Friday, October 10, 2025
spot_img

रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण परमहंस का जन्म ई.1836 में बंगाल के हुगली जिले में निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ने भारतीयों के समक्ष धर्म के सच्चे स्वरूप को प्रदर्शित किया। रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। उन उन्हें बचपन से ही शिक्षा के प्रति रुचि नहीं थी। वे हर समय धार्मिक चिंतन में मग्न रहते थे। जब वे 17 वर्ष के थे, उनके पिता का देहान्त हो गया।

इस पर गदाधर अपने बड़े भाई के साथ कलकत्ता आ गये। अपने भाई की मृत्यु के बाद 21 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर में कालीदेवी के मन्दिर में पुजारी बन गये। वे देवी को माँ कहकर पुकारते थे और उसके समक्ष शिशु की तरह व्यवहार करते थे। 24 वर्ष की आयु में उनका विवाह शारदामणि नामक 5 वर्ष की कन्या के साथ कर दिया गया। विवाह के पश्चात् रामकृष्ण पुनः दक्षिणेश्वर मन्दिर आ गये।

दक्षिणेश्वर मंदिर में उन्होंने 12 वर्ष तक विभिन्न प्रकार की साधनाएँ कीं। उन्होंने भैरवी नामक एक ब्राह्मण सन्यासिन से दो वर्ष तक तान्त्रिक साधना सीखी। उसके बाद उन्होंने वैष्णव धर्म की साधना की। वैष्णव धर्म की साधना करते हुए उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन किये। तोतापुरी नामक एक महान् वेदान्तिक साधु ने उन्हें वेदान्त-साधना सिखाई। उसके पश्चात् रामकृष्ण ने सूफी धर्म तथा ईसाई धर्म का ज्ञान प्राप्त किया।

ई.1876 के बाद रामकृष्ण की आत्मा को सन्तोष प्राप्त हुआ। उन्होंने अपनी साधना द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म तथा ज्ञान, विद्या का विषय नहीं है, अपितु अनुभूति का विषय है। शारदामणि जीवनपर्यन्त दक्षिणेश्वर में अपने पति के साथ रहीं किन्तु रामकृष्ण ने उन्हें कभी पत्नी के रूप में नहीं देखा।

वे शारदामणि को माँ कहते थे। उनकी संवेदना का स्तर इतना गहरा था कि एक बार उन्होंने गाय की पीठ पर लाठी पड़ती हुई देख ली, इस लाठी का चिह्न उनकी पीठ पर भी उभर आया।

रामकृष्ण परमहंस राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानन्द के समान बहुपठित विद्वान नहीं थे, अपितु उच्चकोटि के साधक एवं सन्त थे। दूर-दूर से लोग उनके दर्शनों को आते थे। अनेक शिक्षित नवयुवक भी उनकी तरफ आकर्षित हुए। रामकृष्ण, अपने दर्शनों के लिये आने वाले व्यक्तियों को आध्यात्मिक उपदेश देते रहते थे।

ब्रह्मसमाजी आचार्य पी. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘रामकृष्ण के दर्शन होने से पूर्व यह कोई नहीं जानता था कि धर्म कैसा होता है। सब आडम्बर ही था। धार्मिक जीवन कैसा होता है, यह बात रामकृष्ण की संगति का लाभ होने पर जान पड़ी।’ 16 अगस्त 1886 को क्षय रोग से रामकृष्ण का निधन हुआ। उन्होंने कोई सम्प्रदाय या आश्रम स्थापित नहीं किया।

 वे भारत की परम्परागत संत परम्परा के संत थे तथा धर्म के गहन तत्त्वों को सरल शब्दों में उदाहरण सहित समझाते थे। रामकृष्ण को कुछ विद्वानों ने धर्म का जीता-जागता स्वरूप बताया है। स्वामी दयानन्द ने हिन्दू-धर्म के बौद्धिक अंग की श्रेष्ठता को सिद्ध किया था।

रामकृष्ण हिन्दू-धर्म के वास्तविक प्रतिनिधि थे। वे ईश्वर के निराकार तथा साकार दोनों रूपों को मानते थे। वे मूर्ति-पूजा के विरोधी नहीं थे। वे एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद में भेद नहीं मानते थे। वे वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण और महाभारत पवित्र आध्यात्मिक ग्रन्थ मानते थे।

रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएँ

उच्च कोटि के विद्वान् न होते हुए भी रामकृष्ण ने वेदान्त के सत्यों की बड़े ही सुन्दर ढंग से व्याख्या की। उनकी शिक्षाओं का सार इस प्रकार से है-

(1.) मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य ईश्वर से साक्षात्कार करना है। हम अपने उच्च आध्यात्मिक जीवन का विकास करके ईश्वर के दर्शन कर सकते हैं।

(2.) गृहस्थ जीवन ईश्वर की प्राप्ति में बाधक नहीं है। ईश्वर-प्राप्ति के लिए विषय-वासनाओं को त्यागकर तथा मन को कंचन और कामिनी से हटाकर ईश्वर में लगाना होगा। इस प्रकार गृहस्थ भी आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं।

(3.) शरीर और आत्मा, दो भिन्न वस्तुएँ हैं। इस सिद्धान्त को समझाते हुए उन्होंने कहा- ‘कामिनी-कंचन की आसक्ति यदि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाए तो शरीर अलग है और आत्मा अलग है, यह स्पष्ट दिखाई देने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे खोपरा और नरेटी दोनों अलग-अलग दिखाई देने लगते हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा के बारे में जानना चाहिए।’

(4.) तर्क व्यर्थ है, ईश्वर शास्त्रार्थ की शक्ति से परे है, जो कुछ है वह ईश्वरमय है, फिर तर्कों से क्या लाभ!

(5.) वे मूर्ति-पूजा के समर्थक थे। उनका मानना था कि जैसे वकील को देखते ही अदालत याद आती है, उसी तरह प्रतिमा पर ध्यान जाते ही ईश्वर की याद आती है।

(6.) रामकृष्ण अनुभूति को तर्क, वाद-विवाद, प्रवचन और भाषण से अधिक महत्त्व देते थे। उनका कहना था कि अनुभूति से ही परमतत्त्व का दर्शन सम्भव है। इस दर्शन के बाद मनुष्य की अभिलाषाएं समाप्त हो जाती हैं।

(7.) रामकृष्ण मनुष्यों में कोई भेद नहीं मानते थे। उनका कहना था कि मनुष्य, तकिये के गिलाफ के समान है। गिलाफ जैसे भिन्न-भिन्न रंग और आकार के होते हैं वैसे ही मनुष्य भी कोई सुन्दर, कोई कुरूप, कोई साधु और कोई दुष्ट होता है, बस इतना ही अंतर है। पर जैसे समस्त गिलाफों में एक ही पदार्थ- कपास भरा रहता है, उसी के अनुसार समस्त मनुष्यों में वही एक सच्चिदानन्द भरा हुआ है।

(8.) रामकृष्ण परमहंस विद्वता और पांडित्य के साथ, मनुष्य में शील और सदाचार चाहते थे। उनका कहना था कि विद्वान् कभी भी अहंकार नहीं दिखाता। जिस प्रकार आलू सिक जाने पर नर्म हो जाता है, उसी प्रकार विद्वता के साथ अंहकार समाप्त हो जाता है।

(9.) रामकृष्ण की मान्यता थी कि समस्त धर्म एक ही ईश्वर तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं। एक बार एक व्यक्ति ने पूछा- ‘जब सत्य एक है तो फिर धर्म अनेक क्यों हैं?’

रामकृष्ण ने उत्तर दिया- ‘ईश्वर एक है किन्तु उसके विभिन्न स्वरूप हैं, जैसे-एक घर का मालिक, एक के लिए पिता, दूसरे के लिए भाई और तीसरे के लिए पति है और वह विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, उसी प्रकार ईश्वर भी विभिन्न कालों व देशों में भिन्न-भिन्न नामों एवं भावों से पूजा जाता है। इसलिए धर्मों की अनेकता देखने को मिलती है।’

रामकृष्ण परमंहस की देन

रामकृष्ण परमहंस की विश्व को तीन देन सबसे बड़ी देन इस प्रकार हैं-

(1.) आध्यात्मिक सरलता

उनकी सबसे बड़ी देन आध्यात्मिक सरलता है। वे सरल उपदेशों और जीवंत उदाहरणों से वेदों और उपनिषदों के जटिल ज्ञान को जन-साधारण के निकट ले आए। रामकृष्ण ने अपनी शिक्षाओं द्वारा हिन्दू-धर्म के ग्रन्थों को सरल बनाया तथा हिन्दुओं में अपने प्राचीन ज्ञान के प्रति श्रद्धा और विश्वास भी उत्पन्न किया। वे हिन्दू-धर्म के अध्यात्मवाद के जीवित स्वरूप थे।

(2.) समस्त धर्मों की एकता में विश्वास

रामकृष्ण की दूसरी महत्त्वपूर्ण देन समस्त धर्मों की एकता में विश्वास उत्पन्न करना है। उन्होंने अपने उपदेशों तथा अपने जीवन में विभिन्न धर्मों की साधना करके स्पष्ट किया कि समस्त धर्म ईश्वर-प्राप्ति के विभिन्न मार्ग हैं।

(3.) मानव मात्र की सेवा

उन्होंने मानव मात्र की सेवा और भलाई को धर्म बताया। उनका कहना था कि प्रत्येक प्राणी भगवान् का रूप है; अतः उसकी सेवा करना भगवान् की सेवा करना है। उनके शिष्य विवेकानन्द ने इसी भाव को ग्रहण कर दरिद्रनारायण की सेवा करने में स्वयं को समर्पित कर दिया।

ई.1886 में रामकृष्ण परमहंस का निधन हुआ।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

मुख्य लेख : उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी के समाज-सुधार आंदोलन

भारतीय पुनर्जागरण

राजा राममोहन राय और उनका ब्रह्मसमाज

युवा बंगाल आन्दोलन

केशवचन्द्र सेन का भारतीय ब्रह्मसमाज

आत्माराम पाण्डुरंग और प्रार्थना समाज

स्वामी श्रद्धानंद का शुद्धि आंदोलन

रामकृष्ण परमहंस

स्वामी विवेकानन्द

थियोसॉफिकल सोसायटी

विभिन्न सम्प्रदायों में सुधार आंदोलन

समाजसुधार आंदोलनों का मूल्यांकन

Related Articles

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source