व्यथित, क्रोधित, लांछित और कुण्ठित है प्रतनु! कहाँ जाये वह! किसे मुँह दिखाये अपना! क्या करेगा वह अपने पुर लौट कर भी! कोई गौरव-गाथा नहीं उसके पास स्वजनों को सुनाने के लिये। इस तरह प्रताड़ित होकर अपने पुर को लौट जाना श्रेयस्कर नहीं जान पड़ा उसे। जिस उत्साह के बल पर वह विकट मरूस्थल को एकाकी ही लांघ आया था।
वह उत्साह आज नहीं है। क्या आशा और क्या लक्ष्य लेकर लौटे वह अपने पुर को ? दीर्घ यात्रा के पश्चात अपने पुर को लौटने वाले अपने साथ कुछ अर्जित करके लौटते हैं। उसने क्या अर्जित किया है ? लांछन! अपमान! प्रताड़ना! निष्कासन! जन साधारण के समक्ष तो यही अपवाद प्रकट होंगे। किसको बता सकेगा वह कि लांछन और अपमान नहीं, उसने देवी रोमा का विश्वास और प्रेम अर्जित किया है! प्रेम तो वैसे भी सर्वथा गोप्य है।
कितने-कितने विचारों में डूबता-तैरता वह सिंधु का तट छोड़कर वायव्यकोण [1] में स्थित सुदूर पर्वतीय उपत्यकाओं की ओर अपना उष्ट्र हांके ले जा रहा है। चलते-चलते दिन बीत गया। वह स्वयं नहीं समझ पा रहा कि वह इस दिशा में क्यों आगे बढ़ता जा रहा है।
मार्ग में बार-बार आने वाली जलधाराओं के विचार से शकट को उसने मोहेन-जो-दड़ो में ही त्याग दिया है। कौनसे उसे मधु और भुने हुए यव ढोने हैं इस बार जो शकट की आवश्यकता हो। फिर भी उसने कुछ जल लघु-घटों में भरकर उष्ट्र की पीठ पर लटका लिया है। मार्ग में फलों के वृक्ष तो फिर भी मिल जाते हैं किंतु जल तो प्रत्येक स्थान पर नहीं मिलता। कौन जाने उसे कितने मास ऐसे ही चलते रहना पड़े।
आज नहीं तो कल यह विवरण प्रतनु के पुर तक पहुँच ही जायेगा कि उसे राजधानी मोहेन-जो-दड़ो से निष्कासित किया गया है और दो वर्ष तक उसका राजधानी में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया है। कैसे सामना कर सकेगा वह स्वजनों की व्यंग्य भरी
आंखों का! नहीं, इस दैन्य अवस्था में स्वजनों के बीच जाकर रहने से तो अनजाने व्यक्तियों के बीच चलकर रहना अधिक श्रेयस्कर है। जहाँ कोई कुछ नहीं जानता हो। न उसके सम्बन्ध में न उसके अपवाद के सम्बन्ध में।
प्रतनु ने सुना है कि सिंधु के पश्चिम में स्थित विशाल मैदानों में असुरों के पुर हैं। असुरों की तरफ वह जा सकता है, उनकी भाषा से भी परिचित है वह किंतु उसे असुरों का मदिरा सेवन और मांस भक्षण पसंद नहीं। मदमत्त असुरों का दिन रात झगड़ते रहना भी काफी कष्टदायक है। उनके बीच रहना सुविधाजनक नहीं होगा उसके लिये।
यदि वह सिंधु के तट पर उत्तर की ओर बढ़ता जाता है तो पर्ण-कुटियों से युक्त आर्यों के जन मिलेंगे। आर्य जनों की ओर जाना उसने उचित नहीं जाना। उन्हें तो वह बचपन से ही शत्रु मानता आया है। आर्यों की तरफ जाने का अर्थ है उनका दास बनकर रहना जो कि स्वतंत्रचेता प्रतनु के लिये संभव नहीं। यदि वह उत्तर पश्चिम की पर्वतीय उपत्यकाओं की ओर जाता है तो उसे नागों के पुर मिलेंगे। द्रविड़ों के पुरों से अधिक सम्पन्न किंतु अत्यंत लघु।
उसने नागों के बारे में सुना बहुत है किंतु कभी देखा नहीं उन्हें। क्यों नहीं वह नागों की ओर चले। नागों के पुरों को देखे। सुना है नागों ने शिल्पकला का अच्छा विकास किया है, सैंधवों से भी उन्नत है उनका शिल्प। शिल्प ही क्यों, उसने तो यह भी सुना है कि नागों ने गायन, वादन और नृत्य कलाओं में भी अच्छी उन्नति की है।
प्रतनु के पुर की ओर आने वाले पणि-सार्थों में सम्मिलित सैंधवों से ही सुना है प्रतनु ने कि नागलोक के पुरों का शिल्प और वैभव, नष्ट हो चुके देव लोक से भी अधिक उन्नत है। गायन, वादन एवं नृत्य कलाओं में वे इतने प्रवीण हैं कि यक्षों, गंधर्वों और किन्नरों से स्पर्धा कर सकने में सक्षम हैं।
पशुपति महालय से निकलते समय जो निराशा उसके मन में छाई थी, वह रोमा से हुई भेंट के बाद किसी सीमा तक दूर हो गयी है। कल के नैराश्य का स्थान प्रतिशोध ने ले लिया है। दृढ़ निश्चय कर चुका है प्रतनु इस अपवाद के परिष्कार का। उसकी शिराओं में यशस्वी सैंधवों का रक्त है, इस तरह दैन्य धारण करके जीवित रहने वालों में नहीं है वह।
दो वर्ष! केवल दो वर्ष की ही तो बात है। वह फिर लौटेगा मोहेन-जो-दड़ो को। प्रतिशोध लेगा वह अपने अपमान का। चुनौती देगा वह किलात को और उसकी सम्पूर्ण सत्ता को। क्या समझता है वह स्वयं को! जो कुछ भी वह कह देगा, वही न्याय है ? जो कुछ वह सुना देगा, वही दण्ड है ?
रोमा के प्रति क्रोध नहीं है उसे। वह अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुकी है। उसने भावुकता के वशीभूत होकर अभियोग की बात की और किलात ने चतुराई से अपना कण्टक दूर कर लिया। कोई बात नहीं किलात! दो वर्ष का समय भी कोई अधिक समय नहीं होता। मैं फिर लौटूंगा और भस्मीभूत कर दूंगा तेरी सत्ता को। शकट में बैठे-बैठे ही उसने आवेश से अपनी मुट्ठी हवा में लहराई।
[1] उत्तर-पश्चिम दिशा।