौंसिल में विचार नहीं होता। इसके लिये एक हफ्ते का समय चाहिये। माउण्टबेटन ने 3 जून को उसकी सहमति प्राप्त की।

रेडियो पर घोषणा

3 जून 1947 को शाम सात बजे वायसराय तथा भारतीय नेताओं ने माउण्टबेटन योजना को स्वीकार कर लिये जाने तथा अँग्रेजों द्वारा भारत को शीघ्र ही दो नये देशों के रूप में स्वतंत्रता दिये जाने की घोषणा की। वायसराय ने कहा कि कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच ऐसी किसी योजना पर समझौता हो पाना संभव नहीं हुआ है जिससे कि देश एक रह सके। इसलिये आजादी के साथ ही जनसंख्या के आधार पर देश का विभाजन हिंदुस्तान व पाकिस्तान के रूप में किया जायेगा।

नेहरू ने वायसराय की घोषणा का स्वागत करते हुए देशवासियों से अपील की कि वे इस योजना को शांतिपूर्वक स्वीकार कर लें। नेहरू ने कहा कि हम भारत की स्वतंत्रता बल प्रयोग या दबाव से प्राप्त नहीं कर रहे हैं। यदि देश का विभाजन हो भी जाता है तो कुछ दिनों पश्चात् दोनों भाग पुनः एक हो जायेंगे और फिर अखण्ड भारत की नींव और मजबूत हो जायेगी।

जिन्ना ने अपने भाषण में कहा कि यह हम लोगों के लिये सोचने की बात है कि जो योजना बर्तानिया सरकार सामने रख रही है, उसे हम लोग समझौते के रूप में स्वीकार कर लें। सिक्खों के नेता बलदेवसिंह ने कहा कि यह समझौता नहीं था, आखिरी सौदा था। इससे हर किसी को खुशी नहीं होती। सिक्खों को तो होती ही नहीं। फिर भी यह गुजारे लायक है हमें इसे मान लेना चाहिये।

गांधीजी द्वारा पुनः विरोध

3 जून को रेडियो पर इस योजना की स्वीकृति की घोषणा हो जाने के बाद गांधीजी, वायसराय से यह अपील करने के लिये दिल्ली लौट आये कि देश का बंटवारा न किया जाये। उन्होंने कहा कि कोई ये न कहे कि हिंदुस्तान के बंटवारे में गांधी का भी हाथ था किंतु जब गांधी वायसराय से मिलने गये तो उन्होंने वायसराय को लिखकर सूचित किया कि मौन व्रत होने के कारण मैं आज बोल नहीं सकता फिर कभी आपसे अवश्य चर्चा करना चाहूंगा।

4 जून को माउण्टबेटन को सूचना मिली कि गांधीजी आज शाम की प्रार्थना सभा में देशवासियों से अपील करेंगे कि वे विभाजन की योजना को अस्वीकार कर दें। इस पर माउण्टबेटन ने गांधीजी को बुलाया और उनसे कहा- ‘विभाजन की पूरी योजना आपके निर्देशानुसार बनायी गयी है कि विभाजन का निर्णय जनता को करना चाहिये न कि अँग्रेजों को। इस योजना में प्रावधान रखा गया है कि चुनावों द्वारा गठित प्रादेशिक समितियां इस योजना को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकें। प्रादेशिक समिति को पूरा अधिकार होगा कि उसे पाकिस्तान के साथ रहना है या भारत के साथ। यदि देश भर की तमाम प्रादेशिक समितियां एकमत होकर कहती हैं कि हमें भारत के साथ रहना है तो देश का विभाजन अपने आप टल जायेगा किंतु यदि समितियां एकमत नहीं होतीं तो, चूंकि ये समितियां जनता ने चुनी हैं अतः हमें यही मानना पड़ेगा कि जनता की इच्छा अखण्ड भारत में रहने की नहीं है।’ 

स्वतंत्रता की तिथि की घोषणा

भारत विभाजन की योजना पर विस्तार से जानकारी देने के लिये माउण्टबेटन ने 4 जून को एक पत्रकार सम्मेलन बुलाया और उसमें भारतीय स्वतंत्रता की तिथि 15 अगस्त 1947 घोषित कर दी। 22 जून को ब्रिटिश सरकार ने भारत की आजादी के बिल का ड्राफ्ट तार द्वारा वायसराय को भेज दिया जिसमें भारत की आजादी की तिथि 15 अगस्त स्वीकार कर ली गयी। इतिहासकारों का अनुमान है कि 15 अगस्त की तिथि को इसलिये चुना गया क्योंकि उस दिन मित्र-राष्ट्रों के समक्ष जापान के आत्मसमर्पण की दूसरी वर्षगांठ थी।

कांग्रेस अधिवेशन में भारत विभाजन प्रस्ताव को स्वीकृति

14 जून 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में देश के विभाजन का प्रस्ताव रखा गया। कांग्रेस के कई नेताओं ने इस प्रस्ताव का विरोध किया किंतु नेहरू, पटेल, गोविंद वल्लभ पंत तथा गांधीजी ने विभाजन के पक्ष में भाषण दिये।  जब प्रस्ताव पर मतदान हुआ तो प्रस्ताव के पक्ष में 29 तथा विरोध में 157 मत आये। इस प्रस्ताव का विरोध सिंध से आये हुए हिन्दुओं ने भी किया। इस सम्मेलन में पटेल ने यहाँ तक कह दिया कि यदि हमने पाकिस्तान निर्माण की मांग नहीं मानी होती तो सारा देश ही पाकिस्तान बन जाता। हमारे पास तीन चौथाई भारत बच रहा है। उसे ही हम विकसित करेंगे तो यह एक बड़ा शक्तिशाली राज्य बन जायेगा।

भारत विभाजन पर प्रतिक्रयाएं

भारत विभाजन पर नेहरू का मानना था कि यदि लीग को जबर्दस्ती संघ में रखा गया तो भारत की कोई प्रगति अथवा योजना संभव नहीं हो सकेगी। न ही यह भारत की दीर्घावधि के हित के लिये भी प्रजातांत्रिक तथा वांछित होगा। नेहरू की दृष्टि में पाकिस्तान का निर्माण दो बुराइयों में से एक कम बुराई थी। माइकल ब्रीचर ने लिखा है कि नेहरू को यह भय था कि यदि कांग्रेस माउण्टबेटन की योजना को निरस्त कर देती तो ब्रिटिश सरकार पहले से भी अधिक हानिकारक निर्णय लागू करेगी।

14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में विधान निर्मात्री परिषद के समक्ष दिये गये इस भाषण में डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा- ‘यद्यपि हमारी उपलब्धि (स्वतंत्रता) हमारे बलिदान से हुई है परंतु यह उपलब्धि विश्व के घटनाचक्र के दबाव से भी हुई है। ब्रिटिश सरकार ने हमें स्वतंत्रता देकर अपनी परंपराओं और प्रजातंत्र के सिद्धांतों को निभाया है।’

जस्टिस मेहरचंद महाजन ने अपनी पुस्तक लुकिंग बैक में लिखा है- ‘कुछ लोग यह दावा करते हैं कि यदि जिन्ना की बातों पर पहले ही गंभीरता पूर्वक विचार कर लिया जाता तो देश का विभाजन न होता। पर मैं निश्चय के साथ कह सकता हूँ कि कांग्रेस जितना अधिक सन् 1921 से 1945 तक मुसलमानों के हो हल्ले को सुनती रही, उतना ही अधिक हमारे लिये बुरा होता गया। देश का विभाजन सन् 1909 में मुसलमानों को महत्त्व मिलने से अनिवार्य हो गया था।

गांधीजी भारत विभाजन के प्रबल विरोधी थे। फिर भी उन्होंने माउन्टबेटन योजना को स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा- ‘मैं आरम्भ से ही विभाजन का विरोधी रहा हूँ किन्तु अब परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो गई है कि दूसरा कोई रास्ता नहीं है।’

भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ

भारत विभाजन के लिये निम्नलिखित परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं-

(1.) सीधी कार्यवाही: मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए सीधी कार्यवाही करके हजारों निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। जिन प्रान्तों में मुस्लिम लीग अथवा उसके सहयोगी दलों की सरकारें थीं, वहाँ की प्रान्तीय सरकारें स्वयं उपद्रवकारियों की सहायता कर रही थीं और वहाँ की पुलिस भी लूट-खसोट में सम्मिलित थी। इससे आम भारतीय को लगने लगा था कि मुस्लिम लीग की मांग को पूरा किये बिना यदि आजादी ली गई तो वह अत्यंत भयावह होगी। देश में तेजी से बदलते जनमानस की अनदेखी करना गांधीजी के लिये संभव नहीं रह गया था। भारत की अन्तरिम सरकार ने इन दंगों को रोकने का प्रयास किया परन्तु प्रतिरक्षा मंत्री सरदार बलदेवसिंह कुछ भी नहीं कर सके क्योंकि सेना और पुलिस पर अब भी अँग्रेजों का नियंत्रण था। ये दंगे निश्चित रूप से योजनाबद्ध थे और इनका एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस को आतंकित करके विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कराना था। यदि अँग्रेज चाहते तो इन दंगों को रोक सकते थे किन्तु उन्होंने भी जानबूझकर ऐसा नहीं किया क्योंकि वे सिद्ध करना चाहते थे कि यदि भारत को स्वतंत्रता दी जाती है तो यहाँ के लोग आपस में ही कट मरेंगे। इसलिये गांधीजी तथा कांग्रेस के समक्ष विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं बचा।

(2.) पंजाब में दंगे: माउण्टबेटन के आने से ठीक पहले रावलपिंडी में सिक्खों का कत्ल हो चुका था। सिक्ख, मुसलमानों के प्रति अपनी घृणा को खुलकर व्यक्त करते थे। मुसलमान भी खुल्लमखुल्ला सिक्खों की बुराई करते थे। सिक्खों की दलील थी, जब आजादी आयेगी तो हम लोगों का क्या होगा? मार्च 1947 में मास्टर तारासिंह ने पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा लगाते हुए मुस्लिम लीग के झण्डे को नीचे गिरा दिया। मुसलमानों ने, लीग के झण्डे के अपमान का बदला लेने के लिये हथियार उठाकर निकलने में कोई देरी नहीं की। इसके तुरंत बाद ही दंगे भड़क उठे। 3000 लोग मारे गये जिनमें अधिकांश सिक्ख थे।

(3.) अँग्रेजों के षड़यन्त्र: 1757 ई. में प्लासी युद्ध जीतने से लेकर 1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना होने तक अँग्रेजों की सहानुभूति हिन्दुओं के साथ थी किंतु जब कांग्रेस ने देश की आजादी का आंदोलन चलाया तो अँग्रेज, हिन्दुओं को छोड़कर, मुस्लिम आंदोलनों के साथ हो गये। उन्होंने अलगाववादी मुस्लिम नेताओं को विधान मण्डलों में अलग प्रतिनिधित्व की मांग करने के लिये उकसाया तथा मुसलमानों को वास्तविक जनसंख्या के अनुपात से भी अधिक स्थान दिये। सुधार अधिनियमों में साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को स्थान देकर हिन्दू-मुसलमानों के वैमनस्य को और अधिक बढ़ावा दिया गया। जब मुस्लिम लीग की स्थापना हो गई तो अँग्रेजों ने मुस्लिम लीग की पृथक् राज्य की मांग को पर्दे के पीछे से समर्थन दिया। एक ओर तो देश में हो रहे साम्प्रदायिक दंगों के कारण आम भारतीय असुरक्षित होता जा रहा था और दूसरी ओर अँग्रेजों द्वारा पुलिस, प्रतिरक्षा, सूचना और यातायात विभाग के महत्त्वपूर्ण पदों पर मुसलमानों को लगाया जा रहा था। मुस्लिम लीग के समर्थक गैर-कानूनी रूप से गोला-बारूद और हथियार एकत्रित कर रहे थे।

(4.) अविलम्ब स्वतंत्रता की लालसा: माइकल ब्रीचर जैसे कई अँग्रेज इतिहासकारों का आरोप है कि कांग्रेस ने अविलम्ब स्वतंत्रता प्राप्त करने की लालसा में, देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। अँग्रेज सदैव मुस्लिम लीग का पक्ष लेते रहे और उसकी आड़ में भारत की स्वतंत्रता को भी आगे खिसकाते रहे। लॉर्ड वैवेल मुस्लिम लीग के बिना, संविधान सभा बुलाने को तैयार नहीं हुआ। उसने मुस्लिम लीग को अन्तरिम सरकार में सम्मिलित करने के लिए भारत सचिव के निर्देशों की भी अवहेलना की। मुस्लिम लीग के षड़यंत्र एवं विरोध से उत्साहित होकर माउन्टबेटन ने कहा कि यदि ऐसी परिस्थिति में हिन्दुस्तान की पार्टियां हमें ठहरने के लिए कहेंगी, तो हमें ठहरना पड़ेगा। इससे कांग्रेस को विश्वास हो गया था कि यदि अंगेज शीघ्रातिशीघ्र भारत को स्वतंत्र कर भारत से चले नहीं जाते तो भारत अनेक छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जायेगा और फिर उन्हें संगठित करना बहुत कठिन होगा। अन्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग के मंत्रियों वाले विभागों में चपरासी से लेकर समस्त उच्च पदों पर मुसलमानों को नियुक्त किया जा रहा था और उन विभागों में पहले से नियुक्त हिन्दुओं को वहाँ से हटाया जा रहा था अथवा अन्य विभागों में भेजा जा रहा था। इसलिए सरदार पटेल ने कहा था कि- ‘यदि पाकिस्तान स्वीकार नहीं किया जाता तो प्रत्येक दफ्तर में पाकिस्तान की एक इकाई स्थापित हो जाती।’ कांग्रेस की बैठक में माउन्टबेटन योजना पर विचार प्रकट करते हुए गोविन्द वल्लभ पंत ने कहा था- ‘3 जून, 1947 की योजना की स्वीकृति ही स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एकमात्र मार्ग है…….आज कांग्रेस को या तो इस योजना को स्वीकार करना है अथवा आत्महत्या करनी है।’

(5.) कांग्रेस की त्रुटिपूर्ण नीति: मुस्लिम लीग अपने जन्म के समय से ही कांग्रेस का प्रबल विरोध कर रही थी। उसका नेता मुहम्मद अली जिन्ना खुले मंचों से यहाँ तक कि कांग्रेस के मंचों से भी गांधीजी के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करता था। जबकि दूसरी ओर गांधीजी को दृढ़ विश्वास था कि उनकी अहिंसा और क्षमा का मुस्लिम लीग पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और मुस्लिम लीग भारत विभाजन की मांग छोड़ देगी। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस एवं गांधीजी की सदाशयता का उलटा अर्थ लगाया। मुस्लिम लीग की पक्की धारणा थी कि उसके सहयोग एवं समर्थन के बिना भारत की राजनीतिक समस्या हल नहीं हो सकती। 1916 ई. में कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के लखनऊ समझौते में कांग्रेस ने मुसलमानों के पृथक् निर्वाचन मण्डल की मांग को स्वीकार कर लिया था। यह कांग्रेस की महान् भूल थी। सी. आर. फार्मूले में पाकिस्तान की मांग काफी सीमा तक मान ली गई और इस फार्मूले के सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए गांधीजी, जिन्ना के पीछे भागते रहे। 14 जून 1947 को कांग्रेस कमेटी की बैठक में पं. जवाहरलाल नेहरू को कहना पड़ा- ‘कांग्रेस भारतीय संघ में किसी भी इकाई को बलपूर्वक रखने के विरुद्ध रही है।’

सरदार पटेल के भाषणों से भी इस बात को समर्थन मिलता रहा। अतः जिन्ना को यह समझते देर नहीं लगी कि यदि थोड़ा और आतंकवादी दबाव डाला जाये तो कांग्रेस विवश होकर पाकिस्तान की मांग स्वीकार कर लेगी। मुहम्मद अली जिन्ना तथा उसकी मुस्लिम लीग को अनावश्यक महत्त्व देना और उसके पीछे भागना, कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती रही जिसका अंतिम परिणाम भारत विभाजन के रूप में हुआ।

(6.) सशक्त भारत की इच्छा: मुस्लिम लीग, केन्द्र सरकार को शक्तिशाली नहीं देखना चाहती थी। इसलिए कैबिनेट मिशन ने मुस्लिम लीग की सुविधा को ध्यान में रखते हुए एक निर्बल केन्द्र का गठन किया। निर्बल केन्द्र कभी भी शक्तिशाली राष्ट्र नहीं बना सकता था। अखण्ड भारत के लिए मुस्लिम लीग से समझौता करने का एक ही अर्थ होता- सदैव के लिये निर्बल एवं शक्तिहीन भारत का निर्माण। कांग्रेस के अधिकांश नेता मुस्लिम लीग की हिंसात्मक प्रवृत्ति से तंग आ चुके थे। उन्होंने अनुभव किया कि मुस्लिम लीग के रहते, भारत कभी अखण्ड नहीं रह सकेगा। सरदार पटेल आदि नेताओं को स्पष्ट हो गया था कि जितना भी भारत हिन्दुओं के पास बच रहा है, उसे ले लिया जाये अन्यथा पूरा भारत हाथ से निकल जायेगा।

इसीलिये सरदार पटेल ने अपने वक्तव्य में कहा- ‘भारत को मजबूत और सुरक्षित करने का यही तरीका है कि शेष भारत को संगठित किया जाये। …….बंटवारे के बाद हम कम से कम 75 या 80 प्रतिशत भाग को शक्तिशाली बना सकते हैं, शेष को मुस्लिम लीग बना सकती है।’

आजादी के बाद एक अवसर पर नेहरू ने कहा- ‘यदि हमें आजादी मिल भी जाती; तो भारत निस्सन्देह निर्बल रहता जिसमें इकाइयों के पास बहुत अधिक शक्तियां रहतीं और संयुक्त भारत में सदैव कलह और झगड़े रहते। इसलिए हमने देश का बंटवारा स्वीकार कर लिया ताकि हम भारत को शक्तिशाली बना सकें। जब दूसरे (मुस्लिम लीगी मुसलमान) हमारे साथ रहना ही नहीं चाहते तो हम उन्हें क्यों और कैसे मजबूर कर सकते थे?’

(7.) जिन्ना की हठधर्मी: भारत के राष्ट्रवादी नेताओं का विचार था कि हमारा संघर्ष मुख्य रूप से अँग्रेजों से है। इसलिए कांग्रेसी नेता, जिन्ना से बातचीत करने को सदैव तत्पर रहते थे। जिन्ना ने कांग्रेस की इस प्रवृत्ति का अनुचित लाभ उठाया। जिन्ना की हठधर्मी के कारण गोलमेज सम्मेलन और वैवेल योजना असफल हो गयी और साम्प्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकल सका। वह हर समय कांग्रेस को एक हिन्दू संस्था सिद्ध करने का प्रयास करता था और कांग्रेस के राष्ट्रीय दल होने के दावे को नकारता था। 1937 ई. के चुनावों के बाद जिन प्रान्तों में कांग्रेस की सरकारें बनीं, जिन्ना उन प्रांतीय सरकारों पर लगातार मनगढ़ंत आरोप लगाकर उन्हें मुसलमानों पर अत्याचार करने वाली सरकारें बताता रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर जब कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दिये तो जिन्ना ने मुक्ति दिवस मनाया। ऐसी परिस्थिति में सरदार पटेल तथा अन्य कांग्रेसी नेता चाहते थे कि गांधीजी जिन्ना को महत्त्व देना बंद करें किंतु गांधीजी हर कीमत पर जिन्ना को प्रसन्न करना चाहते थे ताकि देश का बंटवारा न हो। गांधीजी की इस प्रवृत्ति से जिन्ना की हठधर्मी बढ़ती गई। उसने पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए देश भर में साम्प्रदायकि दंगे फैला दिये और हजारों निर्दोष लोगों की हत्याएं करवाईं। पाकिस्तान प्राप्त करके भी वह शान्त नहीं हुआ। उसने पाकिस्तान वाले क्षेत्रों से हिन्दू जनसंख्या को भारत में लेने की मांग की। जब उसकी यह मांग नहीं मानी गई तो उसने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हिन्दुओं पर हमले करवाये। हजारों हिन्दू मार डाले गये। लाखों लोगों को पलायन करना पड़ा। मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान वाले क्षेत्रों में रह रहे हिन्दुओं को बलपूर्वक वहाँ से निकाल दिया गया। जिन्ना को प्रोत्साहित करने में अँग्रेजों ने पूरा सहयोग दिया।

(8.) अन्तरिम सरकार की असफलता: मुस्लिम लीग के सदस्य अन्तरिम सरकार में कांग्रेसी मन्त्रियों के लिए सिरदर्द बन गये। वे कोई काम होने ही नहीं देते थे। इससे सरकार पंगु बन गई थी। मुस्लिम लीग द्वारा सरकार के हर काम में रोड़े अटकाने की प्रवृत्ति से खिन्न होकर जवाहरलाल नेहरू ने वक्तव्य दिया- ‘हम सिर-दर्द से छुटकारा पाने के लिए सिर कटवाने को तैयार हो गये।’ सरदार पटेल ने इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिये जिन्ना के भारत विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करने की अनिवार्यता बताते हुए वक्तव्य दिया कि- ‘यदि शरीर का एक भाग खराब हो जाये तो उसको शीघ्र हटाना ठीक है, ताकि सारे शरीर में जहर न फैले। मैं मुस्लिम लीग से छुटकारा पाने के लिए भारत का कुछ भाग देने के लिए तैयार हूँ।’ आजादी प्राप्त करने के बाद नवम्बर 1947 में सरदार पटेल ने नागपुर में वक्तव्य दिया- ‘जब अन्तरिम सरकार में आने के बाद मुझे यह पूर्ण अनुभव हो गया कि राजनीतिक विभाग के षड़यंत्रों द्वारा भारत के हितों को बड़ी हानि पहुँच रही है तो मुझे विश्वास हो गया कि जितनी जल्दी हम अँग्रेजों से छुटकारा पा लें उतना ही अच्छा है…..मैंने उस समय महसूस किया कि भारत को मजबूत और सुरक्षित करने का यह तरीका है कि शेष भारत को संगठित किया जाये।…….हम उस समय ऐसी अवस्था पर पहुँच गये थे कि यदि हम देश का विभाजन न मानते तो सब-कुछ हमारे हाथ से चला जाता।’

(9.) माउन्टबेटन का प्रभाव: एक ओर तो गांधीजी भारत विभाजन के लिये तैयार नहीं थे और दूसरी ओर पूरा देश साम्प्रदायिक दंगों के कारण रक्त की नदी में गोते लगा रहा था। माउन्टबेटन ने अनुभव किया कि यदि ब्रिटेन, भारतीय उपमहाद्वीप में भयानक रक्तपात के कलंक से बचना चाहता है तो उसे तुरंत भारत को आजाद कर देना चाहिये। यही कारण था कि प्रधानमंत्री एटली ने भारत को स्वतंत्र करने की अंतिम तिथि 20 जून 1948 निर्धारित की थी किंतु माउण्टबेटन ने उसे 10 माह पहले खिसकाकर 15 अगस्त 1947 कर दिया। अब कांग्रेस के समक्ष केवल दो विकल्प थे- अखण्ड भारत के लिये साम्प्रदायिक दंगों का सामना करे अथवा लाखों हिन्दुओं की जान बचाने के लिये पाकिस्तान को स्वीकार कर ले। माउण्टबेटन ने कांग्रेसी नेताओं को समझाया कि अखण्ड भारत में मुस्लिम लीग कभी शान्ति और व्यवस्था नहीं रहने देगी। देश सदैव निर्बल रहेगा। जब कोई सम्प्रदाय, भारत में रहना ही नहीं चाहता तो उसे इसके लिए कैसे विवश किया जा सकता है। नेहरू और पटेल तो पहले से ही यह अनुभव कर रहे थे और वक्तव्य भी दे रहे थे। जब उन्होंने देखा कि माउण्टबेटन भी इसके लिये तैयार हैं तो उन्होंने भारत विभाजन को स्वीकार कर लिया।

(10.) मुसलमान जनता में स्थिति को समझने की असमर्थता: जिन्ना तथा उसके अनुयायियों ने अपने समर्थन में ऐसे तर्क जुटा लिये जिनके आधार पर वे एक अलग राष्ट्र मांग सकें तथा मनमाने ढंग से मुस्लिम जनता पर शासन कर सकें। भारत के बहुसंख्य मुसलमान, अलगाववादी मुस्लिम नेताओं के षड़यत्र को नहीं समझ पाये। यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि जिन मुस्लिम नेताओं ने जिस गरीब मुसलमान जनता के नाम पर साम्प्रदायिकता की समस्या को उभारा, वे अच्छी तरह जानते थे कि उस गरीब मुसलमान जनता को भारत में रहकर, देश की बहुसंख्य जनता के साथ हिल-मिल कर आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनैतिक उन्नति के अधिक अवसर मिलेंगे जबकि वे एक नया राष्ट्र बनाकर गरीब मुसलमान जनता को और भी अधिक गरीब राष्ट्र का नागरिक बना देंगे। मुस्लिम लीगी नेताओं की इस विभाजनकारी मानसिकता का अँग्रेजों ने भरपूर लाभ उठाया और इस समस्या को कभी सुलझने नहीं दिया। जिन्ना और उनके साथी यह भी जानते थे कि वे भले ही अलग देश का निर्माण कर लें किंतु वे भारत की समस्त मुस्लिम जनसंख्या को पाकिस्तान नहीं ले जा सकेंगे। इससे स्पष्ट है कि जिन्ना और उसके अनुयायी अपने लिये एक अलग देश चाहते थे, न कि भारत के समस्त मुसलमानों के लिये  किंतु भोली-भाली निर्धन मुस्लिम जनसंख्या नेताओं के इस षड़यंत्र को नहीं समझ सकी।

भारत के विभाजन की प्रक्रिया

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947

भारत को स्वतंत्रता देने के लिये ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पारित किया गया। 18 जुलाई 1947 को इंगलैण्ड के राजा ने इसे स्वीकृति दे दी। इस एक्ट के अनुसार भारत की आजादी के साथ ही दो स्वतंत्र देश भारत एवं पाकिस्तान के नाम से अस्तित्व में आने थे। मुस्लिम बहुल आबादी वाले ब्रिटिश प्रांत, पाकिस्तान में ; तथा हिन्दू बहुल वाले ब्रिटिश प्रांत, भारत में  सम्मिलित किये जाने थे। बंगाल एवं पंजाब प्रांतों का विभाजन करके उन प्रांतों के मुस्लिम बहुल क्षेत्र पाकिस्तान में सम्मिलित किये जाने थे। इस अधिनियम की धारा 8 के अनुसार भारत के 567 देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता समाप्त हो जानी थी तथा यह पुनः देशी राज्यों को हस्तांतरित कर दी जानी थी। इस कारण देशी राज्य अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित होने अथवा पृथक अस्तित्व बनाये रखने अथवा पृथक समूहों का गठन करने के लिये स्वतंत्र थे।

उलटी तिथि का कलैण्डर

जब कांग्रेस ने पाकिस्तान की मांग को स्वीकार कर लिया तो लार्ड माउण्टबेटन ने भारत के भौतिक विभाजन का कार्य करना प्रारंभ किया। राज्य कर्मचारियों को विकल्प दिया गया कि वे भारत अथवा पाकिस्तान की सेवा में रह सकते हैं। 4 जून को माउण्टबेटन ने पत्रकारों के समक्ष भारत की आजादी की तिथि घोषित की। उस दिन 15 अगस्त आने में 73 दिन बाकी थे। माउण्टबेटन ने कर्मचारियों को सावधान और चुस्त रखने के लिये 73 पृष्ठों का एक कलैण्डर छपवाया जिसके हर पन्ने पर ठीक मध्य में, लाल घेरे में यह छपा हुआ था कि आज के दिन 15 अगस्त आने में कितने दिन शेष रह गये हैं। प्रत्येक दिन इस कलैण्डर का एक पन्ना फाड़ा जाता था।

फौज का विभाजन

1857 के गदर के पश्चात् अँग्रेजों ने भारतीय फौज का गठन इस प्रकार किया था कि प्रत्येक टुकड़ी में हिंदू, मुस्लिम तथा सिख सैनिक रहें ताकि सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में फौज की निष्प्क्षता बनी रहे। देश की आजादी से पहले फौज के प्रधान की हैसियत से फौज के विभाजन का काम फील्ड मार्शल आचिनलेक को सौंपा गया। आचिनलेक तब तक फौज का विभाजन नहीं करना चाहते थे जब तक कि दोनों देशों का भली-भांति विभाजन नहीं हो जाये और जनसंख्या की अदला-बदली पूरी नहीं हो जाये किंतु नेहरू इस बात पर अड़े गये कि 15 अगस्त को आजादी मिलने का अर्थ है कि देश की अपनी सेना भी उसी दिन देश को तैयार मिले।  अतः माउण्टबेटन ने आचिनलेक को निर्देश दिये कि वे सेना के विभाजन का काम 15 अगस्त से पहले पूरा कर लें।

आचिनलेक का मानना था कि देश की आजादी की घोषणा के बाद अँग्रेजों का कत्लेआम होगा जिससे निबटने के लिये 1 जनवरी 1948 तक ब्रिटिश फौज भारत में रहनी चाहिये तथा भारतीय एवं पाकिस्तानी फौजों को कुछ समय तक अँग्रेजों के कमाण्ड में ही रखना चाहिये किंतु माउण्टबेटन ने यह तर्क देकर आचिनलेक के सुझाव को मानने से इन्कार कर दिया कि आजादी के बाद अँग्रेजों व अन्य विदेशी नागरिकों की रक्षा का भार स्वतंत्र होने वाले दोनों देशों पर रहेगा।

आचिनलेक ने फौज के विभाजन की जो योजना बनायी, उसमें सैनिकों को स्वेच्छा के आधार पर किसी भी देश की फौज में शामिल होने का अधिकार दिया गया किंतु जो मुस्लिम सैनिक पाकिस्तानी क्षेत्र के रहने वाले थे, उन्हें अनिवार्य रूप से पाकिस्तानी सेना में तथा जो गैर मुस्लिम सैनिक हिंदुस्तानी क्षेत्र के रहने वाले थे उन्हें अनिवार्य रूप से हिंदुस्तानी फौज में सम्मिलित होने के लिये कहा गया। आचिनलेक से रेडियो पर सेना के विभाजन की घोषणा करवायी गयी। 6 अगस्त 1947 को लाल किले में भावी भारतीय सेना के अधिकारियों ने, पाकिस्तान जाने वाले सैन्य अधिकारियों को विदाई पार्टी दी। इस अवसर पर भारतीय सेना की ओर से जनरल करिअप्पा ने तथा पाकिस्तानी फौज की ओर से ब्रिगेडियर रजा ने विदाई भाषण दिये। इस अवर पर पं. नेहरू तथा सरदार बलदेवसिंह भी उपस्थित थे।

भारत में फौजी केन्द्र रखे जाने का प्रस्ताव

भारत की आजादी के बिल का जो प्रारूप ब्रिटिश सरकार ने वायसराय को भिजवाया था उसमें ब्रिटिश सरकार द्वारा लगातार कई संशोधन किये गये। उसमें एक संशोधन यह भी था कि भारत की सत्ता सौंप देने के बाद भी ब्रिटिश सरकार को भारत में एक सैनिक केंद्र रखने का अधिकार होगा। मेनन की कड़ी आपत्ति पर इस संशोधन को निकाल दिया गया।

चांदनी चौक में भीड़

लगभग 60 हजार अँग्रेजों के लिये भारत छोड़ने का दिन निकट आता जा रहा था। इनमें कोई सिपाही था तो कोई आई.सी. एस. अधिकारी, कोई पुलिस इंस्पेक्टर था तो कोई रेलवे इंजीनियर, कोई वेतन अधिकारी था तो कोई संचार लिपिक। दिल्ली के चांदनी चौक में भारत छोड़ रहे गोरों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। वे रेफ्रिजिरेटर या कार के बदले कालीन, हाथी-दांत, सोने-चांदी की वस्तुएं खरीद रहे थे। शेर की खाल और मसाला भरे हुए जानवरों की खूब मांग रही। पोलो खेलने के काम आने वाले घोड़े भी बड़ी संख्या में बिके। कुछ खिलाड़ियों ने तो अपने घोड़ों को इसलिये गोली मार दी कि वे नहीं चाहते थे कि उनके उम्दा घोड़े बग्घियों अथवा तांगों में जुतें।

विभाजन कौंसिल का गठन

विभाजन का काम दक्षता से निबटाने के लिये वायसराय की अध्यक्षता में एक विभाजन कौंसिल का गठन किया गया। इस कौंसिल में भारत के प्रतिनिधि के रूप में एच. एम. पटेल तथा पाकिस्तान के प्रतिनिधि के रूप में चौधरी मोहम्मद अली को रखा गया। इस समिति की सहायता के लिये विभिन्न प्रकार की बीस समितियां और उपसमितियां गठित की गयीं जिनमें लगभग 100 उच्च अधिकारियों की सेवाएं ली गयीं। इन समितियों का काम विभिन्न प्रकार के प्रस्ताव तैयार करके अनुमोदन के लिये विभाजन कौंसिल के पास भेजना था।

विभाजन कौंसिल द्वारा बैंकों, सरकारी विभागों तथा पोस्ट ऑफिसों में रखे हुए रुपयों, सामान और फर्नीचर के बंटवारे हेतु निर्णय लिये गये। बंटवारे में तय किया गया कि पाकिस्तान को बैंकों में रखी नकदी और स्टर्लिंग शेष का 17.5 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होगा। पाकिस्तान को भारत के राष्ट्रीय कर्ज का 17.5 प्रतिशत हिस्सा चुकाना पड़ेगा। देश के विशाल सरकारी तंत्र में जो कुछ भी स्थानानंतरण द्वारा हटाया जा सकता है, उसका 80 प्रतिशत भारत को एवं 20 प्रतिशत पाकिस्तान को दिया जाये। देश में 18 हजार 77 मील लम्बी सड़कें तथा 26 हजार 421 मील रेल की पटरियां थीं। इनमें से 4 हजार 913 मील सड़कें तथा 7 हजार 112 मील रेल पटरियां पाकिस्तान के हिस्से में गईं। वायसराय की सफेद सुनहरी ट्रेन भारत के हिस्से में आयी उसके बदले में भारतीय सेना के कमाण्डर इन चीफ तथा पंजाब के गर्वनर की सभी कारें पकिस्तान को दे दी गयीं। वायसराय के पास सोने के पतरों वाली छः तथा चांदी के पतरों वाली छः बग्घियां थीं। इनमें से सोने के पतरों वाली बग्घियां भारत के हिस्से में तथा चांदी के पतरों वाली बग्घियां पाकिस्तान के हिस्से में आयीं।

राजकीय सेवाओं का विभाजन करना तय किया गया। ब्रिटिश मूल के अधिकारियों व कर्मचारियों को मुआवजा देना तय किया गया। जिस समय देश आजाद हुआ उस समय इंगलैण्ड पर भारत के 500 अरब डॉलर बकाया निकलते थे। यह कर्ज द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चढ़ा था।

कर्मचारियों के लिये विशेष रेल

पाकिस्तान जाने वाले कर्मचारियों और उनके साथ जाने वाले कागजों के लिये रेलवे ने 3 अगस्त 1947 से दिल्ली से करांची तक विशेष रेलगाड़ियों का संचालन किया। इन रेलगाड़ियों को लौटती बार में पाकिस्तान से भारत आने वाले कर्मचारियों को लेकर आना था। उस समय तक रेल गाड़ियां भयानक सांप्रदायिक उन्माद की चपेट में आ चुकी थीं। इसलिये नेताओं ने आम जनता से अपील की कि वे गाड़ियों का उपयोग न करे। नेताओं को आशा थी कि कर्मचारियों की रेलगाड़ियां सुरक्षित रहेंगी किंतु पकिस्तान से कर्मचारियों को लेकर आने वाली रेलगाड़ियां भी सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ गईं।

संविधान सभा को संसद का दर्जा

उस समय तक चुनी हुई वैधानिक संसद के अस्तित्व में नहीं होने से संविधान सभा को ही संसद तथा संविधान सभा का दोहरा दर्जा दिया गया।

दो वैकल्पिक सरकारें

विभाजन से पहले भारत में जो अंतरिम सरकार चल रही थी उसमें से लार्ड माउण्टबेटन ने दो वैकल्पिक सरकारों का निर्माण किया जो 15 अगस्त को अस्तित्व में आने वाले दोनों देशों के प्रशासन को संभाल सकें। 1935 के भारत सरकार अधिनियम में सुविधापूर्ण सुधार करके भारतीय उपनिवेश में 1947 से 1950 ई. तक तथा पाकिस्तान उपनिवेश में 1947 से 1956 ई. तक संविधान का काम लिया गया। यहाँ तक कि भारत के वर्तमान संविधान का आधार भी यही अधिनियम है।

इण्डियन डोमिनियन्स शब्द पर आपत्ति

जब जिन्ना ने सुना कि प्रस्तावित बिल में दोनों उपनिवेशों को इण्डियन डोमिनियन्स कहा गया है तो उसने एक सख्त चिट्ठी भेजी। इसके बाद बिल में सिर्फ डोमिनियन्स शब्द काम में लिया गया।

पंजाब बाउंड्री फोर्स का गठन

जनरल टकर ने आचिनलेक को सुझाव दिया कि पंजाब में शांति बनाये रखने के लिये गोरखाओं की एक फौज बनायी जाये तथा उसे पंजाब में महत्वपूर्ण स्थानों पर लगा दिया जाये जहाँ कि कत्लेआम होने की सर्वाधिक संभावना है। यह फौज पूरी तरह से हिंदू मुस्लिम पक्षपात से अलग रहेगी लेकिन आचिनलेक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। टकर ने लार्ड इस्मे से संपर्क किया। अंत में वायसराय के हस्तक्षेप पर इस फौज का गठन किया गया जिसका नाम पंजाब बाउंड्री फोर्स रखा गया। इसमें पचपन हजार सैनिकों की नियुक्ति की गयी। इस सेना ने 1 अगस्त 1947 से कार्य आरम्भ कर दिया। सियालकोट, गुजरांवाला, शेखपुरा, लायलपुरा, मौंटगुमरी, लाहौर, अमृतसर, गुरदासपुर, होशियारपुर, जालंधर, फिरोजपुर और लुधियाना जिलों में इस सेना को नियुक्त किया गया। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग की सहमति से मेजर जनरल रीस को इस सेना का कमांडर नियुक्त किया गया। भारत की ओर से ब्रिगेडियर दिगंबरसिंह तथा पाकिस्तान की ओर से कर्नल अय्यूबखां  इसके सलाहकार बनाये गये। 

रैडक्लिफ आयोग का गठन एवं उसकी रिपोर्ट के प्रकाशन में विलम्ब

भारत व पाकिस्तान की सीमाओं का निर्धारण करने के लिये 27 जून 1947 को रैडक्लिफ आयोग का गठन किया गया। इसके अध्यक्ष सर सिरिल रैडक्लिफ इंग्लैण्ड के प्रतिष्ठित वकील थे। भारत में आने से पूर्व उन्हें भारत के आंतरिक मामलों की जानकारी नहीं थी। वे यहाँ की संस्कृति, राजनीतिक स्थिति, भौगोलिक जानकारी, व्यापारिक क्षेत्र, लोगों के आपसी सम्बन्ध, जनसंख्या की बसावट, नदियों के प्रवाह, नहरों की स्थिति, गांवों की आर्थिक निर्भरता आदि किसी भी तत्व से परिचित नहीं था। अँग्रेजों ने यह कहकर उनका चुनाव किया कि चूंकि रैडक्लिफ को हिंदू, मुसलमान, सिक्ख आदि किसी से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिये वे एकदम निष्पक्ष साबित होंगे। 8 जुलाई 1947 को रैडक्लिफ दिल्ली पंहुचे। उनकी सहायता के लिये प्रत्येक प्रांत में चार-चार न्यायाधीशों के एक बोर्ड की नियुक्ति की गयी। इन न्यायाधीशों में से आधे कांग्रेस द्वारा व आधे मुस्लिम लीग द्वारा नियुक्त किये गये थे।

पंजाब प्रांत के विभाजन के लिये कांग्रेस की ओर से मेहरचंद महाजन तथा तेजासिंह को और मुस्लिम लीग की ओर से दीन मोहम्मद तथा मोहम्मद मुनीर को नियुक्त किया गया। इसी प्रकार बंगाल प्रांत के विभाजन के लिये कांग्रेस की ओर से सी. सी. विश्वास एवं बी. के. मुखर्जी को तथा मुस्लिम लीग की ओर से मोहम्मद अकरम और एस. ए. रहमान को नियुक्त किया गया।

पंजाब के गवर्नर जैन्किन्स ने माउण्टबेटन को पत्र लिखकर मांग की कि रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट 15 अगस्त से पूर्व अवश्य ही प्रकाशित कर देनी चाहिये ताकि लोगों की भगदड़ खत्म हो। भारत विभाजन समिति ने भी वायसराय से यही अपील की। आयोग की रिपोर्ट 9 अगस्त 1947 को तैयार हो गयी किंतु लार्ड माउण्टबेटन ने उसे एक सप्ताह तक प्रकाशित नहीं करने का निर्णय लिया ताकि स्वतंत्रता दिवस के आनंद में विघ्न न हो। इस कारण पंजाब और बंगाल में असमंजस की स्थिति बनी रही। भारत की स्वतंत्रता के दो दिन पश्चात् अर्थात् 17 अगस्त 1947 को माउण्टबेटन ने रैडक्लिफ अवार्ड की प्रतियां भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खां को सौंपीं। इसी निर्णय के आधार पर भारत व पाकिस्तान की सीमायें निर्धारित की गयीं।

ताजमहल को पाकिस्तान ले जाने की मांग

भारत विभाजन की तिथि घोषित हो जाने के बाद कुछ मुसलमानों ने मांग की कि ताजमहल को तोड़कर पाकिस्तान ले जाना चाहिये और वहाँ फिर से निर्मित किया जाना चाहिये क्योंकि ताजमहल का निर्माण आखिर एक मुसलमान ने किया है किंतु यह मांग कोई जोर नहीं पकड़ सकी।

पाकिस्तान का निर्माण

7 अगस्त 1947 को जिन्ना ने सदा-सदा के लिये भारत छोड़ दिया और वह कराची चला गया। जिन्ना के जाने के अगले दिन सरदार पटेल ने वक्तव्य दिया- ‘भारत के शरीर से जहर अलग कर दिया गया। हम लोग अब एक हैं और अब हमें कोई अलग नहीं कर सकता। नदी या समुद्र के पानी के टुकड़े नहीं हो सकते। जहाँ तक मुसलमानों का सवाल है, उनकी जड़ें, उनके धार्मिक स्थान और केंद्र यहाँ हैं। मुझे पता नहीं कि वे पाकिस्तान में क्या करेंगे। बहुत जल्दी वे हमारे पास लौट आयेंगे।’

पाकिस्तान में रह गयी कांग्रेस कमेटियों ने आचार्य कृपलानी से पूछा कि स्वतंत्रता दिवस पर वे पाकिस्तान का झण्डा फहरायें या नहीं? इस पर कृपलानी ने आदेश दिया कि किसी तरह का झण्डा लहराने की आवश्यकता नहीं है। किसी तरह के जश्न में भी भाग नहीं लिया जाना चाहिये।

14 अगस्त को लार्ड माउण्टबेटन ने पाकिस्तान की संविधान निर्मात्री परिषद में भाषण दिया और पाकिस्तान के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की घोषणा की। इसके पश्चात् वे उसी दिन वायुयान से दिल्ली लौट आये और मध्यरात्रि को भारत की संविधान निर्मात्री परिषद में भाषण देकर उन्होंने भारत की स्वतंत्रता की घोषणा की।

अध्याय – 91 : पराधीनता का विलोपन एवं स्वाधीनता का उदय

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14 अगस्त 1857 को सर्यास्त के साथ ही भारत से पराधीनता के चिह्न विलोपित होने लगे एवं स्वाधीनता का उदय होने लगा। ब्रिटिश नेताओं एवं भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश राज्यशाही के विलोपन में गरिमा को बनाए रखा। भारत के अंग्रेजों के विरुद्ध किसी तरह की नारेबाजी नहीं की गई एवं न उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया गया। यहाँ तक कि ब्रिटिश राज्यशाही के चिह्नों को भी बड़े आदर के साथ अंग्रेज अधिकारियों को सौंप दिया गया।

यूनियन जैक का अवतरण

बम्बई के गवर्नर सर जान कोल्वील ने वायसराय को लिखा कि भारत की आजादी के बाद यदि उसे यूनियन जैक अथवा ऐसा ध्वज जिसमें यूनियन जैक लगा हो, फहराने नहीं दिया गया तो वह भारत में नहीं रुकेगा। वायसराय स्वयं भी इस विषय पर चिंतन कर रहा था। उसने खुद अपने हाथों से दोनों देशों का झण्डा तैयार किया। एक का आधार था कांग्रेस का झण्डा चर्खे के साथ, दूसरे का आधार था मुस्लिम लीग का झण्डा चांद के साथ। दोनों में 1/9 क्षेत्रफल का यूनियन जैक ऊपरी हिस्से में सिला गया। इन झण्डों को वायसराय ने स्वीकृति के लिये जिन्ना और नेहरू के पास भेज दिया।

जिन्ना ने जवाब दिया कि पाकिस्तान के लिये झण्डे का यह डिजायन किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं है क्योंकि चांद के साथ क्रिश्चियन क्रॉस मुसलमानों की भावना के लिये ठीक नहीं है। नेहरू ने वायसराय को एक नया डिजाइन भिजवाया जिसमें बाकी का हिस्सा तो कांग्रेस के झण्डे जैसा ही था किंतु चरखे के स्थान पर सारनाथ के अशोक स्तंभ का चक्र लिया गया था  तथा यूनियन जैक नहीं था। माउण्टबेटन के पास कोई विकल्प नहीं था सिवाय इसके कि वह मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस द्वारा सुझाये गये झण्डों को स्वीकार कर ले। इस प्रकार यूनियन जैक की पूरी तरह से विदाई हो गयी।

14 अगस्त की शाम को लखनऊ की रेजिडेंसी से चुपचाप यूनियन जैक उतार लिया गया और उसे आचिनलेक के पास भेज दिया गया। आचिनलेक ने उसे राजा जार्ज षष्ठम् के पास भेज दिया ताकि वह उसे विंडसर कॉसल के संग्रहालय में  ऐतिहासिक झण्डों के साथ जगह पा सके। दूसरे दिन जब भारतीयों का जुलूस तिरंगा फहराने के लिये उस स्थान पर पहुंचा तो पता चला कि किसी ने ध्वज दंड को जड़ से काट दिया है। यूनियन जैक इस स्थान पर पूरे एक सौ साल फहराया था, 1847 ई. से लेकर 1947 ई. तक। 14 अगस्त की संध्या को जब सूर्य का अवसान हुआ तो देशभर में यूनियन जैक ने ध्वजदण्ड का त्याग कर दिया। जवाहरलाल नेहरू ने माउण्टबेटन के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया था कि यूनियन जैक को उतारते समय किसी तरह का समारोह नहीं होगा ताकि अँग्रेजों की भावनाओं को ठेस न लगे। समारोह 15 अगस्त को तिरंगे के आरोहण के साथ ही किये गये।

ब्रिटिश सम्राट का अंतिम संदेश देने से इंकार

भारत को स्वतंत्रता प्रदान करने के अवसर पर ब्रिटेन के सम्राट जार्ज षष्ठम् द्वारा दोनों उपनिवेशों की जनता के नाम अंतिम संदेश देने के लिये वायसराय द्वारा ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया गया। ब्रिटेन की लेबर सरकार इस पर सहमत नहीं हुई। भारत सचिव लॉर्ड लिस्टोवेल ने वायसराय को लिखा कि इसे सभी हिंदुस्तानी और अँग्रेज पसंद नहीं भी कर सकते हैं।

ब्रिटिश राष्ट्रगान के गायन का प्रश्न

स्वतंत्रता समारोह के दिन ब्रिटिश राष्ट्रगान गॉड सेव द किंग के गायन के प्रश्न पर माउण्टबेटन ने प्रांतीय गवर्नरों को निर्देश दिये कि सत्ता सौंपने के बाद सार्वजनिक रूप से इसका गायन नहीं होना चाहिये। सिर्फ गवर्नर के भवनों में यह प्रस्तुत हो। सत्ता सौंपने की रस्म के समय गवर्नरों को तोप की सलामी और राष्ट्रीय गान के पहले हिस्से का हक है।

स्वतंत्रता दिवस समारोह

14 अगस्त की संध्या को दिल्ली के निवासी घरों से निकल कर नाचते गाते हुए मध्य दिल्ली की ओर जाने लगे। किसानों से भरी हुई बैलगाड़ियों से दिल्ली की सड़कें पट गयीं। वे सब आजादी के समय आधी रात को दिल्ली में उपस्थित रहना चाहते थे। जब जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल तथा डा. राजेन्द्र प्रसाद आदि नेताओं ने भारत की स्वतंत्रता के समारोह की घोषणा करने के लिये संसद भवन के लिये प्रस्थान किया तो नई दिल्ली के मुख्य मार्गों पर आनंद से चिल्लाते हुए अपार जन समूह ने दोनों तरफ कतारें बना लीं। सभा भवन से बाहर आधी रात को आकाश में अचानक बिजली चमकने लगी और तेज बारिश आरम्भ हो गई किंतु लोग डटे रहे। सभा भवन को चारों तरफ से भारतीयों ने घेर रखा था। बारह बजते ही भवन के अंदर तेज शंखनाद हुआ और उसके साथ ही भारत अवतरित हो गया। दिल्ली ने स्वतंत्रता का स्वागत प्रकाश से किया। दिल्ली के प्रत्येक भवन पर प्रकाश की झालरें लगी हुई थीं जिनके प्रकाश से राजधानी जगमगा रही थी। हर ओर पटाखे छोड़े गये।

कांग्रेस ने लोगों से अपील की कि 15 अगस्त को देश में बूचड़खाने बंद रहें। देश का हर सिनेमाघर निशुल्क सिनेमा दिखाये। दिल्ली की पाठशालाओं में विद्यार्थियों को मिठाई और आजादी पदक दिया जाये। सरकार ने फांसी की समस्त सजायें माफ कर दीं। 15 अगस्त की प्रातः दिल्ली की सड़कों पर इतने आदमी जमा हुए जितने सम्पूर्ण मानव इतिहास में कभी भी एक स्थान पर एकत्र नहीं हुए होंगे। एक अनुमान के अनुसार लगभग पाँच लाख लोग पूरे भारत से दिल्ली पहुंचे जहाँ आजादी का सबसे बड़ा समारोह होने वाला था। अँग्रेजों ने भी बड़ी प्रसन्नता से इन समारोहों में भाग लिया। कुछ अँग्रेज महिलायें भारत छोड़ने के दुख में फूट-फूट कर रोने लगीं। इस भीड़ में किसी के हिलने के लिये इंच भर भी जगह नहीं थी।

गवर्नर जनरल की नियुक्ति

ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त होने के तुरंत बाद भारत और पाकिस्तान के लिये एक-एक गवर्नर जनरल नियुक्त किया जाना था। भारत स्वतंत्रता अधिनियम में प्रावधान किया गया था कि दोनों देश चाहें तो एक ही व्यक्ति को दोनों देशों का गवर्नर जनरल बना सकते थे। ऐसा माना जा रहा था कि लार्ड माउण्टबेटन दोनों देशों के लिये विश्वसनीय होंगे तथा वे कुछ समय के लिये लार्ड माउण्टबेटन को अपना गवर्नर जनरल बनायेंगे लेकिन पाकिस्तान ने जिन्ना को प्रथम गवर्नर जनरल नियुक्त किया। वायसराय ने इच्छा जाहिर की कि वे आजादी के बाद तब तक दोनों देशों के गवर्नर जनरल बने रहें जब तक कि दोनों देशों में अपना संविधान बन कर तैयार नहीं हो जाये। भारतीय नेता वायसराय से इसके लिये पहले ही अनुरोध कर चुके थे किंतु वायसराय के काफी जोर देने पर भी जिन्ना इसके लिये राजी नहीं हुआ।

ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि आजादी के बाद भी माउण्टबेटन कुछ समय तक भारत में रहें। यदि आजादी के तुरंत बाद वायसराय ने भारत छोड़ दिया तो भारत व पाकिस्तान में अँग्रेज असुरक्षित हो जायेंगे और उनमें भगदड़ मच जायेगी। उनके तत्काल हट जाने से भारत व पाकिस्तान के बीच अधिक रक्त-पात होगा जिससे ब्रिटिश सरकार की बदनामी होगी। आजादी के बाद भी माउण्टबेटन के भारत में टिके रहने से टोरी पार्टी और सम्पूर्ण विपक्ष सरकार के खिलाफ कोई हो हल्ला नहीं मचा सकेगा। माउण्टबेटन के भारत में रहने से भारत व पाकिस्तान के कॉमनवैल्थ में बने रहने तथा रिश्तों के मजबूत बनने की संभावनायें बढ़ जायेंगी।

भारतीय नेता भी कई कारणों से माउण्टबेटन को भारत में बने रहने देना चाहते थे। माउण्टबेटन के रहने से पाकिस्तान और हिंदुस्तान के मध्य बंटवारों के सम्बन्ध में होने वाले विवाद में मध्यस्थता करने वाला मौजूद रहेगा। भारत सरकार की ओर से देशी रजवाड़ों से मजबूती से बात कर सकने वाले अधिकारी के रूप में भी उसकी सेवायें अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होंगी।

इन सब कारणों को देखते हुए माउण्टबेटन ने भारत के प्रथम गवर्नर जनरल का पद स्वीकार कर लिया। आजादी के बिल में प्रावधान किया गया कि आजादी के बाद मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के तथा माउण्टबेटन भारत के गवर्नर जनरल होंगे।

15 अगस्त की मध्यरात्रि को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने माउण्टबेटन को स्वाधीन भारत के प्रथम गवर्नर जनरल के पद पर नियुक्त किये जाने का पत्र सौंपा। 15 अगस्त 1947 की प्रातः स्वाधीन भारत के प्रथम गवर्नर जनरल का शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया। माउण्टबेटन ने अपना दाहिना हाथ उठाकर शपथ ली कि वे स्वतंत्र भारत के प्रथम सेवक के रूप में अधिकतम हार्दिकता और परिश्रम के साथ भारत की सेवा करेंगे। इसी समारोह में नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्यों को शपथ दिलवायी गयी। भारत के वायसराय के रूप में माउण्टबेटन को 31 तोपों की सलामी दी जाती थी। भारत के गवर्नर जनरल के रूप में उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गयी।

इस नियुक्ति से लार्ड माउण्टबेटन के मन में भारत के प्रति अधिक उदार भाव ने जन्म लिया। आगे चलकर जब कभी भी भारत-पाकिस्तान के मध्य किसी भी विषय पर विवाद हुआ तो भारत के दावे को अधिक वजन मिला जिससे नाराज होकर पाकिस्तान द्वारा लार्ड माउण्टबेटन पर आरोप लगाये गये कि जिन्ना के निर्णय ने माउण्टबेटन को चिढ़ा दिया और माउण्टबेटन ने अपने अधिकारों का उपयोग भारत का पक्ष लेने में किया। इन आरोपों के अनुसार माउण्टबेटन ने पंजाब और बंगाल प्रांतों में भारत पाक सीमाओं के निर्धारण में, कश्मीर रियासत के भारत में रहने के मामले में तथा अन्य अनेक मामलों में भारत का पक्ष लिया। पाकिस्तान द्वारा शत्रुता का भाव आगे तक चलता रहा। 1956 ई. में लार्ड माउण्टबेटन को भारत जाने के लिये पाकिस्तान सरकार द्वारा पाकिस्तान के ऊपर होकर उड़ने की अनुमति नहीं दी गयी।

ब्रिटिश अधिकारियों की विदाई

स्वाधीनता दिवस के दिन जार्ज एबेल और इवान जेन्किन्स, इंगलैण्ड के लिये रवाना हो गये। उसी दिन सर सिरिल रेडक्लिफ भी रवाना हुआ। फील्ड मार्शल सर क्लाड आचिनलेक अगस्त 1947 के अंत तक देश में रहे। जब कांग्रेस ने उन पर और पंजाब बाउंड्री फोर्स पर पाकिस्तान का पक्ष लेने का आरोप लगाया तो आचिनलेक तथा जनरल रीस ने त्यागपत्र दे दिये। आचिनलेक के जाने के कुछ दिनों बाद लार्ड इस्मे भी चला गया। लार्ड माउण्टबेटन मई 1948 तक भारत के गवर्नर जनरल के पद पर कार्य करते रहे। जून 1948 में उन्होंने फिर से ब्रिटिश नौसेना में अपना कार्य संभाल लिया।

अध्याय – 92 : भारत विभाजन के बाद साम्प्रदायिक उन्माद

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लॉर्ड माउण्टबेटन ने रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट 15 अगस्त के बाद प्रकाशित करने का निर्णय लिया था। जिस समय रैडक्लिफ की रिपोर्ट प्रकाशित हुई उस समय भारत से ब्रिटिश सेना लगभग जा चुकी थी। इस कारण जब रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित होने के पश्चात् पंजाब में सांप्रदायिक उन्माद भड़क उठा तो उसे रोकने वाला कोई नहीं था। पंजाब बाउंड्री फोर्स के सैनिक अपना कर्त्तव्य भूलकर अपने संप्रदाय के लोगों के साथ हो गये।

रैडक्लिफ द्वारा खींची गयी रेखा ने पचास लाख हिन्दुओं और सिखों को पाकिस्तानी पंजाब में छोड़ दिया जबकि भारतीय पंजाब में पचास लाख मुसलमान छूट गये थे। इस कारण लाखों मुस्लिम भारत से पाकिस्तान गये तथा लाखों हिन्दू पाकिस्तान से भारत आये। माइकल ब्रीचर ने इसकी संख्या बताते हुए लिखा है- ‘अफवाह, भय तथा उन्माद के कारण लगभग 12 मिलियन (एक करोड़ बीस लाख) लोगों की अदला बदली हुई जिनमें से आधे हिन्दू तथा आधे मुसलमान थे। एक साल समाप्त होने से पूर्व लगभग आधा मिलियन (पाँच लाख) लोग या तो मर गये या मार डाले गये। दिल्ली की गलियां शरणार्थियों से भर गयीं। इन शरणार्थियों ने दिल्ली में रहने वाले मुसलमानों पर हमले किये जिनसे कानून व्यवस्था भंग हो गयी।’

मोसले ने लिखा है- ‘इस अदला बदली में छः लाख लोग मारे गये, एक करोड़ चालीस लाख लोग घरों से निकाले गये तथा एक लाख जवान लड़कियों का अपहरण हुआ या जबर्दस्ती उनका अपहरण हुआ या उनको नीलाम किया गया। बच्चों की टांगों को पकड़ कर दीवारों पर पटक दिया गया, लड़कियों के साथ बलात्कार हुआ और उनकी छातियां काट दी गयीं। गर्भवती औरतों के पेट चीर दिये गये।’

लैरी कांलिंस व दॉमिनिक लैपियर ने लिखा है- ‘केवल तीन माह की अवधि में एक करोड़ पाँच लाख लोग बेघरबार हो गये।’

 खुशवंतसिंह ने अपनी पुस्तक ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ की भूमिका में देश की आजादी की तिथि की घोषणा के बाद हिन्दु-मुस्लिम सांप्रदायिक तनाव के पूर्व से पश्चिम में खिसक आने का उल्लेख करते हुए लिखा है- ‘कलकत्ते से बढ़कर दंगे उत्तर, पूर्व और पश्चिम की ओर फैलने लगे। पूर्वी बंगाल में नोआखाली तक, जहाँ मुसलमानों ने हिंदुओं का कत्ल किया और इधर बिहार तक जहाँ हिंदुओं ने मुसलमानों का। मुल्ले; पंजाब, सरहदी सूबों तथा बिहार में मारे गये मुसलमानों की खोपड़ियां संदूकों में भर-भर कर घूमने लगे। सदियों से देश के उत्तर-पश्चिमी सरहदी इलाकों में रहते आ रहे हिंदू और सिख अपना घर-बार छोड़कर सुरक्षा के लिये पूरब की तरफ (हिंदू और सिखों की बहुतायत वाले इलाकों की तरफ) भागने लगे। कोई पैदल ही चल पड़े, कोई बैलगाड़ियों में, कोई ठसाठस भरी लारियों में लदे, तो कोई रेलगाड़ियों से लटके या उनकी छतों पर पटे। रास्तों में उनकी मुठभेड़ें वैसे ही त्रस्त मुसलमानों से हुई जो सुरक्षा के लिये पश्चिम की तरफ भाग रहे थे। दंगे भगदड़ में बदल गये थे। 1947 की गर्मियों तक जबकि पाकिस्तान के नये राज्य के निर्माण की विधिवत् घोषणा की जा चुकी थी, लगभग एक करोड़ हिंदू, मुसलमान और सिख इसी भगदड़ में फँसे थे। मानसून के आगमन तक दस लाख के करीब लोग मारे जा चुके थे। पूरे उत्तरी भारत में हथियार तने हुए थे, लोग भय-त्रस्त थे और लुक छिप रहे थे।’

भारत के पूर्व विदेश सचिव जे. एन. दीक्षित ने लिखा है- ‘वास्तव में यह बहुत आश्चर्य जनक होता यदि इतने वर्षों से मुस्लिम लीग द्वारा भारतीय मुसलमानों को पढ़ाये जा रहे नफरत के सबक के बाद ये दंगे और उनके साथ आतंक और विनाश उत्पन्न न हुए होते।’

न्यायाधीश जी. डी. खोसला ने जनसंख्या की अदला बदली के दौरान मरने वाले लोगों के बारे में पाँच लाख का आंकड़ा बताया है। इंगलैण्ड के दो प्रमुख इतिहासकारों पेण्डरल मून और एच. वी. हडसन ने क्रमशः दो लाख और ढाई लाख मौतें होने का अनुमान लगाया है। जहाँ कुल मिलाकर एक लाख पाँच हजार लोगों की अदला बदली हुई वहीं बंगाल की सीमा पर कुल दस लाख लोगों की ही अदला बदली हुई। जे. एन. दीक्षित के अनुसार अक्टूबर 1948 में पूर्वी पाकिस्तान से पंद्रह लाख हिंदू अप्रवासी आये। यहाँ तक कि सरदार पटेल को यह धमकी देनी पड़ी कि यदि पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी बंगाल से हिंदुओं के प्रस्थान को नहीं रोका तो भारत सरकार हिंदू अप्रवासियों की पुनर्व्यवस्था के लिये पूर्वी बंगाल से आनुपातिक क्षेत्र का दावा कर सकती है।

मोसले ने लिखा है- ‘हिन्दुस्तान की आजादी के प्रारंभिक दिनों में ही लगभग साढ़े सात लाख पंजाबियों ने एक दूसरे का कत्ल किया। दंगों के उस माहौल में शायद ही किसी अँग्रेज को कुछ भुगतना पड़ा हो। वे अपने क्लबों में उसी तरह शराब पी रहे थे, संगीत की धुनों पर भी उसी तरह नाच रहे थे।’

पंजाब बाउंड्री फोर्स हिंसा को बड़े पैमाने पर घटित होने से नहीं रोक सकी। लैरी कांलिंस व दॉमिनिक लैपियर ने लिखा है- ‘पंजाब के दंगे चाहे कितने भी प्रचण्ड रहे किंतु उन्होंने कुल मिलाकर भारत की संपूर्ण आबादी के केवल दसवें हिस्से को प्रभावित किया और वे पंजाब के अतिरिक्त किसी और अन्य प्रांत में नहीं फैल सके।’

मोसले ने लिखा है- ‘यदि रैडक्लिफ रिपोर्ट आजादी से पहले प्रकाशित हो जाती तथा नेहरू, जिन्ना और जनरल रीस को इसकी सूचना पहले दे दी जाती कि कौनसा हिस्सा कहाँ जा रहा है तो फौज की तैनाती अधिक व्यवस्थित तरीके से की जा सकती थी। माउण्टबेटन ने रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। खुद अपने कलेजे से चिपकाये रहा। स्वतंत्रता दिवस तो खुशी-खुशी बीत गया किंतु इससे लाखों लोगों का सर्वस्व चला गया।’

माईकल एडवर्ड्स ने लिखा है- ‘माउण्टबेटन भारत में सांप्रदायिक स्थिति से निबटने में पूरी तरह असक्षम रहा। उसने जितना समय दोनों उपनिवेशों के ध्वज तैयार करने तथा भारतीय नेताओं के नाम के आगे स्क्वायर लगाने या न लगाने जैसे मसलों पर व्यर्थ किया, उतना समय देश की वास्तवकि समस्याओं पर व्यय नहीं किया गया।’

मोसले ने पाकिस्तान में हुए सिक्खों के नरसंहार के लिये पश्चिमी पंजाब के गवर्नर सर फ्रांसिस मुडी पर खुला आरोप लगाया है। मुडी ने जिन्ना को एक पत्र लिखकर सूचित किया कि मैं तो सभी से यह कहता रहा हूँ कि सिक्ख पाकिस्तान के बाहर किस तरह जाते हैं इसकी मुझे परवाह नहीं। बड़ी बात है उनसे छुटकारा पा जाना।

जब देश आजाद हुआ तो सांप्रदायिक हिंसा अपने चरम पर थी। गांधीजी ने इस आग को बुझाने के लिये पाकिस्तान और मुसलमानों की जिन मांगों को मानने के लिये भारत सरकार पर दबाव डाला, उसे कई लोगों ने तुष्टिकरण की नीति माना।

अध्याय – 93 : स्वतंत्र भारत में देशी रियासतों के विलय का प्रश्न

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स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में गवर्नरों द्वारा शासित 11 ब्रिटिश प्रांत, चीफ कमिश्नरों द्वारा शासित 6 ब्रिटिश प्रांत एवं 567 देशी राज्य थे। ब्रिटिश प्रांत भारत सरकार द्वारा प्रत्यक्षतः शासित होते थे जबकि देशी राज्यों के साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अधीनस्थ सहायता की संधियाँ करके उनका वास्तविक शासन हड़प लिया था। 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम से पहले ब्रिटेन में यह मांग उठती रहती थी कि भारत के देशी राज्यों को समाप्त कर दिया जाये किंतु किसी तरह ये राज्य चलते रहे। जब 1857 ई. के स्वतंत्रता आंदोलन में देशी राजाओं ने अँग्रेजों तथा उनके शासन की रक्षा की तो अँग्रेजों को देशी राज्यों का महत्त्व अच्छी तरह समझ में आ गया तथा उन्होंने देशी राज्यों को बनाये रखकर अपने चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण कर लिया। 1919 ई. में जब भारत में रोलट एक्ट का व्यापक विरोध हुआ तो भारत सरकार ने कांग्रेस का मुकाबला करने के लिये देशी राजाओं का एक मंच खड़ा किया जिसे नरेन्द्र मण्डल (चैम्बर और प्रिसेंज) कहा जाता था। उसके बाद से राजा लोग भारत सरकार के समक्ष अपनी समस्याएं इसी मंच के माध्यम से रखते आ रहे थे। साइमन कमीशन (1927 ई.) की रिपोर्ट (1930 ई.) के बाद, भारत सरकार लगातार यह प्रयास करती रही थी कि देशी राज्यों को एक संघ के नीचे लाया जाये जिसमें ब्रिटिश प्रांत भी हों। राजा लोगों ने प्रारम्भ में तो संघ में आने की इच्छा व्यक्त की किंतु बाद में वे पलट गये। वे नहीं चाहते थे कि भारत संघ बने और न ही यह चाहते थे कि भारत स्वतंत्र हो क्योंकि अधिकांश देशी राजा, ब्रिटिश परमोच्चता को देशी राज्यों के लिये रक्षा कवच मानते थे। उनका मानना था कि कांग्रेस देशी राज्यों को नष्ट कर देगी।

कांग्रेस और देशी राजाओं में मतभेद

जब देश की स्वतंत्रता की तिथि निकट आ गई तो कांग्रेस ने घोषणा की कि जब देश स्वतंत्र होगा तो देशी राज्यों का नियंत्रण स्वतः भारत सरकार को स्थानांतरित हो जायेगा किंतु देशी राज्यों का कहना था कि वे भारत सरकार के नियंत्रण में नहीं हैं और न ही भारत सरकार से किसी तरह की संधि से बंधे हुए हैं, उन्होंने अपने राज्यों की संधियाँ ब्रिटिश ताज के साथ की थीं। अतः जब इंग्लैण्ड की सरकार इस देश को छोड़कर जायेगी तो देशी राज्य अधीनस्थ सहायता की संधियों से मुक्त होकर, पहले की स्थिति में आ जायेंगे जिससे ब्रिटिश ताज की परमोच्चता समाप्त हो जायेगी तथा यह परमोच्चता किसी नई बनने वाली सरकार को नहीं दी जायेगी।

प्रधानमंत्री एटली की घोषणा

कैबीनेट मिशन की असफलता के बाद जब भारतीय सेनाओं में विद्रोह हो गया तो 20 फरवरी 1947 को प्रधानमंत्री एटली ने घोषणा की कि 20 जून 1948 तक भारत को स्वतंत्र कर दिया जायेगा। उस घोषणा में देशी राज्यों के सम्बन्ध में केवल इतना कहा गया कि महामाना सम्राट की सरकार की यह मंशा नहीं है कि परमोच्चता के अधीन राज्यों की शक्तियां तथा दायित्व ब्रिटिश भारत में किसी अन्य सरकार को सौंपी जायें। यह मंशा भी नहीं है कि परमोच्चता को सत्ता के अंतिम हस्तांतरण की तिथि तक बनाये रखा जाये। अंतरिम काल के लिये राज्यों के साथ ब्रिटिश ताज के सम्बन्ध किसी अन्य समझौते द्वारा समायोजित किये जा सकते हैं।

देशी राज्यों के शासकों की प्रतिक्रिया

प्रधानमंत्री एटली के वक्तव्य का राजाओं द्वारा एक स्वर से स्वागत किया गया। नवाब भोपाल ने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि जब अँग्रेज चले जायेंगे तो परमोच्चता समाप्त हो जायेगी तथा राज्य स्वतंत्र हो जायेंगे। सर सी. पी. रामास्वामी का मानना था कि प्रधानमंत्री एटली के इस वक्तव्य के अनुसार सत्ता के अंतिम हस्तांतरण के बाद राज्य स्वतंत्र राजनीतिक इकाईयां बन जायेंगे जो कि नयी सरकार के साथ वार्ताओं के माध्यम से व्यवस्थाएं करंेगे तथा नवीन भारतीय व्यवस्था में अपनी स्थिति को प्राप्त करेंगे। सर सी. पी. रामास्वामी ने एक प्रेस वार्ता में दावा किया कि एटली के बयान ने कैबिनेट मिशन योजना को आच्छादित (सुपरसीड) कर लिया है तथा उसने राज्यों को खुला छोड़ दिया है ताकि राज्य तत्काल ही अपने आंतरिक एवं बाह्य मामालों को इस प्रकार मान्यता दें कि भारत सरकार से बराबर के स्तर पर वार्ता करने के लिये 10 या 12 से अधिक इकाईयां न हों।

रजवाड़ों की स्थिति पर विचार

पं. जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि भारतीय रियासतें केवल मध्यकालीन सामंतवाद के ऐतिहासिक चिह्न हैं। इनकी वर्तमान परिस्थिति से संगति नहीं होती। समाज और राजनीति की वर्तमान स्थिति में इनका कोई स्थान नहीं है। कांग्रेस द्वारा रजवाड़ों की स्थिति को लेकर कई तरह के प्रस्तावों पर विचार किया गया। उनमें से एक यह भी था कि ब्रिटिश सरकार सत्ता के हस्तांतरण के बाद भी कुछ निश्चित रियासतों पर अपनी परमसत्ता बनाये रखे। ऐसा करना असंभव प्रायः ही था। ऐसा करने से यही प्रतीत होता कि ब्रिटेन भारत में अपनी टांग अड़ाये रखना चाहता है तथा ऐसा करके वह एक कमजोर एवं खण्ड-खण्ड भारत का निर्माण करना चाहता है। ऐसी स्थिति में यह भी संभव था कि आगे चलकर ब्रिटिश संरक्षित रजवाड़ों तथा भारत एवं पाकिस्तान की सरकारों के मध्य युद्ध हों।

ब्रिटिश सरकार इतना ही कर सकती थी कि रजवाड़ों को मजबूत बनाये ताकि जब उत्तराधिकारी सरकार के साथ रजवाड़ों के समझौते हों तो रजवाड़े अपने लिये अधिक से अधिक सुविधायें ले सकें। ऐसा करने के लिये भी केवल एक ही उपाय दिखाई पड़ता था कि रजवाड़ों पर से परमसत्ता को समाप्त कर दिया जाये उसे किसी अन्य सरकार को नहीं सौंपा जाये।

माईकल एडवर्ड्स ने लिखा है कि जब स्वतंत्रता पर विचार-विमर्श चल रहे थे, तब ब्रिटिश शासकों के पास इस बात पर विस्तार से विचार करने के लिये वास्तव में कोई समय नहीं था कि जब सत्ता का अंतिम रूप से स्थानांतरण हो जाये तब राजाओं को किस तरह से कार्य करना चाहिये। पूरी ब्रिटिश सरकार इस बात पर सुस्पष्ट थी कि देशी रजवाड़ों पर से परमसत्ता का हस्तांतरण किसी अन्य सरकार को नहीं किया जाये क्योंकि 1946 ई. में कैबिनेट मिशन यह आशा एवं अपेक्षा प्रकट कर चुका था कि सभी रियासतें प्रस्तावित भारत संघ के साथ मिल जायेंगी।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947

4 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम 1947 पारित कर दिया। इस अधिनियम की धारा 8 में प्रावधान किया गया कि 15 अगस्त 1947 को देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता समाप्त हो जायेगी तथा यह पुनः देशी राज्यों को हस्तांतरित कर दी जायेगी। इस कारण देशी राज्य अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित होने अथवा पृथक अस्तित्व बनाये रखने के लिये स्वतंत्र हो जायेंगे।

स्वतन्त्रता के समय देशी राज्यों की स्थिति

स्वतन्त्रता के समय भारत में छोटी बड़ी 566 देशी रियासतें थीं। समस्त भारत का 40 प्रतिशत क्षेत्रफल और 25 प्रतिशत जनसंख्या इन राज्यों में निवास करती थी। जनसंख्या, क्षेत्रफल और वित्तीय संसाधनों की दृष्टि से इन राज्यों में भारी असमानता थी। प्रस्तावित पाकिस्तान की सीमा में पड़ने वाली 12 रियासतों पर मुस्लिम नवाबों और खानों का शासन था तथा वहाँ की बहुसंख्य जनसंख्या भी मुसलमान थी। जबकि भारतीय क्षेत्र में रह जाने वाली 554 रियासतों में से हैदराबाद, जूनागढ़, भोपाल तथा टोंक आदि कुछ रियासतों पर ही मुसलमान शासकों का शासन था किंतु वहां की बहुसंख्य जनसंख्या हिन्दू थी। जम्मू-काश्मीर अकेली ऐसी रियासत थी जिस पर हिन्दू शासक का शासन था और वहाँ की बहुसंख्य जनसंख्या मुसलमान थी। शेष समस्त रियासतों पर हिन्दू शासकों का शासन था और वहाँ की बहुसंख्य जनसंख्या भी हिन्दू थी। देशी राज्यों में जनता के अधिकार निश्चित नहीं थे। 1936 ई. के पश्चात् कुछ राज्यों में प्रजामण्डल आंदोलन हुए परन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। प्रत्येक देशी राज्य में एक ब्रिटिश रेजींडेट अथवा पोलिटिकल अधिकारी नियुक्त रहता था जिसके माध्यम से वायसराय, देशी राज्यों पर अपना शासन आरोपित करता था।

अँग्रेज रेजीडेंटों की बैठक

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की धारा 8 में किये गये प्रावधानों के अनुसार देशी रियासतों से परमोच्चता हटाने एवं उन्हें स्वतंत्र करने हेतु आवश्यक तैयारियों के सम्बन्ध में भारत सरकार के राजनीतिक विभाग ने अँग्रेज रेजीडेंटों की एक बैठक दिल्ली में बुलाई। इस बैठक में हुए विचार-विमर्श के आधार पर 10 बिंदु तैयार किये गये जिन पर सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड लिस्टोवल से विचार विमर्श करना आवश्य समझा गया। ये बिंदु परमोच्चता की समाप्ति, पोलिटिकल अधिकारियों तथा उनके स्टाफ की निकासी, रेजीडेंसियों के हस्तांतरण, दस्तावेजों के निरस्तारण, नई बनने वाली औपनिवेशिक सरकारों से सम्पर्क बनाने हेतु किये जाने वाले अंतरिम प्रबन्ध, रेलवे, डाक सेवा, टेलिग्राफ सेवा तथा मुद्रा आदि के सम्बन्ध में स्टैण्ड स्टिल एग्रीमेंट्स से सम्बन्धित थे। नीति विषयक प्रश्न पहले से ही कैबिनेट मिशन द्वारा निर्धारित कर दिया गया था जो कि योजना में जोड़ा जाना था।

देशी राज्यों की मंशा

देशी राज्य किसी भी कीमत पर भारत संघ अथवा किसी अन्य प्रकार के संघ में प्रवेश के इच्छुक नहीं थे। वे अपने स्वतंत्र राज्य उसी प्रकार बने रहने देना चाहते थे जिस प्रकार ब्रिटिश छत्रछाया में जाने से पहले थे ताकि उन्हें अपनी रियासतों के राजस्व पर पूरा अधिकार हो। वे अपनी मर्जी से अपने पड़ौंसियों से युद्ध अथवा मित्रता कर सकें और अपनी प्रजा को उसके अपराधों के लिये मृत्युदण्ड अथवा क्षमादान देते रहें। छोटे राज्यों के पास भारत संघ में मिल जाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था किंतु बड़े एवं सक्षम राज्यों की स्थित अलग थी। त्रावणकोर, हैदराबाद, जम्मू एवं कश्मीर, मैसूर, इन्दौर, भोपाल, नवानगर यहाँ तक कि बिलासपुर की बौनी रियासत ने भी पूर्णतः स्वतंत्र रहने का स्वप्न देखा। अलवर नरेश ने 3 अप्रेल 1947 को बम्बई में आयोजित नरेन्द्र मंडल की बैठक में कहा कि देशी राज्यों के अधिपतियों को हिंदी संघ राज्य में नहीं मिलना चाहिये। 5 जून 1947 को भोपाल तथा त्रावणकोर ने स्वतंत्र रहने के निर्णय की घोषणा की। हैदराबाद को भी यही उचित जान पड़ा। जम्मू एवं कश्मीर, इन्दौर, जोधपुर, धौलपुर, भरतपुर तथा कुछ अन्य राज्यों के समूह के द्वारा भी ऐसी ही घोषणा किये जाने की संभावना थी। इस प्रकार देशी रियासतों के शासकों की महत्वाकांक्षायें देश की अखण्डता के लिये खतरा बन गयीं।

मद्रास के तत्कालीन गवर्नर तथा बाद में स्वतंत्र भारत में ब्रिटेन के प्रथम हाई कमिश्नर सर आर्चिबाल्ड नेई को रजवाड़ों के साथ किसी प्रकार की संधि होने में संदेह था। माउण्टबेटन ने सरदार पटेल से कहा कि यदि राजाओं से उनकी पदवियां न छीनी जायें, महल उन्हीं के पास बने रहें, उन्हें गिरफ्तारी से मुक्त रखा जाये, प्रिवीपर्स की सुविधा जारी रहे तथा अँग्रेजों द्वारा दिये गये किसी भी सम्मान को स्वीकारने से न रोका जाये तो वायसराय, राजाओं को इस बात पर राजी कर लेंगे कि वे अपने राज्यों को भारतीय संघ में विलीन करें और स्वतंत्र होने का विचार त्याग दें। पटेल ने माउण्टबेटन के सामने शर्त रखी कि वे माउण्टबेटन की शर्त को स्वीकार कर लेंगे यदि माउण्टबेटन सारे रजवाड़ों को भारत की झोली में डाल दें। तेजबहादुर सप्रू का कहना था कि मुझे उन राज्यों पर, चाहे वे छोटे हों अथवा बड़े, आश्चर्य होता है कि वे इतने मूर्ख हैं कि वे समझते हैं कि वे इस तरह से स्वतंत्र हो जायेंगे और फिर अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखेंगे। दुर्दिन के मसीहाओं ने भविष्यवाणी की थी कि हिंदुस्तान की आजादी की नाव रजवाड़ों की चट्टान से टकरायेगी।

अध्याय – 94 : देशी राज्यों के भारत में विलय पर जिन्ना का षड़यंत्र

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भारत विभाजन का निर्णय हिंदू-मुस्लिम जनसंख्या की बहुलता के क्षेत्रों के आधार पर किया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में अधिकांश राज्य, हिंदू राज्य थे। फिर भी मुहम्मद अली जिन्ना ने प्रयत्न किया कि वह भारत की अधिकतम रियासतों को प्रस्तावित पाकिस्तान में मिलने के लिये सहमत करे ताकि एक कटे-फटे तथा छिद्रयुक्त कमजोर भारत का निर्माण हो। उसकी योजना थी कि यदि रियासतें पाकिस्तान में मिलने की घोषणा न करें तो, स्वतंत्र रहने की ही घोषणा कर दें। जिन्ना ने अपना ध्यान मुसिलम शासकों द्वारा शासित बड़ी रियासतों एवं पाकिस्तान की सीमा से सटी हुई हिन्दू रियासतों पर केन्द्रित किया। भोपाल नवाब हमीदुल्ला खां जिन्ना की इस योजना में सम्मिलित हो गया।

एक ओर कांग्रेस देशी राज्यों के प्रति कठोर नीति का प्रदर्शन कर रही थी तो दूसरी ओर मुस्लिम लीग ने देशी राज्यों के साथ बड़ा ही मुलायम रवैया अपनाया। मुस्लिम लीग के लिये ऐसा करना सुविधाजनक था क्योंकि प्रस्तावित पाकिस्तान की सीमा में देशी राज्यों की संख्या 12 थी। शेष 554 रियासतें प्रस्तावित भारत संघ की सीमा के भीतर स्थित थीं। जिन्ना, हिन्दू राजाओं के गले में यह बात उतारना चाहता था कि कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा देशी राजाओं की साझा शत्रु है। जिन्ना ने लुभावने प्रस्ताव देकर राजपूताना की रियासतों को पाकिस्तान में सम्मिलित करने का प्रयास किया। उसने घोषित किया कि देशी राज्यों में मुस्लिम लीग बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं करेगी और यदि देशी राज्य स्वतंत्र रहें तो भी मुस्लिम लीग की ओर से उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ नहीं दी जायेगी। लीग की ओर से राजस्थान के राजाओं में गुप्त प्रचार किया गया कि उन्हें पाकिस्तान में मिलना चाहिये, हिंदी संघ राज्य में नहीं।

निजाम हैदराबाद के प्रति माउण्टबेटन का रवैया अत्यंत नरम था। जिन्ना ने वायसराय के राजनीतिक सविच कोनार्ड कोरफील्ड और भोपाल नवाब हमीदुल्लाखां का उपयोग भारत को कमजोर करने में किया। त्रावणकोर के महाराजा ने 11 जून 1947 को एक व्यापारी दल अपने यहाँ से पाकिस्तान भेजना स्वीकार कर लिया। महाराजा जोधपुर और बहुत सी छोटी रियासतों के शासक बड़े ध्यान से यह देख रहे थे कि बड़ी रियासतों के विद्रोह का क्या परिणाम निकलता है, उसी के अनुसार वे आगे की कार्यवाही करना चाहते थे। महाराजा बड़ौदा ने अपने हाथ से सरदार पटेल को लिखा- ‘जब तक उनको भारत का राजा नहीं बनाया जाता और भारत सरकार उनकी समस्त मांगें नहीं मान लेती तब तक वे कोई सहयोग नहीं देंगे और न ही जूनागढ़ के नवाब की बगावत दबाने में सहयोग देंगे।’

इस पर भारत सरकार ने महाराजा प्रतापसिंह की मान्यता समाप्त करके उनके पुत्र फतहसिंह को बड़ौदा का महाराजा बना दिया। भारत सरकार का कठोर रवैया देखकर अधिकांश राजा विनम्र देश-सेवकों जैसा व्यवहार करने लगे। जो राज्य संघ उन्होंने रियासतों का विलय न होने देने के लिये बनाया था, उसे भंग कर दिया गया। उन्होंने समझ लिया कि अब भारत सरकार से मिल जाने और उसका संरक्षण प्राप्त करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। वे यह भी सोचने लगे कि शासक बने रह कर विद्रोही प्रजा की इच्छा पर जीने के बजाय भारत सरकार की छत्रछाया में रहना कहीं अधिक उपयुक्त होगा, फिर भी जिन्ना तथा उसके साथियों का षड़यंत्र जारी रहा

भोपाल नवाब का षड़यंत्र

भोपाल नवाब हमीदुल्ला खाँ तीसरे मोर्चे का नेता था। वह छिपे तौर पर मुस्लिम परस्त, पाकिस्तान परस्त तथा कांग्रेस विरोधी के रूप में काम कर रहा था किंतु जब देश का विभाजन होना निश्चित हो गया तो वह प्रत्यक्षतः मुस्लिम लीग के समर्थन में चला गया तथा जिन्ना का निकट सलाहकार बन गया। वह जिन्ना की उस योजना में सम्मिलित हो गया जिसके तहत राजाओं को अधिक से अधिक संख्या में या तो पाकिस्तान में मिलने के लिये प्रोत्साहित करना था या फिर उनसे यह घोषणा करवानी थी कि वे अपने राज्य को स्वतंत्र रखेंगे। भोपाल नवाब चाहता था कि भोपाल से लेकर कराची तक के मार्ग में आने वाले राज्यों का एक समूह बने जो पाकिस्तान में मिल जाये। इसलिये उसने जिन्ना की सहमति से एक योजना बनायी कि बड़ौदा, इंदौर, भोपाल, उदयपुर, जोधपुर और जैसलमेर राज्य, पाकिस्तान का अंग बन जायें। इस योजना में उदयपुर और बड़ौदा की ओर से बाधा उपस्थित हो सकती थी किंतु महाराजा जोधपुर ने उक्त रियासतों से सहमति प्राप्त करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली।  इस प्रकार भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का एक मानचित्र तैयार हो गया। भोपाल नवाब की गतिविधियों को देखकर रियासती मंत्रालय के तत्कालीन सचिव ए. एस. पई ने रियासती विभाग के मंत्री सरदार पटेल को एक नोटशीट भिजवायी- ‘भोपाल नवाब, जिन्ना के दलाल की तरह काम कर रहा है।’

धौलपुर के राजराणा षड़यंत्र में सम्मिलित

हमीदुल्ला खाँ ने धौलपुर महाराजराणा उदयभानसिंह को भी इस योजना में सम्मिलित कर लिया। उदयभानसिंह जाटों की प्रमुख रियासत के बहुपठित, बुद्धिमान एवं कुशल राजा माने जाते थे किंतु वे किसी भी कीमत पर धौलपुर को भारत संघ में मिलाने को तैयार नहीं थे। जिन्ना के संकेत पर नवाब तथा महाराजराणा ने जोधपुर, जैसलमेर, उदयपुर तथा जयपुर आदि रियासतों के राजाओं से बात की तथा उन्हें जिन्ना से मिलने के लिये आमंत्रित किया। नवाब का साथ देने वाले हिंदू राजाओं में अलवर महाराजा तेजसिंह भी थे।

कोरफील्ड के दुष्प्रयास

माउण्टबेटन के राजनीतिक सलाहकार कोनार्ड कोरफील्ड ने ब्रिटिश रेजीडेंटों और पॉलिटिकल एजेंटों के माध्यम से राजाओं को भारतीय संघ से पृथक रहने के लिये प्रेरित किया। वह चाहता था कि कम से कम दो-तीन राज्य जिनमें हैदराबाद प्रमुख था, कांग्रेस के चंगुल से बच जायें। बाकी रजवाड़ों का भी भारत में सम्मिलित होना जितना मुश्किल हो सके, बना दिया जाये। कोरफील्ड ने रजवाड़ों के बीच घूम-घूम कर प्रचार किया कि उनके सामने दो नहीं तीन रास्ते हैं, वे दोनों उपनिवेशों में से किसी एक में सम्मिलित हो सकते हैं अथवा स्वतंत्र भी रह सकते हैं। कोरफील्ड के प्रयासों से त्रावणकोर तथा हैदराबाद ने घोषणा कर दी कि वे किसी भी उपनिवेश में सम्मिलित नहीं होंगे अपितु स्वतंत्र देश के रूप में रहेंगे।

सरदार पटेल और देशी राज्य

5 जुलाई 1947 को भारत की अन्तरिम सरकार के गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में रियासती विभाग की स्थापना की गई और उन्हें भारत की ओर से देशी नरेशों से वार्त्ता करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया।  हमीदुल्ला खाँ, कोरफील्ड तथा रामास्वामी अय्यर की योजना से निबटने तथा स्वतंत्र हुई रियासतों को भारत संघ में घेरने के लिये पटेल अकेले ही भारी थे। वी. पी. मेनन को पटेल का सलाहकार व सचिव नियुक्त किया गया। वे एकमात्र ऐसे अधिकारी थे जो देशी राज्यों की जटिल समस्या को सुलझा सकते थे। पटेल का जोरदार व्यक्तित्व और मेनन के लचीले दिमाग का संयोग इस मौके पर और भी अधिक प्रभावी सिद्ध हुआ। नेपथ्य में मंजे हुए राजनीतिज्ञ जैसे सरदार के. एम. पन्निकर, वी. टी. कृष्णामाचारी तथा भारतीय रियासतों के प्रतिष्ठित मंत्री और भारतीय सिविल सेवा के वरिष्ठ अधिकारी जैसे सी. एस. वेंकटाचार, एम. के. वेल्लोदी, वी. शंकर, पण्डित हरी शर्मा आदि अनुभवी लोग कार्य कर रहे थे। पटेल को माउन्टबेटन, चेम्बर ऑफ प्रिन्सेज के नये चान्सलर महाराजा पटियाला तथा बीकानेर नरेश सादुलसिंह से भी महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला।

सरदार पटेल ने मेनन से कहा कि पाकिस्तान इस विचार के साथ कार्य कर रहा है कि सीमावर्ती कुछ राज्यों को अपने साथ मिला ले। स्थिति इतनी खतरनाक संभावनाएं लिये हुए है कि जो स्वतंत्रता हमने बड़ी कठिनाईयों को झेलने के पश्चात् प्राप्त की है वह राज्यों के दरवाजे से विलुप्त हो सकती है। आजादी की तिथि में पाँच सप्ताह शेष रह गये थे। एक ओर कोरफील्ड अँग्रेजों की सत्ता समाप्ति से पहले रजवाड़ों से केंद्रीय सत्ता का विलोपन करने के काम में लगा हुआ था जिससे एक-एक करके सारी व्यवस्थायें रद्द होती जा रही थीं। दूसरी ओर सरदार इस उधेड़-बुन में थे कि 15 अगस्त से पहले राजाओं की प्रत्येक व्यवस्था, जिन्हें अँग्रेजों ने रद्द करना आरम्भ कर दिया था, जैसे सेना, डाक आदि को बनाये रखने के सम्बन्ध में कैसे बात की जाये?

5 जुलाई 1947 को पटेल ने राजाओं से अपील की कि वे 15 अगस्त 1947 से पूर्व, भारत संघ में सम्मिलित हो जायें। सरदार पटेल ने भारतीय नरेशों से अपील की कि भारत के सामूहिक हितों को ध्यान में रखते हुए वे देश की अखण्डता को बनाये रखने में सहयोग करें। उन्होंने तीन मुख्य विषयों- प्रतिरक्षा, वैदेशिक सम्बन्ध और संचार व्यवस्था के सम्बन्ध में ही राज्यों को भारतीय संघ में सम्मिलित होने का आग्रह किया जिसकी स्वीकृति उन्होंने पूर्व में कैबिनेट मिशन योजना के समय दे दी थी। उन्होंने नरेशों को विश्वास दिलाया कि कांग्रेस, राज्यों के आन्तरिक मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी। राज्यों के साथ व्यवहार में रियासती विभाग की नीति अधिकार की नहीं होगी। कांग्रेस राजाओं के विरुद्ध नहीं रही है। देशी नरेशों ने सदैव देशभक्ति व लोक कल्याण के प्रति अपनी आस्था प्रकट की है। पटेल ने राजाओं को चेतावनी भी दी कि यदि कोई नरेश यह सोचता हो कि ब्रिटिश परमोच्चता उसको हस्तांतरित कर दी जायेगी तो यह उसकी भूल होगी। परमोच्चता तो जनता में निहित है। एक प्रकार से यह घोषणा, राजाओं को समान अस्तित्व के आधार पर भारत में सम्मिलित हो जाने का निमंत्रण था। सरदार के शब्दों में यह प्रस्ताव, रजवाड़ों द्वारा पूर्व में ब्रिटिश सरकार के साथ की गयी अधीनस्थ संधि से बेहतर था।

इस प्रकार पटेल व मेनन द्वारा देशी राजाओं को घेर कर भारत संघ में विलय के लिये पहला पांसा फैंका गया। बीकानेर नरेश सादूलसिंह ने सरदार पटेल की इस घोषणा का तुरंत स्वागत किया और अपने बंधु राजाओं से अनुरोध किया कि वे इस प्रकार आगे बढ़ाये गये मित्रता के हाथ को थाम लें और कांग्रेस को पूरा समर्थन दें ताकि भारत अपने लक्ष्य को शीघ्रता से प्राप्त कर सके किंतु अधिकांश राजाओं का मानना था कि उन्हें पटेल की बजाय कोरफील्ड की बात सुननी चाहिये।

भारत संघ में विलय की प्रक्रिया

भारत सरकार द्वारा देशी राज्यों के भारतीय संघ में सम्मिलित होने के लिए एक प्रक्रिया निर्धारित की गई। रियासती विभाग ने देशी राज्यों के भारत अथवा पाकिस्तान में प्रवेश के लिये दो प्रकार के प्रपत्र तैयार करवाये- प्रविष्ठ संलेख (इन्स्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) तथा यथास्थिति समझौता पत्र (स्टैण्डस्टिल एग्रीमेंट)। प्रविष्ठ संलेख एक प्रकार का मिलाप पत्र (ज्योइनिंग लैटर) था जिस पर हस्ताक्षर करके कोई भी राजा भारतीय संघ में प्रवेश कर सकता था और अपना आधिपत्य केंद्र सरकार को समर्पित कर सकता था। यह प्रविष्ठ संलेख उन बड़ी रियासतों के लिये तैयार किया गया था जिनके शासकों को पूर्ण अधिकार प्राप्त थे। इन रियासतों की संख्या 140 थी।

इन रियासतों के अतिरिक्त गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में 300 रियासतें ऐसी थीं जिन्हें जागीर (एस्टेट) अथवा तालुका कहा जाता था। इनमें से कुछ जागीरों व तालुकों को 1943 ई. में संलग्नता योजना (एटेचमेंट स्कीम) के तहत निकटवर्ती बड़े राज्यों के साथ जोड़ दिया गया था किंतु परमोच्चता की समाप्ति के साथ ही यह योजना भी समाप्त हो जानी थी। अतः इन ठिकानों एवं तालुकों के ठिकानेदारों एवं तालुकदारों ने मांग की कि उन्हें 1943 ई. वाली स्थिति में लाया जाये तथा उनकी देखभाल भारत सरकार द्वारा की जाये जैसी कि राजनीतिक विभाग द्वारा की जाती रही थी। इन ठिकानों एवं तालुकों के लिये अलग प्रविष्ठ संलेख तैयार करवाया गया। काठियावाड़, मध्य भारत तथा शिमला हिल्स में 70 से अधिक राज्य ऐसे थे जिनका पद ठिकानेदारों और तालुकदारों से बड़ा था किंतु उन्हें पूर्ण शासक का दर्जा प्राप्त नहीं था। ऐसे राज्यों के लिये अलग से प्रविष्ठ संलेख तैयार करवाया गया।

स्टैण्डस्टिल एग्रीमेण्ट, प्रशासनिक एवं आर्थिक सम्बन्धों की यथास्थिति बनाये रखने के लिये सहमति पत्र था। भारत सरकार ने निर्णय किया कि वह उसी राज्य के साथ यथास्थिति समझौता करेगी जो राज्य, प्रविष्ठ संलेख पर हस्ताक्षर करेगा। इन दोनों प्रकार के प्रपत्रों को वायसराय ने 25 जुलाई 1947 की बैठक में उन राज्यों के शासकों को दे दिया जो भारत की सीमा में पड़ने वाले थे। जिन्ना ने वायसराय से कह दिया था कि पाकिस्तान की सीमा में आने वाले राज्यों से वह स्वयं बात करेगा।

राजाओं को माउण्टबेटन की सलाह

25 जुलाई 1947 को वायसराय ने दिल्ली में नरेंद्र मण्डल का पूर्ण अधिवेशन बुलाया। माउण्टबेटन द्वारा क्राउन रिप्रजेण्टेटिव के अधिकार से बुलाया जाने वाला यह पहला और अंतिम सम्मेलन था। सम्मेलन में उपस्थित लगभग 75 बड़े राजाओं अथवा उनके प्रतिनिधियों को सम्बोधित करते हुए माउण्टबेटन ने कहा कि भारत स्वतंत्रता अधिनियम ने 15 अगस्त 1947 से भारतीय राज्यों को ब्रिटिश ताज के प्रति उनके समस्त दायित्वों से स्वतंत्र कर दिया है। राज्यों को तकनीकी एवं कानूनी रूप से पूरी सम्पूर्ण स्वतंत्रता होगी….किंतु ब्रिटिश राज के दौरान साझा हित के विषयों के सम्बन्ध में एक समन्वित प्रशासन पद्धति का विकास हुआ है जिसके कारण भारत उपमहाद्वीप ने एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य किया। वह सम्पर्क अब टूटने को है। यदि इसके स्थान पर कुछ भी नहीं रखा गया तो उसका परिणाम अस्त-व्यस्तता ही होगा। उसकी पहली चोट राज्यों पर होगी। उपनिवेश सरकार से आप उसी प्रकार नाता नहीं तोड़ सकते जिस प्रकार कि आप जनता से नाता नहीं तोड़ सकते, जिसके कल्याण के लिये आप उत्तरदायी हैं। राज्य तीन विषयों- रक्षा, विदेशी मामले और संचार पर भारत या पाकिस्तान, जो उनके लिये उपयुक्त हो, के साथ अपना विलय कर लें। राज्यों पर कोई वित्तीय जवाबदेही नहीं डाली जायेगी तथा उनकी सम्प्रभुता का अतिक्रमण नहीं किया जायेगा। उन्होंने हिन्दू बहुल क्षेत्रों के राजाओं को सलाह दी कि वे अपने राज्यों का विलय भारत में करें।

प्रविष्ठ संलेख प्रारूप को स्वीकृति

वायसराय ने एक वार्त्ता समिति का गठन किया जिसमें 10 राज्यों के शासक तथा 12 राज्यों के दीवान सम्मिलित किये गये। यह समिति दो उपसमितियों में विभक्त हो गयी। एक उपसमिति को प्रविष्ठ संलेख पर तथा दूसरी उपसमिति को यथास्थिति समझौता पत्र पर विचार विमर्श करना था। इन दोनों उपसमितियों ने 25 जुलाई से 31 जुलाई तक प्रतिदिन दिल्ली स्थित बीकानेर हाउस में अलग-अलग बैठकें कीं। लगातार छः दिन एवं रात्रियों तक परिश्रम करने के बाद दोनों दस्तावेजों को अंतिम रूप दिया जा सका। 31 जुलाई 1947 को दोनों प्रारूप स्वीकार कर लिये गये।

राजाओं के विशेषाधिकारों की संवैधानिक गारण्टी

अधिकांश राजाओं को डर था कि आजादी के बाद या तो उनकी जनता ही उनकी संपत्तियों को लूट लेगी अथवा कांग्रेस सरकार उसे जब्त कर लेगी। ब्रिटिश सत्ता आजादी के बाद किसी भी तरह राजाओं की रक्षा नहीं कर सकती थी। राजाओं को समझ में आने लगा था कि या तो अत्यंत असम्मानजनक तरीके से हमेशा के लिये मिट जाओ या फिर किसी तरह सम्मानजनक तरीके से अपनी कुछ सम्पत्ति तथा कुछ अधिकारों को बचा लो। 31 जुलाई 1947 को बीकानेर नरेश सादूलसिंह ने रियासती मंत्रालय के सचिव को एक पत्र लिखकर राजाओं के लिये विशेषाधिकारों की मांग की। रियासती मंत्रालय के सचिव ने महाराजा को लिखा कि नरेशगण व उनके परिवार जिन विशेषाधिकारों का उपयोग करते आये हैं, वह भविष्य में भी करते रहेंगे। बीकानेर महाराजा ने इस पत्र की प्रतियां बहुत से राजाओं को भिजवायीं। जोधपुर महाराजा इस पत्र से आश्वस्त नहीं हुए किंतु उन्होंने केन्द्र सरकार से किसी विशेष अधिकार की मांग नहीं की। उनका मानना था कि प्रजा के साथ पीढ़ियों पुराने व प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होने तथा अपने पूर्वजों द्वारा प्रजा की भलाई के लिये किये गये असंख्य कार्यों के कारण उन्हें प्रजा का सौहार्द मिलता रहेगा और यही उनका सबसे बड़ा विशेषाधिकार होगा।

शासकों द्वारा प्रविष्ठ संलेख पर हस्ताक्षर

सरदार पटेल की अपील, माउण्टबेटन द्वारा नरेन्द्र मण्डल में दिये गये उद्बोधन, कोरफील्ड की रवानगी, रियासतों में चल रहे जन आंदोलन तथा बीकानेर नरेश को रियासती मंत्रालय के पत्र आदि परिस्थितियों के वशीभूत होकर अधिकांश राजाओं ने भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये। बीकानेर नरेश सादूलसिंह हस्ताक्षर करने वाले प्रथम राजा थे। अधिकतर राज्यों, विशेषकर छोटे राज्यों, जिन्हें अपनी सीमाओं का पता था तथा वे ये भी जानते थे कि रोटी के किस तरफ मक्खन लगा हुआ है, स्वेच्छा से भारतीय संघ के अंतर्गत आ गये। न तो वे अर्थिक रूप से सक्षम थे और न ही उनमें आंतरिक अथवा बाह्य दबावों का विरोध करने की क्षमता थी। कई बुद्धिमान तथा यथार्थवादी राजाओं ने विरोध की व्यर्थता तथा शक्तिशाली भारत संघ की संविधान सभा की सदस्यता की सार्थकता को अनुभव किया तथा शालीनता पूर्वक भारत संघ में सम्मिलित हो गये। कुछ हंसोड़ एंव मजाकिया स्वभाव के थे वे भी संघ में धकेल दिये गये। कुछ राजा अपने घोटालों और कारनामों से डरे हुए थे, उन्हें भी बलपूर्वक संघ में धकेल दिया गया। राजनीतिक विभाग के मखमली दस्ताने युक्त हाथ, राजाओं की भुजाओं पर काम करते रहे।

कुछ रजवाड़ों ने अपना विलय स्वीकार तो किया किंतु बेहद रंजिश के साथ। मध्य भारत का एक राजा विलय के कागजात पर हस्ताक्षर करने के साथ लड़खड़ा कर गिरा और हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो गयी। बड़ौदा का महाराजा दस्तखत करने के बाद मेनन के गले में हाथ डालकर बच्चों की तरह रोया। भोपाल ने सेंट्रल इण्डियन स्टेट्स का एक फेडरेशन बनाने का प्रयास किया किंतु वह असफल हो गया। राजपूत राजाओं ने भारतीय सेना के राजपूत सिपाहियों को आकर्षित करके रजवाड़ों की सेना में सम्मिलित कर लेने की आशा की थी किंतु यह आशा फलीभूत नहीं हुई। जब त्रावणकोर ने प्रविष्ठ संलेख पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया तो स्टेट्स कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी ने महाराजा के खिलाफ आंदोलन किया। कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं की त्रावणकोर पुलिस के साथ सड़कों पर मुठभेड़ हुई। 29 जुलाई को एक अनजान हमलावर ने त्रावणकोर के दीवान सर सी. पी. रामास्वामी अय्यर को छुरा मारकर बुरी तरह घायल कर दिया। रामास्वामी के चेहरे पर गहरी चोट आयी। हमलावर भागने में सफल रहा। इस हमले ने निर्णय कर दिया। महाराजा ने वायसराय को तार दिया कि वह दस्तखत करने को तैयार है। सरदार पटेल ने स्थानीय कांग्रेस कमेटी को तुरंत प्रदर्शन बंद करने का आदेश दिया। इसका जादू का सा प्रभाव हुआ। राज्यों को सबक मिला। वे और अधिक संख्या में हस्ताक्षर करने लगे।

15 अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हो गया। पाकिस्तानी क्षेत्र में स्थित 12 रियासतें पाकिस्तान में सम्मिलित हो गईं  और शेष 554 रियासतें भारत में रह गईं। जूनागढ़़ (सौराष्ट्र), हैदराबाद (दक्षिण भारत) और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर 551 रियासतों ने सरदार पटेल के प्रयत्नों से 15 अगस्त 1947 से पहले ही भारतीय संघ में मिलने पर सहमति दे दी। जूनागढ़, हैदराबाद तथा जम्मू-कश्मीर राज्य भारत में मिलने को तैयार नहीं हुए।

अध्याय – 95 : भारत में विलय के प्रश्न पर जूनागढ़ की समस्या

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गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में 1748 ई. से जूनागढ़ रियासत स्थित थी। इस पर मुस्लिम नवाब का शासन था। इस रियासत की 80 से 90 प्रतिशत जनता हिन्दू थी। जूनागढ़ रियासत चारों ओर से हिन्दू रियासतों से घिरी हुई थी। जूनागढ़ रियासत तथा पाकिस्तान की सीमा के बीच 240 मील की दूरी में समुद्र स्थित था। इस रियासत का अंतिम नवाब मुहम्मद महाबत खानजी (तृतीय) 11 वर्ष की आयु में रियासत का शासक बना था। उसने मेयो कॉलेज अजमेर में पढ़ाई की थी। उसे तरह-तरह के कुत्ते पालने तथा शेरों का शिकार करने का शौक था। 

जब वायसराय की 25 जुलाई 1947 की दिल्ली बैठक के बाद भारत सरकार ने नवाब को इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन भिजवाया तो नवाब ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किये तथा समाचार पत्रों में एक घोषणा पत्र प्रकाशित करवाया- ‘पिछले कुछ सप्ताहों से जूनागढ़ की सरकार के समक्ष यह सवाल रहा है कि वह हिन्दुस्तान या पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला करे। इस मसले के समस्त पक्षों पर सरकार को अच्छी तरह गौर करना है। यह ऐसा रास्ता अख्तयार करना चाहती थी जिससे अंततः जूनागढ़ के लोगों की तरक्की और भलाई स्थायी तौर पर हो सके तथा राज्य की एकता कायम रहे, उसकी आजादी और ज्यादा से ज्यादा बातों पर इसके अधिकार बने रहें। गहरे सोच विचार और सभी पहलुओं पर जांच परख के बाद सरकार ने पकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया है और अब उसे जाहिर कर रही है। राज्य का विश्वास है कि वफादार रियाया, जिसके दिल में राज्य की भलाई और तरक्की है, इस फैसले का स्वागत करेगी।’

जूनागढ़ की जनता ने, नवाब की कार्यवाही का जबरदस्त विरोध किया और एक स्वतन्त्र अस्थायी हुकूमत की स्थापना कर ली। भारत सरकार ने लियाकत अली से पूछा कि क्या पाकिस्तान इसे स्वीकार करेगा किंतु पाकिस्तान की ओर से कोई जवाब नहीं आया। कई हफ्ते बीत जाने के बाद पाकिस्तान सरकार ने घोषणा की कि जूनागढ़ का निर्णय मान लिया गया है तथा अब वह पाकिस्तान का हिस्सा माना जायेगा। पाकिस्तान से एक छोटी टुकड़ी जूनागढ़ भेज दी गई।

भारत सरकार की ओर से कहा गया कि नवाब के उत्पीड़न के कारण जूनागढ़ से हिन्दू शरणार्थी भाग रहे हैं। जूनागढ़ के चारों तरफ छोटी हिन्दू रियासतों का जमावड़ा था, उन्होंने भी भारत सरकार से सहायता मांगी। वे लोग चारों तरफ से घेर लिये गये थे। नवाब ने अपनी सेनाएं भेजकर इन रियासतों पर अधिकार कर लिया। जूनागढ़ रियासत के दीवान शाह नवाज भुट्टो  के बुलावे पर भारत सरकार ने सेना भेजकर जूनागढ़ को चारों से घेर लिया। कुछ दिन बाद जब जूनागढ़ की सेना के पास रसद की कमी हो गई तब भारतीय सेना आगे बढ़ी। जूनागढ़ की जनता ने इस सेना का स्वागत किया। 24 अक्टूबर 1947 को नवाब अपने विशेष हवाई जहाज में बैठकर पाकिस्तान भाग गया। नवाब अपनी चार बेगमों एवं अधिक से अधिक संख्या में अपने कुत्तों को हवाई जहाज में ले जाना चाहता था किंतु एक बेगम जूनागढ़ में ही छूट गई। नवाब ने अपने साथ अपने समस्त जवाहरात भी ले गया। नवाब तथा उसका परिवार कराची में बस गये। 9 नवम्बर 1947 को भारतीय सेना ने जूनागढ़ पर अधिकार कर लिया। 20 फरवरी 1948 को भारत सरकार द्वारा जूनागढ़ में जनमत-संग्रह करवाया गया जिसमें रियासत की 2 लाख से अधिक जनसंख्या ने भाग लिया। 99 प्रतिशत जनसंख्या ने भारत में मिलने की तथा शेष लोगों ने पाकिस्तान में मिलने की इच्छा व्यक्त की। 17 नवम्बर 1959 को नवाब की मृत्यु हो गई।

अध्याय – 96 : भारत में विलय के प्रश्न पर हैदराबाद की समस्या

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हैदराबाद रियासत की स्थापना 1720 ई. में चिनकुलीजखाँ ने की थी जिसने निजामुल्मुल्क की उपाधि धारण की थी। इस कारण हैदराबाद के शासक को निजाम कहा जाता था। 1798 ई. में इसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता की संधि (सबसीडरी एलायंस) की। हैदराबाद निजाम को 21 तोपों की सलामी दी जाती थी। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हैदराबाद रियासत का क्षेत्रफल 2,15,339 वर्ग किलोमीटर था। यह भारत की सबसे बड़ी तथा सबसे समृद्ध रियासत थी। जूनागढ़ की भांति हैदराबाद का शासक भी मुसलमान था किंतु बहुसंख्यक 85 प्रतिशत जनता हिन्दू थी। हैदराबाद रियासत भी चारों तरफ से भारतीय सीमाओं से घिरी हुई थी। हैदराबाद के अंतिम निजाम ओस्मान अली खान आसिफ जाह (सप्तम) के 28 पुत्र तथा 44 पुत्रियां थीं। निजाम को सोना तथा हीरे-जवाहर एकत्र करने की सनक थी। वह अपने राज्य को भारत अथवा पाकिस्तान में मिलाने के स्थान पर स्वतन्त्र रखना चाहता था। वह प्रजातन्त्र को दूषित प्रणाली समझता था और राजाओं के दैवीय अधिकारों में विश्वास रखता था। उसने रियासत के समस्त शासनाधिकार स्वयं में केन्द्रित कर रखे थे। निजाम के अधिकारी भी उसी के समान चालाक तथा लालची थे।

9 जून 1947 को निजाम ने वायसराय माउण्टबेटन को एक पत्र लिखा- ‘पिछले कुछ दिनों में मैंने स्वाधीनता बिल का सातवां हिस्सा (क्लॉज) जैसा कि अखबारों में आया है, देखा। मुझे अफसोस है कि पिछले महीनों में जैसा अक्सर होता रहा, कि इस मामले में राजनीतिक नेताओं से अच्छी तरह बातचीत की गई और रजवाड़ों के प्रतिनिधियों से बातचीत तो दूर, उन्हें यह दिखाया भी नहीं गया। यह देखकर मुझे दुख हुआ कि यह बिल न सिर्फ एक तरफा ढंग से ब्रिटिश सरकार के साथ की गई संधियों और समझौतों को रद्द करती है बल्कि यह आभास भी देती है कि अगर हैदराबाद पाकिस्तान या हिन्दुस्तान का हिस्सा नहीं बन सका तो ब्रिटिश कॉमनवैल्थ में भी नहीं रह सकेगा। जिन संधियों के आधार पर बरसों पहले ब्रिटिश सरकार ने विदेशी हमले और आंतरिक विद्रोह के खिलाफ मेरे खानदान और इस राज्य को बचाने का वादा किया था उसकी हमेशा दाद दी जाती रही और हिमायत होती रही। इनमें सर स्टैफर्ड क्रिप्स का 1941 का वादा प्रमुख है। मैंने समझा था कि ब्रिटिश फौज और वादे पर मैं अच्छी तरह भरोसा कर सकता हूँ। मैं अपनी फौज नहीं बढ़ाने पर राजी हो गया, अपने कारखानों में हथियार नहीं तैयार करने के लिये राजी हो गया। और उधर हमारी सहमति तो दूर, हमसे या हमारी सरकार से सलाह किये बगैर बिल पास हो गया। आपको पता है कि जब आप इंग्लैण्ड में थे, मैंने मांग की थी कि जब अँग्रेज हिन्दुस्तान छोड़कर जायें तो हमें भी उपनिवेश का दर्जा मिले। मैंने हमेशा महसूस किया है कि एक शताब्दी से ज्यादा की वफादार दोस्ती, जिसमें हमने अँग्रेजों को अपना सारा विश्वास दिया, का इतना तो नतीजा होगा ही कि बिना किसी सवाल के हमें कॉमनवेल्थ में रहने दिया जाये। लेकिन अब लगता है कि वह भी इन्कार किया जा रहा है। मैं अब भी उम्मीद करता हूँ कि किसी तरह का मतभेद मेरे और ब्रिटिश सरकार के सीधे रिश्ते के बीच नहीं आयेगा। हाल में ही मुझे बताया गया कि आपने यह भार अपने ऊपर ले लिया है कि पार्लियामेंट में ऐसी घोषणा होगी ताकि ऐसे सम्बन्ध सम्भव हों।’

इस पर वासयराय ने नवाब को सूचित किया कि हैदराबाद को उपनिवेश का दर्जा नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसके चारों ओर उस देश का हिस्सा होगा जो इस स्थिति में दुश्मन बन जायेगा। ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में हैदराबाद के लिये एक ही रास्ता है कि वह हिन्दुस्तान में सम्मिलित हो जाये किंतु हैदराबाद के अधिकारियों एवं कोनार्ड कोरफील्ड के कहने पर चल रहे भारत सरकार के राजनीतिक विभाग के अधिकारियों ने नवाब को सलाह दी कि वह वायसराय की सलाह को न माने। 7 अगस्त 1947 को कांग्रेस ने हैदराबाद रियासत में एक सत्याग्रह आंदोलन आरम्भ किया। हैदराबाद की सरकार ने इस आंदोलन को सख्ती से कुचलने का प्रयास किया। इस कारण यह आंदोलन हिंसक रूप लेने लगा। इसी समय तेलंगाना में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में एक शक्तिशाली किसान संघर्ष भी हुआ।

वायसराय के दबाव से नवम्बर 1947 में निजाम ने भारत के साथ स्टेंडस्टिल एग्रीमेंट पर दस्तख्त कर दिये परन्तु संघ में सम्मिलित होने की बात को टालता रहा। इसी के साथ-साथ वह अपने राज्य में कट्टर साम्प्रदायिक मुस्लिम रजाकारों को भी प्रोत्साहित करता रहा। निजाम ने रजाकारों को विश्वास दिलाया कि जब हम विद्रोह करेंगे तो हमारे अँग्रेज दोस्त हमारी सहायता करेंगे। निजाम की शह पाकर मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन इतिदाद-उल-मुसलमीन और उसके अर्द्ध सैनिक रजाकरों ने हैदराबाद रियासत के बहुसंख्यक हिन्दुओं को डराना-धमकाना तथा लूटना-खसोटना आरम्भ कर दिया ताकि वे रियासत छोड़कर भाग जायें। रजाकारों की हिंसक वारदातों से रियासत में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गई। हैदराबाद रियासत से होकर गुजरने वाले रेलमार्गों तथा सड़कों को क्षतिग्रस्त किया जाने लगा तथा रेलों एवं बसों से यात्रा करने वाले हिन्दुओं को लूटा जाने लगा। इससे स्थिति बहुत खराब हो गई।

मुस्लिम रजाकारों के नेता कासिम रिजवी ने धमकी दी कि वे सम्पूर्ण भारत को जीतकर दिल्ली के लाल किले पर निजाम का आसफजाही झण्डा फहरायेंगे। इसके बाद हैदराबाद राज्य में बड़े पैमाने पर हिन्दुओं की हत्याएं की जाने लगीं तथा उनकी सम्पत्ति को लूटा अथवा नष्ट किया जाने लगा। माउण्टबेटन, सरदार पटेल और वी. पी. मेनन ने निजाम को समझाने का प्रयास किया परन्तु स्थिति उसके नियन्त्रण में भी नहीं रही थी। रजाकार और कट्टर मुल्ला-मौलवी, मुसलमान जनता को भड़काकर साम्प्रदायिक दंगे करवा रहे थे। सरदार पटेल और वी. पी. मेनन तब तक चुप रहे जब तक कि माउण्टबेटन इंग्लैण्ड नहीं लौट गये। सितम्बर 1948 में माउण्टबेटन के लौटने के दो दिन बाद, निजाम ने घोषणा की कि वह माउण्टबेटन योजना को स्वीकार करने के लिये तैयार है। इस पर पटेल ने उत्तर दिया- ‘अब बहुत देरी हो चुकी। माउण्टबेटन योजना तो घर चली गई है।’ इसके कुछ देर बाद ही 13 सितम्बर 1948 को मेजर जनरल जोयन्तोनाथ चौधरी के नेतृत्व में भारतीय सेना हैदराबाद में प्रवेश कर गई। पांच दिन की कार्यवाही में भारतीय सेना ने मुस्लिम रजाकारों के प्रतिरोध को कुचल डाला। 17 सितम्बर 1948 को हैदराबाद के सेनापति जनरल ईआई एड्रूस ने सिकंदराबाद में जनरल चौधरी के समक्ष समर्पण कर दिया। 18 सितम्बर को मेजर जनरल चौधरी ने हैदराबाद रियासत के सैनिक गवर्नर का पद संभाल लिया। हैदराबाद रियासत को भारतीय संघ में सम्मिलित कर लिया गया। विवश होकर निजाम को नई व्यवस्था स्वीकार करनी पड़ी। भारत सरकार ने उसके साथ सम्मान पूर्वक व्यवहार किया। स्वतंत्र भारत में हैदराबाद रियासत को तोड़कर उसके क्षेत्र आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र प्रांतों में मिला दिये गये।

अध्याय – 97 : भारत में विलय के प्रश्न पर काश्मीर की समस्या

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भारत के उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में 2,10,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाला जम्मू-कश्मीर राज्य सामरिक दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। इसकी सीमाएं भारत, पाकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान से सटी हुई हैं और सोवियत रूस भी अधिक दूर नहीं है। जम्मू कश्मीर रियासत 1846 ई. में अस्तित्व में आई। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा देशी राज्य था। जम्मू-कश्मीर रियासत का डोगरा शासक हरिसिंह, हिन्दू क्षत्रिय वंश से था किन्तु उसकी लगभग 75 प्रतिशत जनता मुस्लिम थी। इस राज्य की सीमाएं भारत और पाकिस्तान दोनों से मिली हुई थीं। वह चाहे जिससे मिल सकता था किंतु डोगरा शासक हरिसिंह ने भारत अथवा पाकिस्तान में मिलने के स्थान पर स्वतन्त्र रहने का निश्चय किया।

पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के डोगरा शासक का निर्णय अच्छा नहीं लगा। सामरिक एवं भौगोलिक स्थिति, हिन्दू राजवंश, बहुसंख्यक मुस्लिम जनता, कश्मीर नरेश की अनिश्चित नीति और पाकिस्तान की लोलुप दृष्टि, इन समस्त तत्त्वों ने मिलकर जम्मू-कश्मीर की समस्या को अत्यधिक गम्भीर बना दिया। पाकिस्तान ने कश्मीर की आर्थिक नाकेबन्दी करके जम्मू-कश्मीर राज्य को अनाज, नमक, पैट्रोल, केरोसीन आदि आवश्यक सामग्री पहुंचना बन्द कर दिया परन्तु पाकिस्तान सरकार की यह कार्यवाही जम्मू-कश्मीर सरकार को झुकाने में असफल रही। तब पाकिस्तान सरकार ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के कबाइलियों को जम्मू-कश्मीर में घुसकर मारकाट मचाने के लिये भेजा। कबाइलियों ने 22 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर राज्य की सीमा में प्रवेश करके गांवों पर आक्रमण किया। ज्यों-ज्यांे कबाइली आगे बढ़ते गये, स्थानीय मुल्ला-मौलवियों के उकसाने पर राज्य के मुस्लिम सैनिक एवं सिपाही भी उनके साथ होते गये। चार दिन में ही कबाइली, कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से 15 मील दूर बारामूला में पहुँच गये जिससे राजधानी खतरे में पड़ गई।

संकटापन्न अवस्था जानकर डोगरा शासक हरिसिंह ने भारत सरकार से सैनिक सहायता भेजने का अनुरोध किया किंतु भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू उस समय तक कश्मीर को सैनिक सहायता देने के लिए तैयार नहीं हुए जब तक कि राज्य के मुख्य राजनीतिक दल- नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने पं. नेहरू को यह आश्वासन नहीं दिया कि राज्य में संवैधानिक शासन की शर्त पर वह और उनका दल कश्मीर को भारत में सम्मिलित किये जाने के पक्ष में है। स्पष्ट है कि नेहरू चाहते थे कि कश्मीर का भारत में विलय न केवल हिन्दू शासक की इच्छा से हो ,अपितु बहुसंख्यक मुस्लिम जनता की स्वीकृति के साथ हो। जब नेहरू की इच्छा-पूर्ति कर दी गई तो कश्मीर को भारत में सम्मिलित करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि युद्ध समाप्ति के बाद कश्मीर में इस विषय पर जनमत-संग्रह कराया जायेगा। इस समझौते के पश्चात् 27 अक्टूबर 1947 को हवाई मार्ग से भारतीय सेना को श्रीनगर पहुंचाया गया जिसने दुश्मन के जबरदस्त आक्रमण से श्रीनगर को बचा लिया। कश्मीर को अपने हाथ से निकलते देखकर पाकिस्तान की सेना ने कबाइलियांे के नाम पर युद्ध में हस्तक्षेप किया परन्तु भारतीय सेना ने उसे पीछे धकेल दिया। परन्तु पं. नेहरू की देरी का नुकसान भारत को उठाना पड़ा। लगभग 35,000 वर्ग मील क्षेत्रफल पाकिस्तान के अधिकार में चला गया जिसे पाकिस्तान ने आजाद कश्मीर कहना आरम्भ कर दिया।

1 जनवरी 1948 को भारत ने सुरक्षा परिषद् में शिकायत की कि भारत के एक अंग कश्मीर पर सशस्त्र कबाइलियों ने आक्रमण कर दिया है और पाकिस्तान प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष, दोनों तरीकों से उन्हें सहायता दे रहा है। उनके आक्रमण से अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो गया है। अतः पाकिस्तान को अपनी सेना वापस बुलाने तथा कबाइलियों को सैनिक सहायता न देने को कहा जाये और पाकिस्तान की इस कार्यवाही को भारत पर आक्रमण माना जाये।

भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल इस मामले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने के पक्ष में नहीं थे परन्तु माउण्टबेटन की सलाह पर पं. नेहरू इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये। 15 जनवरी 1948 को पाकिस्तान ने भारत के आरोपों को अस्वीकार कर दिया और भारत पर बदनीयती का आरोप लगाते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय असंवैधानिक है और इस मान्य नहीं किया जा सकता। सुरक्षा परिषद् ने इस समस्या के समाधान के लिए पांच राष्ट्रों की एक समिति गठित की और इस समिति को मौके पर स्थिति का अवलोकन करके समझौता कराने को कहा। संयुक्त राष्ट्र समिति ने कश्मीर आकर मौके का निरीक्षण किया और 13 अगस्त 1948 को दोनों पक्षों से युद्ध बन्द करने और समझौता करने हेतु निम्न सुझाव प्रस्तुत किये-

(1) पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटा ले। पाकिस्तान कबाइलियों तथा गैर-कश्मीरियों को भी कश्मीर से हटाने का प्रयास करे।

(2) सेनाओं द्वारा खाली किये गये क्षेत्रों का शासन प्रबन्ध, स्थानीय अधिकारी संयुक्त राष्ट्र समिति की देखरेख में करें।

(3) जब समिति भारत को सूचित कर दे कि पाकिस्तान ने उपर्युक्त शर्तें पूरी कर ली हैं, तो भारत भी समझौते के अनुसार अपनी अधिकांश सेना वहाँ से हटा ले।

(4) अन्तिम समझौता होने तक भारत युद्ध-विराम की सीमा के अन्दर उतनी ही मात्रा में सैनिक रखे, जितने कि स्थानीय अधिकारियों को शान्ति एवं व्यवस्था को स्थापित रखने के लिए आवश्यक हो।

इन बिंदुओं के आधार पर दोनों पक्षों के बीच लम्बी वार्त्ता हुई जिसके बाद 1 जनवरी 1949 को दोनों पक्ष युद्ध-विराम के लिए सहमत हो गये। यह भी तय किया गया कि अन्तिम फैसला जनमत-संग्रह के माध्यम से किया जायेगा। इसके लिए एक अमरीकी नागरिक चेस्टर निमित्ज को प्रशासक नियुक्त किया गया परन्तु पाकिस्तान ने समझौते की शर्तों का पालन नहीं किया और जनमत-संग्रह नहीं हो पाया। निमित्ज ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद इस समस्या को सुलझाने के लिए अनेक प्रयास किये गये परन्तु सफलता नहीं मिली। 1954 ई. में पाकिस्तान, पश्चिमी गुट में सम्मिलित हो गया और उसे अमेरिका से भारी सैनिक सहायता मिलने लगी। अब पश्चिमी देश, कश्मीर समस्या पर पाकिस्तान का पक्ष लेने लगे। दूसरी तरफ सोवियत संघ, भारत के पक्ष में आ गया। इससे कश्मीर-समस्या शीत युद्ध का अंग बन गई। अगस्त 1965 में पाकिस्तान ने कच्छ और कश्मीर पर आक्रमण किया परन्तु भारत के हाथों पाराजित होकर उसे ताशकन्द समझौता करना पड़ा। 1971 ई. में पाकिस्तान ने एक बार पुनः भारत पर आक्रमण किया और उसे परास्त होकर शिमला समझौता करना पड़ा। 1999 ई. में कारगिल में घुसपैठ के माध्यम से पाकिस्तान ने पूरे कश्मीर को हड़पने का प्रयास किया किंतु उसे इस बार भी सफलता नहीं मिली। भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया कि पाकिस्तान के कब्जे वाली भारतीय भूमि को वापस लिया जायेगा किंतु उसके लिये विगत 66 वर्ष में भारत सरकार द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया है। इस प्रकार कश्मीर की समस्या अभी तक अधर में पड़ी है और आजाद कश्मीर क्षेत्र पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा स्थापित है।

Tears of Red Fort – 4 : When princes faced exile

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On 6 April 1648, Shah Jahan was 56 years old when he entered Delhi’s Red Fort, still his body was full of vigor and energy. Although thousands of women lived in Shah Jahan’s harem, Shah Jahan was so debauch that in his harem, a lot of new women used to come and go.
Shah Jahan had spoiled the women of many of his Cavalier and generals by calling their women in his harem. Because of this, some women committed suicide.  Due to this reason, his harem was full of conspiracies.  No one in his family loved him.  Many rich and generals of the Sultanate were also thirsty for his blood.
There were thousands of women in Shah Jahan’s harem, but he only had Nine declared Begums. Shah Jahan had many children from these Begums, history doesn’t even know their names. Shah Jahan’s chief begum was Mumtaz Mahal, the third wife of Shah Jahan.  She got married to Shah Jahan at the age of 19.  In 1631, Mumtaz Mahal died while giving birth to the 14th child of Shah Jahan when she was just 38 years old.
Even though fourteen children were born from the belly of Mumtaz Mahal, but only four sons born to her belly i.e. Dara Shikoh, Shah Shuja, Aurangzeb and Murad Bakhsh and four princesses – Purhunar Begum, Jahanara Begum, Roshanara Begum and Gauhra Begum placed their feet on the threshold of youth. The remaining six children died during their childhood.  A lot of Shah Jahan’s children were born from the stomach of Shah Jahan’s other Begums, but history doesn’t even have their names.
Shah Jahan’s eldest son Dara Shikoh and eldest daughter Jahanara were quieter, more sensible and intelligent than the rest of their siblings, while Aurangzeb, the third son of Shah Jahan, and the second Shahzadi Roshanara, were of the most turbulent and quarrelsome nature. Yet Jahanara handled their quarrels with patience and did not let them miss their mother.
In the meantime , the king’s debauchery was increasing and the time was in leaps and bounds taking turns. When adult Shah Jahan turned old, he himself didn’t knew. The influence of time could also be seen clearly on Shah Jahan’s children.  All eight princes and princesses left their childhood behind and set foot on the doorpost of puberty.  Like Shah Jahan, their eyes were now dreaming.  Whatever the dreams were in their eyes, but three dreams were very big – Kohinoor diamond, Takht-E-Taus and the Red Fort of Delhi and Agra.  Everyone wanted to be the owner of these things one day.
  Shah Jahan was clearly able to see the dreams of his children while growing old. He could also sense the impulsiveness towards the reign coming down in the eyes of his children.  On seeing the eyes of the princes, a powerful king like Shah Jahan trembled with fear and the wrinkles of his face were becoming increasingly dark.
Shah Jahan started sending his sons away from Delhi one by one. He kept his elder son Dara Shikoh in the capital Delhi.  The second son Shahshuja was made the Subedar of Bengal, the third son Aurangzeb was made the Subedar of the Deccan and appointed the fourth son Muradbakhsh to Gujarat.  Thus, the four princes became thousands of kilometers away from each other.
Shahjahan’s trio of Princes became restless as they were being sent away from the capital Delhi. They felt that their father was never willing to send them away, but the elder brother Dara Shikoh must have had conspired and sent his younger brothers away from the capital.
All the Princes wanted to take possession of the huge treasure accumulated by the Mughals in the Red Forts of Delhi and Agra, about which many mysterious tales were prevalent.Everyone living within the Red Fort had some or the other list of this immense wealth, but Shah Jahan himself wasn’t fully aware of the actual list of this huge treasure.
Every Prince wanted that their father Shah Jahan, who slaughtered his 18 uncles and brothers and seized the kingdom of the Mughals, they must also kill their remaining brothers and become the rightful owner of this immense treasure and Takht-E-Taus, Kohinoor diamond and Red Fort. No one came to know when did the four princesses also joined the task.
Each princess selected her own brother whom she wanted to be the emperor after Shah Jahan so that the harem of the Red Fort would be ruled by the same princess and all the begums and princesses of the palace should remain her pimps.  Princess Jahanara was in favor of her brother Dara Shikoh;  Roshanara, of Aurangzeb;  Purhunar Begum was favoring Shahshuja and Gauharara was in favor of Muradbakhsh.
Shah Jahan, the builder of the Red Fort fell ill in September 1657 due to the fate of the Princes.  He was now 65 years old. Being heavily immersed in the swamp of lust, he was besieged by a variety of diseases and the rumors of his death used to come up every day.  Most of the rumors were spread by harem’s Queens, princesses, servants and eunuchs. 

Article by Dr. Mohan Lal Gupta, English Translation By Er. Ayush Dadhich, Presentation by Er. Dipti Tayal

Tears of Red Fort – 3 : Red Fort – Illuminated by the children of Mumtaz Mahal!

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Shah Jahan had nine Begams – Kandhari Mahal, Akbarabadi Begum, Mumtaz Mahal, Hasina Begum, Moti Begum, Kudsia Begum, Fatehpuri Mahal, Sirhindi Begum and Rani Manabhavati.  Shah Jahan had many children from all these Begums.  Mumtaz Mahal was the third of Shah Jahan’s Begums. Of the fourteen children born from her stomach, only eight survived.  When Shah Jahan came to the Red Fort in 1648, Mumtaz Mahal had been dead for seventeen years but her eight children illuminated the Red Fort.  In this episode we will discuss about Mumtaz Mahal.
The real name of Mumtaz Mahal was Arjumand Banu Begum.  Shah Jahan used to call her Mumtaz Mahal which meant – ‘Most beloved jewel of the palace.’ Mumtaz was born in April 1593 in Agra.  Her father Abdul Hasan Asaf Khan was the brother of Jahangir’s Begum Noor Jahan and came to India from Persia with his father.  Thus the blood of Persia regurgitate in the veins of Mumtaz Mahal and she was the maternal sister of Shah Jahan.
Mumtaz Mahal looked very beautiful like a white doll carved out of marble stone and used to sell silk and glass beads at her shop in Meena Bazaar, Agra.  The tradition of Meena Bazaar was started by Shah Jahan’s grandfather Jalaluddin Muhammad Akbar.  It was adorned only for the Mughal Emperors and the most affluent ones. Only Muslim Princesses(Shehzadis) and Hindu princesses were allowed to set up shops in Meena Bazaar on which they had to sell their own goods. Often the mistresses of these shops were also sold to some prince or Amir-umrao(Affluent ones).
Once in 1607, Prince Khurram came to visit Meena Bazar and met her maternal sister Arjumand Begum.  In the first meeting Khurram decided to marry Arjumand Begum.  Despite already having two Begums, Prince Khurram enunciated his desire to marry Arjumand Begum to his father Jahangir. On this, Jahangir got Khurram married to Arjumand Begum in 1612 AD.
Thus 19-year-old Arjumand became Khurram’s third wife, who later succeeded Jahangir by the name of Shah Jahan.  Jahangir changed the name of Arjumand to Mumtaz Mahal.  She was Shah Jahan’s third Begum to say, but soon she became Shah Jahan’s favorite Begum.  Shah Jahan proclaimed her as the ‘Emperor Begum’.  Empty papers of Shah Jahan’s royal decrees and the royal seal of Shah Jahan were then kept by Mumtaz Mahal, implying that orders issued in the name of Jahangir were actually issued by Mumtaz Mahal.
Mumtaz Mahal was an expert in playing chess.  Shah Jahan used to play chess with her, sitting in front of her for hours.  Mumtaz often defeated the emperor in this game.  Whenever Shah Jahan got defeated, he used to glisten with joy and would shower Ashrafis on Mumtaz Mahal.
Mumtaz had a very good knowledge of her mother tongue Persian and wrote very good poems in Persian language. She gave shelter to many poets of Persian language in the Mughal court.
Mumtaz decorated the royal garden with beautiful flowers and made it a paradise.  Thus Mumtaz Mahal created beauty all around her and Shah Jahan would plunge into this unending sea of ​​beauty.
In the manner, Jahangir’s Begum Noor Jahan made Mughal Sultanate dance at her fingertips, Mumtaz Mahal also became the emperor’s favorite and began to domineer the Mughalia Takht, Mughalia dynasty and Mughalia Sultanate.  As a result, Shahjahan’s other eight Begums and many of their children were badly neglected and their names couldn’t be recorded on the pages of history.
Mumtaz took two measures to keep the Mughal Sultanate firmly in her hands. Firstly, she often invited poor women to the royal garden and spent time with them.  From these women, she used to get information about small and big things happening in the Sultanate.  Mumtaz Mahal also helped the poor and needy. Mumtaz Mahal used to help the needy by asking the emperor, but she herself used to take care of the girls who could not get married due to poverty.  For these reasons, Mumtaz Mahal was liked by the poor community.
The second measure was also thoughtfully adopted.  Whenever Shah Jahan went out of the capital for any work, Mumtaz inevitably accompanied her. As an advantage, Mumtaz connected directly with every Rich, Cavalier, Prince, Hindu chieftain and mullah-maulvis of the Sultanate.
For this reason, as long as Mumtaz lived, no one rebelled against her.  No person could fill the emperor’s ears against Mumtaz.
On 17 June 1631, Mumtaz Mahal died while giving birth to Gauhra Begum, the 14th child of Shah Jahan in Burhanpur.  Shah Jahan considered Gauhra Begum to be cursed for himself and even refused to see her face. In 1612, at the age of 19, Mumtaz was married to Shah Jahan.  After this marriage, she lived only 19 years and during this period she got pregnant 14 times.  In a way, Shah Jahan made her a child-making machine.
Shah Jahan buried the body of Mumtaz at Jainabad Bagh in Burhanpur.  To preserve her body, one of the three famous methods of making mummies in the country of Egypt was resorted so that her body would never smell and could be safe for thousands of years.
Shah Jahan, immersed in Mumtaz’s mourning, remained in Burhanpur for almost a year and during this time he did not leave his camp even once.
Later, in December 1631, Mumtaz’s body was taken out of the tomb when the construction of  Taj Mahal started in Agra and the boundary walls were ready. The corpse was brought from Burhanpur to Agra as a magnificent royal procession with full vigor.  Eight crore rupees were spent on the procession at that time.
  On 12 January 1632, Mumtaz’s body was buried in the premises of the Taj Mahal which was under construction.  When the Taj Mahal was completed 9 years later in AD 1640, the body of Mumtaz Mahal was once again taken out of the grave. This time she was buried in a cellar of the Taj Mahal and a fake grave was built on the floor above it so that if the enemies ever destroy the Taj Mahal, Mumtaz Mahal can be safe in her coffin at the basement and can easily wait for the doom.
When Shah Jahan died, Shah Jahan was also buried in the basement of the Taj Mahal near Mumtaz Mahal and the emperor’s fake tomb was also built near the fake tomb of Mumtaz on the upper floor.
Thus Mumtaz Mahal was now asleep in the Taj Mahal of Agra and Shah Jahan had come with her eight children to live in the Red Fort of Delhi.  

Article by Dr. Mohan Lal Gupta, English Translation By Er. Ayush Dadhich, Video Presentation by Er. Dipti Tayal

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