Friday, March 29, 2024
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अध्याय – 6 – सैन्धव सभ्यता, धर्म एवं समाज (ताम्रकांस्य कालीन सभ्यता एवं संस्कृति) (अ)

सिन्धुघाटी के शहरों में बनी हुई वस्तुएं दजला और फरात के बाजारों में बिकती थीं….. अरब सागर के किनारों से लाई गई मछलियां मोहनजोदड़ो के भोजन में सम्मिलित थीं।  -सर जॉन मार्शल।

सिंधु घाटी सभ्यता, भारत भूमि पर प्रकट होने वाली सर्वप्रथम सुविकसित सभ्यता मानी जाती है। यह तृतीय कांस्य-कालीन सभ्यता थी तथा वैदिक सभ्यता से भी प्राचीन थी। लौह सभ्यताएं अभी भविष्य के गर्भ में थीं, यहाँ तक कि इसके समानांतर रह रही प्राचीन बस्तियां अभी भी नव पाषाणकाल में जी रही थीं तथा उनमें ताम्बे की खोज होनी अभी बाकी थी।

निश्चित रूप से सिंधु घाटी सभ्यता, नवपाषाण कालीन बस्तियों से ही विकसित हुई थी किंतु सिंधु वासियों ने न केवल ताम्बे की अपितु उसके साथ-साथ टिन की खोज में भी सफलता अर्जित कर ली थी जिसके कारण वे मिश्रधातु ‘कांस्य’ अथवा ‘कांसे’ का निर्माण कर पाए थे तथा इस धातु के कारण वे सभ्यता, संस्कृति एवं विज्ञान के मामले में अपनी समकालीन संस्कृतियों से अचानक ही तेजी से आगे निकल गए थे।

चूँकि इस सभ्यता के अधिकांश भग्नावशेष सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियों में उपलब्ध हुए हैं, इसलिए इसे ‘सिन्धु-घाटी सभ्यता’ अथवा ‘सैन्धव सभ्यता’ कहा जाता है। हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो नामक नगरों के आस-पास इस सभ्यता के बड़े केन्द्र प्राप्त होने से इस संस्कृति को ‘हड़प्पा संस्कृति’ एवं मोहेनजोदड़ो संस्कृति के नाम से भी पुकारा जाता है।

आसपास की भूमि से ऊपर उभरे हुए विशाल टीलों में दबी पड़ी इस सभ्यता के उत्खनन का कार्य ई.1920 में हड़प्पा में आरम्भ किया गया। हड़प्पा, अखण्ड भारत के पंजाब प्रांत के पश्चिमी हिस्से में स्थित ‘माण्टगोमरी’ जिले में स्थित था। लाहौर से लगभग 100 मील दक्षिण-पश्चिम में रावी नदी के तट पर हड़प्पा सभ्यता के टीले विद्यमान थे।

इन टीलों का उत्खनन कार्य करवाने वालों में दयाराम साहनी तथा माधोस्वरूप वत्स अग्रणी थे। ई.1922 में राखालदास बनर्जी के नेतृत्व में सिन्ध प्राप्त के लरकाना जिले में खुदाई का काम हुआ, जिसके फलस्वरूप ‘मोहेनजोदड़ो’ नामक स्थान पर एक सैन्धव नगर के अवशेष उपलब्ध हुए।

यद्यपि इन दोनों स्थानों के बीच लगभग 680 किलोमीटर की दूरी है तथापि दोनों स्थानों की खुदाई में प्राप्त अवशेषों में अद्भुत साम्यता थी। दोनों केन्द्रों से प्राप्त सामग्री के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर सर जॉन मार्शल ने सिद्ध किया कि ये अवशेष एक ही पूर्वेतिहासिक सभ्यता से सम्बद्ध हैं।

अर्नेस्ट मैके, एन. जी. मजूमदार, सर ऑरेल स्टीन, एच. हारग्रीव्ज, पिगट, मोरटीमर व्हीलर, रंगनाथराव, एच. डी. सांकलिया, बी. बी. लाल, बी. के. थापर आदि पुरातत्त्वेताओं ने खोज और खनन के कार्य को आगे बढ़ाया जिससे यह पता चला कि यह प्राचीन सभ्यता केवल सिन्धु घाटी तक ही सीमित नहीं थी। सिंधु की सहायक नदियों के किनारों से भी इस काल की सभ्यता के अवशेष बड़ी संख्या में प्राप्त हुए।

सिंधु सभ्यता का विस्तार क्षेत्र

इस सभ्यता का विस्तार अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान के बलोचिस्तान, सिन्ध एवं पंजाब, भारत के गंगा घाटी, पश्चिमी राजस्थान एवं गुजरात तक था। पाकिस्तान में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो इस सभ्यता के दो प्रमुख केन्द्र थे। अफगानिस्तान में क्वेटा, कीली, गुलमुहम्मद, मुण्डिगक नदी के किनारे-किनारे तथा डम्बसदात में भी सिन्धु सभ्यता के प्राचीनतम अवशेष मिले हैं। बलोचिस्तान के उत्तर-पूर्व में लोरलाय घाटी तथा जोब नदी की घाटी में भी इस सभ्यता के कई स्थल मिले हैं।

मान्यता है कि दक्षिणी बलोचिस्तान की ‘कुल्ली सभ्यता’ सिन्धु सभ्यता का ही प्रारम्भिक रूप रही होगी। उत्तरी राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित कालीबंगा से मिले अवशेषों का निचला स्तर सिन्धु सभ्यता से भी पहले का है जबकि ऊपरी स्तर सिन्धु सभ्यता से सम्बन्धित है। पंजाब में रोपड़ तथा गुजरात में लोथल और रंगपुर नामक स्थानों से प्राप्त अवशेष भी सिन्धु सभ्यता के समकालीन प्रमाणित होते हैं। इस प्रकार अखण्ड भारत में सैन्धव सभ्यता का विस्तार पश्चिम में अरब सागर के तट पर स्थित सुत्कांगाडोर से लेकर पूर्व में आलमगीरपुर एवं विलुप्त सरस्वती नदी के किनारे तथा उत्तर में शिमला की पहाड़ियों की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्बदा और ताप्ती नदियों के मध्य भगवार तक था।

रंगनाथराव ने इस सभ्यता का विस्तार पूर्व से पश्चिम में लगभग 1600 किलोमीटर और उत्तर से दक्षिण में लगभग 1100 किलोमीटर माना है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र एक त्रिभुज के आकार का है और लगभग 12,99,600 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है। यह क्षेत्र आज के पाकिस्तान से तो बड़ा है ही, साथ ही प्राचीन मिस्र और मेसीपोटामिया से भी बड़ा था। ई.पू.3000 एवं ई.पू.2000 में संसार का कोई भी अन्य सांस्कृतिक क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति के क्षेत्र से बड़ा नहीं था।

हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख स्थल

हड़प्पा संस्कृति के अब तक 1400 से अधिक स्थलों का पता लग चुका है। इनमें से अधिकांश स्थल सरस्वती नदी घाटी क्षेत्र में थे। अब तक ज्ञात स्थलों में से केवल छः स्थलों को ही नगर माना जाता है। इन नगरों में दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नगर थे- पंजाब में हड़प्पा और सिन्ध में मोहेनजोदड़ो। सिन्धु नदी इन्हें एक दूसरे से जोड़ती थी। तीसरा नगर सिन्ध प्रांत में चहुन्दड़ो था जो मोहेनजोदड़ो से लगभग 130 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। चौथा नगर गुजरात में खम्भात की खाड़ी के ऊपर लोथल नामक स्थान पर है।

पांचवा नगर उत्तरी राजस्थान में कालीबंगा नामक स्थान पर तथा छठा नगर हरियाणा के हिसार जिले में बनवाली नामक स्थल पर है। बनवाली में भी कालीबंगा की तरह दो सांस्कृतिक अवस्थाओं- हड़प्पा पूर्व सभ्यता और हड़प्पा-कालीन सभ्यता के दर्शन होते हैं। बिना पकी ईटों के चबूतरों, सड़कों और मोरियों के अवशेष हड़प्पा-पूर्व युग के हैं। इन समस्त स्थलों पर उन्नत और समृद्ध हड़प्पा संस्कृति के दर्शन होते हैं। सुत्कांगाडोर और सुरकोटड़ा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस संस्कृति के उन्नत रूप के दर्शन होते हैं जहाँ नगर दुर्ग स्थित हैं।

गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी एवं कच्छ क्षेत्र में धौलावीरा नामक स्थलों पर इस संस्कृति की उत्तरावस्था के दर्शन होते हैं। हरियाणा में राखीगढ़ी तथा कुणाल एवं उत्तर प्रदेश में हिण्डन नदी के किनारे आलमगीरपुर में भी इस संस्कृति के दर्शन होते हैं।

सैन्धव सभ्यता का काल

सिन्धु-घाटी की सभ्यता कितनी पुरानी है, इसका ठीक-ठीक निश्चय नहीं हो पाया है। बुलीहॉल, गार्डन चाइल्ड, बेक आदि विद्वान विश्व की नदी घाटी सभ्यताओं में सिन्धु सभ्यता को सबसे प्राचीन एवं प्रारम्भिक मानते हैं। कुछ विद्वानों ने इसे ईसा से 5,000 वर्ष पूर्व, कुछ ने 4,000 वर्ष पूर्व, कुछ ने 3,000 वर्ष पूर्व और कुछ ने केवल 2,500 वर्ष पूर्व की बताया है।

 डॉ. राधकुमुद मुकर्जी ने इसे विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता बताते हुए लिखा है– ‘सिन्धु-घाटी की सभ्यता का न तो मेसोपोटामिया की सभ्यता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है और न वह उसकी ऋणी है।’

जॉन मार्शल और डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी का मत है कि सिन्धु सभ्यता का प्रारम्भ ई.पू.3250 से भी बहुत पहले हुआ होगा। प्रो. के. एन. शास्त्री और डॉ. राजबली पाण्डेय इसे ई.पू. 4000 साल पुरानी सभ्यता मानते हैं। अब यह धारणा दृढ़ होती जा रही है कि सिन्धु-सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है। डी. पी. अग्रवाल ने रेडियो कार्बन पद्धति के आधार पर इसका समय 2300 ई.पू. से 1750 ई.पू. तक बताया है।

डॉ पाण्डेय का मत है कि- ‘सिंधु सभ्यता की खुदाई में जल के धरातल तक प्राचीन नगरों के खण्डहरों के एक के उपर एक, सात स्तर मिले हैं। यदि एक नगर के बसने, पनपने और उजड़ने के लिए 500 साल का समय दिया जाए तो सात नगरों के बसने, विकसित होने और उजड़ने में लगभग 3500 साल लगे होंगे। सबसे नीचे का स्तर भी सभ्य नगर का अवशेष है, जिसके पूर्व सभ्यता विकसित हो चुकी थी और यदि भू-गर्भ का पानी बीच में बाधा न डालता तो सातवें स्तर के नीचे भी खण्डहरों के स्तर मिल सकते हैं। इस प्रकार सिन्धु सभ्यता कम से कम ईसा पूर्व चार हजार वर्ष की है।’

बलोचिस्तान एवं मकरान में मिली पुरातत्विक वस्तुओं के आधार पर भी यह माना जाता है कि सिन्धु सभ्यता का प्रारम्भ ईसा से 4000 साल पूर्व क्वेटा, अमरी, नाल, कुली, झोव आदि स्थानों पर छोटी बस्तियों के रूप में हो गया था। डॉ. राधाकृष्णन की मान्यता है कि सिन्धु सभ्यता ई.पू.3500 से ई.पू.2250 के मध्य अपने चरम पर थी। सर मोरटीमर व्हीलर इस सभ्यता को ई.पू.2500 से ई.पू.1500 के मध्य की मानते हैं। डॉ. फ्रेंकफर्ट ने इसका काल ई.पू.2800 का माना है।

डॉ. फबरी ने इसका समय ई.पू.2800-2500 माना है। नवीनतम खोजों के आधार पर डॉ. अर्नेस्ट मैके ने भी डॉ. फबरी के मत की पुष्टि की है। ‘कार्बन-14 परीक्षण प्रणाली’ के अनुसार सिन्धु सभ्यता का काल एक विवादास्पद प्रश्न है परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि ई.पू.3000 में भारत-भूमि पर सिन्धु सभ्यता के रूप में स्वतंत्र एवं समृद्ध सभ्यता विकसित हो चुकी थी और यह सभ्यता मेसोपोटामिया तथा सुमेरियाई सभ्यताओं से किसी भी प्रकार कम उन्नत नहीं थी।

डॉ. फ्रैंकफर्ट ने लिखा है- ‘यह बिना किसी सन्देह के निर्धारित हो चुका है कि भारत ने एक ऐसी संस्कृति के निर्माण में अपनी भूमिका अदा की जिसने यूनानियों के पहले इस विश्व को सभ्य बनाया।’

हड़प्पा सभ्यता के तीन स्तर

हड़प्पा सभ्यता के तीन स्तर पाए गए हैं- (1.) प्रारंभिक काल (ई.पू.3500 से ई.पू.2800 ई.पू.), (2.) मध्य-काल या चरमोत्कर्ष काल ( ई.पू.2800 से ई.पू.2200) तथा (3.) अवनति काल ( ई.पू.2200 से ई.पू.1500)

कांस्य कालीन सभ्यता

सैन्धव सभ्यता प्रधानतः कांस्य कालीन सभ्यता थी तथा उस काल के तृतीय चरण की सभ्यता है। इसका गम्भीरता पूर्वक अध्ययन करने पर इसमें कांस्य-काल की चरमोन्नति दिखाई देती है। कांस्य कालीन सभ्यता कालक्रम के अनुसार ताम्र कालीन सभ्यता के बाद की तथा लौह कालीन सभ्यता के पूर्व की ठहरती है।

समकालीन सभ्यताओं से सम्पर्क

हड़प्पा सभ्यता का तत्कालीन अन्य सभ्यताओं से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा। ये लोग पहिए वाली बैलगाड़ियों एवं जल-नौकाओं का उपयोग करते थे। अरब सागर में तट के पास उनकी नौकाएं चलती थीं। बैलगाड़ियों के पहिए ठोस होते थे। हड़प्पा संस्कृति के लोग आधुनिक इक्के जैसे वाहन का भी उपयोग करते थे। इस कारण अन्य स्थानों के लिए इनका आवागमन एवं परिवहन पहले की सभ्यताओं की तुलना में अधिक सुगम था।

हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो की खुदाइयों में बहुत सी ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जो सिन्धु घाटी में नहीं होती थीं। ये वस्तुएँ बाहर से मंगाई जाती होंगी और उन देशों से हड़प्पावासियों के व्यापारिक सम्बन्ध रहे होंगे। सोना, चांदी, ताम्बा आदि धातुएं सिन्धु-प्रदेश में नहीं मिलती थीं। इन धातुओं को ये लोग अफगानिस्तान तथा ईरान से प्राप्त करते होंगे। हड़प्पावासी ताम्बा राजस्थान से, सीपी और शंख काठियावाड़ से तथा देवदारु की लकड़ी हिमालय पर्वत से प्राप्त करते होंगे।

अनुमान है कि हड़प्पा संस्कृति के राजस्थान, अफगानिस्तान और ईरान की अन्य मानव बस्तियों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे। हड़प्पा संस्कृति के लोगों के, दजला तथा फरात प्रदेश के नगरों के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध थे। सिन्धु सभ्यता की कुछ मुहरें मेसोपोटामिया के नगरों से मिली हैं। अनुमान होता है कि मेसोपोटामिया के नगर-निवासियों द्वारा प्रयुक्त कुछ शृंगार साधनों को हड़प्पावासियों ने अपनाया था। लगभग ई.पू.2350 से आगे के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मैलुह्ह के साथ व्यापारिक सम्बन्ध होने के उल्लेख मिलते हैं। यह सम्भवतः सिन्धु प्रदेश का प्राचीन नाम था।

सभ्यता के निर्माता

यह प्रश्न आज भी नहीं सुलझ पाया है कि सिन्धु सभ्यता के निर्माता कौन थे! सिन्धु सभ्यता के विभिन्न केन्द्रों की खुदाई में प्राप्त नर-कंकालों की शारीरिक बनावट के विश्लेषण के आधार पर मानवशास्त्र वेत्ताओं ने सिन्धु सभ्यता का विकास करने वालों लोगों को चार नस्लों- (1.) आदिम आग्नेय, (2.) मंगोलियन, (3.) भूमध्यसागरीय तथा (4.) अल्पाइन से सम्बन्धित बताया है।

इनमें से भूमध्यसागरीय जाति के लोगों की खोपड़ियां सर्वाधिक संख्या में मिली हैं जबकि मंगोलियन तथा अल्पाइन नस्ल के लोगों की केवल एक-एक खोपड़ी मिली है। अतः जब तक सिन्धु सभ्यता के स्थलों से प्राप्त मोहरों पर अंकित लिपि को पढ़ नहीं लिया जाता तब तक यह कहना कठिन होगा कि इस सभ्यता के निर्माता किस जाति या नस्ल के थे? सैन्धव सभ्यता के निर्माताओं के सम्बन्ध में विद्वानों में विभिन्न मान्यताएँ प्रचलित हैं-

(1.) सैन्धव सभ्यता के निवासी मिश्रित नस्ल के थे- सिंधु सभ्यता से मिली चार नस्लों की खोपड़ियों के आधार पर कर्नल स्युअल और डॉ गुह्बा की मान्यता है कि सिन्धु सभ्यता का निर्माण किसी एक नस्ल अथवा जाति के लोगों ने नहीं किया। सिन्धु सभ्यता नागरिक सभ्यता थी। इसके मुख्य नगर व्यापार तथा वाणिज्य के प्रमुख केन्द्र बने हुए थे। अतः आजीविका की तलाश में अनेक प्रजातियों के लोग यहाँ आकर बस गए थे।

(2.) सैन्धव सभ्यता के निवासी द्रविड़़ थे- सर जॉन मार्शल तथा प्रो. रामलखन बनर्जी आदि कुछ विद्वानों ने माना है कि चूँकि खुदाई में प्राप्त नर-कंकालों में भूमध्यसागरीय नस्ल की प्रधानता है, अतः इस सभ्यता के निर्माण का श्रेय द्रविड़़ों को दिया जाना चाहिए। द्रविड़ लोग भूमध्यसागरीय नस्ल की ही एक शाखा थे। कुछ विद्वान बलोचिस्तान आदि भागों में बोली जाने वाली ‘ब्राहुई’ भाषा तथा द्रविड़ों की भाषा में समानता के कारण भी द्रविड़ों को इस सभ्यता का निर्माता मानते हैं। दक्षिण भारत के द्रविड़ों के मिट्टी तथा पत्थर के बर्तन और आभूषण सिन्धु-घाटी के लोगों के बर्तन तथा आभूषणों से मिलते-जुलते हैं।

(3.) सैन्धव सभ्यता के निवासी सुमेरियन थे- प्रोफेसर चाइल्ड ने सुमेरियन लोगों को इस सभ्यता का निर्माता माना है। डॉ. हाल ने भी उनके मत की पुष्टि की है। पिगट के अनुसार इस सभ्यता का मूल पूर्णतः भारतीय था परन्तु वे इस पर सुमेरियन प्रभाव को भी स्वीकार करते हैं।

(4.) सैन्धव सभ्यता के निवासी आर्य थे- लक्ष्मण स्वरूप, रामचंद्र, शंखरानन्द, दीक्षितार तथा डॉ. पुसालकर के अनुसार सैन्धव सभ्यता के निर्माता या तो आर्य थे अथवा आर्यों ने इस सभ्यता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। डॉ. पुसालकर के शब्दों में- ‘यह आर्य और अनार्य सभ्यताओं के मिश्रण का प्रतिनिधित्व करती है। अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि सम्भवतः ऋग्वैदिक आर्य वहाँ की जनता का एक महत्त्वपूर्ण भाग थे और उन्होंने भी सिन्धु घाटी की सभ्यता के विकास में अपना योग दिया।’

(5.) सैन्धव निवासी असुर थे- एक विद्वान के विचार में सिन्धु-सभ्यता के निर्माता वही असुर थे जिसका वर्णन वेदों में मिलता है।

निष्कर्ष

सैन्धव सभ्यता की खुदाई में विभिन्न जातियों से सम्बद्ध मानवों की हड्डियाँ मिली हैं अतः यह मानना उचित होगा कि सिन्धु-घाटी के निर्माता मिश्रित जाति के थे तथापि सैन्धव समाज में द्रविड़ जाति की प्रधानता थी। सैन्धव सभ्यता के निर्माता जो भी रहे होंगे किंतु उनकी कुछ बातें उन्हें अपनी समकालीन मानव सभ्यताओं से बिल्कुल अलग करती हैं।

सैन्धव सभ्यता के लोग अपने भवनों का निर्माण पक्की ईंटों से करते थे जबकि सुमेरियन सभ्यता के लोग कच्ची ईंटों के मकान बनाते थे। सिंधु सभ्यता के स्थलों से न तो सुमेरियन शहरों की तरह मन्दिर मिले हैं और न मिस्र के नगरों जैसे महल या मकबरे। सिंधु सभ्यता में लिंगपूजा, योनिपूजा, पीपल पूजा, बड़े कूबड़ एवं विशाल सींगों वाले बैलों का महत्त्व, स्नान-ध्यान का महत्त्व और सफाई का महत्त्व आदि ऐसे प्रमाण मिले हैं जो अन्य समकालीन अथवा पूर्ववर्ती सभ्यताओं से प्राप्त नहीं हुए हैं।

सैन्धव सभ्यता के स्थलों से प्राप्त पुरुष प्रतिमाओं के केशविन्यास, मुद्राएं, बाट, खिलौने, मृण्मूर्तियाँ आदि वस्तुएं सैंधव संस्कृति को अन्य पूर्ववर्ती अथवा समकालीन सभ्यताओं से पूरी तरह अलग करती हैं।

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