Saturday, July 27, 2024
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शिवाजी का सक्रिय राजनीति में प्रवेश (4)

शिवाजी का सक्रिय राजनीति में प्रवेश उनकी पारिवारिक परिस्थितियों के कारण हुआ। वे बाल्यकाल से ही अपने पिता की जागीर को संभालने लगे थे।

जागीर के बेहतर प्रबन्धन के प्रयास

शाहजी ने शिवाजी को पूना की जागीर की देखभाल का जिम्मा सौंपा तथा शर्त रखी कि शाहजी के जीवित रहने तक शिवाजी, जागीर में अपने पिता का प्रतिनिधि मात्र होगा तथा शाहजी की मृत्यु के बाद वह इस जागीर का वास्तविक स्वामी बन जाएगा। अब शिवाजी दुगुने उत्साह से जागीर का प्रबन्ध करने लगा। उसका अधिक ध्यान कृषि की दशा सुधारने पर था ताकि प्रजा की आय बढ़े और उनके बीच के झगड़े कम हों।

शिवाजी द्वारा गांवों में गुप्तचरों की नियुक्ति

शिवाजी ने प्रत्येक ग्राम में कोटवारों के साथ-साथ ग्रामीणों को भी रात में जागकर गांव की रक्षा करने की व्यवस्था आरम्भ की। नए उद्यान लगाए तथा परस्पर विवादों के त्वरित निस्तारण की व्यवस्था भी की। जनता में नैतिकता एवं उत्साह की वृद्धि के लिए धार्मिक आयोजनों को समारोह पूर्वक मनाने के लिए प्रेरित किया गया। शिवाजी ने प्रत्येक गांव में अपने गुप्तचर नियुक्त किए जो गांव में घटने वाली प्रत्येक घटना की सूचना शिवाजी तक पहुंचाते थे।

हिन्दू स्वातंत्र्य के लिए छपटाहट

माता जीजाबाई ने अपने परिवार के समस्त दुर्दिनों के लिए मुस्लिम शासकों को जिम्मेदार माना था। उसने शिवाजी को भी यही समझाया था कि न केवल हमारी अपितु समस्त हिन्दुओं की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण मुस्लिम शासकों का कुशासन है। जब तक मुसलमान शासकों का अंत नहीं होगा, हिन्दू प्रजा सुखी नहीं होगी।

शिवाजी जैसे-जैसे बड़ा होता जा रहा था, स्वयं भी स्पष्ट रूप से देख पा रहा था कि हर ओर हिन्दू प्रजा को मुस्लिम शासकों के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा था। शिवाजी ने देखा कि हिन्दू प्रजा अपनी तरफ से जितना अधिक मुस्लिम धर्म का सम्मान करती थी, मुसलमानों द्वारा उन्हें उतना ही अधिक प्रताड़ित किया जाता था।

वह इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगा था कि यदि प्रजा को सुखी बनाना है तो मुसलमानों का राज्य नष्ट करके, धर्मनिष्ठ एवं प्रजा-वत्सल हिन्दू राजाओं का राज्य स्थापित करना होगा।

यदि मुसलमान शासक और अधिक लम्बे समय तक बने रहे तो हिन्दू धर्म, हिन्दू जाति, हिन्दू ग्रंथ, हिन्दू तीर्थ, हिन्दू संस्कृति सभी कुछ नष्ट हो जाएंगे। जीजाबाई प्रायः उसे चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त, स्कंदगुप्त और महाराणा प्रताप की कहानियां सुनाती। इन राजाओं ने विदेशी शासकों को परास्त करके अपनी हिन्दू प्रजा के गौरव को जीवित रखा था। शिवाजी भी ऐसा ही राजा बनने के स्वप्न देखने लगा।

वह जब भी अपनी जागीर में भ्रमण पर जाता तो युवकों को एकत्रित करके हिन्दू संस्कृति के उन्नयन एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए ओजस्वी भाषण देता था। वह अपनी प्रजा को हिन्दू राज्य की स्थापना के लाभों के बारे में समझाता। वह प्रत्येक हिन्दू युवक को शास्त्रों के अध्ययन के साथ-साथ शस्त्र संचालन की शिक्षा लेने के लिए प्रेरित करता।

शिवाजी उनसे कहता कि हम महान राष्ट्र की वीर संतानें हैं। हम संस्कारी पुरुष हैं और हम धर्म, प्रजा एवं राष्ट्र की रक्षा के लिए शस्त्रों का सहारा लेंगे। यदि हम इस पवित्र एवं पुण्य कार्य को प्रारम्भ करते हैं तो ईश्वर भी अवश्य ही हमारी सहायता करेंगे। हम सफल होंगे और हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करेंगे। शिवाजी के भाषणों को सुनकर शिवाजी की प्रजा स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए दीवानी हो उठती।

शिवाजी प्रायः अपने ग्रामीण मित्रों के बीच जाकर तलवार चालन, घुड़सवारी और अन्य शस्त्रों के संचालन का अभ्यास करता। शिवाजी के मार्गदर्शन में मावली युवकों को अपने जीवन का उद्देश्य मिल गया था। उनके मन से दासता का भाव जा रहा था और अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का भाव जाग्रत हो रहा था।

कोंकण के चप्पे-चप्पे से परिचय

कोंकण की जागीर ई.1632 से शाहजी के अधिकार में चली आती थी। यह जागीर उसे बीजापुर की ओर से, मुगलों के विरुद्ध युद्ध करने के भुगतान के रूप में मिली थी। अब शाहजी की ओर से शिवाजी इस जागीर का प्रबन्ध करता था। शिवाजी प्रायः अपनी जागीर में भ्रमण पर रहता। वह मावली युवकों के साथ आसपास के पहाड़ों, नदियों एवं जंगलों को भी देखने जाता।

पांच वर्ष तक लगातार घूमते रहने के कारण शिवाजी कोंकण प्रदेश के एक-एक पहाड़, एक-एक जंगल, नदी-नालों-मुहानों और पर्वतीय उपत्यकाओं से परिचित हो गया। इस पूरे क्षेत्र में कई दुर्ग थे जिनमें मुस्लिम दुर्गपति नियुक्त थे। शिवाजी भी ऐसे ही दुर्ग अपने लिए बनवाने के स्वप्न देखने लगा। उसे यह भी लगने लगा था कि वे प्रयास करें तो मुस्लिम दुर्गपतियों से उनके दुर्ग आसानी से छीन सकते हैं।

दादा कोणदेव की चेतावनी

शिवाजी अपनी पत्नी एवं माता को बताए बिना घर से कई-कई दिनों तक के लिए अनुपस्थित रहने लगा। इस बीच वह अपने मावली साथियों के बीच जंगलों में जाकर युद्धाभ्यास करता था और किस दुर्ग को कैसे छीना जाएगा, इसकी योजना बनाता था। एक दिन यह बात कोणदेव तक पहुंच गई।

उसने शिवाजी को बुलाकर सावधान किया कि वह पूना में आदिलशाह के जागीरदार का प्रतिनिधि मात्र है। अतः आदिलशाह के विरुद्ध किसी भी तरह का कार्य करने के बारे में नहीं सोचे अन्यथा वह और उसका पूरा परिवार किसी बड़े संकट में फंस सकता है। शिवाजी ने दादा कोणदेव की बात को ध्यान से सुना किंतु ये बातें उसे निश्चय से डिगाने के लिए पर्याप्त नहीं थीं।

तोरण दुर्ग पर धावा

अंततः शिवाजी ने वह कर दिखाया जिसके बारे में वह पिछले कुछ वर्षों से सोच रहा था और इसकी तैयारी भी कर रहा था। एक दिन उसने अपने साथियों सहित, तोरण दुर्ग पर आक्रमण किया और उसे अपने अधिकार में ले लिया। जब यह सूचना बीजापुर पहुंची तो शिवाजी से उत्तर मांगा गया।

शिवाजी ने अपने उत्तर में आदिलशाह से कहलवाया कि उसने यह कदम बीजापुर राज्य की सुरक्षा के लिए उठाया है तथा तोरण दुर्ग को डाकुओं से मुक्त कराया है। वह इस दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत कर रहा है ताकि मुगलों से राज्य की रक्षा की जा सके। शाहजी के आश्वासन देने पर आदिलशाह ने शिवाजी के तर्क को स्वीकार कर लिया।

खजाने की प्राप्ति

एक दिन शिवाजी तोरण दुर्ग की मरम्मत करवा रहा था कि एक दीवार से उसे विशाल खजाने की प्राप्ति हुई। इसमें बड़ी संख्या में स्वर्ण मुद्राएं थीं। शिवाजी ने अपने साथियों से सच ही कहा था कि यदि वे हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के कार्य को आरम्भ करेंगे तो उन्हें ईश्वरीय सहायता प्राप्त होगी। ईश्वरीय कृपा स्वतः उपस्थित हो गई थी।

इस खजाने का उपयोग एक विशाल सेना को तैयार करने में किया जा सकता था। शिवाजी अब दुगुने उत्साह से अपने कार्य में जुट गया। उसने वेतनभोगी सैनिकों की भर्ती करनी आरम्भ कर दी। उनके लिए अस्त्र-शस्त्र खरीदे तथा अश्वों का प्रबन्ध किया।

रायगढ़ का निर्माण

शिवाजी ने अब अपने दूसरे स्वप्न अर्थात् अपनी इच्छानुसार दुर्ग निर्माण करने पर ध्यान केन्द्रित किया। शिवाजी ने एक ऊंचे पहाड़ पर नया दुर्ग बनवाना आरम्भ किया तथा उसका नाम रायगढ़ रखा। यह सूचना भी बीजापुर में आदिलशाह तक शीघ्र ही पहुंच गई।

आदिलशाह ने शाहजी को बुलाया और उसे निर्देश दिए कि वह इस दुर्ग का निर्माण रुकवाए। शाहजी ने कोणदेव को पत्र लिखकर निर्देशित किया कि नए दुर्ग का निर्माण तत्काल रोक दिया जाए। कोणदेव ने शाहजी के पत्र के साथ अपनी ओर से भी एक पत्र शिवाजी को भिजवाया कि वह दुर्ग का निर्माण रोक दे। शिवाजी ने अपने दोनों अभिाभावकों के आदेश का पालन नहीं किया और दुर्ग का निर्माण यथावत् जारी रखा।

आदिलशाह की बीमारी

ई.1646 में बीजापुर का सुल्तान आदिलशाह बीमार पड़ गया। लगभग 10 वर्ष तक वह लाचार होकर खाट में पड़ा रहा। उसकी बीमारी के कारण राज्य का प्रबन्धन शिथिल हो गया और शत्रु सिर उठाने लगे। उसके अमीरों में वर्चस्व को लेकर षड़यंत्र होने लगे। बीजापुर की राजनीतिक परिस्थितियां शिवाजी के लिए अनुकूल सिद्ध हुईं। उसने बीजापुर के किलों पर तेजी से अधिकार करने की योजना बनाई।

सूपा दुर्ग पर दृष्टि

पूना की जागीर के निकट सूपा की जागीर थी जिस पर शिवाजी का अधिकार था। इस जागीर के निकट सूपा का दुर्ग था जिसमें आदिलशाह की तरफ से सम्भाजी मोहिते दुर्गपति था। शाहजी की द्वितीय पत्नी इसी सम्भाजी मोहिते की बहिन थी। इस तरह सूपा का दुर्गपति शिवाजी का सौतेला मामा था।

शिवाजी ने सम्भाजी से आग्रह किया कि वह शिवाजी के अभियान में सहयोग करे तथा दुर्ग शिवाजी को सौंप दे किंतु सम्भाजी, बीजापुर के प्रति वफादार बना रहा। उसने शिवाजी का साथ देने से मना कर दिया तथा सम्पूर्ण जानकारी आदिलशाह को भिजवा दी। जब शिवाजी को ज्ञात हुआ कि मोहिते ने शिवाजी की गतिविधियों की समस्त सूचनाएं बीजापुर भिजवा दी हैं तो एक रात्रि में शिवाजी ने अपने साथियों को लेकर सूपा दुर्ग पर आक्रमण कर दिया।

मोहिते के पास लगभग 400 सिपाही थे, किंतु वे दुर्ग की रक्षा नहीं कर सके। शिवाजी ने मोहिते परिवार को बंदी बना लिया और दुर्ग में स्थित समस्त खजाने पर अधिकार कर लिया।

शिवाजी ने मोहिते को समझाने का भरसक प्रयास किया कि वह शिवाजी द्वारा आरम्भ किए गए स्वातंत्र्य संग्राम में सम्मिलित हो जाए। उसे उसका दुर्ग तथा खजाना पुनः लौटा दिया जाएगा किंतु मोहिते अपनी जिद पर अड़ा रहा कि वह आदिलशाह के प्रति वफादारी को नहीं त्यागेगा। इस पर शिवाजी ने मोहिते को बंदी अवस्था में ही अपने पिता शाहजी के पास बैंगलोर भिजवा दिया क्योंकि रिश्तेदारी होने के कारण शिवाजी मोहिते को कोई कष्ट नहीं देना चाहता था।

कोणदेव की मृत्यु

सूपा के दुर्ग पर अधिकार हो जाने के बाद शिवाजी के पास तीन दुर्ग हो गए थे जो कि एक बड़ी बात थी किंतु शिवाजी अब कुछ समय के लिए चुप होकर बैठ गया ताकि आदिलशाह की प्रतिक्रिया का सामना कर सके। दारा कोणदेव, शिवाजी के प्रयासों का प्रशंसक बन गया।

उसे लगने लगा कि शिवाजी के पास वह मेधा और त्वरा है जिसके बल पर वह अपने उद्देश्यों में सफल हो सकता है। कोणदेव अब काफी वृद्ध हो गया था तथा रुग्ण रहने लगा था। इसलिए एक दिन उसने शिवाजी को अपने पास बुलाया और उससे कहा कि तुम जिस रास्ते पर चल रहे हो, वही सही है।

मैं ही गलत था जो तुम्हारे प्रयासों का विरोध करता रहा। राष्ट्रहित में विदेशियों के शासन को समाप्त करने के लिए किसी को तो आगे आना ही पड़ेगा, वह तुम हो। कोणदेव ने शिवाजी की सफलता की कामना की और उसे आशीर्वाद दिया। मार्च 1647 में एक दिन कोणदेव ने अंतिम श्वांस ली। शिवाजी को शिवाजी बनाने वाले दो व्यक्तियों में से एक, इस धरती से विदा हो गया था। अब आगे का पथ शिवाजी को जीजाबाई के मार्गदर्शन में तय करना था।

बीजापुर राज्य के अनेक दुर्गों पर अधिकार

कोणदेव के आशीर्वाद से शिवाजी ने अपने भीतर नई ऊर्जा का अनुभव किया। उसका आत्मबल और भी बढ़ गया। उसने बीजापुर राज्य के कुछ अन्य दुर्गों पर धावा बोला और बिना अधिक रक्तपात किये, कई दुर्ग हस्तगत कर लिए। शिवाजी ने यह संकल्प धारण कर रखा था कि चूंकि अधिकांश दुर्गपति हिन्दू वीर हैं, अतः उनका रक्त नहीं बहाया जाए। उन्हें अपने अधीन करके प्रेम पूर्वक अपनी सेवा में नियुक्त किया जाए।

पुरन्दर दुर्ग पर अधिकार

अब शिवाजी किसी के लिए भी उपेक्षित किए जाने की स्थिति में नहीं रहा था। वह अपने शत्रुओं की आंखों में खटक चुका था। उस पर किसी भी समय आक्रमण हो सकता था। इसलिए आवश्यक था कि वह जागीर एवं अपने विजित क्षेत्र की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबन्ध करे। उसके राज्य की सीमा पर पुरन्दर दुर्ग स्थित था।

यदि वह इस दुर्ग पर अधिकार लेता तो उसे, शत्रु का मार्ग जागीर में प्रवेश करने से पहले ही रोकने की क्षमता प्राप्त हो जाती। यह दुर्ग भी बीजापुर राज्य के अधिकार में था तथा वहाँ नीलो नीलकंठ सरनायक नामक दुर्गपति नियुक्त था। यह एक ब्राह्मण परिवार था तथा इसके सम्बन्ध शिवाजी के परिवार से बहुत अच्छे चले आ रहे थे।

इन्हीं सम्बन्धों के कारण शिवाजी इस दुर्ग पर आक्रमण करने से बच रहा था। शिवाजी ने अपनी एक सेना इस दुर्ग के पास नियुक्त कर रखी थी ताकि उपद्रवी तत्वों एवं दस्युओं से शिवाजी की जागीर की रक्षा हो सके। इसके लिए उसने नीलकंठ परिवार से अनुमति भी प्राप्त कर रखी थी।

अचानक ही सरनायक परिवार में भाइयों के बीच एक विवाद खड़ा हो गया। नीलकंठ सरनायक ने शिवाजी से आग्रह किया कि वह पुरन्दर दुर्ग में आकर इस विवाद को सुलझाए और भाइयों में सुलह करवाए। दीपावली के दिन शिवाजी अपने सहायकों के साथ दुर्ग में पहुंचा। उसके आदमियों ने सरनायक परिवार के भाइयों को उनके पलंगों एवं खाटों पर ही बांधकर बंदी बना लिया।

शिवाजी ने उन भाइयों से कहा कि वे बीजापुर की नौकरी त्यागकर शिवाजी की नौकरी स्वीकार कर लें तथा शिवाजी के प्रति निष्ठावान रहने का वचन दें। इससे यह दुर्ग सरनायक परिवार के पास बना रहेगा। सरनायक भाइयों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।

शिवाजी ने उन्हें बंदीगृहों में बंद कर दिया तथा लगातार 2-3 माह तक प्रेमपूर्वक अपनी बात समझाते रहे। अंत में सरनायक बंधुओं ने शिवाजी के प्रति निष्ठा ग्रहण करने का संकल्प लिया। शिवाजी ने उन सभी भाइयों को मुक्त करके दुर्ग सौंप दिया। सरनायक परिवार सदैव शिवाजी के प्रति निष्ठावान बना रहा।

कल्याण के दुर्ग एवं खजाने पर अधिकार

शिवाजी को अपने गुप्तचरों से सूचना मिली कि बीजापुर के शाह आदिलशाह ने कल्याण के दुर्गपति को निर्देश दिए हैं कि दुर्ग में स्थित समस्त कोष बीजापुर भेज दिया जाए। कल्याण के निकटवर्ती दुर्गपतियों एवं जागीरदारों को निर्देश दिए गए कि वे इस खजाने को मार्ग में सुरक्षा प्रदान करें। जब दुर्गपति मुल्ला अहमद, कल्याण दुर्ग से खजाना लेकर निकला तो शिवाजी ने अपनी सेना को दो दलों में विभक्त किया।

उन्होंने एक सैन्य-दल को मुल्ला अहमद को लूटने के लिए रवाना किया तथा दूसरे सैन्य-दल को कल्याण दुर्ग पर अधिकार करने भेजा। जब मुल्ला खजाना लेकर पुरन्दर दुर्ग के निकट से निकल रहा था, शिवाजी की टुकड़ी ने उस पर धावा बोल दिया। मुल्ला कुछ भी नहीं कर सका।

शिवाजी के आदमी खजाना लेकर रायगढ़ दुर्ग पहुंच गए। दूसरे दल ने भी तेजी से काम किया तथा मुल्ला के वापस लौट आने से पहले ही कल्याण दुर्ग पर धावा बोल दिया तथा दुर्ग पर अधिकार करके मुल्ला के परिवार को बंदी बना लिया।

शिवाजी द्वारा मुस्लिम स्त्री पर दया

इस परिवार में मुल्ला की एक पुत्रवधू भी थी जो अत्यंत सुंदर थी। शिवाजी के सेनापति आवाजी सोनदेव ने इस स्त्री को पालकी में बैठाकर शिवाजी के पास पूना भेज दिया। सोनदेव को आशा थी कि युवक शिवाजी इस अनिंद्य सुंदरी को उपहार के रूप में पाकर अत्यंत प्रसन्न होगा। शिवाजी ने उसे देखा तो उसके रूप की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सका।

उसने कहा- ‘हे ईश्वर! तुझे धन्यवाद जो तूने इतनी सुन्दर सूरत बनाई है। कितना अच्छा होता यदि मेरी माता भी तेरे समान सुन्दर होती तो मैं भी इतना सुन्दर होता।’ शिवाजी ने उस स्त्री को मुल्ला के पास भेज दिया तथा सोनदेव को फटकार भिजवाई कि फिर कभी किसी स्त्री को बंदी नहीं बनाए। इस घटना के बाद शिवाजी की सेना में अनुशासन और भी गंभीर हो गया। शिवाजी के जीवित रहते, किसी मराठा सेनापति या सैनिक ने कभी अनुशासन भंग नहीं किया।

प्रबलगढ़ पर अधिकार

अब शिवाजी का राज्य पूना और सूपा से बढ़कर समुद्र के किनारे तक आ पहुंचा। पनवेल के निकट प्रबलगढ़ नामक दुर्ग था। यह भी बीजापुर राज्य के अधीन था। यहाँ केशरीसिंह नामक दुर्गपति नियुक्त था। शिवाजी ने इस दुर्ग को भी बिना रक्तपात किये, अपने अधिकार में लेने के प्रयास किए किंतु जब ये प्रयास सफल नहीं हुए तो शिवाजी ने युद्ध करने का निर्णय लिया।

भीषण युद्ध में केशरीसिंह अपने आदमियों सहित मारा गया। इस दुर्ग में शिवाजी को सोने की मुहरें, सोने की छड़ें तथा  होन का विशाल खजाना प्राप्त हुआ। यह समस्त स्वर्ण, एक गुप्त स्थान पर कुछ बर्तनों में रखा हुआ था। (होन शब्द का निर्माण स्वर्ण से हुआ है। इसे हूण भी कहते थे, एक होन की कीमत चार रुपए के बराबर थी)

शत्रु की माता को सष्टांग प्रणाम

शिवाजी के भय से केशरीसिंह की माता तथा दो बच्चे किले में ही एक स्थान पर छिप गए थे। शिवाजी के सैनिकों ने उन्हें पकड़कर शिवाजी के समक्ष प्रस्तुत किया। शिवाजी ने इस वृद्धा को देखते ही धरती पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया तथा सवारी के लिए पालकी देकर अपने सैनिकों की सुरक्षा में उसके जन्मस्थान देवल गांव भेज दिया।

इसके बाद शिवाजी ने केशरीसिंह तथा उसके आदमियों का हिन्दू विधि विधान से अंतिम संस्कार करवाया। शिवाजी के इस आचरण का शिवाजी की सेना पर गहरा प्रभाव पड़ा। शिवाजी के निकट सम्पर्क में आने वाला ऐसा कोई प्राणी नहीं था जिसके हृदय में शिवाजी के प्रति आदर और प्रेम न उपजा हो।

ताश के पत्तों की तरह झोली में आ गिरे दुर्ग

शिवाजी तलवार चलाता जा रहा था और बड़े-बड़े दुर्गम दुर्ग शिवाजी की झोली में बरसाती भुनगों की तरह आ-आ कर गिर रहे थे। सिंहगढ़, तोरण, चाकण, कोण्डाना, पुरन्दर, कुम्भलगढ़, पन्हाला, कंगूरी, तुंग, तिकोना, भूरप, कौंडी, लोगहर, राजमण्डी तथा कल्याणी के दुर्ग और चाकण से लेकर नीरा नदी तक का क्षेत्र शिवाजी के अधिकार में आ गए। शिवाजी ने वीरवारी तथा लिंगनाथगढ़ नामक नए दुर्गों का निर्माण करवाया। भूषण कवि ने लिखा है-

दुग्ग पर दुग्ग जीते, सरजा सिवाजी गाजी, डग्ग

नाचे डग्ग पर शण्ड मुण्ड परके।

आदिलशाह द्वारा शाहजी को बंदी बनाया जाना

ई.1645 में जब शिवाजी की गतिविधियों के समाचार बीजापुर के शाह को मिले तो उसने शिवाजी के पिता शाहजी को बंदी बनाने का निश्चय किया। आदिलशाह को लगा कि शाहजी की शह पर ही शिवाजी यह सब कार्यवाही कर रहा है। उसने शाहजी को बंदी बनाने का कार्य अपने विश्वस्त व्यक्ति, मुधौल के उपसेनापति बाजी घोरपड़े को सौंपा। बाजी घोरपड़े और शाहजी भौंसले एक ही वंश से थे।

बाजी ने शाहजी को अपने निवास पर भोजन हेतु आमंत्रित किया तथा छल से बंदी बनाकर आदिलशाह के पास भेज दिया। बीजापुर में शाहजी को कठोर कारावास में रखा गया तथा उससे कहा गया कि वह शिवाजी की गतिविधियों को रुकवाए। शाहजी ने स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए अपनी ओर से भरसक प्रयास किया किंतु कुतुबशाह ने उनकी कोई बात नहीं सुनी।

आदिलशाह की कैद से शाहजी की मुक्ति

जब शिवाजी को अपने पिता के बंदी होने का समाचार मिला तो उसने अपनी समस्त गतिविधियां बंद कर दीं तथा अपने पिता को बंदीगृह से छुड़ाने के लिए स्वयं आत्म-समर्पण करने का निश्चय किया। शिवाजी की पत्नी सईबाई ने शिवाजी को यह आत्मघाती कदम उठाने से रोका।

सईबाई ने शिवाजी को समझाया कि पिता और पुत्र यदि दोनों ही आदिलशाह के हाथ लग गए तो वह एक को भी जीवित नहीं छोड़ेगा। इस पर शिवाजी ने मुगल बादशाह शाहजहाँ से सहायता मांगने के लिए अपने वकील के हाथों एक पत्र भिजवाया। शाहजहाँ ने आदिलशाह को लिखा कि वह शाहजी को बंदीगृह से मुक्त करे किंतु आदिलशाह अपनी जिद पर अड़ा रहा।

इस अवधि में शाहजहाँ की तरफ से औरंगजेब दक्खिन के मोर्चे पर नियुक्त था। औरंगजेब ने आदिलशाह पर दबाव बनाया कि वह शाहजी को मुक्त करे। शाहजी का मित्र मुरारपंत, आदिलशाह को समझाने में सफल हुआ कि शिवाजी द्वारा की जा रही कार्यवाहियों में शाहजी का हाथ नहीं है।

शिवाजी ने बीजापुर के शाह को प्रस्ताव भिजवाया कि यदि शाहजी को मुक्त कर दिया जाए तो वह सिंहगढ़ (पुराना नाम कोंडाणा दुर्ग) बीजापुर को समपर्पित कर देगा। अंततः चार साल तक बंदीगृह में रहने के बाद 16 मई 1649 को शाहजी को बंदीगृह से मुक्ति मिली। चार साल की अवधि में कनार्टक में व्यवस्थाएं बिगड़ने लगी थीं। इसलिए आदिलशाह ने शाहजी को उसका पुराना पद और कर्नाटक की जागीर लौटा दी एवं जागीर का प्रबन्ध करने भेज दिया।

शाहजहाँ का शाहजी एवं शिवाजी को निमंत्रण

शाहजी किसी समय मुगलों की सेवा में भर्ती हुआ था किंतु उसने मुगलों को छोड़कर अहमदनगर की तथा अहमदनगर राज्य के समाप्त होने पर बीजापुर राज्य की नौकरी की। बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी को चार साल तक बंदीगृह में रखा। इसलिए 14 अगस्त 1649 को शाहजहाँ के पुत्र मुराद ने शाहजी एवं शिवाजी को पत्र लिखकर मुगलों की सेवा के लिए आमंत्रित किया ताकि शाहजी और शिवाजी मिलकर मुगलों के लिए बीजापुर राज्य का नाश कर सकें।

शिवाजी को लिखे गए पत्र का मजमून इस प्रकार से था– ‘‘हमारी कभी न खत्म होने वाली शाही मेहरबानियों से निहाल हों और समझें कि अत्यंत मेहरबानी के साथ आपके पिता के अपराधों पर हमने अपनी कलम से माफी की लकीर खींची है और वफादारी और निष्ठा के लिए कृपा और क्षमा के द्वार खोल दिए गए हैं। यही समय है कि आप अपने पिता और अन्य कुलजनों के साथ बादशाह की चौखट पर सलाम करने के लिए हमारे सामने हाजिर हों, ताकि वो खुशी हासिल करने के लिए आपको 5 हजार सवारों के साथ पांच हजारी जात की मनसब और बाकी मुनासिब इनामात देकर आपके साथियों से ऊंचा उठाया जा सके और शाही सेवा में आपके पिता के पुराने मनसब बहाल किए जा सकें।”

शिवाजी ने बीजापुर को अपने पिता की मुक्ति के एवज में सिंहगढ़ समर्पित किया था। इसलिए शाहजी या शिवाजी पर मुगलों का कोई अहसान नहीं था। अतः शिवाजी और शाहजी ने मुराद के पत्रों का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया।

मुगलों से दूरी

उत्तर भारत के मुगलों एवं दक्षिण भारत के शिया मुसलमानों की राजनीति के बीच शिवाजी सम्भल कर चल रहा था। वह दोनों को अपना शत्रु मानता था और नित्य नवीन क्षेत्र अपने राज्य में सम्मिलित कर रहा था। जीत के उत्साह में उसने कभी आपा नहीं खोया। वह जानता था कि एक बार में एक ही शत्रु से बैर मोल लेना चाहिए। इसलिए उसने अब तक जितनी कार्यवाहियां की थीं, बीजापुर राज्य के क्षेत्र में की थीं।

बीजापुर के शाह से उसे इसलिए घृणा थी क्योंकि उसने विजयनगर साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर उत्पन्न हुए छोटे-छोटे हिन्दू राज्यों एवं उनकी प्रजाओं पर भयानक अत्याचार किए थे तथा शाहजी को अकारण चार साल तक बंदीगृह में रखा था। ई.1653 में शाहजहाँ ने औरंगजेब को दक्षिण का सूबेदार बनाया।

औरंगजेब अच्छी तरह समझता था कि यदि दक्खिन में शांति से रहना है तो शिवाजी से अच्छे सम्बन्ध बनाकर रखने होंगे। उसने शिवाजी को पत्र लिखकर मिलने के लिए बुलाया किंतु शिवाजी ने अपनी व्यस्तताओं का हवाला देकर औरंगजेब से भेंट नहीं की।

जावली पर अधिकार

शिवाजी की बढ़ती हुई कार्यवाहियाँ, बीजापुर के शाह की बर्दाश्त से बाहर होती जा रही थीं। एक दिन आदिलशाह ने अपने सेनापति श्यामराज को आदेश दिया कि वह या तो शिवाजी का वध करे या पकड़कर लाए। श्यामराज अपनी विशाल सेना लेकर शिवाजी को खोजता हुआ जावली की ओर आया।

जावली क्षेत्र उन दिनों आदिलशाह के विश्वस्त एवं प्रबल जागीरदार चन्द्रराव मोरे के अधिकार में था। वह भी चाहता था कि शिवाजी की गतिविधियों पर विराम लगे। अतः उसने श्यामराज के साथ सहयोग किया। शिवाजी के गुप्तचर इन दोनों जागीरदारों की कार्यवाहियों की सूचना निरंतर शिवाजी तक पहुंचा रहे थे।

इसलिए शिवाजी भी पूरी तैयारी कर रहा था। श्यामराज अपने साथ एक विशाल सेना लेकर, शिवाजी के डेरों के आसपास के जंगल में जा छिपा। उसकी योजना थी कि जब कभी शिवाजी यहाँ से होकर निकले, उसे घेर कर मार डाला जाए। शिवाजी, श्यामराज द्वारा बिछाए गए मौत के जाल को अच्छी तरह समझ गया तथा उसने इस जाल को अपने हाथों से काटने का निर्णय लिया।

एक रात जब श्यामराज की सेना गहरी निद्रा में सो रही थी, शिवाजी अपनी सेना लेकर श्यामराज के शिविर पर टूट पड़ा। अचानक हुए इस धावे के लिए श्यामराज तैयार नहीं था। उसके अधिकांश सैनिक या तो मारे गए या प्राण बचाकर जंगलों में भाग गए। श्यामराज भी सिर पर पैर धरकर भागा। शिवाजी ने शिकारी बनकर आए श्यामराज को उसके ही बनाए हुए मौत के जाल में फांस लिया था।

जावली की जागीर पर अधिकार

जावली का जागीरदार चन्द्रराव मोरे, अपना सम्बन्ध प्राचीन मौर्य वंश से बताता था। शिवाजी चाहता था कि इस हिन्दू राजपरिवार से उसकी मित्रता हो जाए ताकि एक हिन्दू को दूसरे हिन्दू का रक्त न बहाना पड़े। शिवाजी ने इसके लिए प्रयास भी किए किंतु शक्ति के मद में चूर, चन्द्रराव मोरे हर समय शिवाजी की हँसी उड़ाया करता था।

फिर भी शिवाजी ने उसे स्वजातीय हिन्दू जानकर कभी शत्रुता वाली कार्यवाही नहीं की। अब जबकि चन्द्रराव मोरे ने श्यामराज के साथ मिलकर शिवाजी के लिए मौत का जाल बिछाने में सहयोग किया था, शिवाजी ने मोरे को समाप्त करने का निर्णय लिया।

शिवाजी शक्ति का प्रयोग करके भी मोरे से निबट सकता था किंतु शिवाजी ने यह नियम बना रखा था कि शक्ति को बचाकर रखा जाए तथा शत्रु पक्ष के हिन्दू वीरों के प्राण नहीं लिए जाएं। इसलिए शिवाजी ने एक कूटजाल बुना। उसने अपने वेतन अधिकारी रघुनाथ बल्लाल को मोरे के पास एक वैवाहिक प्रस्ताव लेकर भेजा तथा स्वयं सेना सहित जावली के जंगलों में जा छिपा।

26 जनवरी 1656 को रघुनाथ बल्लाल चुने हुए 25 तलवारबाजों को लेकर मोरे के पास जावली गया और वहाँ कुछ औपचारिक वार्तालाप करके कुछ विशेष बातें करने के लिए अगले दिन का समय ले लिया। अगले दिन के वार्तालाप के लिए जावली के महलों में एक अलग कक्ष नियत किया गया।

यहाँ चन्द्रराव मोरे तथा उसके भाई सूर्यराव मोरे के अतिरिक्त और कोई नहीं था। रघुनाथ भी अपने एक सहायक को लेकर मोरे से मिलने पहुंचा। थोड़ी देर के वार्तालाप के पश्चात् रघुनाथ तथा उसके सहायक ने अपने कपड़ों से कटारें निकालकर मोरे बंधुओं का वध कर दिया। मोरे के अंगरक्षक कक्ष के बाहर मौजूद थे किंतु वे निश्चिंत एवं असावधान थे।

इसलिए रघुनाथ और उसका साथी उन्हें भ्रम में डालकर महलों से बाहर निकल आए और सीधे जंगल की ओर भागे। शिवाजी को जैसे ही इसकी सूचना मिली, वह जंगल से निकलकर जावली के महल पर टूट पड़ा। देखते ही देखते जावली की सेना के पांव उखड़ गए और चन्द्रराव मोरे के दो पुत्र बंदी बना लिए गए।

इस प्रकार 27 जनवरी 1656 को जावली दुर्ग पर शिवाजी का अधिकार हो गया। जावली की विजय से शिवाजी को बहुत बड़ा भू-भाग, कोष और राजगढ़ का दुर्ग हाथ लगा जो बाद में शिवाजी की राजधानी बना।

आदिलशाह की मृत्यु

ई.1657 में बीजापुर के शाह आदिलशाह की मृत्यु हो गई। वह दस साल से बीमार चल रहा था तथा शासन व्यवस्था उसके मंत्री एवं सेनापति संभालते थे। आदिलशाह के बाद उसका 18 साल का पुत्र अली आदिलशाह (द्वितीय) बीजापुर का नया सुल्तान हुआ।

औरंगजेब की नाराजगी

जिस समय औरंगजेब अहमदनगर राज्य के किलों को एक-एक करके निगल रहा था, उस समय शिवाजी, बीजापुर राज्य के किलों केे लिए काल बना हुआ था। दोनों अपने-अपने उद्देश्यों में लगे हुए थे किंतु दोनों ही जानते थे कि शीघ्र ही वे एक दूसरे के लिए चुनौती बन जाएंगे।

राजनीति का शातिर खिलाड़ी औरंगजेब इस समय शिवाजी को शांत रखना चाहता था इसलिए उसने 22 अप्रेल 1657 को शिवाजी को एक पत्र भेजा जिसमें उसने अपना बड़प्पन प्रदर्शित करते हुए लिखा-

”वास्तव में बीजापुर के जितने किले और महल पहले से आपके कब्जे में हैं, हम उन्हें आपको स्थायी तौर पर सौंपते हैं। आपकी इच्छा के अनुसार दाभोल के किले और उसके अधीन क्षेत्रों से प्राप्त आय भी हम आपके लिए छोड़ते हैं- आपके बाकी अनुरोध स्वीकार किए जाएंगे ओर आप अपनी कल्पना से कहीं अधिक हमारे अनुग्रह और कृपा के पात्र बनेंगे।”

औरंगजेब का पत्र पाकर शिवाजी चिढ़ गया। उसने औरंगजेब को करारा जवाब देने के लिए मुगलों के अधिकार वाले जुन्नार नगर पर चढ़ाई करके शहर को लूट लिया। इसके बाद शिवाजी ने अहमदनगर पर आक्रमण किया।

औरंगजेब इस कार्यवाही से गुस्से से पागल हो गया। उसने दक्षिण में नियुक्त समस्त मुगल सेनापतियों को लिखित निर्देश भिजवाए- ”शिवाजी के इलाकों में घुस जाओ, तमाम गांव बर्बाद कर दो, बेरहमी से लोगों की हत्या करो ओर उन्हें बुरी तरह लूट लो। शिवाजी की पूना और चाकण की जागीरें पूरी तरह नष्ट कर दी जाएं और लोगों की हत्या और उन्हें गुलाम बनाने में जरा भी ढील न दी जाए।”

औरंगजेब का आदेश जारी होते ही मुगल सेनाएं शिवाजी की जागीरों में घुस गईं और उन्हें बुरी तरह नष्ट करने लगीं। शिवाजी ने यह सारा हाल शाहजहाँ को लिख भेजा तथा अपनी जागीरों में मुगलों के हस्तक्षेप एवं उनके द्वारा किए जा रहे विध्वंस पर नाराजगी जताई।

शाहजहाँ, औरंगजेब द्वारा दक्षिण में दिखाई जा रही अति-सक्रियता से प्रसन्न नहीं था। उसने औरंगजेब को आदेश भिजवाए कि दक्षिण में शांति बनाए रखी जाए तथा बीजापुर रियासत अथवा उसके किसी जागीरदार के विरुद्ध विध्वंस की कार्यवाही नहीं की जाए।

सितम्बर 1657 में शाहजहाँ की बीमारी की सूचना पूरे देश में फैल गई और औरंगजेब का ध्यान मुगलों के तख्त पर कब्जा करने में लग गया। इसका लाभ उठाकर शिवाजी ने 24 अक्टूबर 1657 को कल्याण और भिवण्डी पर अधिकार कर लिया। जनवरी 1658 में उसने माहुली का दुर्ग जीत लिया। इस प्रकार शिवाजी, समुद्र तट से लेकर पर्वतीय प्रदेश तक के पुराने निजामशाही कोंकण का स्वामी बन गया।

कल्याण तथा भिवण्डी को औरंगजेब ने मुगल राज्य में सम्मिलित कर लिया था, शिवाजी की इस कार्यवाही से औरंगजेब ने स्वयं को अत्यधिक अपमानित अनुभव किया किंतु वह मुगलिया राजनीति के ऐसे झंझावात में फंस चुका था कि अगले कई वर्षों तक उसे शिवाजी की तरफ देखने का समय नहीं मिलने वाला था। दक्षिण से आगरा की ओर भागते हुए उसने बीजापुर के शासक अली आलिशाह (द्वितीय) को एक पत्र लिखकर अपनी बौखलाहट व्यक्त की-

”इस देश की रक्षा करो। शिवाजी को, जिसने यहाँ कुछ किलों पर चोरी से कब्जा जमा लिया है, बाहर निकालो। यदि तुम उनकी सेवाएं स्वीकार करना चाहते हो तो उसे कर्नाटक में साम्राज्य के क्षेत्रों से दूर की जागीरें दो, ताकि वह यहाँ की शांति न भंग कर सके।”

-डाॅ. मोहनलाल गुप्ता

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