जैसे-जैसे भारत की आजादी निकट आ रही थी, वैसे-वैसे भारत में चारों तरफ अविश्वास का वातावरण बनता जा रहा था। जिन्ना और मुस्लिम लीग कांग्रेस पर अविश्वास करते थे तथा कांग्रेस वायसराय वैवेल पर अविश्वास करती थी। वायसराय को इंगलैण्ड की सरकार पर अविश्वास था और प्रधानमंत्री एटली, वायसराय पर विश्वास नहीं करता था। भारतीय नेताओं में भी परस्पर अविश्वास का वातावरण था। सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू भारत के विभाजन को अनिवार्य मानते थे
किंतु कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम तथा गांधीजी हर हाल में विभाजन रोकना चाहते थे। जिन्ना चाहता था कि आजादी मिलने से पहले विभाजन की घोषणा हो। सरदार पटेल का मानना था कि देश में गृह-युद्ध की संभावना रोकने और हिंदू-मुसलमानों के बीच सद्भावना पनपने की चिंता में वैवेल, भारत को और दस वर्ष तक अँग्रेजी शासन के तले रखेगा। कांग्रेस अँग्रेजों पर आरोप लगा रही थी
कि भारत के अँग्रेज, जानबूझ कर मुस्लिम लीग की मदद कर रहे हैं ताकि झगड़ा बना रहे और उनका राज भी। अंग्रेज कांग्रेस पर आरोप लगा रहे थे कि कांग्रेस, मुस्लिम लीग से कोई समझौता नहीं कर पा रही है।
उधर 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली घोषित कर चुका था कि जून 1948 तक हर हालत में भारतीयों को सत्ता सौंप दी जायेगी। यदि भारतीय मिलकर इसका समाधान नहीं निकालते हैं कि सत्ता किसे सौंपी जाये तो सरकार जिसे उचित समझेगी, भारत का शासन सौंप देगी।
मार्च 1947 में लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का गवर्नर जनरल एवं वायसराय बनाकर भेजा गया। उसका काम भारत का शासन भारतीयों को सौंपकर अंग्रेजों को भारत से सुरक्षित रूप से निकालना था।