शाहजहाँ का वास्तविक नाम खुर्रम था। उसका जन्म 5 जनवरी 1592 को लाहौर में हुआ। उसकी माता का नाम जोधाबाई था जिसे जगत गोसाइन भी कहते थे। वह मारवाड़ के राजा उदयसिंह की पुत्री थी। खुर्रम का पालन-पोषण उसकी दादी सुल्ताना बेगम (हीराकंवर अथवा मरियम उज्मानी) ने बड़े लाड़-प्यार से किया था। वह अपने बाबा अकबर का प्रिय था। जब खुर्रम ने दक्षिण में उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त कीं तब जहाँगीर ने उसे शाहजहाँ की उपाधि दी।खुर्रम अपने पिता का तीसरा पुत्र था। वह अपने भाइयों में सबसे योग्य तथा महत्त्वाकांक्षी था। उसे बौद्धिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार की शिक्षा मिली। इस कारण उसने कम आयु से ही योग्यता का परिचय देना आरम्भ किया।
जहाँगीर के बड़े शहजादे खुसरो के विद्रोह कर देने से खुर्रम को उन्नति करने का अवसर प्राप्त हो गया। ई.1618 में शाहजहाँ का विवाह नूरजहाँ के बड़े भाई आसफखाँ की पुत्री अर्जुमन्द बानू बेगम से हुआ। इस कारण शाहजहाँ को अपने पिता जहाँगीर की चहेती बेगम नूरजहाँ, नूरजहाँ के पिता एतमादुद्दौला जो प्रधानमन्त्री के पद पर आसीन था और नूरजहाँ के भाई आसफखाँ जो साम्राज्य का दीवान था, का समर्थन प्राप्त हो गया।
जब ई.1627 में जहाँगीर बीमार पड़ा तो उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ। खुर्रम (शाहजहाँ) अपने सबसे बड़े भाई खुसरो की ई.1622 में बुरहानपुर के दुर्ग में हत्या करवा चुका था। खुर्रम का दूसरा भाई परवेज ई.1626 में अत्यधिक शराब पीने मर गया था। शाहजहाँ का तीसरा भाई शहरियार, नूरजहाँ का दामाद होने के कारण बादशाह बनने की दौड़ में सबसे आगे था किंतु खुर्रम ने अपने श्वसुर आसफ खाँ के सहयोग से नूरजहाँ एवं उसके दामाद शहरयार को लाहौर में परास्त कर दिया तथा उसकी हत्या कर दी। सबसे अंत में खुर्रम ने अपने बड़े भाई खुसरो के बड़े पुत्र दावरबख्श की हत्या की। इस प्रकार खुर्रम अपने खानदान की दो पीढ़ियों को समाप्त करके शाहजहाँ के नाम से मुगलों के तख्त पर बैठा।
कतिपय पाश्चात्य एवं भारतीय इतिहासकारों की दृष्टि में शाहजहाँ का शासन-काल स्थापत्य कला के लिए स्वर्णयुग से कम नहीं था। इस काल में स्थापत्य कला अपने चरम पर पहुँच गई। शाहजहाँ ने अनेक इमारतें बनवाईं। वह स्वयं स्थापत्य कला का ज्ञाता था। वह अपनी इमारतों के नक्शे स्वयं देखता था। शाहजहाँ युगीन भवन कला अकबर एवं जहाँगीर के काल की भवन कला से आगे का विकास है। क्योंकि इस समय तक भारत के सुदूर क्षेत्र भी मुगलों के अधीन आ चुके थे और उन क्षेत्रों की स्थापत्य कला भी मुगलों द्वारा अपने भवनों में शामिल की गई। शाहजहाँ ने इतनी अधिक इमारतें बनवाईं कि उसे ‘निर्माताओं का शहजादा’ कहा जाता है।
इस काल में धन की कोई कमी नहीं रह गई थी अतः लाल पत्थर के स्थान पर सफेद संगमरमर को प्रमुखता दिया जाना संभव हो गया। उसके समय में राजपूताने में स्थित मकराना की खानों में प्रचुर मात्रा में संगमरमर उपलब्ध था।
अकबर ने अपने समय के सबसे सुंदर महल बनाए थे। जहाँगीर के काल में मुगल स्थापत्य में ‘यूरोपीय मोटिफ’ शामिल किए गए। शाहजहाँ के काल में तकनीक में आमूलचूल परिवर्तन हो गया तथा निर्माण कला के साधनों और सिद्धान्तों में अनेक परिवर्तन हुए। उसके काल में पत्थर काटने में निपुण कारीगरों का स्थान संगमरमर काटने और पॉलिश करने में निपुण कारीगरों ने ले लिया। आयताकार भवनों का स्थान चौकोर लहरदार सजावटपूर्ण महलों ने ले लिया। सबसे अधिक मौलिक परिवर्तन मेहराब की बनावट में हुआ। इनमें सजावट, पच्चीकारी और नजाकतपूर्ण सौन्दर्य आ गया। आगरा, लाहौर, दिल्ली आदि नगरों में पुराने महलों का नव-निर्माण हुआ और नवीन भवन बनवाये गये।
शाहजहाँ के काल की स्थापत्य शैली के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों की राय है कि इन कृतियों के कलाकार विदेशी थे और शाहजहाँ ने अकबर कालीन हिन्दू प्रभाव वाली स्थापत्य शैली को त्यागकर पुनः शुद्ध ईरानी शैली को अपनाने का प्रयास किया था। कतिपय अन्य विद्वान इसे भारतीय शैली से ही उत्पन्न बताते हैं। डॉ. बनारसी प्रसाद के अनुसार यह शैली दो संस्कृतियों के समन्वय का परिणाम थी। वस्तुतः इस काल में भी बहुत से प्राचीन हिन्दू भवनों को मुगल स्थापत्य में ढाला गया।
इस काल में नक्काशी युक्त या पर्णिल मेहराब (फोलिएटेड आर्च) बनने लगे। गुम्बद ने भी फारसी आकार ले लिया। शाहजहाँ के भवन निर्माण में बंगाली शैली के मुड़े हुए कंगूरों अथवा छज्जे युक्त छतों को भी प्रयोग होने लगा।
भवनों के आकार, शैली और सजावट की दृष्टि से इस काल में बने भवन सम्पूर्ण मुगल काल में बने भवनों से अधिक महत्वपूर्ण थे। शाहजहाँ के काल में बने भवनों की कुछ विशेषताएं इस प्रकार से हैं-
(1.) इस काल में मेहराब ने नया आकार ग्रहण कर लिया था जिसमें घुमावदार फूल-पत्ती का प्रयोग और संगमरमर का तोरण पथ (छतयुक्त मेहराबों की शृंखला) प्रमुख था। इस काल में नक्काशीयुक्त एवं दांतेदार मेहराब भी बने।
(2.) शाहजहाँ के काल में बने भवनों में अलंकरण की प्रचुरता है। इनमें मूल्यवान् रत्नों और पत्थरों का प्रचुर उपयोग हुआ है।
(3.) गुम्बद कंदीय आकृति (बल्ब शेप) में बनने लगे और दोहरे गुम्बद का प्रचलन आम हो गया। इस काल के गुम्बद ऊँचे उठे हुए हैं।
(3.) अलंकरण और पच्चीकारी के लिए रंगीन टाहलों का प्रयोग तथा पच्चीकारी के रूप में पैट्रा ड्यूरा नामक तकनीक का प्रचुर रूप से प्रयोग हुआ।
(4.) भवनों के निर्माण में लाल बलुआ पत्थर की जगह सफेद संगमरमर को प्रमुखता दी गई। हालांकि लाल बलुआ पत्थर का उपयोग भी जारी रहा।
(5.) इस काल के भवनों में बंगला शैली के कंगूरे भी देखे जाते हैं।
(6.) शाहजहाँ कालीन भवनों में कुछ बड़े परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होते हैं। इस काल में आयताकार महलों के स्थान पर वृत्ताकार महल दिखाई देते हैं।
(7.) आगरा की मोती मस्जिद तथा दिल्ली की जामा मस्जिद में शाहजहाँ ने स्थापत्य सम्बन्धी कुछ ऐसे प्रयोग किए जिनसे मस्जिद में आने वाले नमाजियों को प्रसन्नता का अनुभव हो। इसलिए इन मस्जिदों के विभिन्न निर्माणों में संतुलन स्थापित किया गया है तथा उन्हें विस्तृत आकार में बनाया गया है।
शाहजहाँ के शासन-काल में निर्मित आगरा के भवन
आगरा दुर्ग में भीतरी भवनों का निर्माण
शाहजहाँ ने आगरा के दुर्ग में पहले से ही बने हुए बलुआ पत्थर के बहुत से भवनों को संगमरमर से सजाया। इस दुर्ग में शाहजहाँ की बनवाई इमारतों में दीवाने-आम, दीवाने-खास, मुसम्मन-बुर्ज, शीश महल, खास महल, नगीना मस्जिद तथा मोती मस्जिद मुख्य हैं।
दीवान-ए-आम: आगरा के दुर्ग में पहले से ही एक दीवान-ए-आम बना हुआ था। यह एक खुला एवं विशाल भवन था जिसे ई.1627 में शाहजहाँ ने तुड़वाकर दुबारा बनवाया। इसका हॉल 201 फुट लम्बा तथा 67 फुट चौड़ा है। यह विशाल भवन तीन ओर से खुला है और इसकी छत 40 ऊँचे एवं दोहरे स्तम्भों पर टिकी हुई है। इन स्तम्भों को संगमरमर से निर्मित मेहराबों से जोड़ा गया है। जिससे इसे ऐश्वर्य प्रदान किया जा सके। भवन के चौथी ओर संगमरमर से बनी एक विशाल गैलेरी है जो कि पैट्रा ड्यूरा शैली के सुंदर जड़ाऊ और उभरी हुई फूल-पत्तियों से सुसज्जित है। दीवारों को काट-काटकर उनमें रंगीन पत्थर, जवाहर, स्वर्ण इत्यादि जड़े गए थे। तख्तेताउस इसी भवन में रहता था। शाही मण्डप के ठीक नीचे एक हॉल में ऊँचा स्थान था, जहां वजीर बैठता था।
दीवान-ए-खास: यह संगमरमर का एक आयताकार भवन है तथा एक ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ है। शाहजहाँ द्वारा इसका निर्माण दीवान-ए-आम के निर्माण के दस साल बाद अर्थात् ई.1637 में करवाया गया। इसमें दो बड़े कक्ष हैं जिन्हें संगमरमर के बड़े एवं खुले गलियारे से जोड़ा गया है। इस गलियारे में मेहराबदार खम्भों पर छत रखी गई है। इन खम्भों और मेहराबों पर नक्काशी और जड़ाऊ कार्य किया गया है। इसकी दीवारें उभरे हुए फूलदानों, फूलों और पत्तियों से सुसज्जित हैं।
विशाल कक्ष की दीवारों के निचले भाग में नक्काशी का काम है और किनारों पर मूंगे आदि जड़े हुए हैं। इसकी छत का भीतरी भाग इसके तमलीखाने की छत की तरह का है। दीवान-ए-खास के दक्षिणी भाग में एक लम्बा फारसी अभिलेख है जिसमें एक शेर लिखा हुआ है। इस शेर में इस भवन के निर्माण की तिथि हिजरी 1045 (ई.1637) लिखी हुई है।
मिर्ज़ा राजा जयसिंह ने छत्रपति शिवाजी के साथ पुरंदर की संधि की थी जिसके बाद ई.1666 में शिवाजी आगरा आए एवं इसी दीवान-ए-खास में औरंगज़ेब से मिले। शिवाजी को अपमानित करने हेतु उन्हें कम मनसब वाले सरदारों की कतार में खड़ा किया गया। इससे नाराज होकर शिवाजी औरंगजेब का दरबार छोड़कर बाहर निकल गए। इसलिए उन्हें आगरा में रामसिंह कच्छवाहे की हवेली में नज़रबंद किया गया। शिवाजी की एक अशवारोही मूर्ति किले के बाहर लगायी गयी है। दीवाने खास के सामने एक बड़े आँगन में सफेद संगमरमर का विशाल चबूतरा बना हुआ है।
शीशमहल: दीवान-ए-खास के नीचे शीशमहल स्थित है जो संगमरमर का वर्गाकार भवन है। इसका निर्माण दीवान-ए-खास के साथ ही करवाया गया था। इसकी दीवारों पर शीशे जड़े हुए हैं और उन पर सुनहरी या अन्य रंगों का काम किया गया है। इसमें दो हौज हैं जिनमें से एक को 10 गज लम्बी और एक गज चौड़ी नहर द्वारा पानी से भरा जाता था। इस हौज में से पानी बहकर दूसरे हौज में जाता था।
खास महल: यह बादशाह का हरम था तथा दीवान-ए-खास से लगा हुआ था। यमुना की तरफ की इसकी दो सुनहरी बुर्जियों में सुन्दर फूलों की सजावट है तथा बढ़िया नक्काशी की गई है। इस महल की निचली मंजिल लाल पत्थर से निर्मित है, खास महल के गलियारे, कमरे तथा ऊपरी भाग सफेद संगमरमर के हैं। इनकी दीवारों पर अनेक प्रकार के सुन्दर तथा मूल्यवान पत्थरों की जड़ाई की गई है। उस समय इस भवन से यमुना की लहरें टकराया करती थीं। इस महल के सामने अँगूरी बाग है। बाग के तीन तरफ बड़े हॉल हैं और चौथी तरफ संगमरमर का बड़ा गलियारा है। इस बाग में कई फव्वारे भी हैं।
पर्सी ब्राउन ने लिखा है- ‘इसकी दीवारों के निचले भागों और खम्भों पर उभरे सुन्दर काम की बहुलता है और किनारियों पर विभिन्न प्रकार के कीमती रत्न जुड़े हुए हैं। इसकी छत सुनहरी और अन्य चमकीले रंगों से सुसज्जित है। इसकी दाईं ओर दो सुंदर सुनहरी मण्डप हैं जिनकी छतें ढलवां और मेहराब नोकदार हैं। ये दो ओर से खुले हैं। इसकी छत के नदी की ओर के भाग के ऊपर दो छोटे किंतु बहुत ही सुंदर सुनहरे गुम्बद हैं। इसकी बारीक खुदाई और उभरे फूल-पत्तियों की बेला की सुंदर सजावट है। इसकी छत और गुम्बद को फ्लोरेंस जैसे मोजेक के काम से और मुलम्मे के रंगीन चित्रों से सुसज्जित किया गया है। यह जड़ाऊ कार्य रंगीन सजावट और सुंदर बारीक खुदाई इस सुंदर इमारत को और भी सुंदर बनाते हैं। इसके सुसज्जित आरामदेह कक्ष वैदूर्यमणि, गोमेद, सूर्यकांत, पुखराज और लालों से भी सभी ओर दमकते से रहते हैं……..।’
इस महल की नदी की ओर की बालकनी में तैमूर से लेकर शाहजहाँ तक के मुगल बादशाहों के चित्र थे। इसकी दीवारों पर फारसी का एक सुंदर अभिलेख था जिसमें कहा गया था कि इस महल को शाहजहाँ ने बनवाया था और इस जैसा पृथ्वी पर दूसरा महल पहले कभी नहीं था।
झरोखा दर्शन: खास महल और आठकोर मीनार के मध्य में झरोखा दर्शन है। यह सफेद संगमरमर का बना हुआ है। इसकी छतें चमकदार हैं। यहाँ से शाहजहाँ जनता को दर्शन देता था।
मुसम्मन बुर्ज: शाहजहाँ ने इन भवनों के साथ ताजमहल की तरफ उन्मुख आलिन्द (छज्जे) वाला एक बड़ा अष्टभुजाकार बुर्ज़ बनवाया था जिसे मुसम्मन बुर्ज तथा शाह बुर्ज कहते थे। यह सफेद संगमरमर से निर्मित चार मंजिला भवन है। इसकी चौथी मंजिल में सुन्दर नक्काशी है। इसके बीच में एक हौज बना हुआ है जिसका रूप गुलाब के फूल जैसा है। उसके सामने एक झरना भी बना हुआ है। इस बुर्ज से मुगल हरम की स्त्रियां नीचे खुले मैदान में होने वाले पशु-युद्धों को देखा करती थीं। इसके दूसरी ओर बादशाह सफेद संगमरमर के सिंहासन पर बैठता था। मुमताज महल की मृत्यु के बाद शाहजहाँ इसी बुर्ज से अपनी प्रिय बेगम के मकबरे अर्थात् ताजमहल को देखा करता था।
नगीना मस्जिद: आगरा के दुर्ग में स्थित इस मस्जिद का निर्माण संगमरमर से किया गया है। स्थापत्य की दृष्टि से यह छोटी किंतु सुंदर मस्जिद है। इसका निर्माण हरम की महिलाओं के लिए हुआ था। इसे शाहजहाँ की मोती मस्जिद के समकक्ष माना जाता था। मस्जिद से लगे कई कमरे हैं जिनमें शाहजहाँ को बंदी बनाकर रखा गया था। इसके भीतर मीना बाज़ार भी था जिसमें केवल महिलायें ही सामान बेचा करती थी। इसके सामने एक सुन्दर बाग है।
मोती मस्जिद, आगरा
मोती मस्जिद का निर्माण ई.1654 में शाहजहाँ ने करवाया। इसे आगरा की सबसे सुंदर इमारत माना जाता है। यह दीवान-ए-आम के उत्तर में बने एक विशाल सहन में ऊँची कुर्सी पर बनी है। इसके सहन में लाल पत्थर के मेहराबी दरवाजे हैं। मस्जिद के भीतरी भाग को सुन्दर बनाने के लिए सफेद संगमरमर का उपयोग किया गया है। इस मस्जिद का वर्गाकार आँगन सफेद संगमरमर के बड़े आकार के चौकोर खण्डों से जड़ा हुआ है। इसके चारों तरफ एक सुंदर गैलेरी बनी हुई है तथा एक खम्भेदार बरामदा है। इसमें एक फव्वारा तथा एक धूप घड़ी लगी हुई है। इसमें अनेक कमरे बने हुए हैं जिन्हें संगमरमर के जालीदार पर्दों से एक-दूसरे से अलग कर दिया गया है।
पर्सी ब्राउन ने लिखा है- ‘बहुत थोड़ी मजहबी इमारतें ही दर्शकों को इस मस्जिद की अपेक्षा अधिक पवित्र भावना से ओतप्रोत करवाती हैं। यह मस्जिद अपनी निर्दोष निर्माण सामग्री और अपने अंगों की कौशलपूर्ण नियंत्रित रचना होने के कारण चरमोत्कर्ष पर पहुंची मुगल कला का प्रतिनिधित्व करती है। उपासनालय की मेहराबों की प्रवेश-द्वारों की मेहराब से श्रेष्ठता और उनकी तुलना, कोनों पर बनी हुई छतरियों की योजना और विशेष रूप से दोनों पक्षों के बीच में केन्द्रीय गुम्बद के डमरू का कुशलता से उठाना आदि, इस मस्जिद में केवल वे कुछ अंग हैं जो यह बहुत स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करते हैं कि इस समय तक मुगल निर्माण संतुलन और लय के सिद्धांत को भली-भांति समझने लगे थे।’
मोती मस्जिद की प्रशंसा करते हुए सन्त निहालसिंह ने लिखा है- ‘इसकी डिजाइन ऐसी कारीगरी द्वारा बनाई गई थी जिसमें यह कौशल था कि यह आत्मा के भौतिक बन्धनों से निकल जाने के संघर्ष को प्रस्तर में प्रदर्शित कर दे।’
मुगलों के बाद लाल किले की स्थिति: यह किला 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय युद्ध स्थली भी बना। प्रसिद्ध अंग्रेज़ी उपन्यास लेखक सर आर्थर कानन डायल के शर्लाक होम्स को केन्द्रीय पात्र बनाकर लिखे गए जासूसी उपन्यास ‘द साइन ऑफ फोर’ में आगरा के किले का मुख्य रूप से वर्णन किया गया है। प्रसिद्ध मिस्री पॉप गायक हीशम अब्बास के एलबम ‘हबीबी’ में आगरा का किला दिखाया गया है। ‘एज आफ ऐम्पायर’ के विस्तार पैक ‘एशियन डायनैस्टीज़’ में आगरा के किले को भारतीय सभ्यता के पाँच अजूबों में से एक दिखाया गया है जिसे जीतने के बाद ही कोई अगले स्तर पर जा सकता है। एक बार बनने के बाद, यह खिलाड़ी को सिक्कों के जहाज भेजता रहता है। इस वर्ज़न में कई अन्य खूबियां भी हैं।
वर्तमान समय में लाल किले का परिदृश्य
किले के तीन प्रवेश द्वार हैं। इसका मुख्य द्वार लाहौरी गेट कहलाता है जो वास्तुकला की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है। शेष दो द्वार निजी प्रयोग के लिए बनाए गए थे। इसकी दीवारों पर अष्टकोणीय मीनारें तथा विशालाकाय बुर्ज हैं। इसमें दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, रंगमहल आदि महत्वपूर्ण भवन हैं। लाल किले में प्रवेश करते समय शाही सैनिकों के निवासगृह के बाद दूसरा भवन नौबतखाना पड़ता है। इसके बाद दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास आता है। केन्द्रीय अहाते के आधे भाग में शाही परिवार के महल हैं और इनके सामने दूसरे आधे भाग में कुई सुंदर बाग हैं। नदी के ऊपर के भाग में संगमरमर के कई मण्डप एवं महल बने हुए हैं जिनमें से मोती महल, हीरामहल और रंग महल प्रमुख हैं। ये सभी भवन एक ही शैली में निर्मित हैं।
पर्सी ब्राउन ने लिखा है- ‘यद्यपि इनकी योजनाएं बहुत ही सुंदर लगती हैं तथापि प्रत्येक की शैली बहुत कुछ वही है। प्रत्येक भवन में प्रायः एक मंजिल, सभी ओर से खुला हुआ हॉल है। इस विशाल हॉल को खम्भों द्वारा कई भागों में विभक्त किया गया है और इसकी छत फॉलिएटेड मेहराबों पर आधारित है। हॉल के ऊपर समतल छतें हैं जिन पर कहीं जड़ाऊ काम तथा कहीं पर खुदाई का काम है। कुछ स्थानों पर रंगीन और सुनहरी डिजाइनें बनी हुई हैं। इनके फर्श संगमरमर के हैं। इन इमारतों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक छोट-छोटी नहरों की व्यवस्था है जो आंशिक रूप से अनेक इमारतों में हमामों को पानी पहुंचाने के लिए बनाई गई थीं। इन नहरों से प्रत्येक महल में बने जलमहल तक भी पानी पहुंचाया जाता था। यमुना के सत्तर मील ऊपर की ओर एक बांध बनाया गया था। इस बांध से एक नहर, जल लेकर लाल किले में प्रवेश करती थी। किले में इस नहर का प्रवेश उत्तरी कोण में बने एक छिद्र से होता था। यह नहर-ए-बिहिश्त (स्वर्ग की नहर) शाहबुर्ज के खुले केन्द्रीय मेहराबदार मण्डप के संगमरमरी झरने से प्रवेश करती थी और वहीं से पत्थर या संगमरमर की नालियों द्वारा सभी दिशाओं में बंट जाती थी। कुछ मण्डपों में यह फव्वारों का रूप ले लेती थी……।’
किले के उत्तरी भाग में दीवान-ए-खास है। स्थापत्य की दृष्टि से इसकी शैली पूर्ण नहीं है, फिर भी यह प्रभावशाली है तथा शाहजहाँ के कला-वैभव का परिचायक है। इस पर अमीर खुसरो की कविता की पंक्तियां खुदी हुई हैं-
गर फिरदौस बररूये जमीं अस्त।
हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त।।
अर्थात् यदि धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।
जामा मस्जिद, आगरा
जामा मस्जिद आगरा के किले के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसका निर्माण शाहजहाँ की पुत्री जहांआरा ने ई.1648 में करवाया था। इसका आकार 130 फुट गुणा 100 फुट है। इसकी मेहराबें सामने की ओर चौड़ा स्थान छोड़कर बनाई गई हैं जो इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। मस्जिद की छत के प्रत्येक कोने पर एक-एक अष्टकोणीय गुम्बददार छतरी है। इसके ऊपरी भाग पर तीन बड़े गुम्बद तथा चार सुंदर मीनारें स्थित हैं। वी. पी. सक्सेना ने लिखा है- ‘यह साहसी विधवा की एक सुंदर कृति है।’
दारा शिकोह पुस्तकालय, आगरा
शाहजहाँ के बड़े पुत्र दारा शिकोह (ई.1615-59) द्वारा आगरा शहर के मध्य में एक पुस्तकालय भवन का निर्माण करवाया गया था। लाल बलुआ पत्थर से निर्मित यह शाहजहाँकालीन ऐतिहासिक भवन आज भी मौजूद है। इसे दारा शिकोह की हवेली भी कहा जाता था। शाहजहाँ के शासन-काल में इस भवन में सूफी विद्वानों द्वारा आध्यात्मिक चर्चाएं आयोजित की जाती थीं जिनमें प्रायः दारा शिकोह स्वयं भी उपस्थित रहता था। दारा शिकोह को फारसी तथा संस्कृत भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उसने कई उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया था और इस्लाम तथा वेदांत की समानताओं को उजागर करने वाली आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी थीं।
दारा शिकोह ने इस पुस्तकालय के लिए यूरोप से हजारों पुस्तकें खरीद कर मंगवाई थीं। पुस्तकालय भवन में पुस्तकों को रखने के लिए तरतीब से अलमारियां बनाई गईं तथा पुस्तकें रखने के स्थान के साथ-साथ बाइण्डरों, पेंटरों एवं अनुवादकों के लिए अलग-अलग स्थान बनवाए गए। भवन के सभी हिस्सों में प्राकृतिक प्रकाश एवं हवा के प्रवेश के लिए विशेष प्रबंध किए गए थे। इसका केन्द्रीय कक्ष विद्वानों के सुविधा पूर्वक बैठने के लिए काफी बड़े आकार में बनाया गया जिसकी खिड़कियों को रंगों से सजाया गया था।
ई.1921 के आगरा गजेटियर के अनुसार अंग्रेजों ने ई.1881 में इस भवन को टाउन हॉल में परिवर्तित कर दिया। ब्रिटिश काल में ही कुछ समय के लिए इस भवन में आगरा हाईकोर्ट भी चला तथा ई.1903 में इसे सरकारी कार्यालयों एवं नगर पालिका के कार्यालय को दे दिया गया। इस दौरान इस भवन का सारा सौंदर्य नष्ट हो गया तथा दाराशिकोह के समय वाली समस्त रौनक समाप्त हो गई।
आजादी की लड़ाई के दौरान अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने इस भवन से जनता को सम्बोधित किया। इस कारण यह आगरा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भवन बन गया किंतु स्वतंत्रता के पश्चात् आगरा नगरपालिका ने इसके कुछ कमरे मोतीगंज मण्डी के व्यापारियों को किराए पर उठा दिए तथा इसके चारों ओर की भूमि पर चीनी, गुड़ और चावल के व्यापारियों ने अतिक्रमण कर लिए। वर्तमान में इस भवन में एक तरफ खादी बोर्ड का मंदिर है तथा एक हिस्से में स्कूल चलता है। दारा शिकोह ने इसी प्रकार का एक पुस्तकालय दिल्ली में भी बनवाया था।
चीनी का रौजा, आगरा
आगरा स्थित चीनी का रौजा में शाहजहाँ के मंत्री अल्लामा अफज़ल खान मुल्ला की कब्र है। वह जहाँगीर एवं शाहजहाँ के काल में विख्यात पारसी कवि और विद्वान था जो बाद में शाहजहाँ का प्रधानमंत्री भी बना। उसकी मृत्यु ई.1639 में हुई। उसकी स्मृति में यह मकबरा बनाया गया। यह यमुना के पूर्वी तट पर, एतमादुद्दौला के मकबरे से केवल एक किलोमीटर उत्तर में स्थित है। मकबरे का मुख्य द्वार मक्का की ओर रखा गया है। इस मकबरे के बाहरी भाग पर चमकदार टायल्स लगाई गई हैं जिन्हें ‘कशीकारी’ एवं ‘चीनी कला’ भी कहा जाता है। इसके गुम्बद मुगल शैली के अन्य गुम्बदों की तरह आनुपातिक नहीं हैं। नीचे गुम्बदों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह ईरानी शैली का मकबरा है। गुंबद की भीतरी छत पर तस्वीरों और इस्लामिक लिखावट के चिह्न देखे जा सकते हैं। गुंबद के ऊपर कुरान की कुछ आयतें खुदी हुई हैं।
शाहजहाँ कालीन दिल्ली के भवन
शाहजहाँनाबाद
ई.1638 में शाहजहाँ ने यमुना नदी के दाएं तट पर शाहजहाँनाबाद बसाना आरम्भ किया। पर्सी ब्राउन ने लिखा है- ‘अकबर के फतेहपुर सीकरी की तरह शाहजहाँ ने दिल्ली में अपने नाम पर शाहजहाँनाबाद नामक नगर की स्थापना की तथा वहाँ अनेक सुंदर भवनों का निर्माण करवाया।’ शाहजहाँनाबाद को एक सुनिश्चित योजना के अनुसार बनाया गया था। इसके मुख्य दरवाजों से दो बड़े आम रास्ते निकलते थे जो कि नगर की दीवारों में बने दरवाजों तक जाते हैं और इस प्रकार जो कोण बनता है उसी में जामा मस्जिद बनाई गई है। शाहजहाँनाबाद उत्तर से दक्षिण की ओर समानांतर चतुर्भुज के आकार का बना हुआ है। आगरा के किले की तरह यह भी एक परकोट से घिरा हुआ है किंतु किले के परकोटे की तुलना में यह कमजोर है।
लाल किला, दिल्ली
शाहजहाँ ने दिल्ली के पास शाहजहाँनाबाद नामक नगर बसाया और ई.1638 में उसमें लाल किले के नाम से एक किले का निर्माण आरम्भ करवाया। यह ई.1647 में बनकर तैयार हुआ। इसके निर्माण में लगभग 1 करोड़ रुपया व्यय हुआ था। किले का निर्माण हमीद अहमद नामक शिल्पकार की देख-रेख में हुआ।
दिल्ली के लाल किले को प्रारम्भ में किला-ए-मुल्ला के नाम से जाना जाता था। यह आगरा के लाल किले की तुलना में बहुत छोटा है। इसकी लम्बाई 3100 फुट और चौड़ाई 1650 फुट है। किले की दीवारें ऊँची तथा कँगूरेदार हैं। इसकी पश्चिमी दीवार में मुख्य दरवाजा बनाया गया जो जन साधारण के प्रवेश के लिये था। दक्षिणी दीवार वाला दरवाजा विशेष व्यक्तियों द्वारा ही व्यवहार में लाया जाता था।
दिल्ली के दुर्ग के भीतर की इमारतों की प्रशंसा करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘दिल्ली दुर्ग के भीतर की इमारतें अत्यधिक अलंकृत थीं और चीन की कला के लिए स्पर्धा की चीज बन गई थीं।’
दीवाने आम: दिल्ली के लाल किले के मध्य विशाल भाग में दीवाने आम बना हुआ है। इसका आकार चतुर्भुजी है। यह पत्थर से निर्मित 185 फुट लम्बा तथा 70 फुट चौड़ा भवन है। यहाँ बैठकर शाहजहाँ जनसाधारण की फरियाद सुनता था। इसके बाहरी भाग में 9 मेहराबें दोहरे खम्बों पर आधारित हैं। तीनों ओर का मार्ग स्तम्भों पर आधारित दाँतेदार डाटों से बना हुआ है। इन स्तम्भों की कुल संख्या 40 है। इस भवन में पीछे की दीवार में एक मेहराबदार ताख है। इस ताख में शाहजहाँ का प्रसिद्ध तख्ते ताउस रखा रहता था। इस ताख की दीवार में अत्यन्त सुन्दर शिल्पकारी की गई थी तथा पत्थरों को खोदकर उनमें रत्नों की जड़ाई की गई थी।
दीवान-ए-खास: दिल्ली के लाल किले की इमारतों में दीवान-ए-खास सर्वाधिक अलंकृत भवन है। इसका निर्माण एक निश्चित योजना के अनुसार हुआ है। इसका बड़ा कमरा 90 फुट लम्बा और 67 फुट चौड़ा है। इसके बाहरी भाग में पाँच रास्ते हैं। ये पाँचों रास्ते मेहराबदार हैं तथा बराबर आकार के हैं। दूसरी ओर के रास्ते कुछ छोटे हैं। इस प्रकार यह इमारत अधिक खुली हुई है। इन रास्तों से काफी हवा आती है जिससे यहाँ ठण्डक बनी रहती हैं। इसका फर्श सफेद संगमरमर का है। इनकी मेहराबें दाँतेदार हैं। छतें बहुत ही सुन्दर हैं। इन छतों में स्वर्ण तथा जवाहरातों की सजावट की गई है। इस छत को टिकाये रखने के लिये स्तम्भों का प्रयोग नहीं किया गया है। यह छत 12 कोनों के सेतुबन्ध से सधी हुई है। प्रत्येक भाग में सुन्दर जड़ाई तथा रंग का काम हुआ है। दीवारों तथा मेहराबों पर फूलों की सुन्दर आकृतियाँ बनी हुई हैं। इसके मेहराब स्वर्ण तथा रंग से सजे हुए हैं और पंक्तियों से भरे हुए से लगते हैं।
रंगमहल: रंगमहल तथा दीवाने खास में जड़ाई, नक्काशी, पच्चीकारी तथा सजावट का काम बहुत उत्तम है। इन दोनों की बनावट एक जैसी है। दिल्ली के लाल किले में स्थित रंगमहल एक महत्त्वपूर्ण इमारत है। यह शाहजहाँ का हरम था। यह भवन 153 फुट लम्बा और 69 फुट चौड़ा है। इसके मध्य में एक बड़ा कक्ष है तथा चारों कोनों में छोटे-छोटे कक्ष बने हुए हैं। यह अलंकृत सेतबन्धों द्वारा 15 भागों में विभाजित है तथा रंग एवं चमक में अद्वितीय है।
दिल्ली दरवाजा
दिल्ली दरवाजा, दिल्ली शहर के दक्षिणी ओर का नगर रक्षक द्वार था। यह द्वार पुरानी दिल्ली क्षेत्र (शाहजहाँनाबाद) और नई दिल्ली क्षेत्र के बीच स्थित है। पुरानी दिल्ली क्षेत्र के नेताजी सुभाष मार्ग एवं नई दिल्ली क्षेत्र के बहादुरशाह जफर मार्ग के बीच यह दरियागंज के छोर पर स्थित है। इस दरवाजे का निर्माण शाहजहाँ ने ई.1638 में दिल्ली के सातवें शहर तथा राजधानी शाहजहानाबाद की घेराबन्दी करती रक्षक दीवार के प्रवेश-द्वार के रूप में करवाया था। बादशाह इस द्वार का उपयोग नमाज पढ़ने हेतु जामा मस्जिद जाने के लिये करता था। यह द्वार नगर के तत्कालीन उत्तरी द्वार कश्मीरी दरवाजे से मिलता जुलता था। यह लाल बलुआ पत्थर से निर्मित था। द्वार के निकट हाथी की दो बड़ी प्रतिमाएं भी बनी थीं। इसलिए इसे हाथी-पोल भी कहा जाता था।
इस दरवाजे से निकलती सड़क उत्तरी ओर मुख्य शहर से गुजरती हुई उत्तरी द्वार, कश्मीरी दरवाजे तक जाती है एवं दरियागंज से निकलती है। दीवार का कुछ भाग दिल्ली जंक्शन रेलवे स्टेशन के निर्माण हेतु ध्वस्त कर दिया गया था। वर्तमान में इस इमारत को ऐतिहासिक स्मारक के रूप में संरक्षित किया गया है तथा इसका रखरखाव भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग द्वारा किया जा रहा है।
जामा मस्जिद, दिल्ली
‘जामा मस्जिद’ का अर्थ शुक्रवार मस्जिद होता है। शाहजहाँ की बनवाई हुई दिल्ली की इमारतों में जामा-मस्जिद सबसे विशाल है। इसका निर्माण ई.1650 में आरम्भ करवाया गया और ई.1656 में पूरा हुआ। यह भारत की सबसे विशाल मस्जिद है। इस मस्जिद को ‘मस्जिद-ए-जहनुमा’ भी कहते हैं। यह मस्जिद दिल्ली के लाल किले से केवल आधा किलोमीटर दूर स्थित है। इसे 5,000 कारीगरों ने शाहजहाँनाबाद में पहाड़ी भोज़ाल पर बनाया था। यह लाल पत्थर से निर्मित शाही ढंग की इमारत है। इसके तीनों विशाल दरवाजों पर बुर्ज बने हुए हैं। पूर्व का द्वार शाही परिवार के उपयोग के लिये था। उत्तर और दक्षिण के द्वारों से जन-साधारण प्रवेश करता था।
मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिये विशाल स्थान उपलब्ध है जिसमें एक साथ 25000 लोग नमाज पढ़ सकते हैं। इसके सामने 325 फुट लम्बा आयताकार सहन है जिसके बीच में वजू करने के लिये एक तालाब है। नमाज स्थल के बीच का बाहरी दरवाजा चौड़ा है तथा दोनों ओर पाँच-पाँच दाँतेदार मेहराबों के रास्ते हैं। इसके दोनों कोनों पर चार मंजिला लम्बी-लम्बी मीनारें हैं। इसका मुख्य कक्ष बहुत सुंदर है। इसमें ग्यारह मेहराब हैं जिसमें बीच वाला मेहराब अन्य से कुछ बड़ा है। इसके ऊपर बने तीन विशाल गुंबदों को सफेद और काले संगमरमर से सजाया गया है जो निजामुद्दीन दरगाह की याद दिलाते हैं।
जामा मस्जिद के निर्माण कार्य की देख-रेख शाहजहाँ के वजीर सादुल्लाह खान ने की थी। मस्जिद का उद्घाटन 23 जुलाई 1656 को उज़बेकिस्तान के बुखारा के मुल्ला इमाम बुखारी ने किया था। शाहजहाँ का यह अंतिम भवन निर्माण था, इसके बाद उसने किसी अन्य कलात्मक इमारत का निर्माण नही किया। इस स्थल से प्राचीन मंदिर के अवशेष प्राप्त होते हैं। इससे अनुमान होता है कि यह किसी समय हिन्दू पूजा स्थल रहा होगा। शाहजहाँ ने उसे तोड़कर मस्जिद में बदल दिया होगा। हिन्दू इसे प्राचीन विष्णु मंदिर मानते हैं। इस भवन के नीचे हिन्दू मूर्तियां दबी हुई बताई जाती हैं। सांसद विनय कटियार एवं सांसद साक्षी महाराज इस मस्जिद को हिन्दू मंदिर होने का दावा करते हैं। इस तथ्य की पुष्टि के लिए व्यापक शोध की आवश्यकता है।
औरंगजेब ने पाकिस्तान के लाहौर में बादशाही मस्जिद का निर्माण करवाया जिसका नक्शा दिल्ली की जामा मस्जिद की ही तरह था। ई.1948 में जब हैदराबाद का भारत संघ में विलय नहीं हुआ था, हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली खान से दिल्ली की जामा मस्जिद की एक चौथाई मंजिल के जीर्णोद्धार के लिए 75,000 रुपए मांगे गए। निज़ाम ने यह कहते हुए मस्जिद को 3 लाख रुपए स्वीकृत किए कि– ‘मस्जिद का बाकी तीन चौथाई हिस्सा पुराना नहीं दिखना चाहिए।’
दाराशिकोह लाइब्रेरी, दिल्ली
शाहजहाँ के बड़े पुत्र दारा शिकोह द्वारा ई.1636 में दिल्ली में एक पुस्तकालय भवन का निर्माण करवाया गया था जो अब गुरु गोविंदसिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय परिसर में स्थित है। परवर्ती मुगल बादशाहों के समय इस भवन को पंजाब के सूबेदार का आवास बनाया गया। यह भवन दिल्ली के प्रथम ब्रिटिश रेजिडेंट डेविड ऑक्टरलोनी का भी आवास रहा। बाद में यहाँ दिल्ली कॉलेज स्थानांतरित किया गया। उसके बाद इस भवन में जिला स्कूल और फिर नगर निगम बोर्ड का स्कूल चला। अब इस भवन में दिल्ली सरकार का पुरातत्व विभाग चलता है। पुरातत्व विभाग इसे संग्रहालय में बदलने की योजना पर काम कर रहा है। इस संग्रहालय में खुदाई में प्राप्त दो हजार वर्ष पुराने टैराकोटा बर्तन, मूर्तियां तथा दारा शिकोह के समय एकत्र की गई बहुमूल्य पुस्तकें प्रदर्शित की जानी हैं।
फतेहपुरी मस्जिद
फतेहपुरी मस्जिद चांदनी चौक की पुरानी गली के पश्चिमी छोर पर स्थित है। इसका निर्माण शाहजहाँ की बेगम फतेहपुरी ने ई.1650 में करवाया था। उसी बेगम के नाम पर इस मस्जिद का नाम फतेहपुरी मस्जिद पड़ा। यह बेगम फतेहपुर की थी। ताज महल परिसर में बनी मस्जिद भी इसी बेगम के नाम पर है। लाल पत्थरों से बनी यह मस्जिद मुगल वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है। मस्जिद के दोनों ओर लाल पत्थर से बने स्तंभों की कतारें हैं। इस मस्जिद में एक कुंड भी है जो सफेद संगमरमर से बना है।
अंग्रेज़ों ने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद इस मस्जिद को नीलाम कर दिया। राय लाला चुन्नामल ने इस मस्जिद को 19,000 रुपए में खरीद लिया। लाला चुन्नामल के वंशज आज भी चांदनी चौक में चुन्नामल हवेली में रहते हैं। ई.1877 में सरकार ने इसे चार गांवों के बदले में वापस अधिग्रहीत कर मुसलमानों को दे दिया। ऐसी ही एक अन्य मस्जिद अकबरबादी बेगम द्वारा बनवाई गई थी जो अंग्रेज़ों ने ई.1858 में नष्ट कर दी।
फहीम का मकबरा
हुमायूँ के मकबरे के परिसर के बाहर नीला बुर्ज नामक मकबरा स्थित है। इसका यह नाम इसके गुम्बद के ऊपर लगी नीली ग्लेज्ड टाइलों के कारण पड़ा है। यह मकबरा अकबर के नौरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना द्वारा अपने सेवक मियां फ़हीम के लिये बनवाया गया था। मियां फ़हीम, रहीम के बेटे फ़ीरोज़ खान के संग ही पला-बढ़ा था और रहीम का अत्यंत प्रिय सेवक था। ई.1625 में जब शहजादे खुर्रम (शाहजहाँ) के आदेश से महावत खाँ ने रहीम को बंदी बनाया था तब फहीम, महावत खाँ के सिपाहियों से लड़ते हुए काम आया। इस मकबरे का स्थापत्य बड़ा अनूठा है। यह बाहर से अष्टकोणीय तथा भीतर से वर्गाकार है। इसकी छत अपने समय में प्रचलित दोहरे गुम्बद से अलग है। भीतर के प्लास्टर पर बहुत ही सुंदर चित्रकारी एवं पच्चीकारी की गई है।
इस परिसर के निकट बड़ा बताशेवाला महल, छोटे बताशेवाला महल और बारापुला नामक एक पुल शामिल है जिसमें 12 स्तम्भ तथा उनके बीच 11 मेहराब हैं। इसका निर्माण जहाँगीर के दरबार के एक हिंजड़े मिह्न बानु आगा ने ई.1621 में करवाया था।
अब्दुर्रहीम खानखाना का मकबरा, दिल्ली
अब्दुर्रहीम खानखाना का मकबरा शाहजहाँ काल की महत्वपूर्ण इमारतों में से है। इसकी निर्माण योजना हुमायूँ के मकबरे की योजना पर आधारित है लेकिन इसके अग्रभाग के पक्षों को सरल कर दिया गया है जिससे इसकी योजना अष्टकोणीय न होकर वर्गाकार हो गई है शेष स्थापत्य में दोनों मकबरे एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं। इस मकबरे पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट झलकता है।
चांदनी चौक
चांदनी चौक का निर्माण शाहजहाँ ने करवाया था। इसका डिजाइन शहजादी जहाँआरा ने किया था। इसमें मूल रूप से एक दूसरे को काटने वाली सीधी नहरें बनाई गई थीं जिनमें चंद्रमा की चांदनी झिलमिलाया करती थी। इसीलिए इसका नाम चांदनी चौक पड़ा। इन नहरों के किनारे-किनारे दुकानें एवं अमीर लोगों की हवेलियां बनाई गई थीं। समय के साथ नहरें तो समाप्त हो गईं तथा उनके स्थान पर घना बाजार विकसित हो गया। वर्तमान में यह भारत का सबसे बड़ा थोक बाजार बन गया है। बहादुरशाह जफर के दरबारी उर्दू कवि मिर्जा गालिब की हवेली, बादशाह शाहआलम (द्वितीय) से सराधना की जागीर पाने वाली समरू बेगम तथा फतेहपुरी मस्जिद को खरीदने वाले लाला चुन्नामल की हवेली एवं अन्य ऐतिहासिक हवेलियां चांदनी चौक में स्थित हैं। यह बाजार लाल किले के सामने स्थित है तथा फतेहपुरी मस्जिद का दृश्य यहाँ से साफ दिखाई देता है। चांदनी चौक की कई गलियां विशिष्ट प्रकार की सामग्री के बाजार के रूप में प्रसिद्ध हैं
चांदनी चौक में स्थित नई सड़क: पुस्तकों की दुकानों के लिए जानी जाती है। दरीबा कलां सोने, चांदी और हीरे-जवाहरात के आभूषणों के बाजार के रूप में प्रसिद्ध है। कुंदन एवं मीनाकारी के काम किए हुए आभूषण भी इस बाजार की पहचान रहे हैं। किसी समय यह हाथ से बने आभूषणों के लिए दुनिया भर के देशों में जाना जता था। इत्र एवं सुगंधित तेलों के लिए भी दरीबा कलां विशेष रूप से प्रसिद्ध था।
चावड़ी बाजार: कागजों के विशिष्ट उत्पादों तथा विवाह के निमंत्रण पत्रों की छपाई की लिए प्रसिद्ध है।
किनारी बाजार: एक संकरी गली में स्थित है। यह गली बाजार विवाह के लिए जरदोरी के काम की साड़ियों, चुन्नियों एवं लहंगों के लिए जाना जाता है। दुपट्टों एवं साड़ियों पर लगने वाले पारसी बॉर्डर तथा विभिन्न डिजाइनों की किनारियां भी इस बाजार की पहचान रही हैं।
चांदनी चौक का भागीरथ पैलेस: इलेक्ट्रिीकल एवं इलेक्ट्रिोनिक सामान के लिए विश्व के सबसे बड़े बाजार के रूप में प्रसिद्ध है।
बल्लीमारान बाजार: जूतों एवं चश्मों के लिए प्रसिद्ध है।
खारी बावली: मसालों, सूखी मेवा तथा आयुर्वेदिक औषधियों के लिए प्रसिद्ध है। यह चांदनी चौक के पश्चिमी सिरे पर स्थित है।
फतेहपुरी बाजार: फतेहपुरी बाजार खोया एवं पनीर के लिए प्रसिद्ध है।
कूचा चौधरी बाजार: कैमरों तथा फोटोग्राफी के लिए जाना जाता है।
कटरा नील: सभी प्रकार के स्त्री-पुरुष कपड़ों यथा साड़ी, सलवार सूट, लहंगा, पैंट-शर्ट के बाजार के रूप में जाना जाता है।
मोती बाजार: विभिन्न प्रकार के मोतियों, ऊनी कपड़ों, शॉल एवं स्वेटर आदि के लिए प्रसिद्ध है।
लाहौर में निर्मित शाहजहाँ कालीन भवन
जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल में लाहौर को वही महत्व मिला जो आगरा एवं दिल्ली को प्राप्त था। इसलिए जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने लाहौर दुर्ग में तथा दुर्ग के निकटवर्ती क्षेत्र में कई भवन बनवाए। उसने लाहौर के किले में पुरानी इमारतों को गिरवाकार किले के पश्चिमी भाग में चालीस स्तम्भ का दीवाने आम, मुसम्मन बुर्ज, शीशमहल के साथ-साथ नौलक्खा और ख्वाबगाह आदि इमारतें बनवाईं। ये समस्त इमारतें काफी सुन्दर हैं। इनमें से अब कुछ ही भवन शेष बचे हैं।
लाहौर के मुगल कालीन भवनों को औरंगजेब के काल में सर्वाधिक क्षति पहुंची। गुरु गोबिंदसिंह के पुत्रों द्वारा मुसलमान बनने से इन्कार किए जाने के बाद पंजाब के सूबेदार वजीर खाँ ने गुरु के पुत्रों को जीवित ही दीवार में चिनवा दिया। इसके बाद सिक्ख वजीर खाँ तथा औरंगजेब के शत्रु हो गए। सिक्खों ने लाहौर तथा सम्पूर्ण पंजाब में मुगलों के भवनों को लूट लिया और बहुतो को नष्ट भी कर दिया। सिक्खों ने वजीर खाँ को भी ‘चप्पर-चिरी’ के युद्ध में मार दिया। पंजाब के प्रमुख स्थान सरहिंद को पूरी तरह नष्ट कर दिया तथा लाहौर सहित आसपास के अनेक मुगल भवनों के पत्थरों को तोड़कर अमृतसर के स्वर्णमंदिर एवं अन्य भवनों को भेज दिया।
लाहौर दुर्ग का शीश महल
शाहजहाँ ने लाहौर दुर्ग में कई निर्माण करवाए जिनमें से ई.1631-32 में शीशमहल का निर्माण सर्वाधिक सजावटी एवं कलात्मक था। यह भवन लाहौर दुर्ग के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में जहाँगीर द्वारा निर्मित शाह बुर्ज खण्ड में स्थित है। इस भवन का निर्माण जहाँगीर ने ईटों से करवाया था तथा इसकी दीवारों पर चिकना प्लास्टर करके उसे फ्रैस्को (भित्तिचित्रों) से सजाया गया था। शाहजहाँ ने इस महल को शीशमहल में बदल दिया। उसने महल की दीवारों से प्लास्टर हटवाकर उसकी जगह सफेद संगमरमर लगवाया तथा उस पर पैट्रा ड्यूरा शैली में शीशे जड़वाए।
महल की छतों, दीवारों तथा स्तम्भों पर कांच के बने उत्तल-लैंस (कॉन्वैक्स ग्लास), रंगीन कांच तथा दर्पण (मिरर) का प्रयोग किया गया है। कांच के हजारों टुकड़ों से बड़ी एवं पुष्पाकार तथा ज्यामितीय आकृतियां बनाई गई हैं। फारसी में इसे आइनाकारी एवं मुनाबतकारी कहा जाता था। शीश महल के केन्द्रीय कक्ष की छत दो मंजिली ऊँची है। शीशमहल का प्रयोग शाही बैठकों के लिए होता था। केवल शहजादों तथा विशिष्ट दरबारियों को ही इस महल में प्रवेश करने की अनुमति थी।
महाराजा रणजीतसिंह इस महल का उपयोग कोहिनूर हीरे का प्रदर्शन करने के लिए करते थे। उन्होंने इस शीश महल के ऊपर अपना निजी महल बनवाया। शीशमहल को यूनेस्को द्वारा ई.1981 में विश्व धरोहर सूचि में सम्मिलित किया गया। यह मुगल बादशाहों द्वारा लाहौर दुर्ग में बनवाए गए 21 भवनों में से एक है।
इस महल के अनुकरण पर आगरा दुर्ग में भी शीश महल बनवाया गया। मारवाड़ एवं आम्बेर के राजाओं ने भी अपने-अपने दुर्ग में भी शीशमहल बनवाए जो आज भी देखे जा सकते हैं।
मोती मस्जिद, लाहौर
शाहजहाँ ने लाहौर में मोती मस्जिद का निर्माण करवाया। यह ईरानी शैली में बनी हुई है। इसे सफेद संगमरमर की पॉलिशयुक्त टायलों से ढका गया है। इसके लिए मकराना से संगमरमर ले जाया गया था। मस्जिद के भीतर का स्थापत्य बहुत सामान्य है किंतु इसके सहन के किनारों पर बने बरामदे में मेहराबदार दरवाजे बनाए गए हैं। ये मेहराब ऊपर से गोलाकार, तिकोने एवं डिजाइनदार भी बनाए गए हैं। मस्जिद की भीतरी छतों पर खुदाई करके अलंकरण किया गया है तथा छतों के ऊपर के बाहरी हिस्से में गुम्बद बनाए गए हैं। पूरी मस्जिद सफेद पत्थर की होने के कारण इसे मोती मस्जिद कहा जाता है। सम्पूर्ण इमारत की बनावट में स्थापत्य संतुलन दिखाई देता है।
नूरजहाँ का मकबरा, लाहौर
जहाँगीर की मृत्यु के बाद नूरजहाँ ने अपने दामाद शहरयार को लाहौर में बादशाह घोषित किया था किंतु नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ ने अपने दामाद खुर्रम को बादशाह बनाया तथा लाहौर पहुंचकर नूरजहाँ के दामाद शहरयार को मार डाला। इसके बाद नूरजहाँ लाहौर में ही रहने लगी। राजनीति तथा शासन के कार्य से उसने स्वयं को पूरी तरह अलग कर लिया। ई.1645 में लाहौर में नूरजहाँ का निधन हुआ। लाहौर के शाहदरा में जहाँगीर के मकबरे के निकट नूरजहाँ का मकबरा है जिसमें नूरजहाँ की कब्र बनी हुई है।
शालीमार उद्यान, लाहौर
शाहजहाँ ने ई.1641-42 में लाहौर में शालीमार उद्यान बनवायाा। चारों ओर से ऊँची दीवारों से घिरा यह उद्यान अपने जटिल फ्रेमवर्क के लिए प्रसिद्ध है। यह फारसी उद्यान शैली पर आधारित है जिसमें कुरान में वर्णित जन्नत के चारबाग की कल्पना को साकार करने का प्रयास किया गया है। इसका नक्शा जहाँगीर के समय काश्मीर में बने शालीमार गार्डन के समान रखने का प्रयास किया गया है। काश्मीर के बाग और लाहौर के बाग में बड़ा अंतर भौगोलिक परिस्थितियों का है। काश्मीर का शालीमार बाग प्राकृतिक रूप से एक ढलवां भूमि पर बना हुआ है जिसमें सिंचाई जल को एक छोर से दूसरे छोर तक ले जाने के लिए विशेष प्रबंध नहीं करने पड़े जबकि लाहौर का शालीमार गार्डन समतल मैदान में स्थित है अतः इस बाग में जल प्रबंधन के लिए विशेष प्रयास किए गए। यह उद्यान 18 माह में बनकर पूरा हुआ।
लाहौर के शालीमार गार्डन का निर्माण खलीउल्लाह खाँ तथा मुल्ला अलुआल मालुक तूनी की देखरेख में किया गया। उद्यान का निर्माण कार्य अली मर्दान खाँ द्वारा किया गया। यह आयताकार क्षेत्र में बना हुआ है। उत्तर-दक्षिण में इसकी लम्बाई 658 मीटर तथा पूर्व-पश्चिम में इसकी चौड़ाई 258 मीटर है। यह 16 हैक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। इसमें भी काश्मीर के शालीमार बाग की पद्धति पर टैरेसों का निर्माण किया गया है।
प्रत्येक टैरेस अपने पूर्ववर्ती टैरेस से 4 से 5 मीटर ऊँचा है। सबसे ऊपर का टैरेस ‘बागे-फराह-बक्श’ कहलाता है जिसका अर्थ ‘आनंददायी’ होता है। यह शाही हरम के लिए आरक्षित था। अन्य टैरेस ‘बागे-फैज-बख्श’ और ‘बागे-हयात-बख्श’ कहलाते हैं। मध्यवर्ती टैरेस बादशाह एवं उसके अमीरों के लिए था जबकि निम्नवर्ती टैरेस में जनसामान्य को प्रवेश मिलता था। सबसे ऊपरी टैरेस में 105, मध्यवर्ती टैरेस में 152 तथा निम्नवर्ती टैरेस में 153 फव्वारे लगे हैं। इस प्रकार बाग में कुल 410 फव्वारे हैं।
बाग में सावन-भादों नामक जलाशय, नक्कारखाना भवन, ख्वाबगाह, हम्माम तथा बड़े हॉल बने हुए हैं। एक टैरेस से दूसरे टैरस तक जाने के लिए संगमरमर के मार्ग बने हुए हैं। प्रत्येक ऊपरी टैरेस से नीचे के टैरेस तक पानी बहकर आने के लिए संगमरमर की ढलवां रचनाएं बनी हैं।
मुस्लिम इतिहासकारों ने आरोप लगाए हैं कि सिक्खों के शासन-काल में सिक्ख सेनाओं ने इस बाग की अलंकृत जालियों, सजावटी पत्थरों आदि को निकालकर इस सामग्री से अमृतसर के स्वर्णमंदिर तथा अमृतसर के निकट स्थित रामबाग महल की सजावट की। लहनासिंह मजीठिया ने शालीमार बाग का कीमती गेट निकालकर बेच दिया। पाकिस्तान के निर्माण के पंद्रह साल बाद अयूब खाँ सरकार ने इस बाग का राष्ट्रीयकरण किया। ई.1981 में यूनेस्को ने इसे लाहौर किले के साथ ही विश्व धरोहर सूचि में सम्मिलित किया।
आसिफ खां का मकबरा
आसिफ खां का मकबरा मुगल अमीर आसिफ खाँ की स्मृृति में बनाया गया था। वह नूरजहाँ का भाई, जहाँगीर का साला, मुमताज महल का पिता तथा शाहजहाँ का श्वसुर था। उसे शाहजहाँ ने खानखाना अर्थात् मुगल सेनाओं का मुख्य सेनापति बनाया था। वह 12 जून 1641 को जगतसिंह के विद्रोह को दबनाने के लिए हुई लड़ाई में मारा गया था। शाहजहाँ ने लाहौर में उसका मकबरा बनवाया। आसिफ खाँ का मकबरा लाहौर नगर के परकोटे के भीतर स्थित शहादरा बाग में बना हुआ है तथा जहाँगीर और नूरजहाँ के मकबरों के पास स्थित है।
यह मकबरा मध्य एशिया स्थापत्य शैली में बनी हुई है तथा इसके चारों ओर विशाल चारबाग बनाया गया था। इसके भीतर बहुत सुंदर रंगीन भित्तिचित्र ज्यामितीय अलंकरण एवं फूल-पत्ती बनाए गए थे। जब सिक्खों ने मुगल सल्तनत पर हमले किए तब गुज्जरसिंह, लहनासिंह तथा सूबासिंह नामक सिक्ख सरदारों ने इस मकबरे के महंगे रत्नों एवं पत्थरों को लूट लिया तथा मकबरे को बहुत नुक्सान पहुंचा। महाराजा रणजीतसिंह ने भी इस मकबरे के संगमरमर तथा अन्य अलंकृत पत्थरों को उखड़वाया तथा उनसे लाहौर दुर्ग के निकट हुजूरी बाग की बारादरी बनवाई। इस मकबरे का कुछ पत्थर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के लिए भेजा गया।
शाहजहाँ कालीन अन्य इमारतें
शाहजहाँ ने आगरा, दिल्ली और लाहौर के अतिरिक्त काबुल, अजमेर, कन्धार, अहमदाबाद और काशमीर में भी लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर की अनेक इमारतें बनवाई थीं। शाहजहाँ के बड़े पुत्र दारा शिकोह ने कश्मीर में मौलवी अखूंद मस्जिद और परी महल बनवाए।
शाहजहाँ मस्जिद, थट्टा
सिंध प्रांत के थट्टा नगर में शाहजहाँ ने एक मस्जिद बनवाई जिसे शाहजहाँ मस्जिद कहा जाता है। अब यह पाकिस्तान के सिंध प्रांत में है तथा थट्टा की प्रमुख मस्जिद है। इस मस्जिद का स्थापत्य मध्य-ऐशिया के तैमूरी स्थापत्य से अत्यधिक प्रभावित है। इस मस्जिद का निर्माण शाहजहाँ द्वारा बलख एवं समरकंद के अभियान के बाद करवाया गया था। वहीं पर शाहजहाँ ने तैमूरी शैली की मस्जिदें देखी थीं और उन्हीं का अनुकरण इस मस्जिद के निर्माण में किया गया था। इस मस्जिद को दक्षिण ऐशिया में सर्वाधिक अलंकृत टैराकोटा टाइल युक्त मस्जिद कहा जाता है। इस मस्जिद में ईंटों से अलंकरण किया गया है जो कि मुगल काल की अन्य मस्जिदों में देखने को नहीं मिलता है।
शेख-चिल्ली (शेख चेहली) का मकबरा, थानेश्वर (कुरुक्षेत्र)
शाहजहाँ के शासनकाल में शेख चिल्ली नामक सूफी संत हुए। संभवतः उनका सही नाम शेख चेहली था जो अपभ्रंश होकर शेख-चिल्ली हो गया। शाहजहाँ का पुत्र दारा शिकोह शेख चिल्ली का शिष्य था। दाराशिकोह ने ही ई.1650 में इस मकबरे को बनवाया था। शेख चिल्ली का मकबरा कुरुक्षेत्र के बाहरी इलाके में एक ऊँचे टीले पर स्थित है जहाँ किसी समय हर्षवर्द्धन की प्राचीन राजधानी थानेश्वर स्थित थी। यह लाल बलुआ पत्थरों से बनी विशाल इमारत है। मकबरे का गुम्बद नाशपाती की आकृति में बना है। मकबरे के निचले भाग के ठीक केंद्र में शेख-चिल्ली की कब्र स्थित है।
इस मकबरे के बगल में शेख-चिल्ली की पत्नी का भी मकबरा है। इस पर फूलों की डिजाइन से अलंकरण किया गया है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा दोनों ही इमारतों को संरक्षित इमारतों का दर्जा दिया गया है। शेख-चिल्ली का मकबरा ताजमहल से मिलता-जुलता है। इस कारण इस मकबरे को हरियाणा का ताजमहल भी कहा जाता है। दिल्ली से अमृतसर के बीच केवल यही एक स्मारक है जिसमें सफेद संगमरमर का प्रयोग किया गया है।
शेरशाह सूरी ( ई.1540-1545) की बनवाई ग्रैंड ट्रंक रोड इस मकबरे के प्रवेश द्वार के सामने से गुजरती थी (जो कि वास्तव में बुद्धकाल से भी अत्यंत प्राचीन सड़क है) किंतु अब जीटी रोड यहाँ से काफी दूर बन गई है। मकबरे से कुछ दूर स्थित एक प्राचीन पुलिया और कोस मीनार के होने से भी यहाँ किसी समय जीटी रोड होने का प्रमाण मिलता है। सड़क गुजरने का स्थान आज भी दर्रा खेड़ा के नाम से प्रसिद्ध है। इसके उत्तरी छोर पर पर कोटे से घिरा हर्षवर्धन पार्क है जहाँ कभी सराय और अस्तबल हुआ करता था। यह भी शेरशाह सूरी की बनवाई सड़क पर ही स्थित है। मकबरे में संगमरमर, चित्तीदार लाल पत्थर, पांडु रंग का बलुआ पत्थर, लाखोरी ईंट, चूना-सुर्खी और रंगीन टाइलों का प्रयोग, इसे शाहजहाँ कालीन सिद्ध करता है। मकबरे के अंदर एक संग्रहालय भी है।
निशात बाग, काश्मीर
निशात बाग श्रीनगर की डल झील के पूर्वी तट पर स्थित है। यह कश्मीर घाटी का सबसे बड़ा उद्यान है। ‘निशात’ उर्दू भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘प्रसन्नता’ होता है। यह सीढ़ीदार शैली में बनाया गया है जिसे अंग्रेजी में ‘टैरेस गार्डन’ कहते हैं। इस उद्यान से डल झील, जबरवन पहाड़ियां तथा पीरपंजाल पहाड़िायों की शृंखला दिखाई देती हैं जिसके कारण सम्पूर्ण दृष्य किसी विराट कैनवास पर अंकित किए गए चित्र की भांति दिखाई देता है। इस उद्यान का निर्माण ई.1633 में नूरजहाँ के बड़े भाई आसफ खाँ द्वारा करवाया गया था।
कहते हैं कि जब शाहजहाँ ने इसे पहली बार देखा तो उसने अपने श्वसुर आसफ खाँ जो कि शाहजहाँ का प्रधानमंत्री भी था, से इस उद्यान की तीन बार भूरि-भूरि प्रशंसा की ताकि आसफ खाँ इस उद्यान को शाहजहाँ को भेंट कर दे किंतु जब आसफ खाँ ने यह उद्यान शाहजहाँ को भेंट नहीं किया तो शाहजहाँ ने इस उद्यान की जलापूर्ति बंद करवा दी। इस कारण कुछ समय के लिए बाग उजड़ गया और आसफ खाँ बहुत दुखी हुआ। एक बार आसफ खाँ इस उद्यान में किसी वृक्ष के नीचे आराम कर रहा था तब आसफ खाँ के एक सेवक ने शालीमार उद्यान से जल की आपूर्ति आरम्भ कर दी। जब आसफ खाँ ने फव्वारों के चलने की आवाज सुनी तो उसने बादशाह के भय से तुरंत जलापूर्ति बंद करवा दी। जब शाहजहाँ को इस घटना के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने आसफ खाँ के स्वामिभक्त सेवक के प्रति प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उद्यान में जलापूर्ति आरम्भ करवा दी।
मुगल बादशाह आलमगीर (द्वितीय) की पुत्री तथा बादशाह जहांदारशाह की पौत्री जुहरा बेगम को इसी उद्यान में दफ्.न किया गया था।
यद्यपि इस बाग की मूल संरचना फारसी उद्यान शैली पर आधारित थी किंतु स्थानीय भौगोलिक परिस्थितयों एवं जलापूर्ति के स्रोतों के अनुसार इसके नक्शें में कुछ बदलाव भी किए गए थे। इसकी योजना में चारबाग शैली में अपानाई जाने जाने वाली तकनीक का पालन नहीं किया गया जिसमें कि केन्द्रीय नहर को चार भुजाओं में विभक्त किया जाता है। अपितु इस बाग में पहाड़ी की चोटी से आने वाले स्थानीय ढाल एवं जलापूर्ति की दिशा को ध्यान में रखते हुए नालियों का प्रावधान किया गया। इसके कारण बाग वर्गाकार न बनकर आयताकार बन गया। इस बाग की लम्बी भुजा पूर्व से पश्चिम की ओर है तथा उसकी लम्बाई 1,798 फुट है जबकि बाग की चौड़ाई वाली भुजा उत्तर से दक्षिण 1,109 फुट है।
निशात बाग के लेआउट में चिनार तथा साइप्रस वृक्षों की कतारों को शामिल किया गया है जो झील के किनारे से आरम्भ होती है तथा पहाड़ी तक जाकर समाप्त होती है। डल झील से लेकर पहाड़ी तक की चढ़ाई के अनुसार इस उद्यान को बारह सीढ़ीनुमा हिस्सों में विभक्त किया गया है। ये बारह हिस्से हिन्दू ज्योतिष की बारह राशियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पूरे बाग को पुनः दो खण्डों में विभक्त किया गया था। एक हिस्सा सार्वजनिक उद्यान के रूप में था जबकि दूसरा हिस्सा शाही महिलाओं के उपयोग के लिए था।
निशात बाग में भी शालीमार बाग की तरह पॉलिशयुक्त संगमरमर से नहरें एवं क्यारियां बनाई गई थीं। निशात बाग एवं शालीमार बाग के लिए जलापूर्ति का स्रोत एक ही था। निशात बाग के पूर्व से पश्चिम की ओर के ऊँचे भाग में जनाना गार्डन बनाया गया था। जबकि सबसे निचला हिस्सा डल झील से जुड़ा हुआ है। हाल के वर्षों में निचले भाग को सड़क मिला दिया गया है। गोपी नामक झरने से उद्यानों को जलार्पूिर्त होती है। इस उद्यान के आसपास कई शाही भवन थे।
केन्द्रीय नहर जो कि ऊँचे टॉप से आरम्भ होकर नीचे तक बहती हुई जाती है, 13 फुट चौड़ी है तथा 7.9 इंच गहरी है। ऊपर से बहकर आता हुआ जल निचले हिस्से तक पहुंचता है। इस बीच वह सभी सीढ़ीनुमा खण्डों को सींचता हुआ चलता है। जल के एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी तक बहाव के लिए पत्थर के ढलवां फर्श बनाए गए हैं। सभी सीढ़ियों पर जलकुण्ड बनाकर उनमें फव्वारे लगाए गए हैं तथा नहरों की क्रॉसिंग के पास बैठने के लिए बैंचें रखी स्थापित की गई हैं।
तख्ते ताऊस
शाहजहाँ का तख्ते ताऊस अर्थात् मयूर सिंहासन अपने समय की अद्भुत रचना है। यह सिंहासन सात वर्षों में लगभग चार करोड़ रुपयों से बना था। यह सिंहासन मयूरों के ऊपर खड़़ा था और रत्नों से जगमगाता रहता था। शाहजहाँ की इस अमूल्य कृति को नादिरशाह फारस उठा ले गया।
दलबादल
शाहजहाँ के दलबादल नामक शिविर से भी उसकी शान का पता लगता है। उसे खड़ा करने में कई हजार आदमी और हाथियों की आवश्यकता पड़ती थी और लगभग दो महिने का समय लगता था।